Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sanskrit Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
संस्कृतभाषया उत्तराणि लिखत -
(क) श्रीनायारः कुत्र गमनाय इच्छां न प्रकटितवान् ?
(ख) विभागस्य विपक्षे केषाम् अभियोगो नास्ति ?
(ग) श्रीनायारः स्ववेतनस्य अर्धाधिकं भागं कुत्र प्रेषयति स्म ?
(घ) श्रीनायारस्य नेत्रतीराद् विगलिता अश्रुधारा किम् अकरोत् ?
(ङ) बहुदिनेभ्यः स्थगितानां समस्यानां समाधानं कदा जातम् ?
(च) श्रीनायारस्य पार्वे पत्रं कया प्रेषितम् ?
(छ) आश्रमे के लालिताः पालिताश्च भवन्ति ?
(ज) पत्रलेखिका कस्य हस्तयोः अनाथाश्रमं समर्प्य सौप्रस्थानिकीमिच्छति ?
उत्तरम् :
(क) श्रीनायार: स्वराज्यं केरलं प्रति गमनाय इच्छां न प्रकटितवान् ?
(ख) विभागस्य विपक्षे उपभोक्तृणाम् अभियोगो नास्ति ?
(ग) श्रीनायार: स्ववेतनस्य अर्धाधिकं भागं केरलं प्रेषयति स्म ?
(घ) श्रीनायारस्य नेत्रतीराद् विगलिता अश्रुधारा पत्रस्य अर्धाधिकं भागम् आर्द्रम् अकरोत् ?
(ङ) श्रीनायारस्य दायित्वग्रहणस्य एकमासाभ्यन्तरे बहुदिनेभ्यः स्थगितानां समस्यानां समाधानं जातम् ?
(च) श्रीनायारस्य पार्श्वे पत्रं सुश्री 'मेरी' प्रेषितवती।
(छ) आश्रमे अनाथा: शिशवः लालिताः पालिताश्च भवन्ति ?
(ज) पत्रलेखिका श्रीनायारस्य हस्तयोः अनाथाश्रमं समर्प्य सौप्रस्थानिकीमिच्छति ?
प्रश्न 2.
सप्रसङ्गं हिन्दीभाषया व्याख्यां कुरुत -
(क) उपभोक्तणामपि अभियोगो नास्ति विभागस्य विपक्षे
(ख) सर्वे अश्रुलहृदयैः सौप्रस्थानिकों ज्ञापितवन्तः
(ग) त्वया निर्मितोऽयं क्षुद्रोऽनाथाश्रमोऽधुना महाद्रुमेण परिणतः ।
उत्तरम् :
(क) 'उपभोक्तृणामपि अभियोगो नास्ति विभागस्य विपक्षे'।
प्रसंग: - प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती-द्वितीयो भागः' के 'दीनबन्धुःश्रीनायारः' नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ उड़िया के प्रख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित 'पाषाणीकन्या' नामक कथासंग्रह के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है।
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति में दीनबन्धु श्रीनायार की सत्यनिष्ठा एवं कर्तव्यनिष्ठा के फलस्वरूप खाद्य-आपूर्ति विभाग के विरोध में उपभोक्ताओं की ओर से किसी प्रकार के अभियोग न होने का उल्लेख किया गया है।
श्रीनायार एक सत्यनिष्ठ तथा मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी थे। उड़ीसा सरकार के खाद्य आपूर्ति विभाग के सचिव पद को सम्भालते ही इस विभाग का कायाकल्प हो गया। खाद्यान्न में मिलावट या हेरा-फेरी नाममात्र रह गई, अतः श्रीनायार के कार्यकाल में उपभोक्ताओं को विभाग पर किसी प्रकार का अभियोग चलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। श्रीनायार के आने से विभाग की न केवल सक्रियता बढ़ी अपितु ईमानदारी से काम करने का भी वातावरण बना। परिणामतः उपभोक्ता विभाग की कार्यप्रणाली से सन्तुष्ट हुए और कोर्ट-कचहरी के विवादों से विभाग मुक्त हो गया। इस पंक्ति से श्रीनायार की कर्तव्यनिष्ठ एवं ईमानदारी का संकेत मिलता है।
