Rajasthan Board RBSE Class 11 Psychology Important Questions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग Important Questions and Answers.
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Question 1.
जन्मजात प्रेरक है
(अ) भूख
(ब) रुचि
(स) जीवन लक्ष्य
(द) प्रशंसा एवं निंदा
उत्तर :
(अ) भूख
Question 2.
प्रेरणा का जीवन में महत्त्व है
(अ) समस्त व्यवहार का परिचालन होता है ।
(ब) कार्य शीघ्र तथा कुशलतापूर्वक सम्पन्न होते हैं
(स) सम्बन्धित विषय को शीघ्र सीख लिया जाता है।
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर :
(द) उपर्युक्त सभी।
Question 3.
जन्मजात प्रेरकों के विषय में सत्य है
(अ) सभी मनुष्यों में समान होते हैं
(ब) इन्हें सीखना नहीं पड़ता
(स) ये अधिक प्रबल होते हैं
(द) उपर्युक्त सभी तथ्य सत्य हैं।
उत्तर :
(द) उपर्युक्त सभी तथ्य सत्य हैं।
Question 4.
जन्मजात प्रेरक नहीं है
(अ) भूख
(ब) प्यास
(स) मद-व्यसन
(द) काम।
उत्तर :
(स) मद-व्यसन
Question 5.
यौन-प्रेरणा का सम्बन्ध किस ग्रन्थि के स्राव से है
(अ) पैन्क्रियाज ग्रन्थि
(ब) अभिवृक्क ग्रन्थि
(स) जनन ग्रन्थि
(द) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर :
(स) जनन ग्रन्थि
Question 6.
अर्जित प्रेरकों के विषय में सत्य है
(अ) इन्हें व्यक्ति समाज में रहकर सीखता है
(ब) भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में इनका स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है
(स) अर्जित प्रेरकों की समुचित पूर्ति के अभाव में जीवन चलता रहता है
(द) उपर्युक्त सभी तथ्य सत्य हैं।
उत्तर :
(द) उपर्युक्त सभी तथ्य सत्य हैं।
Question 7.
मूल प्रवृत्तियों की विशेषताएँ हैं
(अ) ये जन्मजात होती हैं,
(ब) प्राणियों के स्वभाव में निहित होती है,
(स) मूल प्रवृत्तियाँ किसी-न-किसी संवेग से सम्बद्ध होती
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(द) उपर्युक्त सभी
अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रेरणा की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
प्राणी के व्यवहार को आरंभ करने तथा दिशा प्रदान करने वाली क्रिया के सामान्य प्रतिमान के प्रभाव को प्रेरणा के नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 2.
प्रेरणायुक्त व्यवहार के मुख्य लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(i) अतिरिक्त शक्ति का संचालन,
(ii) निरन्तरता,
(iii) परिवर्तनशीलता,
(iv) लक्ष्य प्राप्त करने की बेचैनी तथा
(v) लक्ष्य प्राप्ति के साथ बेचैनी की समाप्ति।
प्रश्न 3.
क्या प्रेरणाओं के नितान्त अभाव में कोई व्यवहार संभव है ?
उत्तर :
प्रेरणाओं के नितान्त अभाव में कोई व्यवहार संभव नहीं है।
प्रश्न 4.
जन्मजात प्रेरक क्या हैं ?
उत्तर :
जन्मजात प्रेरक वे प्रेरक हैं जो जन्म से ही बच्चों में विद्यमान होते हैं।
प्रश्न 5.
अर्जित प्रेरक क्या हैं ?
उत्तर :
ऐसे प्रेरक, जो न तो जन्मजात होते हैं और न ही उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध शारीरिक या प्राणात्मक आवश्यकताओं से होता है, अर्जित प्रेरक कहलाते हैं।
प्रश्न 6.
अर्जित प्रेरकों के मुख्य वर्ग कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
अर्जित प्रेरकों के मुख्य वर्ग हैं-
(क) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक तथा
(ख) सामाजिक अर्जित प्रेरक।
प्रश्न 7.
चार मुख्य व्यक्तिगत अर्जित प्रेरकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
1. आकांक्षा का स्तर,
2. जीवन लक्ष्य,
3. रुचियाँ,
4. आदतों की विवशता।
प्रश्न 8.
किस मनोवैज्ञानिक ने सर्वप्रथम उपलब्धि प्रेरक को एक मनोजन्य आवश्यकता के रूप में प्रतिपादित किया था ?
उत्तर :
मरे नामक मनोवैज्ञानिक ने।
प्रश्न 9.
