Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 2 समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग Important Questions and Answers.
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बहुविकल्पात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
व्यक्ति के साथ आरम्भ होने वाली संकल्पना है
(अ) प्रस्थिति और भूमिका
(ब) सामाजिक स्तरीकरण
(स) सामाजिक नियंत्रण
(द) सामाजिक परिवर्तन
उत्तर:
(अ) प्रस्थिति और भूमिका
प्रश्न 2.
जो संकल्पना समाजशास्त्रियों की समाज के समूहों के मध्य की संरचनात्मक असमानताओं को समझने के सरोकारों को प्रतिबिंबित करती है, वह है -
(अ) प्राथमिक समूह
(ब) द्वितीयक समूह
(स) सामाजिक स्तरीकरण
(द) सामाजिक नियंत्रण
उत्तर:
(स) सामाजिक स्तरीकरण
प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौनसा लक्षण प्राथमिक समूह का नहीं है?
(अ) आमने-सामने का घनिष्ठ सम्बन्ध
(ब) सदस्यों के सम्पूर्ण जीवन में हस्तक्षेप
(स) सदस्यों में आत्मीयता
(द) विशिष्ट उद्देश्य
उत्तर:
(द) विशिष्ट उद्देश्य
प्रश्न 4.
निम्न में से कौनसा अर्द्ध-समूह का उदाहरण नहीं है
(अ) भीड
(ब) परिवार
(स) प्रस्थिति समूह
(द) आयु एवं लिंग समूह
उत्तर:
(ब) परिवार
प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौनसा प्राथमिक समूह का उदाहरण है
(अ) विद्यालय
(ब) अस्पताल
(स) मित्र-मण्डली
(द) छात्र-संघ
उत्तर:
(स) मित्र-मण्डली
प्रश्न 6.
द्वितीयक समूह का उदाहरण है
(अ) परिवार
(ब) ग्राम
(स) मित्र-मण्डली
(द) सरकारी कार्यालय
उत्तर:
(द) सरकारी कार्यालय
प्रश्न 7.
अन्त:समूह और बाह्य समूह की अवधारणा के जनक हैं
(अ) विलियम ग्राहम समनर
(ब) एम.एन. श्रीनिवास
(स) रॉबर्ट रेडफील्ड
(द) चार्ल्स कूले
उत्तर:
(अ) विलियम ग्राहम समनर
प्रश्न 8.
सर्वप्रथम संदर्भ समूह का प्रयोग किया है
(अ) न्यूकाब
(ब) रॉबर्ट के. मर्टन
(स) स्टाउफर
(द) किंग्सले डेविस
उत्तर:
(स) स्टाउफर
प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौनसा प्रदत्त प्रस्थिति का आधार नहीं है?
(अ) शिक्षा
(ब) लिंग
(स) जन्म
(द) आयु
उत्तर:
(अ) शिक्षा
प्रश्न 10.
आधुनिक समाज में निम्न में से कौनसा वर्ग नहीं पाया जाता है -
(अ) उच्च वर्ग
(ब) मध्यम वर्ग
(स) श्रमिक वर्ग
(द) दास वर्ग
उत्तर:
(द) दास वर्ग
प्रश्न 11.
सामाजिक स्तरीकरण के किस आधार पर व्यक्ति की प्रस्थिति पूरी तरह से जन्म द्वारा प्रदत्त प्रस्थिति पर आधारित
होती है -
(अ) वर्ग के आधार पर
(ब) जाति के आधार पर
(स) लिंग के आधार पर
(द) आयु के आधार पर
उत्तर:
(ब) जाति के आधार पर
प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौनसा अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण का साधन है -
(अ) कानून
(ब) परिवार
(स) गुप्तचर संस्था
(द) पुलिस
उत्तर:
(ब) परिवार
प्रश्न 13.
निम्नलिखित में से कौनसा औपचारिक सामाजिक नियंत्रण का साधन है -
(अ) परिवार
(ब) जनरीतियाँ
(स) कानून
(द) धर्म
उत्तर:
(स) कानून
प्रश्न 14.
निम्नलिखित में से किसके द्वारा औपचारिक नियंत्रण लागू नहीं किया जाता है -
(अ) कानून
(ब) न्यायालय
(स) पुलिस
(द) रूढ़ियाँ
उत्तर:
(द) रूढ़ियाँ
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
1. ........... समाजों में नजदीकी, घनिष्ठ तथा आमने-सामने की अन्तःक्रिया होती है।
2. ............ समाजों में अवैयक्तिक, अनासक्त, दूरस्थ अन्तःक्रिया होती है।
3. प्रवासियों को अक्सर .. .... समूह माना जाता है।
4. वे समूह जिनकी जीवन शैली का अनुकरण किया जाता है, ............ समूह कहलाते हैं।
5. कार्ल मार्क्स के लिए ....... और संघर्ष समाज को समझने की मुख्य संकल्पनाएँ थीं।
6... ....... के लिए सामाजिक एकता और सामूहिक चेतना मुख्य संकल्पनाएँ थीं।
7. इन दो संकल्पनाओं .......... और ........... को अक्सर युगल संकल्पनाओं की तरह देखा जाता है।
8. ............. द्वारा व्यक्ति सामाजिक भूमिकाओं को ग्रहण करते हैं और उन्हें निभाना सीखते हैं।
उत्तर:
1. परम्परागत
2. आधुनिक
3. बाह्य
4. संदर्भ
5. वर्ग
6. एमिल दुर्शीम
7. प्रस्थिति, भूमिका
8. समाजीकरण।
निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये
1. सामाजिक नियंत्रण का अन्तिम और नि:संदेह प्राचीनतम साधन है. शारीरिक बल प्रयोग।
2. विचलन का अर्थ उन क्रियाओं से है जो समाज के अधिकतर सदस्यों के मूल्यों के अनुसार होती हैं।
3. भूमिकाएँ और प्रस्थितियाँ न तो स्थिर होती हैं और न ही किसी के द्वारा प्रदान की जाती हैं।
4. औपचारिक सामाजिक नियंत्रण के साधन हैं—कानून और राज्य।
5. भूमिका स्थिरीकरण, समाज के कुछ सदस्यों के लिए कुछ विशिष्ट भूमिकाओं को सुदढ़ करने की प्रक्रिया है।
6. भूमिका संघर्ष एक या अधिक प्रस्थितियों से जुड़ी भूमिकाओं की संगता है।
7. समाज के संगठन में स्तरीकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान होने के कारण, शक्ति और लाभ की असमानता समाजशास्त्र में केन्द्रीय है।
8. परिवार, ग्राम और मित्रों के समूह द्वितीयक समूहों के उदाहरण हैं।
उत्तर:
1. सत्य
2. असत्य
3. सत्य
4. असत्य
5. सत्य
6. असत्य
7. सत्य
8. असत्य।
निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये -
1. मार्क्स - (अ) शारीरिक भाषा, आलोचना, उपहास, हँसी।
2. अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण - (ब) कानून और राज्य
3. औपचारिक सामाजिक नियंत्रण - (स) विचलन
4. नकारात्मक सामाजिक नियंत्रण - (द) अपेक्षित व्यवहार के लिए पुरस्कृत करना
5. सकारात्मक सामाजिक नियंत्रण - (य) वर्ग और संघर्ष की संकल्पनाएँ
उत्तर:
1. मार्क्स - (य) वर्ग और संघर्ष की संकल्पनाएँ
2. अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण - (अ) शारीरिक भाषा, आलोचना, उपहास, हँसी
3. औपचारिक सामाजिक नियंत्रण - (ब) कानून और राज्य
4. नकारात्मक सामाजिक नियंत्रण - (स) विचलन
5. सकारात्मक सामाजिक नियंत्रण - (द) अपेक्षित व्यवहार के लिए पुरस्कृत करना
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का तुलनात्मक दृष्टिकोण सामूहिकता के किन दो तथ्यों को सामने लाता है?
उत्तर:
प्रश्न 2.
मानवीय जीवन की एक पारिभाषिक विशेषता लिखिये।
उत्तर:
मानवीय जीवन की एक पारिभाषिक विशेषता यह है कि मनुष्य परस्पर अंतःक्रिया करता है, संवाद करता है और सामाजिक सामूहिकता को भी बनाता है।
प्रश्न 3.
अर्द्ध-समूह से क्या आशय है?
उत्तर:
अर्द्ध समूह एक समुच्चय होता है, जिसमें संरचना अथवा संगठन की कमी होती है और जिसके सदस्य समूह के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ होते हैं। ..
प्रश्न 4.
किन्हीं चार अर्द्ध-समूहों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
प्रश्न 5.
एक सामाजिक समूह से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
एक सामाजिक समूह से तात्पर्य निरन्तर अन्तःक्रिया करने वाले उन व्यक्तियों से है, जो एक समाज में समान रुचि, संस्कृति, मूल्यों और मानकों को बाँटते हैं।
प्रश्न 6.
परम्परागत और आधुनिक समाजों की अन्तःक्रिया के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परम्परागत समाजों में नजदीकी, घनिष्ठ और आमने-सामने की अन्तःक्रिया होती है जबकि आधुनिक समाजों में अवैयक्तिक, अनासक्त तथा दूरस्थ अन्तःक्रिया होती है।
प्रश्न 7.
प्राथमिक समूह से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्राथमिक समूह से तात्पर्य लोगों के एक छोटे समूह से है जो घनिष्ठ, आमने-सामने के मेल-मिलाप और सहयोग द्वारा जुड़े होते हैं; जैसे-परिवार, मित्र-मण्डली आदि।
प्रश्न 8.
द्वितीयक समूह को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
द्वितीयक समूह आकार में अपेक्षाकृत बड़े होते हैं तथा उसके सदस्यों में औपचारिक और अवैयक्तिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। ये लक्ष्योन्मुख होते हैं, जैसे-विद्यालय, सरकारी कार्यालय, छात्र संघ आदि।
प्रश्न 9.
समुदाय से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
समुदाय से तात्पर्य उस मानव समूह से है जिसके सदस्यों के सम्बन्ध बहुत अधिक वैयक्तिक, घनिष्ठ और चिरस्थायी होते हैं जहाँ एक व्यक्ति की भागीदारी महत्वपूर्ण होती है तथा जो एक निश्चित क्षेत्र में रहता है।
प्रश्न 10.
समुदाय के आवश्यक तत्वों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
समुदाय के तीन प्रमुख आवश्यक तत्व बताये जा सकते हैं। ये हैं -
प्रश्न 11.
अन्तःसमूह की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 12.
बाह्य समूह की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 13.
संदर्भ समूह कौनसे होते हैं?
उत्तर:
किसी भी समूह के लोगों के लिए वे दूसरे समूह जिनको वे आदर्श की तरह देखते हैं और उनके जैसा बनना चाहते हैं, संदर्भ समूह कहलाते हैं।
प्रश्न 14.
समवयस्क समूह को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
समवयस्क समूह एक प्रकार का प्राथमिक समूह है, जो सामान्यतः समान आयु के व्यक्तियों के बीच अथवा सामान्य व्यवसाय समूह के बीच बनता है।
प्रश्न 15.
सामाजिक स्तरीकरण से क्या आशय है?
उत्तर:
किसी समाज व्यवस्था में व्यक्तियों के ऊँचे और नीचे क्रम विन्यास में विभाजन ही सामाजिक स्तरीकरण
प्रश्न 16.
मानव समाजों में ऐतिहासिक रूप में स्तरीकरण की कौन-कौनसी मूल व्यवस्थाएँ विद्यमान रही हैं?
उत्तर:
मानव समाजों में ऐतिहासिक रूप में, स्तरीकरण की चार मूल व्यवस्थाएँ मौजूद रही हैं -
प्रश्न 17.
जाति की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 18.
भारत में जाति-व्यवस्था में परिवर्तन आने के कोई दो कारण लिखिये।
उत्तर:
भारत में
प्रश्न 19.
सामाजिक स्तरीकरण के कारणों से संबंधित दो समाजशास्त्रीय संकल्पनाओं के नाम लिखिये।
उत्तर:
प्रश्न 20.
प्रस्थिति से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्रस्थिति से तात्पर्य सामाजिक स्थिति और इन स्थितियों से जुड़े निश्चित अधिकारों और कर्तव्यों से है।
प्रश्न 21.
प्रस्थिति को प्राप्त करने के आधार पर वर्गीकृत प्रस्थितियों के नाम लिखिये।
उत्तर:
प्रस्थिति को प्राप्त करने के आधार पर दो प्रकार की प्रस्थितियों का उल्लेख किया गया है -
प्रश्न 22.
भूमिका प्रत्याशा (अपेक्षा) क्या है?
उत्तर:
समाज में जब लोग अपनी भूमिकाओं को सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार निभाते हैं, तो उसे भूमिका प्रत्याशा कहा जाता है।
प्रश्न 23.
भूमिका-पालन या भूमिका निभाना क्या है?
उत्तर:
जब एक व्यक्ति समाज द्वारा निर्धारित प्रतिमानों के अनुरूप अपनी भूमिका निभाता है, तो उसे भूमिकापालन कहा जाता है।
प्रश्न 24.
भूमिका-संघर्ष से क्या आशय है?
उत्तर:
कभी-कभी व्यक्ति को दो अलग-अलग प्रस्थितियों की भूमिका एक साथ निर्भानी होती है और यदि उनमें असंगतता हो और उससे मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का अनुभव होने लगे, तो उसे भूमिका संघर्ष कहते हैं।
प्रश्न 25.
सामाजिक नियंत्रण के दो स्वरूप लिखिये।
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण के दो स्वरूप हैं -
प्रश्न 26.
अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण का अर्थ बताइये।
उत्तर:
अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यक्तिगत, अशासकीय और असंहिताबद्ध होता है। इनके पीछे राज्य तथा कानून की शक्ति नहीं होती।
प्रश्न 27.
अनौपचारिक नियंत्रण के साधन क्या हैं?
उत्तर:
परिवार, नातेदारी, जनरीतियाँ, लोकाचार, जाति पंचायत, धर्म-नैतिकता इत्यादि अनौपचारिक नियंत्रण के साधन हैं।
प्रश्न 28.
