Rajasthan Board RBSE Class 11 Psychology Important Questions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ Important Questions and Answers.
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बहुविकल्पी प्रश्न
प्रश्न 1.
आवेश में आ जाने, भडक उठने अथवा उत्तेजित हो जाने की दशा को कहते हैं
(अ) प्रेरणा
(ब) भाव
(स) संवेग
(द) मूल-प्रवृत्ति
उत्तर :
(स) संवेग
प्रश्न 2.
संवेगों को जानने का सर्वोत्तम ढंग या उपाय है
(अ) भाषा अभिव्यक्ति
(ब) मुखाभिव्यक्ति
(स) विचार-प्रक्रिया का नष्ट होना
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(ब) मुखाभिव्यक्ति
प्रश्न 3.
बालकों के संवेग की विशेषता है
(अ) बालकों के संवेग क्षणिक, सीधे-सादे और सरल होते हैं
(ब) बालकों के संवेग शीघ्र परिवर्तनीय होते हैं
(स) भिन्न-भिन्न बालकों में समान स्थिति में भिन्न-भिन्न संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ होती है
(द) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ
उत्तर :
(द) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ
प्रश्न 4.
बच्चों के लिए संवेगों का महत्त्व है -
(अ) आनन्द की प्राप्ति होती है
(ब) संवेगों के माध्यम से अच्छी आदतों का विकास होता है
(स) सामाजिक समायोजन में सहायक होते हैं
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर :
(द) उपर्युक्त सभी।
अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
अवधान से क्या आशय है ?
उत्तर :
अवधान विचार की किसी वस्तु को स्पष्ट रूप से | मन में स्थिर करने की प्रक्रिया है।
प्रश्न 2.
अवधान के मुख्य प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
अवधान के मुख्य रूप से तीन प्रकार होते हैं :
1. ऐच्छिक,
2. अनैच्छिक तथा
3. अनभिप्रेत अवधान।
प्रश्न 3.
किस प्रकार की उत्तेजना शीघ्र ही व्यक्ति के ध्यान को आकृष्ट करती है ?
उत्तर :
तीव्र उत्तेजना व्यक्ति के ध्यान को शीघ्र ही आकृष्ट कर लेती है।
प्रश्न 4.
अनावधान या ध्यान-भंग से क्या आशय है ?
उत्तर :
व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का अपने विषय से विचलित हो जाना ही अनावधान या ध्यान-भंग कहलाता है।
प्रश्न 5.
अनावधान के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं ?
उत्तर :
अनावधान के मुख्य प्रकार हैं- निरन्तर अनावधान तथा अनिरन्तर अनावधान।
प्रश्न 6.
ध्यान-विचलन से क्या आशय है ?
उत्तर :
ध्यान का बारी-बारी से विषय-वस्तु के भिन्न-भिन्न केन्द्रों पर केन्द्रित होना ही ध्यान का विचलन कहलाता है।
प्रश्न 7.
अवधान-विस्तार से क्या आशय है ?
उत्तर :
किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक समय में जितने उद्दीपकों को ध्यान का विषय बनाया जाता है, उन्हें ही अवधान का विस्तार कहा जाता है।
प्रश्न 8.
अवधान के विस्तार का व्यवस्थित अध्ययन सर्वप्रथम किस मनोवैज्ञानिक ने किया था ?
उत्तर :
अवधान के विस्तार का व्यवस्थित अध्ययन सर्वप्रथम 1859 ई. में हेमिल्टन नामक मनोवैज्ञानिक ने किया था।
प्रश्न 9.
अभ्यास का व्यक्ति के अवधान विस्तार पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर :
अभ्यास के परिणामस्वरूप व्यक्ति के अवधानविस्तार में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।
प्रश्न 10.
अवधान के विस्तार का व्यक्ति की रुचि से क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर :
रुचिकर विषय के प्रति अवधान का विस्तार अधिक होता है, जबकि अरुचिकर या रुचि के विरुद्ध विषय के प्रति अवधान का विस्तार कम होता है।
प्रश्न 11.
“संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेश में आने, भड़क उठने अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है" -यह कथन किसका है ?
उत्तर :
आर्थर टी. जर्सिल्ड का।
प्रश्न 12.
संवेग की एक स्पष्ट एवं सरल परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
पी. वी. यंग के अनुसार “संवेग सम्पूर्ण व्यक्ति का तीव्र उपद्रव है जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा जिसके अन्तर्गत व्यवहार, चेतन, अनुभूति और जाठरिक क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।
प्रश्न 13.
संवेगों की उत्पत्ति के प्रमुख कारण क्या होते हैं ?
उत्तर :
संवेगों की उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है।
प्रश्न 14.
शैशवावस्था में किस प्रकार के संवेग पाए जाते हैं ?
उत्तर :
शैशवावस्था में संवेग अस्पष्ट तथा कम संख्या में होते हैं।
प्रश्न 15.
किशोरावस्था में किस प्रकार के संवेग पाए जाते हैं ?
उत्तर :
किशोरावस्था में तीव्र तथा अनियंत्रित अभिव्यक्ति वाले संवेग पाए जाते हैं।
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर (SA1)
प्रश्न 1.
