Rajasthan Board RBSE Class 11 Psychology Important Questions Chapter 3 मानव व्यवहार के आधार Important Questions and Answers.
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बहुविकल्पी प्रश्न
प्रश्न 1.
हमारे शरीर को ज्ञान की प्राप्ति किस माध्यम से होती
(अ) विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से
(ब) आँखों के माध्यम से
(स) स्नायुओं के माध्यम से
(द) उपर्युक्त सभी माध्यमों से।
उत्तर:
(स) स्नायुओं के माध्यम से
प्रश्न 2.
ज्ञानवाही स्नायुओं का मुख्य कार्य है :
(अ) ज्ञानेन्द्रियों से स्नायु प्रवाह को ग्रहण करना तथा उसे | सुषुम्ना को पहुँचाना
(ब) ज्ञान प्राप्त करना
(स) विभिन्न क्रियाओं को संचालित करना
(द) उपर्युक्त सभी कार्य
उत्तर:
(अ) ज्ञानेन्द्रियों से स्नायु प्रवाह को ग्रहण करना तथा उसे | सुषुम्ना को पहुँचाना
प्रश्न 3.
स्नायु द्वारा कार्य किया जाता है :
(अ) स्नायु प्रवाहों को ढोने का कार्य
(ब) रक्त संचरण का कार्य
(स) मृत कोशिकाओं को समेटने का कार्य
(द) उपर्युक्त सभी कार्य
उत्तर:
(अ) स्नायु प्रवाहों को ढोने का कार्य
प्रश्न 4.
जीवकोष का कार्य है :
(अ) वृक्ष तन्तु द्वारा लाए गए स्नायु प्रवाह को ग्रहण करना,
(ब) स्नायु प्रवाह को धारण करना
(स) धारण किए गए स्नायु प्रवाह को न्यूरॉन के अक्ष तंतु की ओर प्रेषित करना,
(द) उपर्युक्त सभी कार्य।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी कार्य।
प्रश्न 5.
न्यूरॉन के मुख्य भाग होते हैं :
(अ) जीव कोष
(ब) वृक्ष तन्तु
(स) अक्ष तन्तु
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 6.
स्नायु या न्यूरॉन के प्रकार हैं :
(अ) ज्ञानवाही स्नायु
(ब) कार्यवाही स्नायु
(स) संयोजक स्नायु
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।
प्रश्न 7.
न्यूरॉन का वृक्ष तन्तु :
(अ) असंख्य शाखाओं-प्रशाखाओं में बँटा होता है
(ब) यह न्यूरॉन के जीवन कोष से सम्बद्ध होता है
(स) यह स्नायु प्रवाह या आवेग को ग्रहण करता है
(द) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
प्रश्न 8.
संयोजक स्नायुओं का मुख्य कार्य है :
(अ) शरीर के अंगों को परस्पर जोड़ना
(ब) उत्तेजनाओं को ग्रहण करना
(स) ज्ञानवाही तथा कर्मवाही स्नायुओं को सम्बद्ध करना
(द) उपर्युक्त सभी कार्य।
उत्तर:
(स) ज्ञानवाही तथा कर्मवाही स्नायुओं को सम्बद्ध करना
अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
तंत्रिका तंत्र क्या होता है ?
उत्तर :
मानव तंत्रिका तन्त्र में अरबों अंतःसंबंधित, अतिविशिष्ट कोशिकाएँ होती हैं, जिन्हें तंत्रिका कोशिकाएँ कहते हैं। तंत्रिका कोशिकाएँ समस्त मानव व्यवहार को नियंत्रित और समन्वित करती हैं।
प्रश्न 2.
केन्द्रीय तन्त्रिका तंत्र के भागों के नाम लिखिए।
उत्तर :
केन्द्रीय तंत्रिका तन्त्र में मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु होते हैं। केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र से निकलकर परिधीय तंत्रिका तंत्र की शाखाएँ शरीर के प्रत्येक अंग में जाती हैं। इसके दो भाग हैं : कायिक तंत्रिका तंत्र (कंकालीय पेशियों के नियंत्रण से संबंधित) और स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (आंतरिक अंगों के नियंत्रण से संबंधित)। स्वायत्त तन्त्र अनुकंपी और परानुकंपी तंत्र में उपविभाजित है।
प्रश्न 3.
तंत्रिका कोशिका का क्या कार्य है ?
उत्तर :
तंत्रिका कोशिका में पार्श्व तंतु होते हैं जो आवेगों को ग्रहण करते हैं और अक्ष तंतु जो आवेगों को काय कोशिका से दूसरी अन्य तंत्रिका कोशिकाओं या पेशी ऊतकों तक संचारित करते हैं।
प्रश्न 4.
उपवल्कुटीय तंत्र का क्या कार्य है ?
उत्तर :
उपवल्कुटीय तंत्र ऐसे व्यवहार जैसे-लड़ना, भागना इत्यादि को नियमित करता है। इसमें हिप्पोकेम्पस, गलतुंडिका तथा अधश्चेतक होते हैं।
प्रश्न 5.
विभिन्न अंतःस्रावी ग्रंथियों के नाम लिखो।
उत्तर :
अंत:स्रावी तन्त्र में ग्रंथियाँ होती हैं। पीयूष ग्रंथि, अवटुग्रंथि, अधिवृक्क ग्रंथि, अग्न्याशय तथा जननग्रंथियाँ।
प्रश्न 6.
संस्कृति से आप क्या समझते हो?
उत्तर :
संस्कृति मानव व्यवहारों की एक महत्त्वपूर्ण निर्धारक मानी गई है। इसका संदर्भ पर्यावरण के मानव निर्मित भाग से है जिसके दो पक्ष हैं - भौतिक एवं आत्मिक। इसका संदर्भ लोगों के समूह से है जो एक जीवन-पद्धति के सहभागी होते हैं, जिससे वे अपने व्यवहार का अर्थ व्युत्पन्न करते हैं तथा जिसे अभ्यास का आधार बनाते हैं। ये अर्थ और अभ्यास पीढ़ियों द्वारा संचारित होते हैं।
प्रश्न 7.
संस्कृतिकरण को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर :
संस्कृतिकरण तथा समाजीकरण की प्रक्रियाओं के माध्यम से हम संस्कृति के बारे में सीखते हैं। संस्कृतिकरण का संदर्भ उन समस्त अधिगमों से है जो बिना किसी प्रत्यक्ष और सोद्देश्य शिक्षण के होता है।
प्रश्न 8.
समाजीकरण क्या है ?
उत्तर :
समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति ज्ञान, कौशल और शील गुण अर्जित करते हैं जो उन्हें समाज एवं समूहों में प्रभावशाली सदस्यों की तरह भाग लेने में सक्षम बनाती है। सबसे महत्त्वपूर्ण समाजीकरण कारक माता-पिता, विद्यालय, जनसमूह, जनसंचार इत्यादि होते हैं।
प्रश्न 9.
परसंस्कृतिग्रहण का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
परसंस्कृतिग्रहण का तात्पर्य, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों से है जो दूसरी संस्कृतियों के संपर्क में आने के परिणामस्वरूप होते हैं। पर-संस्कृतिग्रहण के मार्ग में लोगों द्वारा जो पर-संस्कृतिग्राही युक्तियाँ अपनाई जाती हैं वे हैं : समाकलन, आत्मसात्करण, पृथक्करण तथा सीमांतकरण।
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर (SA1)
प्रश्न 1.
स्नायु अथवा न्यूरॉन के मुख्य कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
स्नायु अथवा न्यूरॉन के कार्य : स्नायु तंत्र के समस्त कार्य वास्तव में स्नायु अथवा न्यूरॉन के माध्यम से ही सम्पन्न होते हैं। वास्तव में उत्तेजनाओं का ग्रहण करना तथा उन्हें शरीर के अभीष्ट केन्द्रों में भेजने का कार्य न्यरॉन द्वारा ही किया जाता है। हम कह सकते हैं कि जब कोई बाहरी उत्तेजना उपस्थित होती है तब ग्राहक उत्तेजित हो जाते हैं तथा उनमें स्नायु प्रवाह या आवेग उत्पन्न हो जाता है। इस स्नायु आवेग को न्यूरॉन के वृक्ष तन्तु द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। जीव कोष द्वारा इस स्नायु आवेग को अक्ष तन्तु नामक भाग के माध्यम से मांसपेशीय पिण्डों अथवा स्नायु तन्त्र के किसी केन्द्र विशेष की दिशा में प्रेरित कर | दिया जाता है। स्नायु तन्त्र के माध्यम से ही समस्त ज्ञान की प्राप्ति होती है।
प्रश्न 2.