औपचारिक नियंत्रण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
औपचारिक सामाजिक नियंत्रण में संहिताबद्ध, व्यवस्थित और अन्य औपचारिक साधन प्रयोग किये जाते हैं।
प्रश्न 29.
जनरीतियाँ क्या हैं?
उत्तर:
जनरीतियाँ. समाज में व्यवहार करने की स्वीकृत एवं मान्यता प्राप्त विधियाँ हैं जो सामाजिक ढांचे को व्यवस्थित करती हैं।
प्रश्न 30.
कानून क्या है?
उत्तर:
कानून मानव-व्यवहार को नियंत्रित करने वाले औपचारिक व विशिष्ट नियमों का स्वरूप है जो उन लोगों द्वारा बनाए जाते हैं जिन्हें राज्य में राजनीतिक शक्ति प्राप्त होती है।
प्रश्न 31.
सकारात्मक सामाजिक नियंत्रण क्या है?
उत्तर:
समाज के सदस्यों को अच्छे और अपेक्षित व्यवहार के लिए पुरस्कृत करना सकारात्मक सामाजिक नियंत्रण है।
प्रश्न 32.
नकारात्मक सामाजिक नियंत्रण क्या है?
उत्तर:
नियमों को लागू करने के लिए और विचलन को राह पर लाने के लिए नकारात्मक स्वीकृतियों अर्थात् दण्ड का प्रयोग नकारात्मक सामाजिक नियंत्रण कहलाता है।
प्रश्न 33.
विचलन से क्या आशय है?
उत्तर:
विचलन का अर्थ उन क्रियाओं से है जो समाज या समूह के अधिकतर सदस्यों के मूल्यों या आदर्शों के अनुसार नहीं होती हैं।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
विरोधी सिद्धान्त या संघर्षवादी सिद्धान्त से क्या आशय है?
उत्तर:
विरोधी सिद्धान्त-विरोधी सिद्धान्त. एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण है जो मानव समाजों में उपस्थित तनावों, विभाजनों और संघर्षरत रुचियों पर ध्यान केन्द्रित करता है। संघर्षवादी सिद्धान्तकार यह मानते हैं कि समाज में संसाधनों की कमी और उनका मूल्य विरोध उत्पन्न करता है क्योंकि समूह इन संसाधनों पर पहुंच और नियंत्रण स्थापित करने के लिए संघर्ष करते हैं। कई संघर्षवादी सिद्धान्तकार मार्क्स के लेखन से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं।
प्रश्न 2.
प्रकार्यवादी सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
प्रकार्यवादी सिद्धान्त-प्रकार्यवादी सिद्धान्त वह सैद्धान्तिक दृष्टिकोण है जो इस धारणा पर आधारित है कि सामाजिक घटनाओं को उन कार्यों के रूप में सबसे अच्छी प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है जो वे निभाते हैं अर्थात् समाज की निरन्तरता में, वे जो योगदान करते हैं एवं एक जटिल व्यवस्था के रूप में समाज को, जिसके विभिन्न भाग एक-दूसरे के साथ कार्य करते हैं, को समझने की आवश्यकता है। इस प्रकार प्रकार्यवादी समाज को महत्वपूर्ण रूप से सामञ्जस्यपूर्ण मानते हैं और समाज की तुलना एक जीव से करते हैं जिसमें सभी अंगों को, समग्र को बनाए रखने के लिए एक निश्चित कार्य करना होता है।
प्रश्न 3.
व्यष्टि और समष्टि समाजशास्त्र को समझाइये।
उत्तर:
व्यष्टि समाजशास्त्र-आमने-सामने की अन्तःक्रिया की परिस्थितियों में प्रतिदिन के व्यवहार का अध्ययन सामान्यतः व्यष्टि समाजशास्त्र कहलाता है। इसमें विश्लेषण व्यक्तिगत स्तर पर या छोटे समूहों में होता है। समष्टि समाजशास्त्र-समष्टि समाजशास्त्र का सरोकार बड़ी सामाजिक व्यवस्था से होता है, जैसे राजनीतिक व्यवस्था या आर्थिक व्यवस्था, हालांकि ये भिन्न दिखाई देते हैं, पर ये घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं।
प्रश्न 4.
अर्द्धसमूह को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
अर्द्धसमूह-एक अर्द्धसमूह लोगों का एक समुच्चय अथवा संयोजन या जमावड़ा होता है जो एक समय में एक ही स्थान पर एकत्र होते हैं, लेकिन एक-दूसरे से कोई निश्चित सम्बन्ध नहीं रखते। दूसरे, एक अर्द्धसमूह में संरचना अथवा संगठन की कमी होती है और इसके सदस्य समूह के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ या कम जागरूक होते
सामाजिक वर्गों, प्रस्थिति समूहों, आयु एवं लिंग समूहों, भीड़ को अर्द्धसमूह के उदाहरणों के रूप में देखा जा सकता है।
प्रश्न 5.
सामाजिक समूह किस प्रकार उभरते हैं, परिवर्तित एवं संशोधित होते हैं?
उत्तर:
(1) अर्द्धसमूह समय और विशेष परिस्थितियों में सामाजिक समूह बन सकते हैं। उदाहरण के लिए, यह संभव है कि एक विशेष सामाजिक वर्ग या जाति या समुदाय से संबंधित व्यक्ति एक सामूहिक निकाय के रूप में संगठित न हो। उसमें अभी 'हम की भावना' आनी बाकी हो, लेकिन वर्ग और जाति ने समय बीतने के साथ-साथ राजनीतिक दलों जैसे समूहों को जन्म दिया है।
(2) भारत के विभिन्न समुदाय के लोगों ने लम्बे उपनिवेश:-विरोधी संघर्ष के साथ-साथ अपनी पहचान एक सामूहिकता और समूह के रूप में विकसित की है - एक राष्ट्र जिसका मिला-जुला अतीत और साझा भविष्य है।
(3) इसी प्रकार महिला आंदोलन ने महिलाओं के समूह और संगठनों का विचार सामने रखा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि समय और विशेष परिस्थितियों में अर्द्धसमूह सामाजिक समूह के रूप में उभरते हैं, परिवर्तित एवं संशोधित होते हैं।
प्रश्न 6.
एक सामाजिक समूह में किन विशेषताओं का होना आवश्यक है?
उत्तर:
सामाजिक समूह की विशेषताएँ-एक सामाजिक समूह में निम्नलिखित विशेषताओं का होना आवश्यक है
प्रश्न 7.
प्राथमिक समूह की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
प्राथमिक समूह की विशेषताएँ-प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
प्रश्न 8.
द्वितीयक समूह की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
द्वितीयक समूह की विशेषताएँ-द्वितीयक समूह की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
द्वितीयक समूहों के उदाहरण हैं - विद्यालय, सरकारी कार्यालय, अस्पताल, छात्र-संघ आदि।
प्रश्न 9.
समुदाय की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
समुदाय की विशेषताएँ-समुदाय की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
प्रश्न 10.
समुदाय और समाज में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
समाज और समुदाय में अन्तर-समाज और समुदाय में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं -
प्रश्न 11.
अन्तःसमूह की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
अन्तःसमूह की विशेषताएँ-अन्तःसमूह की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
प्रश्न 12.
बाह्य समूह की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
बाह्य समूह की विशेषताएँ-बाह्य समूह की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
प्रश्न 13.
अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
अन्तःसमूह और बाह्य समूह में अन्तर-अन्तःसमूह और बाह्य समूह में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं -
(1) अन्तःसमूह में 'हम की भावना' पायी जाती है, जबकि बाह्य समूह में 'हम की भावना' नहीं पायी जाती।
(2) अन्तःसमूह में व्यक्तियों के बीच एकता की भावना पायी जाती है, जबकि बाह्य समूह में व्यक्तियों के बीच एकता की भावना नहीं पायी जाती।
(3) अन्तःसमूह में सामाजिक निकटता, निष्ठा तथा सहयोग पाये जाते हैं, जबकि बाह्य समूह में सामाजिक दूरी, उपेक्षा, प्रतिस्पर्धा तथा संघर्ष पाये जाते हैं।
(4) कोई व्यक्ति जिन समूहों को अपना मानता है, वे उसके लिए अन्तःसमूह होते हैं और वह जिन समूहों से अपनी दूरी समझता है, वे उसके लिए बाह्य समूह होते हैं। पहचान की भावना ही अन्त:समूह के लिए 'हम' और बाह्य समूह के लिए 'वे' के द्वारा दोनों में अन्तर करती है।
प्रश्न 14.
संदर्भ समूह क्या है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संदर्भ समूह-किसी भी समूह के लोगों के लिए हमेशा ऐसे दूसरे समूह होते हैं जिनको वे अपने आदर्श की तरह देखते हैं और उनके जैसा बनना चाहते हैं। वे समूह जिनकी जीवन-शैली का अनुकरण किया जाता है, संदर्भ समूह कहलाते हैं। हम अपने संदर्भ समूहों से संबंधित नहीं होते हैं, पर हम अपने आपको उस समूह से अभिनिर्धारित अवश्य करते हैं। संदर्भ समूह संस्कृति, जीवन-शैली, महत्वाकांक्षाओं और लक्ष्य प्राप्ति के बारे में जानकारी के महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं। उदाहरण के लिए, औपनिवेशिक समय में कई मध्यवर्गीय भारतीय बिल्कुल अंग्रेजों की तरह व्यवहार करने का प्रयत्न करते थे। इस प्रकार, उन्हें महत्वाकांक्षा रखने वाले समूह के लिए संदर्भ समूह के रूप में देखा जा सकता था, लेकिन यह संदर्भ समूह उनके लिए पुरुषों के लिए ही सीमित था।
प्रश्न 15.
सामाजिक वर्ग क्या है? इसकी विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
सामाजिक वर्ग-वर्ग ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो व्यवसाय, धन, शिक्षा, जीवन-यापन की विधियों, विचारों, मनोभावों, प्रवृत्तियों और व्यवहारों में एक-दूसरे के समान होते हैं अथवा कुछ आधारों पर समानता की भावना से मिलते हैं और वे इस प्रकार अपने को एक समूह का सदस्य समझते हैं।
वर्ग की विशेषताएँ -
प्रश्न 16.
जाति की विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
जाति की विशेषताएँ -
प्रश्न 17.
सामाजिक स्तरीकरण क्या है? इसकी विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण-समाज में धन, सम्पत्ति, व्यवसाय, जाति, प्रजाति आदि के आधार पर विभिन्न स्तर पाये जाते हैं। समाजशास्त्र में इन्हीं स्तरों को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है। रेमण्ड मुरे के अनुसार, "सामाजिक स्तरीकरण उच्चतर और निम्नतर सामाजिक इकाइयों में समाज का क्षैतिज विभाजन है।" टालकट पारसन्स के शब्दों में, "किसी समाज व्यवस्था में व्यक्तियों का ऊँचे-नीचे के क्रम-विन्यास में विभाजन ही सामाजिक स्तरीकरण है।" सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएँ-सामाजिक स्तरीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
प्रश्न 18.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण का प्रकार्यवादी सिद्धान्त-सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्त के मुख्य प्रतिपादक डेविस और मुरे हैं। उनके अनुसार सामाजिक स्तरीकरण एक प्रकार्यात्मक सामाजिक आवश्यकता है। प्रत्येक समाज के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक संरचना के अन्तर्गत व्यक्तियों को कुछ स्थान तथा उत्तरदायित्व ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया जाए; उनके मन में कुछ पद प्राप्त करने की इच्छा जागृत की जाये। जिन समाजों में प्रतियोगिता अधिक पायी जाती है, वहाँ पदों के लिए प्रेरणा दी जाती है और जिन समाजों में प्रतियोगिता का अभाव होता है, वहाँ कर्तव्यों की प्रेरणा दी जाती है। आवश्यकताएँ-समाज में सभी आवश्यकताओं का स्थान समान नहीं होता है।
कुछ आवश्यकताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। इनसे संबंधित भूमिकाओं को पूरा करने वाले लोगों की प्रस्थिति ऊँची होती है। समाज उन्हें अधिक सुविधा, संसाधन, पुरस्कार, शक्ति और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। पद-समाज में कुछ पद महत्वपूर्ण होते हैं । इन पदों से संबंधित कार्यों को पूरा करने के लिए व्यक्ति में विशिष्ट बौद्धिक क्षमता का होना आवश्यक है। समाज एक ऐसी विधि को अपनाता है जिससे सबसे अधिक महत्वपूर्ण पदों एवं स्थितियों को जान-बूझकर सबसे योग्य व्यक्तियों द्वारा भरा जाये। इस प्रकार जब समाज में कुछ लोगों को अधिक पुरस्कार एवं सुविधायें प्रदान की जाती हैं और कुछ को कम; तो समाज में स्वतः ही स्तरीकरण पैदा हो जाता है। इसमें पदों का क्रम-विन्यास होता है।
प्रश्न 19.
प्रस्थिति और भूमिका में सम्बन्ध बताइये।
उत्तर:
प्रस्थिति और भूमिका में सम्बन्ध-प्रस्थिति और भूमिका के सम्बन्ध को अग्र प्रकार स्पष्ट किया गया
(1) युगल संकल्पना-'प्रस्थिति' और 'भूमिका' को प्रायः युगल संकल्पनाओं की तरह देखा जाता है। प्रत्येक सामाजिक स्थिति में प्रस्थिति और भूमिका युग्म होते हैं। व्यक्ति स्वयं सामाजिक व्यवस्था की इकाई के संदर्भ में प्रस्थितियों एवं भूमिकाओं का एक मिश्रित बण्डल है।।
(2) परस्पर पूरक-प्रस्थिति और भूमिका घनिष्ठ रूप से संबंधित अवधारणाएँ हैं। भूमिका कर्तव्यों की और प्रस्थिति अधिकारों की प्रतीक है। ये दोनों अवधारणाएँ एक-दूसरे के बिना अधूरी हैं।
(3) भूमिका प्रस्थिति का सक्रिय या व्यावहारिक पक्ष है-प्रस्थितियाँ ग्रहण की जाती हैं और भूमिकाएँ निभायी जाती हैं। अतः प्रस्थिति एक संस्थागत भूमिका है। यह वह भूमिका है जो समाज में नियमित, मानकीय और औपचारिक बन चुकी है।
(4) देश-काल और परिस्थिति सापेक्ष सम्बन्ध-प्रस्थिति एवं भूमिका के सम्बन्ध देश, काल और परिस्थितियों के परिवर्तन के
अनुसार बदलते रहते हैं।
प्रश्न 20.