(ख) सर्वे अश्रुलहृदयैः सौप्रस्थानिकी ज्ञापितवन्तः।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती द्वितीयो भागः' के 'दीनबन्धुःश्रीनायार:' नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ उडिया के प्रख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित 'पाषाणीकन्या' नामक कथासंग्रह के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है।
व्याख्या - 'सभी ने आँसु भरे हृदय से श्रीनायार को विदाई दी' प्रस्तुतपंक्ति का सम्बन्ध श्रीनायार के जीवन के उस क्षण से है, जब केरल राज्य में श्रीनायार द्वारा स्थापित अनाथ आश्रम की संचालिका सुश्री मेरी ने श्रीनायार को एक पत्र लिखा कि अब उनका अन्तिम समय आ चुका है और उन्हें स्वयं यह आश्रम सँभाल लेना चाहिए।
एक दिन श्रीनायार अपने कार्यालय में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे, उनकी आँखों से अश्रुधारा बह रह थी, जिससे पत्र भी भीग चुका था। उसी क्षण श्रीनायार के क्लर्क श्रीदास का प्रवेश हुआ और उन्होंने श्रीदास को कहा कि अब उनका छुट्टी लेकर चले जाने का समय आ गया है। यदि मुझसे कोई रूखा व्यवहार किसी के साथ अनजाने में हुआ हो तो उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ। श्रीनायार का व्यवहार विभाग के सभी सहकर्मियों के साथ पूर्णतया मानवीय, मित्रतापूर्ण तथा अत्यन्त मधुर था।
विभाग के सभी लोग श्रीनायार के स्वभाव और व्यवहार से सन्तुष्ट थे। आज जब श्रीनायार केरल वापस जाने लगे,तो सहकर्मियों के हृदय को चोट पहुँची और न चाहते हुए भी उन्हें भीगी पलकों से विदाई की। इस पंक्ति से विभाग के लोगों का श्रीनायार के प्रति सच्चा आदर-भाव तथा श्रीनायार की सद्-व्यवहारशीलता प्रकट होती है।
(ग) त्वया निर्मितोऽयं क्षुद्रोऽनाथाश्रमोऽधुना महाद्रुमेण परिणतः।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक 'शाश्वती द्वितीयो भागः' के 'दीनबन्धुःश्रीनायार:' नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ उड़िया के प्रख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित 'पाषाणीकन्या' नामक कथासंग्रह के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है।
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति सुश्री मेरी के उस पत्र की है, जो श्रीनायार के केरल वापस चले जाने के बाद उनके क्लर्क श्रीदास ने खोलकर पढ़ा था। श्रीनायार ने एक अनाथ आश्रम की स्थापना केरल राज्य में की थी। जिसका संचालन सुश्री मेरी किया करती थी। मेरी अब मृत्यु के निकट थी, अतः उसने श्रीनायार को स्वयं यह अनाथ आश्रम सँभालने तथा अन्तिम क्षणों में श्रीनायार के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की थी।
मेरी ने इस पत्र में यह भी बताया था कि यह आश्रम कभी बहुत छोटे रूप में था परन्तु आज यह बहुत बड़े वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। अब इसमें सौ से भी अधिक अनाथ शिशु पल रहे हैं। श्रीनायार इसी आश्रम के संचालन के लिए अपने वेतन का आधे से भी अधिक भाग प्रतिमास की एक तारीख को ही मनीआर्डर द्वारा सुश्री मेरी के पास भेज दिया करते थे। इस घटना से श्रीनायार का दीनों के प्रति सच्चा दया-भाव प्रकट होता है। इसीलिए पाठ का नाम भी 'दीनबन्धु श्रीनायार' उचित ही दिया गया है।
प्रश्न 3.
अधः समस्तपदानां विग्रहाः दत्ताः तानाश्रित्य समस्तपदानि समासनामापि लिखत -
प्रश्न 4.
रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत -
(क) श्रीनायारः स्वल्पभाषी आसीत्।
(ख) वर्षत्रयस्य आकलनात् ज्ञायते यत् विभागस्य कार्यनैपुण्यं दशगुणैः वर्धितम् ।
(ग) तस्य राज्येन सह कश्चित् सम्पर्कः नास्ति।
(घ) पत्रस्य अर्धाधिकं भागं अश्रुधारा आर्दीकरोति स्म।
(ङ) श्रीदासः तत्पत्रमुद्घाटितवान्।
(च) भगवान् त्वां दीर्घजीवनं कारयतु।
उत्तरम् :
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) श्रीनायारः कीदृग्भाषी आसीत् ?
(ख) कस्य आकलनात् ज्ञायते यत् विभागस्य कार्यनैपुण्यं दशगुणैः वर्धितम् ?
(ग) तस्य केन सह कश्चित् सम्पर्कः नास्ति?
(घ) पत्रस्य अर्धाधिकं भागं का आर्दीकरोति स्म?
(ङ) कः तत्पत्रमुद्घाटितवान् ?
(च) भगवान् कं दीर्घजीवनं कारयतु ?
प्रश्न 5.
विपरीतार्थकपदानि मेलयत -
(क) आगत्य (क) विस्मृतः
(ख) इच्छाम् (ख) गत्वा
(ग) स्वल्पभाषी (ग) न्यूनीभूतम्
(घ) प्रारभ्य (घ) पक्षे
(ङ) अधिकीभूतम् (ङ) बहुभाषी
(च) विपक्षे (च) समाप्य
(छ) स्मृतः (छ) लघुजीवनम्
(ज) दीर्घजीवनम् (ज) अनिच्छाम्
उत्तरम् :
विपरीतार्थकपदमेलनम्
(क) आगत्य - गत्वा
(ख) इच्छाम् - अनिच्छाम
(ग) स्वल्पभाषी - बहुभाषी
(घ) प्रारभ्य - समाप्य
(ङ) अधिकीभूतम् - न्यूनीभूतम्
(च) विपक्षे - पक्षे
(छ) स्मृतः - विस्मृतः
(ज) दीर्घजीवनम् - लघुजीवनम्
प्रश्न 6.
अधोलिखितानां विशेष्यपदानां विशेषणपदानि पाठात् चित्वा लिखत -
वार्तालाप:, वर्षत्रयस्य, अश्रुधारा, समस्यानाम्, व्यवहारः, पत्रम्, शिशवः ।
उत्तरम् :
विशेषणपदम् - विशेष्यपदम्
प्रश्न 7.
अधोलिखितेषु पदेषु प्रकृतिप्रत्ययविभागं कुरुत -
समाप्य, जातम्, त्यक्त्वा, धृत्वा, पठन्, संपोष्य।
उत्तरम् :
बहुविकल्पीया: प्रश्नाः
I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत -
(i) आश्रमे के लालिताः पालिताश्च भवन्ति ?
(A) वृद्धाः
(B) स्त्रियः
(C) शिशवः
(D) अनाथशिशवः।
उत्तरम् :
(D) अनाथशिशवः।
(ii) पत्रलेखिका कस्य हस्तयोः अनाथाश्रमं समर्प्य सौप्रास्थानिकीमिच्छति ?
(A) पुत्रस्य
(B) श्रीदासस्य
(C) श्रीनायारस्य
(D) सर्वकारस्य।
उत्तरम् :
(C) श्रीनायारस्य
(iii) श्रीनायार: कुत्र गमनाय इच्छां न प्रकटितवान् ?
(A) दिल्लीम्
(B) केरलम्
(C) कोलकातानगरम्
(D) महाराष्ट्रम्।
उत्तरम् :
(B) केरलम्
(iv) विभागस्य विपक्षे केषाम् अभियोगो नास्ति ?
(A) उपभोक्तृणाम्
(B) अधिकारिणाम्
(C) कर्मचारिणाम्
(D) मन्त्रिणाम्।
उत्तरम् :
(A) उपभोक्तृणाम्
(v) श्रीनायार: स्ववेतनस्य अर्धाधिकं भागं कुत्र प्रेषयति स्म ?