अनावधान के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अनावधान के प्रकार : सामान्य रूप से अनावधान के दो प्रकार माने गए हैं जो निम्न हैं :
(i) निरन्तर ध्यान भंग : अनावधान का प्रथम प्रकार है 'निरन्तर ध्यान भंग'। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इस प्रकार का ध्यान भंग निरन्तर बना रहता है। उदाहरण के लिए- फैक्ट्री या कारखाने में मशीनों की आवाज से होने वाला ध्यान-भंग या ट्रेन अथवा बस में यात्रा करते समय होने वाला ध्यान-भंग। इस प्रकार की ध्यान-बाधा होने पर व्यक्ति शीघ्र ही स्थिति से समायोजन कर लेता है। इस प्रकार का ध्यान-भंग होने पर व्यक्ति के कार्य एवं उत्पादन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। उदाहरण के लिए कारखाने में बहुत अधिक शोर होते हुए भी वहाँ के श्रमिक अपना कार्य सुचारू रूप से करते रहते हैं।
(ii) अनिरन्तर ध्यान-भंग : दूसरे प्रकार के ध्यान-भंग अथवा अनावधान को अनिरन्तर ध्यान-भंग कहते हैं। इस प्रकार का ध्यान-भंग लगातार न होकर रुक-रुककर होता है। इस प्रकार के ध्यान-भंग का व्यक्ति के कार्य पर बहुत अधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार की ध्यान में पड़ने वाली बाधा के साथ समायोजन नहीं हो पाता। इस कारण इस स्थिति में कार्य सुचारु रूप से नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए, लिखते समय बीच-बीच में किसी के द्वारा पुकारा जाना या बार-बार टेलीफोन की घंटी का बज उठना अथवा बीच-बीच में मच्छर के द्वारा काट लेने से जो ध्यान-भंग होता है उसे अनिरन्तर प्रकार का ध्यान-भंग कहा जाता है।
प्रश्न 2.
अनावधान या ध्यान-भंग को दूर करने के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अनावधान या ध्यान-भंग को दूर करने के उपाय : यह स्पष्ट है कि अनावधान या ध्यान-भंग के कारण व्यक्ति के कार्य एवं उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः अनावधान को दूर करने या प्रभावहीन करने के उपाय किए जाते हैं। इस प्रकार के मुख्य उपाय निम्नलिखित हैं
(i) कार्य के प्रति अधिक सक्रियता : अनावधान को प्रभावहीन बनाने का एक उपाय यह है कि व्यक्ति अपना कार्य अधिक सक्रियता से करे। अधिक सक्रियता से कार्य में संलग्न हो जाने पर अनावधान का प्रभाव घट जाता है। इसके लिए व्यक्ति को अधिक शक्ति व्यय करनी पड़ती है।
(ii) अनावधान के प्रति उपेक्षा का भाव : अनावधान या ध्यान-भंग के प्रभाव से बचने के लिए एक उपाय यह है कि ध्यान-भंजक कारक के प्रति उपेक्षा भाव एवं दृष्टिकोण विकसित किया जाए। उपेक्षा भाव विकसित हो जाने पर अनावधान का प्रभाव घट जाता है।
(iii) अनावधान को कार्य का अंग मानकर : यदि अनावधान कारक को मुख्य कार्य का अंग मान लिया जाए तो ध्यान-भंजक कारक के प्रतिकूल प्रभाव से बच सकते हैं।
(iv) अभ्यास द्वारा : ध्यानभंग से बचने का एक उपाय अभ्यास भी है। निरन्तर अभ्यास के परिणामस्वरूप व्यक्तिगत ध्यान-भंजक कारक के प्रभाव से मुक्त हो सकता है।
प्रश्न 3.
ध्यान-विचलन से क्या आशय है ?
उत्तर :
ध्यान-विचलन का अर्थ : जब हम कोई कार्य करते हैं या कुछ सुनते हैं तो उस समय हमारा ध्यान वास्तव में किसी एक उद्दीपक पर केन्द्रित नहीं होता बल्कि या तो एक उद्दीपक से दूसरे उद्दीपक पर विचलित होता रहता है अथवा एक ही उद्दीपक के भिन्न-भिन्न भागों पर बारी-बारी से केन्द्रित होता रहता है। इस प्रकार से ध्यान के बारी-बारी से भिन्न-भिन्न केन्द्रों पर केन्द्रित होने की क्रिया को ही ध्यान का विचलन (Fluctuation of Attention) कहते हैं। वास्तव में ध्यान को किसी एक उद्दीपक पर अधिक समय तक समान तीव्रता से केन्द्रित नहीं किया जा सकता।
ध्यान केन्द्रण की तीव्रता निरन्तर घटती-बढ़ती रहती है। इस प्रकार ध्यान की एकाग्रता की तीव्रता का घटना-बढ़ना, वास्तव में ध्यान के विचलन का ही परिणाम होता है। ध्यान के विचलन को स्वीकार कर लेने के उपरांत यह प्रश्न उठता है कि हम किसी विषय पर कितने समय तक ध्यान को केन्द्रित कर सकते हैं। इस तथ्य को जानने के लिए विभिन्न प्रयोग किए गए। सर्वप्रथम 1914 ई. में विलिंग्स ने एक प्रयोग के आधार पर स्पष्ट किया कि ध्यान परिवर्तन दो सेकेण्ड में होता है।
वुडवर्थ ने अपने परीक्षण के आधार पर ज्ञात किया कि कुछ जटिल उद्दीपकों पर पाँच सेकेण्ड से अधिक समय तक भी ध्यान के केन्द्रित किया जा सकता है, परन्तु यह भी स्पष्ट किया गया कि इस बीच व्यक्ति का ध्यान सम्बन्धित उद्दीपक के विभिन्न भागों पर परिवर्तित भी होता रहता है। कुछ अन्य परीक्षणों द्वारा ज्ञात किया गया कि 6 सेकेण्ड तक ध्यान का केन्द्रण हो सकता है।
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर (SA2)
प्रश्न 1.
अवधान या ध्यान के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सामान्य रूप से अवधान या ध्यान के तीन मुख्य प्रकारों को स्वीकार किया जाता है। अवधान के ये तीन प्रकार हैं
(अ) ऐच्छिक अवधान.