सामाजिक नियंत्रण का अर्थ समझाइये।
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण का अर्थ-सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य सामाजिक क्रियाओं, तकनीकों और रणनीतियों से है जिनके द्वारा व्यक्ति या समूह के व्यवहार को नियमित किया जाता है। इसका अर्थ व्यक्तियों और समूहों के व्यवहार को नियमित करने के लिए बल प्रयोग से और समाज में व्यवस्था के लिए मूल्यों व प्रतिमानों को लागू करने से है। ऑगबर्न तथा निमकॉफ के शब्दों में, "सामाजिक नियंत्रण से आशय उन प्रक्रियाओं से है, जो समूह की आवश्यकताओं के अनुरूप व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करती हैं।"
प्रश्न 21.
सामाजिक नियंत्रण के प्रकार्यवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर;
सामाजिक नियंत्रण का प्रकार्यवादी दृष्टिकोण-प्रकार्यवादी समाजशास्त्रियों ने समाज को विशेष रूप से सामंजस्यपूर्ण समझा है। प्रकार्यवादी दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य है
इस प्रकार सामाजिक नियंत्रण को एक तरफ व्यक्तियों या समूहों के पथभ्रष्ट व्यवहारों को नियंत्रित करने के लिए संचालित किया जाता है और दूसरी तरफ, सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक साहचर्य को बनाए रखने के लिए व्यक्तियों और समूहों के तनाव और विरोध को दूर करने में इसका प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार सामाजिक स्थिरता के लिए • सामाजिक नियंत्रण को महत्वपूर्ण माना जाता है।
प्रश्न 22.
सामाजिक नियंत्रण के संघर्षवादी सिद्धान्त को समझाइये।
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण का संघर्षवादी सिद्धान्त-संघर्षवादी समाजशास्त्री प्रायः सामाजिक नियंत्रण को ऐसे साधनों के रूप में देखते हैं जिनके द्वारा समाज के प्रभावी वर्ग का शेष समाज पर नियंत्रण लागू किया जा सकता है। संघर्षवादी सामाजिक स्थिरता को समाज के एक भाग द्वारा दूसरे भाग पर प्रभुत्व स्थापित करने के रूप में देखते हैं। इसी प्रकार वे कानून को भी समाज में शक्तिशाली वर्ग और उनके हितों को साधने वाला औपचारिक दस्तावेज मानते हैं।
प्रश्न 23.
सामाजिक नियंत्रण की आवश्यकता (महत्व) पर प्रकाश डालिये।
उत्तर:
सामाजिक नियंत्रण की आवश्यकता (महत्व)-किसी भी समाज का अस्तित्व एवं निरन्तरता को बनाए रखने के लिए सामाजिक नियंत्रण आवश्यक है-
(1) सामाजिक सन्तुलन हेतु आवश्यक-मानव की अराजक और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति पर नियंत्रण लगाकर सामाजिक संतुलन बनाए रखने के लिए सामाजिक नियंत्रण आवश्यक है।
(2) सामाजिक संगठन में स्थायित्व-सामाजिक नियंत्रण के कारण मनमाने आचरण पर नियंत्रण लगता है। इससे सामाजिक जीवन में अनिश्चितता कम हो जाती है और स्थिरता को प्रोत्साहन मिलता है।
(3) सहयोग-व्यक्तियों के परस्पर सहयोग के लिए भी नियंत्रण आवश्यक है।
(4) प्रतिमानों और मूल्यों की रक्षा-सामाजिक नियंत्रण परम्पराओं और मूल्यों की रक्षा करने के लिए भी अति आवश्यक है। सामाजिक नियंत्रण समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए मूल्यों और प्रतिमानों को लागू करता है।
(5) सामूहिक एकता-सामाजिक नियंत्रण एक समूह के सदस्यों को समान नियमों के अनुसार कार्य करना सिखाता है जिससे उनमें समान दृष्टिकोण का विकास होता है। इससे समाज में एकरूपता की स्थापना होती है। इस प्रकार समाज में स्थिरता के लिए सामाजिक नियंत्रण को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
प्रश्न 24.
औपचारिक तथा अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
औपचारिक तथा अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण में अन्तर-औपचारिक तथा अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं -
(1) औपचारिक सामाजिक नियंत्रण सुपरिभाषित, संहिताबद्ध तथा व्यवस्थित होता है। इसकी अभिव्यक्ति कानूनों में होती है। दूसरी तरफ अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण व्यक्तिगत, असंहिताबद्ध तथा अधिकांशतः अलिखित होता है। इसकी अभिव्यक्ति परम्पराओं में होती है।
(2) औपचारिक नियंत्रण बाध्यतामूलक होता है। इसके अन्तर्गत नियम तोड़ने पर पूर्व-निर्धारित दण्ड दिया जाता है, जबकि अनौपचारिक इतना अधिक बाध्यता-मूलक नहीं होता है। इसके तहत दण्ड परिस्थितियों के अनुसार दिया जाता है।
(3) औपचारिक नियंत्रण में दण्ड देने का कार्य राज्य अथवा पुलिस व न्यायालय द्वारा किया जाता है, जबकि अनौपचारिक नियंत्रण में दण्ड देने का कार्य परिवार का मुखिया या समूह की पंचायत आदि के द्वारा किया जाता है।
(4) औपचारिक नियंत्रण व्यक्ति के बाह्य पक्ष को अधिक प्रभावित करता है, जबकि अनौपचारिक नियंत्रण व्यक्ति के आन्तरिक पक्ष को अधिक प्रभावित करता है।
(5) औपचारिक सामाजिक नियंत्रण के माध्यम व साधन हैं-कानून और राज्य व उसकी संस्थाएँ; जबकि अनौपचारिक नियंत्रण के साधन हैं-प्रशंसा, आलोचना, उपहास, हँसी, शारीरिक भाषा, बहिष्कार आदि और इसके माध्यम हैं--परिवार, धर्म, नातेदारी आदि।
(6) औपचारिक नियंत्रण व्यक्तिवादी होता है जबकि अनौपचारिक नियंत्रण समूहवादी होता है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक समूह का अर्थ बताइए। सामाजिक समूहों के प्रकारों को स्पष्ट कीजिए। अथवा सामाजिक समूह का अर्थ बताइए तथा सामाजिक समूहों का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक समूह का अर्थ एक सामाजिक समूह से तात्पर्य निरन्तर अन्तःक्रिया करने वाले उन व्यक्तियों से है, जो एक समाज में समान रुचि, संस्कृति, मूल्यों और मानकों को बाँटते हैं।
सामाजिक समूह की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर एक सामाजिक समूह में निम्नलिखित विशेषताओं का होना आवश्यक है -
सामाजिक समूहों के प्रकार (वर्गीकरण)
विभिन्न समाजशास्त्रियों और मानव विज्ञानियों में सामाजिक समूहों को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया है। यथा -
(1) संख्या के आधार पर : छोटे और बड़े समूह–सदस्यों की संख्या के आधार पर समूहों को -
(i) लघु समूह और
(ii) वृहद् समूह में वर्गीकृत किया जाता है। यथा
(i) लघु समूह-लघु समूह वे हैं जिनके सदस्यों की संख्या कम होती है। अधिकतर परम्परागत समूहों को लघु समूहों में शामिल किया जा सकता है। लघु समूहों में नजदीकी, घनिष्ठ और आमने-सामने की अन्तक्रिया होती है। छोटे समूह ही प्रारम्भ के समाज के आधार रहे हैं।
(ii) वृहद समूह-मैकाइवर ने राष्ट्र और प्रान्त के बड़े समूहों के अन्तर्गत रखा है। ये आधुनिक समाज की देन हैं। ऐसे समूहों में अन्तःक्रिया अवैयक्तिक, अनासक्त तथा दूरस्थ होती है।
(2) हम की भावना के आधार पर वर्गीकरण : अन्तःसमूह तथा बाह्य समूह-हम की भावना के आधार पर विलियम ग्राहम समनर ने दो प्रकार के समूहों का उल्लेख किया है
(i) अन्तःसमूह-अन्तःसमूह वह समूह होता है जिसके सदस्य परस्पर 'हम की भावना' से बँधे रहते हैं। इसके सदस्य समूह से घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं। संबंधित होने की भावना अन्तःसमूह की पहचान बनाती है। यह भावना 'हमें' या 'हम' को 'उन्हें' अथवा 'वे' से अलग करती है। इस प्रकार व्यक्ति जिस व्यक्ति समूह से अपनी पहचान बनाता है, वही उसका अन्तःसमूह है; जैसे परिवार, जनजाति या व्यवसाय समूह । इसी प्रकार एक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे, उस स्कूल में नहीं पढ़ने वाले बच्चों के विरुद्ध एक अन्त:समूह बना सकते हैं।
(ii) बाह्य समूह-बाह्य समूह 'वे समूह' या 'दूसरे के समूह' होते हैं। व्यक्ति जिन समूहों से दूरी मानता है, वे उसके लिए बाह्य समूह हैं। दूसरे शब्दों में, एक बाह्य समूह वह होता है जिससे एक अन्त:समूह के सदस्य संबंधित नहीं होते। इस प्रकार एक व्यक्ति का अन्तःसमूह दूसरे व्यक्ति के लिए बाह्य समूह हो सकता है। एक बाह्य समूह के सदस्यों को अन्तःसमूह के सदस्यों की ओर से प्रतिकूल व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है। अतः जिन समूहों के लिए हम 'वे' या 'उनके' इत्यादि का प्रयोग करते हैं, वे बाह्य समूह होते हैं। प्रवासियों को अक्सर बाह्य समूह माना जाता है।
(3) सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर वर्गीकरण :.प्राथमिक और द्वितीयक समूह-चार्ल्स कूल्हे ने सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर सामाजिक समूहों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया है-
(i) प्राथमिक समूह और
(ii) द्वितीयक समूह। यथा
(i) प्राथमिक समूह-प्राथमिक समूह से तात्पर्य लोगों के एक छोटे समूह से है जो घनिष्ठ, आमने-सामने के मेल-मिलाप और सहयोग द्वारा जुड़े होते हैं। प्राथमिक समूह के सदस्यों में एक-दूसरे से सम्बन्धित होने की भावना होती है। परिवार, ग्राम और मित्रों के समूह प्राथमिक समूहों के उदाहरण हैं। ये समूह व्यक्ति-उन्मुख होते हैं।
(ii) द्वितीयक समूह-द्वितीयक समूह आकार में अपेक्षाकृत बड़े होते हैं और उनमें औपचारिक तथा अवैयक्तिक सम्बन्ध होते हैं। द्वितीयक समूह लक्ष्य-उन्मुख होते हैं। विद्यालय, सरकारी कार्यालय, अस्पताल, छात्र-संघ आदि द्वितीयक समूहों के उदाहरण हैं।
(4) परम्परागत और आधुनिक जीवन-शैली तथा सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर वर्गीकरण:समुदाय तथा संघ-पुराने परम्परागत और कृषक जीवन की नए आधुनिक और शहरी जीवन से उनके विभिन्न सामाजिक सम्बन्धों और जीवन-शैली के आधार पर समाजशास्त्रियों ने समूहों को दो प्रकारों में विभाजित किया है -
(i) समुदाय और
(ii) संघ। यथा
(i) समुदाय-समुदाय से तात्पर्य उन मानव सम्बन्धों से है जो बहुत अधिक वैयक्तिक, घनिष्ठ और चिरस्थायी होते हैं। जहाँ एक व्यक्ति की भागीदारी समूह में महत्त्वपूर्ण होती है।
(ii) संघ-संघ का तात्पर्य हर तरह से 'समुदाय' के विपरीत है, विशेषतः आधुनिक नगरीय जीवन के स्पष्टतः अवैयक्तिक, बाहरी और अस्थायी सम्बन्ध होते हैं। आधुनिक वाणिज्य और उद्योग की आवश्यकता के अनुसार एक व्यक्ति का व्यवहार दूसरे व्यक्ति से नपा-तुला, युक्तिसंगत एवं निजी हितों के अनुसार होता है। अतः स्पष्ट है कि संघ में सदस्यों का व्यवहार औपचारिक होता है। समुदाय जहाँ प्राथमिक समूह के समान होता है, वहाँ संघ द्वितीयक समूह के समान।
(5) प्रतिमानों और मूल्यों के आधार पर वर्गीकरण:
सकारात्मक और नकारात्मक समूह-न्यूकांब ने प्रतिमानों एवं मूल्यों के आत्मसात करने की स्थिति के आधार पर समूहों को दो भागों में विभाजित किया है -
(i) सकारात्मक समूह और
(ii) नकारात्मक समूह । यथा-
(i) सकारात्मक समूह-कुछ समूहों के प्रतिमानों और मूल्यों को हम सरलता से आत्मसात कर लेते हैं, ऐसे समूहों को सकारात्मक समूह कहते हैं।
(ii) नकारात्मक समूह-कुछ समूह ऐसे होते हैं जिन्हें हम पसन्द नहीं करते और उनके मूल्यों तथा प्रतिमानों को अस्वीकार करते हैं। ऐसे समूहों को नकारात्मक समूह कहते हैं।
(6) अन्य प्रकार के समूह-उपर्युक्त वर्गीकरणों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार के समूह निम्नलिखित हैं -
(i) सन्दर्भ समूह-किसी भी समूह के लोगों के लिए हमेशा ऐसे दूसरे समूह होते हैं जिनको वे आदर्श की तरह देखते हैं और उनके जैसा बनना चाहते हैं। इस प्रकार वे समूह जिनकी जीवन शैली का अनुकरण किया जाता है, सन्दर्भ समूह कहलाते हैं।
(ii) समवयस्क समूह-समवयस्क समूह एक प्रकार का प्राथमिक समूह है, जो सामान्यतः समान आयु के व्यक्तियों के बीच अथवा सामान्य व्यवसाय समूह के लोगों के बीच बनता है।
प्रश्न 2.
