Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi Antral Chapter 4 अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
मालवा में जब सब जगह बरसात की झड़ी लगी रहती है तब मालवा के जनजीवन पर इसका क्या असर पड़ता है ?
उत्तर :
मालवा में जब सब जगह बरसात की झडी लगी रहती है. तब कए-बावडी और ताल-तलैया पानी से लबालब भर जाते हैं। नदी-नाले भरपूर पानी के साथ बहते हैं। फसलें खेतों में लहराती हुई दिखाई देती हैं। इससे आश्वासन मिलता है कि मालवा जल से खूब सम्पन्न और समृद्ध हो गया। कभी-कभी अधिक वर्षा के कारण बाढ़ भी आ जाती है और नदी-नालों का पानी घरों में घुस जाता है। इससे लोगों को परेशानी होती है परन्तु ऐसा कम ही होता है। जब बाद आती है तब फसलों की हानि होती है तथा खाने-पीने की चीजों का अभाव पैदा हो जाता है। ऐसा भी होता है कि सोयाबीन की फसल खराब हो जाती है तो गेहूँ और चने की फसल अच्छी होती है। तालाबों, नदियों तथा कुँओं-बावड़ियों के भर जाने के कारण गर्मी की ऋतु में सूखा से बचाव भी होता है।
प्रश्न 2.
अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता जैसा गिरा करता था। उसके क्या कारण हैं ?
अथवा
"पग पग नीर वाला मालवा सूखा हो गया"-कैसे? 'अपना मालवा : खाऊ-उजाडू सभ्यता में पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर :
अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता जैसा गिरा करता था। वर्षा का कम होना आज मालवा की ही नहीं अन्य प्रदेशों-क्षेत्रों की भी समस्या है। इसका कारण ऋतु-चक्र का अव्यवस्थित हो जाना है। वर्षा, शरद् तथा ग्रीष्म सभी ऋतुओं के समय-चक्र में परिवर्तन हो गया है। बेमौसम बरसात होने से मानसून कम होता है तथा देर से और कम वर्षा होती है। औद्योगीकरण के कारण वायुमण्डल में प्रदूषण बढ़ रहा है, इससे प्रकृति के नियम टूट रहे हैं। तापमान की निरन्तर वृद्धि होने से वायुमण्डल में नमी घट रही है। आज हम अप्राकृतिक जीवन जी रहे हैं। वनों को काटा जा रहा है और यातायात तथा कारखानों की वृद्धि ने वर्षा को ही नहीं, गर्मी और सर्दी की ऋतुओं को भी प्रभावित किया है। मालवा में अब पहले जैसी बारिश इसी कारण नहीं होती।
प्रश्न 3.
हमारे आज के इंजीनियर ऐसा क्यों समझते हैं कि वे पानी का प्रबन्ध जानते हैं और पहले जमाने के लोग कुछ नहीं जानते थे ?
उत्तर :
आज के इंजीनियर पाश्चात्य (पश्चिमी) शिक्षा प्रणाली की उपज हैं। योरोप और अमेरिका के लोग समझते हैं कि भारत एक पिछड़ा और जंगली देश था, उसे सभ्य उन्होंने. ही बनाया है। योरोप में आधुनिक परिवर्तन का आधार रिनेसां अर्थात् पुनर्जागरण काल से माना जाता है। इसी के बाद योरोप में नई विचारधारा फैली और ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति हुई थी। आज के इंजीनियर को जो ज्ञान मिला है, उसमें यह बात भी शामिल है। उनको यही पता है कि वर्तमान सभ्यता और विकास योरोप की ही देन है।
भारत की प्राचीन सभ्यता के बारे में उनको पता नहीं है। उनको यह नहीं पता है कि महाराजा विक्रमादित्य, राजा भोज तथा राजा मुंज जब भारत में शासन करते थे तब योरोप के पुनर्जागरण का कुछ अतापता नहीं था। इन शासकों ने मालवा में तालाब खुदवाए थे। कुएँ-बावड़ी बनवाए तथा बरसात के पानी को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की थीं। वे जानते थे कि इस प्रकार गर्मी में पानी की कमी की समस्या का सामना किया जा सकेगा तथा इससे भूगर्भ के जल-भण्डार की भी सुरक्षा होगी। आज के इंजीनियर इस बारे में कुछ नहीं जानते।
प्रश्न 4.
'मालवा में विक्रमादित्य और भोज और मुंज, रिनेसां के बहुत पहले हो गए।' पानी के रखरखाव के लिए उन्होंने क्या प्रबन्ध किए ? .
अथवा
'अपना मालवाः खाऊ-उजाडू सभ्यता में' पाठ के आधार पर बताइए कि विक्रमादित्य, भोज और मुंज पानी के रखरखाव के लिए ऐसा क्या करते थे, जो आज के इंजीनियर नहीं करते?
उत्तर :
रिनेसां अर्थात् पुनर्जागरण काल योरोप में बहुत पहले नहीं आया था। यह बीसवीं शताब्दी में वहाँ आया। इसके कारण ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति हुई और योरोप में तकनीकी ज्ञान बढ़ा। वहाँ से यह विश्व के. अन्य देशों में पहुंचा। विदेशियों को यह भ्रम सदा रहा है कि भारत को सभ्यता उन्होंने ही सिखाई है। सत्य यह है कि भारत की सभ्यता तथा संस्कृति प्राचीनकाल में भी अत्यन्त विकसित थी। उज्जैन के शासक विक्रमादित्य ईसा से भी पहले हुए थे। वे एक प्रतापी तथा कुशल राजा थे।
महाराजा भोज और मुंज भी कुशल प्रजापालक शासक थे। राज्य की समृद्धि में पानी के महत्त्व से वे अवगत थे। उन्होंने मालवा में तालाब खुदवाए थे, कुओं तथा बावड़ियों का निर्माण कराया था। वे जानते थे कि पठार के पानी को रोककर रखने के लिए इन विकास कार्यों की ज़रूरत है। इससे बरसात का पानी रुका रहता था और गर्मियों में लोगों के काम आता था। इससे भूगर्भ के जल का स्तर भी सुरक्षित रहता था। उसका अनावश्यक दोहन भी नहीं होता था।
प्रश्न 5.
'हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गन्दे पानी के नाले बना रही है। क्यों और कैसे ?
अथवा
हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गंदे पानी के नाले बना रही है। क्यों और कैसे ? 'अपना मालवा खाऊ उजाडू सभ्यता में' पाठ के आधार पर समझाइए।
अथवा 'अपना मालवा' पाठ के आधार पर लिखिए कि आज की सभ्यता नदियों को पानी के गंदे नाले कैसे बना रही है?