(ब) अनैच्छिक अवधान,
(स) अनभिप्रेत अवधान।
इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
1. ऐच्छिक अवधान : जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ऐच्छिक अवधान वह ध्यान है जिसे कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से किसी विषय-वस्तु पर केन्द्रित करता है। ऐच्छिक अवधान केन्द्रित करने के लिए प्रयास करना पड़ता है। ऐच्छिक अवधान को भी दो भागों में विभक्त किया जाता है :
(क) अविचारित ऐच्छिक अवधान : इस प्रकार के ध्यान को केन्द्रित करने के लिए न तो अधिक सोच-विचार करना पड़ता है और न ही अधिक प्रयास करना पड़ता है।
(ख) सविचारित ऐच्छिक अवधान : इस प्रकार के अवधान को केन्द्रित करने के लिए पर्याप्त सोच-विचार करना पड़ता है तथा वास्तविक ध्यान केन्द्रित करने के लिए काफी प्रयास भी करना पड़ता है।
2. अनैच्छिक अवधान : ऐच्छिक अवधान के विपरीत, अनैच्छिक अवधान बिना किसी प्रयास या इच्छा के ही केन्द्रित हो जाता है। जब किसी विषय-वस्तु पर ध्यान अनायास ही केन्द्रित हो जाए तब उसे अनैच्छिक अवधान कहा जाता है। इस प्रकार के अवधान को भी दो वर्गों में विभक्त किया गया है
(क) सहज अनैच्छिक अवधान : इस प्रकार का ध्यान व्यक्ति की रुचियों एवं मूल प्रवृत्तियों के कारण केन्द्रित होता है।
(ज) बाह्य, अनैच्छिक अवधान : सामान्य रूप से जब कोई उत्तेजना इतनी तीव्र अथवा प्रबल होती है कि उसकी अवहेलना करना असंभव होता है, उस स्थिति में ध्यान बाह्य रूप से इस उत्तेजना के प्रति आकृष्ट होता है तथा केन्द्रित हो जाता है। इस प्रकार के अनैच्छिक अवधान को बाह्य अनैच्छिक अवधान कहा जाता है।
3. अनभिप्रेत अवधान : तीसरे प्रकार के अवधान को अनभिप्रेत अवधान कहा जाता है। यह अवधान एक विशेष प्रकार का होता है। अनभिप्रेत अवधान केन्द्रित करने के लिए व्यक्ति को विशेष प्रयास अवश्य करना पड़ता है, परन्तु यह सामान्य ऐच्छिक अवधान से भिन्न होता है। एच्छिक अवधान में सामान्य रूप से व्यक्ति की रुचि विषय के प्रति होती है। इसी रुचि के कारण व्यक्ति उस विषय पर ध्यान केन्द्रित करना चाहता है परन्तु अनभिप्रेत अवधान में व्यक्ति को ध्यान के विषय में किसी प्रकार की रुचि नहीं होती।
प्रश्न 2.
ध्यान-विचलन के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
ध्यान-विचलन के कारण : यह सत्य है कि व्यक्ति के ध्यान में तीव्र विचलन होता है। अब प्रश्न उठता है कि ध्यान-विचलन के कारण क्या होते हैं। इस विषय में अनेक प्रयोग किए गए तथा उनके आधार पर ध्यान-विचलन के निम्नलिखित मुख्य कारणों का उल्लेख किया गया है :
(i) थकान अथवा सांवेदिक अनुकूलन : ध्यान-विचलन का एक कारण ध्यान केन्द्रण के परिणामस्वरूप होने वाली थकान अथवा सांवेदिक अनुकूलन को माना गया है। वास्तव में ध्यान की प्रक्रिया के समय ज्ञानेन्द्रियों के निरन्तर कार्य करने के कारण उनके संवेदनात्मक समायोजन में बाधा आ जाती है। इस प्रक्रिया में उन न्यूरोन्स में थकान आ जाती है, जिनके द्वारा संवेदनाएँ ग्रहण की जाती हैं। इससे ध्यान का विचलन होता है।
(ii) आँख की गति : आँखों की गति (Eye Movement) के कारण भी ध्यान विचलित हो जाता है। विभिन्न परीक्षणों के आधार पर स्पष्ट किया गया है कि नेत्रगति के परिणामस्वरूप उद्दीपक की प्रतिमा रेटिना के एक निश्चित भाग से हट जाती है तथा दूसरे ही क्षण यह उद्दीपक प्रतिमा रेटिना के उस निश्चित स्थान पर नहीं बनती बल्कि किसी अन्य स्थान पर बनने लगती है। इस परिवर्तन से ध्यान का विचलन हो जाता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य परीक्षण द्वारा राबर्टसन ने स्पष्ट किया है कि वास्तव में सम्बन्धित उद्दीपक पर प्रकाश का वितरण समान नहीं है। उद्दीपक के किसी एक भाग पर प्रकाश कम होता है तथा किसी अन्य भाग पर प्रकाश अधिक होता है। प्रकाश-वितरण की इस असमानता के कारण भी ध्यान का विचलन होता है।
(iii) सम्भावित रक्त संचालन कारक : शरीर-शास्त्र के अनुसार रक्त संचालन में निरन्तर कुछ हल्के विचलन होते रहते हैं। इस विचलन को Traube Hearing Wave कहते हैं। बोन्सर के अनुसार रक्त संचालन में होने वाले विचलन के परिणामस्वरूप ध्यान में भी विचलन होता है।
प्रश्न 3.