समुदाय क्या है? समुदाय की विशेषताओं का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
समुदाय का अर्थ समुदाय अंग्रेजी शब्द 'Community' का हिन्दी रूपान्तरण है। Community लैटिन भाषा के दो शब्दों-Com तथा Munis से बना है। 'Com' का अर्थ है-एक साथ और 'Munis' का अर्थ है-सेवा करना। इस प्रकार शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर समुदाय शब्द का अर्थ है-साथ-साथ मिलकर सेवा करना अर्थात् समुदाय ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते हैं और वे किसी एक उद्देश्य के लिए नहीं बल्कि सामान्य उद्देश्यों के लिए एक साथ रहते हैं।
समुदाय की परिभाषाएँ-समाजशास्त्रियों ने समुदाय की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं। कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -
(1) किंग्सले डेविस के अनुसार, "समुदाय सबसे लघु क्षेत्रीय समूह है जिसमें सामाजिक जीवन के सभी पहलू आ जाते हैं।"
(2) ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार, "समुदाय एक सीमित क्षेत्र में सामाजिक जीवन के पूर्ण संगठन को कहते हैं।"
(3) मैकाइवर और पेज के अनुसार, "जब कभी किसी समूह में व्यक्ति इस प्रकार साथ रहते हैं कि वे इस या उस हित में हिस्सेदार न होकर सामान्य जीवन की मूल परिस्थितियों में भाग लेते हैं, तो उस समूह को समुदाय कहते हैं।"
(4) ई. एस. बोगार्ड्स के अनुसार, "समुदाय एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसमें कुछ अंशों में 'हम की भावना' पायी जाती है तथा जो एक निश्चित क्षेत्र में रहता है।" उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि समुदाय सामान्य सामाजिक जीवन में भागीदार लोगों का एक ऐसा समूह है जो किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में निवास करता है और जिसमें 'हम की भावना' या सामुदायिक भावना पायी जाती है। इस आधार पर समुदाय के तीन प्रमुख आवश्यक तत्त्व बताए जा सकते हैं। ये हैं
समुदाय की विशेषताएँ समुदाय की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
(1) स्वतः विकास-समुदाय का विकास स्वतः होता है। इसका निर्माण जानबूझकर नहीं किया जाता है। जब कुछ लोग किसी विशेष स्थान पर साथ-साथ रहते हैं तो उनमें सामुदायिक भावना का विकास हो जाता है।
(2) एक निश्चित स्थायी भौगोलिक क्षेत्र-प्रत्येक समुदाय का एक निश्चित स्थायी भौगोलिक क्षेत्र होता है। किसी भी अस्थायी समूह, जैसे-भीड़, श्रोता-समूह या घुमक्कड़ समूह को समुदाय नहीं माना जा सकता है।
(3) एक विशिष्ट नाम-प्रत्येक समुदाय का एक विशिष्ट नाम होता है जिसके द्वारा वह समाज में जाना जाता है। उस नाम के प्रति लोग भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। उदाहरण के लिए सभी व्यक्ति अपने को किसी न किसी गाँव, नगर, कॉलोनी, राज्य या देश से जोड़कर देखते हैं कि मैं अमुक गाँव या नगर का रहने वाला हूँ।
(4) एक मूर्त अवधारणा-समुदाय एक मूर्त अवधारणा है क्योंकि यह व्यक्तियों का एक निश्चित समूह है जो एक निश्चित क्षेत्र में निवास करता है।
(5) सामान्य उद्देश्य-समुदाय का एक व्यापक तथा सामान्य लक्ष्य होता है। इसका विकास किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं किया जाता है।
(6) सामान्य जीवन-समुदाय में व्यक्ति अपना सामान्य जीवन व्यतीत करता है। यहाँ वह अपना सम्पूर्ण जीवन जीता है।
(7) अनिवार्य सदस्यता-समुदाय की सदस्यता अनिवार्य है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी समुदाय का सदस्य होता है।
(8) एक आत्मनिर्भर समूह-सामान्यतः समुदाय एक आत्मनिर्भर समूह होता है और वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं अपने संसाधनों से कर लेता है लेकिन वर्तमान में समुदाय का यह लक्षण लुप्त होता जा रहा है और अब सभी समुदाय परस्पर निर्भर होते जा रहे हैं।
प्रश्न 3.
प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह की विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
प्राथमिक समूह तथा उसकी विशेषताएँ कूले के अनुसार, प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच घनिष्ठ, अनौपचारिक, आमने-सामने के व्यक्तिगत और प्रत्यक्ष सम्बन्ध पाये जाते हैं। इनके सदस्यों के बीच गहरा अपनत्व और 'हम की भावना' पायी जाती है। कूले के अनुसार, प्राथमिक समूहों में परिवार, मित्र-मण्डली, पड़ोस, खेल-समूह, जन-जातीय परिषद् जैसे छोटेछोटे समूह सम्मिलित किये जा सकते हैं। कूले ने प्राथमिक समूह की निम्नलिखित छः विशेषताएँ बतायी हैं -
(1) आमने-सामने के घनिष्ठ सम्बन्ध-प्राथमिक समूह में सम्बन्ध घनिष्ठ तथा आमने-सामने के होते हैं; जैसे—परिवार एवं दोस्तों से व्यक्ति का सम्बन्ध अति घनिष्ठ होता है।
(2) सम्बन्धों की लम्बी अवधि-सम्बन्धों की घनिष्ठता के लिए सम्बन्धों का लम्बे समय तक बना रहना आवश्यक है।
(3) सम्बन्धों का अतिविशिष्ट स्वरूप-प्राथमिक समह में सम्बन्ध किसी स्वार्थ अथवा किसी उद्देश्य की पर्ति के साधन के रूप में नहीं होता है। प्राथमिक समूह में सम्बन्ध वैयक्तिक होते हैं; जैसे---माता-पिता, भाई-भाई, भाईबहिन में तथा मित्रों में सम्बन्ध वैयक्तिक होते हैं।
(4) सीमित आकार तथा सीमित सदस्यता-प्राथमिक समूहों का आकार सीमित तथा इसकी सदस्यता सीमित होती है। समूह जितना छोटा होता है, सदस्यों में उतनी ही अधिक मात्रा में निकटता एवं घनिष्ठता होती है। प्राथमिक समूह के छोटे आकार और सीमित सदस्य संख्या होने से ही सदस्य एक-दूसरे को व्यक्तिगत रूप से जान सकते हैं।
(5) सदस्यों में आत्मीयता-प्राथमिक समूह के सदस्यों में निरन्तर व्यवहार से ही एक-दूसरे के प्रति विश्वास और आत्मीयता के भाव पैदा होते हैं।
(6) सदस्यों के सम्पूर्ण जीवन में हस्तक्षेप-प्राथमिक समूह के सदस्य समूह की गतिविधियों में सक्रिय रूप से सम्मिलित हो सकते हैं और उनमें घनिष्ठता विकसित होती है।
द्वितीयक समूह तथा उसकी विशेषताएँ -
प्राथमिक समूहों से भिन्न विशेषताओं वाले समूहों को द्वितीयक समूहों का नाम दिया गया है। रॉबर्ट बीरस्टीड ने लिखा है कि "वे सभी समूह द्वितीयक हैं जो प्राथमिक नहीं हैं।" द्वितीयक समूह के सदस्यों में घनिष्ठता नहीं होती है। उनमें अप्रत्यक्ष तथा औपचारिक सम्बन्ध होते हैं और ये सम्बन्ध जीवन के किसी एक भाग से सम्बन्धित अस्थायी और छोटी अवधि के होते हैं। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बैंक, राजनीतिक दल, मजदूर संघ, शिक्षक संघ इत्यादि द्वितीयक समूह के उदाहरण हैं।
द्वितीयक समूह की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) औपचारिक सम्बन्ध-द्वितीयक समूह औपचारिक नियमों द्वारा नियन्त्रित होता है, जिसमें सदस्यों को औपचारिक अधिकार तथा शक्तियाँ मिली होती हैं।
(2) गहन आत्मीयता का अभाव-द्वितीयक समूहों में सम्बन्ध व्यक्तिगत स्वार्थों पर आधारित होते हैं। इन समूहों में सम्बन्धों का आधार उपयोगिता एवं समान हित होते हैं। इन समूहों के सदस्यों में सामाजिक सम्बन्ध अवैयक्तिक होते हैं जिनमें गहन आत्मीयता का अभाव पाया जाता है।
(3) विशिष्ट उद्देश्य-द्वितीयक समूहों के व्यक्ति केवल विशिष्ट व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए ही मिलते हैं क्योंकि द्वितीयक समूह के उद्देश्य विशिष्ट होते हैं, सामान्य नहीं।
(4) असीमित आकार-द्वितीयक समूह प्राथमिक समूह की तुलना में बड़े आकार के होते हैं तथा इनका आकार तथा सदस्य संख्या असीमित हो सकती है। .
(5) अस्थायी सम्बन्ध-द्वितीयक समूह के सदस्यों के सम्बन्ध अस्थायी होते हैं। ये सम्बन्ध जीवन के किसी भाग से सम्बन्धित तथा छोटी अवधि के होते हैं।
प्रश्न 4.
सामाजिक स्तरीकरण की अवधारणा समझाइए। सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न स्वरूपों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण की अवधारणा-स्तरीकरण शब्द अंग्रेजी भाषा के Stratification शब्द का हिन्दी रूपान्तरण है। Stratification शब्द मूल रूप से 'स्ट्रेटन' शब्द से बना है, जिसका अर्थ भूमि की परतों से है। इस प्रकार स्तरीकरण की अवधारणा समाजशास्त्र में भूगर्भशास्त्र से ली गयी है। जिस प्रकार भूगर्भशास्त्र में मिट्टी एवं चट्टानों को विभिन्न परतों में बाँटकर अध्ययन किया जाता है, उसी प्रकार समाज में भी धन, सम्पत्ति, व्यवसाय, जाति, प्रजाति आदि के आधार पर विभिन्न स्तर पाये जाते हैं। समाजशास्त्र में इन्हीं स्तरों का अध्ययन सामाजिक स्तरीकरण के अन्तर्गत किया जाता है।
परिभाषाएँ-सामाजिक स्तरीकरण की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -
सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएँ-उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई जा सकती हैं-
बोटोमोर ने सामाजिक स्तरीकरण के निम्नलिखित चार स्वरूपों का उल्लेख किया है -
(1) दासता-
प्राचीन यूनान एवं रोम में समाज का विभाजन दो स्तरों में था -
कानून एवं प्रथा को मान्यता देते हुए जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की जायदाद बन जाता है, तब वह दास कहलाता है। विशेष परिस्थितियों में वह पूर्णतया अधिकार रहित व्यक्ति होता है। दासता असमानता का चरम रूप है। दासता की व्यवस्था में दास का स्वामी मालिक होता है। दास को अपने मालिक की आज्ञा का पालन करना। अनिवार्य होता है। मालिक का दास पर असीमित अधिकार होता है। दासों को खरीदा या बेचा जा सकता है। दासता का आधार हमेशा आर्थिक रहा है।
वर्तमान में दास-प्रथा समाप्त हो गयी है।
(2) एस्टेट-
मध्यकाल में यूरोप में सामाजिक, आर्थिक संरचना तथा स्तरीकरण का मुख्य आधार एस्टेट प्रणाली था। एस्टेट सामंती संरचना के अंग के रूप में विकसित हुई थी। मध्यकाल में यूरोपीय समाज तीन एस्टेटों (श्रेणियों) में बँटा था -
इन तीनों एस्टेटों के सदस्य एक विशेष जीवन शैली के अनुसार रहते थे तथा ऊँचे-नीचे के क्रम में इन तीनों को क्रम से स्थान प्राप्त था। टी.बी. बोटोमोर ने एस्टेट की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं -
(1) एस्टेट कानून द्वारा परिभाषित होता था। इसके अन्तर्गत प्रत्येक एस्टेट की निश्चित प्रस्थिति, अधिकार तथा दायित्व थे।
(2) प्रत्येक एस्टेट में कार्यों का बँटवारा होता था। सरदार या सामंत सारी प्रजा की रक्षा करता था; पादरी सबके लिए समान रूप से प्रार्थना करता था और साधारण जनता (कृषिदास, कृषक, व्यापारी, शिल्पकार आदि) का कर्त्तव्य खेती, पशुपालन एवं व्यापार करना था।
(3) एस्टेट एक प्रकार से राजनीतिक समूह थे। कभी-कभी इस प्रकार के समूहों का आधार राजनैतिक होता था, किन्तु उनमें जाति-प्रथा के समान कठोरता नहीं होती थी।
(4) अन्तर्विवाह और व्यक्तिगत गतिशीलता भी एस्टेट व्यवस्था में एक सीमा तक सहन की जाती थी। औद्योगिक व्यवस्था के प्रसार के साथ ही साथ एस्टेट व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो गयी।
(3) वर्ग व्यवस्था-
वर्ग व्यवस्था खुली सामाजिक स्तरीकरण प्रणाली है। इसमें सामाजिक स्तर का निर्धारण धन, सम्पत्ति, निजी उपलब्धियों और व्यक्तिगत क्षमता के आधार पर होता है। ऐसे लोग जो समान आर्थिक स्रोतों में हिस्सेदार होते हैं, सामाजिक वर्ग कहलाते हैं। जिन्सबर्ग के अनुसार, "वर्ग ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो व्यवसाय, धन, शिक्षा, जीवन-यापन की विधियों, विचारों, मनोभावों, प्रवृत्तियों और व्यवहारों में एक-दूसरे के समान होते हैं अथवा कुछ आधारों पर समानता की भावना से मिलते हैं, और वह इस प्रकार अपने को एक समूह का सदस्य समझते हैं।" इसी तरह एक वर्ग के लोगों के व्यवहार के तरीकों में समानता होती है, जैसे-उपभोग की आदतें, जीवन-स्तर आदि।
वर्ग की विशेषताएँ-वर्ग की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
आधुनिक यूरोप, अमेरिका तथा औद्योगिक समाजों में सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप वर्ग-व्यवस्था है। वर्ग के प्रकार-मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी औद्योगिक समाजों में मुख्यतया दो वर्ग पाये जाते हैं -
टी.बी. बोटोमोर तथा एंथोनी गिडिन्स ने आधुनिक समाज में चार प्रमुख वर्गों का उल्लेख किया है। ये हैं -
(4) जाति व्यवस्था-
जाति व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का बन्द स्वरूप है। यह व्यवस्था भारतीय समाज में एक विशिष्ट स्थान रखती है। यह जाति पर आधारित बन्द स्तरीकरण की व्यवस्था है। इसमें व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति में परिवर्तन सम्भव नहीं है । जाति व्यवस्था परम्परागत वर्ण व्यवस्था से जुड़ी हुई है। वर्ण व्यवस्था के अनुसार समाज चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित है। कालान्तर में इन्हीं वर्णों से विभिन्न जातियों की उत्पत्ति हुई है।
