Rajasthan Board RBSE Class 11 Psychology Important Questions Chapter 4 मानव विकास Important Questions and Answers.
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बहुविकल्पी प्रश्न
प्रश्न 1.
“विकास का अर्थ; परिवर्तन की उस उन्नतिशील श्रृंखला से है जो परिपक्वता के एक निश्चित लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है।" यह कथन किसका है:
(अ) ड्रीवर
(ब) क्रो एवं क्रो
(स) हरलॉक
(द) मुनरो
उत्तर:
(स) हरलॉक
प्रश्न 2.
बालक की तीव्र बुद्धि का विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
(अ) कोई प्रभाव नहीं पड़ता
(ब) विकास मन्द होता है
(स) विकास सामान्य ही रहता है
(द) विकास सामान्य से तीव्र होता है।
उत्तर:
(द) विकास सामान्य से तीव्र होता है।
प्रश्न 3.
सामान्य स्वास्थ्य का विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है
(अ) विकास सामान्य से तीव्र हो जाता है
(ब) विकास सामान्य होता है।
(स) विकास अस्त-व्यस्त हो जाता है
(द) विकास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
उत्तर:
(ब) विकास सामान्य होता है।
प्रश्न 4.
विकास तथा आयु में क्या सम्बन्ध है :
(अ) विकास का आयु से कोई सम्बन्ध नहीं है
(ब) विकास आयु के अनुसार ही होता है
(स) विकास पर आयु का कोई प्रभाव नहीं पड़ता
(द) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
उत्तर:
(ब) विकास आयु के अनुसार ही होता है
प्रश्न 5.
विकास को प्रभावित करने वाला कारक नहीं है:
(अ) बुद्धि
(ब) प्रजाति
(स) उपलब्धि
(द) संस्कृति
उत्तर:
(स) उपलब्धि
प्रश्न 6.
कौन-सी विशेषता विकास पर लागू नहीं होती
(अ) विकास सर्वांगीण रूप से होता है
(ब) विकास जीवनपर्यन्त चलता है
(स) विकास को स्पष्ट इकाइयों में मापा जा सकता है
(द) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ
उत्तर:
(स) विकास को स्पष्ट इकाइयों में मापा जा सकता है
प्रश्न 7.
कौन सी विशेषता वृद्धि पर लागू नहीं होती
(अ) वृद्धि शारीरिक अंगों में होती है
(ब) वृद्धि व्यक्तिगत भेदों पर आधारित है
(स) वृद्धि को स्पष्ट इकाइयों में मापना संभव नहीं है
(द) वृद्धि प्रौढ़ावस्था में आकर रुक जाती है
उत्तर:
(स) वृद्धि को स्पष्ट इकाइयों में मापना संभव नहीं है
अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
विकास की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
हरलॉक के अनुसार “विकास का अर्थ परिवर्तन की उस उन्नतिशील श्रृंखला से है जो परिपक्वता के एक निश्चित लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है।"
प्रश्न 2.
बालक के विकास पर बुद्धि का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
सभी बच्चों में बुद्धि की तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है। बुद्धि की तीव्रता बालक के विकास की गति को प्रभावित करती है। तीव्र बुद्धि के बालकों में विकास की गति भी तीव्र होती है। इसके विपरीत मंद बुद्धि के बालकों की विकास गति भी मंद होती है। हरलॉक के अनुसार उच्च स्तर की बुद्धि विकास को तीव्रगामी बनाती है और निम्न स्तर की बुद्धि पिछड़ेपन से सम्बन्धित होती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बालक के विकास में बुद्धि एक महत्त्वपूर्ण तत्व है।
प्रश्न 3.
व्यक्ति के विकास पर पोषण का क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर :
व्यक्ति के विकास के लिए उचित पोषण आवश्यक होता है। उचित पोषण के अभाव में बालक का विकास असामान्य हो जाता है। जो बालक पर्याप्त मात्रा में संतुलित आहार ग्रहण करते हैं उनका शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार का विकास सामान्य होता है। विटामिन, प्रोटीन, खनिज, कार्बोहाइड्रेट तथा वसा नामक पोषक तत्वों की सन्तुलित मात्रा ग्रहण करने से शारीरिक विकास सुचारु ढंग से होता है। इसी प्रकार शुद्ध वायु तथा सूर्य के प्रकाश से प्राप्त पोषण का भी व्यक्ति के विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
प्रश्न 4.
बाल विकास के क्रमिक विकास के सिद्धान्त का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
बाल विकास का एक सिद्धान्त है- क्रमिक विकास का सिद्धान्त। इस सिद्धान्त के अनुसार बालक की मानसिक क्रियाओं का विकास क्रम से होता है। प्राचीन बाल मनोवैज्ञानिकों का विचार था कि बालक की समस्त मानसिक क्रियाओं का विकास एक निश्चित क्रम से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पहले एक मानसिक क्रिया का विकास होता है और जब यह मानसिक क्रिया पूर्णता को प्राप्त कर लेती है तो दूसरी मानसिक क्रिया का विकास प्रारंभ हो जाता है। उदाहरण "पहले प्रत्यक्षीकरण" का विकास होता है तत्पश्चात् "स्मृति का।"
प्रश्न 5.
किशोरावस्था के विकास के कौन-से सिद्धान्त
उत्तर :
किशोरावस्था में होने वाले विकास की समचित व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए प्रमुख रूप से दो सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए हैं। ये सिद्धान्त क्रमशः हैं
(i) त्वरित विकास का सिद्धान्त
(ii) क्रमशः विकास का सिद्धान्त।
प्रश्न 6.
बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में उसका क्या स्थान है ? यह कथन किसका है ?
उत्तर :
एडलर का।
प्रश्न 7.
सीखने की प्रक्रिया किस अवस्था में सबसे तीव्र होती है?
उत्तर :
शैशवावस्था में।
प्रश्न 8.
शैशवावस्था में शिशु का व्यवहार किस प्रकार का होता है ?
उत्तर :
शैशवावस्था में शिशु का व्यवहार मूल प्रवृत्यात्मक होता है।
प्रश्न 9.
बाल्यावस्था की चार प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(i) आत्मनिर्भरता,
(ii) विकास में स्थिरता,
(ii) नैतिक बोध का विकास,
(iv) सामूहिक भावना का दृढ़ होना।
प्रश्न 10.
बाल्यावस्था की प्रमुख समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(i) विध्वंसक प्रवृत्ति,
(ii) ईर्ष्या की प्रवृत्ति,
(iii) चोरी की आदत,
(iv) आदतन झूठ बोलना।
प्रश्न 11.
कौन-सी अवस्था संघर्ष, तनाव तथा विरोध की अवस्था कहलाती है ?
उत्तर :
किशोरावस्था।
प्रश्न 12.
आयु के आधार पर किस काल को किशोरावस्था कहा जाता है ?
उत्तर :
आयु के आधार पर 12-13 वर्ष से 18-19 वर्ष के आयुकाल को किशोरावस्था कहा जाता है।
प्रश्न 13.
किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों की प्रकृति को स्पष्ट करने वाला कोई कथन लिखिए।
उत्तर :
स्टेनले हाल के अनुसार, “किशोरावस्था में बालक में जो शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं, वे एकदम उभरकर | सामने आ जाते हैं।"
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर (SA1)
प्रश्न 1.
बाल्यावस्था में शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप : बाल्यावस्था में बालक की शिक्षा का निम्नलिखित स्वरूप होना चाहिए
(i) बालकों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए, जो उनके व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित हो।
(ii) बालकों में आत्मसंयम, स्वावलंबन, आज्ञाकारिता, अनुशासन, विनयशीलता, उत्तरदायित्व आदि गुणों को उत्पन्न करना चाहिए।
(iii) बालक की सामूहिक प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए उसे बाल-समाज एवं स्काउटिंग का सदस्य बनने का अवसर देना चाहिए।
(iv) माता-पिता एवं शिक्षक का यह परम कर्तव्य है कि यदि बालक में स्वास्थ्य की कमी हो तो उसे अतिशीघ्र पूरा करने का यथासम्भव प्रयास किया जाना चाहिए।
(v) बालकों को प्रेम व सहानुभूति से पढ़ाने का प्रयास करें। उन्हें अत्यधिक कठोर दंड नहीं देना चाहिए। इससे उनमें शिक्षा के प्रति अरुचि विकसित हो सकती है।
(vi) शिक्षकों को बालकों के समक्ष अच्छे-अच्छे सामूहिक खेलों का नमूना प्रस्तुत करना चाहिए।
(vii) बालकों को विविध प्रकार के अन्धविश्वासों, दूषित प्रथाओं एवं छल-कपट की बातों से दूर रखना चाहिए।
प्रश्न 2.
विकास की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
विकास की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ होती है :
(i) विकास के मुख्य सोपानों में समानता : विकास की प्रक्रिया में समानता का गुण पाया जाता है। इस तथ्य को हम मानव-शिशु में होने वाले विकास के उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं। प्रत्येक मानव शिशु जन्म के उपरांत समान रूप से विभिन्न अवस्थाओं में से गुजरकर प्रौढ़ व्यक्ति के रूप में विकसित होता है।
(ii) कुछ पहलुओं की भिन्नता : यद्यपि विकास-क्रम में शारीरिक अवयवों का विकास तो सब शिशुओं में समान ढंग का होता है और इसलिए वे बड़े होकर मनुष्य ही बनते हैं, लेकिन उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं में भिन्नता होती है। उनका मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक व बौद्धिक विकास भिन्न-भिन्न रूपों में होता है। यह भी विकास की विशेषता है।
(ii) विकास का आयु से सम्बन्ध : विकास आयु के अनुसार ही होता है। सामान्यत: व्यक्तियों में आयु के अनुपात में ही विकास होता है जिसे सामान्य विकास कहते हैं। लेकिन जब कुछ लोगों का विकास आयु के अनुसार कम होता है तो इसे मन्द विकास कहते हैं तथा जब कुछ लोग आयु से आगे का विकास प्राप्त कर लेते हैं तो इसे तीव्र विकास कहते हैं।
(iv) विकास में निरन्तरता : यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में जीवन भर निरन्तर रूप से चलती रहती है। इस पर देश एवं काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यह अलग बात है कि इस प्रक्रिया की गति कभी मन्द तो कभी तीव्र हो जाती है। इसके अलावा जीवन के भिन्न-भिन्न स्तरों पर व्यक्तित्व के भिन्न-भिन्न पक्षों के विकास की दर भिन्न-भिन्न हो सकती है।
(v) विकास एक संगठित प्रक्रिया : विकास एक संगठित प्रक्रिया है क्योंकि इसका सम्बन्ध केवल शारीरिक विकास से नहीं है। इसमें मानसिक, संवेगात्मक, नैतिक व सौन्दर्यात्मक विकास भी सम्मिलित है। विकास की प्रक्रिया व्यक्ति के समुचित विकास से सम्बन्धित है और इसे किसी एक आयु सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।
प्रश्न 3.
विकास के प्रमुख स्वरूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
विकास के प्रमुख स्वरूप : व्यक्ति के स्वरूप का निर्माण अनेक पहलुओं के समन्वित स्वरूप में विकसित होने से होता है। ये पहलू ही समग्र विकास के विभिन्न स्वरूप अथवा घटक कहे जाते हैं जो निम्न हैं
(i) शारीरिक विकास : शरीर के अंगों के आकार व भार में वृद्धि के साथ क्रियाशीलता का विकास आयु बढ़ने के साथ होता है।
(ii) मानसिक विकास : प्रत्येक व्यक्ति को वंशानुक्रम से अनेक मानसिक शक्तियाँ, यथा- बुद्धि, स्मृति, कल्पना, तर्क-शक्ति, विचार एवं निर्णय शक्ति आदि प्राप्त होती है। इन सभी शक्तियों का विकास आयु के साथ होता चलता है।
(iii) संवेगात्मक विकास: प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही अनेक संवेग एवं मूल प्रवृत्तियाँ उपस्थित रहती हैं, जो आयु बढ़ने के साथ परिवर्तित होती जाती हैं।
(iv) रसानुभूति का विकास : प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही अच्छी वस्तुओं को देखकर सुख का अनुभव करने और उनकी ओर आकर्षित होने की संवेदना शक्ति होती है। इसे ही रसानुभूति या सौन्दर्यानुभूति कहते हैं। आयु के साथ इसका भी विकास होता चला जाता है।
(v) नैतिक एवं चारित्रिक विकास : आयु के साथ-साथ व्यक्ति का नैतिक एवं चारित्रिक विकास भी स्वयंमेव होता चलता
(vi) सामाजिक विकास : मनुष्य समाज में रहता है और समाज में विभिन्न लोगों से मिलता-जुलता है। इससे उसका सामाजिक विकास होता है और वह समाज में रहने योग्य बनता है। सामाजिक विकास में व्यक्ति अपने परिवार, समूह अथवा समाज आदि के नियमों के अनुसार चलना एवं उनसे व्यवस्थापन करना सीखता है।
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर (SA2)
प्रश्न 1.
विकास की प्रक्रिया के प्रमुख तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
विकास की प्रक्रिया के प्रमुख तत्त्व : विकास की प्रक्रिया के परिचालन में विभिन्न तत्त्वों का योगदान होता है। विकास की प्रक्रिया को चलाने वाले प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं :
(i) प्राण-शक्ति : विकास की प्रक्रिया को चलाने वाला सबसे प्रमुख तत्त्व प्राण-शक्ति अथवा जीवन-शक्ति है। यह जीवन-शक्ति ही विकास को परिचालित एवं प्रेरित करती है।
(ii) परिपक्वता : आयु के साथ-साथ मनुष्य के विभिन्न पक्ष क्रमशः पुष्ट होते हैं। इस पुष्टता को ही परिपक्वता कहा जाता है। विकास और शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक परिपक्वता साथ-साथ चलते हैं। यह परिपक्वता भी विकास को प्रेरित करती है।
(iii) सीखना एवं अनुकरण : व्यक्ति के विभिन्न पक्षों का विकास पर्यावरण के साथ होने वाली अन्तःक्रिया के परिणामस्वरूप भी होता है। यह सीखने की प्रक्रिया तथा अनुकरण द्वारा होता है।
(iv) संघर्ष और प्रयास : विश्व में रहकर मनुष्य को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार के संघर्ष एवं प्रयत्न करने पड़ते हैं। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति सबल बनता है तथा विकसित होता है।
प्रश्न 2.