(A) कानपुरम्
(C) मद्रासम्
(B) पूनानगरम्
(D) केरलम्।
उत्तरम् :
(A) कानपुरम्
II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत -
(i) श्रीनायारः स्वल्पभाषी आसीत्।
(A) कः
(B) कीदृशः
(C) कथम्
(D) किया।
उत्तरम् :
(B) कीदृशः
(ii) वर्षत्रयस्य आकलनात् ज्ञायते यत् विभागस्य कार्यनैपुण्यं दशगुणैः वर्धितम्।
(A) कस्य
(B) केन
(C) कति
(D) कस्मात्।
उत्तरम् :
(A) कस्य
(iii) तस्य राज्येन सह कश्चित् सम्पर्क: नास्ति।
(A) काः
(B) केन
(C) कम्
(D) कस्मै।
उत्तरम् :
(B) केन
(iv) पत्रस्य अर्धाधिकं भागम् अश्रुधारा आर्दीकरोति स्म।
(A) कया
(B) कान्
(C) कथम्
(D) का।
उत्तरम् :
(D) का।
(v) श्रीदासः तत्पत्रमुद्घाटितवान्।
(A) कः
(B) काभ्याम्
(C) कस्याः
(D) कस्याम्।
उत्तरम् :
(A) कः
(vi) भगवान् त्वां दीर्घजीवनं कारयतु।
(A) कः
(B) कम्
(C) कस्याः
(D) कस्याम्।
उत्तरम् :
(B) कम्
योग्यताविस्तारः
1. प्रस्तुतकथायाः मूललेखकः श्रीचन्द्रशेखरदासवर्मा ओडियासाहित्यक्षेत्रे लब्धप्रतिष्ठः कथाकारो वर्तते। अस्य जन्म 1945 तमे ईशवीयसंवत्सरे अभवत्। अस्य द्वादशकथाग्रन्थाः, एक: नाट्यसङ्ग्रहः त्रयः समीक्षा-ग्रन्थाश्च प्रकाशिताः सन्ति। पाषणीकन्या वोमा च श्रीवर्मणः प्रसिद्धौ कथासंग्रहौ स्तः। 'दीनबन्धुः श्रीनायारः' इति कथा पाषणीकन्या इति कथासंग्रहात् संकलिता।
2. भारतस्य प्रदेशा:-भारतवर्षे अष्टाविंशति-प्रदेशा: वर्तन्ते। षट् केन्द्रशासितप्रदेशाः सन्ति।
3. अत्रत्याः जनाः विविधभाषाभाषिणः सन्तिः। हिन्दीम् आङ्ग्लभाषां च अतिरिच्य मलयालम-तमिल-उडिया-बङ्गला गजराती-मराठी-कोंकणी-कन्नड-असमिया-पञ्जाबी भाषाः अत्रत्याः जनाः वदन्ति।
4. पत्रलेखनं साहित्ये प्रसिद्धा विधा वर्तते प्रस्तुतपाठे समागतं पत्रम् अवलोक्य स्वकीयान् विचारान् लिखत।
दीनबन्धुः श्रीनायारः पाठ्यांश: :
श्रीनायारः केन्द्रसर्वकारतः स्थानान्तरणेन आगत्य ओडिशासर्वकारस्य अधीने प्रायः वर्षत्रयेभ्यः कार्यं करोति। तथाप्यस्मिन् वर्षत्रयात्मके कालखण्डे एकवारमपि स्वराज्यं केरलं प्रति गमनाय इच्छां न प्रकटितवान्। (2017-D) स स्वल्पभाषी, अतस्तस्य मनःकथा मनोव्यथा वा बोधगम्या नास्ति।
सन्तुलितो वार्तालापः, साक्षात्समये आगमनम्, ततः सञ्चिकासु मनोनिवेशः, कार्य समाप्य स्वगृहं प्रत्यागमनञ्च तस्य वैशिष्ट्यमासीत्। (2017-B) तस्य कर्मनैपुण्यं दृष्ट्वा एव ओडिशासर्वकारस्तं स्थानान्तरणेन स्वीकृत्य खाद्यपूर्तिविभागे सचिवपदे नियुक्तवान्। गतस्य वर्षत्रयस्य आकलनात् ज्ञायते यद् विभागस्य कार्यनैपुण्यं दशगुणैः वर्धितम्। खाद्ये अपमिश्रणं न्यूनीभूतम्।अत उपभोक्तृणामपि अभियोगो नास्ति विभागस्य विपक्षे मन्त्रिणां मध्येऽपि तस्य सुख्यातिः वर्तते
हिन्दी-अनुवादः