उत्तर :
हमारी आज की सभ्यता योरोप और अमेरिका से आयातित सभ्यता है। उसका आधार विशाल उद्योग हैं। इनमें बड़ी-बड़ी मशीनों से भारी मात्रा में उत्पादन होता है। इनकी आवश्यकता का कच्चा माल प्राप्त करने के लिए वनों को उजाड़ा जाता है। इनका धुआँ वातावरण को तथा दूषित रसायनों से युक्त पानी नदियों में बहकर उनको प्रदूषित कर देता है।
नदियाँ जल का सर्वोत्तम साधन हैं। जल को जीवन माना गया है। जल.की उपलब्धता के कारण ही नदियों के तट पर विशाल, प्रसिद्ध तथा ऐतिहासिक सभ्यताओं और नगरों का जन्म हुआ है। सिंधु, रावी, गंगा, यमुना आदि नदियों के तट पर महान् सभ्यताएँ विकसित हुई हैं। नील नदी घाटी की मिस्र की सभ्यता प्रसिद्ध है।
आज वही जीवनदायिनी नदियाँ मृत्यु का उपहार बाँट रही हैं। कारखानों का दूषित पानी उनमें बह रहा है और जीवन के लिए संकट बन गया है। यह आधुनिक सभ्यता का ही दुष्प्रभाव है कि नदियों का जल पीने तो क्या खेतों की सिंचाई के लिए
भी उपयुक्त नहीं रहा है।
प्रश्न 6.
लेखक को क्यों लगता है कि हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है?' आप क्या मानते हैं ?
अथवा
'लेखक ने वर्तमान सभ्यता को खाऊ उजाड़ कहा है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं ? (उ. मा. प. 2014)
अथवा
'अपना मालवा पाठ में लेखक को क्यों लगता है कि आज की विकासशील और औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है? लगभग 150 शब्दों में लिखिए।
अथवा
'अपना मालवाः खाऊ-उजाडू सभ्यता में 'पाठ के लेखक को क्यों लगता है कि आज हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते है, वह उजाड़ की अपसभ्यता है? तर्क युक्त उत्तर दीजिए।
उत्तर :
लेखक ने आधुनिक सभ्यता को 'खाऊ-उजाड़ सभ्यता' कहा है। यह भारत की अपनी सभ्यता नहीं है। यह योरोप तथा अमेरिका से भारत आई है। इस सभ्यता का आधार विशाल उद्योग हैं। इन विशाल उद्योगों में भारी मात्रा में उत्पादन होता है। इसके लिए विश्व के अविकसित निर्धन देशों में बाजार तलाशा जाता है। इस तरह यह सभ्यता शोषण तथा पूँजी के केन्द्रीभूत होने की सभ्यता है। इससे जो बाहरी चमक दिखाई देती है उसे ही विकास माना जाता है।
इस औद्योगिक सभ्यता के कारण होने वाला विकास वास्तविक विकास नहीं है। इस सभ्यता के कारण वनों तथा प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक दोहन होता है, जिससे वातावरण प्रदूषित होता है तथा लोगों को प्रकृति के प्रकोप का सामना करना पड़ता है। समस्त विश्व को आज जल, वायु तथा ध्वनि प्रदूषण झेलना पड़ रहा है। मौसम का चक्र बिगड़ गया है। वर्षा न होने से जलाभाव हो गया है। फसलें भरपूर अन्न नहीं दे रही हैं।
खाने की वस्तुओं तथा पीने के पानी का संकट है। समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है, ध्रुवों की बरफ पिघल रही है, लद्दाख में बर्फ की जगह पानी गिर रहा है, बाड़मेर के गाँव जलमग्न हो रहे हैं। योरोप और अमेरिका में गर्मी पड़ रही है। कार्बन डाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। सारी गड़बड़ी पृथ्वी का तापमान बढ़ने से हो रही है। यह संकट इस पाश्चात्य सभ्यता के कारण उत्पन्न हुआ है। यह सभ्यता नहीं खाऊ-उजाड़ अपसभ्यता है।
प्रश्न 7.
धरती का वातावरण गरम क्यों हो रहा है ? इसमें योरोप और अमेरिका की क्या भूमिका है ? टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
धरती का वातावरण गरम हो रहा है। यह कार्बन डाइऑक्साइड गैसों के कारण हो रहा है। ये गैसें योरोप तथा अमेरिका में लगे हुए विशाल उद्योगों तथा डीजल और पैट्रोल से चालित वाहनों.और मशीनों के कारण उत्पन्न हो रही हैं तथा पृथ्वी के वायुमण्डल में मिल रही हैं। इसके कारण पृथ्वी के ऊपर ओजोन की परत क्षत-विक्षत हो रही है और सूर्य की पराबैंगनी किरणें वायुमण्डल में आकर उसको प्रदूषित कर रही हैं। वनों का अनावश्यक दोहन भी इसमें सहायक हो रहा है। आज यह संकट विश्वव्यापी हो चुका है। योरोप तथा अमेरिका विकसित औद्योगिक देश हैं। वहाँ पर ही विशाल उद्योग लगे हैं। प्रदूषित वायुमण्डल उनकी ही देन है। ये देश अपना दोष न मानकर उसको अविकसित तथा विकासशील देशों के ऊपर मढ़ देते हैं। अमेरिका इस पर नियंत्रण के लिए किसी प्रकार के समझौते के लिए तैयार नहीं है।
योग्यता विस्तार -
प्रश्न 1.
क्या आपको भी पर्यावरण की चिंता है ? अगर है तो किस प्रकार ? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
पर्यावरण प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। वायुमण्डल में जहरीली गैसें घुल रही हैं। जल में कारखानों का प्रदूषित पानी मिल रहा है। यातायात के साधनों, मशीनों तथा अन्य मनोरंजन के साधनों के कारण ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ रहा है। इससे होने वाली पर्यावरण की क्षति मेरी चिन्ता का विषय है। मैं पर्यावरण को बचाने के लिए अपने समवयस्क छात्रों के साथ मिलकर कार्य करता हूँ। हम लोगों को पर्यावरण के महत्त्व के बारे में बतलाते हैं तथा उनसे निवेदन करते हैं कि वे कचरा इत्यादि नदियों में न फेंकें।
पालीथिन का प्रयोग न करने अथवा कम करने के लिए भी हम कहते हैं। हम ध्वनि प्रदूषण को भी रोकते हैं तथा लाउडस्पीकर पर संगीत इत्यादि के प्रसारित करने के दुष्परिणाम बताते हैं। हम प्रतिवर्ष सड़कों के किनारे अथवा पार्कों में पेड़ लगाते हैं तथा उनकी सुरक्षा की व्यवस्था भी करते हैं। मेरा मानना है कि लोगों को सजग करके उनके सहयोग से ही पर्यावरण का विनाश रोका जा सकता है।
प्रश्न 2.
विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है। खाऊ-उजाड़ सभ्यता के सन्दर्भ में हो रहे पर्यावरण के विनाश पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
योरोप तथा अमेरिका में पहले औद्योगीकरण आरम्भ हुआ था। बड़ी मशीनों पर आधारित विशाल उद्योग वहाँ पर लगाए गए। इनके लिए कच्चे माल की पूर्ति करने के लिए प्रकृति के स्रोतों का अनावश्यक दोहन किया गया। पहाड़ . काटे गए, जंगल उजाड़े गए, नदियों का प्रवाह रोककर बिजली बनाई गई। उद्योगों के प्रदूषित अवशिष्ट को वातावरण में छोड़ दिया गया जिससे पानी, वायु तथा समस्त वातावरण दूषित हो गया।
मशीनों के शोर से वातावरण की शान्ति भंग होकर ध्वनि प्रदूषण फैल गया। इस प्रकार इस औद्योगिक विकास ने प्राकृतिक संतुलन को भंग करके धरती के मानव तथा जीवों के जीवन को संकट में डाल दिया है। नदियों का पानी प्रदूषित रसायनों के कारण, वायुमण्डल जहरीली गैसों तथा धुएँ के कारण तथा मशीनों के शोर के कारण प्रदूषित हो गया है। इस प्रकार विकास की यह औद्योगिक सभ्यता विनाश की अपसभ्यता ही सिद्ध हुई है। इसने मानव जाति तथा अन्य जीव-जन्तुओं को उजाड़ा है, उनका जीवन संकट में डाला है।
प्रश्न 3.
पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिए आप क्या कर सकते हैं ? उसे कैसे बचाया जा सकता है ? अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिए हम निम्नलिखित उपाय कर सकते हैं
1. हम अपने कारखानों में कोयले की ऊर्जा का प्रयोग बन्द करके उसके स्थान पर गैस अथवा बिजली का प्रयोग कर सकते हैं।
2. हम पेट्रोल चालित वाहनों का प्रयोग कम करेंगे तो अच्छा रहेगा। वाहनों की डिजायन को इस प्रकार बनाया जा सकता है कि वे गैस, बिजली अथवा पानी से चल सकें। पशुचालित गाड़ी तथा ताँगे, साइकिलों आदि के प्रयोग को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
3. नदियों में गन्दगी न डालें। उनमें मूर्तियों आदि का प्रवाह न करें। मृत मनुष्यों का अस्थि विसर्जन नदियों में न किया जाय। मृत पशु-पक्षियों को भी उनमें न डालें। नदियों के तट पर शौच आदि क्रियायें न करें। कारखानों के रसायनों तथा सीवर के गन्दे पानी को उनमें न बहाएँ।
4. अधिक शोर करने वाली मशीनों का प्रयोग न करें अथवा उनमें साइलेंसर लगाएँ। अपने वाहन में तेज हार्न न बजाएँ। ध्वनिविस्तारक यंत्र (लाउडस्पीकर) का प्रयोग केवल किसी सभा आदि में लोगों को सम्बोधित करने के लिए किया जाय, वह भी बन्द हॉल या कमरे में । उस पर संगीत का तेज आवाज में प्रसारण बिलकुल न हो। अन्य मनोरंजन के साधनों जैसे टी. वी. व रेडियो आदि को भी तेज आवाज में न बजाएँ।
5. सभी लोगों को पर्यावरण की महत्ता तथा उसकी सुरक्षा के प्रति सजग करें।
लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
नागदा से उज्जैन तक की लेखक की यात्रा कैसी रही ?
उत्तर :
नागदा में मीणा जी ने लेखक को बिना चीनी की चाय पिलाई। उन्होंने अच्छे चाय और भजिया बनवाकर दिए जी ने बताया कि वहाँ खूब वर्षा हुई थी। सोयाबीन की फसल गल गई थी। इस वर्षा से आगे गेहूँ और चने की फसल अच्छी होने की संभावना थी। लेखक और उसकी पत्नी खाते-पीते मजे से उज्जैन पहुँच गए।
प्रश्न 2.
उज्जैन के मार्ग में लेखक को कौन मिली ? लेखक ने क्या अनुभव किया ?
उत्तर :
उज्जैन के मार्ग में लेखक को शिप्रा नदी मिली। शिप्रा नदी को लेखक माता मानकर सम्मान करता है। बरसों बाद उसने शिप्रा में इतना पानी तथा प्रवाह देखा था। पिछले महीने लेखक ने टी. वी. पर एक लाइन पढ़ी थी कि शिप्रा का . पानी उज्जैन के घरों में घुस गया है। भोपाल, इंदौर, चार, देवास सब जगह पानी की झड़ी लगी थी। लेखक ने फोन करके पता किया था। खतरा कहीं नहीं था, लेकिन सबको पुराने दिनों में होने वाली वर्षा की याद आ गई थी।
प्रश्न 3.
मालवा में हुई वर्षों के बारे में लेखक ने क्या बताया है ?
उत्तर :
मालवा में पहले की अपेक्षा अब कम पानी बरसता है। यदि औसत वर्षा भी होती है, तो लोग समझते हैं कि पानी बरस गया है। इस बार भी चालीस इंच ही पानी गिरा था। कहीं कुछ ज्यादा तो कहीं कुछ कम। परन्तु टी. वी. पर देख और समझकर लोग अतिशयोक्ति के साथ इसे अतिवृष्टि बता रहे थे। हाँ, कुएँ-बावड़ी और ताल-तलैया पानी से लबालब भर गए थे। नदी-नालों में पानी बह रहा था। फसलें लहलहा रही थीं। यह देखकर मालवा में अच्छी पैदावार होने का भरोसा हो रहा था।
प्रश्न 4.
इन्दौर में गाड़ी से उतरते ही लेखक क्या चाहता थों ? उसकी इच्छा पूर्ति में क्या बाधा थी ?
उत्तर :
इंदौर में लेखक गाड़ी से उतरा तो वह चाहता था कि सभी नदी-नालों और ताल-तलैयों को देखे। वह पहाड़ पर भी चढ़ना चाहता था। परन्तु उसको याद आया कि उसकी उम्र सत्तर वर्ष हो चुकी है। इस अवस्था में शरीर में वैसा फुर्तीलापन और लचीलापन नहीं रहा जो पहले था। मन से वह अपने को किशोर भले ही समझता हो परन्तु शरीर तो वृद्ध हो चुका था। उसमें पर्वतों पर चढ़ने और नदी-नालों को लाँघने की शक्ति नहीं बची थी।
प्रश्न 5.
नेमावार के पास बहती नर्मदा का लेखक ने क्या वर्णन किया है ?
उत्तर :
नेमावार के पास बिजवाड़ा में नर्मदा शांत, गम्भीर और भरीपूरी थी। शाम होने पर भी जैसे अपने अन्दर के उजाले से गमक रही थी। चौथ का चाँद उस पर लटका हुआ था। मिट्टी के ऊँचे कगार पर पेड़ों के बीच बैठे लेखक और उसके साथी नर्मदा को नमन कर रहे थे। सभी लोग रात भर नर्मदा के किनारे पर ही सोए। सवेरे उठकर पुनः उसके नमन में उसके किनारे पर बैठे। अब नर्मदा शांत बह रही थी। लेखक का मानना था कि नर्मदा माँ है, सब लोग उसी से बने हैं। नर्मदा के तट पर लेटना ऐसा लग रहा था जैसे कि वे अपनी माँ की गोद में लेटे हों।
प्रश्न 6.
शिप्रा नदी के सम्बन्ध में लेखक ने क्या कहा है ?
