Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sanskrit Shashwati Chapter 3 बालकौतुकम् Textbook Exercise Questions and Answers.
The questions presented in the RBSE Solutions for Class 12 Sanskrit are solved in a detailed manner. Get the accurate RBSE Solutions for Class 12 all subjects will help students to have a deeper understanding of the concepts. Read संस्कृत में कारक written in simple language, covering all the points of the chapter.
प्रश्न 1.
संस्कृतभाषया उत्तराणि लिखत -
(क) 'उत्तररामचरितम्' इति नाटकस्य रचयिता कः ?
(ख) नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनक: किं कथयति ?
(ग) लव: कौशल्यां रामभद्रं च कथमनुसरति ?
(घ) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति ?
(ङ) लवः कथं जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः?
(च) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेण्यः किं न सहन्ते ?
उत्तरम् :
(क) भवभूति: 'उत्तररामचरितम्' इति नाटकस्य रचयिता।
(ख) नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनकः कथयति-"शिष्टानध्यायः इति क्रीडतां वटूनां कोलाहलः"।
(ग) लवः कौशल्यां रामभद्रं च देहबन्धनेन स्वरेण च अनुसरति।
(घ) बटवः अश्वं भूतविशेषं वर्णयन्ति।
(ङ) लवः अश्वमेध-काण्डेन जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः।
(च) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतराः आयुधश्रेण्यः दृप्तां वाचं न सहन्ते।
प्रश्न 2.
रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणां महान् उत्कर्षनिकषः।
(ख) हे बटवः! लोष्ठैः अभिघ्नन्तः उपनयत एनम् अश्वम्।
(ग) रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति।
(घ) उत्पथैः मम मनः पारिप्लवं धावति।
(ङ) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपल: दृश्यते।
(च) विस्फारितशरासनाः आयुधश्रेण्यः कुमारं तर्जयन्ति।
(छ) निपुणं निरूप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव।
उत्तरम् :
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) अश्वमेध इति नाम केषां महान् उत्कर्ष-निकषः ?
(ख) हे बटवः ! कथं अभिघ्नन्तः उपनयत एनम् अश्वम् ?
(ग) रामभद्रस्य एष दारकः अस्माकं किं शीतलयति ?
(घ) उत्पथैः कस्य मनः पारिप्लवं धावति ?
(ङ) अतिजवेन दूरम् अतिक्रान्तः सः कथं दृश्यते ?
(च) विस्फारित-शरासनाः आयुधश्रेण्यः कं तर्जयन्ति ?
(छ) निपुणं निरुप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण कया संवदति एव ?
प्रश्न 3.
सप्रसङ्ग-व्याख्यां कुरुत -
(क) सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।
(ख) किं व्याख्यानैव्रजति स पुन(रमेह्यहि याम।
(ग) सुलभसौख्यमिदानी बालत्वं भवति
(घ) झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोरमृताञ्जनम् ?
उत्तरम् :
(क) सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में 'लव' के साथ ब्रह्मचारी-सहपाठी खेल रहे हैं। इसी समय कुछ बटुगण आकर, लव को आश्रम के निकट अश्वमेध घोड़े की सूचना देते हैं। यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा रक्षकों से घिरा हुआ है। लव उस अश्वमेध यज्ञ के महत्त्व को अपने मन में विचार करता हुआ कहता है
व्याख्या - यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है। यह क्षत्रियों की शक्ति का सूचक होता है। क्षत्रिय राजा, अपने बलवान् शत्रु राजा पर अपनी विजय की धाक जमाने के लिए इसे छोड़ता है। वास्तव में यह घोड़ा सभी शत्रुओं पर प्रभाव डालने वाले उत्कर्ष श्रेष्ठपन का सूचक होता है।
(ख) किं व्याख्यानैर्ऋजति स पुन(रमेयेहि यामः।
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम के निकट राम के अश्वमेध का घोड़ा घूमते-घूमते आ गया है। वहाँ खेलते हुए ब्रह्मचारी उस विशेष प्राणी को देखकर भागते हुए आश्रम में आते हैं और 'लव' के सामने उसका वर्णन करते हैं
व्याख्या - यह प्राणिविशेष लम्बी पूँछ को बारबार हिला रहा है। घास खाता है, लीद करता है, लम्बी गर्दन है, चार खुरों वाला है। अधिक कहने का समय नहीं है, यह जन्तु तेजी से आश्रम से दूर भागा जा रहा है, चलो आओ हम भी उसे देखते हैं। भाव यह है कि उसे बताने की अपेक्षा उसे देखना अधिक आनन्ददायक होगा।
(ग) सुलभं सौख्यम् इदानी बालत्वं भवति।।
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से उद्धृत है। वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में जनक, कौशल्या और अरुन्धती आए हुए हैं। उनके आने से आश्रम में अवकाश कर दिया गया है और सभी छात्रगण खेलते हुए शोर मचा रहे हैं। इस शोर को सुनकर, कौशल्या जनक को बता रही हैं
व्याख्या - बाल्यकाल में सुख के साधन सुलभ होते हैं। बच्चों को मजा लेने के लिए किसी खिलौने आदि की आवश्यकता नहीं होती। वे तो साधारण से खेल-कूद और हँसी-मजाक द्वारा ही सुख प्राप्त कर लेते हैं। सुख प्राप्ति के लिए उन्हें बड़े बहुमूल्य क्रीडा-साधनों की आवश्यकता नहीं होती। ये ब्रह्मचारी अपने बचपन का आनन्द ले रहे हैं।
(घ) झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोः अमृताञ्जनम्।
प्रसंगः - प्रस्तुत पंक्ति 'लवकौतुकम्' पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में, राम के पुत्र 'लव' को देखकर, अरुन्धती (वशिष्ठ की पत्नी) अत्यन्त प्रभावित है। वह उसके रूप सौन्दर्य को देखकर, राम के बचपन को स्मरण करती हुई जनक तथा कौशल्या से कहती है -
व्याख्या - यह बालक मेरे हृदय में अत्यन्त स्नेहभाव पैदा कर रहा है। इसे देखकर मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे कि बचपन के राम को देख रही हूँ। यह प्रिय बालक देखने पर मुझे इतना आकृष्ट कर रहा है, मानो मेरी आँखों में अमृत का अंजन लगा दिया है। इसे देखकर मुझे अत्यन्त तृप्ति मिल रही है।
प्रश्न 4.
अधोलिखितानि कथनानि कः कं कथयति ?
उत्तरसहितम् -
प्रश्न 5.
अधोलिखितवाक्यानां रिक्तस्थानपूर्ति निर्देशानुसारं कुरुत -
(क) क एषः ........ रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने .......। (क्रियापदेन)
(ख) एष ............. मे सम्मोहनस्थिरमपि मनः हरति। (कर्तृपदेन)
(ग) ................! इतोऽपि तावदेहि ! (सम्बोधनेन)
(घ) 'अश्वोऽश्व' .............. नाम पशुसमाम्नाये साङ्ग्रामिके च पठ्यते। (अव्ययेन)
(ङ) युष्माभिरपि तत्काण्डं ..................... एव हि। (कृदन्तपदेन)
(च) एष वो लवस्य ................. प्रणामपर्यायः। (करणपदेन)
उत्तरम् :
(क) क एषः अनुसरति रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति।
(ख) एष बलवान् मे सम्मोहनस्थिरमपि मनः हरति।
(ग) जात! इतोऽपि तावदेहि !
