Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi रचना निबंध लेखन Questions and Answers, Notes Pdf.
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निबन्ध एक सुविचारित, सुसम्बद्ध और सुगठित गद्य - रचना है, जिसमें किसी विषय पर लेखक अपने विचार और भावनाएँ व्यक्त करता है।
अच्छा निबंध लिखने के लिए कुछ उपयोगी संकेत इस प्रकार हैं -
1. मेरे प्रिय कवि गोस्वामी तुलसीदास
प्रस्तावना - मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र - गायक, भारतीय समाज के उन्नायक और काव्य - रसिकों को परमानन्ददायक, गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के समन्वय सरोवर में स्नान कराके जन - मन के सारे ताप - सन्ताप दूर कर दिये। शोषित, पीड़ित और अपमानित जनता को आश्वासन दिया कि -
"जब - जब होड धरम की हानी। बाढहिं असर अधम अभिमानी।।
तब - तब प्रभु धरि मनुज शरीरा। हरिहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।"
इस कारण तुलसी और उनका कृतित्व विश्व के आस्तिक जनों के लिए आस्था और विश्वास का आधार बना हुआ है।
इस कारण 'तुलसी' मेरे प्रिय कवि हैं।
जीवन और कृतियाँ - गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म किस स्थान पर हुआ। यह विवादग्रस्त है, तथापि उनकी एक महामानव के रूप में प्रतिष्ठा निर्विवाद है। वह सोरों के थे कि राजपुर के, यह चिन्तन का विषय रहा है। काव्य प्रेमियों के लिए तो तुलसी सबके प्रिय हैं। पिता और माता दोनों के स्नेह की छाया से वंचित तुलसी की शैशव - गाथा बड़ी करुणापूर्ण
"माता - पिता जग जाहि तज्यौ, विधिहू न लिखी कछु भाग भलाई।"
यह पंक्ति तुलसी के विपन्न बालपन की साक्षी है। उनको एक अनाथ के समान जीवनयापन करना पड़ा। परन्तु गुरु नरहरि ने बाँह पकड़कर तुलसी को तुलसीदास बनाया। गोस्वामी जी का कवि - रूप बड़ा भव्य और विशाल है। आपकी प्रसिद्ध कृतियाँ इस प्रकार हैं -
'दोहावली', 'गीतावली', 'रामचरितमानस', 'रामाज्ञा - प्रश्नावाली', 'विनय - पत्रिका', 'हनुमान - बाहुक', 'रामलला नहछू', 'पार्वती - मंगल', 'बरवै - रामायण', आदि।
लोकनायक तुलसी की समन्वय की साधना - तुलसी का काव्य समन्वय की विशिष्ट चेष्टा है। उन्होंने लोक और शास्त्र का, गृहस्थ और वैराग्य का, निर्गुण और सगुण का, भाषा और संस्कृति का, पाण्डित्य और अपाण्डित्य का ऐसा अपूर्व समन्वय किया जो दर्शनीय है।
(क) निर्गुण और सगुण का समन्वय - परमात्मा के निराकार और साकार स्वरूप को लेकर चलने वाली विरोधी भावनाओं को तुलसी ने सहज ही समन्वित कर दिया। वह कहते हैं -
"सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा।"
इस प्रकार ज्ञान और भक्ति को भी समान पद प्रदान करके उन्होंने लोकमानव के लिए सुलभ साधना का मार्ग खोल दिया -
"भगतिहिं ज्ञानहिं नहिं कुछ भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।"
(ख) धर्म और राजनीति का समन्वय तुलसी का धर्म और राजनीति सम्बन्धी सिद्धान्त है कि धर्म के नियन्त्रण के बिना राजनीति अपने नीति - तत्व को,खो बैठती है। पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए राम का राज्य - परित्याग करके वन को चले जाना, भरत का सिंहासन को ठुकरा देना, धर्म और राजनीति के समन्वय का प्रशंसनीय प्रयास है। वस्तुत: धर्म राजनीति का अपरिहार्य अंग है। तुलसी स्पष्ट घोषी करते हैं -
"जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।"
(ग) सामाजिक समन्वय - समाज में मिथ्या - गर्व और अभिजात - भावना को भी तुलसी ने नियन्त्रित किया। भगवान राम का भक्त उनके लिए शूद्र होते हुए भी ब्राह्मण से अधिक प्रिय और सम्माननीय है। चित्रकूट जाते हुए महर्षि वशिष्ठ रामसखा निषाद को दूर से दण्डवत् प्रणाम करते देखते हैं तो उसे बरबस हृदय से लगा लेते हैं -
"रामसखा मुनि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।"
तुलसी का काव्य वैभव - तुलसी रससिद्ध कवि हैं। उनके काव्य के भाव - पक्ष और कला - पक्ष पूर्ण समृद्ध हैं। उनके काव्यनायक मानवीय मूल्यों के प्रहरी हैं। हर रस, हर छन्द और हर अलंकार जो उनके काव्य का अंग बना, धन्य हो गया। अवधी, ब्रज और संस्कृत तीनों ही भाषाएँ उनकी अभिव्यक्ति का सफल माध्यम बनी हैं। उनकी काव्य - रचना में विविध शैलियों का हृदयग्राही समायोजन है।
उपसंहार - तुलसी ने अपने अमर महाकाव्य 'रामचरितमानस' के प्रारम्भ में ही घोषित किया है कि 'स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा'। तुलसी सन्त हैं और सन्तों का हृदय तो नवनीत से भी कोमल होता है। यही कारण है कि तुलसी का काव्य मात्र एक काव्यकृति नहीं, अपितु 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की पावन साधना है। इसलिए तुलसी मेरे प्रिय कवि हैं।
2. नर हो न निराश करो मन को
अथवा
पुरुषार्थ और भाग्य
प्रस्तावना - मनुष्य के मन में आशा और निराशा नामक दो भाव होते हैं। अपने अनुकूल घटित होने की सोच आशा है। आशा को जीवन का आधार कहा गया है। भविष्य में सब कुछ अच्छा, आनन्ददायक और इच्छा के अनुसार हो, यही आशा है, यही मनुष्य चाहता भी है। इसके विपरीत कोई बात जब होती है तो मनुष्य के हृदय में जो उदासी और बेचैनी उत्पन्न होती है, वही निराशा है। निराश मनुष्य जीवन की दौड़ में पीछे छूट जाता है। पुरुषार्थ और भाग्य धार्मिक मान्यताएँ भाग्यवाद की शिक्षा देती हैं। धर्म कहता है जीवन में जो कुछ होता है, वह पूर्व और किसी अन्य शक्ति द्वारा नियोजित है। मनुष्य उसे बदल नहीं सकता।' जो भाग्य में लिखा है, वह होकर ही रहेगा। भाग्यवाद का यह विचार मनुष्य को अकर्मण्य बना देता है अथवा यों भी कह सकते हैं कि अकर्मण्य और आलसी व्यक्ति भाग्य का सहारा लेकर अपने दोष छिपाता है। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है -
करके विधिवाद न खेद करो। निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो।
बनता बस उद्यम ही विधि है। मिलती जिससे सुख की निधि है।
भाग्य का निर्माता - मनुष्य - मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण स्वयं ही करता है। ईश्वर ने उसे विवेक सोचने के लिए और दो हाथ काम करने के लिए दिए हैं। इनका सही ढंग से प्रयोग करके वह अपने भाग्य का निर्माण करता है। संसार में बिना कर्म किए कुछ प्राप्त नहीं होगा। गौतम बुद्ध ने भिक्षुओं को शिक्षा दी थी-'चरैवेति' अर्थात् निरन्तर चलते रहो, ठहरो मत, आगे बढ़ो। भाग्य के निर्माण का यही मंत्र है। उत्साहपूर्वक निरन्तर कर्मशील रहने वाला ही सफलता के शिखर पर पहुँचता है जो "देखकर बाधा विविध और विघ्न घबराते नहीं। रह भरोसे भाग्य के कर मीड़ पछताते नहीं" वही सच्चे कर्मवीर होते हैं। उनके मन में निराशा के भाव कभी नहीं आते। वे निरन्तर आगे बढ़ते हैं और जीवन में सफलता पाते हैं।
उपसंहार - मानव - मन शक्ति का केन्द्र है। यदि उसमें दृढ़ता नहीं है, कमजोरी है तो वह जल्दी निराश हो जाता है और हार मान लेता है। इसके विपरीत दृढ़ संकल्प वाला आशावादी मन कभी हारता नहीं। मनुष्य को अपने मन को निराशा से बचाना चाहिए, अपनी संकल्प शक्ति को दृढ़ बनाना चाहिए। ऐसा करके ही वह सच्चा मनुष्य बन सकता है। मन को हारने मत दो, तभी जीवन में जीत के फल का मीठा स्वाद चख सकोगे।
3. सच्चा धर्म
अथवा
बैर नहीं मैत्री करना सिखाते हैं धर्म
प्रस्तावना - राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भारत भूमि की उदार और सहिष्णु छवि को अपनी पंक्तियों में उतारते हुए कहा है
भारत माता का मन्दिर यह, समता का सम्वाद यहाँ।
सबका शिव कल्याण यहाँ, हैं पावें सभी प्रसाद. यहाँ।।
भारत - भूमि की महानता उसकी विशाल जनसंख्या अथवा भू - क्षेत्र के कारण नहीं, अपितु उसकी भव्य और अनुकरणीय उदार परम्पराओं के कारण रही है। आचार, विचार, चिन्तन, भाषा और वेशभूषा की विविधताओं को राष्ट्रीयता के सूत्र में पिरोकर भारत ने मानवीय एकता का आदर्श उपस्थित किया है।
धर्म के तत्व - भारतीय मान्यता के अनुसार धैर्य, क्षमा, आत्मसंयम, चोरी न करना, पवित्र भावना, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, बुद्धिमत्ता, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ये धर्म के दस लक्षण हैं। सभी धर्म इनको अपना आदर्श और अपना अंग घोषित करते रहे हैं। महाभारत में कहा गया है कि जो सब धर्मों को सम्मान नहीं देता, वह धर्म नहीं अधर्म है। मनुष्य को मनुष्य का गला काटने की दुष्प्रेरणा, दूसरों का घर जलाने की और नारियों के अपमान की कु - शिक्षा अधर्म है और ईश्वर का घोर अपमान है।
धर्म और सम्प्रदाय - धर्म एक अत्यन्त व्यापक विचार है। इसमें मानवता के श्रेष्ठ स्वरूप और भाव निहित हैं। धर्म किसी एक व्यक्ति के उपदेश या शिक्षाओं को नहीं कहते। किसी एक ही महापुरुष, पैगम्बर या अवतार के उपदेशों से सम्प्रदाय बनते हैं, धर्म नहीं।
भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या वैदिक धर्म या सनातन धर्म संसार का आदि धर्म है। यह किसी पुरुष विशेष के उपदेशों, शिक्षाओं या संदेशों पर आधारित नहीं है। इसकी अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हैं। बौद्ध, जैन, सिख आदि सम्प्रदाय इसी से विकसित हुए हैं। विदेशी आक्रमणकारियों के साथ भारत में इस्लाम तथा ईसाई धर्मों (सम्प्रदायों) का आगमन हुआ है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या भारत के मूल सनातन धर्म तथा अन्य सम्प्रदायों के वैचारिक अन्तर से सम्बन्धित है। साम्प्रदायिक कटुता के कारण अपने ही सम्प्रदाय को अच्छ मानना, दूसरों को बलपूर्वक अपना धर्म अपनाने को बाध्य करना आदि साम्प्रदायिकता के मूल कारण हैं। भारत में यह समस्या मूलतः हिन्दू और इस्लाम धर्म के बीच है।
साम्प्रदायिक द्वेष के जहर को इस देश ने शताब्दियों से झेला है। 1947 में देश के विभाजन के समय खून की जो होली खेली गई थी वह आज भी कोढ़ के रूप में चाहे जब फूट निकलती है। इसका परिणाम होता है - हत्या, आगजनी, लूट, बलात्कार और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में देश की बदनामी। करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति का विनाश होता है, द्वेष की खाइयाँ और। इस साम्प्रदायिक दराग्रह ने ही तो सकरात को जहर परोसा, ईसा को सली पर चढाया और गांधी के जिगर में गोली उतारी है।
सन्तों, फकीरों और साहित्यकारों के उपदेश - भारत के सन्तों, फकीरों तथा साहित्यकारों ने सदा साम्प्रदायिक एकता का संदेश तथा उपदेश दिया है। सबसे पहले सन्त कबीर हैं जिन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों को धर्म का मर्म न समझने के लिए फटकारा है -
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुरक कहै रहिमाना।
आपस में दोऊ लरि - लरि मुए, मरम न काहू जाना।
इसी प्रकार साम्प्रदायिक एकता का उपदेश देने वाले सन्तों की एक लम्बी श्रृंखला है। इस एकता के सर्वश्रेष्ठ पक्षधर महात्मा गांधी को कौन नहीं जानता ? इकबाल ने कहा है कि मजहब कभी आपस में बैर करना नहीं सिखाता -
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।
अकबर इलाहाबादी तो दशहरा और मुहर्रम साथ - साथ मनाने की कामना करते हैं -
मुहर्रम और दशहरा साथ होगा
निबह उसका हमारे हाथ होगा।
खुदा की ही तरफ से है यह संजोग......इत्यादि।
सच्चा धर्म और उसकी शिक्षा - सच्चा धर्म मानवता है। धर्मे बैर नहीं सिखाता। वह तो एकता की शिक्षा देता है क्योंकि
सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की सन्तान हैं। धर्म मित्रता की शिक्षा देता है, शत्रुता की नहीं।
उपसंहार - आज देश को साम्प्रदायिक सद्भाव की अत्यन्त आवश्यकता है। अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियाँ और द्वेषी पड़ोसी हमें कमजोर बनाने और विखण्डित करने पर तुले हुए हैं। ऐसे समय में देशवासियों को परस्पर मिल - जुलकर रहने की परम आवश्यकता है। मन्दिर - मस्जिद के नाम पर लड़ते रहने का परिणाम देश के लिए बड़ा घातक हो सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बदनामी होती है। अर्थतन्त्र पर भारी बोझ पड़ता है। अतः हम प्रेम और सद्भाव से रहें तो कितना अच्छा है!