जाति व्यवस्था का मुख्य आधार-जाति व्यवस्था का मूल आधार 'शुद्धता एवं प्रदूषण' है। शुद्धता के स्तर पर जो अधिकतम शुद्ध हैं, उन्हें सामाजिक स्तरीकरण के स्थान क्रम में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया जाता है, जिन समूहों में शुद्धता के तत्त्व कम पाये जाते हैं, उन्हें पदानुक्रम में निम्न स्थान प्राप्त होता है। शुद्धता का आधार विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड, आचरण, खान-पान और छुआछूत के नियमों का पालन है। इस सन्दर्भ में ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च है और शूद्र का स्थान निम्नतम है। संजीव पास बुक्स जाति की विशेषताएँ-सामाजिक स्तरीकरण की दृष्टि से जाति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
प्रश्न 5.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यात्मक एवं संघर्षात्मक विचारधारा का तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण के कारण सभी समाजों में असमानता एवं स्तरीकरण पाया जाता है। स्तरीकरण के कारणों के सम्बन्ध में अनेक समाजशास्त्रियों ने अपने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं। मोटे रूप से सामाजिक स्तरीकरण के कारणों के बारे में समाजशास्त्रियों के विचारों को दो धाराओं में बाँटा जा सकता है -
(अ) प्रकार्यात्मक विचारधारा
(ब) संघर्षात्मक विचारधारा।
(अ) प्रकार्यात्मक विचारधारा
सामाजिक स्तरीकरण की प्रकार्यात्मक विचारधारा के मुख्य प्रतिपादक डेविस और मूरे हैं। उनके अनुसार सामाजिक स्तरीकरण एक प्रकार्यात्मक सामाजिक आवश्यकता है। प्रत्येक समाज के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक संरचना के अन्तर्गत व्यक्तियों को कुछ स्थान तथा उत्तरदायित्व ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया जाये, उनके मन में कुछ पद प्राप्त करने की इच्छा जागृत की जाये। जिन समाजों में प्रतियोगिता अधिक पायी जाती है, वहाँ पदों के लिए प्रेरणा दी जाती है और जिन समाजों में प्रतियोगिता का अभाव होता है, वहाँ कर्तव्यों की प्रेरणा दी जाती है।
आवश्यकताएँ-समाज में सभी आवश्यकताओं का स्थान समान नहीं होता है। कुछ आवश्यकताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। इनके महत्त्व का निर्धारण समाज के प्रतिमानों और मूल्यों के आधार पर होता है। अधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं से सम्बन्धित भूमिकाओं को पूरा करने वाले लोगों की प्रस्थिति ऊँची होती है। समाज उन्हें अधिक सुविधा, संसाधन, पुरस्कार, शक्ति और प्रतिष्ठा प्रदान करता है।
पद-समाज में कुछ पद ऐसे होते हैं, जिनसे सम्बन्धित कार्य हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता है। इन पदों से सम्बन्धित कार्यों को पूरा करने के लिए व्यक्ति में विशिष्ट बौद्धिक क्षमता का होना आवश्यक है। ऐसे पदों का विशेष महत्त्व होता है और इनको प्राप्त करने की इच्छा सभी व्यक्ति रखते हैं। चूँकि ऐसे पद संख्या में कम होते हैं और अभिलाषी अधिक। इसलिए समाज ऐसी विधि को अपनाता है जिससे तार्किक आधार पर महत्त्वपूर्ण पदों को उनके महत्त्व के आधार पर मूल्यांकित किया जा सके। इसके लिए समाज अधिकतम कुशल एवं योग्य व्यक्तियों के चयन के लिए पुरस्कार द्वारा उपयुक्त प्रेरणा की व्यवस्था करता है जिससे लोग उन महत्त्वपूर्ण पदों की ओर आकर्षित हों तथा अधिकतम पुरस्कार प्राप्त करने का प्रयास करें।
इस प्रकार जब समाज में कुछ लोगों को अधिक पुरस्कार एवं सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं और कुछ को कम; तो समाज में स्वतः ही स्तरीकरण पैदा हो जाता है। इसमें पदों का क्रम विन्यास होता है, इसलिए यह बन्द और खुले दोनों समाजों पर लागू होता है।
प्रकार्यात्मक सिद्धान्त की आलोचना-प्रकार्यात्मक सिद्धान्त की प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं -
(1) मेलविन ट्यूमिन का मानना है कि किसी भी समाज में कौनसा कार्य सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है या कौनसा व्यक्ति सबसे योग्य है, इसको मापने का कोई सर्वमान्य आधार नहीं है। बोटोमोर का कहना है कि यह आवश्यक नहीं है कि समाज में हमेशा महत्त्वपूर्ण पद योग्य व्यक्तियों द्वारा ही भरे जाएँ। कभी-कभी तो योग्य व्यक्ति भी अपनी रुचि के कारण महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण ही नहीं करते हैं और कई बार तो अयोग्य व्यक्ति भी घूस और सिफारिश के द्वारा महत्त्वपूर्ण पदों पर पहुँच जाते हैं।
(ब) संघर्षात्मक विचारधारा
राल्फ डैहरेनडोर्फ, सी. राइट मिल्स और मार्क्स ने स्तरीकरण की संघर्षात्मक विचारधारा प्रतिपादित की है। यथा -
(1) रॉल्फ डैहरेनडोर्फ तथा सी. राइट मिल्स के अनुसार सामाजिक स्तरीकरण में शक्ति की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। उनके अनुसार समाज का सक्षम वर्ग अपने से कमजोर वर्ग पर दबाव का प्रयोग करता है। सभी समाजों में कुछ सीमित संसाधन होते हैं। हर समूह उन्हें प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा करता है। प्रतिस्पर्धा में विजेता समूह का उन संसाधनों पर अधिकार हो जाता है। अब विजेता समूह साधनहीन समूह पर दबाव बनाता है और उसको अधिकारों से वंचित भी कर देता है।
(2) कार्ल मार्क्स के अनुसार वर्गों या विभिन्न स्तरों का उद्भव उत्पादन प्रणाली के अनुसार होता है। एक वर्ग वह जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व होता है, और दूसरा वर्ग वह जो स्वामित्व के अधिकार से वंचित होता है और वह पहले वाले वर्ग के अधीन कार्य करता है। समाज के जिन सदस्यों के हाथ में उत्पादन के साधन होते हैं उनकी स्थिति ऊँची होती है, जबकि 'सर्वहारा वर्ग' या 'श्रमिकवर्ग' की स्थिति नीची होती है।
इस प्रकार मार्क्स के अनुसार सामाजिक स्तरीकरण के दो पक्ष स्पष्ट होते हैं -
(i) सामाजिक वर्ग परस्पर विरोधी होते हैं, क्योंकि उनमें से एक शोषण और दमन करता है और दूसरा शोषित व पीडित होता है। पहला वर्ग शोषणकर्ता बर्जुआ या पूँजीपति वर्ग के रूप में ध्रुवीकृत हो जाता है और दूसरा शोषित और पीड़ित वर्ग सर्वहारा वर्ग के रूप में ध्रुवीकृत हो जाता है। इस प्रकार समाज में दो परस्पर विरोधी और संघर्षशील वर्गों का निर्माण हो जाता है।
(ii) मार्क्स का विचार था कि वर्ग-संघर्ष के बाद शोषक या पूँजीपति वर्ग का अन्त हो जायेगा और समाज में उत्पादन के साधनों पर सभी का अधिकार होगा और अन्ततः वर्गविहीन साम्यवादी समाज की स्थापना होगी। मार्क्स की साम्यवाद या वर्ग-विहीन समाज स्थापित करने की वर्ग-संघर्ष की कल्पना काल्पनिक सिद्ध हुई है। उद्योग और राज्य दोनों स्तरों पर संघर्ष के नियमन की नई पद्धतियाँ विकसित हुई हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने पूँजीपति और श्रमिक (सर्वहारा) दोनों वर्गों को अपने लक्ष्य शान्तिपूर्ण ढंग से प्राप्त करने के अवसर प्रदान किए हैं। वर्गों का ध्रुवीकरण न होकर विभिन्न प्रकार के मध्यम व्यावसायिक वर्ग अस्तित्व में आ गये हैं तथा तकनीकी ज्ञान एवं व्यावसायिक कुशलता सामाजिक स्तरीकरण के नये आधार बने रहे हैं।
प्रश्न 6.
प्रस्थितियाँ क्या हैं? प्रदत्त एवं अर्जित प्रस्थितियों को प्राप्त करने के विभिन्न आधारों की विवेचना। कीजिए।
उत्तर:
प्रस्थिति का अर्थ-प्रस्थिति की अवधारणा का प्रयोग राल्फ लिंटन ने अपनी पुस्तक 'द स्टडी ऑफ मैन' में किया। लिंटन के अनुसार, सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को एक समय विशेष में जो स्थान प्राप्त होता है, उसे ही उसकी सामाजिक प्रस्थिति कहा जाता है। एक व्यक्ति की विभिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रस्थितियाँ हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, जब एक लड़का स्कूल में होता है, तो उसकी प्रस्थिति एक 'विद्यार्थी' की होती है, जब वही लड़का किसी स्पोर्ट क्लब की तरफ से खेलता है, तो उसकी प्रस्थिति एक 'खिलाड़ी' की बन जाती है और जब वही लड़का घर जाकर अपने माता-पिता से बातचीत करने लगता है तो उसकी प्रस्थिति 'पुत्र' की हो जाती है। इस प्रकार प्रत्येक सामाजिक स्थिति में व्यक्ति की भिन्न-भिन्न प्रस्थितियाँ हो सकती हैं।
इलियट एवं मैरिल के अनुसार, "प्रस्थिति व्यक्ति की वह स्थिति है जिसे वह किसी समूह में अपने लिंग, आयु, परिवार, वर्ग, व्यवसाय, विवाह अथवा प्रयत्नों आदि के कारण प्राप्त करता है।" प्रस्थिति व्यक्ति की समाज में पद का सूचक होती है तथा यह हमेशा तुलनात्मक होती है। एक प्रस्थिति को दूसरी प्रस्थिति के सन्दर्भ में ही देखा जा सकता है, जैसे-डॉक्टर और मरीज, पिता और पुत्र, अध्यापक और छात्र। प्रस्थिति एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्तियों की तुलना में प्राप्त अधिकारों एवं कर्तव्यों का भी परिचायक है। एक व्यक्ति समाज में एक साथ अनेक प्रस्थितियाँ प्राप्त करता है, किन्तु वह किसी एक प्रमुख प्रस्थिति द्वारा ही समाज में जाना जाता है, जिसे मुख्य प्रस्थिति कहते हैं संजीव पास बुक्स सामाजिक प्रस्थिति के प्रकार राल्फ लिंटन ने प्रस्थिति को प्राप्त करने के आधार पर दो प्रकार की प्रस्थितियों का उल्लेख किया है -
(अ) प्रदत्त प्रस्थिति (Ascribed Status)
(ब) अर्जित प्रस्थिति (Achieved Status)।
(अ) प्रदत्त प्रस्थिति समाज में कुछ प्रस्थितियाँ ऐसी होती हैं जो किसी व्यक्ति को जन्म के आधार पर प्राप्त होती हैं और जिन्हें प्राप्त करने के लिए उसको कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इन्हें प्रदत्त प्रस्थितियाँ कहा जाता है। प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारक-जार्ज लुण्डबर्ग ने प्रदत्त प्रस्थितियों के निर्धारण में निम्नलिखित चार आधारों का उल्लेख किया है -
(i) लिंग-भेद-सभी समाजों में लिंग-भेद के आधार पर दो प्रस्थिति समूहों का निर्धारण होता है—पुरुष एवं स्त्री प्रस्थिति समूह । प्रायः परम्परागत समाज में स्त्री की प्रस्थिति की अपेक्षा पुरुष की प्रस्थिति उच्च मानी जाती रही है। यद्यपि वर्तमान काल में स्त्री-पुरुषों के कार्यों में समानता आ रही है, इसके बावजूद भी लिंग-भेद पर आधारित प्रस्थितियों में अन्तर बना हुआ है।
(ii) आयु-भेद-आयु के आधार पर भी समाज में अलग-अलग प्रस्थितियाँ प्रदान की जाती हैं। प्रायः बड़ी आयु के व्यक्तियों को छोटी आयु के व्यक्तियों से ऊँचा स्थान एवं अधिक सम्मान दिया जाता है। एक विशेष प्रस्थिति प्राप्त करने के लिए निश्चित आयु प्राप्त करना आवश्यक है। जैसे-चुनाव में मत देने के लिए 18 वर्ष तथा चुनाव लड़ने के लिए 25 वर्ष का होना आवश्यक है। लुण्डबर्ग का मानना है कि आयु के मामले में प्रस्थिति का निर्धारण जैविकीय कारणों की अपेक्षा सांस्कृतिक कारणों से अधिक होता है।
(i) नातेदारी सम्बन्ध-नातेदारी के सम्बन्ध भी प्रस्थिति का निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नातेदारी के सम्बन्ध दो प्रकार के होते हैं -
विवाह सम्बन्धी विवाह के कारण बनते हैं, जैसे-पति-पत्नी, साला-साली, बहनोई, सास-श्वसुर आदि। यदि किसी के सम्बन्धी उच्च प्रस्थिति या हैसियत वाले हैं, तो उस व्यक्ति की भी प्रस्थिति कुछ हद तक ऊँची हो जाती है।
(iv) अन्य सामाजिक कारक-उपर्युक्त के अतिरिक्त अन्य बहुत से सामाजिक कारक हैं, जो किसी व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण करते हैं। जैसे-अमेरिकी समाज में नीग्रो प्रजाति के बच्चे को, दूसरे गोरे समुदायों के बच्चों की तुलना में निम्न सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त होती है। इसी तरह अवैध जन्मे बच्चे की प्रस्थिति वैध बच्चों की तुलना में निम्न होती है। गोद लिए बच्चों की प्रस्थिति भी रक्त सम्बन्धी बच्चों के समान नहीं होती है।
(ब) अर्जित प्रस्थिति-समाज में जो प्रस्थिति व्यक्ति अपनी योग्यता एवं प्रयास से प्राप्त करता है, उसे अर्जित प्रस्थिति कहते हैं। डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, प्रशासनिक अधिकारी आदि के पद अर्जित प्रस्थितियाँ हैं। अर्जित प्रस्थिति प्राप्त करने के आधार-अर्जित प्रस्थिति प्राप्त करने के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं' -
प्रश्न 7.
