RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 सामाजिक आंदोलन Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 12 Sociology Solutions Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

RBSE Class 12 Sociology सामाजिक आंदोलन InText Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 136

प्रश्न 1. 
अपने जीवन की अपनी दादी/नानी के जीवन से तुलना कीजिए। यह आपके जीवन से किस प्रकार भिन्न है ? आपके जीवन में ऐसे कौन से अधिकार हैं जिन्हें आप सहज भाव से स्वीकार करते हैं, और जो उनको प्राप्त नहीं थे? चर्चा करें।
उत्तर:
यदि हम अपने जीवन की अपनी दादी/नानी के जीवन से तुलना करते हैं तो दोनों के जीवन में निम्नलिखित भिन्नताएँ सामने आती हैं।

(1) हमें आज अनेक ऐसे अधिकार प्राप्त हैं, जो उनको प्राप्त नहीं थे। उदाहरण के लिए सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, कार्य दिवस का आठ घण्टे से अधिक का न होना, पुरुषों और महिलाओं को समान कार्य के लिए समान मजदूरी दिया जाना, मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा तथा पेंशन के अधिकार, महिलाओं को पैतृक सम्पत्ति का अधिकार आदि। अन्य बहुत से अधिकार भी हमें सामाजिक आन्दोलनों के द्वारा प्राप्त हुए हैं।

(2) आज जो नागरिक अधिकार हमें प्राप्त हैं वे दादी/नानी की पीढ़ी के लोगों को प्राप्त नहीं थे क्योंकि उस समय अंग्रेजी शासनकाल था तथा उपनिवेशवाद के कारण भारतीय अनेक नागरिक अधिकारों से वंचित थे।

(3) आज स्त्रियों को घर से बाहर के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने का अधिकार प्राप्त है जबकि दादी/नानी के समय महिलाएँ केवल घर की चारदीवारी के भीतर ही काम करती थीं।

(4) आज महिलाओं को पुरुषों की भाँति इच्छानुसार विवाह करने का अधिकार मिल गया है जबकि दादी/नानी के समय महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त नहीं था।

(5) राजनीतिक क्षेत्र में भी महिलाओं को पुरुषों की भाँति राजनीतिक कार्यों में भाग लेने का अधिकार प्राप्त है। दादी/नानी को यह अधिकार प्राप्त नहीं थे।

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RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

प्रश्न 2. 
(अ) सामाजिक आन्दोलनों से समाज किस तरह बदलता है

(ब) तथा कैसे एक सामाजिक आन्दोलन अन्य सामाजिक आन्दोलनों को जन्म देता है, इसके किसी उदाहरण के बारे में सोचने का प्रयास कीजिए।
उत्तर:
(अ) सामाजिक आन्दोलन समाज में विभिन्न प्रकार के सुधार लाते हैं जैसे पश्चिमी यूरोप के पूँजीवादी राष्ट्रों में कामगारों के अधिकारों का संरक्षण तथा सार्वभौमिक शिक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल तथा सामाजिक सुरक्षा देने वाले कल्याणकारी राज्यों की स्थापना साम्यवादी तथा समाजवादी आन्दोलन द्वारा उत्पन्न किए गए राजनीतिक दबाव के कारण सम्भव हुई। इस सुधार के कारण लोगों के जीवन में बदलाव आया। लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठा। साक्षरता में वृद्धि हुई, जनता में जागृति आई जिससे समाज में हिंसा व असंतोष में कमी आई और समाज में खुशहाली व प्रगति आई।

(ब) सामाजिक आन्दोलन न केवल समाजों को बदलते हैं, अपितु अन्य सामाजिक आन्दोलनों को प्रेरणा भी देते हैं। उदाहरण के लिए, सती प्रथा की समाप्ति के लिए चलाए गए आन्दोलन ने महिला शिक्षा के प्रसार हेतु आन्दोलन को भी प्रोत्साहन दिया। ऐसा माना जाने लगा था कि जब तक महिलाएँ पढ़-लिख नहीं जाएँगी, तब तक इस प्रकार की कुरीति को समाप्त करने का वातावरण नहीं बनेगा।