अभिप्रेरित व्यवहार के कोई दो लक्षण बताइए।
उत्तर :
(क) निरन्तरता,
(ख) लक्ष्य प्राप्त करने की बेचैनी।
प्रश्न 10.
संवेग से क्या आशय है ?
उत्तर :
संवेग एक प्रकार की भावनामय स्थिति होती है जिसमें व्यक्ति का मनोशारीरिक सन्तुलन पूर्ण रूप से टूट जाता है। क्रोध, भय, स्नेह, सुख तथा घृणा आदि मुख्य संवेग हैं।
प्रश्न 11.
संवेग की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेग में आने, भड़क उठने अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।
प्रश्न 12.
संवेग को आप किस प्रकार की स्थिति मानते हैं तथा इनकी उत्पत्ति मुख्य रूप से किन कारणों से होती है?
उत्तर :
संवेग अपने आप में एक प्रकार की मनोवैज्ञानिक स्थिति या अवस्था होते हैं तथा इनकी उत्पत्ति सदैव कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों से ही होती है।
प्रश्न 13.
संवेगावस्था में उत्पन्न होने वाले बाहरी शारीरिक परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(i) चेहरे पर अभिव्यक्तियों में परिवर्तन,
(ii) स्वर में परिवर्तन,
(iii) शारीरिक मुद्राओं में परिवर्तन।
प्रश्न 14.
संवेगों के परिणामस्वरूप वैद्युतिक त्वक् अनुक्रिया में होने वाले परिवर्तन का मापन किस यन्त्र द्वारा किया जाता है ?
उत्तर :
वैद्युतिक त्वक अनुक्रिया में होने वाले परिवर्तन का मापन साइकोगैल्वेनोमीटर नामक यन्त्र द्वारा किया जाता है।
प्रश्न 15.
मुख्य सरल संवेग कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
मुख्य सरल संवेग हैं - भय, क्रोध, आश्चर्य, शोक तथा हर्ष।
प्रश्न 16.
मुख्य जटिल संवेग कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
मुख्य जटिल संवेग हैं- घृणा, प्रेम तथा उपेक्षा।
प्रश्न 17.
संवेग सम्बन्धी जेम्स लांज सिद्धान्त किन मनोवैज्ञानिकों ने प्रतिपादित किया था तथा इससे सम्बन्धित सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर :
जेम्स लांज सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिका निवासी विलियम जेम्स तथा डेनमार्क निवासी लांज नामक मनोवैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से प्रतिपादित किया था। इस सिद्धांत के अनुसार कुछ विशिष्ट शारीरिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप व्यक्ति को अभीष्ट संवेगों की अनुभूति होती है।
प्रश्न 18.
संवेग सम्बन्धी हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किन मनोवैज्ञानिकों ने किया था ?
उत्तर :
संवेग सम्बन्धी हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त का प्रतिपादन कैनन तथा वार्ड नामक मनोवैज्ञानिकों ने किया था।
प्रश्न 19.
संवेगों के अवदमन से क्या आशय है ?
उत्तर :
संवेगों को सप्रयास नियंत्रित करना, परिवर्तित करना अथवा उन्हें पूर्ण रूप से रोक देना ही संवेगों का अवदमन कहलाता है।
प्रश्न 20.
संवेगों को नियन्त्रित करने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए?
उत्तर :
संवगों को नियंत्रित करने के लिए व्यक्ति को संवेगों का अवदमन नहीं करना चाहिए बल्कि संवेगों को रूपान्तरित करना चाहिए।
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर (SA1)
प्रश्न 1.
संवेगों का व्यक्ति के जीवन में क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
व्यक्ति के जीवन में संवेगों का विशेष महत्त्व है। इस महत्त्व को अग्रलिखित बिन्दुओं के आधार पर दर्शाया जा सकता
1. प्रेम, वात्सल्य, सहानुभूति आदि संवेगों के आधार पर ही समाज में सौहार्द्रपूर्ण वातावरण का सृजन होता है।
2. जीवन को सरस, आकर्षण युक्त और सहज बनाने की दृष्टि से संवेगों का विशेष महत्त्व है।
3. संवेग व्यक्ति को क्रियाशील बनाने के लिए प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं।
4. संवेगों से व्यक्ति को विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों के प्रति अनुक्रिया करने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
5. विषम परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए अपने अस्तित्व को बनाए रखना तथा मानव समाज को उत्तरोत्तर विकास की दिशा में अग्रसरित करना संवेगों के फलस्वरूप ही संभव हो सका है।
6. राष्ट्रप्रेम की भावना और राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास भी उपयुक्त संवेगों के विकास पर ही आश्रित है।
प्रश्न 2.