सहज क्रियाओं के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सहज क्रियाओं का महत्त्व : यह सत्य है कि सहज क्रियाएँ अनियन्त्रित तथा अनैच्छिक होती हैं, परन्तु ये क्रियाएँ व्यर्थ । नहीं होती। सहज क्रियाएँ व्यक्ति के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी होती हैं। ये क्रियाएँ विभिन्न प्रकार से शरीर की रक्षा के लिए सहायक होती हैं। जैसे- सुई के चुभते ही हाथ को खींचने से सुई का चुभना रुक जाता है अथवा कम हो जाता है।
इसके अतिरिक्त ये क्रियाएँ शरीर की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति में भी सहायक होती हैं। जैसे - बच्चे का माता के स्तन को चूसना एक सहज एवं आवश्यक क्रिया है, क्योंकि इस कार्य को सीखना नहीं पड़ता और उसी से वह अपना पेट भरता है। आन्तरिक उत्तेजनाओं के प्रति होने वाली सहज क्रियाएँ जैसे अंगों का संचालन, खाँसी, छींक तथा जम्भाई आना आदि आन्तरिक संतुलन बनाए रखने में भी सहायक होती हैं।
प्रश्न 3.
सहज क्रियाओं के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सहज क्रियाओं के प्रकार
(i) शारीरिक सहज क्रियाएँ : इस वर्ग में उन सहज क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है जिनके सम्पन्न होने में व्यक्ति को किसी प्रकार का प्रयास नहीं करना पड़ता। ये क्रियाएँ पूर्ण रूप से अचेतन होती हैं। उदाहरण के लिए, प्रकाश के क्रमशः कम तथा अधिक होने पर आँख की पुतली का क्रमशः फैलना तथा सिकुड़ना इसी प्रकार की सहज क्रियाएँ हैं।
(ii) सांवेदनिक सहज क्रियाएँ : इस वर्ग की सहज क्रियाएँ चेतन होती हैं। अत: इस प्रकार की सहज क्रियाओं के सम्पन्न होने का व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है। उदाहरण - गले में खराश होने के कारण होने वाली खाँसी इसी प्रकार की सहज क्रिया है। इस प्रकार की क्रियाओं को व्यक्ति आंशिक रूप से कुछ समय तक ही रोक सकता है। इनको पूर्ण रूप से नियन्त्रित कर पाना नितान्त असम्भव होता है।
प्रश्न 4.
प्रतिक्षेप अथवा सहज क्रियाओं की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रतिक्षेप क्रियाओं की मुख्य विशेषताएँ :
(i) ये क्रियाएँ सहज रूप से सम्पन्न होती हैं।
(ii) इन क्रियाओं को रोक पाना कठिन होता है।
(iii) ये क्रियाएँ स्वतः सम्पन्न होती हैं।
(iv) ये तीव्र गति से सम्पन्न होती हैं।
(v) इस प्रकार की क्रियाओं को किसी प्रकार के प्रशिक्षण के आधार पर सीखा जाना सम्भव नहीं है।
(vi) सहज क्रियाएँ अथवा प्रतिक्षेप क्रियाएँ, सांवेदनिक उत्तेजनाओं के प्रति की गई अनुक्रिया होती है।
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर (SA2)
प्रश्न 1.
प्रतिक्षेप अथवा सहज क्रियाओं का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सहज क्रियाओं का अर्थ : मनुष्य एवं अन्य प्राणियों द्वारा होने वाली विशेष प्रकार की क्रियाओं को सहज अथवा प्रतिक्षेप क्रियाएँ कहा जाता है। सहज क्रियाएँ वे क्रियाएँ होती हैं जो कुछ विशेष अवसरों पर स्वतः सम्पन्न होती हैं। इस वर्ग की क्रियाओं को करने के लिए किसी प्रकार के प्रशिक्षण अथवा सीखने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार की क्रियाओं को रोक पाना सरल नहीं होता। अतः ये क्रियाएँ स्वाभाविक रूप से तथा सामान्यतः तीव्र गति से सम्पन्न होती हैं। उत्तेजना के होते ही इनसे सम्बन्धित क्रिया स्वतः सम्पन्न हो जाती है।
अनेक बार तो सहज क्रियाओं के हो जाने का ज्ञान भी नहीं होता। इस विषय में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वुडवर्थ का कथन उल्लेखनीय है। उनके अनुसार एक प्रतिक्षेप या सहज क्रिया किसी सांवेदनिक उत्तेजना के प्रति मांसपेशी की या नाव ग्रन्थियों की एक प्रत्यक्ष अनसीखी हुई अनुक्रिया है। साधारण प्रतिक्रिया के विपरीत ये विषय के तैयार होने पर निर्भर नहीं होती। प्रतिक्षेप को किसी 'तैयार रहो' संकेत की आवश्यकता नहीं होती।
प्रश्न 2.
संयोजक स्नायु मंडल का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
संयोजक स्नायु मंडल : संयोजक स्नायु मंडल स्नायु संस्थान का एक मुख्य भाग है। यह भाग संयोजक का कार्य करता है। यह शरीर के आन्तरिक एवं बाहरी भाग का सम्बन्ध मस्तिष्क से स्थापित करता है। संयोजक स्नायु मंडल एक ओर तो ग्रन्थियों तथा मांसपेशियों से सम्बन्ध स्थापित करता है तथा दूसरी ओर मस्तिष्क का सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों से स्थापित करता है। इसी द्विपक्षीय सम्बन्ध के कारण स्नायु तंत्र का यह भाग शरीर की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों से सन्देश ग्रहण करता है तथा इस प्रकार ग्रहण किए गए सन्देश को स्नायु संस्थान तक पहुंचाता है। दूसरी ओर यही भाग केन्द्रीय स्नायु संस्थान से विभिन्न आदेश भी प्राप्त करता है तथा प्राप्त आदेशों को प्रभावकों तक पहुंचाता है।
संयोजक स्नायु संस्थान में दो प्रकार की नाड़ियाँ पाई जाती हैं। प्रथम प्रकार की नाड़ियों को संचालक नाड़ियाँ तथा दूसरे प्रकार की नाड़ियों को सांवेदानिक नाड़ियाँ कहा जाता है। संचालक नाडियाँ मस्तिष्क से बाहर की ओर लौटती हैं। इसलिए इन्हें बर्हिगामी नाड़ियाँ भी कहा जाता है। ये नाड़ियाँ मस्तिष्क और सुषुम्ना से संदेश प्राप्त करती हैं। सांवेदनिक नाड़ियों को अन्तर्गामी नाड़ियाँ भी कहा जाता है। ये नाड़ियाँ बाहर से ज्ञान प्राप्त करती हैं तथा उसे मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं।
प्रश्न 3.
सुषुम्ना के मुख्य कार्य क्या हैं ?
