RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ: निरन्तरता एवं परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 12 Sociology Solutions Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

RBSE Class 12 Sociology सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
जाति व्यवस्था में पृथक्करण (Separation) और अधिक्रम (Hierarchy) की क्या भूमिका है?
उत्तर:
सैद्धान्तिक रूप से जाति व्यवस्था को सिद्धान्तों के दो समुच्चयों के मिश्रण के रूप में देखा और समझा जा सकता है। इनमें से पहला भिन्नता तथा पृथक्करण पर आधारित है और दूसरा सम्पूर्णता और अधिक्रम पर आधारित है।

1. पृथक्करण: प्रत्येक जाति के लिए यह आवश्यक और अपेक्षित होता है कि वह अन्य दूसरी जातियों से पृथक् एवं भिन्न हो। यही कारण है कि एक जाति अन्य जातियों से कठोरता के साथ पृथक् होती है। यही वजह है कि जाति के अधिकांश धर्मग्रंथसम्मत नियम और परम्पराओं की रूपरेखा विभिन्न जातियों को परस्पर मिश्रित होने से बचाने के लिए बनाई गई है। ऐसे नियमों में विवाह, खानपान, सहवास, जातीय सम्बन्ध, सामाजिक अन्तःक्रिया से लेकर व्यवसाय तक के नियम सम्मिलित होते हैं। दूसरी ओर वहीं पर इन विभिन्न एवं पृथक् जातियों का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं होता है।

ये वास्तव में संगठित और एक बड़ी सम्पूर्णता के साथ सम्बन्धित होकर ही अपने अस्तित्व तथा अस्मिता को बनाये रख सकती हैं। समाज की सम्पूर्णता में सभी जातियों को सम्मिलित किया जाता है। इससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह सामाजिक सम्पूर्णता अथवा व्यवस्था समतावादी व्यवस्था होने की अपेक्षा अधिक्रमित व्यवस्था है।

2. अधिक्रम: प्रत्येक जाति का समाज में एक विशिष्ट स्थान तो होता ही है परन्तु इसके साथ - साथ हर एक जाति का अपना एक श्रेणी क्रम भी होता है। पदसोपान की व्यवस्था में जो कि उच्च स्तर से निम्न स्तर की ओर आती है, प्रत्येक जाति का अपना एक निश्चित स्तर तथा स्थान होता है।

धार्मिक और कर्मकाण्डीय दृष्टिकोण से जाति की अधिक्रमित व्यवस्था शुद्धता अर्थात् शुचिता और अशुद्धता अर्थात् अशुचिता के मध्य अन्तर पर आधारित होती है। वे सभी जातियाँ जिन्हें कर्मकाण्ड की दृष्टि से शुद्ध और पवित्र माना जाता है, उनका स्थान समाज में उच्च होता है। इसके विपरीत जिन जातियों को कम शुद्ध अथवा अपवित्र माना जाता है, उन्हें समाज में निम्न स्थान प्राप्त होता है। प्रत्येक समाज में पाया जाता है कि सामाजिक प्रस्थिति आर्थिक और सैन्य शक्ति के साथ निकटता से जुड़ी होती है। जिनके पास यह शक्ति होती है, समाज में उनका स्थान और प्रस्थिति उच्च मानी जाती है, जबकि जिन लोगों के पास यह शक्ति नहीं होती है, समाज में उनकी स्थिति निम्न मानी जाती है। इतिहासकारों का मानना है कि जो जातियाँ और लोग युद्धों में पराजित हुए, उन्हें प्रायः समाज में निम्न स्थान ही प्राप्त हो पाया।

RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

प्रश्न 2. 
वे कौनसे नियम हैं जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है? कुछ के बारे में बताइए।
उत्तर:
प्रत्येक जाति में ऐसे कई नियम होते हैं, जिनका पालन करने के लिए उस जाति के सदस्य बाध्य होते हैं। यथा
1. जन्म का महत्त्व: जाति का निर्धारण व्यक्ति के जन्म से होता है। बालक अपने माता - पिता से जाति को ग्रहण करता है। कोई भी व्यक्ति अपने लिए जाति का चुनाव नहीं कर सकता है। अत: जाति की सदस्यता समाज द्वारा प्रदत्त होती है, न कि अर्जित।