संवेगों के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
मनुष्यों में अनेक संवेग पाए जाते हैं। इन संवेगों की अभिव्यक्ति, लक्षण एवं प्रभाव भिन्न-भिन्न होते हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए समस्त संवेगों को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभक्त किया गया है। ये वर्ग हैं क्रमशः सरल संवेग तथा जटिल संवेग। सरल संवेग उन संवेगों को कहा जाता है जो अपने आप में शुद्ध होते हैं अर्थात् जिनके परिणामस्वरूप केवल एक ही प्रकार के संवेगात्मक लक्षण उत्पन्न होते हैं। इनमें एक से अधिक प्रकार के संवेगात्मक लक्षण मिश्रित रूप में नहीं पाए जाते। मुख्य सरल संवेग हैं - भय, क्रोध, आश्चर्य, शोक तथा हर्ष।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि शुद्ध सरल संवेग केवल बच्चों में ही पाए जाते हैं। द्वितीय वर्ग के संवेग अर्थात् जटिल संवेग सदैव मिश्रित अवस्था में पाए जाते हैं। जटिल संवेगों में एक से अधिक प्रकार के संवेगात्मक लक्ष्ण पाए जाते हैं। जटिल संवेगों की उत्पत्ति सामान्य रूप से सामाजिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप ही होती है। जटिल संवेग बच्चों में नहीं पाए जाते, ये संवेग केवल बड़े व्यक्तियों में ही पाए जाते हैं। मुख्य जटिल संवेग हैं - घृणा, प्रेम तथा उपेक्षा।
प्रश्न 3.
संवेगों के अवदमन से क्या आशय है ?
उत्तर :
मानव जीवन में संवेगों का एक विशेष स्थान है। व्यक्ति के व्यवहार पर विभिन्न संवेगों का एक विशेष प्रभाव पड़ता है। अपने व्यवहार के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों पर भी विभिन्न संवेगों की अभिव्यक्ति का अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए- यदि कोई व्यक्ति सामान्य से अधिक क्रोधित होता है तो उसके अन्य लोगों से अच्छे सम्बन्ध नहीं रह सकते हैं। इसी प्रकार अन्य संवेगों का भी भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभाव पड़ता रहता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक समाज में संवेगों को पूर्णरूपेण अनियन्त्रित रूप से प्रकट नहीं होने दिया जाता। इसलिए अनेक संवेगों को दबाने अथवा छिपाने का प्रयास भी किया जाता है।
संवेग व्यक्ति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है तथा यदि प्रयास न किया जाए तो अनुकूल परिस्थितियों में संवेगों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हो ही जाती है। परन्तु सामाजिक जीवन में व्यक्ति को संवेगों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति को नियंत्रित अथवा परिवर्तित करना पड़ता है। संवेगों को सप्रयास नियंत्रित करना, परिवर्तित करना तथा उन्हें पूर्ण रूप से रोक देना ही संवेगों का अवदमन कहलाता है। संवेगों के अवदमन की स्थिति में संवेगों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति नहीं हो पाती।
प्रश्न 4.
प्रेरकों की प्रबलता-मापन की चुनाव विधि का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
चुनाव विधि : प्रेरकों की प्रबलता की तुलनात्मक माप करने के लिए चुनाव विधि (Choice Method) को अपनाया जाता है। इस विधि के अन्तर्गत एक ही समय में दो प्रेरकों को सक्रिय रूप दिया जाता है तथा तब देखा जाता है कि प्राणी पहले किस प्रेरक से प्रभावित होता है।
इस विधि द्वारा प्रेरकों की माप के लिए चूहे के सम्मुख समान दूरी एवं समान बाधाओं के पार अलग-अलग स्थान पर खाना तथा पानी रखे गए। तब देखा गया कि चूहा पहले पानी की ओर अग्रसर हुआ। इससे निष्कर्ष निकाला गया कि इस समय प्यास का प्रेरक अधिक प्रबल था।
प्रश्न 5.