शैशवावस्था में होने वाले शारीरिक विकास का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
शैशवावस्था में शारीरिक विकास : शैशवावस्था में होने वाले शारीरिक विकास का सामान्य विवरण निम्न प्रकार से है :.
(i) आकार एवं भार : जन्म के समय सामान्यतः शिशु की लम्बाई 50 सेमी. तथा भार 3 से 4 कि. ग्राम होता है। जन्म के समय बालक बालिका की अपेक्षा 1 सेमी. अधिक लम्बा होता है। शैशवावस्था समाप्त होते-होते शिशु की लम्बाई 100 से.मी. तक हो जाती है और वजन 40 पौंड तक हो जाता है। शिशु की तौल जन्म के प्रथम सप्ताह में कुछ कम हो जाती है किन्तु बाद में बढ़ने लगती है।
(ii) हड्डियाँ : जन्म के समय शिशु की हड्डियाँ बहुत कोमल एवं लचीली होती हैं और उनकी संख्या 270 होती है। भोजन (दूध) से प्राप्त कैल्शियम, फास्फोरस तथा अन्य खनिज लवणों की सहायता से उनकी हड्डियाँ दृढ़ हो जाती हैं। 6-7 महीने पूरे होते-होते शिशु के अस्थायी दाँत. निकलने शुरू हो जाते
(iii) मांसपेशियाँ : प्रथम दो वर्षों में शिशु की बाँहें तथा पैर जन्म से लगभग दुगने बड़े हो जाते हैं और इनकी मांसपेशियाँ पर्याप्त दृढ़ हो जाती हैं।
(iv) मस्तिष्क : जन्म के समय मस्तिष्क की तौल प्रायः 250 ग्राम होती है अर्थात् मस्तिष्क का भार, सम्पूर्ण शरीर के 1/8 भार के बराबर होता है। तीन वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते इसका भार प्रायः 1,050 ग्राम हो जाता है।
(v) पाचन तन्त्र : आमाशय का आयतन और आँतों की पाचन शक्ति आयु के साथ बढ़ती है। ज्यों-ज्यों बच्चा ठोस आहार ग्रहण करता है त्यों-त्यों उसका पाचन-तन्त्र प्रबल होने लगता है।
प्रश्न 3.
किशोरावस्था में होने वाले मानसिक विकास सम्बन्धी प्रमुख परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
किशोरावस्था में मानसिक परिवर्तन : किशोरावस्था में मानसिक विकास भी तीव्र गति से होता है। इस काल में होने वाले मानसिक विकास सम्बन्धी प्रमुख परिवर्तनों का विवरण निम्न प्रकार है
(i) बुद्धि का चरम विकास : सभी मनोवैज्ञानिकों का मत है कि किशोरावस्था में बुद्धि का अधिकाधिक विकास होता है। जोन्स व कारनेड के अनुसार 16 वर्ष में, हरमैन के अनुसार 15 वर्ष में तथा स्पीयरमैन के अनुसार 14 से 16 वर्ष की अवस्था तक व्यक्ति की बुद्धि का पूर्ण विकास हो जाता है। इसके बाद इसका विकास नहीं होता है।
(ii) कल्पना की अधिकता : इस अवस्था में किशोरों में कल्पना की अधिकता होती है अर्थात् वे हर समय काल्पनिक संसार में गोते लगाते रहते हैं। वे दिवास्वप्न बहुत देखते हैं। परिणामस्वरूप वे अन्तर्मुखी प्रवृत्ति के हो जाते हैं और उनकी संगीत-साहित्य कला आदि में रुचि जाग्रत हो जाती है।
(iii) घूमने में रुचि : विभिन्न विषयों का ज्ञान हो जाने पर उन्हें प्रत्यक्ष देखने की इच्छा किशोरों में जाग उठती है और उनमें घूमने की इच्छा प्रबल हो उठती है। उनकी इस इच्छा की तृप्ति न होने पर अनेक किशोर तो घर से भाग जाते हैं।
(iv) अध्ययन में रुचि : इस अवस्था में अध्ययन के प्रति रुचि बढ़ने लगती है। बालक को विभिन्न प्रकार की कहानियाँ, उपन्यास, नाटक तथा कविताएँ पढ़ना बहुत अच्छा लगता है।
(v) समायोजन की कमी : विचारों में परिवर्तन के कारण किशोर अपने चारों ओर के सामाजिक वातावरण तथा स्थापित सामाजिक पद्धतियों में सामंजस्य नहीं बैठा पाते हैं।
(vi) अधिक स्वतंत्रता की इच्छा : किशोरों में आत्म प्रदर्शन की भावना अत्यन्त प्रबल होती है। वे चाहते हैं कि वे अपनी इच्छानुसार पूर्ण स्वतंत्र जीवनयापन करें। इसके साथ ही किशोरों में स्वयं के प्रति सम्मान और विश्वास का भाव भी जाग जाता है। वे अपने परिवार व अभिभावकों के कठोर नियन्त्रण, समाज के रीति-रिवाजों, अंधविश्वासों तथा रूढ़िवादी दृष्टिकोण में | बंधना नहीं चाहते। वे पुरानी पीढ़ी के विचारों से अलग अपने विचार एवं मान्यतायें विकसित करते हैं जिसे पीढ़ी अन्तर कहते
प्रश्न 4.
किशोरावस्था में होने वाले प्रमुख शारीरिक परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तन : किशोरावस्था तीव्र शारीरिक परिवर्तनों का काल होता है। इस काल में अनेक परिवर्तन होते हैं जो निम्न हैं :
(i) किशोरों का स्वर भारी और कर्कश हो जाता है और किशोरियों की वाणी में अतिरिक्त मधुरता आ जाती है।
(ii) किशोरों के चेहरे पर मूंछ एवं दाढ़ी के चिह्न दिखाई देने लगते हैं। किशोरियों के वक्ष एवं कूल्हे बढ़ने लगते हैं तथा दोनों के गुप्तांगों पर बाल निकल आते हैं। किशोरों को स्वप्नदोष और किशोरियों को मासिक स्राव होने लगता है।
(ii) दोनों के शरीर के अंग सुडौल और पुष्ट होने लगते हैं। इस अवस्था में किशोरों की अपेक्षा किशोरियों का शरीर जल्दी परिपक्व होता है। किशोरावस्था पूर्ण होने तक लड़कों की लम्बाई भी पूरी हो जाती है।
(iv) जननेन्द्रियों का विकास हो जाता है और किशोर तथा किशोरियों में काम (Ser) की प्रवृत्ति तीव्र होने लगती है। इस अवस्था में शारीरिक एवं मानसिक सभी प्रकार के शिक्षण में काम की प्रवृत्ति एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में कार्य करती है।
(v) इस अवस्था में मस्तिष्क एवं हृदय का भी पूर्ण विकास हो जाता है।
अत: किशोरावस्था में आते ही किशोर तथा किशोरियों के मन में एक विचित्र प्रकार की हलचल सी मच जाती है। वे इतने सारे परिवर्तनों के कारण घबरा जाते हैं। इसलिए कुछ समय के लिए उनका संतुलन बिगड़ सा जाता है। इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए किशोरावस्था को “तूफान और तनाव की अवस्था" कहा जाता है।
प्रश्न 5.