(घ) 'अश्वोऽश्व' इति नाम पशुसमाम्नाये सानामिके च पठ्यते।
(ङ) युष्माभिरपि तत्काण्डं पठितम् एव हि।
(च) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः।
प्रश्न 6.
अधः समस्तपदानां विग्रहाः दत्ताः। उदाहरणमनुसृत्य समस्तपदानि रचयत, समासनामापि च लिखत -
उदाहरणम् - पशूनां समाम्नायः, तस्मिन् पशुसमाम्नाये - षष्ठीतत्पुरुषः
उत्तरसहितम् :
प्रश्न 7.
अधोलिखित पारिभाषिक शब्दानां समुचितार्थेन मेलनं कुरुत -
उत्तरम् :
प्रश्न 8.
पाठमाश्रित्य हिन्दीभाषया लवस्य चारित्रिकवैशिष्ट्यं लिखत -
उत्तरम् :
(बालक लव का चरित्र चित्रण)
लव महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पालित-पोषित, राजा राम द्वारा निर्वासित भगवती सीता के जुड़वा पुत्रों में से एक है। वह आकृति में बिल्कुल राम जैसा है, उसकी आँखों में राम की आँखों जैसी चमक है। यही कारण है कि जब महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में राजर्षि जनक, कौशल्या और अरुन्धती अतिथि के रूप में पधारते हैं; तब खेलते हुए बालकों के बीच कौशल्या बालक लव को देखकर राम के बचपन की याद में खो जाती है। तीनों की बातचीत से पता लगता है कि लव का मुख सीता के मुखचन्द्र की भाँति है। उसका मांसल और तेजस्वी शरीर राम के तुल्य है। उसका स्वर बिल्कुल राम से मिलता-जुलता है।
लव शिष्टाचार में कुशल है। वह गुरुजनों का आदर करना जानता है और जनक आदि के आश्रम में पधारने पर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करता है। लव ने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा प्राप्त की है। इसीलिए जब चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम का अश्वमेधीय अश्व आश्रम में प्रवेश करता है; तब लव इस घोड़े को देखते ही पहचान जाता है कि यह अश्वमेधीय अश्व है, क्योंकि उसने युद्धशास्त्र तथा पशु-समाम्नाय में इस अश्व के बारे में पढ़ा हुआ है।
लव स्वभाव से वीर है, उसका स्वाभिमान क्षत्रियोचित है। इसीलिए अश्व के रक्षक सैनिकों के द्वारा जब अश्व के सम्बन्ध में गर्वपूर्ण शब्दावली का प्रयोग किया जाता है; तब वह उन सैनिकों को ललकारता है और अपने साथी बालकों को आदेश करता है कि पत्थर मार मारकर इस घोड़े को पकड़ लो, यह भी हमारे हिरणों के बीच रहकर घास चर लिया करेगा। इतना ही नहीं वह विजयपताका को छीनने की घोषणा करता है। अन्य बालक युद्ध के लिए चमकते हुए अस्त्रों को देखकर आश्रम में भाग जाना चाहते हैं परन्तु लव उनका सामना करने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा लेता है। इस प्रकार लव राम और सीता की आकृति से मेल रखता हुआ, गंभीर स्वर वाला, शिष्टाचार में निपुण, वीर, स्वाभिमानी, और तेजस्वी बालक है।
प्रश्न 9.
अधोलिखितेषु श्लोकेषु छन्दोनिर्देशः क्रियताम् -
(क) महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो।
(ख) वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावमिस्मन्नभिव्यज्यते।
(ग) पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजस्त्रम्।
उत्तरम् :
(क) शिखरिणी छन्दः।
बालकौतुकम्
(ख) शार्दूलविक्रीडितम् छन्दः।
(ग) मन्दाक्रान्ता छन्दः।
प्रश्न 10.
पाठमाश्रित्य उत्प्रेक्षालङ्कारस्य उपमालङ्कारस्य च उदाहरणं लिखत -
उत्तरम् :
(क) उत्प्रेक्षालड्कारस्य उदाहरणम् -
वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते,
संवृत्तिः प्रतिबिम्बितेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः।
(ख) उपमालङ्कारस्य उदाहरणम् -
मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्,
अयोधातुर्यद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः॥
बहुविकल्पीय-प्रश्नाः
I. समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत -
(i) 'उत्तररामचरितम्' इति नाटकस्य रचयिता कः ?
(A) भासः
(B) कालिदासः
(C) भवभूतिः
(D) अश्वघोषः।
उत्तरम् :
(B) कालिदासः
(ii) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति ?
(A) भूतविशेषम्
(B) भूतम्
(C) राजाश्वम्
(D) विशेषम्।
उत्तरम् :
(A) भूतविशेषम्
(ii) लवः कथं जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्व: ?
(A) उत्तरकाण्डेन
(B) युद्धकाण्डेन
(C) पूर्वकाण्डेन
(D) अश्वमेधकाण्डेन।
उत्तरम् :
(D) अश्वमेधकाण्डेन।
(iv) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेण्यः कीदृशीं वाचं न सहन्ते ?