4. पराधीन सपनेह सुख नाही
अथवा
जीवन का सच्चा सुख : स्वाधीनता
प्रस्तावना 'सर्वं परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुख' परवशता में सब कुछ दुःख है और स्वाधीनता में सब कुछ सुख है। यह कथन हम प्रकृति के सारे प्राणी - जगत् के जीवन में प्रत्यक्ष देख सकते हैं। स्वतंत्रता हर प्राणी का जन्मसिद्ध अधिकार है।
पराधीनता का अभिशाप - संयोग से भारत एक ऐसी भूमि रहा है जहाँ के बारे में विदेशों में धारणा थी कि भारत सोने की चिड़िया है। बौद्ध काल में हमारे देश को लोग पानी के जहाजों, ऊँटों अथवा बैलों पर माल लेकर विदेशों में जाते थे। उस समय हमारे देश का व्यापार अरब देशों, मिस्र, बेबीलोन, मेसोपोटामिया, यूनान तथा अन्य देशों से था। भारत की समृद्धि को देखकर यूनान के यात्री मेगस्थनीज, अरब के यात्री अबूबकर, चीन के यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग ने भारत की यात्राएँ की थीं। इस समृद्धि को लूटने के लिए यूनान के सिकन्दर, मध्य एशिया के कुषाण, हूण और शक अरब देशों के महमूद बिन कासिम से लेकर मुगलों तक के लगातार भारत पर आक्रमण होते रहे। भारत को लगभग एक हजार वर्षों तक विदेशी पराध पीनता में रहना पड़ा किन्तु भारत की जीवनी - शक्ति का क्षय कभी नहीं हुआ -
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।
जीवन सुख - स्वाधीनता जीवन का सच्चा सुख है। स्वाधीनता जीव - मात्र को प्रिय है। मनुष्य तो क्या कोई भी जीव - जन्तु, पशु - पक्षी पराधीन रहना नहीं चाहता। पशु वन में रहकर ही प्रसन्न रहते हैं। मनुष्य को भी स्वधीनता प्रिय है। पराये बंधन में रहकर मिलने वाले सुख उसे अच्छे नहीं लगते। चिड़िया पिंजड़े में रहने पर मिलने वाले दाना - पानी और सुरक्षा को पसंद नहीं करती और मौका पाते ही उड़ जाती है -
फिर भी चिड़िया, मुक्ति का गाना गायेगी
मारे जाने की आशंका होने पर भी
पिजडे से जितना अंग निकाल सकेगी, निकालेगी
और पिंजड़ा खुलते ही उड़ जायेगी।
स्वाधीनता संग्राम - विदेशी ताकतों के विरुद्ध भारत में सदैव संघर्ष होते रहे हैं। मुगल शासन के अंतिम शक्तिशाली शासक औरंगजेब के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए दक्षिण में शिवाजी, पंजाब में गुरु गोविन्द सिंह, राजस्थान में वीर दुर्गादास राठौर और मध्य भारत में छत्रसाल आदि ने सशस्त्र संघर्ष किए। संघर्षों से जर्जर हुआ मुगल शासन अन्त में समाप्त हुआ, लेकिन तब तक योरोप के पुर्तगाली, डच, अंग्रेज आदि ने भारत की स्वतन्त्रता को छीन लिया। सन् 1857 का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम अंग्रेजों के विरुद्ध था।
लगभग 90 वर्ष तक चलने वाला यह स्वाधीनता संग्राम अन्त में 15 अगस्त, 1947 ई. को सफल हुआ। भारत आजाद हुआ। इस स्वतन्त्रता संग्राम में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, दादा भाई नौरोजी, . रवीन्द्रनाथ टैगोर, सरोजनी नायडू, महत्मा गाँधी आदि अनेक नेताओं ने भाग लिया। जेलों में यातनाएँ भोगी, घेर. बरबाद हुए। अनेक वीरों ने सीनों पर गोलियाँ खाईं। आज हम स्वतन्त्र वायुमण्डल में साँस ले रहे हैं। अपने देश का मनचाहा विकास करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अनेक वैज्ञानिक और औद्योगिक क्षेत्रों में उन्नति करते हुए आज भारत विश्व की एक शक्ति बनने की तैयारी कर रहा है।
स्वतन्त्रता जीव मात्र का अधिकारः दार्शनिक दृष्टि से मनुष्य ही नहीं संसार के सभी प्राणियों को स्वतन्त्रतापूर्वक रहने का अधिकार है। इसके लिए अनेक आयोग बने हुए हैं। मनुष्यों के लिए विश्वस्तर पर मानवाधिकार आयोग है जो धरती के हर देश में संयुक्त राष्ट्रसंघ की देख - रेख में मानवों के अधिकार की रक्षा करने का कार्य करता है। इसी प्रकार वन्यजीवों की रक्षा हेतु भी आयोग बने हुए हैं। कोई भी व्यक्ति आज पशु - पक्षियों को भी परतन्त्र नहीं बना सकता। सर्कस में कार्य करने वाले पशुओं को लेकर आयोग सदैव सक्रिय रहता है। शेर, रीछ, वानर आदि के खेल दिखाने पर पाबन्दी है। इस प्रकार संसार का हर प्राणी स्वाधीन रहने का अधिकारी है।
उपसंहार - लोकमान्य तिलक ने कहा था - "स्वतन्त्रता मेरा जन्म - सिद्ध अधिकार है।" इस अधिकार के अन्तर्गत
मानव मात्र ही नहीं वरन् पशु - पक्षी भी आते हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने सारे विश्व को एक गाँव में परिवर्तित कर दिया है। सारा संसार आज स्वतन्त्रता का सुख भोग रहा है। छोटे से छोटा देश भी बिना सेना और हथियारों के स्वतन्त्रता का अधिकारी है। मानव संसार का बुद्धिमान प्राणी है, उसने सारे संसार के सभी जीवों को स्वतंत्रता का सुख भोगने का अधिकारी बना दिया है।
5. मानव की चिरसंगिनी प्रकृति
प्रस्तावना - भारतीय मनीषियों ने सृष्टि को चेतन जीव और जड़ प्रकृति का संयोग माना है। विज्ञान जीव या जीवन को भी जड़ प्रकृति का ही एक उत्पाद मानता है। उसके अनुसार जीवन कुछ 'अमीनो एसिड्स' का विशिष्ट संयोग मात्र है। वैज्ञानिक हर मानवीय संवेदना और व्यवहर की 'जेनेटिक' व्याख्या करने में जी - जान से जुटे हुए हैं। 22 मई, के समाचार - पत्रों में छपा है कि 'साइन्स' जर्नल ने एक शोध - पत्र 'प्रयोगशाला में जीवन की उत्पत्ति' में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने दावा किया है। जो प्रकृति और मानव के सम्बन्धों का स्पष्ट प्रमाण है। सत्य जो भी हो, किन्तु मानव और प्रकृति के बीच सम्बन्ध को लेकर दार्शनिकों, धार्मिकों और वैज्ञानिकों की राय अधिक भिन्न नहीं है।
प्रकृति और मानव का अटूट सम्बन्ध - मनुष्य इस पृथ्वी नामक ग्रह पर अपने जन्म से लेकर आज तक प्रकृति पर आश्रित रहा है। भले ही अपने विशिष्ट बौद्धिक क्षमता के बल पर, वह प्रकृति पर शासन करने का अहंकार करता रहे, किन्तु कभी भूकम्प, कभी सुनामी और कभी प्रचण्ड तूफानों के रूप में प्रकृति उसे अपनी सर्वोपरि शक्ति का और उसकी औकात का परिचय कराती आ रही है। प्रसाद ने कहा है कि ........