जीवन में प्रेरणाओं के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन में प्रेरणाओं का महत्त्व : प्रत्येक प्राणी के जीवन में प्रेरणा का अत्यधिक महत्त्व होता है। प्रेरणा से ही उसकी समस्त गतिविधियों एवं व्यवहार का परिचालन होता है। यदि प्रेरणाओं का नितान्त अभाव हो तो किसी भी प्रकार का व्यवहार हो ही नहीं सकता। वस्तुतः प्रेरणाओं से सम्बन्धित कार्य या व्यवहार अधिक शीघ्रता एवं कुशलता से पूरा होता है। प्रेरणा ही हमारे व्यवहार को निरन्तरता भी प्रदान करती है।
इसके परिणामस्वरूप कठिन से कठिन कार्य भी सम्पन्न हो जाता है। प्रेरणा की प्रबलता के फलस्वरूप प्राणी में शक्ति का अतिरिक्त संचारण हो जाता है और उसके द्वारा अधिक कार्य हो जाता है। प्रेरणा का शिक्षा के क्षेत्र में विशेष महत्त्व है। प्रेरित व्यक्ति सम्बन्धित विषय को अति शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत प्रेरणा के अभाव में सरल विषय को भी सीखना संभव नहीं होता। इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रेरणा का प्रायः जीवन के सभी क्षेत्रों में विशेष महत्त्व होता है।
प्रश्न 6.
जन्मजात तथा अर्जित प्रेरकों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जन्मजात तथा अर्जित प्रेरकों में अंतर : जन्मजात तथा अर्जित प्रेरकों में मूलभूत अंतर निम्नलिखित हैं :
1. जन्मजात प्रेरक सभी मनुष्यों में समान होते हैं तथा इन्हें सीखना नहीं पड़ता। इसके विपरीत अर्जित प्रेरकों को व्यक्ति समाज में रहकर सीखता है तथा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए इनका स्वरूप भी भिन्न-भिन्न हो सकता है।
2. जन्मजात प्रेरकों का सीधा सम्बन्ध मनुष्य की जैविक, शारीरिक एवं नैतिक आवश्यकताओं से होता है, परन्तु अर्जित प्रेरकों का सम्बन्ध उनकी सामाजिक दशाओं से होता है।
3. जन्मजात प्रेरक अधिक प्रबल तथा अधिक आवश्यक होते हैं। इनकी तुलना में अर्जित प्रेरकों की प्रबलता कम होती है तथा वे उतने अधिक आवश्यक भी नहीं होते, अर्थात् उनकी समुचित पूर्ति न होने पर भी जीवन चलता रहता है।
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर (SA2)
प्रश्न 1.
संवेगों को नियन्त्रित करने के मुख्य उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
संवेगों को नियन्त्रित करने के मुख्य उपाय : यह सत्य है कि संवेगों के अवदमन से विभिन्न हानियाँ होती हैं, परन्तु सभ्यता के मूल्यों को ध्यान में रखते हुए सभी संवेगों को स्वच्छन्द रूप से अभिव्यक्त भी नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में कुछ संवगों को नियन्त्रित करना अनिवार्य होता है। संवेगों को नियंत्रित करने के निम्नलिखित उपाय सामान्य रूप से हानिरहित समझे जाते हैं :
1. संवेगों का निरोध : संवेगों के निरोध से यह आशय है कि अवांछनीय संवेगों को उत्पन्न ही न होने दिया जाए। इसके लिए वातावरण एवं परिस्थितियों को नियंत्रित एवं परिवर्तित करना होगा। उदाहरण के लिए, यदि आप चाहते हैं कि आप क्रोधित न हों तो निश्चित रूप से आपको उन परिस्थितियों को नियन्त्रित करना होगा, जिनमें क्रोधित होने की संभावनाएँ निहित होती हैं। इसके अतिरिक्त अवांछनीय संवेग के निरोध के लिए उस संवेग के किसी विरोधी संवेग को भी प्रोत्साहित करना हितकर होता है। उदाहरणार्थ, घृणा को कम करने के लिए प्रेम के संवेग को जाग्रत एवं विकसित किया जा सकता है।
2. मार्गान्तरीकरण : संवेग को नियन्त्रित करने के लिए उसके मार्ग को भी बदला जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति में घृणा का संवेग प्रबल हो तो उसे चाहिए कि वह घृणा के संवेग को अच्छे व्यक्तियों की अपेक्षा दूषित मानसिक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों के प्रति ही प्रकट करे।
3. संवेगों का शोध : संवेगों के शोध के अन्तर्गत संवेगों के रूप को परिवर्तित एवं परिमार्जित किया जाता है। उदाहरण के लिए, अनेक व्यक्ति अपने काम (Sex) सम्बन्धी संवेग को काव्य अथवा अन्य रचनात्मक कलाओं के रूप में प्रकट करते हैं।
4. रेचन : कभी-कभी संवेगों को उभारना अथवा उनका रेचन भी लाभदायक होता है। उदाहरण के लिए, अपने दुख को बाहर निकालने के लिए अनेक व्यक्ति समय-समय पर दुखान्त नाटक देखा-पढ़ा करते हैं। संवेगों के रेचन से व्यक्ति को स्वाभाविक आनंद प्राप्त होता है। उपर्युक्त विवरण द्वारा संवेगों के अवदमन द्वारा होने वाली हानियों एवं संवेगों को नियन्त्रित करने के उपायों का ज्ञान होता है तथा यह भी स्पष्ट होता है कि संवेगों का अवदमन नहीं होना चाहिए। अवदमन के स्थान पर संवेगों का रूपान्तरण ही उचित रहता है।
प्रश्न 2.