बाल्यावस्था में होने वाले शारीरिक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
बाल्यावस्था में शारीरिक विकास : बाल्यावस्था का काल 12 वर्ष की अवस्था तक माना जाता है। इस काल की शारीरिक अवस्था में प्रमुख रूप से निम्नलिखित पक्षों का विकास होता है
(i) आकार एवं भार : बाल्यावस्था में शारीरिक विकास की गति धीमी होती है। इस काल में सामान्यतः बालक 25-30 सेमी. तक बढ़ता है और शैशवावस्था से दुगुना हो जाता है। बाल्यावस्था के समाप्त होने पर लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की लम्बाई 2 सेमी. और अधिक बढ़ जाती है तथा लड़कियों का भार बढ़ जाता है। बालकों का ललाट चौड़ा हो जाता है, मुँह का निचला भाग बड़ा हो जाता है और स्थायी दाँत निकलने से मुँह भर जाता है।
(ii) मस्तिष्क : इस अवस्था में भी मस्तिष्क का विकास होता रहता है। 10 वर्ष की अवस्था में बालक के सिर का वजन शरीर के वजन का 1/10 हो जाता है। तौल एवं आकार की दृष्टि से 8 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर बालक के मस्तिष्क का पूर्ण विकास हो जाता है, किन्तु क्रियाशीलता एवं परिपक्वता बाद में आती है।
(iii) हड्डियाँ : प्रथम 4-5 वर्षों में अर्थात् 10-11 वर्ष तक की आयु तक हड्डियाँ बढ़ती हैं और अगले 2-3 वर्षों में हड्डियों का रूढिकरण होता है। लड़कियों का अस्थिकरण लड़कों से 2 वर्ष पूर्व ही हो जाता है।
(iv) मांसपेशियाँ : साधारणत: 8 वर्ष के बालक की सम्पूर्ण मांसपेशियों का भार उसके शरीर के कुल भार का 17% हो जाता है। इस आयु में भी बालिकाओं की मांसपेशियों में अधिक वृद्धि होती है।
प्रश्न 6.
किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक विकास का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
किशोरावस्था में शारीरिक विकास : स्टेनले हाल के अनुसार “किशोर अवस्था बड़े बल, तनाव, तूफान और संघर्ष की अवस्था है।" 13 वर्ष से 18-19 वर्ष की आयु किशोरावस्था कहलाती है। किशोरावस्था में बालक परिपक्वता की ओर बढ़ता है और उसमें अनेक प्रकार के विशिष्ट शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक एवं भावात्मक परिवर्तन होते हैं।
इसी कारण इस अवस्था में उनमें अनेक मनोवैज्ञानिक समस्याएँ उत्पन्न होती किशोरावस्था में शरीर के बाहरी एवं आन्तरिक सभी अंगों का पर्याप्त विकास होता है तथा उनमें परिपक्वता भी आती है। शरीर के सभी अंग इस काल में पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं। हृदय, फेफड़ों, हड्डियों, ज्ञानेन्द्रियों आदि का लगभग पूर्ण विकास इस काल में हो जाता है।
शारीरिक विकास के लिए पौष्टिक भोजन, व्यायाम एवं आराम अनिवार्य है। इस काल में शरीर की लम्बाई भी बढ़ती है। इस काल में लड़कों की लम्बाई लड़कियों की अपेक्षा अधिक बढ़ती है। किशोरावस्था में शरीर के विभिन्न अंगों का भी विकास होता है। अंगों का विकास एक निश्चित अनुपात में होता है। इस काल में शरीर में सुडौलता आ जाती है।
यह सुडौलता मांसपेशियों के विकास के परिणामस्वरूप आती है। इसके अतिरिक्त इस काल में बालक के शरीर में अनेक परिवर्तन यौन परिपक्वता के कारण होते हैं। जननेन्द्रियाँ विकसित हो जाती हैं। लड़कियों में मासिक नाव प्रारंभ हो जाता है, स्तनों में उभार आ जाता है, तथा आँखों में एक विशेष प्रकार की चमक आ जाती है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
विकास से आप क्या समझते हैं ? इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। विकास के आधारभूत सिद्धांतों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत मानव विकास का व्यवस्थित अध्ययन भी किया जाता है। वास्तव में शिक्षा की प्रक्रिया का, विकास की प्रक्रिया के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। विकास की प्रक्रिया सामान्य होने पर शिक्षा की प्रक्रिया भी सामान्य रूप से चलती है। इस स्थिति में विकास का अर्थ, विशेषताओं, तत्त्वों एवं विभिन्न रूपों तथा उसे प्रभावित करने वाले कारकों का परिचय प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है।
विकास का अर्थ एवं परिभाषाएँ : विकास एक जटिल प्रक्रिया है। सामान्य रूप से विकास, वृद्धि, परिपक्वता तथा पोषण आदि अवधारणाओं को प्रायः मिले-जुले अर्थों में प्रयोग किया जाता है, परन्तु वास्तविकता यह है कि इन सब में कुछ-न-कुछ अन्तर अवश्य होता है। विकास वह जटिल प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरूप बालक या व्यक्ति की अन्तर्निहित शक्तियाँ एवं गुण प्रस्फुटित होते हैं।
विकास के लिए विभिन्न कारक उत्तरदायी होते हैं जो कि विकास की प्रक्रिया का परिचालन करते हैं। विकास की प्रक्रिया को भलीभाँति प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारक होते हैं- वंशानुक्रम तथा पर्यावरण। यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो कहा जा सकता है कि मौलिक रूप से विकास एक प्रकार से परिवर्तन की ही प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया मुख्य रूप से दो तत्वों से परिचालित होती है। ये तत्त्व हैं-परिपक्वता तथा पोषण। विकास की प्रक्रिया जीवन-भर किसी न किसी रूप में चलती रहती है।
प्रमुख विद्वानों ने विकास की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं :
1. हरलॉक के अनुसार, “विकास का अर्थ परिवर्तन की उस उन्नतिशील श्रृंखला से है जो परिपक्वता के एक निश्चित लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है।"
2. मुनरो के अनुसार, “विकास परिवर्तन-कड़ी की वह अवस्था है, जिसमें जीव भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है।"
3. ड्रीवर के अनुसार, “विकास वह दशा है, जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में प्राणी में सतत् रूप से व्यक्त होती है। यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक होता है।" उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि विकास एक बहुपक्षीय प्रक्रिया है तथा इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्ति की विभिन्न योग्यताओं, विशेषताओं, क्षमताओं, मानसिक शक्तियों एवं सामाजिक, नैतिक तथा चारित्रिक लक्षणों का आविर्भाव होता है। विकास की प्रक्रिया किसी-न-किसी रूप में जीवन भर निरन्तर रूप से चलती रहती है।
विकास के आधारभूत सिद्धांत :
बालक के विकास की प्रक्रिया उसके गर्भ में आने से ही प्रारंभ हो जाती है और जीवन-भर किसी-न-किसी रूप में निरन्तर चलती रहती है। बाल-विकास की यह प्रक्रिया किस प्रकार होती है। इस सम्बन्ध में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। उनमें से प्रमुख सिद्धान्तों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा
(i) निरन्तर विकास का सिद्धांत : विकास की प्रक्रिया किसी-न-किसी रूप में आजीवन चलती रहती है। यह प्रक्रिया कभी मन्द होती है तो कभी तीव्र, लेकिन निरन्तर चलती रहती है।
(ii) विकास-क्रम का सिद्धांत : बालक का विकास एक विशिष्ट क्रम से होता है। उदाहरण के लिए गति विकास में सबसे पहले वह बैठना, फिर खड़े होना और तदुपरान्त चलना सीखता है। इसी प्रकार उसके शरीर के प्रत्येक पहलू का विकास होता है। सबसे पहले शिशु के सामने के दाँत और फिर उनके बगल वाले दाँत विकसित होते हैं।
(iii) समान प्रतिमान का सिद्धांत : प्राणि-जगत में प्रत्येक जीव-जाति का एक पूर्व निर्धारित तथा समान विकास का नियम होता है। प्रत्येक मानव चाहे वह भारत में, इंग्लैंड में अथवा अफ्रीका में उत्पन्न हुआ हो, के विकास का क्रम समान होगा।
(iv) सरल से जटिलता की ओर का सिद्धांत : बालकों के विकास का यह भी एक सिद्धान्त है कि पहले उनमें सामान्य या सरल सामाजिक एवं मानसिक क्रियाओं का विकास होता है तथा विशेष क्रियाओं का विकास बाद में होता है। इसी प्रकार अंगों में भी पहले स्थूल अंगों का और फिर छोटे अंगों जैसे- पैर और हाथ की अंगुलियों का विकास बाद में होता है।
(v) व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धांत : प्रत्येक व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक विकास अपने शारीरिक एवं मानसिक गुणों के अनुसार होता है। इसलिए समान आयु के बालक तथा बालिका के विकास से सम्बन्धित व्यक्तिगत भिन्नताएँ दिखाई देती हैं।
(vi) विकास की भिन्न गति का सिद्धांत : शरीर के सभी भागों का विकास एक साथ और एक गति से नहीं होता है और न ही मानसिक विकास समान रूप से होता है। यह काफी सीमा तक व्यक्तिगत भिन्नता पर निर्भर होता है।
(vii) सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त : शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति भिन्न होने पर भी उनमें सह-सम्बन्ध होते हैं और वे एक-दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक सभी पक्षों के विकास में परस्पर एक सम्बन्ध होता है।
(viii) अवांछित व्यवहार को दूर करने का सिद्धान्त : विकास की प्रत्येक अवस्था में बालक कुछ अवांछित व्यवहार करता है, जिन्हें वह अगली अवस्था में छोड़ देता है। बचपन में शरारत करना, तोड़-फोड़ करना, शोर मचाना आदि व्यवहारों को बालक विकास के साथ छोड़ता जाता है।
पियाजे ने इन सिद्धान्तों का सार निम्नलिखित ढंग से दिया
(i) सभी विकास एक दिशा में होते हैं।
(ii) सभी विकास मानसिक स्तर पर होते हैं।
(iii) प्रारम्भिक व्यवहार का विकास परिपक्व व्यवहार में होता
(iv) शिशु, बालक, किशोर तथा प्रौढ़ के व्यवहार में अन्तर होता है। विकास के सिद्धान्तों का विशेष शैक्षिक महत्त्व भी है। वास्तव में बालक के विकास के स्तर एवं विशेषताओं को ध्यान में रखकर ही उसकी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।
प्रश्न 2.
विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
विकास की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है तथा इस प्रक्रिया को विभिन्न कारक प्रभावित करते हैं। व्यक्ति के विकास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है :
विकास को प्रभावित करने वाले कारक
(i) बुद्धि,
(ii) परिपक्वता,
(iii) अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ,
(iv) वातावरण,
(v) यौन भिन्नता,
(vi) स्वास्थ्य,
(vii) संस्कृति,
(viii) परिवार,
(ix) पोषण
(i) बुद्धि : विकास का मूल बुद्धि है, जिससे प्राणी निरन्तर नवीन क्रियाएँ सीखता है। वह इन क्रियाओं को सीखकर अपने व्यवहार में बौद्धिक, संवेगात्मक तथा भाषा सम्बन्धी गुणात्मक सुधार लाता है। कम बुद्धि के बालक का विकास धीमी गति से और इसके विपरीत तीव्र बुद्धि के बालक का विकास तीव्र गति से होता है। टर्मन (Terman) ने अपने अध्ययनों के आधार पर बुद्धि एवं विकास में सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया है।
(ii) परिपक्वता : आयु बढ़ने के साथ व्यक्ति के शरीर के अंगों तथा कार्यशक्ति में वृद्धि होती है और पुष्टता आती है। इसी को परिपक्वता कहते हैं। व्यक्ति का विकास काफी कुछ इसी तत्त्व पर निर्भर रहता है। जब व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में अपनी आन्तरिक शक्तियों के अनुसार कुशलतापूर्वक प्रतिक्रिया करता है तो हम उसे परिपक्व मान लेते हैं।
(iii) अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ : मानव-शरीर में विभिन्न अन्त:स्रावी | ग्रन्थियाँ होती हैं। इन ग्रन्थियों की सक्रियता भी व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रभावित करती है। ग्रन्थियों की असामान्य सक्रियता व्यक्ति के विकास को असामान्य बना देती है।
(iv) वातावरण : व्यक्ति का विकास सदैव पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण में होता है। पारिवारिक वातावरण में घर में | बच्चों की संख्या, शिक्षा का स्तर, पारिवारिक सम्बन्ध, बच्चों का जन्म क्रम आदि कारक व्यक्ति के विकास को प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार सामाजिक वातावरण भी अनेक प्रकार से व्यक्ति के विकास को प्रभावित करता है। अनुकूल सामाजिक वातावरण में व्यक्ति का विकास सामान्य रहता है, जबकि प्रतिकूल सामाजिक वातावरण में व्यक्ति का विकास असामान्य हो जाता है।
(v) यौन भिन्नता : विकास के विभिन्न पक्षों का सम्बन्ध यौन-भिन्नता से भी है। विभिन्न मनोवैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा सिद्ध
जल्दी विकसित होती हैं। लड़कियाँ अपेक्षाकृत शीघ्र परिपक्वता प्राप्त करती हैं। कुछ अन्य पक्षों में लड़कों का विकास लड़कियों की तुलना में तीव्र होता है।
(vi) स्वास्थ्य : रोग, चोट तथा आघात बालक के विकास को अवरुद्ध कर देते हैं। सामान्य स्वास्थ्य होने पर विकास की प्रक्रिया भी सामान्य चलती है।
(vi) संस्कृति : प्रत्येक देश एवं समाज के आचार, नियम तथा वातावरण से भी विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है। विकसित एवं सम्पन्न देशों के बालकों का विकास उन बालकों की अपेक्षा शीघ्र होता है जो प्रायः अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करते हैं।
(vii) परिवार : घर का वातावरण, सदस्यों का पारस्परिक व्यवहार, सभ्यता तथा आचार-विचार भी बालक के विकास को प्रभावित करते हैं।
(ix) पोषण : आहार में पोषक तत्त्वों का अभाव निश्चित रूप से बालक के विकास को प्रभावित करता है तथा वह शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से सन्तुलित ढंग से विकसित नहीं हो पाता है। उचित पोषण की दशा में बालक का शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास सुचारु होता है।
प्रश्न 3.
बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
बाल विकास की प्रक्रिया जन्म से पूर्व ही प्रारंभ हो जाती है तथा किसी-न-किसी रूप में यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। अब प्रश्न उठता है कि बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं का विभाजन किस प्रकार से किया जाए ? वास्तव में बाल विकास की अवस्थाओं का कोई अति स्पष्ट विभाजन संभव नहीं है, फिर भी विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से बाल विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है।
बाल विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण
1. जोन्स द्वारा वर्गीकरण : जोन्स ने बाल-विकास की प्रक्रिया को तीन भागों में विभक्त किया है। उनके अनुसार बाल-विकास की निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ होती हैं -
(i) शैशवावस्था : जन्म से 5 वर्ष की आयु तक।
(ii) बाल्यावस्था : 5 से 12 वर्ष की आयु तक।
(iii) किशोरावस्था : 12 वर्ष से 18 वर्ष की आयु तक
2. हरलॉक द्वारा वर्गीकरण : हरलॉक ने बाल-विकास की प्रक्रिया का अधिक सूक्ष्म वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उसने बाल-विकास की प्रक्रिया को सर्वप्रथम पाँच वर्गों में विभक्त किया है तथा पुन: किशोरावस्था को तीन भागों में बाँटा है। उसके द्वारा किए गए वर्गीकरण का विवरण निम्नलिखित है :
(i) गर्भावस्था : गर्भधारण से जन्म तक।
(ii) नवजात अवस्था : जन्म से 14 दिन तक।
(iii) शैशवावस्था : 2 सप्ताह (14 दिन) से दो वर्ष की आयु तक।
(iv) बाल्यावस्था : 2 वर्ष से 11 वर्ष की आयु तक।
(v) किशोरावस्था : 11 वर्ष से 21 वर्ष की आयु तक।
हरलॉक ने किशोरावस्था को पुनः तीन भागों में बाँटा है जो निम्न है:
(i) पूर्व किशोरावस्था : 11 वर्ष से 13 वर्ष की आयु तक।
(ii) मध्य किशोरावस्था : 13 वर्ष से 17 वर्ष की आयु तक।
(ii) उत्तर किशोरावस्था : 17 वर्ष से 21 वर्ष की आयु तक।
3. सामान्य वर्गीकरण : यह सत्य है कि भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से बाल-विकास की अवस्थाओं का निर्धारण किया है, परन्तु अब अधिकांश विद्वान एक सामान्य वर्गीकरण को उत्तम मानते हैं। इस वर्गीकरण के अनुसार बाल-विकास की अवस्थाओं का विवरण निम्नलिखित है :
(i) गर्भावस्था : गर्भधारण से जन्म तक।
(ii) शैशवावस्था : जन्म से 6 वर्ष की आयु तक।
(iii) बाल्यावस्था : 6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु तक।
(iv) किशोरावस्था : 12 वर्ष से 18 वर्ष की आयु तक।
प्रश्न 4.
शैशवावस्था जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल है। इस कथन के सन्दर्भ में शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
क्रो एवं क्रो (Crow and Crow) के शब्दों में, "बीसवीं शताब्दी को बाल शताब्दी अर्थात् बालक की शताब्दी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि इस शताब्दी में मनोवैज्ञानिक अपने गम्भीर एवं विस्तृत अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सब अवस्थाओं में शैशवावस्था सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था है।" यह अवस्था वह आधार है, जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण होता है। शैशवावस्था के महत्त्व को प्रस्तुत करते हुए एडलर ने लिखा है, "बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में उसका क्या स्थान है।"
इसी प्रकार स्ट्रंग (Strange) ने लिखा है, "जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भावी जीवन का शिलान्यास करता है।" एक अन्य विद्वान गुडएनफ (Goodenough) ने भी लिखा है, "व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।" अतः आवश्यकता इस बात की है कि इस अवस्था में बालक का अधिक सुचारु रूप से निरीक्षण एवं निर्देशन किया जाए ताकि उसके व्यक्तित्व का वांछित विकास हो।
शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ : शैशवावस्था वह अवस्था है जिसमें सीखने की प्रक्रिया अत्यधिक तीव्रता से होती है। इस अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
(i) सीखने की क्रिया में तीव्रता : मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि शैशवावस्था में सीखने की प्रक्रिया (Process of Learning) बहुत द्रुत गति से चलती है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जैसल का कथन है, “प्रथम तीन वर्षों के बालक बाद के बारह वर्षों से दूना सीख लेते हैं।" कहने का तात्पर्य यह है कि इस अवस्था में बालक अनेक प्रकार की आवश्यक बातें सीख लेता है।
(ii) अन्य मानसिक क्रियाओं में तीव्रता : शैशवावस्था में न केवल सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता होती है वरन् संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, कल्पना, ध्यान आदि मानसिक क्रियाओं में भी तीव्रता होती है। दूसरे शब्दों में, इस काल में बालक की ज्ञानार्जन करने की समस्त मानसिक प्रक्रियाएँ अच्छी तरह काम करती हैं।
(iii) काल्पनिक जगत में विचरण करना : शिशु इस योग्य नहीं होता कि वह अपने वातावरण को नियन्त्रित कर सके। परिणामस्वरूप वह काल्पनिक जगत में विचरण करने लगता है। वह इस जगत को ही वास्तविक जगत समझता है। प्रायः शैशवावस्था के अन्तिम काल में शिशु दिवास्वपन (Day dream) देखना प्रारंभ कर देते हैं।