भूमिका से आप क्या समझते हैं? भूमिका प्रतिमान, भूमिका-प्रत्याशा, भूमिका पालन, भूमिका संघर्ष तथा भूमिका स्थिरीकरण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भूमिका का अर्थ तथा परिभाषा-भूमिका का तात्पर्य आशानुरूप और अपेक्षित व्यवहार से है। भूमिका का निर्धारण प्रस्थिति के आधार पर होता है। लिण्टन के अनुसार भूमिका प्रस्थिति का गत्यात्मक पक्ष है। ऑगबर्न और निमकॉफ के अनुसार, "भूमिका एक समूह में एक विशिष्ट पद से सम्बन्धित सामाजिक प्रत्याशाओं एवं व्यवहार प्रतिमानों का एक योग है, जिसमें कर्त्तव्यों तथा सुविधाओं का समावेश होता है।"
उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि -
भूमिका प्रतिमान (Role Set) भूमिका अलग-अलग प्रस्थितियों में ही अलग-अलग नहीं होती, बल्कि एक ही प्रस्थिति में भी व्यक्ति से अलग-अलग भूमिकाओं की आशा की जा सकती है। उदाहरण के लिए, किसी विद्यालय के प्रधानाध्यापक से विद्यालय के शिक्षकों, विद्यार्थियों, चपरासियों, अभिभावकों आदि के साथ भिन्न-भिन्न भूमिका की आशा की जाती है। इसी को भूमिका प्रतिमान कहते हैं।
भूमिका प्रत्याशा (अपेक्षा) (Role Expectation)-समाज में जिन भूमिकाओं की आशा की जाती है उसे 'भूमिका-प्रत्याशा' कहा जाता है। भूमिका पालन (Role Playing)-जब एक व्यक्ति समाज द्वारा निर्धारित प्रतिमानों के अनुरूप अपनी भूमिका निभाता है, तो उसे 'भूमिका पालन' करना कहा जाता है। भूमिका संघर्ष-कभी-कभी व्यक्ति को दो अलग-अलग प्रस्थितियों की भूमिका एक साथ निभानी होती है और यदि उनमें विरोधाभास हो तथा उससे मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का अनुभव होने लगे, तो उसे भूमिका-संघर्ष कहा जाता है। उदाहरण के लिए, जब एक न्यायाधीश के सम्मुख उसके पुत्र को ही अपराधी के रूप में लाया जाता है, तब वह मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का अनुभव करता है, कि वह पिता के रूप में दया करके उसे छोड़ दे या न्यायाधीश के रूप में उसे दण्ड दे।
इन दोनों भूमिकाओं को एक-साथ निभाना कठिन है, यही स्थिति भूमिका-संघर्ष की स्थिति है। आधुनिक परिवर्तनशील समाजों में भूमिका-संघर्ष अधिक पाया जाता है क्योंकि नये और पुराने मूल्य साथ-साथ चलते हैं। - भूमिका संघर्ष की स्थिति में व्यक्ति प्रभावशाली भूमिका को चुन लेता है और अन्य भूमिकाओं को छोड़ देता है। जो लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं, उनके व्यक्तित्व का विघटन होने लगता है। भूमिका संघर्ष में भूमिका के चुनने में व्यक्ति के सांस्कृतिक मूल्य, परम्पराएँ तथा कानून महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ..भूमिका स्थिरीकरण-भूमिका स्थिरीकरण, समाज के कुछ सदस्यों के लिए कुछ विशिष्ट भूमिकाओं को सुदृढ़ करने की प्रक्रिया है। उदाहरण के लिए अक्सर पुरुष कमाने वाले और महिलाएँ घर चलाने वाली रूढिबद्ध भूमिकाओं को निभाते हैं।
प्रश्न 8.
सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता बताइए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा-समाजशास्त्र में सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह अपेक्षा करता है कि वे उसकी संस्कृति के अनुरूप व्यवहार-प्रतिमानों, प्रथाओं, रीति-रिवाजों, मूल्यों, आदर्शों एवं कानूनों के अनुरूप आचरण कर समाज में स्थायित्व एवं व्यवस्था बनाए रखने में मदद करें। लेकिन समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनका व्यवहार सामाजिक प्रतिमानों, मूल्यों एवं कानूनों के प्रतिकूल होता है।
इस प्रकार के व्यवहारों से समाज में अव्यवस्था और अराजकता फैलती है तथा लोगों का जीवन कष्टमय हो जाता है, इसलिए प्रत्येक समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखने हेतु कुछ कार्य-पद्धति विकसित करता है; उसे सामाजिक नियन्त्रण का नाम दिया गया है। सामाजिक नियन्त्रण का अर्थ तथा परिभाषाएँ-सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा का प्रतिपादन सर्वप्रथम अमेरिकी समाजशास्त्री एडवर्ड ए. रॉस ने अपनी पुस्तक 'सोशल कन्ट्रोल' में किया है।
संजीव पास बुक्स एडवर्ड रॉस ने सामाजिक नियन्त्रण को परिभाषित करते हुए लिखा है कि "सामाजिक नियन्त्रण का आशय उन नियम संस्थाओं से है जो समूह की आवश्यकताओं के अनुरूप व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करती हैं।" ऑगबर्न और निमकॉफ के अनुसार, "वे प्रक्रियाएँ और साधन सामाजिक नियन्त्रण हैं, जिनके द्वारा समूह सामाजिक प्रतिमानों से विचलन को रोकता है।" टालकट पारसन्स के अनुसार, "सामाजिक नियन्त्रण वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा अपेक्षित व्यवहार एवं किये गये व्यवहार के बीच के अन्तर को कम से कम किया जाता है।"
पारसन्स का कथन है कि "विपथगामी प्रवृत्तियों की कली को फूल बनने से पहले ही कुचल देना सामाजिक नियन्त्रण है।" उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि समाज में व्यक्ति एवं समूह के व्यवहारों के नियमन की पद्धति को सामाजिक नियन्त्रण कहा जाता है। सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता किसी भी समाज का अस्तित्व एवं निरन्तरता बनाये रखने के लिए सामाजिक नियन्त्रण आवश्यक है। समाज में निरन्तर होते रहने वाले परिवर्तनों में सन्तुलन बनाए रखने के लिए भी सामाजिक नियन्त्रण आवश्यक है।
सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है- .
(1) सामाजिक संगठनों की स्थिरता एवं निरन्तरता-सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा ही सामाजिक संगठन को स्थायी बनाया जा सकता है। नियन्त्रण के कारण व्यक्तियों को मनमाने ढंग से कार्य करने और अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करते रहने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती। इससे सामाजिक जीवन में अनिश्चितता कम हो जाती है और स्थिरता को प्रोत्साहन मिलता है।
(2) परम्पराओं और मूल्यों की रक्षा-सामाजिक नियन्त्रण परम्पराओं की रक्षा करने में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। परम्पराएँ दीर्घकालीन अनुभवों पर आधारित होती हैं, इसीलिए ये सामाजिक संगठन के लिए उपयोगी भी होती हैं। सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा परम्परागत व्यवहार करने पर जोर दिया जाता है और इस प्रकार सामाजिक नियन्त्रण की सहायता से संस्कृति की भी रक्षा होती है।
(3) सामहिक एकता-सामाजिक संगठन के लिए समूह के सदस्यों में एकता का होना आवश्यक है। एकता का अर्थ है-सदस्यों के व्यवहारों, दृष्टिकोणों और मनोवृत्तियों में समानता। सामाजिक नियन्त्रण एक समूह के सदस्यों को समान नियमों के अनुसार कार्य करना ही नहीं सिखाता बल्कि नियमों का उल्लंघन करने पर उन्हें दण्ड भी देता है । समान नियमों के अन्तर्गत रहकर कार्य करने से समान दृष्टिकोण का विकास होता है और इस प्रकार समूह में एकता की स्थापना होती है।
(4) सहयोग-समाज के अस्तित्व में सहयोग का महत्त्व सबसे अधिक है। यदि व्यक्ति और समूह के व्यवहारों पर कोई नियन्त्रण न हो तो कभी भी वे एक-दूसरे को सहयोग न देकर संघर्ष के द्वारा अपने स्वार्थों को पूरा करने का प्रयत्न करेंगे। इसका परिणाम होगा-अनियन्त्रित जीवन और समाज का विघटन। सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति में अपने पद और दायित्वों को समझकर कार्य करने की भावना उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में उसके सामने केवल एक ही मार्ग रह जाता है कि वह पारस्परिक सहयोग के द्वारा अपने लक्ष्यों को प्राप्त करे। इस प्रकार सहयोग की सम्पूर्ण प्रक्रिया नियन्त्रण का ही परिणाम है।
(5) सामाजिक सुरक्षा-सामाजिक नियन्त्रण व्यक्तियों को मानसिक और बाह्य रूप से सुरक्षा प्रदान करने में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। मानसिक सुरक्षा का तात्पर्य है कि व्यक्तियों को यह विश्वास हो कि उनके हितों पर कोई व्यक्ति समाज-विरोधी रूप से आघात नहीं करेगा। बाह्य सुरक्षा का तात्पर्य है कि सम्पत्ति और आजीविका के क्षेत्र में उनका जीवन सुरक्षित रहेगा। सामाजिक नियन्त्रण अनेक नियमों के द्वारा व्यक्ति की समाज-विरोधी प्रवृत्ति को दबाकर, उसे समाज से अनुकूलन करना सिखाता है, इसीलिए पाल लैण्डिस ने यह निष्कर्ष दिया है कि "मानव नियन्त्रण के कारण ही मानव है।"
इस प्रकार समाज में सुरक्षा की स्थापना करने में सामाजिक नियन्त्रण आवश्यक है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि किसी भी समाज का अस्तित्व एवं निरन्तरता बनाए रखने, मानव की अराजक और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति पर नियन्त्रण लगाने, समाज में सन्तुलन बनाए रखने, सामाजिक परम्पराओं और मूल्यों की रक्षा, सामूहिक एकता, सहयोग आदि के लिए सामाजिक नियन्त्रण अत्यन्त आवश्यक है।
प्रश्न 9.
सामाजिक नियन्त्रण के कौन-कौनसे स्वरूप होते हैं?