प्रेरकों की प्रबलता मापन की अवरोध विधि का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अवरोध विधि : प्रेरकों की प्रबलता की माप के | लिए अपनाई जाने वाली एक विधि अवरोध विधि' (Obstruction Method) है। सैद्धान्तिक रूप से यह माना जाता है कि सम्बन्धित प्रेरक की प्रबलता के अनुपात में लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में आने वाले अवरोधों को पार किया जाता है, अर्थात् यदि प्रेरक प्रबल है तो अपेक्षाकृत रूप से बड़े अवरोध को भी पार किया जा सकता
इस विधि को चूहों में प्रेरकों की प्रबलता मापने के लिए अपनाया गया। चूहों को एक सुरंग में से गुजरना होता है। सुरंग के दूसरी ओर चूहों का लक्ष्य विद्यमान होता है अर्थात् भोजन या पानी रखे होते हैं। सुरंग में ऐसी व्यवस्था होती है कि वहाँ से गुजरने पर चूहों को बिजली का हल्का-सा झटका लगता है। परीक्षण द्वारा देखा गया कि जब कोई प्रेरक विद्यमान नहीं था, तब चूहों ने 20 मिनट में 3-4 बार ही बिजली का झटका खाकर सुरंग को पार किया। इससे भिन्न जब चूहे 2 या 3 दिन से भूखे थे अर्थात् प्रबल प्रेरक विद्यमान था तब चूहे 20 मिनट में 18 बार बिजली का झटका खाकर भी सुरंग पार कर गए। इस विधि द्वारा भिन्न-भिन्न प्रेरकों की प्रबलता मापी गई तथा मापा गया कि शिशु-पालन, प्यास तथा भूख के प्रेरक काम के प्रेरक से अधिक प्रबल होते हैं।
प्रश्न 3.
मनुष्यों में पाए जाने वाले मुख्य प्रेरकों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
मनुष्यों में अनेक प्रेरक पाए जाते हैं, जो भिन्न-भिन्न रूप में सक्रिय होते हैं। मनुष्यों में पाए जाने वाले मुख्य प्रेरकों को सर्वप्रथम दो वर्गों में बाँटा जाता है - जन्मजात प्रेरक तथा अर्जित प्रेरक। जन्मजात प्रेरकों का सम्बन्ध जैविक एवं शारीरिक आवश्यकताओं से होता है तथा इनका स्वरूप सभी मनुष्यों में लगभग एक समान ही होता है। जन्मजात प्रेरक व्यक्ति के जीवन के परिचालन में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं।
मुख्य जन्मजात प्रेरक हैं - भूख, प्यास, काम, नींद, तापक्रम, मातृत्व व्यवहार तथा मल-मूत्र, त्याग। जहाँ तक अर्जित प्रेरकों का प्रश्न है, उनके दो उपवर्ग हैं - व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक तथा सामान्य सामाजिक अर्जित प्रेरक। समस्त अर्जित प्रेरक जन्म के उपरांत समाज में रहकर विकसित होते हैं। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में इनका स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। मुख्य व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक है आकांक्षा का स्तर, जीवन लक्ष्य, मद-व्यसन, रुचियाँ, आदत की विवशता, अचेतन मन, अभिवृत्तियाँ तथा संवेग।
प्रश्न 4.
प्रबल-प्रेरणा की दशा में व्यक्ति के व्यवहार में कौन-कौन सी विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं ?