रुचियों के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
रुचियों के प्रकार : प्रत्येक व्यक्ति की रुचियाँ अन्य व्यक्तियों से भिन्न होती हैं तथा एक ही व्यक्ति की अनेक रुचियाँ भी हो सकती हैं, फिर भी अध्ययन की सुविधा एवं व्याख्या के लिए समस्त रुचियों को दो मुख्य वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। रुचियों के ये वर्ग अथवा प्रकार निम्नलिखित हैं :
जन्मजात रुचियाँ तथा अर्जित रुचियाँ : इन दोनों प्रकार की रुचियों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है :
(अ) जन्मजाति रुचियाँ : कुछ रुचियाँ व्यक्ति में स्वभाववश ही विकसित हो जाती हैं। ये रुचियाँ जन्मजात होती हैं तथा लगभग सभी व्यक्तियों में पाई जाती हैं। जन्मजात रुचियों का परिचालन एवं निर्धारण विभिन्न मूल-प्रवृत्तियों तथा जन्मजात प्रेरकों द्वारा होता है। जन्मजात रुचियों के स्रोत व्यक्ति में जन्म से ही विद्यमान रहते हैं। ये रुचियाँ एक जाति एवं लिंग के अधिकांश सदस्यों में समान रूप में पाई जाती हैं। उदाहरण के लिए- शेर जाति के सभी पशु मांस खाने में रुचि रखते हैं। इसके विपरीत बकरी व अन्य शाकाहारी पशु हरी वनस्पति खाने में रुचि रखते हैं।
(ब) अर्जित रुचियाँ : दूसरे प्रकार की रुचियों को अर्जित रुचियाँ कहा जाता है। अर्जित रुचियों का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। ये रुचियाँ अपनी इच्छा एवं परिस्थितियों के प्रभाव से विकसित की जाती हैं और समय-समय पर बदलती रहती हैं। इस प्रकार आवश्यकता एवं इच्छा के अनुकूल समय-समय पर भिन्न-भिन्न रुचियों को अर्जित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति युवावस्था आते ही फिल्म देखने में रुचि लेने लगता हैं, कुछ व्यक्ति ऐतिहासिक स्थलों पर घूमने में रुचि लेने लगते हैं। स्पष्ट है कि अर्जित रुचियों में किसी प्रकार की समानता होना अनिवार्य नहीं है। दो सगे भाइयों की अर्जित रुचियाँ भी परस्पर भिन्न हो सकती है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
अवधान में सहायक बाहरी एवं आन्तरिक दशाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अवधान के निर्धारक कारक या दशाएँ : अवधान अथवा ध्यान की अवधारणा के स्पष्टीकरण के लिए उन दशाओं तथा व्यवस्थाओं को भी जानना आवश्यक है जो ध्यान को केन्द्रित करने में सहायक होती हैं। ये दशाएँ ही बताती हैं कि किसी वस्तु में हमारा ध्यान क्यों केन्द्रित नहीं होता है। इन दशाओं को ध्यान केन्द्रित होने के कारण उपाय अथवा अवधान के निर्धारक भी कहा जा सकता है।
ध्यान को केन्द्रित करने में सहायक दशाएँ भी दो प्रकार की होती हैं- प्रथम प्रकार की सहायक दशाओं को बाहरी या वस्तुगत दशाएँ तथा दूसरे प्रकार की सहायक दशाओं को आन्तरिक या आत्मगत दशाएँ कहा जाता है। इन दोनों प्रकार की दशाओं का संक्षिप्त परिचय निम्नवत् हैं : अवधान की बाहरी या वस्तुगत दशाएँ : अवधान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दो मुख्य पक्ष होते हैं। प्रथम पक्ष वह बाह्य विषय वस्तु है, जिसके प्रति ध्यान केन्द्रित होता है। द्वितीय पक्ष
व्यक्ति की वह मानसिक एवं आंतरिक स्थिति है. जो वास्तव में केन्द्रित होती है। अवधान को केन्द्रित करने में सहायक बाहरी या वस्तुगत दशाओं को इस प्रकार समझा जा सकता है :
(i) उत्तेजना की तीव्रता : ध्यान केन्द्रित होने के लिए उत्तेजना का विशेष महत्त्व होता है। उत्तेजनाएँ बाहरी विषय-वस्तुओं में होती हैं। कोई उत्तेजना जितनी अधिक तीव्र होगी, उतनी सरलता से ही ध्यान केन्द्रित हो जाएगा। उदाहरण के लिए - प्रत्येक व्यक्ति का यह अनुभव है कि धीमे स्वर की अपेक्षा तीव्र स्वर शीघ्र सुना जाता है। यह उत्तेजनाओं की तीव्रता के कारण ही होता है।
(ii) उत्तेजना का स्वरूप : ध्यान केन्द्रित करने में सहायक बाहरी दशाओं में उत्तेजना का स्वरूप भी अपना विशेष महत्त्व रखता है। जिस विषय अथवा वस्तु का स्वरूप सामान्य से पर्याप्त भिन्न होता है, उसकी ओर ध्यान शीघ्र ही आकृष्ट हो जाता है, अर्थात् विशिष्ट स्वरूप सदैव ध्यान केन्द्रित करने में सहायक होता है। उदाहरणार्थ-विभिन्न रंगों के कपड़े पहने व्यक्तियों में चमकीले तथा भड़कीले वस्त्र पहनने वाले व्यक्ति की ओर ध्यान अनायास ही चला जाता है।
(iii) उत्तेजना का परिवर्तन : बाहरी उत्तेजनाओं में एकाएक होने वाला परिवर्तन भी ध्यान केन्द्रित करने में सहायक होता है। निरन्तर एक ही प्रकार की उत्तेजना होने पर ध्यान केन्द्रित नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए-यदि किसी गीत में एक ही प्रकार के स्वर बजते रहे तो उनकी ओर विशेष ध्यान नहीं जाता, परन्तु स्वरों में होने वाले आरोह-अवरोह से गति के प्रति ध्यान बना रहता है।
(iv) उत्तेजना का विरोध : उत्तेजनाओं के परिवर्तन के साथ-ही-साथ उत्तेजनाओं में होने वाला विरोध भी ध्यान आकृष्ट करने में सहायक होता है। अँधेरी रात में विभिन्न सितारे हमारा ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं, परंतु वही सितारे पूर्णिमा की उजली रात में किसी का ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते। इसी प्रकार गौर वर्ण वाले चेहरे पर छोटा-सा काला तिल देखने वाले के ध्यान को तत्काल केन्द्रित कर लेता है।
(v) उत्तेजनाओं की पुनरावृत्ति : यदि किसी साधारण उत्तेजना को बार-बार दोहराया जाए तो वह साधारण उत्तेजना भी ध्यान केन्द्रित कर सकती है। उदाहरणार्थ, यदि कोई बच्चा बार-बार आपको तंग करता रहे तो आप अवश्य उसकी ओर ध्यान देंगे। विज्ञापन के मनोविज्ञान में भी यह स्वीकार किया जाता है कि बार-बार किए जाने वाले प्रयास का अधिक प्रभाव पड़ता
(vi) गतिशील उत्तेजना : यदि कोई उत्तेजना गतिशील हो तो वह व्यक्ति का ध्यान अधिक सरलता से आकृष्ट कर लेती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर स्थिर स्लाइड के स्थान पर गतिशील विज्ञापन (सिनेमा में) अधिक उत्तम माने जाते हैं। आजकल बडे नगरों में गतिशील विद्युत प्रकाश द्वारा अनेक विज्ञापन प्रदर्शित किए जाते हैं।
(vii) आकार : बड़ी उत्तेजना छोटी उत्तेजना की तुलना में अधिक ध्यान आकर्षित करती है। छोटा कीड़ा हमें एकदम दिखाई नहीं देता, परन्तु बड़ा कीड़ा एकदम ध्यान आकर्षित करता है।
