RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 12 Sociology Solutions Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

RBSE Class 12 Sociology सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
सामाजिक विषमता व्यक्तियों की विषमताओं से कैसे भिन्न है?
उत्तर:
सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति ही साधारण रूप से सामाजिक विषमता कहलाती है। कुछ सामाजिक विषमतायें ऐसी भी होती हैं जो कि व्यक्तियों के बीच स्वाभाविक भिन्नताओं को प्रतिबिम्बित करती हैं। उदाहरण के लिए, लोगों की योग्यता और प्रयासों में भिन्नता। कोई व्यक्ति असाधारण रूप से बुद्धिमान और प्रतिभावान हो सकता है अथवा यह भी हो सकता है कि उसने समृद्धि और अपनी अच्छी स्थिति को पाने के लिए कठोर परिश्रम किया हो। इतना होने पर भी सामाजिक विषमता व्यक्तियों के बीच सहज अथवा प्राकृतिक भिन्नता की वजह से नहीं है अपितु यह उस समाज द्वारा उत्पन्न असमानता से पैदा होती है जिसमें कि वह व्यक्ति निवास करता है।

प्रश्न 2. 
सामाजिक स्तरीकरण की कुछ विशेषताएँ बताइए। 
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण की निम्न विशेषताएँ हैं।
(1) एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में सामाजिक स्तरीकरण व्यक्तियों के बीच की विभिन्नता का प्रकार्य ही नहीं अपितु समाज की एक विशिष्टता है। सामाजिक स्तरीकरण समाज में पाई जाने वाली व्यवस्था है जो सामाजिक संसाधनों को, लोगों को विभिन्न श्रेणियों में, असमान रूप से विभक्त करती है। तकनीकी रूप से सर्वाधिक आदिम समाजों में जैसे कि शिकारी अथवा संग्रहणकर्ता आदिम समाजों में बहुत कम उत्पादन हो पाता था, अत: वहाँ पर प्राथमिक रूप से सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता था। तकनीकी रूप से अधिक उन्नत समाज में जहाँ लोग अपनी आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन किया करते हैं, सामाजिक संसाधन विभिन्न सामाजिक श्रेणियों में असमान रूप से विभक्त होता है जिसका लोगों की व्यक्तिगत क्षमताओं से कुछ भी लेना - देना नहीं होता है।

(2) पीढ़ी दर पीढी हस्तांतरित: सामाजिक स्तरीकरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहता है। यह परिवार और संसाधनों के एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में घनिष्ठता के साथ जुड़ा हुआ है। एक व्यक्ति की समाज में जो प्रस्थिति होती है वह तो समाज के द्वारा प्रदत्त होती है अथवा वह स्वयं के द्वारा अर्जित की गई होती है। अतः बच्चे भी अपनी प्रस्थिति को अपने माता-पिता से प्राप्त करते हैं। जो व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसके लिए व्यवसाय का निर्धारण जाति के द्वारा किया जाता है। दलित, पारम्परिक व्यवसाय जैसे - नाई, खेतिहर मजदूर, सफाई करने वाले अथवा चमड़े का काम करने वाले अपने परम्परागत व्यवसायों में बँधकर रह जाते हैं। इनके पास उच्च व्यवसाय अथवा उच्च वेतन वाले अवसर बहुत कम होते हैं। सामाजिक अक्षमता का प्रदत्त पक्ष अन्तर्विवाह प्रथा से और सुदृढ़ होता है। चूँकि वैवाहिक सम्बन्ध अपनी ही जाति में किये जाते हैं, अतः अन्तर्जातीय विवाह द्वारा जातीय विभाजनों को क्षीण करने की सम्भावना कम हो जाती है।

(3) विश्वास एवं विचारधारा द्वारा समर्पित-सामाजिक स्तरीकरण को विश्वास अथवा विचारधारा के द्वारा समर्थन प्राप्त होता है। जब तक इसे व्यापक तौर पर माना न जाये तब तक सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को नहीं चल सकती है। उदाहरण के लिए, जाति व्यवस्था को धार्मिक अथवा कर्मकाण्डीय दृष्टिकोण से शुद्धता एवं अशुद्धता के आधार पर न्यायोचित ठहराया जाता है। जिसके अन्तर्गत अपने जन्म और व्यवसाय के आधार पर ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थिति प्राप्त होती है जबकि दलितों को समाज में निम्न स्थिति प्राप्त होती है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि सामाजिक स्तरीकरण की अनेक विशेषताएँ होती हैं। 