(A) दृप्ताम्
(B) सुप्ताम्
(C) मधुराम्
(D) असत्ययुक्ताम्।
उत्तरम् :
(A) दृप्ताम्
II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य-प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत
(i) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणां महान् उत्कर्षनिकषः।
(A) कः
(B) केषाम्
(C) कस्मै
(D) कस्मात्।
उत्तरम् :
(B) केषाम्
(ii) हे बटवः ! लोष्ठैः अभिनन्तः उपनयत एनम् अश्वम्।
(A) काः
(B) कस्मात्
(C) कुत्र
(D) कैः।
उत्तरम् :
(D) कैः।
(iii) रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति।
(A) के
(B) कैः
(C) कस्मिन्
(D) कथम्।
उत्तरम् :
(A) के
(iv) उत्पथैः मम मनः पारिप्लवं धावति।
(A) कस्य
(B) कस्मै
(C) कस्याम्
(D) किम्।
उत्तरम् :
(A) कस्य
(v) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः
(A) केन
(B) कम्
(C) कः
(D) काः।
उत्तरम् :
(C) कः
(vi) विस्फारितशरासनाः आयुधश्रेण्यः कुमारं तर्जयन्ति।
(A) किम्
(B) कथम्
(C) केन
(D) कम्।
उत्तरम् :
(D) कम्।
(vi) निपुणं निरूप्यमाणः लव: मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव।
(A) कस्मात्
(B) कस्याः
(C) कया
(D) कस्याम्।
उत्तरम् :
(C) कया
योग्यताविस्तारः
(क) भवभूतिः संस्कृतसाहित्यस्य प्रमुखो महाकविरासीत्।
"कविर्वाक्पतिराज श्रीभवभूत्यादिसेवितः।
जितो ययौ यशोवर्मा तद्गुणस्तुतिवन्दिताम्॥"
इति कल्हणरचितराज-तरङ्गिणीस्थश्लोकेन परिज्ञायते यदयम् अष्टमशताब्द्यां वर्तमानस्य कान्यकुब्जेश्वरस्य यशोवर्मणः समसामयिक आसीत्।
अनेन महाकविना त्रीणि नाटकानि रचितानि -
मालतीमाधवम्, महावीरचरितम् उत्तररामचरितं च।
उत्तररामचरितं भवभूते: सर्वोत्कृष्टा रचनास्तीति विद्वत्समुदाये इयमुक्तिः प्रसिद्धा वर्तते -
"उत्तरे रामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते।"
अस्य नाटकस्य कथावस्तु रामयाणाधारितमस्ति। अत्र श्रीरामस्य राज्याभिषेकानन्तरमुत्तरं चरितं वर्णितम्, पूर्वचरितन्तु भवभूतिविरचिते महावीरचरिते प्रतिपादितम्। अत एव उत्तरं रामस्य चरितं यस्मिन् तत् उत्तररामचरितम्। अथवा उत्तरम् = उत्कृष्टं रामस्य चरितं यस्मिन् तत् उत्तररामचरितम् इति नाटकस्य नामकरणं समीचीनं वर्तते। सीतापरित्यागेनात्र रामस्योत्कृष्टराज्यधर्मपालनव्रतत्वं सूच्यते। यद्यपि भवभूति: करुणरसस्याभिव्यक्तये सविशेषं प्रशस्यते, परन्तु प्रस्तुते नाट्यांशे वात्सल्यस्य भावः मर्मस्पृशं प्रकटितः। तथैव हास्यरसस्यापि रुचिरा अभिव्यक्तिरत्र सञ्जाता।
(ख) अश्वमेधः - अश्वमेधयज्ञः प्राचीनकाले राज्यविस्ताराय राष्ट्र-समृद्धये च करणीयः यज्ञः आसीत्। अस्मिन् यज्ञे राज्ञां बलस्य पराक्रमस्य च परीक्षा भवति स्म। यज्ञकर्ता नृपः स्वराष्ट्रियप्रतीकमश्वं च सैन्यबलैः सह भूमण्डल-भ्रमणाय प्रेषयति स्म। यो नृपः स्वराज्ये समागतमश्वं निर्बाधं गन्तु प्रादिशत, स यज्ञकर्ड राज्ञे करदेयतां स्वीकरोति स्म। यः तमश्वमरुणत् स आश्वमेधिक-नृपस्याधीनतां नाङ्गीकरोति स्म। तदा उभयोर्बलयोर्मध्ये युद्धं भवति स्म तत्रैव च नृपाणां पराक्रमः परीक्ष्यते स्म। शतपथब्राह्मणे 'अश्वः' इति पदं राष्ट्रार्थे प्रयुक्तम् -
'राष्ट्रं वै अश्वः' इति.
(ग) 'बालकौतुकम्' इतिपाठस्य साभिनयं नाट्यप्रयोगं कुरुत।
(घ) गुरुकुलपरम्परायां बालकानां कृते गुरून् प्रति अभिवानदस्य कीदृशः शिष्टाचारः अत्र चित्रितः इति निरूप्यताम्। तथैव गुरवः कथम् आशीर्वचांसि अयच्छन्, इत्यपि ज्ञेयम्।
(ङ) वार्तालापार्थं संस्कृतभाषायाः सुचारुप्रयोगस्य उदाहरणानि पाठात् अन्वेष्टव्यानि।
बालकौतुकम् पाठ्यांशः
1. (नेपथ्ये कलकलः। सर्वे आकर्णयन्ति)
जनकः अये, शिष्टानध्याय इत्यस्खलितं खेलतां वटूनां कोलाहलः।
कौसल्याः सुलभसौख्यमिदानी बालत्वं भवति।
अहो, एतेषां मध्ये क एष रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति ?
अरुन्धती कुवलयदल-स्निग्धश्यामः शिखण्डक-मण्डनो,
वटुपरिषदं पुण्यश्रीकः श्रियैव सभाजयन्।
पुनरपि शिशु तो वत्सः स मे रघुनन्दनो,
झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोरमृताञ्जनम् ॥1॥
अन्वयः - कुवलयदल-स्निग्धश्यामः शिखण्डक-मण्डनः, पुण्यश्रीक: श्रिया वटुपरिषदं सभाजयन् एव, पुनः शिशुः भूत्वा स मे वत्सः रघुनन्दन इव कः अयम् दृष्टः झटिति दृशोः अमृत-अञ्जनं कुरुते ?
जनकः (चिरं निर्वर्ण्य) भोः किमप्येतत् !
महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो,
विदग्धैर्निर्ग्राह्यो न पुनरविदग्धैरतिशयः।
मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्,
अयोधातुर्यद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः॥ 2 ॥
अन्वयः-एतस्मिन्, विनय-शिशिरः, मौग्ध्यमसृणः, महिम्नाम् अतिशयः, विदग्धै : निर्ग्राह्यः, अविदग्धैः न, (निर्ग्राह्यः) बलवान् एषः, संमोह-स्थिरम् अपि मे मनः हरति। यद्वत् परिलघुः
अयस्कान्तशकल: अयोधातुः (हरति)। लवः (प्रविश्य, स्वगतम्) अविज्ञातवय:-क्रमौचित्यात् पूज्यानपि सतः कथमभिवादयिष्ये ?
(विचिन्त्य) अयं पुनरविरुद्धप्रकार इति वृद्धेभ्यः श्रूयते। (सविनयमुपसृत्य) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः।
हिन्दी-अनुवादः
प्रसंग: - वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में, राजा जनक, महारानी कौशल्या तथा वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धति आए हैं। वे आश्रम में बालकों के क्रीड़ा कौतूहल को देख रहे हैं। उन बालकों में सीता का पुत्र लव भी है, जिसका उन्हें पता नहीं है। उनके वार्तालाप से पाठ का प्रारम्भ है -
(नेपथ्य में कोलाहल होता है। सब सुनते हैं।)
जनक - अरे, बड़े लोगों के आने पर पढ़ाई में अवकाश होने के कारण, बेरोकटोक खेलते हुए छात्र ब्रह्मचारियों का यह शोर है अर्थात् छुट्टी होने के कारण, सभी ब्रह्मचारी अनियन्त्रित होकर खेल रहे हैं।
कौसल्या - इस बचपन में सुख सुलभ होता है अर्थात् बाल्यकाल में क्रीड़ा आदि सामान्य साधनों से ही सुख मिल जाता है। ओह, इन बालकों के बीच में यह कौन बालक, रामचन्द्र के समान सुन्दर और कोमल अंगों से हमारी आँखों को ठण्डा कर रहा है अर्थात् बाल्यावस्था में जैसा सुन्दर और कोमल रामभद्र था, वैसी ही आकृति वाला यह कौन बालक हमें आनन्द दे रहा है ?