उत्तर :
सुषुम्ना के कार्य : सुषुम्ना के कार्य निम्नलिखित हैं:
(i) सहज क्रियाओं का परिचालन : कुछ क्रियाएँ ऐसी होती हैं जिनके सम्पन्न होने में विचार-शक्ति की आवश्यकता नहीं होती है। इस प्रकार की क्रियाओं को सहज क्रियाएँ कहा जाता है। उदाहरण - काँटा चुभते ही हाथ या पाँव को खींचना, पलक झपकना, खुजलाना आदि। इन सहज क्रियाओं का परिचालन एवं नियन्त्रण सुषुम्ना द्वारा ही होता है।
(ii) बाहरी उत्तेजनाओं से मस्तिष्क का सम्बन्ध स्थापित करना : सुषुम्ना का दूसरा मुख्य कार्य बाहरी उत्तेजनाओं को मस्तिष्क तक पहुँचाना तथा मस्तिष्क द्वारा ग्रहण की गई इन उत्तेजनाओं को कार्य रूप में परिणत करने का कार्य भी सुषुम्ना द्वारा सम्पन्न होता है।
(iii) नियन्त्रक के रूप में कार्य : सुषुम्ना एक प्रकार के नियन्त्रक का कार्य भी करती है। कुछ साधारण कार्य सुषुम्ना द्वारा ही परिचालित होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ कार्यों पर सुषुम्ना द्वारा ही रोक भी लगाई जाती है। कुछ साधारण उत्तेजनाओं को सुषुम्ना मस्तिष्क तक पहुँचने ही नहीं देती, बल्कि स्वयं ही इन उत्तेजनाओं को शांत कर देती है।
(iv) बाहरी क्रियाओं का परिचालन : कुछ बाहरी कार्यों, जैसे-टाइप करना, लिखना, चलना-फिरना तथा दौड़ना आदि का नियन्त्रण एवं परिचालन भी सुषुम्ना द्वारा ही होता है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
स्नायु अथवा न्यूरॉन (Neuron) से आप क्या समझते हैं ? स्नायु की संरचना एवं प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
दैनिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में अनेक समस्याओं का अध्ययन किया जाता है, जिसमें स्नायुओं से सम्बन्धित समस्याएँ प्रमुख हैं। मनोविज्ञान शरीरशास्त्र से पृथक् है, लेकिन शरीरशास्त्र के वे सब विषय मनोविज्ञान के क्षेत्र में आते हैं जिनका मानव व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। नाड़ी संस्थान की विभिन्न नाड़ियाँ छोटे-छोटे स्नायुओं से बनी होती हैं। स्नायु अथवा नाड़ी विभिन्न सूचनाओं को स्नायु आवेगों के रूप में स्पाइनल कॉर्ड और मस्तिष्क तक पहुँचाती है तथा स्पाइनल कॉर्ड और मस्तिष्क के निर्णय को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुँचाती है।
स्नायु अथवा न्यूरॉन की रचना : हम जानते हैं कि समस्त जीवित प्राणियों का शरीर असंख्य जीवित कोशिकाओं से निर्मित है। मानव शरीर में विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ पाई जाती हैं, जिनकी रचना तथा कार्य भिन्न-भिन्न होते हैं। शरीर की कुछ कोशिकाएँ मिलकर मांसपेशियों का निर्माण करती हैं, जबकि कुछ अन्य कोशिकाएँ शरीर की हड्डियों का निर्माण करती हैं। इसी प्रकार से शरीर में एक अन्य प्रकार की कोशिकाएँ भी पाई जाती हैं, जिनका मुख्य कार्य स्नायु प्रवाहों या आवेगों (Nerve Impulses) को चलाना या ढोना होता है। इस प्रकार की कोशिकाओं को ही स्नायु कोशिका या स्नायु कोष कहा जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि शरीर में स्नायु प्रवाह को ढोने का कार्य करने वाली कोशिकाओं को ही स्नायु कोष या न्यूरॉन कहा जाता है।
स्नायु कोष अथवा न्यूरॉन की रचना विशिष्ट होती है, स्नायु कोष के तीन भाग होते हैं जिन्हें क्रमशः जीव कोष (Body Cell), वृक्षिका अथवा वृक्ष तन्तु (Dendrite) तथा अक्ष तन्तु अथवा एक्सॉन (Axon) कहते हैं। स्नायु कोष के इन तीनों भागों की रचना एवं कार्यों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है :
(i) जीव कोष : स्नायु कोष का यह भाग एक गाँठ के आकार का होता है। इसका आकार भिन्न-भिन्न हो सकता है अर्थात् भिन्न-भिन्न स्नायु कोषों में इसका आकार वृत्ताकार, अंडाकार अथवा कुछ भिन्न हो सकता है। आकार की भिन्नता होते हुए भी सभी जीव कोषों की रचना एक समान ही होती है। जीव कोष में सबसे ऊपर एक परत होती है जिसे झिल्लिका (Membrane) कहते हैं। इस आवरण रूपी झिल्लिका के अन्दर एक प्रकार का तरल पदार्थ भरा रहता है। इस तरल पदार्थ को 'साइटोप्लाज्म' (Cytoplasm) कहा जाता है। इस पदार्थ के बीचों-बीच जीव-कोष का केन्द्र होता है।
इस केन्द्र को केन्द्रक (Nucleus) कहते हैं। जीव कोष का तीसरा भाग न्यूक्लिआई कहलाता है। यह जीव कोष के केन्द्रक के अन्दर एक सूक्ष्म केन्द्र होता है। स्नायु या न्यूरॉन की संरचना में जीव कोष का विशेष महत्त्व होता है; अर्थात् जीवकोष, न्यूरॉन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। स्नायु तंत्र में चलने वाला प्रत्येक स्नायु प्रवाह अनिवार्य रूप से न्यूरॉन के जीव कोष में से होकर गुजरता है। वास्तव में वृक्ष तन्तु द्वारा लाए गए स्नायु प्रवाह को जीव कोष अपने अन्दर ग्रहण कर लेता है तथा इस ग्रहण किए गए आवेग को वह न्यूरॉन के अक्ष तन्तु की ओर प्रेषित कर देता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्नायु आवेग के प्रवाह में जीव कोष की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती
(ii) वृक्षिका अथवा वृक्ष तन्तु : न्यूरॉन का एक भाग वृक्षिका या वृक्ष तंतु होता है। यह भाग जीव कोष से सम्बद्ध होताहै तथा इसका आकार वृक्ष की असंख्य शाखाओं के समान होता है। इसका आकार अधिक बड़ा नहीं होता, परन्तु शाखाओं व प्रशाखाओं की अधिकता के कारण यह बहुत अधिक घना दिखाई देता है। इसे न्यूरॉन का ग्राही तन्तु (Receptor) भी कहा जाता है। न्यूरॉन के इस भाग अर्थात् वृक्ष तंतु द्वारा मुख्य रूप से दो कार्य सम्पन्न किए जाते हैं। वृक्ष तंतु का प्रथम कार्य है स्नायु प्रवाह या आवेग को ग्रहण करना। वृक्ष तंतु के इसी कार्य को ध्यान में रखकर इसे ग्राही तंतु कहा जाता है। वृक्ष तन्तु का दूसरा कार्य ग्रहण किए गए स्नायु प्रवाह को जीव कोष को प्रदान करना है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वृक्ष तन्तु स्नायु प्रवाह को ग्रहण करने तथा उसे अग्रसर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(iii) अक्ष तन्तु : न्यूरॉन या स्नायु कोष का तीसरा भाग अक्ष तंतु है। अक्ष तंतु की आकृति एक लम्बे धागे के समान होती है। अक्ष तन्तु न्यूरॉन के जीव कोष से जुड़ा रहता है। ध्यान से देखा जाए तो अक्ष तन्तु जीव कोष से निकलने वाली एक पतली दुम के समान होता है। अक्ष तन्तु में अधिक शाखाएँ नहीं होती हैं। अर्थात् जिस प्रकार वृक्ष तंतु की अनेक शाखाएँ होती हैं, वैसी घनी शाखाएँ अक्ष तंतु में नहीं पाई जातीं। अक्ष तन्तु के किनारे पर पतले झाड़ के रूप में कुछ शाखाएँ पाई जाती हैं। इन छितरी शाखाओं को एण्डब्रुश (Endbrush) कहते हैं।
यदि न्यूरॉन की पारस्परिक सम्बद्धता को देखा जाए तो किसी एक न्यूरॉन के अक्ष तन्तु का एण्डब्रुश अन्य न्यूरॉन के वृक्ष तन्तु से संबंध रखता है। अक्ष तन्तु का कार्य भी महत्त्वपूर्ण होता है। इसका कार्य वृक्ष तंतु के विपरीत होता है। वृक्ष तन्तु द्वारा स्नायु प्रवाह को ग्रहण किया जाता है जबकि अक्ष तंतु द्वारा स्नायु प्रवाह को प्रेषित किया जाता है। वृक्ष तन्तु द्वारा ग्रहण किए गए स्नायु आवेग, जीव कोष द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। उन्हीं आवेगों को अक्ष तन्तु द्वारा बाहर भेजा जाता है। व्यवहार में देखा जा सकता है कि अक्ष-तंतु जीव कोष से आए स्नायु प्रवाह को मांसपेशियों, पिण्डों अथवा स्नायुमंडल के किसी विशिष्ट केन्द्र की ओर प्रेषित कर देता है।
स्नायु अथवा न्यूरॉन के प्रकार :
हम जानते हैं कि स्नायु तंत्र में स्नायु या न्यूरॉन का विशेष महत्त्व एवं भूमिका है। स्नायु-तंत्र में विभिन्न प्रकार के स्नायु अथवा न्यूरॉन पाए जाते हैं। न्यूरॉन की रचना एवं कार्यों को ध्यान में रखकर इनके तीन प्रकार निर्धारित किए गए हैं, जिन्हें क्रमश: ज्ञानवाही स्नायु (Sensory Neuron), कर्मवाही स्नायु (Motor Neuron) तथा संयोजक स्नायु (Co-ordinating Neuron) कहते हैं। इन तीनों प्रकार के स्नायुओं का सामान्य परिचय निम्नवत है :
(i) ज्ञानवाही स्नायु : एक मुख्य प्रकार के स्नायु को ज्ञानवाही स्नायुं कहा जाता है। इस प्रकार के स्नायुओं का मुख्य कार्य ज्ञानेन्द्रियों से स्नायु प्रवाह या आवेग को ग्रहण करना तथा ग्रहण किए गए आवेग को सुषुम्ना अथवा मस्तिष्क को पहुँचाना होता है। ज्ञानवाही स्नायु की रचना में वृक्ष तंतु नीचे की ओर होता है तथा इनके वृक्ष तंतु ज्ञानेन्द्रियों में भी फैले रहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों से ही ये विभिन्न उत्तेजनाओं को ग्रहण करते हैं। यदि कर्मवाही स्नायुओं से तुलना की जाए तो ज्ञानवाही तन्तुओं का वृक्ष तंतु वाला भाग अधिक लम्बा होता है। इसी प्रकार इस प्रकार के स्नायुओं के अक्ष तन्तु वाले भाग में भी शाखाओं की संख्या अन्य प्रकार के स्नायुओं की तुलना में काफी अधिक होती है।
(ii) कर्मवाही स्नायु : दूसरे प्रकार के स्नायुओं को कर्मवाही स्नायु कहा जाता है। इस प्रकार के स्नायुओं का मुख्य कार्य स्नायु प्रवाहों को मांसपेशियों तथा पिंडों तक पहुँचाना होता है। कर्मवाही स्नायुओं की रचना में स्नायु का जीव कोष नामक भाग ऊपरी सिरे पर पाया जाता है तथा इसी भाग से वृक्ष तन्तु की ग्राही शाखाएँ निकलती हैं। इस स्नायु के जीव कोष के दूसरी ओर के भाग से लम्बा अक्ष तंतु निकलता है जोकि मांसपेशियों तक जाता है। इस प्रकार के स्नायुओं के अक्ष तन्तु वाले भाग में शाखाओं की संख्या ज्ञानवाही स्नायुओं की तुलना में बहुत कम होती है।
(iii) संयोजक तन्तु : तीसरे प्रकार के स्नायुओं को संयोजक स्नायु कहा जाता है। इन्हें सहचारी स्नायु भी कहा जाता है। इस प्रकार के स्नायुओं का मुख्य कार्य ज्ञानवाही तथा कर्मवाही स्नायुओं को सम्बद्ध करना होता है। इसी कार्य को ध्यान में रखकर ही इन्हें संयोजक स्नायु कहा जाता है। इस प्रकार के स्नायु मस्तिष्क तथा सुषुम्ना में अधिक संख्या में पाए जाते हैं।
प्रश्न 2.