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के स्वरूप सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था सभी समाजों में होती है, किन्तु सभी समाजों में इसके प्रकारों या स्वरूपों में भिन्नता पायी जाती है। समाजशास्त्रियों ने सामाजिक नियन्त्रण के विभिन्न स्वरूपों का उल्लेख किया है। यथा
(1) चेतन और अचेतन नियन्त्रण (Conscious and Unconscious Control) चार्ल्स हर्टन कूले ने सामाजिक नियन्त्रण के दो प्रकार बताये हैं-
मानव के समस्त व्यवहारों को सामान्यतया दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-चेतन और अचेतन। चेतन व्यवहार वह है जिसे हम जानबूझकर या सचेतन रूप में करते हैं और अचेतन व्यवहार वह है जिसे हम अचेतन रूप में करते हैं। चेतन रूप से व्यवहार को नियन्त्रित करना चेतन नियन्त्रण कहलाता है। विभिन्न प्रकार की लोक-रीतियों, प्रथाओं, नियमों तथा कानूनों आदि का पालन चेतन रूप में किया जाता है क्योंकि ये समूह के कल्याण के लिए आवश्यक माने जाते हैं। अचेतन रूप से व्यवहार पर नियन्त्रण अचेतन नियन्त्रण कहलाता है। हमारे बहुत से व्यवहार अनेक संस्कारों और धार्मिक विश्वासों से निरन्तर प्रभावित होते रहते हैं, यद्यपि हम उनकी उपयोगिता के प्रति जागरूक नहीं होते। इस प्रकार संस्कारों द्वारा स्थापित नियन्त्रण अचेतन सामाजिक नियन्त्रण है।
(2) प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष नियन्त्रण (Direct and Indirect Control) कार्ल मानहीम ने सामाजिक नियन्त्रण को दो भागों में बाँटा है -
यथा प्रत्यक्ष नियन्त्रण-प्रत्यक्ष नियन्त्रण का तात्पर्य ऐसे नियन्त्रण से है जो व्यक्ति पर उसके बहुत समीप के व्यक्तियों द्वारा किया जाये; जैसे-माता-पिता, गुरु, मित्र अथवा पड़ोसी। यह नियन्त्रण प्रशंसा, आलोचना, सम्मान अथवा सामाजिक बहिष्कार आदि के द्वारा लगाया जाता है। नियन्त्रण के इस स्वरूप का प्रभाव स्थायी होता है क्योंकि इसे व्यक्ति आन्तरिक रूप से स्वीकार करता है। प्राथमिक समूह के सदस्यों पर साधारणतया प्रत्यक्ष प्रकार का ही नियन्त्रण लागू रहता है।
अप्रत्यक्ष नियन्त्रण-अप्रत्यक्ष नियन्त्रण का तात्पर्य विभिन्न द्वितीयक समूहों और संस्थाओं द्वारा लगाये गये नियंत्रण से है। आधुनिक समाजों में इस प्रकार के नियन्त्रण के द्वारा सामाजिक नियंत्रण किया जाता है। नियन्त्रण का यह स्वरूप अत्यधिक सूक्ष्म और छोटे से छोटे व्यवहार को नियन्त्रित करने वाला होता है। इसके द्वारा व्यक्तियों को एक विशेष प्रकार का व्यवहार करने के लिए बाध्य किया जाता है।
(3) सकारात्मक एवं नकारात्मक नियन्त्रण (Positive and Negative Control)
किम्बाल यंग ने सामाजिक नियन्त्रण को दो भागों में विभाजित किया है-
सकारात्मक नियन्त्रण-सकारात्मक नियन्त्रण पुरस्कार पर आधारित होता है; जैसे-प्रशंसा, शाबासी तथा ऐसे ही अन्य कारकों से प्रेरित करके व्यक्तियों को समाज विरोधी कार्यों को करने से रोका जाता है तथा समाज-सम्मत कार्यों को करने के लिए प्रेरित किया जाता है। - नकारात्मक नियंत्रण-नकारात्मक नियन्त्रण दण्ड के विधान पर आधारित होता है। जो व्यक्ति समाज विरोधी कार्य करते हैं, उन्हें दण्ड दिया जाता है। यह दण्ड नियमों के उल्लंघन की गम्भीरता के अनुसार सामान्य आलोचना से लेकर मृत्यु दण्ड तक के रूप में हो सकता है। इसी प्रकार दण्ड का स्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकता है; जैसे-शारीरिक दण्ड, आर्थिक दण्ड, अपमान, बहिष्कार आदि।
(4) संगठित, असंगठित तथा सहज नियन्त्रण (Organised, Unorganised and Automatic Control) गुरुविच और मुरे ने सामाजिक नियन्त्रण के निम्नलिखित तीन स्वरूप बताये हैं -
संगठित नियन्त्रण-संगठित नियन्त्रण से अभिप्राय उस नियन्त्रण से है जो अनेक छोटी-बड़ी एजेन्सियों और व्यापक नियमों के द्वारा किसी निश्चित ढाँचे के अन्दर व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित करता है। यह बहुत अधिक नियमबद्ध होता है। इसका विकास नियमित रूप से होता रहता है और इसकी प्रकृति स्वेच्छाचारी कही जा सकती है। विवाह, परिवार, स्कूल, दफ्तर की संस्थाओं द्वारा लगाये गये नियम संगठित नियन्त्रण के अन्तर्गत आते हैं।
असंगठित नियन्त्रण-असंगठित नियन्त्रण को सांस्कृतिक नियमों और प्रतीकों के रूप में देखा जा सकता है। दैनिक जीवन में इसका प्रभाव सर्वाधिक होता है। विभिन्न संस्कारों, परम्पराओं, लोकाचारों और रूढ़ियों व जनरीतियों द्वारा स्थापित नियन्त्रण इसके उदाहरण हैं। . संजीव पास बुक्स सहज सामाजिक नियन्त्रण-सहज सामाजिक नियन्त्रण का आधार व्यक्ति की स्व-प्रेरणा है। विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति स्वविवेक से अपने व्यवहार पर नियन्त्रण करता है। धार्मिक नियम इसी प्रकार के नियन्त्रण के उदाहरण हैं।
(5) औपचारिक और अनौपचारिक नियन्त्रण (Formal and Informal Control) सामाजिक नियन्त्रण का एक अन्य विभाजन दो रूपों में किया जाता है -
औपचारिक नियन्त्रण:
औपचारिक नियन्त्रण लिखित एवं निश्चित कानूनों और नियमों के द्वारा किया जाता है। इसके पीछे राज्य एवं सरकार की शक्ति होती है। नियमों व कानूनों का पालन कराने के लिए औपचारिक संस्थाओं तथा न्याय की व्यवस्था होती है। कानून व नियमों का उल्लंघन करने पर न्यायालय अथवा अन्य किसी सम्बन्धित संस्था द्वारा दण्ड दिया जाता है। उदाहरण के लिए चोरी, डकैती, जालसाजी आदि अपराध करने वालों को औपचारिक प्रक्रिया के माध्यम से दण्डित किया जाता है। कानून, न्यायालय, पुलिस एवं जेल आदि औपचारिक नियन्त्रण के साधन हैं। वर्तमान औद्योगिक जटिल समाजों में औपचारिक नियन्त्रण ही अधिक प्रभावी है।
अनौपचारिक नियन्त्रण:
अनौपचारिक नियन्त्रण अलिखित तथा असंगठित होते हैं। इसमें व्यक्ति एवं समूहों के व्यवहारों को नियन्त्रित करने के लिए राज्य या सरकार एवं कानून द्वारा नियम नहीं बनाये जाते। ये स्वतः विकसित होते हैं। जनरीतियाँ, रूढ़ियाँ, विश्वास, धर्म और नैतिकता आदि अनौपचारिक नियंत्रण के भिन्न-भिन्न साधन हैं । व्यक्ति अपने निकट के सम्बन्धियों तथा समूहों द्वारा अनौपचारिक रूप में नियन्त्रण में रहता है और सामाजिक नियमों का उल्लंघन नहीं करता।
प्रश्न 10.
सामाजिक नियन्त्रण के विभिन्न अभिकरणों या साधनों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण तथा साधन (Agencies and Means of Social Control):
सामाजिक नियन्त्रण एक व्यापक व्यवस्था है, जिसे अनेक अभिकरण तथा साधन संयुक्त रूप से प्रभावपूर्ण बनाते हैं। सामाजिक नियन्त्रण के विभिन्न अभिकरणों या साधनों को मोटे रूप से दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है -
(अ) अनौपचारिक साधन
(ब) औपचारिक साधन। यथा -
(अ) सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन
सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन अलिखित होते हैं और छोटे समूहों में अधिक प्रभावशाली होते हैं। परिवार, नातेदारी एवं पड़ोस, जनरीतियाँ, रूढ़ियाँ या लोकाचार, प्रथाएँ, धर्म और नैतिकता आदि सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन हैं। यथा -
(1) परिवार-परिवार सामाजिक नियन्त्रण का प्राथमिक साधन है। व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार की अहम भूमिका होती है। समाजीकरण द्वारा व्यक्ति सामाजिक मूल्यों, नैतिकताओं, आदर्शों व नियमों आदि से अवगत होता है और उन्हीं के अनुसार आचरण करने लगता है, जिससे सामाजिक नियन्त्रण बना रहता है। माता-पिता एवं अन्य पारिवारिक सदस्यों का बच्चों के व्यवहारों पर सबसे प्रभावी नियन्त्रण रहता है। परिवार में ही बच्चा सहयोग, साहचर्य, पारस्परिक त्याग तथा धार्मिक मूल्यों एवं विश्वासों आदि की भावनाओं को आत्मसात करता है, जिससे उसके व्यवहार पर नियन्त्रण बना रहता है।
(2) नातेदार एवं पड़ोस-पड़ोस और नातेदारी द्वारा भी सामाजिक नियन्त्रण किया जाता है। नातेदारी एक वृहद् समूह है जिसमें वैवाहिक नातेदारी एवं रक्त सम्बन्धी नातेदारी सम्मिलित होती है। नातेदारी के सदस्य व्यक्ति पर सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करते हैं।
(3) सामाजिक प्रतिमान या जन-रीतियाँ, लोकाचार और प्रथाएँ-सामाजिक प्रतिमान के अन्तर्गत जनरीतियाँ, लोकाचार या रूढ़ियाँ तथा प्रथाएँ आदि आती हैं। इनका सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। यथा -
(i) जनरीतियाँ-मैकाइवर के शब्दों में, "जनरीतियाँ समाज में व्यवहार करने की स्वीकृत एवं मान्यता प्राप्त विधियाँ हैं।" ये सामाजिक ढाँचे को व्यवस्थित रखती हैं। समनर ने लिखा है कि "जनरीतियाँ प्राकृतिक शक्तियों के समान होती हैं, जिनका पालन व्यक्ति अचेतन रूप से करता रहा है।" इनका स्वतः जन्म होता है और बार-बार दोहराने में इनका रूप विकसित होता जाता है। नमस्कार करना, आवाज देकर घर में घुसना, सड़क के किनारे चलना, सड़क पर कूड़ा न फेंकना, उचित वेशभूषा में रहना, किसी की वस्तु का उपयोग उससे पूछकर करना आदि जनरीतियाँ हैं। जनरीतियों के उल्लंघन पर समाज द्वारा व्यक्ति की निन्दा या परिहास किया जाता है।
(ii) रूढ़ियाँ या लोकाचार-जन-रीतियों में जब समूह-कल्याण की भावना जुड़ जाती है, तो उन्हें रूढ़ियाँ या लोकाचार कहा जाता है। जनरीतियों की अपेक्षा इनकी स्वीकृति अधिक प्रभावशाली होती है क्योंकि इनमें आवश्यकता पूर्ति का गुण अपेक्षाकृत अधिक होता है। लोकाचारों का उल्लंघन समूह के अस्तित्व के लिए खतरा समझा जाता है।
लोकाचार दो प्रकार के होते हैं -
(क) सकारात्मक लोकाचार और
(ख) नकारात्मक लोकाचार। सकारात्मक लोकाचार वे होते हैं जो कुछ विशेष कार्य करने का आदेश देते हैं; जैसे-सच बोलना चाहिए, ईमानदार होना चाहिए, माता-पिता का आदर करना चाहिए आदि। नकारात्मक लोकाचार कुछ व्यवहारों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं, जैसे-चोरी नहीं करनी चाहिए; अनैतिकता से बचना चाहिए; झूठ नहीं बोलना चाहिए; हिंसा मत करो आदि। लोकाचारों के उल्लंघन करने पर समाज में व्यक्ति को व्यंग्य, आलोचना, बहिष्कार आदि का सामना करना पड़ता है। इनकी शक्ति व प्रभाव कानूनों से अधिक होता है। हमारे समाज में अन्तर्विवाह, गोत्र बहिर्विवाह, जाति व्यवस्था आदि लोकाचार मानव व्यवहार को नियन्त्रित रखते हैं।
(iii) प्रथाएँ-प्रथा में हम उन सभी आदर्श-नियमों को सम्मिलित करते हैं जिनके अनुसार व्यक्ति एक लम्बे समय से कार्य करते आ रहे हैं। व्यक्ति बचपन से ही बहुत-सी प्रथाओं के बीच पलता है और इसलिए प्रथाओं का पालन करना उसकी आदत बन जाती है। जैसे-अपनी ही उपजाति में विवाह करना, गोत्र, प्रवर और पिण्ड के नियन्त्रणों को ध्यान में रखना आदि।
(4) धर्म तथा नैतिकता-धर्म सामाजिक नियन्त्रण का सदैव से ही एक प्रमुख साधन या अभिकरण रहा है। धर्म का सम्बन्ध अलौकिक शक्तियों में विश्वास से है। अलौकिक शक्तियों के भय से व्यक्ति उसके नियमों को मानता है। धर्म में ईश्वर, भूत-प्रेत, आत्मा, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य आदि की धारणाएं सम्मिलित की जाती हैं। धर्म से सम्बन्धित इन धारणाओं ने मानव के समाज विरोधी व्यवहारों को अंकुश में रखा है। नैतिकता धर्म का ही एक अंग है। नैतिकता का सम्बन्ध उन सभी नियमों से है जो व्यक्ति को उचित और अनुचित का बोध कराते हैं। नैतिकता कर्त्तव्य-बोध पर आधारित है। यह अनुचित और बुरे कार्यों पर रोक लगाती है। नैतिक नियमों के उल्लंघन पर सामाजिक निन्दा, उपहास तथा मानहानि का डर बना रहता है।
(ब) सामाजिक नियन्त्रण के औपचारिक साधन सामाजिक नियन्त्रण के औपचारिक साधनों में राज्य या सरकार तथा कानून प्रमुख हैं। यथा
(5) राज्य-वर्तमान जटिल समाजों में राज्य सामाजिक नियन्त्रण का एक प्रभावी साधन बन गया है। राज्य एक सत्ता है जो प्रशासन, कानून, सेना, पुलिस और न्यायालयों के द्वारा व्यक्ति व समूह के व्यवहारों पर औपचारिक रूप से नियन्त्रण स्थापित करती है। राज्य का कार्य अपने सभी नागरिकों के अधिकारों और कर्त्तव्यों को स्पष्ट करना, नीतियों का निर्धारण करना, दण्ड व्यवस्था को लागू करना, कल्याणकारी कानून बनाना तथा उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है। राज्य व्यक्ति में उन सभी क्षमताओं को उत्पन्न करता है जो सामाजिक नियन्त्रण के लिए आवश्यक हैं।
(6) कानून-कानून समाज-आधारित स्वीकृति है। सरकार कुछ नियमों को बनाती है और वे नियम समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों पर बिना किसी अपवाद के समान रूप से लागू होते हैं। इन्हीं को कानून कहते हैं। कोई भी कानून साधारणतया तभी बनता है जब वह सामाजिक प्रथाओं द्वारा स्वीकृत होता है।
कानून समाज में दो प्रकार से लोगों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखता है। यथा -
प्रश्न 11.