प्रश्न 3. 
आप पूर्वाग्रह और अन्य किस्म की राय अथवा विश्वास के बीच भेद कैसे करेंगे?
उत्तर:
पूर्वाग्रह - यह एक समूह के सदस्यों द्वारा दूसरे समूह के बारे में पूर्वकल्पित विचार अथवा व्यवहार होता है। इस शब्द का अक्षरशः अर्थ 'पूर्व निर्णय' अथवा वह धारणा होती है जो कि बिना विषय को जाने और बिना उसके तथ्यों के समझे आरम्भ में बना ली जाती है। पूर्वाग्रह से ग्रसित एक व्यक्ति के पूर्वकल्पित विचार सबूत - साक्ष्यों के विपरीत सुनी-सुनाई बातों पर अधिक आधारित होते हैं, जो कि नई जानकारी मिल जाने के बाद भी बदलने से इन्कार कर देते हैं। पूर्वाग्रह सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी हो सकता है। यद्यपि इस शब्द का प्रयोग प्रायः नकारात्मक अर्थों में अधिक किया जाता है।

राय अथवा विश्वास-राय अथवा विश्वास पूर्वाग्रहों से अलग होते हैं। विश्वास अपनी स्वयं की मान्यताओं पर आधारित होते हैं, जिन्हें हम श्रेष्ठ और उचित मानते हैं और जिनके बारे में हम जानते हैं, उन पर ही विश्वास किया जाता है। उदाहरण के लिए, धर्म विश्वास पर आधारित होता है। यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि हम जिस पर विश्वास कर रहे हैं वह सही हो। फिर भी विश्वास सत्य और सही के अधिक निकट होता है। इसमें किसी की कही अथवा सुनी बातों पर निर्भर नहीं रहा जाता है। इसमें व्यक्ति की सोच और विवेक पर भी बल दिया जाता है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति की आत्मा अथवा मन से भी हो सकता है। यही कारण है कि विश्वास ज्यादातर आत्मिक सन्तुष्टि प्रदान करता है। जहाँ तक राय का प्रश्न है तो वह हमारी व्यक्तिगत मान्यता होती है, जिसे हम अपने दृष्टिकोण से देखते हैं। जिसे हम सही और उचित समझते हैं, उसी को हम अपनी राय के रूप में व्यक्त करते हैं। लेकिन राय के लिए भी यह आवश्यक नहीं है कि वह पूरी तरह से समाज सम्मत अथवा लोककल्याणकारी ही हो, फिर भी राय अपनी मनोवैज्ञानिक धारणा हो सकती है।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है पूर्वाग्रह, राय अथवा विश्वास से अलग होते हैं जहाँ पूर्वाग्रह पूर्व मान्यताओं पर आधारित होते हैं जिसमें विवेक का प्रयोग नहीं किया जाता है और बिना सोचे - समझे किसी तथ्य को स्वीकार कर लिया जाता है परन्तु विश्वास सत्य और अच्छाई के ज्यादा निकट होते हैं।

प्रश्न 4. 
सामाजिक अपवर्जन या बहिष्कार क्या है?
उत्तर:
सामाजिक अपवर्जन या बहिष्कार का अर्थ - सामाजिक अपवर्जन अथवा बहिष्कार को उन तौरतरीकों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिनके द्वारा किसी व्यक्ति अथवा समूह को समाज में पूर्ण रूप से घुलने - मिलने से रोका जाता है तथा उन्हें समाज से पृथक् रखा जाता है।

सामाजिक अपवर्जन की विशेषताएँ:

  1. यह उन सभी कार्यों से सम्बन्धित है जो कि किसी व्यक्ति अथवा समूह को उन अवसरों से वंचित करते हैं जो कि समाज में अधिकांश लोगों के लिए खुले होते हैं।
  2. भरपूर जीवन को जीने के लिए, व्यक्ति के जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं (जैसे - रोटी, कपड़ा और मकान) के अतिरिक्त अन्य आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं (जैसे - शिक्षा, स्वास्थ्य और यातायात के साधन, बीमा, सुरक्षा, बैंक, पुलिस और न्यायपालिका) की भी आवश्यकता होती है, बहिष्कार व्यक्ति को इन सबसे वंचित कर देता है।
  3. सामाजिक भेदभाव अथवा अपवर्जन आकस्मिक अथवा अनायास रूप में नहीं होता अपितु व्यवस्थित तरीके से होता है।
  4. सामाजिक भेदभाव समाज की संरचनात्मक विशेषता का परिणाम होता है।
  5. सामाजिक बहिष्कार अनैच्छिक होता है। दूसरे शब्दों में बहिष्कार बहिष्कृत व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध कार्यान्वित होता है।
  6. कई बार सामाजिक बहिष्कार को गलत अथवा अनुचित तरीके से न्यायसंगत ठहराया जाता है कि बहिष्कृत व्यक्ति स्वयं ही सम्मिलित होने का इच्छुक नहीं है। इस प्रकार के दिये गये तर्क इच्छित वस्तु के सन्दर्भ में पूरी तरह से गलत एवं अनुचित होते हैं।
  7. बहिष्कृत व्यक्ति के लिए समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के अवसर बन्द हो जाते हैं।
  8. सामाजिक बहिष्कार के अन्तर्गत बहिष्कृत व्यक्ति की इच्छा और अनिच्छाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सामाजिक बहिष्कार किसी व्यक्ति अथवा समूह को समाज में घुलनेमिलने से रोकने से सम्बन्धित होता है।

प्रश्न 5. 
आज जाति और आर्थिक असमानता के बीच क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
जाति व्यवस्था एक विशिष्ट भारतीय सामाजिक संस्था है जो कि विशेष जातियों में जन्मे व्यक्तियों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण व्यवहार को क्रियान्वित करती है एवं उसे न्यायसंगत ठहराती है।

जाति और आर्थिक असमानता-जाति व्यवस्था में व्यक्ति की प्रस्थिति और उसका व्यवसाय जाति के द्वारा ही निश्चित होते थे। जाति व्यवस्था के द्वारा ही व्यक्तियों के लिए व्यावसायिक अधिक्रमित स्थिति को निश्चित किया जाता था।

वर्तमान समाज में जाति और आर्थिक असमानता में सम्बन्ध-आज के दौर में समाज निश्चित रूप से बदला है परन्तु व्यापक रूप से समाज में परिवर्तन नहीं हुए हैं। आज भी समाज के साधन-सम्पन्न तथा उच्च ओहदों वाले वर्ग में अत्यधिक कथित उच्च जातियों के लोग ही हैं। इसके विपरीत वंचित (तथा निम्न आर्थिक स्थिति वाले) वर्ग में कथित निम्न जाति के लोगों की प्रधानता को देखा जा सकता है। इसके अलावा कथित उच्च व दलित जातियों के गरीब और सम्पन्न तबकों के अनुपात में जमीन-आसमान का अन्तर देखा जा सकता है। यद्यपि स्वतंत्र भारत में भी राजसत्ता के द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र में जाति व्यवस्था पर अंकुश लगाने के प्रयास किये गये हैं। 

संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया है। कानूनों के प्रावधान के अन्तर्गत भी अस्पृश्यता और जातीय भेदभावों को समाप्त कर दिया है। इन सभी प्रकार के प्रयासों के बावजूद भी 21वीं सदी में भी यही जाति व्यवस्था व्यक्तियों के सभी प्रकार के सामाजिक अवसरों तथा व्यवसायों को प्रभावित कर रही है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था चाहे कानूनी रूप से और संवैधानिक रूप से समाप्त कर दी गई हो फिर भी आज समाज व्यवस्था में इसके आर्थिक प्रभावों को देखा जा सकता है।

प्रश्न 6. 
अस्पृश्यता क्या है?
उत्तर:
अस्पृश्यता का अर्थ - अस्पृश्यता अथवा छुआछूत जाति व्यवस्था का एक घृणित और दूषित पक्ष है, जो कि धार्मिक एवं कर्मकाण्डीय दृष्टि से शुद्धता एवं अशुद्धता के पैमाने पर सबसे नीची मानी जाने वाली जातियों के लोगों के विरुद्ध अत्यन्त कठोर अनुशास्तियों (दण्डों) का प्रावधान करती है। अस्पृश्यता के आयाम - इसके तीन प्रमुख आयाम हैं।