अरुन्धती - नीलकमल के समान कोमल (चिकना) तथा श्याम रंग वाला, धुंघराले बालों से अलंकृत, अलौकिक (पुण्य) शोभायुक्त, अपने शरीर की कान्ति से ही, ब्रह्मचारियों के समूह को अलंकृत करने वाला, यह कौन है ? जो कि देखने पर फिर से वह शिशु रूपधारी राम की भाँति मेरी आँखों में झट से अमृतयुक्त काजल का लेप-सा कर रहा है ? भाव यह है कि इस बालक को देखने से मैं प्रिय शिशु राम को ही फिर से बालक के रूप में देख रही हूँ ।।1।।
जनक - (बहत देर तक देखकर) ओह, यह क्या (अपूर्व-सा अनुभव) है ? इस बालक में, विनय के कारण शीतलता तथा भोले स्वभाव के कारण कोमलता विद्यमान है। यह अतिशय महिमावाला है और यह विवेकियों (सूक्ष्मबुद्धि मनुष्यों) के द्वारा ही ग्राह्य है, स्थूलबुद्धि अविवेकियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। यह बलवान् बालक, जैसे चुम्बक का छोटा-सा टुकड़ा लोहे को अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही मेरे सीता निर्वासन के कारण शोकाघात से संज्ञा-शून्य जड (स्थिर) हृदय को अपनी ओर खींच रहा है। भाव यह है कि यह इतना प्रभावशाली बालक कौन है ॥2॥
लव - (प्रवेश करके, अपने मन में ही)
आयु क्रम (आयु में छोटे-बड़े का क्रम) और उचितता का ज्ञान न होने से, पूजनीय होते हुए भी इनको मैं कैसे प्रणाम करूँ अर्थात् इनमें कौन वयोवृद्ध है और किसे प्रथम प्रणाम करना चाहिए ? यह मैं नहीं जानता (तो इन्हें कैसे प्रणाम करूँ) ? (सोच विचारकर) यह प्रणाम की विरोधहीन पद्धति है। ऐसा गुरुजनों से सुना जाता है। (विनयपूर्वक पास जाकर) यह आपको 'लव' का औचित्य क्रम के अनुसार प्रणाम है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
शिष्टानध्यायः = शिष्टेषु (आप्तेषु) अनध्यायः। बड़े लोगों के आने पर अध्ययन से अवकाश। अस्खलितम् = अनियन्त्रितम्; बेरोकटोक। सुलभ-सौख्यम् = सुलभं सौख्यम् अस्मिन्। इसमें (बाल्यकाल में) सुख सुलभ होता है। मुग्ध-ललितैः = सुन्दर और कोमल। कुवलयदल-स्निग्ध-श्यामः = नील कमल के पत्र के समान कोमल और श्याम। कुवलय-दलम् इव स्निग्धः श्यामः च। शिखण्डक-मण्डनः = काकपक्ष-शोभितः। घुघराले बालों से अलंकृत। पुण्यश्रीकः = पुण्य-अलौकिक शोभा वाला। पुण्या श्री: यस्य सः। दृशोः = आँखों के अथवा आँखों में। अमृताञ्जनम् = अमृतमय काजल। विनय-शिशिरः = विनयेन शिशिरः शीतल:- विनय के कारण शीतल। विनय के कारण क्रोध न आने से स्वभाव में शीतलता रहती है। महिम्नाम् अतिशयः का विशेषण है (अत्यधिक महिमा वाला)। मौग्ध्य-मसृणः = मौग्ध्येन-मधुर स्वभाव (अथवा भोलेपन) के कारण मसृणः-कोमल। मुग्ध + ण्यत्। विदग्धैः = सूक्ष्मबुद्धि विद्वानों; विवेकियों द्वारा। सम्मोह-स्थिरम् = सम्मोहेन- शोकाघातेन स्थिरम्-जडीभूतम्-सीता निर्वासन के कारण शोक के प्रहार से संज्ञाशून्य-सा, जड़। अयस्कान्तशकलः = अयस्कान्तधातो:- चुम्बकस्य, शकल:-अवयवः (खण्डः) चुम्बक का छोटा-सा टुकड़ा। अविज्ञातवय:-क्रम-औचित्यात् = आयु में छोटे-बड़े के क्रम की उचितता का ज्ञान न होने से। अविज्ञातं वयः क्रमौचित्यम् तस्मात्। अवस्था, ज्येष्ठता एवं औचित्य का क्रमज्ञान न होने से। प्रणामपर्यायः = औचित्यक्रम के अनुसार प्रणाम। अविरुद्धप्रकारः = निर्विरोध पद्धति।
2. अरुन्धतीजनको : कल्याणिन् ! आयुष्मान् भूयाः।
कौसल्या : जात ! चिरं जीव।
अरुन्धती : एहि वत्स ! (लवमुत्सङ्गे गृहीत्वा आत्मगतं दिष्ट्या न केवलमुत्सङ्गश्चिरान्मनोरथोऽपि मे पूरितः)
कौसल्या : जात ! इतोऽपि तावदेहि। (उत्सङ्गे गृहीत्वा) अहो, न केवलं मांसलोज्ज्वलेन
देहबन्धनेन, कलहंसघोषघर्घ-रानुनादिना स्वरेण च रामभद्रमनुसरति। जात ! पश्यामि ते मुखपुण्डरीकम्। (चिबुकमुन्नमय्य, निरूप्य, सवाष्पाकूतम्) राजर्षे ! किं न पश्यसि ? निपुणं निरूप्यमाणो वत्साया मे वध्वा मुखचन्द्रेणापि संव-दत्येव।
हिन्दी-अनुवादः अरुन्धती और जनक-हे कल्याण सम्पन्न ! चिरंजीव होओ। कौशल्या बेटा ! दीर्घजीवी बनो।
अरुन्धती-आओ बेटा। (लव को गोद में लेकर अपने मन में, सौभाग्य से केवल मेरी गोद ही नहीं अपितु मेरा बहुत दिनों का मनोरथ भी पूरा हो गया।)
कौशल्या-बेटा, इधर (मेरी गोद में) भी आओ। (गोद में लेकर) ओह, यह केवल बलिष्ठ और तेजस्वी शरीर के गठन से ही नहीं, अपितु मधुर कण्ठ वाले हंस के स्वर का अनुसरण करने वाले स्वर से भी 'रामभद्र ' का अनुसरण कर रहा है। बेटा ! जरा तुम्हारा मुख कमल तो देखू ? (ठोड़ी को ऊपर उठाकर, देखकर, आँसुओं सहित अभिप्रायपूर्वक देखकर) हे राजर्षे जनक ! क्या आप नहीं देखते कि ध्यान से देखने पर इस बालक का मुख मेरी प्रिय वधू सीता के मुख-चन्द्र से भी मिल रहा है?