तंत्रिका आवेग (Nerve Impulse) से आप क्या समझते हैं ? इससे सम्बन्धित मुख्य अध्ययनों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
तंत्रिका आवेग : तंत्रिका तंत्र की कार्यशैली का अध्ययन करने के लिए तंत्रिका आवेग (Nerve Impulse) को जानना आवश्यक है। तंत्रिका तंत्र के व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा ज्ञात हुआ है कि जब कोई उद्दीपक किसी स्नायु कोशिका को किसी प्रकार से उद्दीप्त करता है तो उस कोशिका में एक प्रकार का विद्युत रासायनिक विक्षोभ या विघ्न (Electrochemical disturbance) उत्पन्न होता है।
इसी विद्युत रासायनिक विक्षोभ को मनोविज्ञान की भाषा में 'तंत्रिका आवेग' कहा जाता है। तंत्रिका आवेग की उत्तेजना विद्युतीय प्रकृति की होती है। व्यवहार में जब किसी संवेदी तंत्रिका के माध्यम से तंत्रिका आवेग मस्तिष्क में पहुंचता है तो व्यक्ति को सम्बन्धित उद्दीपन का ज्ञान प्राप्त होता है। इसके साथ ही कार्यवाही या गतिवाही तंत्रिका के माध्यम से तंत्रिका आवेग के मस्तिष्क के प्रभावकों तक पहुँचने की स्थिति में व्यक्ति द्वारा सम्बन्धित अनुक्रिया की जाती है।
तंत्रिका आवेग सम्बन्धी विभिन्न अध्ययन भिन्न-भिन्न विद्वानों ने किए हैं। सर्वप्रथम 1890 ई. में ओस्टवाल्ड ने तंत्रिका आवेग के संवाहन (Conduction) का अध्ययन किया तथा इस विषय में कला सिद्धान्त (Membrance Theory) प्रस्तुत किया। इसी प्रकार 1908 ई. में बर्नस्टीन ने तथा 1920 ई. में लिली ने भी इस संदर्भ में कुछ उपयोगी अध्ययन किए। इन अध्ययनों के आधार पर कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त किए गए हैं। इन निष्कर्षों के अनुसार कोई न्यूरॉन जब विश्राम की स्थिति में होता है तो वह विभिन्न प्रकार के अर्द्ध-पारगम्य अणुओं की परतों से घिरा रहता है।
इन परतों से धनात्मक प्रकृति के आयन जैसे कि पोटैशियम आयन बाहर आ सकते हैं, परन्तु इन परतों से ऋणात्मक प्रकृति के आयन सामान्य रूप से बाहर नहीं निकल पाते। जब धनात्मक आयन स्नायु-कला से बाहर आ जाते हैं, तथा ऋणात्मक आयन अन्दर रह जाते हैं तो उस स्थिति में न्यूरॉन के अन्दर तथा बाहर एक प्रकार की विद्यत-भिन्नता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कला की टूट-फूट जैसे-जैसे तन्त्रिका तन्तु में आगे बढ़ती है तो वह क्रमशः तन्त्रिका आवेग का रूप ग्रहण कर लेती है।
मनोवैज्ञानिकों ने तंत्रिका आवेग के मापन की भी व्यवस्था की है। इसके लिए गैल्वेनोमीटर का भी प्रयोग किया जाता है। किसी उद्दीपक द्वारा जब किसी तंत्रिका कोष को उद्दीप्त किया जाता है तो वह या तो अपनी पूरी शक्ति से उद्दीप्त होता है अथवा बिल्कुल भी उद्दीप्त नहीं होता। प्रतिक्रिया के इस नियम को मनोवैज्ञानिकों ने 'पूर्ण अथवा शून्य नियम' (All or none law) के रूप में प्रस्तुत किया है।
इस नियम का स्पष्टीकरण इस प्रकार से प्रस्तुत किया गया है - व्यवहार में यदि कोई उद्दीपक बहुत कमजोर होता है तो उस स्थिति में इस बात की पर्याप्त संभावना रहती है कि किसी प्रकार का तन्त्रिका आवेग उत्पन्न ही न हो। इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि यदि उद्दीपक द्वारा तंत्रिका कोशिका उद्दीप्त हो गई तो उस स्थिति में तंत्रिका कोशिका में तंत्रिका आवेग की शक्ति पूर्ण होगी; अर्थात् तंत्रिका आवेग प्रबल ही होगा।
तंत्रिका आवेग को मापने का सफल प्रयास सर्वप्रथम 1852 ई. में हेमहोल्टज ने किया था। आधुनिक मान्यताओं के अनुसार तन्त्रिका आवेग की गति या वेग सामान्य रूप से 90 से 125 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है। जब किसी उद्दीपक द्वारा तंत्रिका के अन्दर किसी प्रकार की उत्तेजना उत्पन्न होती है तो तंत्रिका तंतु में विद्युतीय विभव या परिवर्तन उत्पन्न होता है। तंत्रिका आवेग के अध्ययन के संदर्भ में यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है कि तंत्रिका कोषों के मध्य तंत्रिका आवेग का सम्प्रेषण या संवहन अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। न्यूरॉन या स्नायुओं की रचना इस प्रकार की होती है कि कोई दो स्नायु आपस में जुड़े हुए नहीं होते। उनमें कुछ अंतर या दूरी अवश्य
होती है। इस प्रकार की व्यवस्था को सन्धि स्थल कहते हैं। इस संधि स्थल पर अक्ष तन्तु के एक किनारे पर बहुत छोटे तथा महीन बल्ब होते हैं। इन बल्बों को बेसिकल्स कहते हैं। इन बेसिकल्स से हर समय एक प्रकार का तरल पदार्थ रिसता रहता है। इस तरल पदार्थ के कारण ही तंत्रिका आवेग एक स्नायु के अक्ष तल से दूसरे स्नायु के वृक्ष तन्तु में सरलता से चला जाता है। इस प्रकार अति तीव्र गति से तन्त्रिका आवेग का संचरण हो जाता है।
प्रश्न 3.