श्रीनायार केन्द्र सरकार से स्थानान्तरित होकर उड़ीसा सरकार के अधीन प्रायः तीन वर्ष तक कार्य करता है। तो भी (उसने) इस तीन वर्ष के कालखण्ड में एक बार भी अपने राज्य केरल की ओर जाने की इच्छा प्रकट नहीं की। वह बहुत कम बोलने वाला है, इसीलिए उसके मन की बात या मन की पीड़ा नहीं जानी जा सकती है। सन्तुलित वार्तालाप, ठीक समय पर पहुँचना, फिर रजिस्टरों में मन लगाए रखना और कार्य समाप्त कर अपने घर वापिस लौटना उसकी विशेषता थी।
उसकी कार्यनिपुणता देखकर ही उड़ीसा सरकार ने उसका स्थानान्तरण स्वीकार कर उसे खाद्य-आपूर्ति विभाग में सचिव पद पर नियुक्त कर दिया था। पिछले तीन वर्ष के आकलन से पता चलता है कि विभाग की कार्यनिपुणता दस गुणा बढ़ गई है। खाद्य सामग्री में मिलावट कम हो गई है। अतः उपभोक्ताओं का भी विभाग के विरोध में (कोई) अभियोग (मुकदमा) नहीं है। मन्त्रियों के बीच में भी उसकी अच्छी ख्याति है।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
तथाप्यस्मिन् = तब भी इसमें। (तथापि + अस्मिन्) बोधगम्या = बोध (ज्ञान) के द्वारा गम्य, जानने योग्य; बोधेन गम्या। मनोनिवेशः = दत्तचित्त होना ; मनसः निवेशः, षष्ठी तत्पुरुष समास। प्रत्यागमनम् = वापिस लौटना; प्रति + आङ् + गम् + ल्युट्। कर्मनैपुण्यम् = कर्मों में निपुणता; कर्मसु नैपुण्यम्, सप्तमी तत्पुरुष। स्वीकृत्य = स्वीकार करके; स्वी + √कृ + ल्यप्। अपमिश्रणम् = मिलावट; अप + √मिश् + ल्युट > अन। अनुमीयते = अनुमान किया जाता है; अनु + √मा + लट् प्रथम पुरुष एकवचन। न्यूनीभूतम् = कम हो गया; न्यून + च्ची + √भू + क्त। अभियोगः = मुकद्दमा। .
2. श्रीनायारस्य दायित्वग्रहणस्य एकमासाभ्यन्तरे बहुदिनेभ्यः स्थगितानां विविध समस्यानामपि समाधानं जातम्। स्वकार्यं त्यक्त्वा अपरस्य सहकारस्तस्य परमधर्मः। सः प्रतिमासं प्रथमदिवसे स्ववेतनस्य अर्धाधिकं भागं केरलं प्रेषयति स्म तेनानुमीयते तस्य राज्येन सह अस्ति कश्चित् सम्पर्कः। कानिचन मलयालमभाषायाः संवादपत्राणि अतिरिच्य कदापि तस्य नाम्ना किमपि पत्रमागतमिति कोऽपि कदापि न जानाति।
हिन्दी-अनुवादः -
श्रीनायार के दायित्व (पदभार) ग्रहण करने के एक महीने के अन्दर बहुत दिनों से स्थगित अनेक समस्याओं का भी समाधान हो गया। अपना कार्य छोड़कर दूसरों का सहयोग करना उसका परम धर्म है। वह प्रतिमास के पहले दिन अपने वेतन का आधे से अधिक भाग केरल भेज देता था। इसी से पता चलता है कि उसका राज्य के साथ कोई सम्पर्क है। कुछ मलियालम भाषा के संवाद पत्रों को छोड़कर कभी उसके नाम से कोई पत्र आया है, इसे कभी कोई नहीं जानता।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
सहकारः = सहायता। अर्धाधिकम् = आधे से अधिक। प्रतिमासम् = हर महीने; मासे मासे प्रतिमासम् (अव्ययीभाव समास)। अतिरिच्य = अतिरिक्त; अति + √रिच् + ल्यप्।