2. विवाह और सहवास सम्बन्धी नियम: जाति की सदस्यता के साथ में विवाह और सहवास सम्बन्धी कठोर नियम सम्मिलित होते हैं। वस्तुतः जाति एक अन्तर्विवाही समूह है। अतः एक जाति के सदस्य अपनी ही जाति में अपने लिए जीवन - साथी का चुनाव करते हैं। जाति अपने सदस्यों को जाति से बाहर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति प्रदान नहीं करती है।

3. खानपान सम्बन्धी निर्योग्यतायें: जाति व्यवस्था में भोजन अथवा खानपान सम्बन्धी निश्चित नियम होते हैं। किस प्रकार का तथा किन लोगों के साथ खाना बाँटकर खाया जा सकता है, यह भी जाति में सुनिश्चित होता है। दूसरे शब्दों में जातियों में कच्चे, पक्के और फलाहारी खाने के निश्चित नियम पाये जाते हैं।

4. श्रेणी और प्रस्थिति का अधिक्रम: सैद्धान्तिक रूप से समाज में प्रत्येक व्यक्ति की एक निश्चित जाति होती है और प्रत्येक जाति का सभी जातियों के अधिक्रम में एक निश्चित स्थान होता है।

5. उपविभाजन: सभी जतियों में परस्पर उप - विभाजन पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक जाति में कई उप-जातियाँ पाई जाती हैं। इसे जाति अथवा समाज का खण्डात्मक विभाजन कहा जाता है।

6. निश्चित व्यवसाय: परम्परागत रूप से प्रत्येक जाति एक निश्चित व्यवसाय से जुड़ी होती है। एक जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने लिए उसी व्यवसाय का चुनाव कर सकता है, जो कि उसकी जाति के लिए निर्धारित होता है। कोई भी व्यक्ति अपने जातीय व्यवसाय को परिवर्तित नहीं कर सकता है।

प्रश्न 3. 
उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या - क्या परिवर्तन आये?
उत्तर:
उपनिवेशवाद और जाति - मानवशास्त्री और समाजशास्त्री इस तथ्य पर सहमत हैं कि औपनिवेशिक शासन के दौर में सभी महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्थाओं विशेष रूप से जातीय व्यवस्था और संगठन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये थे।

(1) औपनिवेशिक शासन में प्रयास: औपनिवेशिक काल के अन्तर्गत देशभर में विभिन्न जातियों और जनजातियों में प्रचलित प्रथाओं और रीतिरिवाजों के बारे में सुव्यवस्थित तरीके से गहन सर्वेक्षण किये गये तथा उनके सम्बन्ध में रिपोर्ट तैयार की गई।

(2) जनगणना: 1901 ई. में हरबर्ट रिजले के निर्देशन में की गई जनगणना में जातीय अधिक्रम के बारे में सूचना एकत्रित की गई। दूसरे शब्दों में, किस क्षेत्र में किस जाति को अन्य जातियों की अपेक्षा सामाजिक दृष्टि से कितना उच्च अथवा निम्न स्थान प्राप्त है, तत्पश्चात् श्रेणीक्रम में प्रत्येक जाति की स्थिति को निर्धारित कर दिया गया। समाजशास्त्रियों का मानना है कि इस प्रकार की जातीय गणना और जातीय अभिलेखों के परिणामस्वरूप जाति का परम्परागत स्वरूप ही बदल गया। ऐसे हस्तक्षेप से पहले जातिगत पहचान अपेक्षाकृत अस्थिर और कम कठोर थी। जब एक बार जातीय गणना करके उसे अभिलिखित कर लिया गया, तो यहीं से जातिगत नूतन जीवन का आरम्भ हुआ।