(viii) उत्तेजना की विविक्तता : किसी कक्षा के एक कोने में बैठा विद्यार्थी सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करता है। विज्ञापनों के प्रयोग से ज्ञात हुआ है कि केवल विविक्तता के कारण 30% अवधान अधिक आकर्षित होता है। यह उत्तेजना की विविक्तता का ही परिणाम होता है।
(ix) स्थिति : कुछ उत्तेजनाओं की विशेष स्थिति भी हमारा ध्यान आकर्षित कर लेती है। उदाहरणार्थ- सबसे ऊँचे स्थान पर खड़ा व्यक्ति विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
(x) नवीनता : नवीन वस्तुएँ भी हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।
(xi) रहस्यमय उत्तेजना : रहस्य से भरी कथाएँ और घटनाएँ भी हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।
(xii) काल : देर तक चलने वाली उत्तेजना के कारण भी हमारा ध्यान आकर्षित होता है।
(xiii) निश्चित रूप : किसी वस्तु का निश्चित रूप भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
अवधान में सहायक आन्तरिक दशाएँ :
अवधान अथवा ध्यान में सहायक उपर्युक्त बाहरी दशाओं के अतिरिक्त कुछ आन्तरिक अथवा आत्मगत दशाएँ भी विशेष महत्त्व रखती हैं। आन्तरिक अथवा आत्मगत सहायक दशाओं का सम्बन्ध व्यक्ति से होता है, विषय-वस्तु से नहीं। सामान्य रूप से समय-समय पर विभिन्न प्रेरक, व्यक्ति को भिन्न-भिन्न विषय-वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए प्रेरित करते हैं। उदाहरण के लिए, प्यासे व्यक्ति का ध्यान पेय पदार्थों पर केन्द्रित हो ही जाता है।
इसी प्रकार किसी एक युवती को प्यार करने वाला युवक, युवतियों की भारी भीड़ में से भी अपनी ही प्रेमिका पर ध्यान केन्द्रित कर लेता है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि विभिन्न आंतरिक तथा आत्मगत दशाएँ भी ध्यान केन्द्रित करने में सहायक होती हैं। इस प्रकार की अनेक दशाओं का वर्णन किया जा सकता है, परन्तु नीचे कुछ मुख्य आन्तरिक दशाओं का ही वर्णन किया जा रहा है
(i) रुचि : ध्यान को केन्द्रित करने में रुचि के महत्त्व एवं भूमिका से प्रत्येक व्यक्ति परिचित है। हम जानते हैं कि जिस विषय-वस्तु को हम रुचिकर मानते हैं, उस पर हमारा ध्यान केन्द्रित हो जाना स्वाभाविक ही है। ध्यान को केन्द्रित करने में रुचि सर्वाधिक प्रबल आन्तरिक सहायक दशा या कारक है। प्रत्येक व्यक्ति की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। अतः भिन्न-भिन्न विषय-वस्तुओं में ही व्यक्तियों का ध्यान केन्द्रित होता है।
(ii) मानसिक तत्परता : रुचि के समान मानसिक तत्परता भी ध्यान में सहायक एक आन्तरिक कारक है। व्यक्ति के मन का झुकाव जिस दिशा में अधिक होगा, उसी ओर उसका ध्यान भी अधिक केन्द्रित होगा। उदाहरणार्थ, साम्प्रदायिक रुझान वाले व्यक्ति का ध्यान बार-बार अपने सम्प्रदाय की अच्छाइयों की ओर ही जाता है।
(iii) आवश्यकता : व्यक्ति की सभी आवश्यकताएँ उसे सम्बन्धित वस्तु की ओर ध्यान केन्द्रित करने के लिए प्रेरित एवं बाध्य करती हैं। आवश्यकताएँ मानसिक भी होती हैं तथा शारीरिक भी। ये दोनों ही प्रकार की आवश्यकताएँ ध्यान केंद्रित करने में सहायता प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए- धन की आवश्यकता व्यक्ति को उन सब विषयों के प्रति ध्यानस्थ बना देती है, जहाँ से कुछ भी धन मिलने की आशा हो। इसी प्रकार भूख खाद्य सामग्री में व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित कर देती है।
(iv) संवेग : विभिन्न संवेग भी व्यक्ति के ध्यान को प्रभावित करते हैं। जिस समय व्यक्ति जिस प्रकार के संवेग के वशीभूत होता है, उस समय उसे उसी के अनुकूल विषय-वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है। शोकमग्न व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के छोटे-से-छोटे दुःख की ओर भी ध्यान देने लगता है और प्रसन्न व्यक्ति पेड़-पौधे तक को नाचता हुआ देखता है।
(v) आदत : आदत भी एक आन्तरिक कारक है। यह व्यक्ति के ध्यान को प्रभावित करती है। ध्यान के विषय में आदत के महत्त्व को प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वुडवर्थ ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है "व्यक्ति सीख लेता है कि किस पर ध्यान देना है तथा किस पर नहीं और इस प्रकार ध्यान देने और-न देने की आदतें बना लेता है।" चौराहे पर जलने-बुझने वाली बत्ती को देखना यातायात के नियमों के महत्त्व से परिचित व्यक्ति की आदत बन जाती है, परन्तु जो व्यक्ति उसके महत्त्व से परिचित नहीं होता, वह सामान्य रूप से उसकी ओर ध्यान नहीं देता।
(vi) लक्ष्य: सामान्य जीवन में प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न लक्ष्यों से परिचित रहता है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक प्रकार की बेचैनी का अनुभव किया जाता है तथा उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास भी किया जाता है। लक्ष्य अनेक प्रकार के होते हैं- कुछ लक्ष्य तात्कालिक होते हैं तथा कुछ लक्ष्य स्थायी होते हैं। जिस समय व्यक्ति के लिए जो लक्ष्य अधिक महत्त्वपूर्ण होता है उस समय उसका ध्यान उसी लक्ष्य पर अधिक केन्द्रित होता है।
(vii) सामाजिक प्रेरणाएँ : सामाजिक प्रेरणाएँ भी ध्यान को केन्द्रित करने में सहायक होती हैं। प्रत्येक समाज में सामाजिक प्रेरणाओं के रूप में कुछ आदर्श एवं मूल्य निर्धारित होते हैं। इन आदर्शों पर सरलता से ध्यान केंद्रित हो जाता है।
(viii) अतीत के अनुभव : अतीत के अनुभवों का अवधान पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। पिछले अनुभव के आधार पर यदि हम जानते हैं कि अमुक व्यक्ति हमारा शुभचिन्तक है, तब हम उसके प्रत्येक सुझाव पर ध्यान देते हैं। इसके विपरीत, जो व्यक्ति विगत परिस्थितियों में अविश्वसनीय सिद्ध हुआ है, उसके प्रत्येक सुझाव, सहयोगपूर्ण कार्य एवं प्रेममय व्यवहार तक की उपेक्षा ही की जाती है। वास्तव में अतीत के अनुभव मनुष्य को यह सिखाते हैं कि वह किस वस्तु पर ध्यान दे तथा किस वस्तु पर ध्यान न दे।
प्रश्न 2.