उत्तर :
नागदा से उज्जैन जाते समय लेखक को शिप्रा नदी मिली थी। उसमें खूब पानी बह रहा था। बहुत वर्षों बाद उसने उसमें इतना पानी बहते देखा था। नेमावर के रास्ते में केवड़ेश्वर है। शिप्रा यहाँ से ही निकलती है। कालिदास ने शिप्रा का अपने ग्रन्थों में खूब वर्णन किया है। शिप्रा बहुत बड़ी नदी नहीं है किन्तु उज्जैन में महाकालेश्वर के पाँव पखारने के कारण पवित्र हो गई है और लोगों की पूज्या बन गई है।
प्रश्न 7.
मालवा के जल और अन्न से समृद्ध प्रदेश में सूखा पड़ने का उत्तरदायित्व किसका है ?
उत्तर :
लेखक मानता है कि मालवा. में पानी की कमी नहीं है। पुराने लोग तालाबों, बावड़ियों में पानी एकत्र करते थे। इससे गर्मी में पानी की जरूरत पूरी होती थी। आज पश्चिमी शिक्षा पद्धति से पढ़े हुए योजनाकारों तथा इंजीनियरों ने इस बात का ध्यान नहीं रखा है। वे तालाब की सफाई करके उनमें वर्षा का पानी इकट्ठा करने के स्थान पर कीचड़-गाद भरने देते हैं। दूसरी ओर बिजली से चलने वाले पम्पों की सहायता से जमीन के अन्दर के पानी का अनावश्यक दोहन करके उसको हानि पहुँचाते हैं। लेखक की दृष्टि में यह दोषपूर्ण चिंतन ही मालवा में सूखा होने का कारण है।
प्रश्न 8.
लेखक ने आज मालवा में बहनेवाली नदियों की दुर्दशा के बारे में क्या बताया है ? क्या ऐसा सिर्फ मालवा
की नदियों के साथ ही हो रहा है ?
उत्तर :
लेखक ने बताया है कि आज मालवा की नदियों में पानी का अभाव है। इंदौर की खान और सरस्वती नदियों में पानी नहीं है। शिप्रा, चंबल, गम्भीर, पार्वती, कालीसिंध, चोरल सबका यही हाल हो रहा है। इन नदियों में कभी बारहों महीने पानी रहा करता था। अब ये मालवा के आँसू भी नहीं बहा सकती। चौमासे में बहती हैं, बाकी महीनों में बस्तियों का गन्दा पानी इनमें बहता रहता है। वर्तमान औद्योगिक सभ्यता ने इन सदानीरा नदियों को गन्दे पानी का नाला बना दिया है। ऐसा मालवा में नहीं बल्कि सारे संसार में हो रहा है।
प्रश्न 9.
'नई दुनिया' नामक अखबार के रिकार्ड क्या बताते हैं ? इससे लेखक ने क्या निष्कर्ष निकाला है ?
उत्तर:
'नई दुनिया' नामक अखबार के पुस्तकालय में पानी के सन् 1878 से रिकार्ड मौजूद हैं। 128 साल की यह जानकारी आँख खोलने वाली है। इन सालों में केवल एक साल 1899 ही ऐसा था जब मालवा में सिर्फ 15.75 इंच पानी गिरा था। लोककथा में इसी को छप्पन का काल (अकाल) कहा जाता है। उस समय भी मालवा में खाने-पीने की चीजों की कमी नहीं थी। राजस्थान के ठेठ मारवाड़ से तब भी लोग यहाँ आए थे। छप्पन के अकाल ने देशभर में हाय-हाय मचाई थी, किन्तु मालवा के लोग कभी भी भूख-प्यास से नहीं मरे थे, क्योंकि उसके पहले तथा बाद के सालों में वहाँ पानी की कमी नहीं थी।
प्रश्न 10.
'अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाऊ-उजाड़ जीवन-पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा।' इस घोषणा पर अपनी टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
आज अमेरिका को विश्व की महाशक्ति माना जाता है। अमेरिका में चल रहे विशाल उद्योग-धन्धे ही उसकी इस सफलता का कारण हैं। उसके विशाल उद्योगों में भारी मात्रां में उत्पादन होता है जो विश्व के अनेक देशों के बाजार में बिकता है। इससे अमेरिका को अपार धन प्राप्त होता है। वह संसार की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुका है। उसकी यह प्रगति विश्व के लिए अत्यन्त विनाशकारी सिद्ध हो रही है। परन्तु अमेरिका इसे मानने के लिए तैयार नहीं है। वह इसका दोष अविकसित या अल्पविकसित देशों को देकर अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहता है।
प्रश्न 11.
लेखक के लिए त्रासदायी प्रतीति क्या है ?
उत्तर :
लेखक सब नदियाँ, तालाब तथा ताल-तलैया और जलाशय देखना चाहता था। उसे याद आया कि अब वह सत्तर साल का वृद्ध हो चुका है, किशोर नहीं है। इस आयु में पहाड़ों पर चढ़ना तथा नदी-नालों को पार करना संभव नहीं होगा। उसमें इतनी शक्ति भी नहीं कि घास पर लेटकर लुढ़क सके। यह याद आते ही उसका मन दुखी हो उठा। यह उसके लिए त्रासदायी प्रतीति थी। उसकी सब नदियों आदि को देखने की इच्छा पूरी नहीं हो सकती थी।
प्रश्न 12.
'रिनेसाँ' क्या है ?
उत्तर :
बीसवीं शताब्दी में योरोप में हुई फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद परिवर्तन की जो लहर चली थी उसको 'रिनेसाँ' या पुनर्जागरण काल कहा जाता है। इसमें सामाजिक सम्पन्नता; राजतंत्र के स्थान पर प्रजा की सत्ता सम्बन्धी विचारों के साथ ही आर्थिक सम्पन्नता का विचार भी निहित था। इसी के कारण ब्रिटेन में बड़े-बड़े उद्योग लगे और उनके माल को खपाने के लिए एशिया में बाजार तलाशे गए। इसी के कारण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पनपी और अमीरी तथा गरीबी दोनों ही में वृद्धि हुई।
प्रश्न 13.
'हम अपने मालवा की गहन गम्भीर और पग-पग नीर की डग-डग रोटी देने वाली धरती को उजाड़ने में लगे हैं।' यह कथन वर्तमान की किस समस्या को इंगित करता है ?
अथवा 'डग डग रोटी, पग-पग नीर' यह उक्ति किसके बारे में कही गई है व क्यों?
उत्तर :
मालवा की धरती पर अनेक नदियाँ तथा जलाशय हैं। इस कारण वहाँ जल का अभाव नहीं होता। खूब पानी मिलने के कारण फसलें पैदा होती हैं तथा अन्न और खाद्य पदार्थों की कमी भी नहीं रहती। इस प्रकार यह प्रदेश समृद्ध है। इसी कारण "डग डग रोटी, पग पग नीर" यह युक्ति मालवा की धरती के लिए कही गई है। लेकिन आज की पश्चिमी जा रही है। जिससे धरती पर तापमान बढ़ने से ऋत चक्र प्रभावित हो रहा है। वर्षा की कमी होने से पानी के अभाव का संकट पैदा हो रहा है। इससे खेतों में अन्नोत्पादन प्रभावित हो रहा है। बड़े उद्योग लगाने से वातावरण प्रदूषित हो रहा है। नदियों में स्वच्छ जल नहीं उद्योगों का अपशिष्ट कचरा बह रहा है। इससे मालवा की धरती के उजड़ने का संकट पैदा हो गया है।
प्रश्न 14.