पृष्ठ संख्या 138

प्रश्न 3. 
विभिन्न सामाजिक आन्दोलनों की एक सूची बनाइए जिनके बारे में आपने सुना अथवा पढ़ा हो। वे क्या परिवर्तन लाना चाहते थे? वे किन परिवर्तन को रोकना चाहते थे?
उत्तर:
विभिन्न सामाजिक आन्दोलनों की सूची इस प्रकार हैसामाजिक आंदोलन परिवर्तन जो ये आंदोलन ये जिस परिवर्तन को के नाम लाना चाहते हैं रोकना चाहते हैं।

सामाजिक आंदोलन के नाम

परिवर्तन जो ये आंदोलन लाना चाहते हैं

ये जिस परिवर्तन को  रोकना चाहते हैं

(1) चिपको आंदोलन

पर्यावरण की रक्षा

सरकार जंगल न कटवाए व इनकी रक्षा करे।

(2) चंपारन सत्याग्रह

उपजाऊ भूमि की रक्षा करना

नील की खेती के विरुद्ध। 

(3) एटक

मजदूरों का हित

मालिकों के शोषण का विरोध। 

(4) सतनामी आंदोलन

दलितों के साथ समानता का व्यवहार

भेदभाव/छुआछूत का विरोध।

(5) महार आंदोलन

निम्न जाति के साथ अच्छा व समानता का व्यवहार करना

भेदभाव व छुआछूत का अंत करना।

(6) झारखंड आंदोलन

अलग राज्य की मांग

जनजाति की संस्कृति के साथ छेड़छाड़ न की जाए। 

(7) महिला आंदोलन

लिंग समानता

लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाए।


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प्रश्न 4. 
किसी सामाजिक आन्दोलन के विषय में सोचिए। आप भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन, किसी जनजातीय आन्दोलन, किसी प्रजाति विरोधी आन्दोलन का मामला ले सकते हैं और चर्चा कर सकते हैं। क्या लोग उनमें हानि अथवा लाभ के विषय में सोचकर सम्मिलित हुए अथवा व्यक्तिगत लाभ के विषय में तर्कसंगत गणना करके?
उत्तर:
सामाजिक आन्दोलन के विषय में छात्र स्वयं सोचें। इसके लिए छात्र कोई भी आन्दोलन ले सकते हैं जैसे जनजातीय आन्दोलन, महिला आन्दोलन, दलित आन्दोलन इत्यादि।

अधिकतर सामाजिक आन्दोलनों में लोग हानि या लाभ के विषय में सोचकर अथवा व्यक्तिगत लाभ के विषय में तर्कसंगत गणना करके सम्मिलित नहीं होते हैं। चूँकि सामाजिक आन्दोलन सामूहिक प्रयास होते हैं, इसलिए इनसे कोई व्यक्ति विशेष लाभान्वित न होकर पूरा समूह या समुदाय होता है। उदाहरण के लिए महिला आन्दोलन किसी विशेष वर्ग की महिलाओं के लिए लाभकारी नहीं रहे हैं, बल्कि सभी महिलाओं को इससे लाभ हुआ है । जो महिलाएँ इन आन्दोलनों में अग्रणी रही हैं अथवा नेतृत्व प्रदान करती रही हैं, उनका उद्देश्य भी किसी प्रकार का अपना व्यक्तिगत लाभ न होकर सम्पूर्ण महिला जाति का उत्थान रहा है।

RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

प्रश्न 5. 
निम्नलिखित सामाजिक आन्दोलनों के विषय में पता लगाएँ

  1. तिभागा आन्दोलन 
  2. तेलंगाना संघर्ष 
  3. बिरसा मुंडा द्वारा चलाया गया उलगुलान 
  4. झारखण्ड को पृथक् राज्य का दर्जा दिलवाने हेतु आन्दोलन 
  5. दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलवाने का आन्दोलन।