केन्द्रीय स्नायु संस्थान से आप क्या समझते हैं ? इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
स्नायु संस्थान की संरचना अत्यंत जटिल होती है। यह एक जाल के समान पूरे शरीर में फैला होता है। स्नायु-मंडल या स्नायु तन्त्र को तीन मुख्य अंगों में विभाजित किया गया है।
(अ) केन्द्रीय स्नायु संस्थान।
(ब) स्वतः संचालित स्नायु संस्थान।
(स) संयोजक स्नायु संस्थान।
केन्द्रीय स्नायु संस्थान : स्नायु मंडल का एक भाग केन्द्रीय संस्थान है। स्नायु संस्थान के व्यवस्थित अध्ययन के लिए इसे पुनः दो भागों में विभक्त किया जाता है। इनमें से एक भाग को मस्तिष्क (Brain) तथा दूसरे को सुषुम्ना नाड़ी (Spinal Cord) कहा जाता है। केन्द्रीय स्नायु संस्थान के इन दोनों भागों का अलग-अलग विवरण निम्न प्रकार है :
(क) मस्तिष्क (Brain) : मानव शरीर में मस्तिष्क सबसे जटिल अंग है। यह व्यक्ति के सिर या खोपड़ी में होता है। अध्ययन की सुविधा के लिए मस्तिष्क के विभिन्न भागों का अलग-अलग अध्ययन किया जाता है। मस्तिष्क के तीन मुख्य भाग होते हैंप्रथम भाग को वृहत मस्तिष्क (Cerebrum), द्वितीय भाग को लघु मस्तिष्क (Cerebellum) तथा तीसरे भाग को मध्य मस्तिष्क (Mid brain) अथवा मैड्यूला ओब्लॉगैटा अथवा मस्तिष्क शीर्ष कहते हैं।
केंद्रीय स्नायु संस्थान के कार्य : मस्तिष्क के विभिन्न भागों एवं उनके कार्यों का पृथक्-पृथक् परिचय इस प्रकार है :
(i) वृहत् मस्तिष्क (Cerebrum) : मस्तिष्क का यह भाग अन्य भागों की अपेक्षा आकार में बड़ा होता है। इसीलिए इसे वृहत् मस्तिष्क कहते हैं। यह भाग अन्य भागों से ऊँचा भी होता है। वृहत् मस्तिष्क भौंहों तथा खोपड़ी के बीच स्थित होता है। इसकी सतह भूरी तथा आन्तरिक भाग सफेद होता है। भूरे भाग को प्रान्तस्था कहा जाता है। प्रान्तस्था में असंख्य स्नायु कोष होते हैं। ये स्नायु कोष ही मस्तिष्क के कर्म-क्षेत्र तथा बोध-क्षेत्र बनाते हैं। वृहत् मस्तिष्क को दो गोलार्डों में बाँटा जा सकता है। यह विभाजन एक दरार द्वारा होता है। इन गोलाओं को क्रमशः दायाँ गोलार्द्ध तथा बायाँ गोलार्द्ध कहते हैं। दाएँ गोलार्द्ध का अधिकांश भाग शरीर के बाएँ भाग से तथा बायाँ गोलार्द्ध शरीर के दाएँ भाग से सम्बन्धित होता है।
(ii) लघु मस्तिष्क (Cerebellum): मस्तिष्क का दूसरा भाग लघु मस्तिष्क है जो दो खंडों में विभक्त होता है। लघु मस्तिष्क की ऊपरी तह भूरे रंग के कोषों की होती है तथा इसके अन्दर सफेद रंग के स्नायु सूत्र होते हैं। लघु मस्तिष्क में कुछ दरारें होती हैं। मस्तिष्क के इस भाग का मुख्य कार्य शरीर का सन्तुलन बनाए रखना होता है। इसके द्वारा शरीर की गतियों का नियन्त्रण भी होता है। मांसपेशियों की क्रियाओं के संचालन में यही भाग सहयोग देता है।
(iii) मध्य मस्तिष्क (Midbrain) : इसे मस्तिष्क पुच्छ भी कहते हैं। यह भाग सुषुम्ना के ऊपरी भाग में स्थित होता है। यह लगभग एक इंच लम्बा होता है। वृहत् मस्तिष्क तथा सुषुम्ना का सम्बन्ध इसी के माध्यम से स्थापित होता है। यह भी भूरे-सफेद रंग का बना होता है तथा इसके बाहर का भाग सफेद व अन्दर का भाग भूरा होता है। इस भाग का मुख्य कार्य रक्त परिचालन, पाचन, श्वसन तथा निगलने आदि क्रियाओं का संचालन करता है।
(ख) सुषुम्ना नाड़ी (Spinal Cord) : सुषुम्ना एक खोखली नली के आकार की होती है। इसका ऊपरी भाग सफेद तथा अन्दर का भाग भूरे रंग के पदार्थ का बना होता है। इसमें दो प्रकार की नाड़ियाँ होती हैं-
(1) संवेदना नाड़ी तथा
(2) क्रियावाहक नाड़ियाँ ।
इसका स्थान रीढ़ की हड्डी के अन्दर होता है। सुषुम्ना की लम्बाई लगभग 18 इंच होती है। इस नाड़ी का निर्माण स्नायु तन्तुओं के 31 जोड़ों द्वारा होता है। ये स्नायु तन्तु मुख्य सुषुम्ना नाड़ी के दोनों और से निकलते हैं तथा सम्पूर्ण शरीर में फैल जाते
प्रश्न 4.
अनुक्रिया प्रक्रम के विभिन्न अंगों का संक्षिप्त परिचय देते हुए इसकी कार्य-प्रणाली को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
अनुक्रिया प्रक्रम से सम्बन्धित अंग : अनुक्रिया प्रक्रम एक जटिल व्यवस्था है तथा इसकी कार्य-प्रणाली भी पर्याप्त जटिल है। मानव व्यवहार का मूल आधार एवं परिचालक यह अनुक्रिया प्रक्रम ही है। अनुक्रिया तन्त्र की कार्य-प्रणाली को जानने के लिए इसके विभिन्न अंगों को जानना अनिवार्य है। अनुक्रिया प्रक्रम के मुख्य अंग निम्नलिखित हैं :
(अ) संग्राहक अंग (Receptors)
(ब) प्रभावक अंग (Efectors)
(स) स्नायु संस्थान (Nervous System)
अनुक्रिया प्रक्रम से सम्बन्धित इन तीनों अंगों का संक्षिप्त परिचय निम्नवत् है
(अ) संग्राहक अंग : साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि हमारी विभिन्न इंद्रियाँ ही हमारे संग्राहक अंग हैं। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, संग्राहक अंग वे अंग हैं, जो संवेगों को ग्रहण करते हैं। हमारे अनुक्रिया प्रक्रम के संग्राहक अंग अर्थात् इन्द्रियाँ बाहरी उत्तेजनाओं को ग्रहण करती हैं। ये ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं जिन्हें आँख, कान, नाक, जीभ एवं त्वचा के रूप में जाना जाता है।
सर्वप्रथम ये संग्राहक अंग ही बाहरी उत्तेजनाओं को ग्रहण करते हैं, उसके पश्चात् हमारा अनुक्रिया तन्त्र इन उत्तेजनाओं के प्रति प्रतिक्रिया करता है और उत्तेजनाओं के प्रति की गई यही प्रतिक्रिया व्यवहार कहलाती है। संग्राहकों के अध्ययन के लिए इन्हें उनके कार्यों के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभक्त किया जाता है। इन संग्राहकों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है
(i) तापीय ग्राहक : तापीय ग्राहक (Thermal Receptors) वे संग्राहक हैं, जो वातावरण से प्राप्त होने वाली सर्दी एवं गर्मी अथवा ताप सम्बन्धी उत्तेजनाओं को ग्रहण करते हैं। ये ग्राहक त्वचा में ही विद्यमान होते हैं।
(ii) यान्त्रिक ग्राहक : यान्त्रिक ग्राहक (Mechanical Receptors) मुख्य रूप से दबाव संवेदनाओं को ग्रहण करते हैं। ये ग्राहक कान एवं त्वचा में पाए जाते हैं।
(iii) रासायनिक ग्राहक : रासायनिक ग्राहकों (Chemical Receptors) का मुख्य कार्य वातावरण से प्राप्त होने वाली स्वाद एवं गन्ध की संवेदनाओं को ग्रहण करना है। ये ग्राहक जीभ व नाक में स्थित होते हैं।
(iv) प्रकाश एवं चित्र ग्राहक : प्रकाश अथवा चित्र ग्राहक (Light or Photic Receptors) का कार्य मुख्य रूप से रंग एवं दृष्टि संवेदनाओं को ग्रहण करना है। ये ग्राहक नेत्रों में स्थित होते
(v) बाह्य ग्राहक : बाह्य ग्राहक (Extro Receptors) वे ग्राहक हैं, जो त्वचा के सम्पर्क में आए बिना ही संवेदनाएँ ग्रहण कर लेते हैं। ये नाक, कान, नेत्र आदि में स्थित होते हैं।
(vi) मध्य ग्राहक : मध्य ग्राहक (Proprio Receptors) वे ग्राहक हैं, जो शारीरिक परिवर्तनों की उत्तेजनाओं को ग्रहण करते हैं। इन ग्राहकों का स्थान जोड़ (Joints) तथा मांसपेशियाँ होती हैं।