ध्यान-भंग अथवा अनावधान का क्या अर्थ है? ध्यान-भंग से सम्बन्धित प्रयोग दीजिए तथा उन प्रयोगों के परिणामों का उल्लेख भी कीजिए।
उत्तर :
ध्यान-भंग का अर्थ : हम जानते हैं कि ध्यान या अवधान (Attention) की स्थिति में विभिन्न मानसिक शक्तियाँ अभीष्ट कार्य पर विषय पर केन्द्रित हो जाती हैं। यह भी कहा जाता है कि किसी उत्तेजना के प्रति व्यक्ति की चेतना या मानसिक
शक्तियों के केन्द्रीकरण की स्थिति को ध्यान कहा जाता है। जब कभी चेतना अथवा मानसिक शक्तियों का अपने विषय से विचलन हो जाता है तो उसे 'ध्यान-भंग' या 'अनावधान' कहते इस प्रकार ध्यान का ध्यान के विषय से अन्यत्र चला जाना ही ध्यान-भंग है। अनावधान की स्थिति में ध्यान में बाधा पड़ जाती है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ध्यान-भंग की स्थिति में ध्यान की अनुपस्थिति नहीं होती।
उदाहरण के लिएकिसी प्रश्न का उत्तर लिखते हुए कानों में किसी मधुर गीत की ध्वनि पड़ने से लिखने में केन्द्रित होने वाला ध्यान भंग हो जाता है। स्पष्ट है कि ध्यान-भंग होने के लिए कोई-न-कोई कारण होना भी आवश्यक होता है। इस प्रकार से ध्यान भंग करने वाले उद्दीपक कारक को 'ध्यान-भंजक (Attention Distractor) कहा जाता है। अनावधान सम्बन्धी कुछ प्रयोग तथा उनके निष्कर्ष : अनावधान के विषय में किए गए मुख्य प्रयोगों एवं उनसे प्राप्त निष्कर्षों का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है :
(i) मार्गन द्वारा प्रयोग : मार्गन ने अनावधान सम्बन्धी एक प्रयोग का आयोजन किया। इस प्रयोग के लिए उन्होंने दो प्रयोज्यों को चुना तथा उन्हें टाइप करने का कार्य सौंपा। उन्होंने पहले शान्त वातावरण में उन्हें टाइप करने को कहा। इसके बाद अनावधान की स्थिति में टाइप-कार्य करवाया। इस प्रयोग में मार्गन ने निष्कर्ष प्राप्त किया कि जब ध्यान-भंजक कारक का पदार्पण होता है, उस समय प्रारंभ में कार्य की सामान्य गति कुछ कम हो जाती है, परन्तु कुछ समय के उपरांत ध्यान-भंजक के कार्य होते हुए भी कार्य की गति सामान्य हो जाती है। इसके विपरीत, एक अन्य निष्कर्ष भी प्राप्त किया गया। मार्गन ने देखा कि यदि किसी व्यक्ति को निरन्तर ध्यान-भंग अवस्था में कार्य का अभ्यास करवाया जाए तथा उसके बाद यदि उसको शान्त वातावरण में कार्य करने को कहा जाए तो उसकी कार्य-गति में कुछ कमी आ जाती है।
(ii) स्मिथ द्वारा प्रयोग : अनावधान के विषय में स्मिथ (K.R. Smith) ने भी प्रयोग का आयोजन किया। उसने प्रयोग के विषय-पात्र को अनावधान की दशा में अंकों की जाँच का कार्य सौंपा। उसने अपने प्रयोग के निष्कर्षस्वरूप पाया कि ध्यान-भंग की अवस्था में यह कार्य सामान्य से तीव्र गति से किया गया, परन्तु कार्य में सामान्य से अधिक त्रुटियाँ पाई गईं।
(iii) फोर्ड द्वारा प्राप्त निष्कर्ष : फोर्ड ने अनावधान की दशा में कार्य करवाकर देखा तथा निष्कर्षस्वरूप स्पष्ट किया कि अनावधान अवस्था में प्रयोज्यों की पेशीय गतियाँ सामान्य अवस्था की तुलना में अधिक हो जाती हैं।
(iv) होवे द्वारा प्रयोग : होवे ने अनावधान सम्बन्धी प्रयोग के आधार पर स्पष्ट किया कि अनावधान की अवस्था में कार्य करने पर कार्य-उत्पादन की दर में कुछ कमी अवश्य आती है।
(v) केंडरिक पैरेस द्वारा प्रयोग : पैरेस ने एक प्रयोग के दौरान देखा कि जब गीत बज रहे थे, तब प्रयोज्यों की पढ़ने की क्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इससे भिन्न एक अन्य प्रयोग में जब लोकप्रिय संगीत बजाया गया तो उसका किसी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव प्रयोज्यों की पढ़ने की क्रिया पर नहीं पड़ा।
प्रश्न 3.