(3) भू-राजस्व व्यवस्था: औपनिवेशिक शासनकाल में भू-राजस्व व्यवस्थाओं और भू-राजस्व कानूनों ने उच्च जातियों के जातिगत अधिकारों को वैध बना दिया।

(4) दलित कल्याण:औपनिवेशिक शासन के अन्तिम चरण में पददलित अथवा दलित जातियों के कल्याण के प्रति रुचि ली जाने लगी। इन प्रयासों के अन्तर्गत 1935 ई. में भारत शासन अधिनियम पारित किया गया। जिसमें राज्य द्वारा निर्धारित विशेष व्यवस्था के अन्तर्गत निश्चित जातियों और जनजातियों को सूचियों अथवा अनुसूचियों के रूप में मान्यता प्रदान की गई। इसके परिणामस्वरूप 'अनुसूचित जाति' और 'अनुसूचित जनजाति' शब्दों का प्रचलन आरम्भ हुआ।

प्रश्न 4. 
किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत 'अदृश्य' हो गई है?
उत्तर:
आज जाति व्यवस्था उच्च जातियों, शहरी मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के लिए अदृश्य होती जा रही है। यथा
(1) इस वर्ग के लोग स्वातंत्र्योत्तरकालीन सरकार की विकासात्मक नीतियों से सर्वाधिक लाभान्वित हुए थे। इनके लिए आज जातिगत महत्त्व वास्तव में कम होता हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि अब इनका विकासात्मक कार्य काफी सीमा तक सम्पन्न हो चुका है। इन वर्गों में विशेष रूप से उच्च वर्गों में संभ्रान्त वर्ग के लोग सरकारी आर्थिक सहायता प्राप्त करके विशेष रूप से प्रौद्योगिकी, विज्ञान, आयुर्विज्ञान, चिकित्सा और प्रबन्धकीय शिक्षा से लाभान्वित होने में काफी सीमा तक सफल रहे।

(2) स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकारी क्षेत्र में नौकरियों का जो विस्तार हुआ, प्रारम्भिक दशकों में इस वर्ग के लोग उसका लाभ उठाने में सफल रहे। आजादी के बाद प्रारम्भिक दशक में समाज के शेष अन्य समहों की अपेक्षा इनकी स्थिति अग्रणी रही, जिसने यह सिद्ध कर दिया कि इस वर्ग के लोगों को किसी प्रकार की गम्भीर प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ा।

दूसरी और तीसरी पीढ़ी तक आते - आते इस विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की स्थिति काफी मजबूत हो गई, तब इन समूहों के लोगों को यह विश्वास होने लगा कि उनकी प्रगति और विकास में उनकी जाति की कोई भूमिका नहीं है। कटु सत्य तो यही था कि इस वर्ग की तीसरी पीढ़ी को उपलब्ध शैक्षिक एवं आर्थिक संसाधनों ने यह सुनिश्चित कर दिया कि भविष्य में भी इन वर्गों के लोगों को अपने जीवन में विकास के सर्वोत्तम अवसर प्राप्त होते रहेंगे।

आज वस्तुस्थिति यह है कि इन वर्गों के लिए अपने सामाजिक जीवन तथा प्रस्थिति निर्धारण में जाति की कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं रही है। वह धार्मिक परम्पराओं और रीति - रिवाज, नातेदारी और वैवाहिक सम्बन्धों के व्यक्तिगत क्षेत्र तक ही सीमित है। यद्यपि उच्च जातियों के सभी लोगों को यह सुविधा और विशिष्ट स्थिति प्राप्त नहीं हो सकी है; तथापि समाज के अन्य लोगों की अपेक्षा इन लोगों की स्थिति बेहतर है।