(vii) आन्तरिक ग्राहक : आन्तरिक ग्राहक (Intero Receptors) मानव शरीर में आमाशय तथा आँतों की सतह या दीवार पर होते हैं। ये ग्राहक आन्तरिक क्रियाओं से उत्तेजना ग्रहण
करते हैं।
(ब) प्रभावक अंग : अनुक्रिया तन्त्र का दूसरा मुख्य अंग प्रभावक अंग (Effectors) हैं। इनका मुख्य कार्य विभिन्न शारीरिक क्रियाओं को सम्पादित करना होता है। विभिन्न प्रकार के ऐच्छिक अथवा अनैच्छिक कार्य इन्हीं प्रभावक अंगों के माध्यम द्वारा सम्पन्न होते हैं। प्रभावक अंग भी दो प्रकार के होते हैं। इन दोनों प्रकार के प्रभावक अंगों का संक्षिप्त परिचय निम्नवत् है :
(i) मांसपेशियाँ : प्रभावक अंगों में मांसपेशियों का विशेष महत्त्व है। मांसपेशियाँ मुख्य रूप से गति सम्बन्धी क्रियाओं का संचालन एवं नियंत्रण करती हैं। मांसपेशियाँ भी दो प्रकार की होती हैं। प्रथम प्रकार की मांसपेशियों को चिकनी मांसपेशियाँ कहा जाता है। चिकनी मांसपेशियों द्वारा अनैच्छिक गति सम्बन्धी क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। इस प्रकार की मुख्य अनैच्छिक क्रियाएँ हैं-श्वसन क्रिया, पाचन क्रिया तथा रक्त प्रवाह। दूसरी प्रकार की मांसपेशियाँ धारीदार मांसपेशियाँ कहलाती हैं। इस प्रकार की मांसपेशियों द्वारा ऐच्छिक क्रियाएँ, जैसे-चलना, फिरना, उठना-बैठना आदि सम्पन्न होती हैं।
(ii) ग्रन्थियाँ : दूसरे प्रकार के प्रभावक अंग ग्रन्थियाँ (Glands) हैं। ग्रन्थियाँ भी दो प्रकार की होती हैं। प्रथम प्रकार की ग्रन्थियों को नलिका ग्रन्थियाँ (Duct Glands) कहा जाता है। ये ग्रन्थियाँ विभिन्न नलिकाओं के आकार की होती हैं। इन ग्रन्थियों का मुख्य कार्य विभिन्न स्रावों को शरीर के बाहर निकालना होता है। उदाहरण के लिए- पसीना तथा आँसू ऐसे ही नाव हैं। द्वितीय प्रकार की ग्रन्थियाँ नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ (Ductless Glands) होती हैं। इन ग्रन्थियों से भी प्रावण होता है, परन्तु इनका स्राव शरीर से बाहर नहीं निकलता, वरन् सीधे ही रक्त में मिल जाता है। नलिकाविहीन ग्रन्थियों से निकलने वाले नाव को हॉरमोन्स (Hormones) कहते हैं। हॉरमोन्स का व्यक्ति के शरीर एवं स्वभाव आदि पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
(स) स्नायु संस्थान : अनुक्रिया तन्त्र का तीसरा मुख्य अंग स्नायु संस्थान (Nervous System) है। मनुष्यों एवं अन्य सभी प्राणियों के व्यवहार के संचालन एवं परिचालन में स्नायु संस्थान का विशेष महत्त्व होता है। स्नायु संस्थान का स्वरूप भी अत्यन्त जटिल होता है। यह सम्पूर्ण शरीर में तन्तुओं के जाल के रूप में फैला रहता है। स्नायु संस्थान का केन्द्र मस्तिष्क होता है। व्यक्ति की सभी क्रियाओं का परिचालन एवं नियंत्रण इसी स्नायु संस्थान द्वारा होता है। अध्ययन की सुविधा के लिए स्नायु संस्थान को तीन भागों में विभक्त किया जाता है।
ये भाग हैं-
अनुक्रिया तन्त्र की कार्य-प्रणाली : अनुक्रिया तंत्र की । कार्य-प्रणाली अत्यन्त जटिल है। अनुक्रिया तन्त्र की कार्य प्रणाली मुख्य रूप से प्रभावक अंगों तथा संग्राहक अंगों के ही माध्यम से चलती है। संग्राहक अंग बाहरी उत्तेजनाओं को ग्रहण करते हैं। उत्तेजनाओं को ग्रहण करने का यह कार्य असंख्य संग्राहक कोषों द्वारा सम्पन्न होता है। संग्राहक अंगों द्वारा ग्रहीत उत्तेजनाओं के प्रति होने वाली प्रतिक्रिया ही हमारा व्यवहार कहलाती है।
संग्राहक स्नायु ही मांसपेशियों तक उत्तेजना का संप्रेषण करते हैं। मनुष्य में इस प्रकार के असंख्य संग्राहक कोष विद्यमान हैं। ये केवल आँख | में ही लाखों की संख्या में पाए जाते हैं। उत्तेजना के सम्प्रेषण की सामान्य गति 75 मीटर प्रति सेकेण्ड होती है। संकट के समय यह गति और भी अधिक हो सकती है। अनुक्रिया तन्त्र की यह कार्य-प्रणाली टेलीफोन एक्सचेंज की कार्य-प्रणाली से मिलती-जुलती होती है।
प्रश्न 5.
स्वतः संचालित स्नायु-संस्थान क्या है ? इसके मुख्य अंगों और उनके कार्यों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर :
स्वतः संचालित स्नायु-संस्थान : स्नायु तन्त्र का दूसरा मुख्य भाग स्वतः संचालित स्नायु मंडल है। स्नायु-तन्त्र का यह भाग स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है और किसी भी प्रकार की बाहरी उत्तेजनाओं के बिना ही क्रियाशील होता है। यह शरीर के जिन भागों का नियंत्रण करता है, उन्हीं भागों से ही क्रियाशीलता तथा उत्तेजना प्राप्त करता है। स्वतः संचालित स्नायु संस्थान द्वारा मुख्य रूप से अनैच्छिक क्रियाओं का ही संचालन होता है। स्वतः संचालित स्नायु-संस्थान के अंग एवं उनकी क्रियाएँ : स्वतः संचालित स्नायु-संस्थान को उसकी क्रियाओं के आधार पर दो भागों में विभक्त किया जाता है।
एक भाग को सहानुभूतिक नाड़ी-संस्थान (Sympathetic Nervous System) तथा दूसरे भाग को उपसहानुभूतिक नाड़ी-संस्थान (Para-sympathetic Nervous System) कहा जाता है। ये दोनों भाग परस्पर विरोधी कार्यों को करते हैं। एक भाग जिस क्रिया को गति प्रदान करता है. दुसरा भाग उसी क्रिया को शिथिल करता है। दोनों भाग मिलकर इन क्रियाओं में सन्तुलन बनाए रखते हैं। इन दोनों भागों के कार्यों का अलग-अलग संक्षिप्त परिचय निम्नवत् है
(अ) सहानुभूतिक नाड़ी मंडल : स्वतः संचालित स्नायु-संस्थान के इस भाग द्वारा शरीर के आन्तरिक एवं बाहरी अंगों को गति प्राप्त होती है। यह भाग विभिन्न खतरों से शरीर की रक्षा करता है। सहानुभूतिक नाड़ी-संस्थान संवेगों की अवस्था में विशेष रूप से क्रियाशील होता है। इसके क्रियाशील होने पर शरीर में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन भी हो जाते हैं। खतरे के समय आँखों का फैलना, मांसपेशियों और मस्तिष्क में रक्त संचार का अधिक होना इसी का परिणाम होता है। इसके अतिरिक्त लार ग्रन्थियों का निष्क्रिय हो जाना भी सहानुभूतिक नाड़ी-संस्थान की ही सक्रियता का परिणाम होता है। अभिवृक्क ग्रन्थियों से ऐड्रीनेलीन नामक हॉरमोन रक्त शर्करा की मात्रा को बढ़ा देता है, जिससे शरीर को शक्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार यह नाड़ी संस्थान संवेगात्मक अवस्था में ही कार्य करता है।
(ब) उपसहानुभूतिक नाड़ी-संस्थान : स्नायु-संस्थान के इस भाग की सक्रियता के परिणामस्वरूप शरीर पुष्ट होता है तथा शरीर में शक्ति का संचय होता है। जब उपसहानुभूतिक नाड़ी-संस्थान अधिक सक्रिय हो जाता है तब लार ग्रन्थियों से अधिक रस का नाव होने लगता है। लार ग्रन्थियों का यह स्राव भोजन के पचने में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त ऐसी स्थिति में आँखों की पुतलियाँ सिकुड़ जाती हैं तथा रक्त की गति में कमी आ जाती है। स्पष्ट है कि सहानुभूतिक नाड़ी-संस्थान के क्रियाशील होने पर व्यक्ति के शरीर में अनेक क्रियाएँ प्रभावित होती हैं। यद्यपि सहानुभूतिक तथा उपसहानुभूतिक स्नायु-संस्थान की क्रियाएँ एक-दूसरे के विपरीत होती हैं, तथापि दोनों की समन्वित क्रियाओं से ही स्वतंत्र स्नायु-संस्थान कार्य करता है।
प्रश्न 6.