3. एकस्मिन् दिने श्रीनायारः पत्रमेकं धृत्वा मस्तकमवनमय्य पठन् आसीत्। नेत्रतीराद् विगलिता अश्रुधारा आीकरोति स्म पत्रस्य अर्धाधिकं भागम्। तदानीमेव तस्य कार्यालयलिपिकः श्रीदासः प्रविशति। श्रीनायारः तमुक्तवान्-"अधुना मम गमनसमयः समुपागत एव। मम दायित्वहस्तान्तरणपत्रकं सजीकुरु। अहमधुना द्वित्राणां दिवसानां सकारणावकाशं स्वीकरिष्यामि। पुनः तदनु स्वीकरिष्यामि दीर्घावकाशम्। यदि कस्मैचिद् अज्ञातेन मया रूक्षो व्यवहारः प्रदर्शितः स्यात्, तदर्थं ते मह्यमुदारचित्तेन क्षमा प्रदास्यन्ति इति सर्वेभ्यो निवेदयतु"। अनन्तरं सर्वे अश्रुलहृदयैः सौप्रस्थानिकी ज्ञापितवन्तः।
हिन्दी-अनुवादः -
एक दिन श्रीनायार एक पत्र (हाथ में) पकड़कर मस्तक झुकाकर पढ़ रहा था। आँख के किनारे से गिरी हुई आश्रुधारा ने पत्र का आधे से भी अधिक भाग गीला कर दिया था। तभी उसके कार्यालय का लिपिक (क्लर्क) श्रीदास प्रवेश करता है। श्रीनायार ने उससे कहा-"अब मेरे जाने का समय समीप आ गया है। मेरा दायित्व-हस्तान्तरण पत्र (किसी दूसरे को पदभार सौंपने का पत्र) तैयार करो। अब मैं दो-तीन दिन का सकारण-अवकाश लूँगा (स्वीकार करूँगा)। फिर उसके बाद लम्बी छुट्टी लूँगा। यदि किसी के लिए अनजाने में मुझसे रूखा व्यवहार किया गया हो, तो उसके लिए वे मुझे उदारभाव से क्षमा देंगे-ऐसा सबसे निवेदन करो।" इसके बाद सभी ने आँसू भरे हृदय से विदाई दी।
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
विगलिता = निकली हुई ; वि + √गल् + क्त + टाप् + । अवनमय्य = झुकाकर ; अव + √नम् + ल्यप् । दायित्वहस्तान्तरणम् = दूसरे को प्रभार हस्तगत कराना। सज्जीकुरु = तैयार करो ; √सज्ज् + च्वि + √कृ + लोट् + मध्यम पुरुष एकवचन। सौप्रस्थानिकी = विदाई।
4. तस्य गमनस्य दिवसत्रयात्परं कार्यालये पत्रमेकमागतम्। कौतूहलवशात् श्रीदासः तत्पत्रमुद्घाटितवान्। लेखिका आसीत् सुश्री मेरी यस्याः पार्वे सः प्रतिमासमर्धाधिकं धनं धनादेशेन प्रेषयति स्म। पत्रे एवं लिखितमासीत्....
श्रीनायार !
भगवान् यीशुस्तव मङ्गलं वितनोतु। मम पूर्वतनं पत्रं त्वया प्राप्तं स्यात्। तव समीपे इदं मम शेषपत्रम्। यतो हि मम जीवनप्रदीपो निर्वापितो भवितुमिच्छति। प्रायस्तवागमनसमये अहं न स्थास्यामि। पूर्वपत्रे अहमाश्रमस्य सर्वविधमायव्ययाकलनं प्रेषितवती। केवलं यीशोः समीपे गमनात्पूर्वं तव दर्शनमिच्छामि। प्रथमं त्वया निर्मितोऽनाथाश्रमोऽधुना महाद्रुमेण परिणतः। अधुनात्र शताधिका अनाथशिशवो लालिता: पालिताश्च भवन्ति। तव हस्तयोस्तव अनाथाश्रमं समर्प्य अहं सौप्रस्थानिकीमिच्छामि। अद्य समाजस्त्वत्तो बहु किमपि इच्छति यौ कौ वां तव पितरौ भवतां नाम, तौ धन्यवादाौं। कदाचित्ताभ्यां त्वं विस्मृतः स्यात् त्वमवश्यमेतान् शिशून् संपोष्य उत्तममनुष्यान् कारयिष्यसीति मम कामना वर्तते। प्रभुः त्वत्त इमामेवाशां पोषयति। यो जन्म दत्तवान्, स जीवितुमधिकारमपि दत्तवान्। भगवान् त्वां दीर्घजीवनं कारयतु। इति ॥
तव शुभाकाक्षिणी
सुश्रीः मेरी
हिन्दी-अनुवादः -
उनके जाने के तीन दिन के पश्चात् कार्यालय में एक पत्र आया। जिज्ञासावश श्रीदास ने वह पत्र खोला। लेखिका थी सुश्री मेरी, जिसके पास वह प्रतिमास आधे से अधिक धन मनीआर्डर द्वारा भेजता था। पत्र में लिखा था -
श्रीनायार!