उत्तर:
(1) तिभागा आन्दोलन: यह आन्दोलन 1946 - 47 में हुआ था। यह संघर्ष बंगाल और उत्तरी बिहार की पट्टेदारी खेती का था। प्रान्तीय किसान सभा ने फ्लाउड कमीशन की सिफारिशों के अनुसार, तिभागा लागू कराने के लिए जन आन्दोलन का आह्वान किया। तिभागा से आशय है - बटाईदार के लिए उपज का दो तिहाई भाग, न कि आधा। कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने गाँवों में पहुँचकर बटाईदारों को संगठित किया। नवम्बर 1946 से इस आन्दोलन का केन्द्र बिन्दु उत्तरी बंगाल बन गया, लेकिन अब इसका दमन भी बढ़ गया। यह आन्दोलन आगे चलकर किसानों के आन्तरिक तनावों के कारण समाप्त हो गया।

(2) तेलंगाना संघर्ष: यह किसान आन्दोलन 1946-51 में हुआ था। यह देशी राज्य हैदराबाद की सामन्ती दशाओं के विरुद्ध था। यह आन्दोलन अपने उभार में 16,000 वर्गमील, 3000 गाँवों और 30 लाख की आबादी में फैल गया था। इस क्षेत्र में सामन्ती शोषण चरम सीमा पर था और राजनीतिक लोकतांत्रिक अधिकारों का भयंकर दमन होता था। देशमुख या जागीरदास जैसे सामन्तवादी उत्पीड़क आदिवासी किसानों से वेट्टी (जबरन बेगार या पैसा लेने की प्रथा) वसूलते थे। 1946 में देशमुख के गुण्डों ने एक ग्रामीण कार्यकर्ता कुमारयमा की हत्या कर दी। इस घटना के बाद किसानों ने संगठित होकर आन्दोलन किया जिसे तेलंगाना आन्दोलन कहा जाता है।

(3) बिरसा मुंडा द्वारा चलाया गया उलगुलान: बिरसा मुंडा नामक आदिवासी नेता ने स्वतंत्र मुण्डा राज्य की स्थापना के लिए सामाजिक आन्दोलन चलाया था।

(4) झारखण्ड को पृथक् राज्य का दर्जा दिलवाने हेतु आन्दोलन: झारखण्ड को पृथक् राज्य का दर्जा दिलवाने की शुरुआत बिरसा मुंडा नाम के एक आदिवासी नेता ने की थी। इनकी मृत्यु के पश्चात् एक मध्यवर्गीय आदिवासी बुद्धिजीवी ने इसका नेतृत्व किया। अन्ततः सन् 2000 में दक्षिण बिहार से काटकर झारखण्ड राज्य का निर्माण हो गया।

(5) दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलवाने का आन्दोलन: मैदानी इलाके में चमारों के सतनामी आन्दोलन, पंजाब के आदि धर्म आन्दोलन, महाराष्ट्र के महार आन्दोलन दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलवाने हेतु किये गये आन्दोलन थे।नोट - कुछ अन्य आन्दोलनों की जानकारी छात्र स्वयं प्राप्त करें। 

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RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

प्रश्न 6. 
अपने क्षेत्र में पर्यावरण प्रदूषण के कुछ उदाहरणों का पता लगाइए। चर्चा कीजिए। आप अपने उन उदाहरणों की पोस्टर प्रदर्शनी भी लगा सकते हैं। अब हम पारिस्थितिकीय आन्दोलन के एक उदाहरण के रूप में चिपको आन्दोलन की बात करते हैं।
उत्तर:
हमारे यहाँ सबसे ज्यादा प्रदूषण फैक्ट्री से निकलने वाली गैस व पानी हैं। इसके साथ ही यातायात साधनों से भी उत्पन्न प्रदूषण फैल रहा है।अन्य कार्य छात्र स्वयं करें। 