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प्रश्न 5. 
भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?
उत्तर: 
जनजातियों का वर्गीकरण - भारत में जनजातियों को 'स्थायी' और 'अर्जित' विशेषकों के अनुसार विभाजित किया गया है।
1. स्थायी विशेषक - स्थायी विशेषक अथवा लक्षणों में क्षेत्र, भाषा, शारीरिक बनावट और परिस्थिति आवास को सम्मिलित किया जाता है।

(i) क्षेत्र के आधार पर: भारत में जनजातीय जनसंख्या काफी विस्तृत है। परन्तु कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ जनजातीय जनसंख्या घनी है। जनजातीय जनसंख्या का 85 प्रतिशत भाग मध्य भारत में निवास करता है। जनजातीय जनसंख्या के शेष 15 प्रतिशत भाग में से 11 प्रतिशत से कुछ अधिक पूर्वोत्तर भारत में तथा 3 प्रतिशत से कुछ अधिक शेष भारत में निवास करते हैं।

(ii) जनसंख्या के आधार पर: जनसंख्यात्मक दृष्टि से यदि जनजातियों को देखा जाये तो पूर्वोत्तर भारत में इनकी आबादी घनी है, जहाँ असम को छोड़कर शेष राज्यों में इनका प्रतिशत 30 प्रतिशत से भी ज्यादा है। अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नागालैण्ड में तो जनजातीय जनसंख्या 60 प्रतिशत से भी ज्यादा है परन्तु शेष भारत में जनजातीय जनसंख्या का औसत प्रतिशत काफी कम है।

(iii) भाषागत विभाजन: भाषागत दृष्टि से जनजातियों को चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। जनजातीय जनसंख्या के लगभग 1 प्रतिशत लोग भारतीय आर्य परिवार की भाषायें तथा 3 प्रतिशत लोग द्रविड़ परिवार की भाषायें बोलते हैं। शेष दो अन्य भाषा समूह आस्ट्रिक और तिब्बती - बर्मी प्राथमिक रूप से जनजातीय लोगों के द्वारा बोली जाती है।

(iv) शारीरिक और प्रजातीय आधार पर: जनजातियों को नीग्रिटो, आस्ट्रैलॉइड, मंगोलाइड, द्रविड़ और आर्य श्रेणियों में विभाजित किया गया है। भारत की शेष जनसंख्या भी आर्य और द्रविड़ श्रेणियों में विभाजित रही है।।

(v) आकार के आधार पर विभाजन: आकार की दृष्टि से जनजातियों में काफी भिन्नता पाई जाती है। देश की सबसे बड़ी जनजाति की जनसंख्या 70 लाख से भी ज्यादा है, जबकि देश की सबसे छोटी जनजाति अर्थात् अण्डमान द्वीप वासियों की जनसंख्या लगभग 100 से भी कम है।

(vi) पारिस्थितिक आवास के आधार पर: ये जनजातियाँ वन, ग्रामीण मैदान तथा औद्योगिक क्षेत्रों में निवास करती हैं।

2. अर्जित विशेषक: अर्जित विशेषकों पर आधारित वर्गीकरण की प्रमुख कसौटियाँ जीविका के साधन और हिन्दू समाज में उनके आत्मसात् की सीमा अथवा दोनों के सम्मिश्रण पर आधारित हैं।

(i) आजीविका पर आधारित: आजीविका के आधार पर भारतीय जनजातियों को मछुआरे, खाद्य संग्राहक,आखेटक, झूमिंग कृषि करने वाले, कृषक, बागानों में काम करने वाले और औद्योगिक कामगारों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

(ii) हिन्दू समाज में आत्मसात्करण के आधार पर इस आत्मसात्करण को जनजातीय दृष्टिकोण से अथवा प्रबल हिन्दू मुख्यधारा के दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। एक ओर कुछ जनजातियाँ ऐसी हैं, जिनका झुकाव हिन्दू समाज के प्रति पाया जाता है, जबकि कुछ जनजातियों के द्वारा इसका प्रबल प्रतिरोध किया जाता है। देश की मुख्य धारा के दृष्टिकोण से कुछ जनजातियों को उच्च और अधिकांश जनजातियों को निम्न स्थान मिल पाता है।