भगवान् यीशु तुम्हारा मंगल करें। मेरा पहला पत्र तुम्हें मिला होगा। तुम्हारे पास यह मेरा शेष पत्र है। क्योंकि मेरा जीवन-दीप बुझ जाना चाहता है। शायद तुम्हारे आने तक मैं न रहूँ। पिछले पत्र में मैंने आश्रम का सारा आय-व्यय चिट्ठा भेज दिया था। केवल यीशु के पास जाने से पहले तुम्हारा दर्शन करना चाहती हूँ। पहले तुम्हारे द्वारा निर्मित अनाथ आश्रम अब बड़े भारी वृक्ष में बदल गया है। अब यहाँ सौ से भी अधिक अनाथ शिशु लालित और पालित हो रहे हैं। तुम्हारे हाथों में तुम्हारा अनाथ आश्रम सौंपकर अब विदाई चाहती हूँ। आज समाज तुम से बहुत कुछ चाहता है। जो कोई भी तुम्हारे माता-पिता हैं, वे धन्यवाद के पात्र हैं। किसी कारणवश उन्होंने तुम्हें भुला दिया होगा, तुम अवश्य ही इन शिशुओं को पाल-पोसकर उत्तम मनुष्य बनाओगे, यह मेरा कामना है। प्रभु तुमसे यही आशा रखते हैं। जिसने जन्म दिया है, उसी ने जीने का अधिकार भी दिया है। भगवान् तुम्हें दीर्घजीवी करें।
तुम्हारी शुभेच्छु,
सुश्री मेरी
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च -
धनादेशेन = मनिआर्डर से; धनाय आदेशः तेन (चतुर्थी-तत्पुरुष) वितनोतु = करे, विस्तार करे; वि + √तन् + लोट्, प्रथम पुरुष, एकवचन। पूर्वतनम् = पहला निर्वापितः = शान्त, बुझा हुआ; निर् + √वप् (णिच्) + क्त। परिणतः = परिवर्तित हो गया, बदल गया; परि + निम् + क्त। आयव्ययाकलनम् = आय व्यय का विवरण। पितरौ = माता-पिता; माता च पिता च (द्वन्द्व समास)
हिन्दीभाषया पाठस्य सारः -
प्रस्तुत पाठ 'दीनबन्धुःश्रीनायार:' उड़िया भाषा के सुविख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित 'पाषाणीकन्या' नामक कथा संग्रह से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायणदास ने किया है। प्रस्तुत कथा के नायक श्रीनायार हैं। श्रीनायार स्वभाव से कर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ, सेवानिष्ठ तथा परोपकारनिष्ठ महामानव हैं। श्रीनायार का पालनपोषण किसी अनाथ आश्रम में हुआ है। बड़े होकर श्रीनायार ने भी एक अनाथ आश्रम की स्थापना की है, जिसके खर्च में योगदान के लिए वे प्रतिमास अपने वेतन का आधे से भी अधिक भाग मनीआर्डर से भेज देते हैं। कथा का सारांश इस प्रकार है -
श्रीनायार केन्द्र सरकार से स्थानान्तरित होकर उड़ीसा सरकार के अधीन कार्यरत हैं। श्रीनायार को कार्य करते हुए तीन वर्ष हो चुके हैं परन्तु इस बीच उन्होंने कभी भी अपने राज्य केरल जाने की इच्छा प्रकट नहीं की। वे उड़ीसा सरकार के खाद्य आपूर्ति विभाग में सचिव पद पर नियुक्त हैं। श्रीनायार की ईमानदारी और कर्मनिष्ठा से इस विभाग की कार्यनिपुणता दस गुणा बढ़ गई है। खाद्य सामग्री में मिलावट नाम मात्र रह गई है। उपभोक्ता पूरी तरह सन्तुष्ट हैं इसीलिए न्यायालय में विभाग के विरुद्ध कोई मुकदमा भी नहीं है।