पृष्ठ संख्या 148

प्रश्न 7. 
नक्सली आन्दोलन के बारे में और अधिक पता लगाइए। 
(अ) प्रारम्भिक वर्ष 

(ब) मुद्दे

(स) विरोध की विधि।
उत्तर:
(अ) प्रारम्भिक वर्ष - (1967) नक्सलवाद शब्द पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गाँव नक्सलबारी से बना है जहाँ चारु मजूमदार एवं कानू सान्याल के नेतृत्व में 1967 में हिंसक संघर्ष हुए।

(ब) मुद्दे - भूमि से सम्बन्धित नियम, कानून, कृषि नीति इत्यादि।

(स) विरोध की विधि-हिंसा, अपहरण, सड़क, रेलमार्ग रोकना इत्यादि। 

पृष्ठ संख्या 151

प्रश्न 8. 
एक महीने तक रोजाना समाचार पढ़ें। रेडियो अथवा दूरदर्शन पर किसी समाचार प्रसारण को सुनें। मजदूरों से सम्बन्धित उठाए गए तथा चर्चित मुद्दों को लिखें। चर्चा करें।
उत्तर:
यदि छात्र एक महीने तक रोजाना समाचार पत्र पढ़ेंगे अथवा रेडियो या दूरदर्शन पर समाचार प्रसारणों को सुनेंगे और यह पता लगाने का प्रयास करेंगे कि इन मजदूरों से सम्बन्धित कौन से मुद्दे उठाये जाते हैं तो सरलता से निम्न प्रकार के मुद्दे सामने आ जायेंगे

(1) किसी फैक्ट्री के बंद किये जाने पर कामगार उसे दुबारा चलाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं ताकि उनका रोजगार बना रहे।

(2) आज भूमण्डलीकरण के युग में निजीकरण को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। फलतः आए दिन किसी सार्वजनिक क्षेत्र के किसी संस्थान को निजी हाथों में सौंपने की बात चलती है, तभी समाचार पत्रों, रेडियो या दूरदर्शन पर मजदूरों द्वारा असुरक्षा के नाम पर आन्दोलन किये जाते रहे हैं।

(3) निजी बैंकों या सरकारी दफ्तरों का निजीकरण होता है या किसी छोटी निजी कम्पनी का बड़ी कम्पनी द्वारा अधिग्रहण होता है तो मजदूर इस डर से आन्दोलन करते हुए देखे गये हैं कि अब उन्हें रोजगार से हाथ धोना होगा। 

RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

पृष्ठ संख्या 152

प्रश्न 9. 
दलित साहित्य के बारे में और पता कीजिए। दलित रचनाओं में से अपनी पसन्द की कोई कविता या अपनी पसन्द की किसी अन्य कृति पर चर्चा करें।
उत्तर:
दलित साहित्य - 

  1. दलित साहित्य समाज में व्याप्त ऊँच - नीच की व्यवस्था, जैसे-वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था का विरोध करता है क्योंकि यह व्यवस्था दलितों के दमन के लिए उत्तरदायी रही है।
  2. दलित साहित्य सामाजिक क्रांति का आह्वान करता है। 
  3. दलित साहित्य के कुछ लेखक सम्मान और पहचान के लिए सांस्कृतिक संघर्ष पर भी बल देते हैं। 
  4. दलित साहित्य में दलितों के आर्थिक एवं राजनीतिक शोषण के विरुद्ध आवाज उठायी गयी है। [नोट-छात्र दलित रचनाओं में से अपनी पसन्द की किसी कविता या अन्य कृति पर स्वयं चर्चा करें।]

RBSE Class 12 Sociology सामाजिक आंदोलन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
(अ) एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ कोई सामाजिक आन्दोलन न हुआ हो, चर्चा करें।

(ब) ऐसे समाज की कल्पना आप कैसे करते हैं ? इसका भी आप वर्णन कर सकते हैं। (नोट-इस प्रश्न के दो प्रकार से उत्तर दिये जा सकते हैं, जो निम्न प्रकार हैं-) 
उत्तर:
(अ) ऐसे समाज की कल्पना करना जहाँ कोई सामाजिक आन्दोलन न हुआ हो, बहुत कठिन है।