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित हम सब थे भूले मद में।
भोले, हाँ तिरते केवल सब विलासिता के नद में।।
वर्तमान स्थिति - आज प्रकृति और मनुष्य के बीच सहयोग के स्थान पर संघर्ष छिड़ा हुआ है। मनुष्य प्रकृति को अपनी आज्ञाकारिणी दासी बनाने पर तुला हुआ है। प्राकृतिक देनों का निर्मम और अविवेकपूर्ण दोहन हो रहा है। जल हो या खनिज पदार्थ, वन हों या पर्वत, भूपृष्ठ हो या अन्तरिक्ष सभी मनुष्य द्वारा प्रकृति के शोषण की कहानी कह रहे हैं। सुख - सुविधाओं की लालसा और औद्योगीकरण के अन्ध - अभियान ने पर्यावरण को प्रदूषित कर डाला है। प्रकृति से युद्ध छेड़ने का यह कुत्सित प्रयास, मनुष्य को आत्महत्या की दिशा में ले जा रहा है।
आदर्श सम्बन्ध का विकास - यह निर्विवाद सत्य है कि मनुष्य अपने जीवन के लिए प्रकृति पर निर्भर है। संस्कृति, सभ्यता और वैज्ञानिक प्रवृत्ति के कीर्तिस्तम्भ उसने प्रकृति के उदार प्रांगण में स्थापित किये हैं। उसे प्रकृति प्रदत्त सामग्री का प्रयोग धैर्य, विवेक और संयम के साथ करना चाहिए। प्रकृति के साथ उसके सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण होने चाहिए। यदि उसने प्राकृतिक संसाधनों का अनियन्त्रित दोहन जारी रखा तो वे शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगे। पृथ्वी पर प्रकृति ने उसे जो वैभव उपलब्ध कराया है, वैसा आज तक किसी अन्य ग्रह पर उपस्थित नहीं है। श्रद्धा मनु से कहती है -
एक तुम, यह विस्तृत भूखण्ड प्रकृति वैभव से भरा अमन्द।।
उपसंहार मनष्य और प्रकृति के सम्बन्ध को विकत बनाने में दो बातें प्रधान रही हैं। एक तो जनसंख्या की बेहिसाब वृद्धि और दूसरी मनुष्य की दिनों - दिन बढ़ रही सांस्कृतिक दरिद्रता। पश्चिम की भोगवादी संस्कृति ने वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर प्रकृति के निर्मम दोहन के मार्ग खोले हैं। अब तो पश्चिमी जीवन शैली के उपासकों की समझ में भी आ गया है कि प्रकृति से दो - दो हाथ न करके उसका साथ देने में ही भलाई है। इसी कारण वहाँ प्रकृति के हर अंग को अप्रदूषित रखने पर अत्यन्त बल दिया जा रहा है। हर्बल उत्पादों की बढ़ती ग्राह्यता और ईको फ्रेण्डली उद्योगों पर बल दिया जाना इसी का प्रमाण है। न जाने भारत में लोग कब प्रकृति से अपने पूर्वजों जैसा नाता जोड़ेंगे?
6. सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
अथवा
देश हमारा सबसे न्यारा
प्रस्तावना -
विषुवत् रेखा का वासी जो जी लेता है हाँफ - हाँफ कर।
रखता है अनुराग अलौकिक वह भी अपनी मातृभूमि पर।
हर प्राणी को अपनी जन्म - भूमि से स्वाभाविक प्रेम होता है। स्वदेश के अन्न, जल और वायु से ही मनुष्य को जीवन मिलता है। उसका इतिहास और परम्पराएँ उसके सिर को गर्व से ऊँचा करती हैं। मुझे भी अपने भारत से असीम प्यार है। मुझे भारतीय होने पर गर्व है। मेरा देश सबसे न्यारा है, सबसे प्यारा है।
नामकरण एवं भौगोलिक स्थिति - राजा दुष्यंत और शकुन्तला के प्रतापी पुत्र सम्राट भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत हुआ। भरतखण्ड, जम्बूद्वीप, आर्यावर्त, हिन्दुस्तान, इंडिया भी भारत के अन्य नाम रहे हैं। हमारा देश एशिया महाद्वीप के दक्षिण में स्थित है। इसके उत्तर में हिमालय के धवल शिखर हैं और दक्षिण में हिन्द महासागर। पूर्वी सीमा पर असम, नागालैण्ड, त्रिपुरा आदि प्रदेश हैं और पश्चिम में राजस्थान तथा गुजरात प्रदेश हैं।
इतिहास एवं संस्कृति - भारत विश्व के प्राचीनतम देशों में गिना जाता है। भारत के प्राचीन वैभव का परिचय हमें वेद, उपनिषद् एवं पुराण आदि ग्रन्थों से मिलता है। भारतीय - संस्कृति संसार की प्राचीनतम एवं महानतम संस्कृति रही है। इस संस्कृति ने 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' (सब सुखी रहें) तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (सम्पूर्ण धरती एक परिवार है) आदि महान संदेश दिए हैं। इस संस्कृति ने सत्य, अहिंसा, परोपकार, दान, क्षमा आदि श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को अपनाया है। दधीचि, शिवि, रंतिदेव, कर्ण जैसे दानी और परोपकारी, राम, कृष्ण, अर्जुन जैसे वीर, हरिश्चन्द्र जैसे सत्यनिष्ठ, बुद्ध और महावीर जैसे अहिंसा के पालक भारतीय - संस्कृति की ही देन हैं। "अनेकता में एकता" भारतीय - संस्कृति की ही विशेषता है। विधर्मी से बैर हमारी संस्कृति ' में न.पद्ध है -
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा।
प्राकतिक वैभव - मेरी भारत - भमि पर प्रकृति ने अपार प्रेम बरसाया है। बारी - बारी से छ: ऋतएँ इसका भंगार करती हैं। मधुकंठ विहंगों की अवली, नित मंगलगीत सुनाती हैं। एक ओर नभस्पर्शी हिमालय और दूसरी ओर हरे - भरे विस्तृत मैदान, बलखाती नदियाँ, दर्पण से झील - ताल, वनस्पतियों से भरे. वनांचल और सागर के अनंत विस्तार, क्या नहीं दिया है प्रकृति ने भारत को ! यहाँ खनिजों के भंडार हैं। जीवनोपयोगी विविध वस्तुओं के उपहार हैं।
वर्तमान स्थिति - आज मेरा भारत विश्व का विशालतम और स्थिर लोकतंत्र है। यह अपने बहुमुखी विकास में जुटा हुआ है। ज्ञान - विज्ञान, व्यवसाय, शिक्षा एवं अध्यात्म हर क्षेत्र में अपनी प्रगति के परचम फहरा रहा है। विश्व की महाशक्ति बनने की ओर अपने कदमों को बढ़ाता जा रहा है।
उपसंहार - मेरा देश सबसे न्यारा और निराला है। ऐसी सांस्कृतिक उदारता और साम्प्रदायिक सद्भाव अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। भारत के समान वैशिष्ट्य अन्य देशों में नहीं मिलता। भारत अनुपम है। संसार के समस्त देशों में भारत अर्थात् हिन्दुस्तान के समान उत्तम कोई देश नहीं है। इसी कारण शायर इकबाल ने लिखा है -
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा,
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा।
7.हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी
अथवा
हिन्दी भाषा राष्ट्र की अस्मिता की अभिव्यक्ति है
अथवा
राष्ट्रीय एकता और हिन्दी
प्रस्तावना-भाषा मनुष्य को ईश्वरं द्वारा दिया गया महान् वरदान है। पहले मनुष्य संकेतों से, कुछ ध्वनियों से अपना मन्तव्य प्रकट करता था। धीरे - धीरे ध्वनि - चित्र बने तथा लिपि का निर्माण होने से बोली को भाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ। भाषा के कारण ही साहित्य, कला, धर्म, संस्कृति और विज्ञान आदि क्षेत्रों की मानवीय उपलब्धियाँ आज सुरक्षित रह सकी हैं।
भारत की भाषायें भारत एक विशाल देश है। उसमें अनेक भाषायें प्रयोग की जाती हैं। भारत में बोली जाने वाली..... अनेक भाषाओं में से पन्द्रह मुख्य भाषाओं को भारतीय संविधान में मान्यता दी गई है। ये भाषायें तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, बंगला, असमिया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिन्धी, कश्मीरी, उर्दू, संस्कृत तथा हिन्दी हैं। इनमें हिन्दी को संविधान द्वारा भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में माना गया है।
राष्ट्रभाषा के लिए उपयोगी हिन्दी राष्ट्रभाषा बनने के लिए किसी भी भाषा में कुछ विशेषताओं का होना आवश्यक है। वह सरल हो, जिससे अन्य भाषा - भाषी उसे सरलता से सीख सकें। वह देश की सभ्यता और संस्कृति को व्यंजित करने वाली हो। उसका विस्तार देश के दूरस्थ विभिन्न प्रदेशों तक हो। उसका साहित्य समृद्ध हो। देश के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, वैज्ञानिक तथा शैक्षिक कार्यों के संचालन में उसका उपयोग सफलता के साथ हो सके। नि:संदेह हिन्दी इन सभी विशेषताओं से युक्त है और भारत की राष्ट्रभाषा होने के लिए सर्वाधिक उपयोगी है।
राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का विकास - राष्ट्रभाषा की मान्यता प्राप्त होने पर केन्द्र तथा राज्य सरकारों, हिन्दी - सेवी संस्थाओं तथा हिन्दी प्रेमीजनों ने उसके विकास का पूरा प्रयास किया है। केन्द्र में हिन्दी निदेशालय खोला गया है। विभिन्न प्रकार की शब्दावलियों का निर्माण हुआ है। वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दकोष तैयार हुए हैं उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, बिहार आदि में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ है। सरकार ने अहिन्दी भाषी कर्मचारियों को हिन्दी सीखने के लिए प्रोत्साहित किया है। हिन्दी में टंकण तथा आशुलिपि का विकास भी हुआ है।
हिन्दी के विकास में गैर - सरकारी संस्थाओं का योगदान - किसी भी भाषा का विकास अपनी स्वाभाविक गति से होता है। सरकारी प्रयास उसे कृत्रिम रूप से बढ़ावा देते हैं किन्तु उससे विशेष लाभ नहीं होता। हिन्दी की प्रगति में सरकारी प्रयासों की अपेक्षा अन्य व्यक्तियों तथा संस्थाओं का योगदान अधिक महत्वपूर्ण है। विभिन्न संस्थायें अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी के विकास का कार्य सफलता के साथ कर रही हैं। सिनेमा तथा दूरदर्शन का योगदान हिन्दी के प्रसार - प्रचार में बहुत महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी फिल्मों तथा दूरदर्शन के कार्यक्रमों ने देश - विदेश में हिन्दी को लोकप्रिय बनाया है।