लेखक ने वर्तमान सभ्यता को खाऊ-उजाड़ सभ्यता क्यों कहा है ?
अथवा
'अपना मालवा' पाठ के आधार पर 'खाऊ-उजाडू सभ्यता' का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर :
वर्तमान सभ्यता मनुष्य को प्रकृति से दूर ले जा रही है। अमेरिका आदि देशों के विशाल उद्योगों में होने वाला उत्पादन विश्व के अन्य देशों में बिकता है जो वहाँ की आर्थिक तथा सांस्कृतिक सभ्यता को नष्ट कर रहा है। इससे पूँजीवादी शोषण बढ़ रहा है तथा लोगों में गरीबी बढ़ रही है। यह सभ्यता लोगों की सुख-शांति को खाए जा रही है और उनकी धरती के सौन्दर्य और उर्वरापन को उजाड़ रही है। यह मानव जाति को भीषण विनाश की ओर धकेल रहा है।
प्रश्न 15.
नदियों से सभ्यता का क्या सम्बन्ध है? आज विकास के नाम पर सभ्यता को क्या प्रानि पाँचाई जा रही
उत्तर :
नदियों का सभ्यता से गहरा सम्बन्ध है। जब मनुष्य ने कृषि का पेशा अपनाया तो उसे एक स्थान पर बसने की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए वह नदियों के किनारे रहने लगा। यहाँ से ही सभ्यता का जन्म हुआ। संसार की प्राचीन सभ्यताएँ - मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, मिस्र आदि सभ्यताएँ तथा भारत की वैदिक सभ्यताएँ सिंध, गंगा, नील आदि नदियों के तट पर ही विकसित हुई हैं! आज का युग विकास का युग कहलाता है। विश्व में होने वाली औद्योगिक क्रान्ति ने संसार को बदल दिया है। उद्योगों के विशाल उत्पादन के लिए पूरा विश्व बाजार बन चुका है। इससे गहरी आर्थिक असमानता पैदा हो . रही है। गरीबी और शोषण बढ़ रहा है। विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे मानव जाति के ऊपर विनाश का खतरा मँडरा रहा है।
निबन्धात्मक प्रश्नोतर -
प्रश्न 1.
लेखक ने अपना मालवा खाऊ-उजाड़ सभ्यता में' पाठ में क्या संदेश दिया है ?
उत्तर :
'अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में' पाठ में लेखक ने पर्यावरण प्रदूषण के कारण मालवा में होने वाले संकट का वर्णन किया है। मालवा तो माध्यम है, वैसे पर्यावरण प्रदूषण के कारण उत्पन्न होनेवाला संकट मालवा का ही नहीं पूरे विश्व का है। पश्चिमी देशों योरोप और अमेरिका में होनेवाले औद्योगीकरण के कारण जो गैसें वायुमण्डल में विसर्जित हो रही हैं उनके कारण धरती का तापमान निरन्तर बढ़ रहा है। अमेरिका इस बात को मानने से इंकार करता है, कि उसके कारण धरती के वातावरण को क्षति पहुँच रही है।
वह अपनी औद्योगिक प्रणाली को बदलना नहीं चाहता। अपनी खाऊ-उजाड़ जीवन पद्धति पर कोई समझौता नहीं करना चाहता। लेकिन हम स्वयं भी अमेरिका आदि के अपनाए मार्ग पर ही चल रहे हैं। विकास के नाम पर होनेवाले इस दोषपूर्ण खेल के हम भी दोषी हैं। कम-से-कम हम भारतवासियों को तो यह समझना ही चाहिए कि विशाल उद्योग लगाकर विकास करने का अमेरिका का रास्ता विनाश का रास्ता है। इस पाठ में लेखक ने हमें यही . संदेश दिया है कि हम पर्यावरण विनाश से बचें तथा देश के विकास के लिए कोई अन्य सही मार्ग अपनाएँ।
प्रश्न 2.
वर्तमान समय में विश्व के समक्ष पर्यावरण का क्या संकट उपस्थित है ? 'अपना मालवा खाउ-उजाड़ सभ्यता में' पाठ के सन्दर्भ में इस पर विचार कीजिए।
अथवा
अपना मालवा 'खाऊ-उजाडू सभ्यता में पाठ, लेखक की पर्यावरण सम्बन्धी चिंता का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है। पठित पाठ के आधार पर लिखिए।
उत्तर :
'अपना मालवा खाऊ-उजाड़ सभ्यता में प्रभाष जोशी द्वारा लिखित रिपोर्ताज है। इस पाठ में लेखक ने मालवा में पर्यावरण-प्रदूषण के कारण उत्पन्न समस्याओं का चित्रण किया है। योरोप तथा अमेरिका से आयातित जिस सभ्यता को आज हम अपने देश में अपना रहे हैं और स्वदेश के विकास का सपना देख रहे हैं, वह औद्योगिक सभ्यता वास्तव में विकास की नहीं, सर्वनाश की अपसभ्यता है। विकसित देशों के विशाल उद्योगों से जहरीली गैसें वायुमण्डल में उत्सर्जित होने के कारण संसार का मौसम तथा ऋतुचक्र दूषित हो चुका है।
वर्षा के दिनों में वर्षा नहीं होती और सर्दी के दिनों में सर्दी नहीं पड़ती। गर्मी तेज पड़ती है। धरती का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। ध्रुवों तथा पहाड़ों की बर्फ पिघल रही है, समुद्र का पानी गरम हो रहा है तथा उसका स्तर बढ़ रहा है। तालाबों में पानी जमा नहीं हो पाता। वर्षा एक तो वैसे ही कम होती है, पहले जैसी नहीं होती, ऊपर से समस्या यह है कि तालाब में गाद और कीचड़ जमा हो चुका है। हमारी नदियों को आज की अपसभ्यता ने. गन्दे पानी के नाले का रूप दे दिया है। इन नदियों में लोगों का मलमूत्र तथा उद्योगों का रसायनों से युक्त गन्दा पानी बहता है। यह पानी इतना दूषित है कि इसको पीना तो दूर सिंचाई के काम में भी नहीं लाया जा सकता।
प्रश्न 3.
अमेरिका तथा यूरोप के 'खाऊ-उजाड़ सभ्यता-सिद्धांत' के क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं ?
अथवा
'अपना मालवा: खाऊ-उजाडू सभ्यता में' पाठ में लेखक का खाऊ-उजाडू सभ्यता से क्या तात्पर्य है? यूरोप और अमेरिका की इस सभ्यता के विकास में क्या भूमिका है?