(iv) शैशवावस्था में भाषा का विकास : जन्म लेते ही बालक रोना प्रारंभ कर देता है और कुछ महीनों के बाद किलकारी भी मारना प्रारंभ कर देता है। जब वह बड़ों के शब्द सुनता है तो उनका अनुसरण कर कुछ निरर्थक शब्दों, जैसे- अ, प, म आदि का उच्चारण करना भी प्रारम्भ कर देता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, वैसे-वैसे सार्थक शब्द भी उच्चारित करना प्रारंभ कर देता है। स्मिथ (Smith) नामक विद्वान का विचार है कि बालक आठ महीने में 0. | वर्ष में 33; 2 वर्ष में 271; 3 वर्ष में 7963 4 वर्ष में 1, 5403; 5 वर्ष में 2,072 और 6 वर्ष में 2,627 शब्द बोलने लगता है।
(v) मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार की अधिकता : शैशवावस्था में बालक का मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार होता है। वह जो कुछ भी कार्य करता है, सब मूल-प्रवृत्तियों पर आधारित होता है। जब उसे भूख लगती है, तो वह पास में पड़ी हुई किसी वस्तु को मुँह में डाल लेता है। यदि उसके पास कोई खिलौना रखा हुआ है और उसे कोई उठा ले तो वह रोना आरम्भ कर देता है। इस प्रकार उसके व्यवहार में भिन्नता रहती है।
(vi) नैतिक विकास का अभाव : शैशवावस्था में बालक का नैतिक विकास नहीं हो पाता है। उसे यह ज्ञात नहीं हो पाता कि कौन-सी बात उचित है एवं कौन सी अनुचित। यदि बालक के सामने दिया रख दिया जाए, तो वह उसकी लौ पकड़ने की कोशिश करता है। इसी प्रकार यदि बालक के सामने कोई हानिकारक पदार्थ अथवा कोई जन्तु हो, तो वह उसे भी पकड़ने के लिए दौड़ पड़ता है। धीरे-धीरे जिन कार्यों से उसे आनन्द प्राप्त होता है वह उन्हें करने लगता है और जिन कार्यों से उसे दुःख या कष्ट अनुभव होता है उन्हें छोड़ देता है।
(vi) समान गतियों एवं शब्दों के पुनरावर्तन की प्रवृत्ति : बाल विशेषज्ञों का कथन है कि शैशवावस्था में बालक में गतियों एवं शब्दों के पुनरावर्तन (Repetition) की विशेष प्रवृत्ति होती है। जब विद्यालय में खेल खिलाए जाते हैं, तो बालक गतियों का पुनरावर्तन करने में बहुत प्रसन्न होते हैं। इसी प्रकार नर्सरी स्कूल (Nursery School) में जब छोटे-छोटे गीत गाए जाते हैं तो बालक गाने में रुचि लेते हैं।
(viii) शिशु में काम-प्रवृत्ति अथवा प्रेरक भावना - फ्रायड एवं अन्य मनोविश्लेषणवादियों का विचार है कि शैशवावस्था में बालक की प्रेम भावना कामप्रवृत्ति (Sexinstinct) अथवा लिबिडो (Libido) पर आधारित होती है। जन्मकाल से उसकी काम-प्रवृत्ति अथवा प्रेम-भावना स्वार्थमयी होती है। शिशु का प्रेम अपने अंगों से ही होता है। उसके द्वारा अपने हाथ या पैर का अंगूठा चूसना उसकी काम-प्रवृत्ति अथवा प्रेम-भावना का द्योतक है। बालक के अपने आप ही प्रेम करने की इस भावना को 'स्वत्व प्रेम' (Auto erotism) कहते हैं।
फ्रायड ने इसे नारसीसिज्म (Narcissim) की संज्ञा दी है। धीरे-धीरे विकसित होता हुआ शिशु जब 3-4 वर्ष का हो जाता है, तब यदि वह बालक होता है, तो वह माता से प्रेम करने लगता है और यदि बालिका होती है तो पिता से प्रेम करने लगती है। यह प्रेम भावना इतनी बलवती होती है कि बालक अपनी माता से पिता को प्रेम नहीं करने देना चाहता है एवं बालिका अपने पिता से माता की निकटता को पसन्द नहीं करती है। बालक तथा बालिका के इस प्रकार के प्रेम को मनोविश्लेषणवादियों ने क्रमशः 'पितृ-विरोधी ग्रन्थि' अथवा 'ईडीपस कॉम्पलेक्स' (Oedipus Complex) एवं 'मातृ-विरोधी ग्रन्थि' अथवा 'इलेक्ट्र कॉम्पलेक्स' (Electra Complex) कहा है। इस प्रकार की अवस्थाएँ अमेरिकी एवं पश्चिमी समाजों में अधिक पाई जाती हैं।
(ix) शिशु वातावरण से अनुकूलन करने में असमर्थ होता है : प्रारम्भिक अवस्था में शिशु का न तो अच्छी तरह मानसिक विकास हो पाता है और न शारीरिक। परिणामस्वरूप वह वातावरण के साथ अनुकूलन करने में असमर्थ होता है। यदि उसके दैनिक वातावरण में किसी प्रकार का परिवर्तन कर दिया जाता है तो वह रोना-चिल्लाना एवं पैर पटकना प्रारंभ कर देता है। कभी-कभी तो वह शारीरिक रोगों से भी ग्रसित हो जाता है।
(x) अनुकरण विधि द्वारा सीखने का आधिक्य : शिशु सबसे अधिक अनुकरण विधि (Limitation Method) से सीखते हैं। वे अपने माता-पिता, भाइयों तथा अन्य लोगों के व्यवहार को देखकर स्वयं उसी प्रकार का व्यवहार करना प्रारंभ कर देते हैं। यहाँ तक कि यदि उनके अनुकरणात्मक व्यवहार में कोई बाधा पहुँचती है तो वे रोने एवं चिल्लाने लगते हैं। वास्तव में बालक अनुकरण द्वारा ही स्वयं अपना मानसिक विकास कर लेते हैं।
(xi) शिशु एकान्त में खेलना पसन्द करता है : यदि हम बाल-व्यवहार का अच्छी तरह निरीक्षण करें तो हम देखते हैं कि बालक एकान्त में अधिक खेलना पसन्द करते हैं। वे अपने खिलौनों के कान पकड़कर ऐंठते हैं, तो कभी उनको गोद में बिठाकर हिलाते-डुलाते हैं। इस प्रकार बालक खिलौनों के साथ एकान्त में खेला करते हैं।
(xii) निर्भरता की प्रवृत्ति का प्रभुत्व : यद्यपि निर्भरता की प्रवृत्ति व्यक्ति में जीवनपर्यन्त निहित रह सकती है, परन्तु शैशवावस्था में शिशु पर इसका विशेष रूप से प्रभुत्व रहता है। वह अपनी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति के लिए बड़ों का सहारा लेने का प्रयास करता है। वह बड़ों के अभाव में अपने आपको पूर्ण असहाय अनुभव करने लगता है।
प्रश्न 5.