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
कल्याणिन् = हे कल्याण वाले। भूयाः = होओ, बनो। जात = वत्स, बेटा। उत्सङ्गे = गोद में। दिष्ट्या = सौभाग्य से। पूरितः = पूरा हो गया। एहि = आओ। मांसल-उज्ज्वलेन = मांसलेन-बलवता, उज्ज्वलेन-तेजस्विना बलवान् और तेजस्वी। देहबन्धनेन = शरीर के गठन से। कलहंस-घोष-घर्घर-अनुनादिना = कलहंसस्य घोषस्य अनुनादिना-अनुकारिणा। मधुर कण्ठ वाले हंस के स्वर का अनुसरण करने वाले (स्वर से)। मुखपुण्डरीकम् = श्वेत कमल के समान मुख को।चिबुकम् = ठोड़ी को। उन्नमय्य = ऊपर उठाकर।सवाष्य-आकूतम् = आँसुओं के साथ अभिप्रायपूर्वक।निरूप्य = देखकर।निरूप्यमाणः = देखा गया। निपुणम् = ध्यान से। वध्वा = बहू सीता से। संवदति = मिलता है।
3. जनकः पश्यामि, सखि ! पश्यामि (निरूप्य)
वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते,
संवृत्तिः प्रतिबिम्बितेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः।
सा वाणी विनयः स एव सहजः पुण्यानुभावोऽप्यसौ
हा हा देवि किमुत्पथैर्मम मनः पारिप्लवं धावति ॥3॥
अन्वयः - अस्मिन् शिशौ, वत्साया: रघूद्वहस्य च संवृत्तिः प्रतिबिम्बिता इव अभिव्यज्यते, सा एव निखिला आकृतिः, साधुतिः, सा वाणी, स एव सहजः विनयः, (स एव) असौ पुण्यानुभावः
अपि, हा हा देवि ! मम मनः पारिप्लवं (सत्) उत्पथैः किं धावति ?
कौसल्या - जात ! अस्ति ते माता ? स्मरसि वा तातम् ?
लवः - नहि।
कौसल्या - ततः कस्य त्वम् ?
लवः - भगवतः सुगृहीतनामधेयस्य वाल्मीकेः।
कौसल्या - अयि जात ! कथयितव्यं कथय।
लवः - एतावदेव जानामि।
(प्रविश्य सम्भ्रान्ताः)
हिन्दी-अनुवादः
जनक - देख रहा हूँ सखि (कौशल्ये), देख रहा हूँ।
इस बालक में बेटी सीता एवं रघुकुल-श्रेष्ठ राम का (पवित्र) सम्बन्ध प्रतिबिम्बित हो रहा है, और वही सारी शक्ल, वही कान्ति, वही वाणी, वही स्वाभाविक विनम्रता तथा पवित्र प्रभाव भी ठीक वैसा ही है। हा हा देवि ! (इसको देखकर) मेरा मन, चंचल होकर उन्मार्गों से (उबड़खाबड़ रास्तों से) क्यों दौड़ रहा है ? (यह सीता और राम का ही पुत्र है, ऐसी कल्पना क्यों कर रहा है ?)।
कौसल्या - वत्स ! क्या तुम्हारी माता है? क्या तुम अपने पिता को याद करते हो ?
लव - नहीं
कौसल्या - तब, तुम किसके (पुत्र) हो ?
लव - स्वनामधन्य भगवान् वाल्मीकिके।
कौशल्या - प्यारे पुत्र ! कहने योग्य बात कहो अर्थात् आजन्म ब्रह्मचारी भगवान् वाल्मीकि तुम्हारे पिता कैसे हो सकते हैं ?
लव - मैं तो इतना ही जानता हूँ।
(प्रवेश करके, घबराए हुए ब्रह्मचारीगण)
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
वत्सायाः = बेटी सीता का। रघूवहस्य = रघुवंश को वहन करने वाले राम का। शिशौ अस्मिन् = इस बालक में। अभिव्यज्यते = प्रकट हो रही है। अभि + वि + √अञ्ज् + लट् (कर्मवाच्य) प्रथम पुरुष, एकवचन। संवृत्तिः = सम्पर्क: सम्बन्ध। सम् +√वृत् + क्तिन्। निखिला = सम्पूर्ण। आकृतिः = शक्ल, रूप। द्युतिः = कान्ति। सहजः = स्वाभाविक। पुण्य-अनुभावः = पवित्र प्रभाव (माहात्म्य) वाला। उत्पथैः = उन्मार्गों से। पारिप्लवम् = चंचलता युक्त। परि + √प्लु + अच् परिप्लवम् एव पारिप्लवम्। परिप्लव + स्वार्थिक अण् प्रत्यय। सुगृहीत-नामधेयः = स्वनामधन्य। सुगृहीतं नामधेयं यस्य सः। कथयितव्यम् = कहने योग्य को, /कथ् + णिच् + तव्यत्।
4. बटवः कुमार ! कुमार ! अश्वोऽश्व इति कोऽपि भूतविशेषो जनपदेष्व-नुश्रूयते, सोऽयमधुनाऽस्माभिः स्वयं प्रत्यक्षीकृतः।
लवः 'अश्वोऽश्व' इति नाम पशुसमाम्नाये सानामिके च पठ्यते, तद् ब्रूत-कीदृशः ?
बटवः - अये, श्रूयताम् -
'पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजस्त्रम्
दीर्घग्रीवः स भवति, खुरास्तस्य चत्वार एव।
शष्पाण्यत्ति, प्रकिरति शकृत्-पिण्डकानाम्र-मात्रान्।
किं व्याख्यानैव्रजति स पुनर्पूरमेयेहि याम॥
अन्वयः - पश्चात् विपुलं पुच्छं वहति, तत् च अजस्रं धूनोति। सः दीर्घग्रीवः भवति, तस्य खुराः चत्वारः एव। (सः) शष्पाणि अत्ति, आम्र-मात्रकान् शकृत्-पिण्डकान् प्रकिरति। किं व्याख्यानैः सः दूरं व्रजति। एहि एहि, याम।
(इत्यजिने हस्तयोश्चाकर्षति)
लव - (सकौतुकोपरोधविनयम्।) आर्याः ! पश्यत। एभिर्नीतोऽस्मि। (इति त्वरितं परिक्रामति।)
हिन्दी-अनुवादः
बटुगण (ब्रह्मचारी) - कुमार, कुमार, जनपदों में जो 'घोड़ा-घोड़ा' नामक कोई प्राणी विशेष सुना जाता है, अब हमने
उसे स्वयं प्रत्यक्ष देख लिया है।
लव - 'घोड़ा-घोड़ा' यह पशु-शास्त्र तथा संग्राम शास्त्र में पढ़ा जाता है। तो बतलाओ-वह कैसा है ?
बटुगण - अरे, सुनिए!