उत्तर :
विकसित देश जैसे अमेरिका आदि यह मानने को तैयार नहीं कि उनके विशाल उद्योग प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। वह अपनी विनाशकारी जीवन-पद्धति को छोड़ना नहीं चाहते। उनकी दृष्टि में वही समृद्धि देने वाली प्रणाली है। परन्तु हम भी इस पर गम्भीरता से विचार नहीं करते कि हम सभ्यता और विकास के नाम पर इस विनाशकारी औद्योगिक अपसभ्यता को अपनाएँ अथवा नहीं और अपनाएँ भी तो किस रूप में? आज हमारा दायित्व बनता है कि इस अपसभ्यता से स्वदेश की रक्षा करें तथा अपनी ही जीवन पद्धति को बढ़ावा दें।
आज समस्त धरती जिस वायु, जल तथा ध्वनि प्रदूषण की समस्या से ग्रस्त है, वह पश्चिमी अपसभ्यता की ही देन है। इसी के कारण 'डग डग रोटी और पग-पग पानी' घाला मालवा सूखा हो गया है। सुख-समृद्धि के लिए विख्यात तथा अकाल में दूसरों का पोषण करनेवाला मालवा आज खाऊ-उजाड़ सभ्यता के जाल में फंस गया है। इस अपसभ्यता ने मालवा ही नहीं समस्त विश्व विशेषतः एशिया के देशों को प्रभावित किया है। आधुनिक औद्योगिक विकास ने हमको अपनी जड़ जमीन से अलग कर दिया है। सही मायनों में हम उजड़ रहे हैं। इस पाठ के माध्यम से लेखक ने आम जनता को पर्यावरण सरोकारों से जोड़ दिया है और उनको पर्यावरण के प्रति सचेत किया है।
प्रश्न 4.
लेखक ने मालवा में प्रवेश करने पर मौसम में क्या परिवर्तन देखा?
उत्तर :
जब लेखक राजस्थान में था तो साफ खिली हुई धूप फैली थी। उसकी ट्रेन आगे बढ़ी तो मालवा आरम्भ होने पर मौसम में परिर्वतन दिखाई देने लगा। आसमान में काले-भूरे बादल छाए हुए थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे वर्षा ऋतु समाप्त नहीं हुई थी। पानी भरने के स्थानों पर लबालब पानी भरा हुआ था। जितने भी छोटे-मोटे नदी-नाले थे, सब में बरसाती पानी बह रहा था। जमीन जितना पानी सोख सकती थी, उतना पहले ही सोख चुकी थी।
आसमान में छाए बादलों को देखकर लग रहा था कि वे अभी बरस पड़ेंगे। नवरात्रि का पहला दिन था। इस दिन मालवा में दुर्गापूजा आरम्भ हो जाती है। स्त्रियाँ घर-आँगन को गोबर से लीपती हैं, रंगोली सजाती हैं, सजधजकर त्यौहार मनाती हैं। लेखक वहाँ उजली चटक धूप, लहलहाती सोयाबीन और ज्वार-बाजरे की फसलें, पीले फूलोंवाली बेलें तथा दमकते घर-आँगन देखने आया था। परन्तु आसमान में तो बादल गरज रहे थे। मानसून क्वार में मालवा से चला जाता है, परन्तु इस बार वह जमे रहने की चेतावनी दे रहा था। लगता था कि वर्षा अवश्य होगी।
प्रश्न 5.
लेखक को क्या त्रासदायी प्रतीति हुई ? इसके उपरान्त उसने ओंकारेश्वर में क्या देखा ?
उत्तर :
लेखक को यह याद कर बहुत दुःख हुआ कि उसकी उम्र सत्तर साल की हो चुकी है। वह पहाड़ों पर नहीं चढ़ सकता, नदियों को पार नहीं कर सकता। इस त्रासदायी प्रतीति के बावजूद लेखक ने दो स्थानों ओंकारेश्वर और नेमावार से नर्मदा नदी को देखा। उसने ओंकारेश्वर में उस पार से देखा कि सामने सीमेंट-कंक्रीट का विशाल राक्षसी बाँध बनाया जा रहा था। इससे चिढ़ी और रुष्ट हुई नर्मदा तिनतिन फिनफिन कर बह रही थी।
उसका पानी मटमैला था। कहीं वह छिछली थी और उसके तल के पत्थर दिखाई दे रहे थे तो कहीं वह अथाह गहरी थी। बड़ी-बड़ी नावें, जो नर्मदा में चलती थी, वहाँ ढ़ के कारण उनको हटाकर रख दिया गया था। किनारों पर टूटे पत्थर पड़े थे। वह स्थान ज्योतिर्लिंग का धाम नहीं लग रहा था। बाँध के निर्माण में लगी बड़ी मशीनों तथा ट्रकों का शोर सुनाई दे रहा था। क्वार की चिलचिलाती धूप फैली थी। नर्मदा में आई बाढ़ के निशान मौजूद थे। अनेक बाँध बनने पर भी नर्मदा में खूब पानी तथा गति थी।
प्रश्न 6.
लेखक ने चंबल के बारे में क्या बताया है ? उसने किन अन्य नदियों का वर्णन अपने रिपोर्ताज में किया है ?
उत्तर :
चंबल विंध्य के जानापाव पर्वत से निकली है। वह निमाड़, मालवा, बुंदेलखण्ड, ग्वालियर होती हुई इटावा के पास यमुना नदी में मिली है। लेखक ने चंबल को घाटा बिलोद में देखा। उसमें काफी पानी था और खूब अच्छी गति से बह रही थी। उसमें नहाते हुए लड़के को गर्व था कि वहाँ चंबल छोटी दिखाई भले ही देती है परन्तु गंगा ही उससे बड़ी नदी है। इस पर आगे बहुत बड़ा बाँध बना है। उसमें खूब पानी है। इस बार वर्षा के कारण गाँधी सागर बाँध में इतना पानी आया कि उसके सब फाटक खोलने पड़े थे।
चंबल के बाद अन्य नदियों में गंभीर, पार्वती और कालीसिंध भी हैं। इस बार उनमें इतना पानी आया कि हालोद के आगे यशवंत सागर को पूरी तरह भर दिया जिससे पचीसों साइफन चलाने पड़े। सड़सठ साल में तीसरी बार ऐसा हुआ। पार्वती और कालीसिंध में बाढ़ आने से पानी दो दिन उनके पुल पर से बहा। उनके पास बहने वाली नर्मदा में भी खूब पानी आया। मालवा की सभी नदियों में बाढ़ आई।
प्रश्न 7.
'नदी का सदानीरा रहना जीवन के स्रोत का सदा जीवित रहना है।'-इस कथन से मानव सभ्यता के लिए नदियों के महत्व पर क्या प्रकाश पड़ता है ?