(ब) इस कल्पना का कारण-यदि समाज में सामाजिक आन्दोलन नहीं हुआ होता तो हमें आज निम्न सुविधाएँ नहीं मिलती

(अ) कार्यालय में काम के घण्टे व छुट्टी अनिश्चित होती, 

(ब) सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती, 

(स) पेंशन का अधिकार नहीं मिलता,

(द) समाज में परिवर्तन या बदलाव नहीं होता, 

(य) स्त्रियों को विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ, स्वतंत्रता, समानता का अधिकार नहीं मिलता, 

(र) पर्यावरण की रक्षा नहीं होती।
अथवा 
(अ) ऐसे समाज की कल्पना, जिसमें कोई सामाजिक आन्दोलन नहीं हुआ होहमारे ऐसे समाज की कल्पना जिसमें कोई सामाजिक आन्दोलन नहीं हुआ हो, इस प्रकार है सरल, परम्परागत एवं आदिम समाजों में प्रायः सामाजिक आन्दोलन नहीं होते थे, उनका जीवन काफी हद तक स्थिर था। ऐसे समाज में प्रदत्त गुणों का महत्त्व था और प्रदत्त गुणों के महत्त्व के कारण परम्परागत रूप से उच्च या शक्तिशाली वर्ग के लोगों को चुनौती भी नहीं दी जाती थी।

भाग्यवादी मान्यता के प्रबल होने के कारण व्यक्ति अपनी सामाजिक - आर्थिक प्रस्थिति को भगवान की देन मानता था तथा वह कितनी भी कष्टदायी क्यों न हो, अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम मानते हुए उससे संतुष्ट रहता था। इसलिए ऐसे समाजों में सामाजिक आन्दोलनों का प्रायः अभाव पाया जाता रहा है और परिवर्तनहीन ऐसे समाज अनेक पीढ़ियों तक एक जैसी विशेषताओं से मुक्त रहे हैं।

(ब) सामाजिक आन्दोलन विहीन उक्त समाज की कल्पना के कारणहमने निम्न कारणों से ऐसे समाज की कल्पना की है।

  1. इस समाज में प्रदत्त प्रस्थिति और भाग्यवादी मनोवृत्ति का बोलबाला था। 
  2. इस समाज में संगठन और शोषण के प्रति जागरूकता का अभाव था।
  3. इस समाज में लोग सामूहिक जीवन जीते थे। सामूहिक जीवन होने के कारण सभी कठिन परिश्रम करते थे तथा मिल-बाँटकर अपना जीवनयापन करते थे।
  4. इसमें न तो किसी प्रकार के वर्गीय भेद विकसित हुए थे और न जाति जैसी संस्तरणात्मक श्रेणियों का विकास हुआ था।
  5. उपर्युक्त स्थितियों में समाज के लोगों को न तो कभी सामाजिक आन्दोलन की आवश्यकता हुई और न ही इस दिशा में कोई प्रयास किये गये।

प्रश्न 2. 
निम्न पर लघु टिप्पणी लिखें
(अ) महिलाओं के आन्दोलन 

(ब) जनजातीय आन्दोलन। 
उत्तर:
(अ) महिलाओं के आन्दोलन:
(1) भारत में 19वीं शताब्दी में महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दों का आना: 19वीं शताब्दी के समाज सुधार आन्दोलनों में महिलाओं से सम्बन्धित अनेक मुद्दे उठाये गये। इनमें सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध एवं जाति भेद व अस्पृश्यता जैसी कुरीतियाँ प्रमुख थीं। इन प्रथाओं का विरोध करते हुए हिन्दी शास्त्रों का संदर्भ भी दिया गया।

(2) 20वीं सदी के प्रारम्भ में महिला आन्दोलन का स्वरूप:

  1. 20वीं सदी के प्रारम्भ में राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर पर महिलाओं के संगठनों में वृद्धि हुई। भारतीय महिला एसोसिएशन, अखिल भारतीय महिला कॉन्फ्रेंस, भारत में महिलाओं की राष्ट्रीय काउंसिल आदि संगठनों की शुरुआत सीमित कार्यक्षेत्र से हुई, इनका कार्यक्षेत्र समय के साथ विस्तृत हुआ। ये संगठन ऐसा वातावरण बनाने में सफल हुए जहाँ महिलाओं के मुद्दों की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी।
  2. स्वतंत्रता के पूर्व के काल में जनजातीय तथा ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले संघर्षों में महिलाओं ने पुरुषों के साथ भाग लिया। तिभागा आन्दोलन, तेलंगाना आन्दोलन इसके उदाहरण हैं।

(3) महिला आन्दोलन का दूसरा दौर:सन् 1970 के दशक के मध्य में भारत में महिला आन्दोलन का नवीनीकरण हुआ। कुछ लोग इसे भारतीय महिला आन्दोलन का दूसरा दौर कहते हैं। इस दौर में 'स्वायत्त महिला आन्दोलन' कहे जाने वाले आन्दोलनों में वृद्धि हुई। ये महिला संगठन राजनैतिक दलों से स्वतंत्र थे। इस दौर में संगठनात्मक परिवर्तन के अलावा कुछ नए मुद्दे भी थे, जैसे महिलाओं के प्रति हिंसा, भू-स्वामित्व व रोजगार के मुद्दों की लड़ाई, यौन-उत्पीड़न तथा दहेज के विरुद्ध अधिकारों की माँग इत्यादि । महिला आन्दोलनों के फलस्वरूप महत्त्वपूर्ण कानूनी परिवर्तन आए हैं।

(ब) जनजातीय आन्दोलन देश भर में फैले विभिन्न जनजातीय समूहों के मुद्दे समान हो सकते हैं, लेकिन उनके विभेद भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं।

(1) मध्य भारत में जनजातीय आन्दोलन: जनजातीय आन्दोलनों में से कई अधिकांश रूप से मध्य भारत की तथाकथित 'जनजातीय बेल्ट' में स्थित रहे हैं जैसे - छोटा नागपुर व संथाल परगना में स्थित संथाल, हो, ओरांव व मुंडा। नए गठित हुए झारखण्ड प्रदेश का मुख्य भाग इन्हीं से बना है। झारखण्ड में जनजातीय आन्दोलन का इतिहास सौ वर्ष पुराना है। जनजातीय आन्दोलन जनजातियों की समस्याओं को लेकर किए जाते हैं।

अंग्रेजी शासकों की नीतियाँ किसीन - किसी रूप में जनजातीय समाज को प्रभावित करती रही हैं तथा इन नीतियों के विरुद्ध जनजातियाँ संघर्षरत रहीं। बाहरी लोगों द्वारा अपने सांस्कृतिक मूल्यों को जनजातीय संस्कृति पर थोपने, वन एवं वन सम्पदा पर सरकारी एकाधिकार की नीति, बाहरी लोगों द्वारा जनजातियों का शोषण करने तथा अंग्रेजों की जनजातीय क्षेत्रों में विस्तारवादी नीति के कारण अंग्रेजी काल में अनेक जनजातीय आन्दोलन हुए।

(2) पूर्वोत्तर भारत में जनजातीय आन्दोलन: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने राज्यों के निर्माण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की, उसने इस क्षेत्र के सभी प्रमुख पर्वतीय क्षेत्र के जिलों में अशांति की प्रवृत्ति पैदा की। अपनी पृथक् पहचान तथा पारम्परिक स्वायत्तता के प्रति सचेत ये जातियाँ असम के प्रशासनिक तंत्र में सम्मिलित किए जाने के बारे में अनिश्चित थीं। एक मुख्य मुद्दा जो देश के विभिन्न भागों के जनजातीय आन्दोलनों को जोड़ता है, वह है जनजातीय लोगों का वन - भूमि से विस्थापन । इस अर्थ में पारिस्थितिकीय मुद्दे जनजातीय आन्दोलनों के केन्द्र में हैं। लेकिन इसी प्रकार पहचान की सांस्कृतिक असमानता व विकास जैसे आर्थिक मुद्दे भी हैं जिनके कारण जनजातियाँ आन्दोलन करती रही हैं।

RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

प्रश्न 3. 
भारत में पुराने तथा नए सामाजिक आन्दोलन में स्पष्ट भेद करना कठिन है। क्यों?
उत्तर:
भारत में महिलाओं, कृषकों, दलितों, आदिवासियों तथा अन्य सभी प्रकार के सामाजिक आन्दोलन हुए हैं। क्या इन आन्दोलनों को 'नए सामाजिक आन्दोलन' समझा जा सकता है।

(1) लेकिन सामाजिक असमानता तथा संसाधनों के असामान्य वितरण के बारे में चिन्ताएँ इन आन्दोलनों में भी आवश्यक तत्त्व बने हुए हैं। उदाहरण के लिए, कृषक आन्दोलनों ने अपने उत्पादन हेतु बेहतर मूल्य तथा कृषि सम्बन्धी सहायता के हटाए जाने के विरुद्ध लोगों को गतिशील किया है। दलित मजदूरों ने सामूहिक प्रयास करके सुनिश्चित किया है कि उच्च जाति के भू-स्वामी तथा महाजन उनका शोषण न कर पाएँ। महिलाओं के आन्दोलनों ने लिंग - भेद के मुद्दों पर कार्यस्थल तथा परिवार के अन्दर जैसे विभिन्न दायरों में काम किया है।

(2) साथ ही साथ ये नए सामाजिक आन्दोलन आर्थिक असमानता के 'पुराने' मुद्दों के बारे में ही नहीं हैं, न ही ये वर्गीय आधार पर संगठित हैं। पहचान की राजनीति, सांस्कृतिक चिन्ताएँ तथा अभिलाषाएँ सामाजिक आन्दोलनों की रचना करने के आवश्यक तत्त्व हैं तथा इनकी उत्पत्ति वर्ग - आधारित असमानता में ढूँढना कठिन है। प्रायः ये सामाजिक आन्दोलन वर्ग की सीमाओं के आर - पार से भागीदारों को एकजुट करते हैं। उदाहरण के लिए, महिलाओं के आन्दोलन में नगरीय, मध्यवर्गीय महिलावादी तथा गरीब कृषक महिलाएँ सभी शामिल होती हैं। पृथक् राज्य के दर्जे की माँग करने वाले क्षेत्रीय आन्दोलन व्यक्तियों के ऐसे विभिन्न समूहों को अपने साथ शामिल करते हैं जो एक सजातीय वर्ग की पहचान नहीं रखते।

प्रश्न 4. 
पर्यावरणीय आन्दोलन प्रायः आर्थिक एवं पहचान के मुद्दों को भी साथ लेकर चलते हैं। विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरणीय आन्दोलन प्रायः आर्थिक एवं पहचान के मुद्दों को भी साथ लेकर चलते हैं । विकास के नाम पर होने वाला वनों का कटाव स्थानीय लोगों के सामने न केवल अनेक प्रकार की आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न कर देता है, अपितु उनकी पहचान का मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण बन जाता है। बड़े बाँध लोगों को उनके घरों और जीवनयापन के स्रोतों दोनों से अलग कर देते हैं जिनमें आर्थिक एवं पहचान दोनों प्रकार के मुद्दे प्रमुख हो जाते हैं। चिपको आन्दोलन इस बात का सटीक उदाहरण है। यथा चिपको आन्दोलन-चिपको आन्दोलन उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में होने वाला महत्त्वपूर्ण आन्दोलन माना जाता है। चिपको आन्दोलन का तात्पर्य पेड़ों को काटे जाने के विरोध में उनकी रक्षा हेतु पेड़ों से चिपक जाना है, ताकि उन्हें काटने से बचाया जा सके। 