किशोरावस्था का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
बाल विकास के क्रम में बाल्यावस्था के उपरान्त आने वाली अवस्था को किशोरावस्था (Adolescence) कहा जाता है। यह अवस्था बाल्यावस्था तथा युवावस्था के मध्य की अवस्था होती है। कुल्हन ने स्पष्ट कहा है, "किशोरावस्था, बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के मध्य का परिवर्तनकाल है।" मानव विकास में किशोरावस्था का विशेष महत्त्व माना गया है। इस अवस्था में बनाए गए सन्तुलन पर ही आगामी जीवन की सफलता निर्भर करती है। शिक्षा मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से किशोरावस्था के अध्ययन का भी विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है।
किशोरावस्था का अर्थ : किशोरावस्था 'एडोलेसैन्स' (Adolescence) अंग्रेजी शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। 'एडोलेसैन्स' (Adolescence) शब्द की व्युत्पति लैटिन भाषा के 'एडोलेसकर' (Adolescere) शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है 'परिपक्वता की ओर बढ़ना' (To Grow to Maturity) । जर्सील्ड नामक मनोवैज्ञानिक ने किशोरावस्था का अर्थ प्रस्तुत करते हुए लिखा है, "किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमें मनुष्य बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर बढ़ता है।" किशोरावस्था 12 से 19 वर्ष के बीच मानी जाती है। स्टेनली हॉल के शब्दों में "किशोरावस्था गहरे संघर्ष, तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।" इस अवस्था में किशोर एवं किशोरियों में नाना प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होते रहते हैं।
किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं के निम्न वर्णित विवरण द्वारा स्पष्ट हो जाएगा कि किशोरावस्था वास्तव में विशेष संघर्ष, तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था होती है। - किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ : किशोरावस्था में अनेक शारीरिक, बौद्धिक व संवेगात्मक विशेषताएँ एक साथ दिखाई देती हैं। इनके प्रमुख लक्षण अस्थिरता, अवसाद एवं निराशा तथा समस्याओं की विविधता है। इनका अध्ययन निम्नलिखित विभिन्न शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक तथा अन्य प्रकार के परिवर्तनों के अन्तर्गत किया जा सकता है।
(i) शारीरिक परिवर्तन : किशोरावस्था में अनेक प्रकार के शारीरिक परिवर्तन होते हैं जिनका किशोरों के कार्यों और व्यवहार पर काफी प्रभाव पड़ता है। किशोरावस्था में शारीरिक अंग तो पुष्ट होते ही हैं, साथ ही उनकी क्रियाशीलता में भी विभिन्न परिवर्तन होते हैं। इन तीव्र गति से होने वाले शारीरिक परिवर्तनों से किशोरों के विचारों एवं व्यवहार में भी गम्भीर परिवर्तन होता है।
(ii) तीन मानसिक परिवर्तन : किशोरावस्था की एक मुख्य विशेषता तीव्र मानसिक परिवर्तन भी है। इस काल में बुद्धि का चरम विकास होता है तथा कल्पना की भी अधिकता होती है। किशोर अधिक-से-अधिक स्वतंत्रता पसन्द करते हैं। किशोरों की अध्ययन एवं घूमने में रुचि बढ़ जाती है। इन विभिन्न परिवर्तनों के कारण किशोर कुछ क्षेत्रों में समायोजन स्थापित नहीं कर पाते।
(iii) संवेगों की प्रधानता : किशोर जीवन में संवेगों की तीव्रता सर्वाधिक होती है। संवेगों की प्रबलता के कारण ही किशोर कभी-कभी वह कार्य कर डालता है, जो असाधारण या असंगत कहे जाते हैं।
(iv) परमार्थिक भावना : इस अवस्था में बालक में परोपकार तथा अपने देश, समाज एवं जाति की सेवा करने की प्रबल भावना होती है। वास्तव में देश-सेवा तथा समाज-सेवा की भावना इसी अवस्था में प्रस्फुटित होती है। इसलिए किशोर बालक में यह भावना तीव्र होती है।
(v) विषमलिंगी के प्रति आकर्षण : किशोरावस्था में विपरीत लिंगी से मिलने, उससे बात करने और साहचर्ययुक्त जीवन बिताने की प्रबल इच्छा होती है। उनमें विपरीत लिंग के प्रति इतना अधिक आकर्षण होता है कि कभी-कभी किशोर-किशोरी बिना परिणाम सोचे घर से भाग भी जाते हैं। जे. एस. रॉस का कथन है, “काम (Sex) समस्त जीवन का नहीं तो किशोरावस्था का अवश्य ही मूल तथ्य है।"
(vi) आत्मनिर्भर होने की कामना : बालक 17 से 18 वर्ष का किशोर होने पर संसार में अपना स्वतंत्र स्थान बनाकर आत्म-निर्भर होने की इच्छा करने लगता है। वह व्यवसाय चुनने की ओर भी सोचने लगता है।
(vii) स्थायित्व का अभाव : किशोरावस्था में मन बड़ा चंचल हो उठता है। शैशवावस्था की भांति इस अवस्था में भी किशोर में स्थायित्व तथा समायोजन की कमी होती है। उसके व्यवहार तथा विचारों में परिवर्तन होता रहता है। इसी कारण वह वातावरण से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता है।
(viii) धार्मिक चेतना : किशोर अपनी किशोरावस्था की अस्थिरता को समाप्त करने और यौन समस्याओं के समाधान के लिए धर्म के प्रति रुचि एवं श्रद्धा दिखाने लगता है। उसमें इस धार्मिक चेतना का उदय तथा विकास स्वाभाविक रूप में होता है।
(ix) वीर-पूजा की प्रवृत्ति : किशोरों में अपने वातावरण से समायोजन स्थापित करने के लिए वीर-पूजा की प्रवृत्ति का उदय हो जाता है। किशोर देश के महापुरुषों के जीवन-चरित्र को नाटक एवं चलचित्र के पात्रों को कलाकार, खेल के प्रसिद्ध खिलाड़ी तथा विभिन्न लेखकों आदि को देखता परखता है और फिर उनमें से किसी को अपना इष्ट चुन लेता है। उसी को वह अपना आदर्श मान लेता है और उसका आदर करता है तथा उसी के अनुसार स्वयं बनने की कोशिश करने लगता है। वह सोचता है कि तब वह अपनी परिस्थितियों से समायोजन स्थापित करके उनसे जीत जाएगा। वीर-पूजा की प्रवृत्ति का लाभ उठाकर शिक्षक किशोरों का चरित्र निर्माण कर सकता है।
(x) अपराध की ओर झुकाव की अवस्था : चूँकि इस समय बालक में विभिन्न प्रकार के विशेष परिवर्तन होते हैं और उसे अपने वातावरण से अनुकूलन स्थापित करने में काफी कठिनाई होती है। फलस्वरूप अनेक बालक झूठ, चोरी, अनुचित कार्य करने लगते हैं। इस अवस्था में काम-इच्छा प्रबल होती है और उनकी इस इच्छा का मार्गान्तरीकरण माता-पिता के द्वारा नहीं किया जाता है बल्कि वे उन पर केवल प्रतिबन्ध लगाते हैं और इसी के फलस्वरूप किशोर, यौन अपराधों की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। कालान्तर में वे अपराधी बन जाते हैं तथा और भी अनेक अनुचित कार्य करने लगते हैं।
(xi) अनेक समस्याओं का सामना करना : किशोरावस्था की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा जाता है कि इस अवस्था में व्यक्ति को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ जाता है। प्रायः किशोरों को शारीरिक विकास से सम्बन्धित समस्याओं, यौन समस्याओं, समायोजन की समस्याओं तथा व्यवसायवरण की समस्याओं का सामना करना पड़ जाता है।