  1. अपवर्जन अथवा बहिष्कार।
  2. अनादर एवं अधीनता। 
  3. शोषण की प्रवृत्ति।

अस्पृश्यता का स्वरूप - अस्पृश्य लोगों को जाति व्यवस्था में कोई स्थान नहीं दिया जाता है। इन लोगों को समाज में इतना अशुद्ध माना जाता है कि उच्च जातियों के लोग इनके स्पर्श मात्र से अपवित्र हो जाते हैं। इसमें एक ओर जहाँ अशुद्ध कहे जाने वाले व्यक्ति को दण्ड भुगतना पड़ता है तो दूसरी ओर उच्च जाति के व्यक्ति को भी शुद्ध होने के लिए धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करना पड़ता है। अछूतों को पेयजल स्रोतों से पानी नहीं भरने दिया जाता है। उनके कुएँ, हैण्डपम्प और घाट अलग होते हैं। ये सामूहिक पूजा - आराधना, सामाजिक उत्सव और त्योहारों में भाग नहीं ले सकते हैं।

इन लोगों से बेगार ली जाती है तथा इनसे कई काम जबरदस्ती करवाये जाते हैं, जैसे-सामाजिक अथवा धार्मिक उत्सवों पर इनसे जबरदस्ती ढोल - नगाड़े बजवाना। अनादर तथा अधीनतापूर्वक अनेक प्रकार के कार्य सार्वजनिक रूप से करवाना अस्पृश्यता की प्रथा के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं।इसके अलावा अस्पृश्य जातियों के लोगों को तथाकथित रूप से समाज की उच्च जातियों के लोगों के प्रति जबरदस्ती अपना सम्मान प्रकट करने को बाध्य किया जाता है, जैसे - टोपी अथवा पगड़ी को उतारना, पहने हुए जूतों को अपने हाथों में पकड़कर जाना, सिर को झुकाकर के खड़े रहना, एकदम साफ तथा चमकते हुए कपड़ों को नहीं पहनना इत्यादि।

इन लोगों को समाज की उच्च जातियों के लोगों के द्वारा अपमानजनक शब्दों से पुकारा जाता है। इन लोगों को शिक्षा प्राप्ति तथा धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने नहीं दिया जाता है। समाज में हर प्रकार से इनका शोषण किया जाता है। इन लोगों के आवास और बस्तियाँ सवर्णों की बस्तियों से काफी दूर होती हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अस्पृश्यता समाज का दूषित और निन्दनीय पक्ष है। जिसमें दलित कही जाने वाली जातियों को सवर्णों के शोषण तथा अन्याय का सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 7. 
जातीय विषमता को दूर करने के लिए अपनाई गई कुछ नीतियों का वर्णन करें।
उत्तर:
जातीय विषमता को दूर करने के लिए समय - समय पर कई प्रावधान किये गये हैं।
1. आरक्षण सम्बन्धी प्रावधान-इसके अन्तर्गत सार्वजनिक जीवन के विभिन्न पक्षों में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए कुछ स्थानों को आरक्षित किया गया है। जैसे

(क) राज्य विधान मण्डलों, लोक सभा और राज्य सभा में स्थानों का आरक्षण।

(ख) सभी विभागों तथा सार्वजनिक क्षेत्र की सभी कम्पनियों के अन्तर्गत सरकारी सेवा में नौकरियों का आरक्षण।

(ग) शैक्षिक संस्थाओं में स्थानों का आरक्षण। आरक्षित सीटों का अनुपात अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जनसंख्या के अनुपात में रखा गया है।

2. संवैधानिक और कानूनी प्रावधान

(क) 1850 में जातीय निर्योग्यता अधिनियम बनाया गया। इसमें यह प्रावधान किया गया कि केवल धर्म और जाति के परिवर्तन के आधार पर ही नागरिकों के अधिकारों को कम नहीं किया जायेगा।।

(ख) हाल में ही सन् 2005 में 93वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया है, जिसके द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण दिया गया है। यहाँ पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जहाँ 1850 का अधिनियम सरकारी स्कूलों में दलितों को प्रवेश देने के सम्बन्ध में बनाया गया था।

(ग) सन् 1950 में भारत का संविधान क्रियान्वित किया गया, जिसके अनुच्छेद 17 के द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है तथा इसके व्यवहार को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है।

(घ) 1989 में अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम पारित किया गया। इसमें दलितों और आदिवासियों के विरुद्ध हिंसा और अपमानजनक कार्यों के लिए दण्ड देने के उपबन्धों में संशोधन करके उन्हें और कठोर बना दिया गया है।