सामाजिक नियन्त्रण के साधनों के रूप में कानून की भूमिका का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रणों के साधनों के रूप में कानून की भूमिका कानून सामाजिक नियन्त्रण की औपचारिक व्यवस्था है। रोज का कथन है कि कानून मानव व्यवहार को नियन्त्रित करने वाले औपचारिक और विशिष्ट नियमों का स्वरूप है, जो उन लोगों के द्वारा बनाए जाते हैं, जिन्हें राज्य में राजनैतिक शक्ति प्राप्त है। कानून को लागू करने और उसका पालन कराने का दायित्व राज्य और सरकार का होता है। विधायिका कानून बनाती है और कार्यपालिका उनकी अनुपालना कराती है। कानूनों को लेकर जब कोई विवाद पैदा होता है, तो न्यायपालिका उसकी व्याख्या करती है और उस पर अपना निर्णय देती है। आधुनिक समाज में कानून सामाजिक नियन्त्रण का सबसे सशक्त साधन है। एडवर्ड रॉस का मानना है कि कानून सामाजिक नियन्त्रण का सबसे अधिक विशेषीकृत और अत्यधिक शक्तिशाली वाहक है, जिसे समाज स्वयं क्रियाशील बनाता है।
रास्की पाउन्ड सामाजिक नियन्त्रण में कानून की भूमिका को तीन भागों में विभाजित करते हैं -
सामाजिक नियन्त्रण में कानून की भूमिका का विस्तृत विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है -
(1) व्यक्ति और समूह के व्यवहारों पर नियन्त्रण-आधुनिक समाजों का निर्माण विशेषीकृत इकाइयों से होता है। इन समाजों में प्रत्येक व्यक्ति ऐसी समितियों और संघों का निर्माण करता है जिनसे वह अपने अधिक से अधिक से अधिक स्वार्थों को पूरा कर सके। इसका परिणाम यह होता है कि शक्तिशाली वर्ग निर्बल वर्ग का शोषण करने लगते हैं। प्रथाएँ इस स्थिति से समाज को नहीं बचा पातीं। ऐसी स्थिति में यह कार्य.कानून का है कि वह शक्ति के व्यवस्थित प्रयोग द्वारा सभी व्यक्तियों के व्यवहारों में समायोजन स्थापित करे और उन्हें एक-दूसरे के अधिकारों में हस्तक्षेप करने से रोके। इसके लिए कानून प्रत्येक व्यक्ति को कुछ मौलिक अधिकार देते हैं और जो व्यक्ति इन कानूनों की अवहेलना करते हैं, उन्हें कुछ दूसरे कानूनों के द्वारा एक निश्चित दण्ड दिया जाता है। इससे सभी व्यक्तियों और समूहों के व्यवहारों पर एक बाध्यतामूलक नियन्त्रण लगा रहता है।
(2) विवादों को सुलझाने का कार्य-समाज में बहुत से नियम होने पर भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जबकि दो पक्षों के बीच किसी विवाद को सुलझाना कठिन हो जाता है। इस दशा में कानून समाज द्वारा स्वीकृत सिद्धान्तों के आधार पर इन विवादों को सुलझाता है तथा प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तित्व का विकास करने के अधिकतम अवसर प्रदान करता है। इससे न केवल सभी को संरक्षण मिलता है बल्कि सामाजिक व्यवस्था की भी स्थापना होती है।
(3) वैधानिक चेतना उत्पन्न करना-कानून सार्वजनिक हित में होते हैं, किसी विशेष व्यक्ति के हित में नहीं। इस दृष्टिकोण से कानून का एक प्रमुख कार्य अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन तथा इससे सम्बन्धित समस्याओं के बारे में चेतना उत्पन्न करना है। प्रजातन्त्र के वर्तमान युग में इसी चेतना से वास्तविक समाजीकरण हो सकता है। कानून व्यक्ति को अपने अधिकारों के बारे में जागरूक बनाते हैं। इससे न केवल शोषण में कमी होती है, बल्कि सामाजिक समस्याएँ भी आसानी से पैदा नहीं हो पातीं।
(4) प्रथाओं की रक्षा-कानून वे सब कार्य करते हैं जो प्रथाओं द्वारा किये जाते रहे हैं। कानून में प्रथाओं का समावेश होने के कारण वे नैतिक व्यवहारों को उसी प्रकार बढ़ावा देते हैं जिस प्रकार कि प्रथायें। कानूनों का प्रमुख कार्य प्रथाओं को ही सुदृढ़ बनाना होता है जिससे सम्पूर्ण समाज की नैतिकता की रक्षा हो सके। ..
(5) सामाजिक परिवर्तन का रूप निर्धारित करना-आधुनिक समाज अत्यधिक परिवर्तनशील है। इसमें व्यवहार के तरीकों, विचारों और मनोवृत्तियों में तेजी से परिवर्तन होता रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि बहुत से व्यक्ति बदली हुई दशाओं से अनुकूलन नहीं कर पाते और इस प्रकार तरह-तरह की सामाजिक समस्यायें पैदा हो जाती हैं। कानून का कार्य अनियन्त्रित एवं व्यर्थ के परिवर्तन को रोककर समाज में नियोजित रूप से परिवर्तन लाना है, जिससे समाज के लक्ष्यों और साधनों के बीच सन्तुलन बना रहे।
(6) सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों प्रकार से नियन्त्रण करना-समाज में कानून दो प्रकार से लोगों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखता है -
सकारात्मक पद्धति में कानून कुछ कार्यों को करने का निर्देश देता है और उन कार्यों को बेहतर ढंग से करने पर उसके लिए पुरस्कार, पदक, प्रमाण पत्र आदि की व्यवस्था की जाती है। नकारात्मक पद्धति में कानून कुछ कार्यों को करने के लिए मना करता है और न मानने पर दण्ड की व्यवस्था करता है। इसी तरह से कानून वैयक्तिक एवं सामूहिक दोनों ही स्तरों पर व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करता है।
प्रश्न 12.
सामाजिक नियन्त्रण के साधन के रूप में राज्य की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के साधन के रूप में राज्य की भूमिका राज्य सामाजिक नियन्त्रण का एक प्रभावशाली अभिकरण है। इसका कार्य सामाजिक सम्बन्धों को नियमित बनाना, अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट करना, नीतियों का निर्धारण करना और दण्ड व्यवस्था को प्रभावी बनाकर समाजविरोधी कार्यों पर रोक लगाना है। सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की भूमिका का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है -
(1) नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा-राज्य की दृष्टि में समाज के सदस्य नागरिक के रूप में देखे जाते हैं। प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करके उनमें समाज व्यवस्था के प्रति विश्वास उत्पन्न करता है।
(2) कानूनों का निर्माण-राज्य का अपना क्षेत्र सरकार तथा नागरिक होते हैं। सरकार में सरकारी संस्थाएँ तथा कार्यकर्ता होते हैं जिनके द्वारा राज्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति करता है। राज्य कानूनों का निर्माण करके सभी व्यक्तियों के व्यवहारों में एकरूपता लाने का प्रयास करता है। राज्य के कानून एवं नियम सरकारी तन्त्र द्वारा वर्गीकृत, निर्धारित, नियमित तथा अनुमोदित किये जाते हैं। राज्य के पदाधिकारी कानूनी प्रावधानों के अनुसार सामाजिक नियन्त्रण स्थापित करते हैं। ये प्रावधान वास्तव में औपचारिक स्वीकृतियाँ हैं जो समाज के नियुक्त तथा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में होती हैं।
ये स्वीकृतियाँ निश्चित तरीकों तथा लिखित संहिता में निहित होती हैं। दूसरे शब्दों में, साधारणतया कानून समाज की जनरीतियों, लोकाचारों और प्रथाओं को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं, इसलिए इनका प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। कानून बनाने की शक्ति केवल राज्य के पास ही है, इसलिए सभी व्यक्तियों और समूहों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखने में राज्य का प्रभाव अत्यधिक व्यापक हो जाता है।
(3) दण्ड के द्वारा नियन्त्रण-राज्य के पास दण्ड की व्यापक शक्ति होती है जिसका उपयोग सरकार की सहायता से करता है। सरकार में प्रशासन तथा न्यायालय के द्वारा दण्ड की व्यवस्था की जाती है। राज्य इन संस्थाओं के माध्यम से कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों को शारीरिक या आर्थिक दण्ड देकर या दण्ड का भय दिखाकर उन पर नियन्त्रण रखता है। इस प्रकार राज्य नागरिकों के समाज-विरोधी व्यवहारों पर प्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखता है।
(4) कल्याणकारी व्यवस्था का निर्माण-वर्तमान राज्य सभी पिछड़े हुए और निर्बल समूहों के कल्याण के लिए अनेक सुविधाएँ प्रदान करके आन्तरिक शान्ति की स्थापना करते हैं। आज के युग में अधिकांश राज्य एक कल्याणकारी संस्था का रूप ले रहे हैं। हमारे देश में सरकारें तीन स्तरों पर गठित होती हैं-केन्द्रीय स्तर, राज्य स्तर और स्थानीय स्तर। राज्य के ये तीनों रूप तथा अभिव्यक्तियाँ कल्याणकारी कार्यों के माध्यम से सामाजिक नियन्त्रण की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। स्थानीय स्तर पर भी नगरपालिकाएँ तथा ग्राम पंचायतों में समाज के उपेक्षित सदस्यों, अनुसूचित जाति, जनजाति, महिलाओं तथा अन्य कमजोर वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया गया है, जिससे ग्रामीण शक्ति संरचना, नेतृत्व तथा महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आया है। इस शक्ति से स्थानीय संस्थाएँ भी सामाजिक नियन्त्रण का एक सशक्त साधन बन गयी हैं। वे अब प्रशासनिक क्षेत्रों का भी नियन्त्रण का कार्य करती हैं।
(5) समस्याओं के समाधान द्वारा नियन्त्रण-राज्य सभी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक समस्याओं का समाधान करके सामाजिक नियन्त्रण की स्थापना करता है।।
(6) आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा-सामाजिक नियन्त्रण में राज्य प्रत्यक्ष रूप से योगदान देता है। यह कार्य आन्तरिक शान्ति स्थापित करके तथा बाहरी आक्रमणों से राज्य को सुरक्षित बनाकर किया जाता है। आन्तरिक सुरक्षा के लिए प्रत्येक राज्य पुलिस, प्रशासन और न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ बनाकर करता है जिससे कानूनों की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों पर निगाह रखी जा सके और दण्ड के द्वारा उनके विपथगामी व्यवहार को नियन्त्रित किया जा सके। बाहरी आक्रमणों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करने के लिए राज्य सेना को संगठित करता है। इसके अतिरिक्त प्रचार, नेतृत्व और जनमत के द्वारा भी सुरक्षा प्रदान करने का कार्य करता है।
प्रश्न 13.
अनौपचारिक नियन्त्रण से आप क्या समझते हैं? समाज में अनौपचारिक नियन्त्रण कैसे लागू किया जाता है?
उत्तर:
अनौपचारिक नियन्त्रण से आशय-अनौपचारिक नियन्त्रण वह पद्धति है जिसके अन्तर्गत सांस्कृतिक नियमों जैसे-प्रथा, परम्परा, लोकाचार, नैतिक नियम आदि के माध्यम से व्यक्ति व समूह के व्यवहारों को निर्देशित किया जाता है तथा जिसका पालन समूह द्वारा नैतिक कर्त्तव्य के रूप में किया जाता है। अनौपचारिक नियन्त्रण की प्रकृति को इसकी अग्रलिखित विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है -
अनौपचारिक नियन्त्रण को लागू करने के तरीके समाज में अनौपचारिक नियन्त्रण निम्नलिखित चार तरीकों से लामू किया जाता है -
(1) सामाजिक पारितोषिक (Social Reward):
अच्छे कार्यों के लिए शाबासी देना, सम्मान करना, कुछ प्रतिष्ठित पद देना, मुस्कराकर स्वीकृति देना आदि व्यक्तियों को समाज-सम्मत कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं और व्यक्ति गलत काम नहीं करता है।
(2) सामाजिक दण्ड (Social Punishment):
अनौपचारिक नियन्त्रण में दण्ड का प्रावधान सामाजिक प्रतिमानों एवं मूल्यों के प्रतिकूल काम करने पर किया जाता है। इसके अन्तर्गत अप्रसन्नता प्रकट करना, आलोचना करना, उपहास करना, शारीरिक धमकियाँ देना इत्यादि शामिल हैं। इन सभी का मुख्य उद्देश्य विचलित व्यवहारों को रोकना है।
(3) अनुनय (Request):
अनुनय एक ऐसा तरीका है जिससे विचलित व्यक्तियों में अच्छे कार्यों के लिए विश्वास पैदा किया जाता है। उदाहरण के लिए, एक फुटबाल खिलाड़ी, जो प्रशिक्षक के नियमों का उल्लंघन करता है, उससे अन्य खिलाड़ी और प्रशिक्षक प्रशिक्षण को गम्भीरता से लेने का अनुनय करते हैं तथा उसे नियमों की अनुपालना के लिए सामूहिक रूप से बाध्य करते हैं।
(4) पुनः परिभाषित प्रतिमान (Re-defined Patterm):
सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप बहुत से सामाजिक मूल्यों और प्रतिमानों में बदलाव आता है। तब हमारी परिस्थितियों एवं भूमिकाओं में भी काफी परिवर्तन देखने को मिलता है। सामाजिक नियन्त्रण के जटिल प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण के लिए, एक समय में स्त्रियों का घर से बाहर निकलकर दफ्तरों में कार्य करना अजीब लगता था; किन्तु आज के समय में आर्थिक विकास, शिक्षा के विस्तार एवं महिला आन्दोलन के फलस्वरूप लोगों की मनोवृत्तियों में काफी परिवर्तन आया है। लोग अब ऐसे कार्यों को बुरा नहीं मानते, बल्कि पुरुष वर्ग नई परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बिठा रहा है और अपनी बदली हुई भूमिकाओं को ठीक प्रकार से निभा रहा है।