प्रश्न 6. 
'जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग - थलग जीवन व्यतीत करते हैं', इस दृष्टिकोण के विषय में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?
उत्तर:
कई समाजशास्त्रियों का यह मानना है कि जनजातीय लोगों को ऐसे 'आदिम' अर्थात् मौलिक अथवा विशुद्ध समाज जो कि मानव सभ्यता से अछूते रहे हैं, मानने का कोई भी सुसंगत आधार नहीं है। इसके आधार पर इन मानवशास्त्रियों का यह सुझाव है कि जनजातियों को वास्तव में ऐसी द्वितीयक प्रघटना माना जाये जो पहले से विद्यमान राज्यों तथा जनजातियों जैसे राज्येतर समूहों के बीच शोषणात्मक और औपनिवेशिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप सम्पर्क में आयीं। ऐसा सम्पर्क स्वयं ही एक 'जनजातिवादी' विचारधारा को जन्म देता है। जनजातीय समूह नये सम्पर्क में आये अन्य लोगों से अपने आप को अलग दर्शाने के लिए स्वयं को जनजातियों के रूप में परिभाषित करने लगते हैं। 

प्रश्न 7. 
आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है, उसके पीछे क्या कारण हैं ?
अथवा 
आज विभिन्न जनजातियाँ किन कारणों से अपनी पहचान को बनाए रखने की दिशा में जागरूक हुई हैं ? 
उत्तर:
वर्तमान में जनजातीय पहचानों के आग्रह के कारण वर्तमान युग में जनजातीय पहचान को सुरक्षित बनाए रखने का आग्रह दिनों - दिन बढ़ता जा रहा है तथा इस पहचान को बनाए रखने का दावा भी किया जा रहा है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं। 

(1) मुख्य धारा के साथ अनुकूल शर्तों पर अन्तः क्रिया का न होना - मुख्यधारा की प्रक्रियाओं में जनजातीय समुदायों के बलात् समावेश का प्रभाव जनजातीय संस्कृति, समाज व उनकी अर्थव्यवस्था पर समान रूप से पड़ा है। आज जनजातीय पहचानें इस अन्तःक्रियात्मक प्रक्रिया से बन रही हैं। चूँकि मुख्यधारा के साथ अन्तःक्रिया प्रायः जनजातीय समुदायों के लिए अनुकूल शर्तों पर नहीं होती, इसलिए आज अनेक जनजातीय पहचानें, गैर - जनजातीय जगत् की दुर्दमनीय शक्ति का प्रतिरोध एवं विरोध करने के विचारों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रही हैं।

(2) मध्यम वर्ग का उदय: आज जनजातीय समुदायों में एक नये मध्यम वर्ग का उदय हो चुका है जो शिक्षित है। यह वर्ग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो चुका है। यह नया मध्यम वर्ग जनजातीय पहचान को सुरक्षित बनाए रखना चाहता है।

(3) संस्कृति और परम्पराएँ: आज बाहरी जातियों के सम्पर्क के कारण तथा इनके मूल क्षेत्रों में नये लोगों के आगमन के कारण इन लोगों की संस्कृति और परम्परा खतरे में पड़ गई है। ऐसी स्थिति में ये लोग अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

(4) भूमि तथा आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण: सरकार द्वारा वनों पर अपना आधिपत्य कर लिया गया है। जनजातीय क्षेत्रों में खनिज सम्पदा होने के कारण उन्हें अपने क्षेत्र खाली करने को कहा जा रहा है। सरकारी पुनर्वास से इन लोगों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है तथा इनके समक्ष जीविका का संकट उपस्थित हो रहा है। ऐसी स्थिति में इन लोगों के लिए अपनी पहचान को बनाए रखना आवश्यक हो गया है।

(5) परियोजनाओं के लाभ में हिस्सा: आधुनिक सरकारी परियोजनाओं के लाभ में हिस्सा मिलने की माँग भी जनजातियों में अपनी पहचान को सुरक्षित रखने के आग्रह का कारण है।