उत्तर :
'नदी का सदानीरा रना' का आशय है कि नदी में कभी भी पानी का अभाव न हो, वह सदा पानी से भरी-पूरी रहे, जल उसमें हमेशा बहता रहे। नदी पानी से. ही नदी बनती है, यदि पानी ही नहीं होगा तो नदी का क्या होगा ? सूखी नदी किस काम की ? संसार की अनेक प्राचीन सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही जन्मी तथा विकसित हुई हैं। जल को जीवन कहते हैं। सृष्टि का पहला जीव जल में ही जन्मा था। मनुष्य ने जब से कृषि का व्यवसाय अपनाया, तभी से उसने एक स्थान पर रहना शुरू किया। इस प्रकार गाँव बने, नगर बने और सभ्यता पनपी। वर्तमान सभ्यता उद्योगों की सभ्यता है। उद्योग भी नदियों के तट पर स्थापित हैं। नदियों के जल से ही फसलें फलती-फूलती हैं।
नदियों का जल जीवन के लिए आवश्यक है। जल से ही यह पथ्वी शस्यश्यामला कहलाती है। वनों, उद्यानों तथा फसलों को जल चाहिए, तभी वे जीवधारियों के लिए भोजन दे पाते हैं। अन्न, फल, सब्जी, मांस और मछली आहार के साधन हैं। इन सबका अस्तित्व ही जल से है। मनुष्य ही नहीं सभी जीवों के लिए जल जीवन देने वाला है। आज मनुष्य की महत्वाकांक्षा के कारण पृथ्वी का वातावरण प्रदूषित हो रहा है। इससे नदियों में जल सूख रहा है। अनेक नदियाँ सूख चुकी हैं अथवा गन्दे पानी का नाला बन चुकी हैं। यदि धरती पर जीवन की रक्षा करनी है तो नदियों को सदा जल से पूर्ण रखना ही होगा। तभी मनुष्य बचेगा और तभी उसकी सभ्यता बचेगी।
प्रश्न 8.
"आज के इंजीनियर समझते हैं कि वे पानी का प्रबन्ध जानते हैं। वर्तमान समय के इंजीनियरों के बारे में लेखक का क्या विचार है ?
उत्तर
आज विकास का युग है। नये-नये नगर बस रहे हैं, उद्योग बढ़ रहे हैं और मानव सभ्यता का रूप बदल रहा है। नदियों पर बाँध बनाये जा रहे हैं, सिंचाई और विद्युत उत्पादन के लिए पानी का प्रयोग हो रहा है। इससे इंजीनियर समझते हैं कि वे पानी का प्रबन्ध जानते हैं। पुराने जमाने के लोग पानी का प्रबन्ध जानते ही नहीं थे। ज्ञान तो पश्चिम के 'रिनेसां' के बाद ही आया है। लेखक इस बात से सहमत नहीं है। भारत में मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज रिनेसां से बहुत पहले हुए थे। वे तथा मालवा के अन्य सभी राजा जानते थे कि पठार पर पानी को रोककर रखना होगा। बरसात के पानी को रोकने के लिए उन्होंने तालाब और बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाईं। इससे वर्षा का पानी तो रुका ही, भूगर्भ के जल भण्डार में वृद्धि भी हुई।
आज इंजीनियर बड़े बाँध बनवाते हैं। इससे नदियों का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। उनका जल प्रदूषित होकर सड़ने लगता है। उन्होंने तालाबों को गाद से भर जाने दिया है। जमीन के भीतर से पानी को निकालने के यत्र बनाकर पानी की बर्बादी का रास्ता खोल दिया है। नदी-नाले सूख गए हैं। तालाब मिट्टी और गन्दगी से भर गए हैं। इस तरह पानी का जो भीषण संकट उत्पन्न हुआ है उसके लिए वर्तमान इंजीनियर तथा पश्चिम से प्राप्त उनका ज्ञान ही जिम्मेदार है। धरती पर जीवन की रक्षा के लिए हमें अपनी प्राचीन जल-संरक्षक पद्धति को ही पुनः जीवित करना होगा।
लेखक परिचय :
प्रभाष जोशी का जन्म इंदौर (मध्य प्रदेश) में हआ। उन्होंने पत्रकारिता की शरुआत नयी दुनिया के संपादक राजेंद्र माथुर के सान्निध्य में की और उनसे पत्रकारिता के संस्कार लिए। इंडियन एक्सप्रेस के अहमदाबाद, चंडीगढ़ संस्करणों - का संपादन, प्रजापति का संपादन और सर्वोदय संदेश में संपादन सहयोग किया। 1983 में उनके संपादन में जनसत्ता अखबार निकला जिसने हिंदी पत्रकारिता को नयी ऊँचाइयाँ दीं। गांधी, विनोबा और जयप्रकाश के आदर्शों में यकीन रखने वाले प्रभाष जी ने जनसत्ता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा। वे जनसत्ता में नियमित स्तंभ भी लिखा करते थे।
कागद कारे नाम से उनके लेखों का संग्रह प्रकाशित है। सन् 2005 में जनसत्ता में लिखे लेखों, संपादकीयों का चयन हिंदू होने का धर्म शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। - प्रभाष जी में मालवा की मिट्टी के संस्कार गहरे तक बसे थे और वे इसी से ताकत पाते थे। देशज भाषा के शब्दों को मुख्यधारा में लाकर उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को एक नया तेवर दिया और उसे अनुवाद की कृत्रिम भाषा की जगह बोलचाल की भाषा के करीब लाने का प्रयास किया। प्रभाष जी ने पत्रकारिता में खेल, सिनेमा, संगीत, साहित्य जैसे गैर पारंपरिक विषयों पर गंभीर लेखन की नींव डाली। क्रिकेट, टेनिस हो या कुमार गंधर्व का गायन, इन विषयों पर. उनका लेखन मर्मस्पर्शी है।
पाठ-सार :
परिचय - 'अपना मालवा-खाऊ-उजाड़ सभ्यता में' पाठ रिपोर्ताज 'जनसत्ता' समाचार-पत्र में 1 अक्टूबर, 2006 के प्रकाशित स्तंभ 'कागद कारे' से लिया गया है। प्रस्तुत पाठ में लेखक प्रभाष जोशी ने मालवा की मिट्टी, वर्षा, विभिन्न नदियों, पर्यावरण, कृषि-उपज, जन-जीवन तथा संस्कृति का विस्तार से परिचय दिया है। मालवा में प्राचीनकाल में पर्याप्त वर्षा होती थी। वर्षा के जल को संग्रह करके रखा जाता था। इससे मालवा में सम्पन्नता रहती थी।
वर्तमान में जल प्रबन्ध की यह सुव्यवस्था ध्वस्त हो गई है, इसलिए 'मालव धरती गहन गम्भीर, डम-डग रोटी, पग-पग नीर' वाला मालवा अब विकास के नाम पर खाऊ-उजाड़ सभ्यता के जाल में फँस गया है। उसके ताल-तलैया में गाद जमा हो गया है और भूगर्भ जल का अधिकाधिक दोहन होने से जल-स्तर गिर रहा है। वर्तमान औद्योगिक सभ्यता ने मालवा का ही शोषण नहीं किया है, बल्कि वह तो सम्पूर्ण धरती के विनाश का कारण बनी हुई है। लेखक ने संदेश दिया है कि हमें पर्यावरण की रक्षा के प्रति सजग रहकर अपनी धरती को बचाना होगा।