(ङ) समाज सुधार आन्दोलन के अन्तर्गत समाज सुधारकों के द्वारा दलितों की स्थिति को सुधारने के प्रयास किये गये। ज्योतिबा फुले, इयोतीदास, पेरियार, अम्बेडकर तथा गाँधीजी द्वारा दलितों की स्थिति को सुधारने की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किये गये। विभिन्न राजनीतिक दल और राजनेताओं के द्वारा भी जाति प्रथा विरोधी और दलित जातियों की स्थिति को सुधारने की दिशा में कई प्रयास किये गये। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जातीय विषमता को दूर करने की दिशा में संविधान और कानून के द्वारा विभिन्न उपाय किये गए हैं।

प्रश्न 8. 
अन्य पिछड़े वर्ग दलितों (या अनुसूचित जातियों) से भिन्न कैसे हैं? 
उत्तर:
अन्य पिछड़ा वर्ग - भारत के संविधान में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अलावा कई समूह हो सकते हैं जो कि सामाजिक असुविधाओं से पीड़ित हैं। ऐसे समूहों के लिए जाति पर आधारित होना आवश्यक नहीं है परन्तु इन्हें प्रायः किसी जाति के नाम से ही जाना जाता है। ऐसे समूहों को 'सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग' के नाम से जाना जाता है। इन्हें जनसामान्य की भाषा में अन्य पिछड़े वर्ग' के नाम से जाना जाता है।

अन्य पिछड़ा वर्ग की नकारात्मक परिभाषा - ये लोग न तो जाति-क्रम में अगड़ी कही जाने वाली उच्च जातियों के हिस्से हैं और न ही निम्नतर सोपान पर स्थित दलितों में ही आते हैं। इनकी जाति केवल हिन्दू धर्म तक ही सीमित नहीं रही है, अपितु सभी जातियाँ धर्मों में प्रवेश कर गई हैं, इसलिए अन्य सभी धर्मों में भी पिछड़ी जातियाँ पाई जाती हैं तथा इनकी भी समान परम्परागत व्यावसायिक पहचान होती है। इनकी भी सामाजिक-व्यावसायिक स्थिति और पहचान वैसी ही अथवा उनसे भी बदतर होती है।

अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों में अन्तर - अन्य पिछड़ा वर्ग दलितों से भिन्न है। दलितों से उन लोगों का बोध होता है जिन्हें समाज में अछूत माना जाता रहा है और जिनके लिए समाज प्रदत्त कितनी ही सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यतायें होती हैं। इनके साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता है। इसके विपरीत अन्य पिछड़ा वर्ग में गैर दलित निम्न और मध्यम जातियों को शामिल किया जाता है जो कि कृषि, पशुपालन और विभिन्न शिल्पों में लगी हुई हैं। इनमें अस्पृश्यों से उच्च परन्तु ब्राह्मणों से निम्न स्तर की विभिन्न जातियों को शामिल किया जा सकता है, जो कि शैक्षिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं।

प्रश्न 9. 
आज आदिवासियों से सम्बन्धित बड़े मुद्दे कौनसे हैं ?
उत्तर:
भारतीय संविधान के द्वारा अनुसूचित जनजातियों अथवा आदिवासी लोगों को विशेष रूप से निर्धनता, शक्तिहीनता तथा सामाजिक लांछन से पीड़ित समूह के रूप में पहचाना गया है। आदिवासियों से सम्बन्धित बड़े मुद्दे - आज आदिवासियों से सम्बन्धित कई मुद्दे हैं।

1. आवास का मुददा - आज पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर देश का कोई भी भाग ऐसा नहीं है जहाँ पर केवल आदिवासी लोग ही रहते हों, केवल ऐसे इलाके हैं जहाँ जनजातीय लोगों का जमावड़ा अधिक है। दूसरे शब्दों में, आदिवासी लोगों की घनी आबादी है।

2. गैर - जनजातीय लोगों के आगमन का मुद्दा - 19वीं शताब्दी के मध्य में बहुत से गैर-जनजातीय लोग मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों में आकर बस गये हैं। इसके परिणामस्वरूप वहाँ के जनजातीय लोगों को रोजगार की तलाश में खानों, बागानों, कारखानों तथा अन्य रोजगार के साधन स्थलों पर भटकना पड़ रहा है।

3. रोजगार का मुद्दा - आज आदिवासी लोगों के सामने रोजगार का मुद्दा बना हुआ है। गैर - जनजातीय लोगों के इनके क्षेत्रों में आने से इन लोगों से रोजगार के परम्परागत साधन छिन गये हैं। आदिवासी लोगों को आज रोजगार की तलाश में बागानों, खानों, कारखानों तथा अन्य स्थानों पर रोजगार के लिए भटकना पड़ रहा है।