उत्तर :
प्रबल-प्रेरणा की दशा में व्यक्ति के व्यवहार में अधिक सक्रियता एवं गतिशीलता देखी जा सकती है। व्यवहार की यह विशेषता शक्ति के अतिरिक्त संचालन के कारण होती है। शक्ति का यह अतिरिक्त संचालन प्रबल प्रेरणा की दशा में होने वाले शारीरिक एवं रासायनिक परिवर्तनों का परिणाम होता है। प्रवल-प्रेरणा की दशा में व्यक्ति के व्यवहार में निरन्तरता की विशेषता भी दृष्टिगोचर होती है। इस दशा में व्यक्ति निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयास करता रहता है। प्रेरणायुक्त व्यवहार की एक विशेषता परिवर्तनशीलता भी है।
प्रबल-प्रेरणा की दशा में निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए व्यक्ति अपने प्रयासों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी करता रहता है। प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति के व्यवहार में एक प्रकार की बेचैनी भी देखी जा सकती है। वास्तव में व्यक्ति अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अत्यधिक व्यग्न रहता है। व्यक्ति की यह व्यग्रता सामान्यतया उस समय तक बनी रहती है जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती, परन्तु लक्ष्य प्राप्त हो जाने पर यह व्यग्रता स्वतः समाप्त हो जाती है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
संवेग से आप क्या समझते हैं ? उसका जीवन में क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
संवेग एक प्रकार की भावनामय स्थिति होती है, जिसमें मनुष्य का मन, शारीरिक सन्तुलन पूर्ण रूप से टूट जाता है। क्रोध, भय, स्नेह, सुख, घृणा आदि इसी प्रकार के प्रमुख संवेग हैं। मानव जीवन में इन संवेगों का विशेष महत्त्व एवं स्थान है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में विभिन्न संवेगों का निरन्तर अनुभव करता है। ये सब संवेग अपने आप में पर्याप्त जटिल होते हैं, परन्तु सामान्य रूप से ये सब शारीरिक लक्षणों एवं परिवर्तनों के आधार पर शीघ्र ही पहचान लिए जाते हैं। प्रायः सभी संवेग किसी न
किसी प्रकार से व्यक्ति के व्यवहार तथा अन्य गतिविधियों को भी प्रभावित करते हैं। संवेग सामान्य कार्य में बाधक भी सिद्ध नहीं होते हैं तथा कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में संवेग के ही परिणामस्वरूप व्यक्ति का कार्य शीघ्र एवं अपेक्षाकृत अधिक उत्तम रूप में सम्पन्न भी हो जाता है। वास्तव में संवेगों के कारण व्यक्ति की सम्पूर्ण आन्तरिक शक्ति उत्तेजित हो जाती है। यह उत्तेजना ही व्यक्ति के कार्यों एवं व्यवहार को प्रभावित करती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संवेग मानव व्यवहार से सम्बन्धित एक ऐसी भावनात्मक क्रिया है जो व्यक्ति के व्यवहार को विभिन्न रूपों में प्रभावित करती है।
संवेग का अर्थ एवं परिभाषा : अंग्रेजी भाषा में 'संवेग' का पर्याय शब्द 'इमोशन' (Emotion) है। यह अंग्रेजी शब्द मूल रूप से लैटिन भाषा के एक शब्द 'इमोवेअर' (Emovere) से व्युत्पन्न माना जाता है। लैटिन के इस शब्द का अर्थ है- 'उत्तेजित कर देना' अथवा 'हिला देना'। इस शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर साधारण रूप से कहा जा सकता है कि संवेग वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति हिल जाता है या उत्तेजित हो जाता है। यह उत्तेजना की स्थिति पर्याप्त जटिल होती है तथा इसे विभिन्न परिवर्तनों द्वारा पहचाना जा सकता है।
संवेग अपने आप में अत्यधिक जटिल एवं बहुपक्षीय स्थिति है। अत: इसे साधारण रूप से परिभाषित करना सरल नहीं है। फिर भी कुछ विद्वानों ने अपनी-अपनी परिभाषाओं के आधार पर संवेग का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इस प्रकार की परिभाषाएँ लिखित हैं :