हिन्दी - विरोध की राजनीति - राष्ट्रभाषा घोषित होने पर हिन्दी का विरोध होने लगा। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी तथा सुनीति कुमार चटर्जी ने यह कहकर हिन्दी का विरोध किया कि उसमें अंग्रेजी का स्थान लेने की क्षमता नहीं है। देश की एकता ग्रेजी का होना जरूरी है। हिन्दी में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा देने के लिये शब्दावली ही नहीं है। इसी आधार पर अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी विरोध के आन्दोलन चले। लेकिन इस सबके पीछे राजनीति ही कारण रही अन्यथा उपर्युक्त समस्त तर्क निराधार तथा महत्वहीन ही हैं। हिन्दी तो अहिन्दी भाषी जनों में अपना स्थान निरन्तर बनाती जा रही है।
विकास के लिए सुझाव - हिन्दी के विकास के लिए यह सबसे महत्त्वपूर्ण सुझाव है कि उसको अपने नैसर्गिक प्रवाह के साथ बढ़ने दिया जाये। आवश्यकता यह है कि हिन्दी को नवीन ज्ञान - विज्ञान के अनुरूप विकसित किया जाये। राजकीय कार्यों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहित किया जाये। हिन्दी में उच्च कोटि के वैज्ञानिक, तकनीकी तथा शास्त्रीय ज्ञान से सम्बन्धित साहित्य की रचना हो। विश्वविद्यालयों तथा प्रतियोगी परीक्षाओं में हिन्दी माध्यम के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाये।
उपसंहार - अपनी भाषा की उन्नति से ही देश की सच्ची उन्नति होगी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा है -
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल।
अतः हमारा कर्त्तव्य है कि हम राष्ट्रभाषा हिन्दी की उन्नति में अपना योगदान सुनिश्चित करें।
8. साहित्य समाज का दर्पण है
अथवा
साहित्य और समाज
प्रस्तावना - साहित्य का जन्म मनुष्य के भाव - जगत् के साथ हुआ है। अपनी अदम्य मनोभावनाओं को मनुष्य ने विविध विधाओं के माध्यम से व्यक्त किया है। साहित्य भी उनमें से एक है। साहित्य मानव समाज का प्रतिबिम्ब होता है। साहित्यकार स्वयं भी एक सामाजिक प्राणी होता है। अतः उसकी कृतियों में समाज का हर पक्ष, हर तेवर और हर आयाम मूर्त हुआ करता है।
साहित्य और समाज का अटूट संबंध - साहित्यकार मानव - समाज का अभिन्न अंग होता है। उसका तन और मन उसके समाज की ही देन होते हैं। अतः उसकी लेखनी से उद्भूत हर रचना पर समाज की छाया पड़ना स्वाभाविक है। साहित्य के बिना समाज और समाज के बिना साहित्य निरर्थक और अधूरा है। साहित्य का अर्थ है हित से युक्त' होना। यह हित समाज के अतिरिक्त और किसका हो सकता है ? साहित्य के बिना समाज गूंगा है तो समाज के बिना साहित्य कोरा कल्पना - विलास है। दोनों अपने अस्तित्व और विकास के लिए एक - दूसरे पर निर्भर हैं।
हत्य समाज का दर्पण है - साहित्य को 'समाज का दर्पण' कहा जाता है। इस दर्पण में समाज की हर छवि, हर भंगिमा प्रतिबिम्बित हुआ करती है। साहित्यकार की भावनाएँ और विचार, आकांक्षाएँ और संदेश - सभी सामाजिक परिवेश की देन हुआ करती हैं। बहुत - से साहित्यकारों ने 'स्वान्तः सुखाय' को अपनी रचनाओं का लक्ष्य बताया है लेकिन साहित्यकार का 'स्वान्तः' भी समाज की ही क्रिया - प्रतिक्रियाओं की परिणति होती है। साहित्य जहाँ समाज की मानसिक प्रगति और ऊर्जा का मानदण्ड है वहीं समाज भी अपनी समस्त आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए साहित्य का मुखापेक्षी रहता है। जो साहित्य अपने समकालीन समाज की उपेक्षा करता है वह केवल क्षणिक मनोरंजन की सामग्री बन सकता है। वह चिरजीवी नहीं हो सकता।
सिद्धान्त और अनुभूति - साहित्य के दो रूप हैं - (1) यथार्थवादी और (2) आदर्शवादी। इसका कारण साहित्य के दो पक्ष हैं—प्रथम सिद्धान्त तथा द्वितीय अनुभूति। अनुभूति किसी भी श्रेष्ठ साहित्य का आवश्यक अंग है। डॉ. सम्पूर्णानन्द के अनुसार, अनुभूति के अभाव में सिद्धान्त पर आधारित साहित्य श्रेष्ठ साहित्य नहीं होता। मुंशी प्रेमचन्द के अनुसार - "सिद्धान्तवादी साहित्य की अपेक्षा अनुभूति के क्षणों में बँधा हुआ साहित्य वास्तव में साहित्य की संज्ञा से विभूषित होता है।"
हिन्दी साहित्य और समाज - विश्व के हर एक समाज को उसके साहित्य ने गहराई से प्रभावित किया है। फ्रांस की राज्य - क्रान्ति रूसो और वाल्टेयर की लेखनी की आभारी थी और इटली का कायाकल्प मेजिनी के साहित्य ने गढ़ा वचारधारा ही साम्यवादी रूस की परिकल्पना का आधार बनी थी। इंग्लैण्ड को समृद्धि के सिंहद्वार पर ले जाने वालों में रस्किन भी स्मरणीय रहेंगे। हिन्दी - साहित्य भी कभी समाज निरपेक्ष नहीं रह सका।
रासो - साहित्य में ध्वनित तलवारों की झंकारें और युद्धोन्मत्त हुंकारें, तत्कालीन समाज की परिस्थितियों की प्रतिच्छायाएँ हैं। भक्तिकालीन साहित्य भूपतियों से निराश जनता की जगत्पति से कातर पुकार ही तो है। पराजय और उत्पीड़न की कुंठाओं ने ही कबीर, सूर और तुलसी की भक्तिधारा को जन - मन का जीवनाधार बनाया था। रीतिकालीन कवियों का काव्य भी तत्कालीन समाज के 'गम गलत' करने का साधन है। आधुनिक काव्य में उमड़ते देशप्रेम, क्रान्ति और प्रगतिवादिता के स्वर समाज के नवोत्थान की ही अनुगूंजें हैं। आज का हिन्दी - साहित्य अपनी हर विधा के साथ देश - काल से कदम . से कदम मिलाकर चल रहा है।
उपसंहार - साहित्य की रचना कभी शून्य नहीं हो सकती। जो साहित्य समाज - सापेक्ष नहीं होगा, वह चिरजीवी और प्रभावशाली नहीं हो सकता। साहित्य तो 'सत्यं शिवं सुंदरम्' की साधना है। उसमें मानव समाज का हित समाहित होना स्वाभाविक है। अतः साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाना सर्वथा उचित है।
9. मेरी प्रिय पुस्तक
अथवा
रामचरितमानस की महत्ता
प्रस्तावना - श्रेष्ठ ग्रन्थ मनुष्य के सच्चे मार्गदर्शक होते हैं। वे उसके सुख - दुःख के सच्चे साथी होते हैं। दुःख के क्षणों में वे उसको धैर्य और सान्त्वना देते हैं तो सुख के क्षणों में उसके आनन्द को द्विगुणित कर देते हैं। श्रेष्ठ ग्रन्थों को तलाश कर पढना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। मैंने अपने जीवन में अनेक पस्तकें पढी हैं किन्त जो प्रसन्नता और सन्तोष मझे गोस्वामी तुलसीदास के 'रामचरितमानस' को पढ़कर प्राप्त हुआ है, वह किसी अन्य ग्रन्थ के अध्ययन से नहीं मिला। इसी कारण 'रामचरितमानस' मेरी प्रिय पुस्तक है।
मानस की विषय - वस्तु - रामचरितमानस का विषय लोक - पावन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम का चरित्र है। सूर्यवंशी सम्राट दशरथ के यहाँ जन्म लेकर अयोध्या की गलियों में क्रीड़ा करने वाले राम परम आज्ञाकारी और मेधावी बालक थे। वह जनक की राजसभा में शिव के धनुष को खण्डित करके, जगदम्बा सीता का पाणिग्रहण करते हैं। कैकेयी के षड्यन्त्र के कारण राम बनवासी होते हैं। चौदह वर्ष के वनवास में सीता का लंकापति रावण द्वारा अपहरण, सेतुबन्ध, राम - रावण युद्ध, लंका विजय और उसके पश्चात् राम का राज्याभिषेक; इन सभी घटनाओं तथा अनेक सहायक कथाओं को महाकवि तुलसीदास ने अपने प्रतिभा - कौशल से महाकाव्यत्व की काया में बाँधा है।
लोकप्रियता के आधार - रामचरितमानस की लोकप्रियता के पीछे निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं -
(i) समन्वय का प्रशंसनीय प्रयास - तुलसीदास ने मानस में समन्वय की उदार भावना को स्थान दिया है। उसमें समाज के प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व है। लौकिकता और आध्यात्मिकता, ज्ञान और भक्ति, साकार और निराकार उपासना आदि सभी के समन्वय का सफल प्रयास हुआ है।
(ii) महान् आदर्शों का प्रस्तोता - 'रामचरितमानस' की लोकप्रियता का दूसरा कारण है-उदात्त आदर्श का प्रस्तुतीकरण। पिता दशरथसा, माता कौशल्यासी, पत्नी सीतासी, पुत्र राम जैसा, भाई भरत और लक्ष्मण जैसा, गुरु वसिष्ठ सा, दास हनुमान सा, भक्त शबरी जैसी, कहाँ तक गिनाया जाये, तुलसीदास ने जीवन का कोई अंग अछूता नहीं छोड़ा यहाँ तक कि मित्रता और शत्रुता का आदर्श भी उन्होंने प्रस्तुत किया है।
(iii) धर्म और आध्यात्मिकता का मेरुदण्ड - 'रामचरितमानस' ने लोकधर्म का विकास किया है। उसमें धर्म और अध्यात्म पर नीरस उपदेश न होकर आचरण का उत्कर्ष है। सभी धर्म - सम्प्रदाय उसे मुक्त - भाव से अपना सकते हैं। उसमें धर्म के सभी मूलतत्व विद्यमान हैं।
(iv) आशा और विश्वास का मणिदीप - 'मानस' ने निराशा और उत्पीड़न के अंधकार में डूबी एक पूरी की पूरी जाति को सहारा दिया था। आज भी 'मानस' अप्रासंगिक नहीं हुआ है। वह केवल एक धार्मिक ग्रन्थ मात्र नहीं है। करोड़ों मानवों को जीवन की गूढ़ समस्याओं में मार्ग दिखाने वाला है। सामाजिक और पारिवारिक समरसता की अमूल्य भेंट वह आज भी हमें दे सकता है।
काव्यगत वैभव - 'रामचरितमानस' एक काव्य के रूप में कम वैभवपूर्ण नहीं है। इसके भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही अनुपम हैं। मानव जीवन की सभी भावनाओं, परिस्थितियों, उत्कर्ष और अपकर्षों को इसमें स्थान मिला है। रस, अलंकार, छन्द, भाषा, शैली सभी कला तत्त्व अपने उत्कृष्ट रूप से विद्यमान हैं।
उपसंहार - 'रामचरितमानस' पर धार्मिकों और काव्यप्रेमियों का समान अनुराम रहा है। यह केवल हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ मात्र नहीं है, अपितु विश्वसाहित्य की अनुपम कृति है। आज भी यह उतना ही प्रासंगिक और प्रेरक है, जितना सैकड़ों वर्ष पूर्व था। यह भारतीय संस्कृति का वटवृक्ष है, जिस पर हर जाति के विहंग निस्संकोच आश्रय ले सकते हैं। यही कारण है कि यह मेरा सर्वाधिक प्रिय ग्रन्थ है।
10. परहित सरिस धरम नहिं भाई
अथवा
परोपकार का महत्त्व
प्रस्तावना - संसार के हर धर्म में परोपकार की महिमा गाई गई है। महामुनि व्यास कहते हैं - “परोपकार पुण्याय पापाय परपीडनम्"। परोपकार ही सबसे बड़ा पुण्य है और परपीड़न ही सबसे बड़ा पाप है। महाकवि तुलसीदास भी
कहते हैं - 'परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई ॥'