उसकी पिछली ओर बहुत लम्बी पूंछ लटकती है और वह उसे निरन्तर हिलाता रहता है। उसकी गर्दन लम्बी और उसके खुर भी चार ही हैं। वह घास खाता है और आम्र-फलों जैसा, मलत्याग (लीद) करता है। अब अधिक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं-वह घोड़ा दूर निकला जा रहा है। आओ, आओ। चलें ॥4॥
(ऐसा कहकर उस लव के हाथ और मृगचर्म पकड़कर खींचते हैं)
लव - (बटुकों के आग्रह और विनय के साथ) हे आर्य लोगो ! देखिए ! मैं इनके द्वारा ले जाया जा रहा हूँ।
(ऐसा कहकर शीघ्रता से घूमता है)
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
भूतविशेषः = विशेष प्राणी। जनपदेषु = नगरों में। अनुसूयते = सुना जाता है। पशुसमाम्नाये = पशु-शास्त्र में पशुप्रतिपादित-शब्दकोश में। सम् + आ + √म्ना + घञ्। सानामिके = संग्रामशास्त्र में। युद्धशास्त्र धनुर्वेद में। अजस्रम् = निरन्तर। पुच्छम् = पूँछ। वहति = धारण करता है। विपुलम् = अत्यधिक।धूनोति = हिला रहा है। धूञ् + लट् प्रथम पुरुष, एकवचन। दीर्घग्रीवः = लम्बी गर्दन वाला। दीर्घा ग्रीवा यस्य सः = बहुव्रीहि समास। शष्पाणि = घास को। अत्ति = खाता है। √अद् + लट् + प्रथमा पुरुष, एकवचन। प्रकिरति = बिखेरता है। प्र + √कृ+ लट् (श विकरण) लट्। प्रथम पुरुष, एकवचन। शकृत् = लीद को, मल को। पिण्डकान् = समूहों को। आम्रमात्रान् = आम्र-फल के आकार वाले, आम्रफलों जैसा। सकौतुक-उपरोध-विनयम् = कौतुकेन, उपरोधेन विनयेन च सहितम्। कौतूहल, आग्रह और विनय के साथ। याम = चलें। √या + लोट् - उत्तम पुरुष, बहुवचन। अजिने = मृगचर्म, द्वितीया द्विवचन। नीतः = ले जाया गया। त्वरितम् = शीघ्र।
5. अरुन्धतीजनको : महत्कौतुकं वत्सस्य।।
कौसल्या : अरण्यगर्भेरुपालापै!यं तोषिता वयं च। भगवति ! जानामि तं पश्यन्ती वञ्चितेव।
तस्मादितोऽन्यतो भूत्वा प्रेक्षामहे तावत् पलायमानं दीर्घायुषम्।
अरुन्धती : अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः कथं दृश्यते ?
(प्रविश्य)
बटवः : पश्यतु कुमारस्तावदाश्चर्यम्।
लवः : दृष्टमवगतं च। नूनमाश्वमेधिकोऽयमश्वः।
बटवः : कथं ज्ञायते ?
लवः : ननु मूर्खा: ! पठितमेव हियुष्माभिरिपि तत्काण्डम्।किं न पश्यथ ? प्रत्येकं शतसंख्याः कवचिनो दण्डिनो निषडगिणश्च रक्षितारः। यदि च विप्रत्ययस्तत्पृच्छत।
हिन्दी-अनुवादः
अरुन्धती और जनक : बालक को (घोड़ा देखने का) बड़ा कौतूहल है।
कौशल्या : वनवासी बालकों के रूप और बातचीत से आप और हम लोग बड़े सन्तुष्ट हुए हैं। भगवति अरुन्धती ! मुझे तो ऐसा लगता है कि, मानो मैं उसे देखती हुई ठगी-सी रह गई हूँ। इसलिए यहाँ से दूसरी ओर होकर, इस भागते हुए दीर्घायु बालक को देखें।
अरुन्धती : अत्यन्त वेग से दूर निकलने वाला वह चंचल (बालक) कैसे देखा जा सकता है ? (प्रवेश कर)
बटुगण : (आप) कुमार, इस आश्चर्य को देखें।
लव : देख लिया और समझ भी लिया। निश्चय ही यह 'अश्वमेध' यज्ञ का घोड़ा है।
बटुगण : कैसे जानते हो?
लव : अरे मूर्यो ! तुम लोगों ने भी वह 'काण्ड' (अश्वमेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय) पढ़ा ही है। फिर क्या तुम सैंकड़ों की संख्या में कवचधारी दण्डधारी तथा तरकसधारी सैनिकों को नहीं देखते ? और यदि तुम्हें विश्वास नहीं होता, तो (इन अनुयायी रक्षकों से) पूछ लो।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च कौतुकम् = कौतूहल। अरण्यगर्भेरुपालापैः = अरण्यगर्भाणां-वनवासिनाम्-बालकानाम् उपालापैः। वनवासी बालकों की बातचीत से। तोषिताः = सन्तुष्ट हो गए। वञ्चिताः इव = मानो ठगी गई (हूँ)। अन्यतः भूत्वा = दूसरी ओर होकर (जाकर)। प्रेक्षामहे = देखते हैं, देखें। प्र + √ईक्ष् + लक्ष् + उत्तम पुरुष, बहुवचन। पलायमानम् = दौड़ते (भागते) बालकौतुकम् हुए को, परा + √अय् + लट् + शानच्। दीर्घायुषम् = दीर्घम् आयुः यस्य सः-दीर्घजीवी को। अतिजवेन = अत्यन्त वेग से। अवगतम् = समझ लिया। काण्डम् = अध्याय को। कवचिनः = कवच वाले। दण्डिनः = दण्ड (डंडे, लाठी) लिए हुए। निषङ्गिणः = तरकस लिए हुए. निषगाः सन्ति येषां ते। प्रथमा बहुवचन। विप्रत्ययः = अविश्वास, संदेह। वि + प्रति + √इण् + अच्।
6. बटवः : भो भोः! किंप्रयोजनोऽयमश्वः परिवृतः पर्यटति ?
लवः : (सस्पृहमात्मगतम्) 'अश्वमेध' इति नाम विश्व-विजयिनां क्षत्रियाणामूर्जस्वलः
सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।
(नेपथ्ये)
योऽयमश्वः पताकेयमथवा वीरघोषणा।
सप्तलोकैकवीरस्य दशकण्ठकुलद्विषः॥5॥
अन्वयः - यः अयं अश्वः, इयं पताका अथवा वीरघोषणा (अस्ति) (सः) सप्तलोक
एकवीरस्य दशकण्ठकुलद्विषः (रामस्य) अस्ति।
लवः : (सगर्वम् ) अहो ! सन्दीपनान्यक्षराणि।
बटवः : किमुच्यते ? प्राज्ञः खलु कुमारः।
लवः : भो भोः! तत्किमक्षत्रिया पृथिवी ? यदेवमुद्घोष्यते ?
(नेपथ्ये)
रे, रे, महाराजं प्रति कः क्षत्रियः ?
हिन्दी-अनुवादः
बटु-गण : अरे ! रक्षकों (सैनिकों) से घिरा हुआ यह घोड़ा, क्यों घूम रहा है ?