(6) अन्य कारण: आधुनिक शिक्षा, सरकार की आरक्षण नीति, आधुनिक व्यवसाय, प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि अनेक कारण भी जनजातीय लोगों को पहचान बनाये रखने की दिशा में अग्रसर किये हुए है।

प्रश्न 8. 
परिवार के विभिन्न रूप क्या हो सकते हैं? 
उत्तर:
अलग - अलग समाजों में परिवार के अलग-अलग रूप पाये जाते हैं। 

  1. मूल अथवा एकाकी परिवार: मूल परिवार वे परिवार होते हैं जिनमें माता-पिता तथा उनके बच्चों को सम्मिलित किया जाता है।
  2. विस्तृत परिवार: इन्हें संयुक्त परिवार भी कहा जाता है। इन परिवारों में एक से अधिक युगल अथवा दंपति निवास करते हैं। इन परिवारों में प्रायः दो या दो से अधिक पीढ़ियों के लोग साथ - साथ निवास करते हैं। दूसरे शब्दों में, एक दंपति जो अपने बेटों, पोतों तथा उनके परिवारों के साथ में रहता है, उसे संयुक्त परिवार अथवा विस्तारित परिवार कहा जाता है।
  3. परिवार के अन्य रूप: इन परिवारों के अलावा परिवार के निम्न रूप भी पाये जाते हैं। 

(क) स्थान के आधार पर परिवार-ये परिवार दो प्रकार के होते हैं। 

  1. पत्नी - स्थानिक परिवार- ये वे परिवार होते हैं जिनमें नवविवाहित जोड़ा अर्थात् पति - पत्नी दोनों वधू के माता - पिता के साथ निवास करते हैं।
  2. पति - स्थानिक परिवार - ऐसे परिवारों में नवविवाहित जोड़ा अर्थात् पति - पत्नी दोनों वर के माता - पिता के साथ निवास करते हैं।

(ख) उत्तराधिकार के आधार पर - ये परिवार दो प्रकार के होते हैं। 

  1. मातृवंशीय परिवार: ऐसे परिवारों में सम्पत्ति अथवा उत्तराधिकार माता से बेटी को प्राप्त होता है। जैसे कि केरल के नायर परिवार।
  2. पितृवंशीय परिवार: इन परिवारों में सम्पत्ति अथवा उत्तराधिकार पिता से पुत्र को प्राप्त होता है। 

(ग) सत्ता तथा प्रभुत्व के आधार पर - ये परिवार भी दो प्रकार के होते हैं। 

  1. मातृतंत्रात्मक परिवार: इन परिवारों में स्त्रियाँ समान प्रभुत्वकारी शक्तियों का निर्वाह करती हैं। यद्यपि ऐसे परिवारों के ऐतिहासिक तथा मानवशास्त्रीय प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं।
  2. पितृतंत्रात्मक परिवार: ऐसे परिवारों में परिवार की सत्ता तथा प्रभुत्व शक्ति पुरुषों के पास होती है। उन्हीं के द्वारा परिवार सम्बन्धी सभी प्रकार के निर्णय लिए जाते हैं।निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि विश्व के अलग - अलग भागों में परिवार के अलग - अलग रूप पाये जाते हैं।

RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन

प्रश्न 9. 
सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं?
उत्तर:
किसी भी समाज में परिवार की संरचना प्रायः समाज की अन्य संरचनाओं, जैसे - राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक इत्यादि संरचनाओं के साथ में जुड़ी होती है। वास्तव में परिवार की संरचना में परिवर्तन नहीं आते हैं अपितु सांस्कृतिक विचार, मानकों तथा मूल्यों में परिवर्तन आते हैं। यद्यपि ऐसे परिवर्तनों को लाना सरल नहीं होता है। आज सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों से पारिवारिक संरचना में कई परिवर्तन आ रहे हैं।