नलिकाविहीन ग्रन्थियों के नाम बताते हुए कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मानव शरीर में निम्नलिखित नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं :
(i) गल ग्रन्थि ।
(ii) उपगल ग्रन्थि।
(iii) पीयूष ग्रन्थिा
(iv) शीर्ष ग्रन्थिा
(v) थायमस ग्रन्थि।
(vi) अधिवृक्क ग्रन्थियाँ।
(vii) जनन ग्रन्थियाँ।
(i) गल ग्रन्थि : इसे थाइरॉइड ग्लैण्ड भी कहा जाता है। इसका स्थान गले में होता है। इस ग्रन्थि (Thyroid Gland) की उचित सक्रियता शरीर की वृद्धि के लिए आवश्यक होती है। इस ग्रन्थि से निकलने वाले स्राव में आयोडीन की पर्याप्त मात्रा होती है। गल ग्रन्थि की निष्क्रियता की स्थिति में व्यक्ति का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। शरीर में ऑक्सीजन कम पहुँचती है तथा पाचन शक्ति मन्द पड़ जाती है। गल ग्रन्थि या थाइराइड ग्रन्थि की सक्रियता के अनियमित हो जाने पर पेंघा नामक रोग भी हो जाता है। आजकल आयोडीन युक्त नमक के सेवन का सुझाव इसी ग्रन्थि को स्वस्थ रखने के लिए दिया जाता है।
(ii) उपगल ग्रन्थि : उपगल ग्रंथि (Para-thyroid Gland) भी गलग्रन्थि के निकट ही, गले में स्थित होती है। ये संख्या में चार होती हैं तथा आकार में छोटी होती हैं। इस ग्रन्थि की निष्क्रियता की स्थिति में व्यक्ति की मांसपेशियों में ऐंठन-सी आ जाती है। इस ग्रन्थि से पैराथोरमोन नामक हारमोन का स्राव होता है। यह हॉरमोन रुधिर में कैल्शियम की मात्रा को नियंत्रित रखता है तथा अस्थियों की वृद्धि एवं पुष्टि में योगदान देता है। इस हॉरमोन की कमी की स्थिति में टिटेनी (Tetary) नामक रोग हो जाता है।
(iii) पीयूष ग्रन्थि : पीयूष ग्रन्थि (Pituiatary Gland) का स्थान मस्तिष्क में है। यह ग्रन्थि दो भागों में विभक्त होती है। ये दो भाग हैं - अग्र भाग तथा पश्च भाग। पीयूष ग्रन्थि के अग्न भाग का सम्बन्ध शरीर की वृद्धि से होता है। इस भाग की अति सक्रियता के परिणामस्वरूप व्यक्ति का शरीर अत्यधिक लम्बा हो जाता है। पश्च भाग का सम्बन्ध रासायनिक व्यवस्था से होता है। रक्त दाब तथा भूख का बढ़ना इसी से सम्बन्धित है। यह ग्रन्थि शरीर की अन्य ग्रंथियों की क्रियाशीलता को भी नियंत्रित करती है। इसके अतिरिक्त इस ग्रंथि का स्राव शरीर में जल की मात्रा को भी नियन्त्रित करता है।
(iv) शीर्ष ग्रन्थि : शीर्ष ग्रन्थि (Pineal Gland) मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित होती है। यह ग्रन्थि लाल-भूरे रंग की होती है तथा इसका आकार छोटा होता है। सामान्य रूप से इस ग्रन्थि के कार्य एवं प्रभाव अज्ञात हैं, फिर भी ऐसा विचार है कि इस ग्रन्थि के प्रभाव से ही स्त्री-पुरुषों में उनके लिंग के अनुरूप शारीरिक बनावट प्रकट होती है। पुरुषों के शरीर पर बालों की अधिकता तथा आवाज का भारीपन अथवा स्त्रियों के अंगों की गोलाई तथा आवाज का सुरीलापन आदि इसी ग्रन्थि के परिणाम
(v) थायमस ग्रन्थि : थायमस ग्रन्थि (Thymus Gland) भी एक नलिकाविहीन ग्रन्थि है। इस ग्रन्थि के प्रभाव एवं कार्यशीलता भी अभी तक स्पष्ट नहीं हो सकी है। कुछ विद्वानों का विश्वास है कि इस ग्रन्थि का सम्बन्ध शारीरिक विकास एवं वृद्धि से है।
(vi) अधिवृक्क ग्रन्थियाँ : अधिवृक्क ग्रन्थियाँ (Adrenal Glands) दो होती हैं। ये दोनों गुर्दो के निकट होती हैं। इन ग्रन्थियों का व्यक्ति के शरीर एवं स्वभाव पर विभिन्न प्रकार से प्रभाव पड़ता है। अधिवृक्क ग्रन्थियों से दो प्रकार के रसों का स्राव होता है। ग्रन्थि की मैड्यूला से निकलने वाले रस को अधिवृक्की अथवा ऐडीनेलिन (Adrenaline) कहा जाता है। दूसरा रस ग्रन्थि की प्रान्तस्था (Cortex) से निकलता है। इस रस को प्रान्तस्थी (Cortin) कहा जाता है।
अधिवृक्क ग्रन्थि की क्रियाशीलता का शरीर पर अनेक प्रकार से प्रभाव पड़ता है। इसके प्रभाव से ही धारीदार मांसपेशियों के स्पन्दन में वृद्धि होती है तथा चिकनी मांसपेशियों की क्रियाशीलता कम हो जाती है। इसके ही प्रभाव से रक्त दबाव तथा रक्त का एकत्र होना बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थि के और भी अनेक प्रभाव देखे जा सकते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शारीरिक विकास तथा व्यक्ति के समुचित विकास में इन ग्रन्थियों की उचित सक्रियता का विशेष योगदान होता है।
(vii) जनन ग्रन्थियाँ : जनन ग्रन्थियाँ (Reproductive Glands) भी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थियाँ हैं। ये ग्रन्थियाँ आंशिक रूप से नलिकायुक्त तथा आंशिक रूप से नलिकाविहीन होती हैं। ये पुरुषों तथा स्त्रियों दोनों में ही सक्रिय एवं प्रभावशील होती हैं। ये ग्रन्थियाँ रज कीट एवं शुक्र कीट उत्पन्न करती हैं। स्त्रियों में मासिक धर्म तथा गर्भाधान क्रियाएँ इन्हीं ग्रन्थियों के प्रभाव के फलस्वरूप होती हैं। जनन ग्रन्थियों के न्यासर्ग वैसे तो बचपन से ही उपस्थित होते हैं, पर किशोरावस्था में इनकी विशेष वृद्धि होती है।
उपर्युक्त विवरण द्वारा मुख्य नलिकाविहीन ग्रन्थियों के कार्यों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त हो जाता है। इस विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि ग्रन्थियों की सक्रियता का प्रभाव व्यक्ति के स्वभाव एवं व्यवहार पर पड़ता है तथा इसी कारण अनुक्रिया प्रक्रम में इन नलिकाविहीन ग्रन्थियों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि शरीर की विभिन्न ग्रन्थियाँ समन्वित रूप से कार्य करती हैं तथा प्रत्येक ग्रन्थि की सक्रियता का प्रभाव अन्य ग्रन्थियों की सक्रियता पर पड़ता है।
प्रश्न 7.