लवः : (अभिलाषापूर्वक, मन में) 'अश्वमेध यज्ञ' यह विश्व को जीतने वाले क्षत्रियों की शक्तिशाली तथा समस्त (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली श्रेष्ठता की कसौटी है।
(नेपथ्य में)
यह जो घोड़ा (दिखाई दे रहा है) वह सातों लोकों में, एकमात्र वीर रावण के कुल के शत्रु, (भगवान् राम) की विश्व विजय-पताका है अथवा वीर घोषणा है ॥5॥
लव : (गर्व के साथ) ओह, ये शब्द तो बहुत क्रोध पैदा करने वाले हैं।
बटुगण : क्या कह रहे हो (कि यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है) तब तो कुमार बहुत जानकार हैं।
(क्योंकि बिना पूछे ही समझ लिया था कि यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है।)
लव : अरे, अरे, सैनिको ! तो क्या पृथ्वी क्षत्रिय-शून्य है ? जो इस प्रकार घोषणा कर रहे हो ?
(नेपथ्य में)
अरे, रे, महाराज के सामने कौन क्षत्रिय है ? अर्थात् ऐसा कौन-सा क्षत्रिय है, जो कि भगवान् राम की तुलना में आ सकता है ?
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
परिवृतः = (रक्षकों से) घिरा हुआ। पर्यटति = घूम रहा है। उर्जस्वलः = शक्तिशाली, बलवान्। सर्वक्षत्रपरिभावी = सारे (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली। उत्कर्ष-निकषः = श्रेष्ठता की कसौटी। सप्त-लोक-एकवीरस्य = सातों लोकों में एकमात्र वीर। दशकण्ठ-कुलद्विषः = रावण के कुल के शत्रु-दशकण्ठस्य कुलं द्वेष्टि इति तस्य। सन्दीपनानि = भड़काने वाले, क्रोध पैदा करने वाले। प्राज्ञः = बुद्धिमान्, विज्ञ।
7. लवः : धिग् जाल्मान्।
यदि नो सन्ति सन्त्येव केयमद्य विभीषिका। किमुक्तैरेभिरधुना, तां पताकां हरामि वः॥6॥
अन्वयः - यदि (क्षत्रियाः) नो सन्ति, सन्ति एव, अद्य इयं विभीषिका का ? अधुना एभिः उक्तैः किम् ? (अहम्) वः तां पताकां हरामि॥ हे बटवः ! परिवृत्य लोष्ठैरभिजन्त उपनयतैनमश्वम्।
एष रोहितानां मध्येचरो भवतु।
(प्रविश्य सक्रोधः)
पुरुषः : धिक् चपल ! किमुक्तवानसि ? तीक्ष्णतरा ह्यायुधश्रेणयः शिशोरपि दृप्तां वाचं न सहन्ते। राजपुत्रश्चन्द्रकेतुर्दुर्दान्तः, सोऽप्यपूर्वारण्यदर्श-नाक्षिप्तहृदयो न यावदायाति, तावत् त्वरितमनेन तरुगहनेनापसर्पत।
बटवः : कुमार ! कृतं कृतमश्वेन। तर्जयन्ति विस्फारित-शरासनाः कुमारमायुधश्रेण्यः।
दूरे चाश्रमपदम्। इतस्तदेहि। हरिणप्लुतैः पलायामहे।
लवः : किं नाम विस्फुरन्ति शस्त्राणि ?
(इति धनुरारोपयति)
हिन्दी-अनुवादः
लव : तुम, नीचों को धिक्कार है। यदि क्षत्रिय नहीं हैं, (ऐसा कहते हो तो) मैं कहता हूँ कि वे क्षत्रिय हैं ही। फिर यह व्यर्थ का भय क्यों दिखा रहे हो ? अब इन बातों को कहने से क्या लाभ ? मैं तुम्हारी उस पताका का हरण कर रहा हूँ (यदि तुममें शक्ति हो तो मुझे रोको) ॥6॥
अरे बटुको ! इस घोड़े को घेरकर ढेलों से मारते हुए (आश्रम में) ले आओ।
यह घोड़ा भी मृगों के बीच विचरण करे। (मृगों के साथ ही यह भी घास खाया करे)।
पुरुष : चुप, चपल बालक ! क्या कह रहे हो ? "तीखे शस्त्र बच्चे की भी गर्वीली वाणी नहीं सहते।
(अर्थात् हमारे शस्त्रधारी तुम्हारी कटु गर्वभरी वाणी नहीं सहन करते)। राजकुमार चन्द्रकेतु बड़े दुःसाहसी (दुर्दमनीय) हैं। वह परम रमणीय वन की शोभा देखने में उत्सुक (आकर्षित हुए), जब तक नहीं आते हैं, तब तक तुम इन सघन (घने) वृक्षों में छिपकर भाग जाओ।"
बटुगण : कुमार ! घोड़े को रहने दो। धनुष ताने हुए शस्त्रधारियों के समूह तुम्हें धमका रहे हैं और आश्रम यहाँ से दूर है। अतः आओ, हरिणों की भाँति कूद-कूद कर भाग चलें। क्या (अश्व रक्षकों के) शस्त्र चमक रहे हैं ?