श्रीनायार अपने अधीन कार्य करने वाले कर्मचारियों के साथ बड़े प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हैं। वे थोड़ा बोलते हैं और अपने कार्य में लगे रहते हैं। हर महीने के पहले दिन वे अपने वेतन का आधे से अधिक भाग मनीआर्डर द्वारा भेज देते हैं। जिससे अनुमान होता है कि केरल के साथ इनका कोई संबंध है। कभी-कभी मलयालम भाषा में कोई पत्र आ जाता है। इस पत्र के अतिरिक्त कभी अन्य कोई पत्र श्रीनायार के पास नहीं आता।
अचानक एक दिन विचित्र घटना घटती है कि श्रीनायार के हाथ में एक पत्र है। वे उसे पढ़ रहे हैं और उनकी आँखों से टपकते आँसुओं से पत्र भीगा जा रहा है। तभी एक क्लर्क श्रीदास का प्रवेश होता है। श्रीनायार उसे 'दायित्व हस्तांतरण पत्र' तैयार करने के लिए कहते हैं और उसे यह भी बताते हैं कि मेरे वापस लौट जाने का समय आ गया है। यदि किसी के साथ अनजाने में कोई दुर्व्यवहार हुआ हो तो मेरी ओर से क्षमायाचना कर लेना। इसके बाद विभाग के सभी कर्मचारियों ने श्रीनायार को भावभीनी विदाई दी।
श्रीनायार को केरल गए हुए तीन दिन बीत गए हैं। कार्यालय में एक पत्र आता है क्लर्क श्रीदास उत्सुकतावश पत्र खोलता है, जिसकी लेखिका सुश्री मेरी हैं। जिनके पास श्रीनायार प्रतिमास धनादेश भेजते थे। सुश्री मेरी ने पत्र में श्रीनायार को संबोधित करते हुए लिखा था कि उसका जीवनदीप बुझने वाला है। तुम्हारे द्वारा स्थापित अनाथ आश्रम अब बहुत बड़ा वृक्ष बन गया है, जिसमें सौ से अधिक अनाथ बच्चे पल रहे हैं। यह तुम्हारा आश्रम तुम्हारे हाथों में सौंप कर वह भगवान् यीशू की शरण में जाना चाहती है।
इस कथा में श्रीनायार के सेवा भाव उदारता तथा कर्मनिष्ठा को बहुत ही सुन्दर शैली में चित्रित किया गया है।
दीनबन्धुः श्रीनायारः स्रोतग्रन्थ एवं कवि का संक्षिप्त परिचय :
श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा उड़िया भाषा के प्रख्यात साहित्यकार हैं। इनका जन्म 1945 ईस्वी में हुआ। इनके 12 कथासंग्रह, एक नाट्यसंग्रह तथा तीन समीक्षा-ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। पाषणी-कन्या' तथा 'वोमा' इनके प्रसिद्ध कथा संग्रह हैं। 'पाषणीकन्या' कथासंग्रह का संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है। इसी कथासंग्रह से 'दीनबन्धुः श्रीनायारः' शीर्षक कथा पाठ्यांश के रूप में संकलित है।
इस कथा के नाटक श्रीनायार का पालन-पोषण एक अनाथाश्रम में हुआ है। श्रीनायार ने अपनी कर्मदक्षता, दाक्षिण्य और सेवामनोवृत्ति से समाज में आदर्श स्थापित किया है। वे प्रतिमास अपने वेतन का आधे से अधिक भाग केरल में स्थापित अनाथाश्रम को भेजते हैं। प्रस्तुत कथा में श्रीनायार का लोककल्याणकारी आदर्श चरित्र वर्णित है।