यह आन्दोलन अंग्रेजी शासनकाल में प्रारम्भ हुआ और अंग्रेजी सेना ने इसे कुचल दिया। स्वतंत्रता के बाद भी वनों की कटाई जारी रही। वनों के कटाव, सरकार के वनों पर बढ़ते हुए नियंत्रण, वनों की नीलामी, जनसंख्या में वृद्धि, भूमि के कटाव, जल की कमी आदि समस्याओं ने भोटिया जनजाति को आर्थिक एवं पहचान की समस्या से ग्रसित कर दिया। फलस्वरूप सर्वोदयी नेता चण्डीप्रसाद भट्ट ने स्थानीय लोगों को संगठित कर पुनः चिपको आन्दोलन का प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे यह आन्दोलन भोटिया बहुल गाँवों से गैर - जनजातीय गाँवों तक फैल गया। भोटिया स्त्रियों ने भी चिपको आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। सुन्दरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में यह आन्दोलन आज भी सक्रिय है।

चिपको आन्दोलन में आर्थिक एवं पहचान के मुद्दे - चिपको आन्दोलन ने गाँववासियों के लिए जीवननिर्वहन का प्रश्न खड़ा कर दिया है क्योंकि गाँव के अधिकांश लोग ईंधन के लिए के लिए लकड़ी, चारा तथा अन्य दैनिक आवश्यकताओं के लिए जंगलों पर निर्भर थे। इस संघर्ष ने गरीब गाँववासियों को आजीविका की आवश्यकताओं को बेचकर राजस्व कमाने की सरकार की इच्छा के समक्ष खड़ा कर दिया। जीवन-निर्वहन की अर्थव्यवस्था, मुनाफे की अर्थव्यवस्था के विपरीत खड़ी थी। सामाजिक असमानता के इस मुद्दे के साथ चिपको आन्दोलन ने पारिस्थितिकीय सुरक्षा एवं पहचान के मुद्दे को भी उठाया। प्राकृतिक जंगलों का काटा जाना पर्यावरणीय विनाश का एक रूप था जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्र में विनाशकारी बाढ़ तथा भूस्खलन हुए। स्पष्ट है कि पर्यावरणीय आन्दोलन प्रायः आर्थिक एवं पहचान के मुद्दों को भी साथ लेकर चलते हैं। 

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प्रश्न 5. 
कृषक एवं नव-किसान आन्दोलनों के मध्य अन्तर बताइये। 
उत्तर:
कृषक एवं नव - किसान आन्दोलनों के मध्य अन्तर कृषक एवं नव - किसान आन्दोलनों के मध्य प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं

  1. कृषक आन्दोलन भारत की स्वतंत्रता से पूर्व चलाए गए थे, जबकि नव - किसान आन्दोलन स्वतंत्रता के बाद प्रारम्भ हुए।
  2. कृषक आन्दोलन कृषकों द्वारा चलाए गये थे, जबकि नव - कृषक आन्दोलन किसानों द्वारा चलाए गये थे। 
  3. कृषक आन्दोलन भू स्वामियों, साहूकारों, नौकरशाहों तथा पुलिस व सेना के द्वारा कृषकों के शोषण से उत्पन्न हुए, जबकि नव - किसान आन्दोलन राज्य - विरोधी तथा नगर - विरोधी थी।
  4. कृषक आन्दोलन के प्रमुख मुद्दे थे - शोषण से मुक्ति से संबंधित थे; दूसरी तरफ नव - किसान आन्दोलन के मुद्दे - मूल्यों एवं उससे सम्बन्धित थे।
  5. कृषक आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस, किसान सभा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किया गया था, नवकिसान आन्दोलन दल रहित थे।
Prasanna
Last Updated on June 3, 2022, 10:14 a.m.
Published June 2, 2022