'ध्यान का विस्तार' से आप क्या समझते हैं? इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए इसके निर्धारकों को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
ध्यान का विस्तार : ध्यान की प्रक्रिया का व्यवस्थित अध्ययन करते समय ध्यान-विस्तार का भी अध्ययन किया जाता ध्यान के विस्तार से आशय है कि व्यक्ति द्वारा किसी एक समय में एक साथ कितने बाह्य उद्दीपकों को ध्यान का विषय बनाया जा सकता है। व्यक्ति के ध्यान के अंतर्गत जितने विषय एक समय में एक साथ आ जाएँ उसे ही 'ध्यान का विस्तार' या 'अवधान का विस्तार' कहा जाता है।
अवधान के विस्तार का व्यवस्थित अध्ययन सर्वप्रथम हेमिल्टन नामक मनोवैज्ञानिक ने 1859 ई. में किया। उसने कुछ संगमरमर के टुकड़ों को अपने छात्रों के सामने जमीन पर बिखेर दिया। तब उसने छात्रों को उन टुकड़ों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कहा। इस निर्देश के उपरांत उसने निष्कर्ष प्राप्त किया कि हर कोई छात्र एक ही समय में अधिक-से-अधिक 6-7 टुकड़ों को ही अपने ध्यान का केन्द्र बना पाया। स्पष्ट है कि व्यक्ति एक समय में 6-7 से अधिक टुकड़ों को नहीं देख सकता।
इसके उपरांत 1871 में जेवोन्स ने एक प्रयोग किया। उसने मटर के कुछ दानों को एक लकड़ी की ट्रे में बिखेर दिया तथा सम्बन्धित प्रयोज्य को उन पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कहा। इस प्रयोग के निष्कर्षस्वरूप पाया गया कि एक समय में प्रयोज्य बिना किसी त्रुटि के 3-4 मटरों पर ध्यान केन्द्रित कर सकता है, परन्तु 5 से अधिक मटरों पर ध्यान केन्द्रित करने की स्थिति में प्रयोज्य द्वारा त्रुटि की गई।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि अवधान-विस्तार पर वैयक्तिक भिन्नताओं का भी प्रभाव पड़ता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के संदर्भ में अवधान-विस्तार भिन्न-भिन्न होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अवधान-विस्तार की कोई निश्चित सीमा निर्धारित कर पाना सम्भव नहीं है।
'ध्यान के विस्तार' के निर्धारक :
अवधान-विस्तार को प्रभावित करने वाले मुख्य निर्धारकों का संक्षिप्त परिचय निम्नवत्
(i) उद्दीपक निर्धारक : अवधान-विस्तार का एक मुख्य निर्धारक उद्दीपक निर्धारक (Stimulus Determinants) है। इस कारक का व्यवस्थित अध्ययन हंटर तथा सिंगलर ने किया था। इन मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि अवधान-विस्तार पर प्रकाश की तीव्रता तथा विषय-वस्तु को दिखाए जाने की अवधि का अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है। कम प्रकाश तथा कम समय-अवधि में अवधान-विस्तार कम होता है, जबकि प्रकाश तथा समय-अवधि को बढ़ा देने पर अवधान-विस्तार बढ़ जाता है।
(ii) उद्दीपक की सार्थकता : अवधान-विस्तार का एक | निर्धारक उद्दीपक की सार्थकता (Meaningfulness of Stimulus)
भी है। इस निर्धारक के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है कि यदि उद्दीपक सरल एवं सार्थक है तो अवधान-विस्तार अधिक होता है। इसके विपरीत कठिन तथा निरर्थक उद्दीपक का अवधान-विस्तार अपेक्षाकृत कम होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि यदि कुछ सार्थक शब्द प्रस्तुत किए जाएँ तो अवधान-विस्तार अधिक होगा, जबकि निरर्थक शब्दों की स्थिति में अवधान विस्तार कम होगा।
(iii) अभ्यास : अवधान-विस्तार को सम्बन्धित व्यक्ति का अभ्यास (Practice) भी प्रभावित करता है। एक ही प्रकार की विषय-वस्तुओं पर बार-बार ध्यान केन्द्रित करने से अवधानविस्तार में वृद्धि हो जाती है। अनेक मनोवैज्ञानिकों ने देखा कि टैचिस्टोस्कोप नामक यन्त्र के साथ पुन:-पुनः प्रयास करने से हर बार अवधान-विस्तार में कुछ-न-कुछ वृद्धि होती है।
(iv) परिचय : अवधान-विस्तार पर व्यक्ति के विषय में होने वाले परिचय (Familiarity) का भी प्रभाव पड़ता है। परिचित विषय-वस्तु के प्रति अवधान-विस्तार अधिक होता है, जबकि अपरिचित विषय-वस्तु के प्रति अवधान-विस्तार कम होता
(v) पृष्ठभूमि का प्रभाव : अवधान के विस्तार पर सम्बन्धित विषय-वस्तु की पृष्ठभूमि का प्रभाव (Effect of Background) भी उल्लेखनीय है। पैटर्सन तथा टिनकर ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि अक्षरों के आकार, चमक तथा पृष्ठभूमि के विरोध का अवधान-विस्तार पर अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है। विषय-वस्तु की पृष्ठभूमि में विरोध की अधिकता की स्थिति में अवधान-विस्तार अपेक्षाकृतरूप से बढ़ जाता है।
(vi) उद्दीपकों के मध्य दूरी : अवधान-विस्तार के निर्धारकों में उद्दीपकों के मध्य दूरी का भी विशेष महत्त्व है। वुडरो ने 1938 ई. में एक प्रयोग करके स्पष्ट किया कि यदि उद्दीपकों के बीच दूरी कम हो तो उन्हें पहचान में परेशानी होती है। ऐसे में अवधान-विस्तार कम होता है। इसके विपरीत यदि उद्दीपकों के बीच समुचित दूरी हो तो उन्हें पहचानना सरल हो होता है अर्थात् इस स्थिति में अवधान-विस्तार अपेक्षाकृत अधिक हो सकता है।
(vi) आयु : अवधान-विस्तार पर प्रयोज्य की आयु (Age) का भी प्रभाव पड़ता है। बच्चों की तुलना में वयस्क व्यक्ति का अवधान-विस्तार अधिक होता है। वास्तव में आयु बढ़ने के साथ-साथ व्यक्ति की बुद्धि, परिपक्वता, स्मृति, चिन्तन तथा कल्पना आदि में विकास होता है तथा ये सभी कारक अवधान विस्तार में सहायक होते हैं।
(viii) रुचि : अवधान के विस्तार पर प्रयोज्य की रुचि (Interest) का भी प्रभाव पड़ता है। रुचिकर विषय के प्रति अवधान का विस्तार अधिक होता है, जबकि अरुचिकर या रुचि के विरुद्ध विषय के प्रति अवधान का विस्तार कम होता है।
प्रश्न 4.