परोपकार क्या है? - 'पर' अर्थात् दूसरों का उपकार ही परोपकार है। मनुष्य को पशु - स्तर से उठाकर, मानवीयता के महिमामय स्वरूप से मण्डित करने वाला परोपकार ही है। दूसरों का उपकार स्वार्थ भावना से भी किया जाता है। यश - प्राप्ति या प्रसिद्धि के लिए भी लोग दूसरों की सहायता किया करते हैं, किन्तु कोई भी कार्य तब तक उपकार की श्रेणी में नहीं आ सकता, जब तक कि वह नि:स्वार्थ भाव से न किया गया हो। परोपकार के मूल में त्याग है और त्याग के लिए साहस आवश्यक है। अतः साहसं के साथ स्वयं कष्ट सहते हुए भी दूसरों की भलाई में रत रहना ही परोपकार है।
परोपकार : एक दैवी गुण - परोपकार एक उच्चकोटि का असाधारण गुण है जो विरले ही व्यक्तियों में देखा जाता है। हर व्यक्ति के लिए इस व्रत को धारण कर पाना सम्भव भी नहीं है। जब मनुष्य की दृष्टि व्यापक हो जाती है, 'स्व' और 'पर' का भेद समाप्त हो जाता है, उसे जीवमात्र में एक ही विभूति के दर्शन होते हैं तभी परोपकार का सच्चा स्वरूप सामने आता है। एक महात्मा बार - बार नी में बहते बिच्छू को बचाने के लिए उठाते हैं और वह मूर्ख हर बार उनको डंक मार नदी में जा गिरता है लेकिन परोपकारी संत असह्य पीडा सहन करके भी उसे बचाते हैं। ऐसे परोपकारी संत देवताओं के तुल्य हैं।
परोपकारी महापुरुष - भारत को परोपकारी महात्माओं की दीर्घ परम्परा ने गौरवान्वित किया है। महर्षि दधीचि तथा महाराजा रन्तिदेव के विषय में यह उक्ति देखिए -
क्षुधात रन्तिदेव ने दिया करस्थ थाल भी। तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थि - जाल भी ॥
'शिवि' राजा का उदाहरण भी कम उज्ज्वल नहीं, जिन्होंने एक पक्षी की रक्षार्थ अपना माँस ही नहीं, शरीर तक दान में दे दिया। परोपकारियों को इसकी चिन्ता नहीं होती कि संसार उनके विषय में क्या कह रहा है या कर रहा है। उनका स्वभाव ही परोपकारी होता है
तुलसी सन्त सअंब तरु, फल फलहिं, पर हेत। इतते ये पाहन हनत, उतते वे फल देत ॥
परोपकार का महत्त्व - आज के घोर भौतिकवादी युग में तो परोपकार का महत्त्व और भी बढ़ गया है। विकसित और विकासशील देशों की कटु स्पर्धा को रोकने और संसार में आर्थिक सन्तुलन तथा सुख - समृद्धि लाने के लिए राष्ट्रों को चाहिए कि वे परोपकार की भावना से काम लें परन्तु उस उपकार के पीछे राजनीतिक स्वार्थ - सिद्धि एवं प्रभाव - विस्तार की भावना नहीं होनी चाहिए।
उपसंहार - परोपकार धर्मों का धर्म कहलाता है। अन्य धर्म अफीम हो सकते हैं जिसके नशे में भले - बुरे का ज्ञान होना सम्भव नहीं किन्तु परोपकार धर्म वह अमृत है जो जीव - मात्र को सन्तोष तथा आनन्द की संजीवनी से ओत - प्रोत कर देता है। परोपकारी व्यक्ति स्वयं स्वार्थहीन होता है, उसका परोपकार ही उसकी अमर निधि बन जाता है। 'हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता' की भाँति परोपकार की कथा भी अनन्त है। वह द्रोपदी का चीर है, जिसका कोई अन्त नहीं। अन्त में महाकवि तुलसीदास के शब्दों को उद्धृत करते हुए हम कह सकते हैं -
"परहित लागि तजहिं जो देही। सन्तत सन्त प्रशंसहिं तेही ॥"
11. जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान
अथवा
संतोषी सदा सुखी
प्रस्तावना -
गौधन गजधन, वाजिधन, और रतन धन खानि।
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान ॥
आज भले ही संतोषी स्वभाव वाले व्यक्ति को मूर्ख और कायर कहकर हँसी उड़ाई जाय लेकिन संतोष ऐसा गुण है जो आज भी सामाजिक सुख - शांति का आधार बन सकता है। असंतोष और लालसा ने श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को उपेक्षित कर दिया है। चारों ओर ईर्ष्या, द्वेष और अस्वस्थ होड़ का बोलबाला है। परिणामस्वरूप मानव जीवन की सुख - शान्ति नष्ट हो गई है।
संसार की अर्थव्यवस्था में असंतोष - आज सारा संसार पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाकर अधिक - से - अधिक धन कमाने की होड़ में लगा हुआ है। उसकी मान्यता है कि कैसे भी हो अधिक - से - अधिक धन कमाना चाहिए। धनोपार्जन में साधनों की पवित्रता - अपवित्रता का कोई महत्त्व नहीं रहा है। रिश्वत लेकर, मादक पदार्थ बेचकर, भ्रष्टाचार कर, टैक्स चोरी करके, मिलावट करके, महँगा बेचकर धन कमाना ही लोगों का लक्ष्य है।
यही काला धन है। इससे ही लोग सुख और ऐश्वर्य का जीवन जीते हैं। इसमें से थोड़ा - बहुत धार्मिक कार्यों में दान देकर अथवा सामाजिक संस्थाओं को देकर वे दानदाता और उदार पुरुष का गौरव पाते हैं। . इस प्रकार संसार की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था दूषित हो गई है। अनैतिक आचरणों से धन कमाना आज का शिष्टाचार बन गया है। एक ओर अधिक से अधिक धन बटोरने की होड़ मची है तो दूसरी ओर भुखमरी और घोर गरीबी है। ये दोनों पक्ष आज की अर्थव्यवस्था के दो पहलू हैं, दो चेहरे हैं। अमीर और अमीर बन रहा है, गरीब और गरीब होता जा रहा है।
असंतोष का कारण - सम्पूर्ण मानव जाति आज जिस स्थिति में पहुँच गई है इसका कारण कहीं बाहर नहीं है स्वयं मनुष्य के मन में ही है। आज का मानव इतना स्वार्थी हो गया है कि उसे केवल अपना सुख ही दिखाई देता है। वह स्वयं अधिक - से - अधिक धन कमाकर संसार का सबसे अमीर व्यक्ति बनना चाहता है। 'फोर्स' नामक पत्रिका ने इस स्पर्धा को और बढ़ा दिया है। इस पत्रिका में विश्व के धनपतियों की सम्पूर्ण सम्पत्ति का ब्यौरा होता है तथा उसी के अनुसार उन्हें श्रेणी प्रदान की जाती है। अतः सबसे ऊपर नाम लिखाने की होड़ में धनपतियों में आपाधापी मची हुई है। यह संपत्ति असंतोष का कारण बनी हुई है।
इसके अतिरिक्त घोर भौतिकवादी दृष्टिकोण भी. असंतोष का कारण बना हुआ है। 'खाओ, पियो, मौज करो' यही आज का जीवन - दर्शन बन गया है। इसी कारण सारी नीति और मर्यादाएँ भूलकर आदमी अधिक - से - अधिक धन और सुख - सुविधाएँ बटोरने में लगा हुआ है। कवि प्रकाश जैन के शब्दों में -
हर ओर धोखा, झूठ, फरेब, हर आदमी टटोलता है दूसरे की जेब।
संतोष में ही समाधान - इच्छाओं का अंत नहीं, तृष्णा कभी शांत नहीं होती। असंतुष्टि की दौड़ कभी खत्म नहीं होती। जो धन असहज रूप से आता है वह कभी सुख - शांति नहीं दे सकता। झूठ बोलकर, तनाव झेलकर, अपराध भावना का बोझ ढोते हुए, न्याय, नीति, धर्म से विमुख होकर जो धन कमाया जाएगा उससे चिन्ताएँ, आशंकाएँ और भय ही मिलेगा, सुख नहीं। इस सारे जंजाल से छुटकारे का एक ही उपाय है - संतोष की भावना।
उपसंहार - आज नहीं तो कल धन के दीवानेपन को अक्ल आएगी। धन समस्याओं को हल कर सकता है, भौतिक सुख - सुविधाएँ दिला सकता है, किन्तु मन की शांति तथा चिन्ताओं और शंकाओं से रहित जीवन धन से नहीं संतोष से ही प्राप्त हो सकता है। 'संतोषी सदा सुखी' यह कथन आज भी प्रासंगिक है। असंतोषी जब सिर धुनता है तब संतोषी सुख की नींद सोता है।
12. स्वच्छ भारत : स्वस्थ भारत
अथवा
स्वच्छ भारत अभियान
स्वच्छता क्या है? - निरंतर प्रयोग में आने पर या वातावरण के प्रभाव से वस्तु या स्थान मलिन होता रहता है। धूल, पानी, धूप, कूड़ा - करकट की पर्व को साफ करना, धोना, मैल और गंदगी को हटाना ही स्वच्छता कही जाती है। अपने शरीर, वस्त्रों, घरों, गलियों, नालियों, यहाँ तक कि अपने मोहल्लों और नगरों को स्वच्छ रखना हम सभी का दायित्व है।
स्वच्छता के प्रकार - स्वच्छता को मोटे रूप में दो प्रकार से देखा जा सकता है - व्यक्तिगत स्वच्छता और सार्वजनिक स्वच्छता। व्यक्तिगत स्वच्छता में अपने शरीर को स्नान आदि से स्वच्छ बनाना, घरों में झाडू - पोंछा लगाना, स्नानगृह तथा शौचालय को विसंक्रामक पदार्थों द्वारा स्वच्छ रखना। घर और घर के सामने से बहने वाली नालियों की सफाई, ये सभी व्यक्तिगत स्वच्छता के अंतर्गत आते हैं। सार्वजनिक स्वच्छता में मोहल्ले और नगर की स्वच्छता आती है जो प्रायः नगर पालिकाओं और ग्राम पंचायतों पर निर्भर रहती है। सार्वजनिक स्वच्छता भी व्यक्तिगत सहयोग के बिना पूर्ण नहीं हो सकती।
स्वच्छता के लाभ - 'कहा गया है कि स्वच्छता ईश्वर को भी प्रिय है।' ईश्वर का पापात्र बनने की दष्टि से ही नहीं अपितु अपने मानव जीवन को सुखी, सुरक्षित और तनावमुक्त बनाए रखने के लिए भी स्वच्छता आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। मलिनता या गंदगी न केवल आँखों को बुरी लगती है, बल्कि इसका हमारे स्वास्थ्य से भी सीधा संबंध है। गंदगी रोगों को जन्म देती है। प्रदूषण की जननी है और हमारी असभ्यता की निशानी है। अत: व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्वच्छता बनाए रखने में योगदान करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
स्वच्छता के उपर्युक्त प्रत्यक्ष लाभों के अतिरिक्त इसके कुछ अप्रत्यक्ष और दूरगामी लाभ भी हैं। सार्वजनिक स्वच्छता से व्यक्ति और शासन दोनों लाभान्वित होते हैं। बीमारियों पर होने वाले खर्च में कमी आती है तथा स्वास्थ्य सेवाओं पर व्यय होने वाले सरकारी खर्च में भी कमी आती है। इस बचत को अन्य सेवाओं में उपयोग किया जा सकता है।
स्वच्छता : हमारा योगदान - स्वच्छता केवल प्रशासनिक उपायों के बलबूते नहीं चल सकती। इसमें प्रत्येक नागरिक की सक्रिय भागीदारी परम आवश्यक होती है। हम अनेक प्रकार से स्वच्छता से योगदान कर सकते हैं, जो निम्नलिखित हों 'सकते हैं घर का कूड़ा - करकट. गली या सड़क पर न फेंकें। उसे - सफाईकर्मी के आने पर उसकी ठेल या वाहन में ही डालें। कूड़े - कचरे को नालियों में न बहाएँ। इससे नालियाँ अवरुद्ध हो जाती हैं। गंदा पानी सड़कों पर बहने लगता है।