स्नायु संधि का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताइए कि विभिन्न स्नायुओं में स्नायु आवेग कैसे प्रवाहित होता है।
उत्तर :
स्नायु सन्धि अथवा तंत्रिका संधि का अर्थ : शरीर के प्रत्येक अंग में असंख्य स्नायु या न्यूरॉन पाए जाते हैं। विभिन्न स्नायु परस्पर सम्बद्ध होकर ही अपने कार्य करते हैं। इस स्थिति में दो या दो से अधिक स्नायुओं का परस्पर सम्बद्ध होना आवश्यक है। इसी प्रयोजन के लिए स्नायु-तंत्र में असंख्य स्नायु सन्धियाँ पाई जाती हैं। इस प्रकार स्नायु-तंत्र में उस स्थान को स्नायु संधि या तंत्रिका संधि (Synapse) कहते हैं, जहाँ दो या दो से अधिक दिशाओं से आने वाले स्नायु या न्यूरॉन आपस में मिलते हैं। वास्तव में स्नायु संधि स्थल पर किसी एक स्नायु के वृक्ष तन्तु तथा किसी अन्य स्नायु के अक्ष तंतु का परस्पर सम्बन्ध स्थापित होता है। स्नायु संधि स्थल पर दो या दो से अधिक स्नायुओं का परस्पर संबंध स्थापित होता है, परन्तु वे वास्तव में एक-दूसरे से जुड़ते नहीं हैं।
स्नायु संधि स्थल पर सम्बन्धित स्नायुओं के बीच कुछ दूरी बनी रहती है। इसी स्थल को संधि स्थल कहा जाता है। स्नायु प्रवाह या स्नायु आवेग सदैव स्नायु संधि के माध्यम से ही अग्रसर होता है। इस प्रकार किसी एक स्नायु के अक्ष तन्तु से दूसरे स्नायु के वृक्ष तन्तु में प्रवाहित होने वाले स्नायु आवेग को सदैव सम्बन्धित स्नायु सन्धि स्थल से होकर गुजरना पड़ता है। स्नायु या न्यूरॉन में प्रवाहित होने वाला स्नायु प्रवाह या आवेग, स्नायु सन्धि स्थल के निकट आकर कुछ धीमा पड़ जाता है तथा इसके बाद एक छलांग लगाकर इस स्थल को पार कर जाता है।
यह क्रिया लगभग उसी प्रकार से सम्पन्न होती है जिस प्रकार से किसी विद्युत तार में प्रवाहित होने वाली विद्युत ऊर्जा उस तार के समीप आने वाले दूसरे तार में प्रवाहित हो जाती है। ऐसे में प्रायः एक चिंगारी निकलती है तथा विद्युत प्रवाह बन जाता है। भले ही दोनों तार परस्पर जुड़े नहीं होते।
स्नायु संधि की विशेषताएं :
उपर्युक्त विवरण द्वारा स्नायु संधि का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। स्नायु संधि के कार्यों एवं भूमिका आदि के स्पष्टीकरण के लिए
स्नायु सन्धि की विभिन्न विशेषताओं को भी जानना आवश्यक है। स्नायु सन्धि की विशेषताएँ निम्नवत् हैं -
(i) स्नायु तन्त्र में विद्यमान प्रत्येक स्नायु सन्धि में इस प्रकार की व्यवस्था होती है कि केवल एक दिशा में ही स्नायु प्रवाह बन पाता है। इसी व्यवस्था के कारण कुछ स्नायु एक दिशा में आवेग को ले जाते हैं, जबकि कुछ अन्य स्नायु आवेग को भिन्न दिशा में ले जाते हैं। स्नायुओं की इस विशेषता को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि स्नायु सन्धि स्थल सदैव एक एकलमार्गीय वाल्व (One way valve) के रूप में कार्य करता है।
(ii) स्नायु सन्धि की एक विशेषता यह है कि इस स्थान पर सम्बन्धित स्नायुओं के छोर परस्पर मिलते नहीं हैं बल्कि उनमें कुछ दूरी या अन्तर सदैव रहता है।
(iii) स्नायु सन्धि स्थल पर दो या दो से अधिक स्नायु भी परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।
(iv) स्नायु सन्धि स्थल की बनावट कुछ इस प्रकार की होती है कि प्रारंभ में जब इस स्थल से स्नायु आवेग प्रवाहित होता है तो उसके प्रवाहित होने में सन्धि स्थल पर कछ बाधा उत्पन्न होती है। इस बाधा को अवरोध (Inhibition) कहा जाता है। परन्तु यदि कुछ प्रयास किया जाए तो इस अवरोध को कम किया जा सकता है तथा इस स्थिति में स्नायु प्रवाह एक निर्धारित दिशा में सरलता से प्रवाहित हो जाता है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यदि पर्याप्त समय के लिए अभ्यास छूट जाए तो इस स्थल पर स्वाभाविक अवरोध पुनः बढ़ जाता है तथा उसे घटाने के लिए पुन: प्रयास करना पड़ता है। यदि निरन्तर अभ्यास चलता रहता है तो स्नायु आवेग के प्रवाह का मार्ग सरल बन जाता है। संधि स्थल की इसी बनावट के आधार पर व्यक्ति की आदतें बनती तथा बिगड़ती हैं।
(v) स्नायु प्रवाह या स्नायु आवेग को सन्धि स्थल को पार, करने के लिए सन्धि स्थल के अवरोध को दूर करना पड़ता है। इसके लिए दो प्रकार के प्रयास करने पड़ते हैं। प्रथम, स्नायु प्रवाह में अभ्यास अथवा उत्तेजना की तीव्रता के कारण इतनी अधिक शक्ति हो कि उस शक्ति की सहायता से वह सन्धि स्थल को पार कर जाए। दूसरे, प्रयास के अंतर्गत यह हो सकता है कि अतिरिक्त स्नायु प्रवाह आकर पहले से विद्यमान स्नायु प्रवाह की शक्ति में वृद्धि कर दे तथा इस प्रकार से संयुक्त हुई शक्ति की सहायता से ही वह सन्धि स्थल के अवरोध को समाप्त कर दे तथा उसे पार कर जाए। यह सहायता भी दो प्रकार से प्राप्त हो सकती है- प्रथम सन्धि स्थल में दो अलग-अलग स्थानों से आने वाले स्नायु प्रवाह परस्पर जुड़ जाएँ, इस प्रकार के संयुक्त होने को स्थान संयोग कहा जाता है।
द्वितीय, भिन्न-भिन्न समय पर प्रवाहित हुए स्नायु आवेगों का सन्धि स्थल पर संयोग हो जाए, इस प्रकार के संयोग को कालगत संयोग कहा जाता है। इन दोनों अथवा किसी एक प्रकार से स्नायु आवेग के परस्पर जुड़ जाने से कमजोर स्नायु प्रवाहों को बल मिलता है तथा वे सरलता से सन्धि स्थल को पार करने में सफल हो जाते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि किसी एक ही सन्धि स्थल पर भिन्न-भिन्न दिशाओं से अनेक स्नायु प्रवाह पहुंच सकते हैं। इस स्थिति में जो स्नायु आवेग या स्नायु प्रवाह प्रबल या शक्तिशाली होते हैं वे स्नायु आवेग कमजोर या कम प्रबल स्नायु आवेगों को पीछे छोड़ सकते हैं तथा स्वयं सन्धि स्थल को पार कर जाते हैं।
स्नायु आवेग सम्बन्धी इस तथ्य को दैनिक जीवन के एक उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है। हम देखते हैं कि प्रायः कोई भी खेल खेलते समय व्यक्ति को यदि कोई साधारण चोट भी लग जाए तो भी व्यक्ति अपने खेल में पहले की ही भांति संलग्न रहता है। इस स्थिति का स्पष्टीकरण यह है कि उस समय व्यक्ति के लिए खेलने की क्रिया का स्नायु आवेग उस स्नायु आवेग से अधिक प्रबल होता है जो चोट लगने के कारण उत्पन्न हुआ है। खेल की क्रिया के प्रबल आवेग के कारण ही व्यक्ति चोट लगने पर भी खेलता रहता है।
(vi) यह भी एक तथ्य है कि सन्धि स्थल पर कभी भी सम्पूर्ण अवरोध समाप्त नहीं होता है; अर्थात् सन्धि स्थल पर सदैव कुछ-न-कुछ अवरोध अवश्य ही बना रहता है। वास्तव में सन्धि स्थल पर स्नायु आवेग के आगमन में कुछ-न-कुछ अवरोध अवश्य ही होता है। इस कारण ही किसी पूरे स्नायु या न्यूरॉन में स्नायु आवेग को प्रवाहित होने में जितना समय लगता है, उससे पर्याप्त अधिक समय स्नायु सन्धि स्थल को पार करने में लगा करता है।
उपर्युक्त विवरण द्वारा यह स्पष्ट है कि शरीर के किसी भी अंग द्वारा प्राप्त उत्तेजनाओं का ज्ञान शरीर के विभिन्न अंगों को प्राप्त हो जाता है। बाहरी उत्तेजनाएँ ही स्नायु प्रवाह या स्नायु आवेग के रूप में होती हैं। यह आवेग विभिन्न न्यूरॉन या स्नायुओं द्वारा प्रवाहित होता है। स्नायु आवेग के प्रवाह में स्नायु सन्धियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।