(i) प्रवसन के कारण परिवर्तन - प्रवसन के परिणामस्वरूप परिवार में परिवर्तन आते हैं। जिन क्षेत्रों में पुरुषों को रोजगार तथा अन्य कारणों से अन्य स्थानों पर जाना पड़ता है वहाँ पर ऐसे परिवारों का अनुपात अधिक बढ़ जाता है जहाँ परिवार की मुखिया स्त्रियाँ होती हैं। जैसे हिमालय क्षेत्र के गाँवों में पाये जाने वाले परिवार।

(ii) परिवार के गठन में परिवर्तन - जहाँ पर माता - पिता का कार्य समय ऐसा होता है जिसके कारण वे अपने बच्चों की उचित तरीके से देखभाल नहीं कर पाते हैं वहाँ पर परिवार के बच्चों की देखभाल करने के लिए परिवार में दादा-दादी अथवा नाना-नानी की संख्या बढ़ जाती है। जैसे कि भारत में सॉफ्टवेयर उद्योग से जुड़े लोगों के परिवार।

(iii) युद्ध इत्यादि से होने वाले परिवर्तन - युद्ध के समय एक तो पुरुष युद्ध में चले जाते हैं, कई बार वे युद्ध में मारे जाते हैं। परिणामस्वरूप विधवा माताओं को बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है अथवा स्त्रियाँ पुनर्विवाह कर लेती हैं। परिणामस्वरूप कई बार पूर्व पिता के बच्चों को नये पिता के साथ रहना पड़ता है।

(iv) रोजगार के अवसर रोजगार के अवसरों के कारण लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थानों पर जाना पड़ता है। परिणामस्वरूप ये लोग अपने मूल परिवार को भी अपने साथ ले जाते हैं। जिसके कारण परम्परागत संयुक्त परिवार बिखरने लग जाते हैं तथा उनके स्थान पर एकाकी परिवार बनने लग जाते हैं।

(v) विशेष प्रयोजन से होने वाले परिवर्तन - कई बार परिवार में विशेष प्रयोजन से भी परिवर्तन आ जाते हैं। प्रेम विवाह तथा समलैंगिक विवाह इसके उदहरण हैं।

प्रश्न 10. 
मातृवंश (Matriliny) और मातृतंत्र (Matriarachy) में क्या अन्तर है? व्याख्या कीजिए। 
उत्तर:
मातृवंश तथा मातृतंत्र के अन्तर को निम्न बिन्दुओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

(1) मातृवंशीय परिवारों का निर्धारण उत्तराधिकार के आधार पर किया जाता है जबकि मातृतंत्रीय परिवारों का निर्धारण सत्ता तथा प्रभुत्व शक्ति के आधार पर किया जाता है।

(2) मातृवंशीय परिवारों में माता की मृत्यु के बाद उसकी सारी जायदाद अथवा सम्पत्ति की उत्तराधिकारी उसकी पुत्री को प्राप्त होती है जबकि मातृतंत्रीय परिवारों में माता की मृत्यु के बाद परिवार की सत्ता तथा प्रभुत्व शक्ति का प्रयोग पुत्री के द्वारा किया जाता है।

(3) मातृवंशीय परिवारों का अस्तित्व विश्व में कई जनजातियों में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, भारत में केरल के नायर परिवार तथा खासी परिवार मातृवंशीय परिवारों के ही उदाहरण हैं परन्तु मातृतंत्रीय परिवारों के ऐतिहासिक तथा मानवशास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में, जहाँ पर स्त्रियाँ अपनी माता से जायदाद अथवा सम्पत्ति पाती हैं परन्तु वास्तव में उस सम्पत्ति अथवा जायदाद पर उनका स्वामित्व नहीं होता है और न ही स्त्रियों को सार्वजनिक क्षेत्र में लेने का ही कोई अधिकार ही होता है।

Prasanna
Last Updated on June 8, 2022, 9:59 a.m.
Published June 3, 2022