पालीथिन का बिल्कुल प्रयोग न करें। यह गंदगी बढ़ाने वाली वस्तु तो है ही, पशुओं के लिए भी बहुल घातक हैं। घरों के शौचालयों की गंदगी नालियों में न बहाएँ। खुले में शौच न करें तथा बच्चों को नालियों या गलियों में शौच न कराएँ। नगर पालिका के सफाईकर्मियों का सहयोग करें।
उपसंहार - प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान चलाया है। इसका प्रचार - प्रसार मीडिया के माध्यम से निरंतर किया जा रहा है। अनेक जन प्रतिनिधि, अधिकारी - कर्मचारी, सेलेब्रिटीज (प्रसिद्ध लोग) इसमें भाग ले रहे हैं। जनता को इसमें अपने स्तर से पूरा सहयोग देना चाहिए। इसके साथ गाँवों में खुले में शौच करने की प्रथा को समाप्त करने के लिए लोगों को घरों में शौचालय बनवाने के प्रेरित किया जा रहा है। उसके लिए आर्थिक सहायता भी प्रदान की अभियानों में समाज के प्रत्येक वर्ग को पूरा सहयोग करना चाहिए।
13. नदी जल स्वच्छता अभियान
प्रस्तावना - जल को 'जीवन' कहा गया है। जल के बिना सृष्टि में जीवन का अस्तित्व संभव नहीं है। प्रकृति ने हमें जल भंडार उपलब्ध कराने में कोई कंजूसी नहीं की है। पृथ्वी का तीन चौथाई भाग जल से आवृत्त है। पेय हो या अपेय हर .. रूप में जल हमारे लिए उपयोगी है। ऐसे महत्वपूर्ण जल को स्वच्छ और सुरक्षित रखना मनुष्य का अनिवार्य दायित्व माना : जाना चाहिए।
नदियों का महत्व - हमारे देश में नदियों का सदा से महत्वपूर्ण स्थान रहा है। न केवल भौतिक लाभों की दृष्टि से बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी नदियों के प्रति पूज्यभाव रहा है। गंगा का.स्थान तो इस दृष्टि से सर्वोपरि है। नदियों से पीने और खेती की सिंचाई के लिए जल मिलता है। उद्योगों में भी नदी जल का उपयोग होता है। गहरी और सदानीरा नदियों से यात्रा और व्यापार में सहयोग प्राप्त होता है। धार्मिक लोग नदी में स्नान करके पुण्य लाभ और पवित्रता प्राप्त करते हैं। नदी जल से देवताओं का अभिषेक होता है। इस प्रकार नदियों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है।
नदी जल की स्थिति - आज दुर्भाग्य से नदियों के प्रति सर्वत्र उपेक्षा का भाव दिखाई दे रहा है। नदी जल के प्रदूषण से नदियों की उपयोगिता और अस्तित्व संकट में पड़ गए हैं। नगरों का कूड़ा - करकट, विसर्जित जल और धार्मिक कृत्यों का अपशिष्ट नदियों में बहाया जा रहा है। समस्त जीवों को जीवन देने वाली नदियों का जीवन ही संकट में पड़ा का जीवन ही सकट में पड़ा हुआ है। नदियाँ। नाले बनती जा रही हैं। - नदी जल की स्वच्छता कैसे? - नदी जल को स्वच्छ बनाने में सरकार और जनता दोनों की सकारात्मक भागीदारी आवश्यक है।
वर्षों पहले गंगा की स्वच्छता का अभियान चला था किन्तु करोड़ों रुपए व्यय होने के बाद भी गंगा की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया। वर्तमान सरकार ने अब 'नमामि गंगे' नाम से गंगा स्वच्छता अथवा नदी जल स्वच्छता अभियान का आरम्भ किया है। केवल सरकारी अभियान से नदियाँ स्वच्छ नहीं हो सकती। हर वर्ग के नागरिकों को इसे एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में अपनाना होगा। बस्तियों का कूड़ा, मल तथा औद्योगिक प्रदूषित जल और अपशिष्ट पदार्थ नदी में बहाने को घोर पाप और अपराध मानना होगा। कुछ स्वैच्छिंक संस्थाएँ भी इस अभियान में भाग ले रही हैं। छात्र भी रैलियों तथा स्वच्छीकरण कार्यक्रमों द्वारा इस अभियान में भागीदारी निभा सकते हैं।
उपसंहार - नदियाँ हमारे देशरूपी शरीर की रक्त शिराएँ हैं। देश को स्वच्छ, स्वस्थ और सम्पन्न बनाने तथा विश्व में एक स्वच्छता प्रिय राष्ट्र की छवि बनाने के लिए 'नदी जल स्वच्छता अभियान' से जुड़ना हम सभी का कर्तव्य है। यदि नदियों की उपेक्षा ऐसी ही होती रही तो भौतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से ऐसी अपूरणीय क्षति होगी कि सारा भारतीय समाज पछताने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाएगा। अतः नदियों के महत्व और उनकी स्वच्छता तथा सुरक्षा के प्रति सचेत होकर एक राष्ट्रीय . दायित्व को निभाना परम आवश्यक है।
14. खुला शौच मुक्त गाँव
खुला शौच मुक्त से आशय 'खुला शौच मुक्त' को सरल भाषा में कहें.तो 'खुले में शौच क्रिया से मुक्त होना' इसका आशय है। ऐसा गाँव जहाँ लोग बाहर खेतों या. जंगलों में शौच के लिए न जाते हों, घरों में ही शौचालय हों, खुला शौच' मुक्त गाँव कहा जाता है। गाँवों में खुले में शौच के लिए जाने की प्रथा शताब्दियों पुरानी है। जनसंख्या सीमित होने तथा सामाजिक मर्यादाओं का सम्मान किए जाने के कारण इस परंपरा से कई लाभ जुड़े हुए थे। गाँव से दूर शौच क्रिया किए जाने से 'मैला ढोने के काम से मुक्ति तथा स्वच्छता दोनों का साधन होता था। मल स्वतः विकरित होकर खेतों में खाद का काम करता था। पर आज की परिस्थितियों में खुले में शौच, रोगों को खुला आमंत्रण बन गया है। साथ ही इससे उत्पन्न महिलाओं की असुरक्षा ने इसे विकट समस्या बना दिया है। अतः इस परंपरा का यथाशीघ्र समाधान, स्वच्छता, स्वास्थ्य और महिला सुरक्षा की दृष्टि से परम आवश्यक हो गया है।
सरकारी प्रयास - कुछ वर्ष पहले तक इस दिशा में सरकारी प्रयास शून्य के बराबर ही थे। गाँवों में कुछ सम्पन्न और सुरुचि युक्त परिवारों में ही घरों में शौचालय का प्रबन्ध होता था। वह भी केवल महिला सदस्यों के लिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब ग्रामीण महिलाओं और विशेषकर किशोरियों के साथ होने वाली लज्जाजनक घटनाओं पर ध्यान दिया तो स्वच्छता अभियान के साथ 'खुला शौच मुक्त गाँव अभियान' को भी जोड़ दिया। इस दिशा में सरकारी प्रयास निरंतर चल रहे हैं।
घरों में शौचालय बनाने वालों को सरकार की ओर से 12 हजार रुपए की आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है। समाचार पत्रों तथा टी.वी. विज्ञापनों में प्रसिद्ध व्यक्तियों द्वारा बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से घरों में शौचालय बनाने की प्रेरणा दी जा रही है। अब तक लगभग दो करोड़ गाँव खुले में शौचमुक्त बनाए जा चुके हैं। सरकार 2022 तक शत - प्रतिशत गाँवों को खुले में शौच मुक्त बना देना चाहती है।
जन जागरण - किसी प्राचीन कुप्रथा से मुक्त होने में भारतीय ग्रामीण समुदाय को बहुत हिचक होती है। सरकारी प्रयासों की अपेक्षा, लोगों पर अपने बीच के प्रभावशाली व्यक्तियों, धार्मचार्यों तथा मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं का प्रभाव अधिक पड़ता है। अतः 'खुले में शौच' की समाप्ति के लिए जन जागरण परम आवश्यक है। इसके लिए कुछ स्वयंसेवी संस्थाएँ भी प्रयास कर रही हैं। इसके साथ ही धार्मिक आयोजन में प्रवक्ताओं द्वारा इस प्रथा के परिणाम की प्रेरणा दी जानी चाहिए। शिक्षकों तथा. छात्र - छात्राओं के द्वारा प्रदर्शन का सहारा लेना चाहिए। गाँव के शिक्षित युवाओं को इस प्रयास में हाथ बँटाना चाहिए। ऐसे जन जागरण के प्रयास मीडिया द्वारा तथा गाँव के सक्रिय किशोरों और युवाओं द्वारा किए भी जा रहे हैं। खुले में शौच करते व्यक्ति को देखकर सीटी बजाना ऐसा ही रोचक प्रयास है।
हमारा योगदान - 'हमारा' में छात्र - छात्रों, शिक्षक, राजनेता, व्यवसायी, जागरूक नागरिक आदि सभी लोग सम्मिलित हैं। सभी के सामूहिक प्रयास से, बुराई को समाप्त किया जा सकता है। ग्रामीण जना को खुले में शौच से होने वाली हानियों के बारे में समझाना चाहिए। उन्हें बताया जाना चाहिए कि इससे रोग फैलते हैं और धन तथा समय की बरबादी होती है। साथ ही यह एक अशोभनीय आदत है। यह महिलाओं के लिए अनेक समस्याएँ और संकट खड़े कर देता है।
घरों में छात्र - छात्राएँ अपने माता - पिता आदि को इससे छुटकारा पाने के लिए प्रेरित करें। शौचालय रहित घरों में कन्याओं द्वारा विवाह किए जाने का विरोध एक क्रान्तिकारी कदम है। - उपसंहार - खुले में शौच मुक्त गाँवों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। सरकारी प्रयासों के अतिरिक्त ग्राम - प्रधानों तथा स्थानीय प्रबुद्ध और प्रभावशाली लोगों को आगे आकर इस अभियान में रुचि लेनी चाहिए। इससे न केवल ग्रामीण भारत को रोगों, बीमारियों पर होने वाले व्यय से मुक्ति मिलेगी बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि भी सुधेरगी।
15. डिजिटल इंडिया
अथवा
भारत : डिजिटलीकरण की ओर
परिचय - 'डिजिटल इंडिया' भारतीय समाज को अंतर्राष्ट्रीय रीति - नीतियों से कदम मिलाकर चलने की प्रेरणा देने वाला एक प्रशंसनीय और साहसिक प्रयास है। यह भारत सरकार की एक नई पहल है। भारत के भावी स्वरूप को ध्यान में रखकर की गई एक दूरदर्शितापूर्ण संकल्पना है।
उद्देश्य - इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य भारत को डिजिटल दृष्टि से सशक्त समाज और ज्ञानाधारित अर्थव्यवस्था में बदलना है। इस संकल्प के तर्गत भारती प्रतिभा को सूचना प्रौद्योगिकी से जोड़कर कल के भारत की रचना करना है। इस दृष्टि से 'डिजिटल इंडिया' के तीन प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं -
डिजिटल होने का अर्थ - आम आदमी के लिए डिजिटल बनने का आशय है कि नकद लेन - देन से बेचकर आनलाइन (मोबाइल, पेटीएम, डेविट कार्ड आदि) लेन - देन का प्रयोग करना, कागजी काम को कम से कम किया जाना। सरकारी तथा बैंकिंग कार्यों में और व्यापारिक गतिविधियों में पारदर्शिता आना। ठगी और रिश्वत से बचाव होना आदि हैं।
डिजिटल अभियान के लाभ - यह अभियान समाज के सभी वर्गों को लाभ पहुँचाने वाला है -