राजस्थान से आगे - लेखक राजस्थान से आगे बढ़ा तो उगते सूरज की साफ चमकीली धूप वहाँ पर ही छूट गई। मालवा में प्रवेश करने पर आसमान को बादलों से ढका हुआ पाया। बादल बरसने को तैयार खड़े थे।
नवरात्रि का आरम्भ - नवरात्रि का पहला दिन था। मालवा के घर-घर में बहू-बेटियाँ नहा-धोकर और सजधजकर घट-स्थापना करने तथा त्यौहार मनाने की तैयारी में लगी थीं। लेखक उजली-चटकीली धूप देखने आया था। क्वार का महीना मालवा में मानसून के जाने का होता है परन्तु यहाँ तो वह अभी भी जमे रहने की धौंस दे रहा था।
नागदा से उज्जैन - नागदा स्टेशन पर मीणा जी ने बिना चीनी की चाय लेखक को पिलाई। कुछ जरूरी समाचार भी बताए। लेखक और उसकी पत्नी खाते-पीते मजे से उज्जैन पहुँच गए। रास्ते में शिप्रा नदी मिली। बहुत दिन बाद लेखक ने शिप्रा में इतना पानी देखा था। मालवा में अब वैसी वर्षा नहीं होती, जैसी पहले हुआ करती थी। पहले का औसत पानी भी गिरता है तो अब लोगों को लगता है कि ज्यादा पानी गिर गया। इस बार चालीस इंच वर्षा हुई है। पर्याप्त वर्षा होने तथा ताल-तलैयों को भरा, नदी-नालों को बहता और फसलों को लहराता देखने पर विपुलता की गज़ब की आश्वस्ति मिलती है। खूब मनाओ दशहरा, दिवाली। अबकी मालवो खूब पाक्यो है।
इंदौर स्टेशन पर - लेखक इंदौर पहुँचा। वह सब नदियाँ, सारे तालाब और सारे ताल-तलैया देखना चाहता था। उसे सब पहाड़ चढ़ने थे। बाद में लेखक ने सोचा कि उसकी उम्र तो सत्तर की होने वाली है। उम्र उसे ऐसा नहीं करने देगी।
नर्मदा-दर्शन - इस कष्ट देनेवाले अनुभव के बावजूद लेखक ने दो जगहों से नर्मदा देखी। ओंकारेश्वर में उस पार से। सामने कंक्रीट सीमेंट का विशाल बाँध बनाया जा रहा था। निर्माण में लगी मशीनों तथा ट्रकों की तेज आवाज वातावरण की शांति को भंग कर रही थी। इतने बाँधों के बावजूद नर्मदा में खूब पानी और गति थी।
नेमावर के पास - नेमावर के पास बजवाड़ा में नर्मदा शांत, गम्भीर और भरी-पूरी थी। शाम हो चुकी थी। रातभर लेखक उसी के किनारे सोया। सवेरे पुनः बैठकर, उसे प्रणाम किया। लेखक नर्मदा को माँ मानता है। इसी से वेह तथा सभी लोग बने हैं। उसके किनारे बैठने पर माँ की गोद में लेटने का सुख मिलता है।
मालवा के पर्वत तथा नदियाँ - ओंकारेश्वर और नेमावर जाते हुए दोनों बार लेखक को विंध्य के घाट उतरने पड़े। एक तरफ सिमरोल का घाट, दूसरी तरफ बिजवाई। सिमरोल के बीच में चोरल बह रही थी। हर पहाड़ी नदी-नाले में पानी था। नेमावर के रास्ते पर केवड़ेश्वर है। यहाँ से शिप्रा निकलती है। विंध्य के जानापाव पर्वत से चंबल निकलती है। वह निमाड़, मालवा, बुंदेलखण्ड तथा ग्वालियर होती हुई इटावा में यमुना में मिलती है। इस पर गाँधी सागर बाँध बना है। यहाँ गम्भीर, पार्वती और काली सिंध छोटी नदियाँ भी हैं। इस बार सब में खूब पानी आया। वर्षों बाद हजारों साल की कहावत 'मालव धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर' सच सिद्ध हुई।
तालाब और ताल-तलैया - इस बार बिलावली, पीपल्या पाला और सिरपुर में लबालब पानी है। यशवंत सागर भी भरा है। फिर भी इंदौर की खान और सरस्वती नदियों में पानी कम ही है। आज के नियोजक और इंजीनियर समझते हैं कि वे जल-प्रबन्ध का ज्ञान रखते हैं। पहले लोग इसके बारे में नहीं जानते थे। परन्तु यह बात सच नहीं है। मालवा में 'रिनेसां' से पहले विक्रमादित्य, भोज और मुंज प्रसिद्ध राजा हुए हैं। उन्होंने अनेक तालाब-बावड़ियाँ बनवाए थे। इनमें वर्षा का पानी ... रोककर रखा जाता था। यह पानी बाद में काम आता था तथा इससे भूगर्भ का जल-स्तर भी सुरक्षित रहता था।
नदी-नालों की दुर्दशा - आज मालवा के तालाबों में कीचड़ जमा है तथा नदियों की दुर्दशा हो रही है। उसमें वर्षा के दिनों में तो पानी बहता है परन्तु बाद के महीनों में उनके आस-पास के नगरों का गन्दा पानी ही उनमें बहा करता है।
औद्योगिक विकास की वर्तमान सभ्यता ने इंन नदियों को गन्दे नालों में बदल दिया है। भूगर्भ जल का स्तर गिर रहा है।
'नई दुनिया' का रिकार्ड - 'नई दुनिया' अखबार के 128 साल के रिकार्ड बताते हैं कि मालवा में कभी अन्न-जल का अभाव नहीं हुआ। पानी को सुरक्षित रखे जाने की व्यवस्था के कारण न सूखा पड़ा, न बाढ़ आई। सन् 1899 को छप्पन का काल (अकाल) कहा जाता है। तब भी मालवा में खाने-पीने की चीजों की कमी नहीं थी। राजस्थान के ठेठ मारवाड़ से तब भी लोग यहाँ पर ही आए थे।
उजाड़ की अपसभ्यता - जिसको आज विकास की औद्योगिक सभ्यता कहा जाता है, वह वास्तव में विकास की नहीं उजाड़ की अपसभ्यता है। इसके कारण धरती का वातावरण गरम हो गया है। योरोप तथा अमेरिका इसके जनक हैं। उनके उद्योग जो प्रदूषण पैदा कर रहे हैं, उसने ऋतुचक्र को बदल दिया है। असमय वर्षा, जाड़ा और गरमी पड़ती है। वायुमण्डल में मिलकर कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी गैसें उसे गरम कर रही हैं।
धरती का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। अमेरिका अब भी इनको रोकने को तैयार नहीं है। उसकी घोषणा है कि वह अपनी इस खाऊ-उजाड़ सभ्यता को जारी रखेगा। लेकिन भारतवासी भी उसी पद्धति को अपनाकर 'गहन गंभीर और डग-डग रोटी पग-पग नीर' देनेवाली धरती को बर्बाद कर रहे हैं।
कठिन शब्दार्थ :