रुचि का अर्थ स्पष्ट करते हुए अवधान से इसके सम्बन्ध पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
ध्यान की अवधारणा की व्याख्या के प्रसंग में 'रुचि' का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिस विषय पर ध्यान केन्द्रित होता है, सामान्यतः वह विषय रुचिकर भी होता है अर्थात् वही विषय ध्यान में रहता है जो व्यक्ति की रुचि में हो। यदि किसी विषय में व्यक्ति की रुचि नहीं है तो उस विषय पर वह व्यक्ति ध्यान केंद्रित नहीं कर सकता। इससे पता चलता है कि ध्यान एवं रुचि एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित हैं।
रुचि का अर्थ : रुचि अपने आप में एक प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति द्वारा ध्यान केन्द्रित होता है। यह प्रवृत्ति प्रत्येक व्यक्ति में पाई जाती है, परन्तु भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। रुचि व्यक्ति के भावात्मक पक्ष से भी सम्बन्धित होती है। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। रुचियाँ सामान्य रूप से तार्किक नहीं होती; अर्थात् किसी रुचि की सार्थकता को तर्क के आधार पर नहीं दर्शाया जा सकता। उदाहरण के लिए- एक व्यक्ति को नए-नए दृश्य देखने में रुचि होती है तथा कोई अन्य व्यक्ति इसे पूर्णतया व्यर्थ समझता है। रुचि को एक प्रकार की प्रबल प्रेरक शक्ति के रूप में जाना जा सकता है। रुचि के कारण विभिन्न कार्य सरलता से तथा शीघ्र हो जाते हैं।
रुचि एक मानसिक व्यवस्था है और इसका निर्माण अनुभवों एवं प्रेरकों से होता है। वस्तुतः प्रेरकों को सन्तुष्ट करने वाले अनुभव ही रुचि कहलाते हैं। इस प्रकार व्यक्ति का रुचिजनक व्यवहार उसकी प्रेरणा पर आधारित होता है; अतः जो वस्तुएँ प्रेरणा से जुड़ी होती हैं, उन्हीं के प्रति रुचि प्रदर्शित की जाती है।
रुचियाँ सामान्यतः स्थायी नहीं होतीं। जीवन के भिन्न-भिन्न स्तरों पर क्रमशः भिन्न-भिन्न रुचियाँ विकसित होती हैं तथा समय के साथ-ही-साथ रुचियों में भी परिवर्तन हो जाता है। उदाहरण के लिए बचपन में जो वस्तुएँ, खिलौने, कपड़े इत्यादि बच्चे के लिए रुचिकर होते हैं, वही किशोरावस्था में रुचि से बाहर हो जाते हैं। किशोरावस्था में रुचि परिवर्तित हो जाती है। क्रो एवं क्रो के अनुसार “रुचि उस प्रेरक शक्ति को कहते हैं, जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा क्रिया के प्रति ध्यान देने के लिए प्रेरित करती है।"
रुचि एवं ध्यान में सम्बन्ध : ध्यान केंद्रित करने में विभिन्न आन्तरिक दशाएँ एवं प्रेरक सहायक होते हैं। रुचि एक ऐसा मानसिक संस्कार है जो ध्यान को केन्द्रित करने में सबसे अधिक सहायक होता है। रुचि व्यक्ति के ध्यान को अभीष्ट दिशा में प्रेरित कर एक प्रेरक के रूप में भी कार्य करती है। रुचि व ध्यान के सम्बन्ध को निम्नलिखित शीर्षकों में स्पष्ट किया जा सकता है
(i) रुचि एवं ध्यान एक-दूसरे के पूरक हैं : रुचि व ध्यान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसका अर्थ है कि ध्यान में वृद्धि होने से रुचि का विकास और रूचि का विकास होने पर ध्यान में वृद्धि होती है। अतः ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
(ii) ध्यान का रुचि पर आधरित होना : व्यक्ति उन्हीं कार्यों, विषयों, वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित करता है जिनमें उसकी रुचि होती है। जिन विषयों में उसकी रुचि नहीं होती, उनमें उसका ध्यान केन्द्रित नहीं हो पाता। जैसे-हॉकी के खेल में रुचि रखने वाला व्यक्ति, क्रिकेट के खेल में ध्यान नहीं लगा सकता।
(iii) रुचि का ध्यान पर आधारित होना : मनोवैज्ञानिकों के अनुसार रुचि का विकास ध्यान की प्रक्रिया पर ही निर्भर होता है। यदि किसी विषय, वस्तु अथवा व्यक्ति पर हम निरन्तर अपना ध्यान केन्द्रित करें तो धीरे-धीरे उस विषयवस्तु अथवा व्यक्ति में हमारी रुचि होने लगेगी। जैसे-यदि हम कोई विशेष किताब रोज ध्यान से पढ़ें तो धीरे-धीरे किताब पढ़ने में हमारी रुचि उत्पन्न होने लगेगी। अत: इससे सिद्ध होता है कि ध्यान व रुचि एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। ध्यान के बिना रुचि नहीं होती और रुचि के बिना ध्यान नहीं लगाया जा सकता है।