(i) यंग : पी. वी. यंग ने संवेग को परिभाषित करने का सफल प्रयास किया है। इन्होंने संवेग के लगभग सभी लक्षणों को अपनी परिभाषा में सम्मिलित किया है। उन्हीं के शब्दों में, "संवेग सम्पूर्ण व्यक्ति का तीन उपद्रव है, जिसकी उत्पति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा जिसके अंतर्गत व्यवहार, चेतन अनुभूति और जाठरिक क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।"
(ii) वुडवर्थ : प्रसिद्ध मनावैज्ञानिक वुडवर्थ ने संवेग को शरीर की आन्दोलित स्थिति के रूप में परिभाषित किया है। वुडवर्थ के ही शब्दों में “प्रत्येक संवेग एक अनुभूति होता है तथा साथ ही प्रत्येक संवेग उसी समय एक गत्यात्मक तत्परता होता है।"
(iii) जर्सिल्ड : प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक आर्थर टी. जर्सिल्ड ने संवेग को तीव्र आवेग की उत्तेजित स्थिति के रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार, “संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेग में आने, भड़क अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।"
संवेग की विशेषताएँ : उपर्युक्त वर्णित परिभाषाओं के माध्यम से संवेग का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इन्हीं परिभाषाओं के आधार पर संवेग की सामान्य विशेषताओं का भी उल्लेख किया जा सकता है। संवेग की ये सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. मनोवैज्ञानिक स्थिति : संवेग अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक स्थिति या अवस्था है। इसीलिए संवेगों की उत्पत्ति सदैव कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों से ही होती है। मनोवैज्ञानिक कारणों के अभाव में संवेगों की उत्पत्ति संभव नहीं है। कुछ लोगों का मत है कि मादक द्रव्यों के सेवन से भी संवेग उत्पन्न हो सकते हैं परन्तु वास्तव में यह मत अनुचित है। मादक द्रव्यों के सेवन से अस्त-व्यस्तता की स्थिति तो उत्पन्न हो सकती है, परन्तु इस स्थिति को संवेग की स्थिति कदापि नहीं कहा जा सकता है।
2. शरीर में तीन उपद्रव : संवेग की स्थिति में व्यक्ति का सम्पूर्ण शरीर उत्तेजित हो जाता है तथा उसमें एक प्रकार की असामान्य स्थिति उत्पन्न हो जाती हैं। संवेग के टल जाने पर असामान्यता से यह स्थिति समाप्त हो जाती है।
3. व्यापकता : संवेग प्रत्येक प्राणी में उत्पन्न होता है, यद्यपि इसकी प्रबलता भिन्न-भिन्न होती है।
4. बाह्य रूप में प्रकट होना : संवेगों की यह प्रमुख विशेषता है कि ये बाह्य रूप में प्रकट हो जाते हैं। जैसे- क्रोधी व्यक्ति क्रोध का संवेग शीघ्र प्रकट कर देता है।
5. विचार प्रक्रिया नष्ट होना : संवेग व्यक्ति की विचार प्रक्रिया में बाधक होते हैं। इस अवस्था में व्यक्ति अच्छा-बुरा या उचित-अनुचित का विचार नहीं कर पाता है।
6. व्यक्तिगत विभिन्नता : प्रत्येक व्यक्ति में संवेग की मात्रा तथा प्रकटन भिन्न होता है।
7. क्रिया को उत्तेजित करना : संवेग व्यक्ति की क्रियाशीलता को बढ़ाता है और उत्तेजित व्यक्ति किसी भी कार्य को करने हेतु तत्पर हो जाता है।
8. संवेग पारस्परिक सम्बन्धों से सम्बद्ध : परिवार, समुदाय अथवा समाज में आपसी सम्बन्धों का आधार संवेग तथा उनकी अभिव्यक्ति ही होती है।
9. सुख-दुःख की अनुभूति होना : संवेग में सुख या दुःख का अनुभव होता है।
10. स्थानान्तरण : संवेगात्मक स्थिति में व्यक्ति अपने संवेग को दूसरे व्यक्तियों पर प्रकट करता है।
11. शारीरिक परिवर्तन : संवेग के उत्पन्न होने पर शरीर में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होने लगते हैं। क्रोध की स्थिति में आँखें लाल हो जाना, भय की स्थिति में शरीर का काँपना, आश्चर्य की अवस्था में होंठ खुले रह जाना आदि इसी प्रकार के शारीरिक परिवर्तनों के उदाहरण हैं। इस प्रकार शारीरिक परिवर्तनों का उत्पन्न होना भी संवेग की एक मुख्य विशेषता है।
प्रश्न 2.