4. निर्धनता का मुददा - जनजातीय लोगों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति गैर जनजातीय लोगों की अपेक्षा बदतर है। आदिवासी लोग निर्धनता और निम्न स्थिति पर जीवन - यापन करने को मजबूर हैं। सरकारी स्तर पर वनों की लकड़ी को संरक्षित करने के लिए उपाय किये गये। जिससे आदिवासी लोगों से उनकी आजीविका के साधन छिनते चले गये और आदिवासियों का जीवन अभावों से परिपूर्ण तथा असुरक्षित बन गया।

5. शोषण का मुददा - औपनिवेशिक शासन काल में जब आदिवासियों से उनकी भूमि और संसाधन छिन गये तब आदिवासी लोगों के द्वारा अवैध रूप से इन संसाधनों का प्रयोग किया जाने लगा। तब औपनिवेशिक सरकार के द्वारा इन्हें चोर - उचक्के कहकर इनको दण्डित किया जाने लगा। कालान्तर में इन लोगों को दिहाड़ी की मजदूरी करने के लिए अन्य स्थानों पर पलायन करना पड़ा।

6. स्वतंत्र भारत में सरकारी नीतियाँ और आदिवासी - स्वतंत्र भारत में सरकार की औद्योगिक नीति और खनिजों के दोहन और विद्युत उत्पादन योजनाओं के कारण आदिवासियों की स्थिति और दयनीय बनती चली गई। इन सबके बहाने आदिवासियों से उनकी भूमि को छीना गया और उन्हें इसके लिए पर्याप्त मुआवजा भी नहीं दिया गया। इससे इनकी आर्थिक स्थिति दयनीय बनती चली गई। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आज आदिवासियों से सम्बन्धित कई जटिल मुद्दे हैं।

प्रश्न 10. 
नारी आन्दोलन ने अपने इतिहास के दौरान कौन-कौन से मुख्य मुद्दे उठाये हैं ? उत्तर-नारी आन्दोलन ने अपने इतिहास के दौरान निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाये हैं

  1.  सती प्रथा का मुद्दा - राजा राममोहन राय ने 19वीं शताब्दी में सती प्रथा का मुद्दा उठाया। उन्होंने सती प्रथा का विरोध मानवतावादी और नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धान्त तथा हिन्द्र शास्त्रों के आधार पर किया।
  2. विधवा पुनर्विवाह का मुद्दा - महादेव गोविन्द रानाडे द्वारा अपने लेखों और पुस्तकों द्वारा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया।
  3. स्त्रियों की दुर्बल स्थिति तथा स्त्री शिक्षा का मुद्दा - ज्योतिबा फुले ने नारियों की दुर्बल स्थिति के मुद्दे को उठाते हुए उनकी स्थिति को सुधारने पर बल दिया तथा स्त्री-शिक्षा की जोरदार वकालत की।
  4. मुस्लिम स्त्रियों का मुददा - सर सैयद अहमद खां के द्वारा मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति को सुधारने का मुद्दा उठाया गया। वे मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित किये जाने के प्रबल हिमायती थे।
  5. नारी शिक्षा का मुददा - दयानंद सरस्वती द्वारा स्त्री शिक्षा का जोरदार समर्थन किया गया। उनका मानना था कि लड़कियों के लिए अलग से पाठ्यचर्या हो जिसके तहत उन्हें धार्मिक उसूलों, घर-गृहस्थी चलाने की कलाओं तथा बच्चों को पालने-पोसने की शिक्षा दी जाये।
  6. सामाजिक समानता का मुददा - महाराष्ट्र की गृहिणी ताराबाई शिन्दे द्वारा अपने लेख 'स्त्री-पुरुष तुलना' में पुरुष-प्रधान समाज में अपनाए जाने वाले भेदभावपूर्ण मुद्दों को उठाया गया था।।
  7. बाल-विवाह का मुददा - राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती आदि अनेक समाज सुधारकों ने बाल-विवाह के मुद्दे को उठाते हुए इसका विरोध किया।
  8. 1970 के दशक में उठाये गये मुददे - 1970 के दशक और इसके बाद में स्त्रियों से संबंधित ये मददे उठाये गए-पुलिस अभिरक्षा में स्त्रियों के साथ बलात्कार, दहेज के लिए नारी हत्यायें, स्त्रियों का प्रतिनिधित्व तथा असमान विकास के लैंगिक परिणाम के मुद्दे।