चुनौतियाँ - डिजिटल प्रणाली को लागू करने के अभियान में अनेक चुनौतियाँ भी हैं। सबसे प्रमुख चुनौती है - जनता को इसके प्रति आश्वस्त करके इसमें भागीदार बनाना। नगरवासियों को भले ही डिजिटल उपकरणों का प्रयोग आसान लगता हो, लेकिन करोड़ों ग्रामवासियों, अशिक्षितों को इसके प्रयोग में सक्षम बनाना एक लम्बी और धैर्यशाली प्रक्रिया है। इसके अतिरिक्त कर चोरी के प्रेमियों को यह प्रणाली रास नहीं आएगी। इलेक्ट्रानिक सुरक्षा के प्रति लोगों में भरोसा जमाना होगा। साइबर अपराधों, हैकिंग और ठगों से जनता को सुरक्षा प्रदान करनी होगी।
आगे बढ़ें - चुनौतियाँ, शंकाएँ और बाधाएँ तो हर नए और हितकारी काम में आती रही हैं। शासकीय ईमानदारी और जन - सहयोग से, इस प्रणाली को स्वीकार्य और सफल बनाना, देशहित की दृष्टि से बड़ा आवश्यक है। आशा है, हम सफल होंगे।
16. राष्ट्रीय एकता और अखण्डता
प्रस्तावना - भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता की साधना है। भारत विविध क्यारियों से सजा विशाल उद्यान है। नाना प्रकार के रत्नों से गुंथा मानवता के कण्ठ का हार है। किन्तु जब उपवन की क्यारियाँ द्रोह पर उतारू हो जाएँ, माला के फूल शूल बनकर चुभने लगें तो इस भारती - कल्पना का क्या अन्त होगा? रत्नहार के.टूटने पर हीरा हो या पन्ना, नीलम हो या पुखराज, सब धरती पर बिखर जाते हैं। संस्कृति की सुरभि, इतिहास, का गौरव और संगठन की शक्ति का लाभ तभी तक मिलेगा, जब तक राष्ट्रीय एकता सुरक्षित रहेगी। देश की अखण्डता यदि संकट में पड़ी तो गुलामी के द्वार फिर से खुल जाएँगे।
राष्ट्रीय एकता और अखण्डता का अर्थ - राष्ट्र के तीन अनिवार्य अंग हैं - भूमि, निवासी और संस्कृति। एक राष्ट्र के दीर्घ - जीवन और सुरक्षा के लिए इन तीनों का सही सम्बन्ध बना रहना परमावश्यक होता है। यदि किसी राष्ट्र की भूमि से वहाँ के राष्ट्रवासी उदासीन हो जाएँगे ती राष्ट्र के विखण्डन का भय बना रहेगा। 1962 ई. में चीन का आक्रमण और भारत की हजारों किलोमीटर भूमि पर अधिकार इसका ज्वलन्त उदाहरण है। राष्ट्र की भूमि माता के तुल्य है। 'माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः' यह भावना राष्ट्र की अखण्डता के लिए परमावश्यक है।
राष्ट्रजनों को एक सूत्र में बाँधने वाली राष्ट्रीय - संस्कृति होती है। केवल एक स्थान पर निवास करने वाला जनसमूह राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकता, जब तक कि वह परस्पर सांस्कृतिक सूत्र से न बँधा हो। धार्मिक सद्भाव, सहयोग, पर्व, उत्सव, कला और साहित्य संस्कृति के अंग हैं।
स्पष्ट है कि राष्ट्रीय एकता और अखण्डता एक राष्ट्र के जीवन और समृद्धि के लिए अनिवार्य शर्ते हैं। राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की आवश्यकता - आज भारत के अस्तित्व और सुरक्षा को गम्भीर चुनौतियाँ भीतर और बाहर दोनों ओर से हैं। भीतर से प्रादेशिक संकीर्णता, धार्मिक असहिष्णुता, नक्सलवाद, आतंकवाद, जातीय संकोच और स्वार्थपूर्ण राजनीति देश को विखण्डन की ओर ले जा रही है और बाहर से पड़ोसी देशों के षड्यन्त्र हमको तोड़ने पर कटिबद्ध हैं। कुछ वर्षों पूर्व संसद पर हुआ आक्रमण तथा समय - समय पर मन्दिरों पर हुए आक्रमण देश की एकता को विखण्डित करने की साजिश के स्पष्ट प्रमाण हैं।
इतिहास गवाह है कि भारत - भूमि पर विदेशी आँखें निरन्तर ललचाती रही हैं। जब - जब हम एक रहे, विजयी रहे, आक्रमण की बाढ़ हमारी एकता की चट्टान से टकराकर चूर - चूर हो गई और जब हम बिखरे, हमने मुँह की खाई, हम परतन्त्र हुए। हजारों वर्षों की अपमानजनक गुलामी हमें यही सिखाती है कि एक होकर रहो और एक राष्ट्र बने रहो।
विविध धर्मों, आचारों, भाषाओं और प्रदेशों वाले देश को तो एकता की अत्यन्त आवश्यकता होती है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने आपसी भेदभाव मिटाकर एक होने का संदेश दिया है -
क्या साम्प्रदायिक भेद से है एक्य मिट सकता अहो ?
बनती नहीं क्या एक माला, विविध सुमनों की कहो ?
देशवासियों का कर्तव्य - हर नागरिक का यह परम धर्म है कि राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य से परिचित रहे और उसका पालन करे। छात्रवर्ग को अपनी राष्ट्रीय - संस्कृति और इतिहास का आदर करना चाहिए और अपने जीवन में उसे झलकाना चाहिए।
समाज के अन्य वर्गों का उत्तरदायित्व भी इतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना वैज्ञानिक या व्यापारी, श्रमिक या श्रीमान् के लिए है, सबको राष्ट्र का हित ध्यान में रखकर चलना चाहिए। राष्ट्र जिएगा तो सब जिएँगे। यदि राष्ट्र टूटा तो सबको धराशायी और धूल - धूसरित होना पड़ेगा।
उपसंहार - अन्त में यही कहना पड़ता है कि अनेकता में एकता और भारत की अखण्डता में भारतीयों के लिए जीवन - मरण का प्रश्न है। हमें आन्तरिक मन से एकता का आचरण करना ही होगा -
रखें परस्पर मेल मन से, छोड़कर अविवेकता।
मन का मिलन ही मिलन है, होती उसी से एकता।
17. भारतीय सेना
अथवा
हमारी सेना : हमारा गर्व
प्रस्तावना - सेना राज्य संस्था का अनिवार्य अंग रही है। सेनाविहीन राज्य की कल्पना भी असम्भव प्रतीत होती है। राज्य की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा सेना पर निर्भर होती है। एक व्यवस्थित और अनुशासित सैन्य बल ही राज्य और राष्ट्र की दीर्घायु सुनिश्चित करता है। भारतीय सेना एक आदर्श सेना रही है।
भूत एवं वर्तमान - प्राचीन समय में सेनाओं के स्वरूप और अस्त्र - शस्त्र सामान्य प्रकृति के थे। भारत में सेना के चार अंग प्रचलित थे - रथ, हाथी, घुड़सवार और पैदल सैनिक। युद्ध क्षेत्र में व्यूहों की रचना करके संग्राम होते थे। अंग्रेजी शासन में एक भारतीय सैन्यबल का गठन हुआ। आज भी हमारी सेना के स्वरूप में बहुत कुछ उसी परंपरा पर चल रहा है।
अंग एवं कार्य - प्रणाली - भारतीय सेना के तीन प्रमुख अंग हैं। थल सेना, जल सेना और वायुसेना। इनके अतिरिक्त चिकित्सा और इंजीनियरिंग विभाग भी हैं। थल सेना जमीनी युद्धों में भाग लेती है। जल सेना जल क्षेत्र की सुरक्षा करती है और वायु सेना विमानों द्वारा अपने कर्तव्यों को अंजाम देती है। हमारी सेना की गणना विश्व की सबसे बड़ी सेनाओं में होती है।
विशेषताएँ - हमारी सेना के तीनों अंग आधुनिकतम अस्त्र - शस्त्रों से सज्जित हैं। इनके नवीकरण का कार्य - निरंतर चलता है। देश में निर्माण के साथ ही विदेशों से भी नवीनतम अस्त्र - शस्त्रों का आयात किया जाता है। थल सेना के पास अद्यतन राइफलें, तोपें, टैंक, मिसाइलें आदि हैं। जलसेना विमान वाहक पोतों, पनडुब्बियों, तोपें, टैंक, मिसाइलों से वायसेना में सखोई. राफेल आदि आधनिकतम विमान हैं। भारतीय सेना आणविक अस्त्रों में भी पीछे नहीं है। अग्नि मिसाइलें उसके विश्वसनीय अस्त्र हैं। आज के दौर में भारतीय सेना की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि वह एक अनुशासित, धर्मनिरपेक्ष और राजनीति से दूर रहने वाला सैन्यबल है। उसकी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय भूमिकाएँ हमारे लिए गर्व का विषय हैं।
चुनौतियाँ - भारतीय सेना के सामने अनेक चुनौतियाँ भी मौजूद हैं। बाह्य चुनौतियों में कुछ पड़ोसी देशों का कुटिल रवैया है। विशेष रूप से पाकिस्तान और चीन से निपटना एक विकट चुनौती है। आंतरिक चुनौतियों में उत्तर पूर्व के कुछ राज्य और कश्मीर के हालात हैं। भारतीय सेना ने दोकलम में अपनी कुशल रणनीति का परिचय दिया है और आंतरिक मोर्चे पर भी वह आतंकवाद से जूझ रही है।
भविष्य - भारतीय सेना का भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल है। उसके सेनापति और अधिकारी चुनौतियों को भी चुनौती देने वाले हैं। 1965, 1971, कारगिल, सर्जिकल स्ट्राइक, दोकलम आदि चुनौतियों की कसौटी पर सेना खरी उतरी है।
उपसंहार - भारतीय सेना, शांति और युद्ध दोनों ही स्थितियों में अभिनंदनीय भूमिका निभाती आई है। आज सरकार और सेना में सही तालमेल है। हमको अपने शहीद सैनिकों को और अपनी सेना को पूरा समर्थन देना चाहिए। तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित होकर सेना पर आक्षेप करना प्रच्छन्न देशद्रोह है।
18. भारत के पड़ोसी
अथवा
पड़ोसी देश और भारत
प्रस्तावना - मानवजीवन में 'पड़ौस' और 'पड़ौसी' शब्दों का सदा से महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। कहते हैं पड़ौसी का चुनाव करना या उसे बदलना व्यक्तिगत जीवन में भले ही सम्भव हो किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर कदापि सम्भव नहीं है। यदि अच्छा पड़ौस या पड़ौसी मिल जाए तो वह बड़े सौभाग्य की बात होती है। कभी - कभी स्वजन वह सहायता नहीं कर पाते जो अच्छे पड़ौसी से अनायास प्राप्त हो जाती है।
भारत के पड़ोसी देश - वर्तमान में हमारे पड़ोसी देशों की संख्या लगभग आठ है। ये देश हैं - भूटान, नेपाल, चीन, म्याँमार, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव और पाकिस्तान। इन सभी से हमारी जल और थल सीमाएँ मिलती हैं। ये सभी पड़ौसी भारत को इतिहास और परिस्थितियों की देन हैं। इनमें से अनेक कभी विशाल भारत के ही अंग थे। आज उत्तर में चीन, नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश, दक्षिण में श्रीलंका और मालदीव तथा पश्चिम में पाकिस्तान हमारे पड़ौसी देश हैं।