'भाव' तथा 'संवेग' में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव तथा संवेग में अंतर : भाव तथा संवेग दो सर्वथा भिन्न क्रियाएँ हैं। सूक्ष्म रूप से पर्यवेक्षण करने पर इनमें पर्याप्त अन्तर दिखाई पड़ता है। भाव तथा संवेग में विद्यमान अन्तर को जानने से पूर्व भाव या अनुभूति का अर्थ जानना अनिवार्य है। भाव अपने आप में एक मानसिक क्रिया है। इस मानसिक क्रिया में भावात्मक अधिक प्रबल होता है, वैसे इसमें ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक पक्ष भी गौण रूप से विद्यमान रहते हैं।
भाव मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं, अर्थात् सुख और दुःख के भाव परन्तु कोई भी व्यक्ति एक ही समय में दोनों प्रकार के भावों को अनुभूत नहीं कर सकता, अर्थात् एक समय में केवल एक ही प्रकार के भावों को अनुभूत किया जा सकता है। भावों का सम्बन्ध इच्छा पूर्ति से भी होता है। जब व्यक्ति की इच्छा पूर्ति बिना किसी बाधा के होती है तब सुख के भाव की अनुभूति होती है। इससे भिन्न जब इच्छा-पूर्ति में अनेक बाधाएँ आती हैं या इच्छा की पूर्ति होती ही नहीं तब दुःख का भाव उत्पन्न होता है।
भाव-सम्बन्धी इस अर्थ को जान लेने के बाद भाव तथा संवेग में अन्तर भी स्पष्ट किया जा सकता है। भाव तथा संवेग में मुख्य अन्तर निम्नवत् है
1. जटिलता का अंतर : संवेग तथा भाव में प्रथम अन्तर इनकी जटिलता से सम्बन्धित है। भाव सरल होते हैं जबकि संवेग जटिल होते हैं। भावों की उत्पत्ति सरल संवेदनाओं के परिणामस्वरूप होती है। ये संवेदनाएँ केवल इन्द्रियजनित ही होती हैं। उदाहरण के लिए, सुन्दर फूल को देखकर तथा सुख अथवा प्रसन्नता की अनुभूति होना एक सुख का भाव है।
इसके विपरीत कुत्ते द्वारा काट लेने पर अथवा चोट लग जाने पर होने वाली पीड़ा एक दुःख का भाव है। इस प्रकार स्पष्ट है कि भाव मुख्य रूप से इन्द्रियजनित होते हैं तथा उनकी उत्पत्ति सरल होती है। इससे भिन्न संवेगों की उत्पत्ति पर्याप्त जटिल होती है। संवेग विभिन्न प्रकार की प्रत्यक्षीकरण की परिस्थितियों के अतिरिक्त भूतकालीन किसी परिस्थिति की स्मृति अथवा भविष्य की कल्पना से भी उत्पन्न हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, किसी वीभत्स घटना की स्मृति-मात्र से ही प्रायः व्यक्ति घृणा से भर उठता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संवेग पर्याप्त जटिल होते हैं तथा इनकी उत्पत्ति किसी विचार अथवा कल्पना के फलस्वरूप भी हो सकती है।
2. व्यापकता का अन्तर : संवेग तथा भाव का दूसरा अंतर इनकी व्यापकता से संबंधित है। संवेग पर्याप्त व्यापार होते हैं, जबकि भाव किसी संवेग का अंश ही होते हैं, अर्थात् भाव संवेग में निहित होते हैं, उनका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता है। इस प्रकार प्रत्येक संवेग में किसी-न-किसी भाव का होना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, भाव केवल इन्द्रियजनित होते हैं तथा इनमें केवल सीमित स्नायविक उद्दीपन होता है।
इसके विपरीत, संवेगों में व्यक्ति के शरीर में कुछ आन्तरिक परिवर्तन भी होते हैं। इन आन्तरिक परिवर्तनों में विभिन्न ग्रन्थियों का साथ भी हो सकता है। भाव में ऐसा नाव नहीं होता है वरन् केवल भावात्मक परिवर्तन ही होता है जबकि संवेग में क्रियाशीलता भी होती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संवेग; भाव की अपेक्षा अधिक व्यापक होते हैं।
3. उग्रता से सम्बन्धित अन्तर : भाव तथा संवेग में तीसरा अन्तर अग्रता सम्बन्धी है। संवेग अधिक उग्न होते हैं। संवेग की स्थिति में व्यक्ति अत्यधिक उत्तेजित एवं असन्तुलित हो जाता है। भाव की अपेक्षा संवेग की उग्रता के कारण ही व्यक्ति का व्यवहार एवं क्रियाएँ अनियन्त्रित हो जाती हैं तथा वह असामान्य व्यवहार करने लगता है। कभी-कभी संवेग की उग्रता हर प्रकार की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है और इस प्रकार की मनोदशा में व्यक्ति किसी भी प्रकार का व्यवहार कर बैठता है। इसके विपरीत, भावों के उत्पन्न होने की स्थिति में कुछ-न-कुछ असामान्यता तो उत्पन्न होती है लेकिन व्यक्ति अपने साधारण व्यवहार एवं क्रियाओं को नियंत्रित रखता है।
4. प्रकारों में अंतर : भाव या अनुभूति केवल दो प्रकार की होती है तथा एक समय में केवल एक ही भाव उत्पन्न होता है। इससे भिन्न संवेग अनेक होते हैं तथा एक ही समय में अनेक संयोग मिश्रित रूप से भी उत्पन्न हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, किसी परिस्थितिवश व्यक्ति में क्रोध, घृणा तथा भय के संवेग एक साथ भी उत्पन्न हो सकते हैं।