प्रश्न 11. 
हम यह किस अर्थ में कह सकते हैं कि 'अक्षमता' जितनी शारीरिक है उतनी ही सामाजिक भी? 
उत्तर:
अक्षमता के लक्षण - अक्षमता के निम्न लक्षण हैं

  1. निर्योग्यता/अक्षमता को एक जैविक कमजोरी माना जाता है।
  2. जब कभी किसी अक्षम व्यक्ति के समक्ष कई बाधायें उपस्थित हो जाती हैं तो यह माना जाता है कि यह . समस्याएँ उसकी बाधा अथवा कमजोरी के कारण ही उत्पन्न हुई हैं।
  3. अक्षम व्यक्ति को शिकार अथवा पीड़ित व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। 
  4. यह स्वीकार किया जाता है कि निर्योग्यता उस व्यक्ति के अपने प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ जुड़ी हुई है। 
  5. निर्योग्यता इस बात को स्पष्ट करती है कि निर्दोष व्यक्ति को सहायता की आवश्यकता है।

शारीरिक अक्षमता - अक्षमता का शाब्दिक अर्थ है - शारीरिक तौर पर सक्षम नहीं होना। आज मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त, दृष्टि बाधित और शारीरिक रूप से बाधित जैसे शब्दों का प्रयोग पुराने घिसे - पिटे नकारात्मक भावों को प्रकट करने वाले शब्दों, जैसे - मन्दबुद्धि, अपंग अथवा लंगड़ा - लूला इत्यादि के स्थान पर किया जाने लगा है। जो विकलांग व्यक्ति होते हैं वे अपनी जैविक अक्षमता के कारण ही विकलांग नहीं होते हैं अपितु समाज के द्वारा भी उन्हें ऐसा बनाया जाता है।

सामाजिक अक्षमता - अक्षम व्यक्ति केवल शारीरिक रूप से ही अक्षम नहीं होते हैं अपितु समाज के द्वारा भी उन्हें अक्षम बनाया जाता है। जैसा कि ब्रिसेनडेन के द्वारा लिखा भी गया है - "हमें तो उन भव्य भवनों ने 'असक्षम' बनाया है जो हमारे प्रवेश के लिए नहीं बने हैं जिनमें प्रवेश करने की हमें इजाजत नहीं है और इसी के परिणामस्वरूप हम शिक्षा, रोजगार पाने के अपने अवसरों, सामाजिक जीवन इत्यादि के सम्बन्ध में आगे अधिकाधिक अक्षम होते चले जाते हैं। अक्षमता तो समाज की संरचना या विचारधारा में निहित है, व्यक्ति की शारीरिक दशा में नहीं।" 

अक्षमता - गरीबी एक सामाजिक अक्षमता के रूप में - अक्षमता सम्बन्धी सामाजिक विचारधारा का एक पहलू और भी है। अक्षमता और गरीबी एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। कुपोषण, बार - बार सन्तानों को जन्म देने से कमजोर होने वाली स्त्रियाँ रोग प्रतिरोधक क्षमता से रहित, भीड़ - भाड़ भरे घरों में दुर्घटनायें - ये सभी पक्ष एक साथ मिलकर निर्धन लोगों को अक्षमता की ऐसी स्थिति पर ला देते हैं जो कि आसान परिस्थितियों में जीवन - यापन करने वाले व्यक्तियों की तुलना में काफी गम्भीर मानी जाती हैं। इसके अलावा अक्षमता न केवल व्यक्ति के लिए अपितु उसके पूरे परिवार के लिए पृथक्करण और आर्थिक दबाव को बढ़ाते हुए निर्धनता की स्थिति पैदा करके उसे और अधिक गम्भीर बना देती है।

इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि अक्षमता के शिकार लोग गरीब देशों में ही अधिक पाये जाते हैं। न केवल ऐसे व्यक्तियों को अन्य लोगों के तिरस्कार का पात्र बनना पड़ता है अपितु उन्हें अपने जीवन को जीने के लिए कठोर संघर्ष भी करना पड़ता है।निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अक्षमता न केवल शारीरिक होती है अपितु सामाजिक भी होती है।

Prasanna
Last Updated on June 8, 2022, 10 a.m.
Published June 3, 2022