(अपना धनुष चढ़ाता है)
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
जाल्मान् = नीचों को। विभीषिका = भय। वः = तुम्हारी। युष्माकम्-षष्ठी बहुवचनस्य विकल्पे शब्दः। परिवृत्य = . घेरकर। लोष्ठैः = ढेलों से। अभिनन्तः = मारते हुए। उपनयत ले आओ। रोहितानाम् = हरिणों के। चपल = चंचल ! आयुध-श्रेण्यः = शस्त्र समूह। शस्त्रधारी लोग। दृप्ताम् = गर्वीली को, कटु। दुर्दान्तः = दुर्दमनीय। अपूर्व-अरण्यदर्शन आक्षिप्त-हृदयः = अपूर्वम् अरण्यस्य दर्शनेन आक्षिप्तं हृदयं यस्य सः। बहुब्रीहि समास। अपूर्व वन की शोभा देखने में संलग्न मन वाला। त्वरितम् = शीघ्र।अपसर्पत = भाग जाओ। अप + √सृप + लोट् + मध्यम पुरुष, बहुवचन। कृतं कृतम् = रहने दो, बस करो। तर्जयन्ति = धमका रहे हैं, डाँट रहे हैं। विस्फारित शरासनाः = धनुषों को ताने हुए। विस्फारितानि शर-आसनानि यैः ते। बहुव्रीहि समास। इतः = यहाँ से। एहि = आओ। हरिणप्लुतैः = हरिणों सी छलांगों से। हरिणानां प्लुतैः इव। पलायामहे = (हम) भाग जाएँ। भाग चलें। परा (पला) + √अय् + लट् + उत्तम पुरुष, बहुवचन। विस्फुरन्ति = चमक रहे हैं। वि + √स्फुर् + लट् + प्रथम पुरुष, बहुवचन। आरोपयति = (धनुष) चढ़ाता है।
हिन्दीभाषया पाठस्य सारः
"लवकौतुकम्' यह पाठ 'भवभूति' द्वारा रचित 'उत्तररामचरितम्' नाटक से लिया गया है। उत्तररामचरितम् के चौथे अंक से यह अंश उद्धृत है। भवभूति के तीनों नाटकों-'मालतीमाधवम्' 'महावीरचरितम्' तथा 'उत्तररामचरितम्' में उत्तररामचरित सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसमें काव्य और नाट्य दोनों का संगम हुआ है। श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद का (उत्तरकाल का) चरित्र इसमें वर्णित है, अतः इसका नाम उत्तररामचरितम्' रखा गया है। यह नाटक करुणरस से ओतप्रोत है। इसमें कवि ने करुणरस से पत्थरों को भी रुला दिया है। श्रीराम के त्याग और वियोग से पूर्ण यह नाटक, नाट्यकला की चरमोत्कर्ष रचना है।
राजा बनने पर, श्रीराम ने सीता का वन में निर्वासन कर दिया। निर्वासिता सीता, महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रह रही है। वहीं पर ही उसके दो जुड़वाँ पुत्र लव-कुश उत्पन्न होते हैं। उनका पालन-पोषण भी आश्रम में ही हो रहा है। उन्हें शस्त्रों और शास्त्रों की विधिवत् शिक्षा दी जा रही है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा स्वयं रचित रामायण का सस्वर गान उन्हें सिखाया गया एक बार वाल्मीकि आश्रम में, अतिथि के रूप में राजर्षि जनक, कौशल्या तथा अरुन्धती पधारते हैं। वहाँ खेलते हुए बालकों में उन्हें, एक बालक में राम और सीता की छाया दिखाई पड़ती है।
वे बालक को गोद में बिठाकर अपने स्नेह को प्रकट करते हैं। इसी मध्य राजा राम का अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा आश्रम में प्रवेश कर जाता है, जिसकी रक्षा स्वयं चन्द्रकेतु (लक्ष्मण-पुत्र) कर रहे हैं। उस शहरी घोड़े को देखने की उत्सुकता आश्रम के बालकों में जागती है और वे उसे देखने के लिए अपने साथ लव को भी बुला लेते हैं। लव पहचान जाता है कि यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है। सामान्य अश्व नहीं है। घोड़े के रक्षक सैनिक घोषणा द्वारा सबको भयभीत कर रहे हैं कि यह राम का घोड़ा है, इसे पकड़ने का साहस मत करना। लव कुमार इस घोषणा को सुनकर, उस घोड़े को आश्रम में बाँधने का आदेश देते हैं। इस प्रसंग का अत्यन्त मार्मिक चित्रण पाठ में प्रस्तुत है।
बालकौतुकम् स्रोतग्रन्थ, कवि एवं उनकी रचनाओं का परिचय -
प्रस्तुत नाट्यांश 'बालकौतुकम्' संस्कृत के महान् नाटककार भवभूति के प्रसिद्ध नाटक ‘उत्तररामचरितम्' के चतुर्थ अंक से सम्पादित किया गया है।
संस्कृत के नाटककारों में भवभूति को कालिदास जैसा गौरव प्राप्त है। भवभूति पद्मपुर के निवासी थे तथा उदुम्बरकुल के ब्राह्मण थे। इनके पितामह का नाम भट्ट गोपाल था, जो स्वयं एक महाकवि थे। इनके पिता का नाम नीलकण्ठ तथा माता का नाम जतुकर्णी था। भवभूति का दूसरा नाम 'श्रीकण्ठ' था। भवभूति शिव के उपासक थे, इनके गुरु का नाम ज्ञाननिधि था। भवभूति का स्थितकाल कतिपय पुष्ट प्रमाणों के आधार पर 700 ई० के आस-पास माना जाता है।
रचनाएँ - भवभूति की तीन रचनाएँ (नाटक) उपलब्ध होती हैं -
1. मालतीमाधवम् 2. महावीरचरितम् तथा 3. उत्तररामचरितम्।
मालतीमाधवम् - यह 10 अंकों का नाटक है। इसमें नाटक की नायिका मालती तथा नायक माधव के प्रेम और विवाह की कल्पित कथा चित्रित है। यह एक शृंगार प्रधान रचना है। मालतीमाधव में पाठकों की उत्सुकता जगाए रखने के पूरी चेष्टा की गई है, जिसमें भवभूति सफल हुए हैं। रोचक कथानक यथार्थ चित्रण तथा प्रभावपूर्ण भाषा के कारण यह नाटक प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। पाँचवें अंक में शमशान का वर्णन तथा नौवें अंक में वन का वर्णन दर्शनीय है। पत्नी के आदर्श सम्बन्ध का वर्णन भी अद्वितीय है। काव्य की दृष्टि से मालतीमाधव एक उत्कृष्ट कृति कही जा सकती है।
महावीरचरितम् - यह सात अंकों का नाटक है। इसमें राम के विवाह से लेकर राम के राज्याभिषेक की कथा को नाटकीय रूप दिया गया है। कवि ने रामायण की कथा को रोचक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और उसे अधिकाधिक नाटकीय बनाने के लिए कथा में स्वेच्छा से परिवर्तन भी किया गया है। नाटकीय तत्त्वों के अभाव तथा लम्बे संवादों के कारण यह नाटक सामाजिकों की ओर आकृष्ट नहीं कर सका। महावीरचरितम् में मुख्य रूप से वीररस का परिपाक हुआ है। - उत्तररामचरितम्-उत्तररामचरित भवभूति का अन्तिम और सवश्रेष्ठ नाटक है। यह कृति भवभूति के जीवन के प्रौढ़ अनुभवों की देन है। कवि के अन्य दोनों नाटकों की अपेक्षा उत्तररामचरित की कथावस्तु तथा नाटकीय कौशल अधिक प्रौढ़ हैं। भवभूति की अत्यधिक भावुकता ने इस 'उत्तररामचरितम्' को नाटक के स्थान पर गीति नाट्य बना दिया है।
सात अंक हैं। राम के उत्तरकालीन जीवन की कथा पर जितने भी ग्रन्थ लिखे गए हैं, उनमें उत्तररामचरित जैसी प्रसिद्धि किसी भी ग्रन्थ को नहीं मिल पाई। यद्यपि उत्तररामचरित का मूल आधार वाल्मीकि रामायण है परन्तु भवभूति ने इसमें अनेक मौलिक परिवर्तन किए हैं। उत्तररामचरित का प्रमुख रस करुण है। करुण रस की अभिव्यंजना में भवभूति इतने सिद्धहस्त हैं कि मनुष्य तो क्या निर्जीव पत्थर भी रो पड़ते हैं। भवभूति की स्थापना है कि एक करुण रस ही है, अन्य शृंगार आदि तो उसी के निमित्त रूप है-'एको रस: करुण एवं निमित्तभेदात्'। 'उत्तररामचरितम्' के तीसरे अंक में करुण रस की जो अजन धारा बही है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। करुण रस की इस अद्भुत अभिव्यजंना के कारण ही ये उक्तियाँ प्रसिद्ध हो गई है -
'कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते'
उत्तरे रामचरिते भवभूतिः विशिष्यते।