पड़ोसी देशों से सम्बन्ध - वर्तमान में पड़ौसियों से हमारे सम्बन्ध खट्टे - मीठे चल रहे हैं। पाकिस्तान का जन्म ही भारत द्रोह के आधार पर हुआ था। रही - सही कसर वहाँ के शासकों ने पूरी कर दी है। पाकिस्तान से भारत के सम्बन्धों को शत्रुतापूर्ण कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। पाक - प्रेरित आतंकी गतिविधियों ने कश्मीर को लहूलुहान कर रखा है। 1962 के युद्ध के पश्चात् चीन से भी सम्बन्ध तनावपूर्ण चल रहे हैं। चीन की विस्तारवादी राजनीति सहज सम्बन्धों में बाधक है। नेपाल से सम्बन्धों को भी पूरी तरह सामान्य नहीं कहा जा सकता। म्यांमार के साथ भारत के सम्बन्ध सामान्य हैं। भूटान से गहरे सम्बन्ध हैं। बाँग्लादेश और श्रीलंका से सम्बन्ध लगभग सामान्य हैं। मालदीव की वर्तमान सरकार से सम्बन्ध मधुर नहीं हैं।
चुनौतियाँ और उपचार - पड़ोसी देशों की आन्तरिक गतिविधियों का भारत पर भी प्रभाव पड़ता रहा है। वर्तमान में चीन और पाकिस्तान भारत के लिए चिंता का विषय बने हुए हैं। चीन भारत के सभी पड़ोसी देशों में अपनी राजनीतिक और कूटनीतिक. पैठ बढ़ाने में लगा है। हमारी सेना और हमारी प्रशंसनीय विदेशनीति इस चुनौतियों से पार पाने में सक्षम है। सेनाध्यक्ष चुनौतियों का सही उपचार करने में लगे हुए हैं।
उपसंहार - हमें आशा करनी चाहिए कि भविष्य में हमारे पड़ोसी देशों से सम्बन्ध सामान्य तथा विवेकपूर्ण होंगे।
19. दूरदर्शन का दुष्प्रभाव
अथवा
दूरदर्शन और युवा - जन
प्रस्तावना - दूरदर्शन आज भारतीय जन - जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है। दृश्य और श्रव्य दोनों साधनों के सुसंयोजन ने इसे मनोरंजन का श्रेष्ठतम साधन प्रमाणित कर दिया है। नित्य नई तकनीकों के प्रवेश और नए - नए चैनलों के उद्घाटन ने बालक और युवा - वर्ग को दूरदर्शन का दीवाना बना दिया है।
दूरदर्शन का प्रभाव - क्षेत्र - दूरदर्शन बालकों, युवकों, वृद्धों, गृहणियों तथा व्यवसायियों आदि सभी में अपनी पैठ बना चुका है। दूरदर्शन यन्त्र के सामने बैठे छात्र अपनी पढ़ाई और युवा अपने अनेक दायित्व भूल जाते हैं।
इस समय सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र पर किसी - न - किसी रूप में दूरदर्शन का प्रभाव है। युवा इसके मनोरंजक पक्ष से, व्यवसायी इसकी असीमित विज्ञापन - क्षमता से, राजनीतिज्ञ इसके देशव्यापी प्रसारण से, धर्मात्मा लोग इसकी कथाओं और धार्मिक स्थलों की सजीव प्रस्तुति से प्रभावित हैं।।
दूरदर्शन अथवा दुर्दर्शन - दूरदर्शन की लोकप्रियता जैसे - जैसे बढ़ रही है, वैसे - वैसे इसका हानिकारक पक्ष भी सामने आता जा रहा है। ये दुष्प्रभाव संक्षेप में इस प्रकार हैं
(i) सामाजिक दुष्प्रभाव - दूरदर्शन ने व्यक्ति के सामाजिक जीवन को गहराई से कुप्रभावित किया है। छात्र और युवा - वर्ग घण्टों इससे चिपका बैठा रहता है। इससे उनके जीवन में एकाकीपन आ गया है और उनकी सामाजिक सक्रियता कम होती जा रही है। वीडियो - गेम और कार्टून - फिल्मों में उलझे रहने से उनके स्वाभाविक खेलकूद पर विराम - सा लग गया है।
(ii) सांस्कृतिक दुष्प्रभाव - दूरदर्शन के धारावाहिक और विज्ञापन लोगों में स्वच्छन्दता, अनैतिकता, उत्तरदायित्वहीनता और घोर भौतिकता को बढ़ावा दे रहे हैं। भारतीय जीवन - मूल्यों की उपेक्षा के साथ ही नए - नए अन्धविश्वास भी परोसे जा रहे हैं।
दूरदर्शन के कारण भाषा, वेशभूषा, आस्था, जीवन - शैली सभी पर पाश्चात्य संस्कृति हाबी होती जा रही है।
(iii) आर्थिक दुष्प्रभाव - दूरदर्शन लोगों के आर्थिक शोषण का भी माध्यम बन गया है। भ्रामक और अतिशयोक्तिपूर्ण विज्ञापनों के द्वारा लोगों को अपव्यय के लिए उकसाया जाता है। अनेक कार्यक्रमों द्वारा एस. एम. एस. कराके और मत संग्रह कराके लोगों की जेबें खाली कराई जाती हैं।
(iv) स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव - छात्र और युवावर्ग घण्टों दूरदर्शन के कार्यक्रम देखते रहते हैं। इससे उनकी आँखें खराब हो जाती हैं। मोटापा और पाचन क्रिया में विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
दुष्प्रभावों से बचाव - दूरदर्शन के कुप्रभावों से बचाव तभी हो सकता है जब जनता और सरकार दोनों ही सचेत हों। अभिभावक, शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को दूरदर्शन के अश्लील और भ्रामक कार्यक्रमों का विरोध करना चाहिए। इसके साथ ही छात्रों और युवाओं का भी सही मार्गदर्शन करना चाहिए। सरकार को भी दूरदर्शन पर नियंत्रण करना चाहिए।
उपसंहार - दूरदर्शन एक प्रबल प्रभाव छोड़ने वाला माध्यम है। उसे अपने सामाजिक दायित्व पर पूरा ध्यान देना चाहिए, केवल व्यावसायिक लाभ को ही ध्यान में नहीं रखना चाहिए। दूरदर्शन के धारावाहिकों का एक नैतिक स्तर होना चाहिए। सरकार को भी इस दिशा में कठोर उपाय करने चाहिए।
20. मूल्यवृद्धि की समस्या
अथवा
महँगाई डायन खाये जात है
प्रस्तावना -
बढ़ रहे हैं मूल्य तो क्या बढ़ रहा है देश।
गिर रहे. अधिकांश तो क्या उठ रहे हैं शेष।
मुक्त बाजार, भूमण्डलीकरण का दुष्प्रचार, विनिवेश का बुखार, छलाँगें लगाता शेयर बाजार, विदेशी निवेश के लिए पलक पाँवड़े बिछाती हमारी सरकार, उधार - बाँटने को बैंकों के मुक्त द्वार, इतने पर भी गरीब और निम्न मध्यम वर्ग पर महँगाई की मार, यह विकास की कैसी विचित्र अवधारणा है ? हमारे कर मन्त्री (वित्त मन्त्री) नए - नए करों की जुगाड़ में तो जुटे रहते हैं, किन्तु महँगाई पर अंकुश लगाने में उनके सारे हाइटेक हथियार कुन्द हो रहे हैं।
महँगाई की विनाश - लीला - हमारे देश में महँगाई एक निरंतर चलने वाली समस्या बन चुकी है। इसकी सबसे अधिक मार सीमित आय वाले परिवारों पर पड़ती है। लोगों की आय बाजार के अनुरूप नहीं बढ़ रही है। अनाज, चीनी, तेल, ईंधन, दाल, सब्जी, पैट्रोल, डीजल सभी के भाव आसमान को छू रहे हैं। पारिवारिक बजट गड़बड़ा रहे हैं। निम्न वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग का जीना दूभर होता जा रहा है।
महंगाई के कारण - महँगाई बढ़ने के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं -
महँगाई का स्वरूप - महँगाई सुरसा के मुख की तरह तेजी से बढ़ रही है। सर्वाधिक मूल्यवृद्धि खाने - पीने की वस्तुओं पर हो रही है। इससे गरीब लोग बुरी तरह त्रस्त हैं। उनका स्वास्थ्य गिर रहा है तथा शरीर निर्बल हो रहा है। गेहूँ भण्डारण के अभाव में भीगकर सड़ जाता है परन्तु सरकार उसे जरूरतमन्दों में बाँट नहीं पाती।
महँगाई के प्रभाव - महँगाई ने भारतीय समाज को आर्थिक रूप से जर्जर किया है। आवश्यक जरूरतों की पूर्ति भी साफ और सर्वविदित आमदनी से तो सम्भव नहीं है। परिणामस्वरूप समाज में अनैतिकता और भ्रष्टाचार पनप रहा है। महँगाई के कारण ही अर्थव्यवस्था में स्थिरता नहीं आ पा रही है। समाज में चोरी, छीना - झपटी, डकैती आदि अपराध पनप रहे हैं। मूल्यवृद्धि सामाजिक अशांति का कारण भी बन सकती है।
महँगाई रोकने के उपाय - महँगाई को रोकने के लिए आवश्यक है कि -
उपसंहार - अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ भी एक सीमा तक महँगाई के लिए जिम्मेदार हैं लेकिन इनकी आड़ लेकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती। रिजर्व बैंक और सरकार के तकनीकी जादू - टोनों से अगर महँगाई रुकनी होती तो कब की रुक जाती। मगर यहाँ तो हालात ये हैं कि मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों - ज्यों दवा की। जब तक मुक्त व्यापार के पाखण्ड की दुहाई देना छोड़कर सरकार कड़ी कार्यवाही नहीं करेगी, महँगाई नहीं रुकेगी।
21. युवकों में बेकारी
अथवा
बेरोजगारी : समस्या और समाधान
प्रस्तावना -
पढ़ - लिखकर रोजगार की तलाश में हैं जो
बेकार युवक कैसे हिन्दोस्ताँ उठायेंगे ?
भारत में बेरोजगारी 'एक अनार और सौ बीमार' की मूर्तिमान कहानी है। शिक्षा - संस्थानों से प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में डिग्री और डिप्लोमा लेकर निकलने वाले युवाओं की भीड़ के लिए नौकरियाँ और रोजगार कहाँ से आए ? देश में करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है। देशी कंपनियाँ विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण कर रही हैं। विदेशी कंपनियाँ देश में निवेश कर रही हैं। भारत महान आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है। दूसरी ओर इस महान भारत में करोड़ों लोग बीस - पच्चीस रुपए रोज पर जीवन बिताने को मजबूर हैं। सपनों से सचाई को नहीं ढका जा सकता।
भारत में बेरोजगारी : दिशा और दशा - देश में बेरोजगारी के कई स्वरूप देखने को मिलते हैं। एक है आंशिक या अल्पकालिक बेरोजगारी और दूसरा पूर्ण बेरोजगारी। आशिक बेरोजगारी गाँवों में अधिक देखने को मिलती है। वहाँ फसल के अवसर पर श्रमिकों को काम मिलता है, शेष समय वे बेरोजगार से ही रहते हैं। निजी प्रतिष्ठानों में कर्मचारी की नियुक्ति अनिश्चितता से पूर्ण रहती है। बेरोजगारी का दूसरा स्वरूप शिक्षित - प्रशिक्षित बेरोजगारों तथा अशिक्षित - अकुशल बेरोजगारों के रूप में दिखाई देता है।
बेरोजगारी के कारण - भारत में दिनों - दिन बढ़ती बेरोजगारी के के निम्न कारण हैं -
(i) जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि - यह बेरोजगारी की समस्या का मुख्य कारण है। जनसंख्या जिस गति से बढ़ती है, रोजगार के अवसर उस गति से नहीं बढ़ते।
(ii) व्यावसायिक शिक्षा का अभाव - आज की शिक्षा - प्रणाली में व्यावसायिक परामर्श की कोई व्यवस्था नहीं है। आज का बालक जो शिक्षा पाता है, वह उद्देश्यरहित होती है। इस प्रकार वर्तमान शिक्षा प्रणाली भी बेकारी की समस्या का मुख्य कारण है।
(iii) लघु एवं कुटीर उद्योगों का अभाव - सरकार की उद्योग - नीति भी इस समस्या को विकराल बना रही है। हमारे यहाँ औद्योगीकरण के रूप में बड़े उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है। मशीनीकरण के कारण बेकारी की समस्या और बढ़ गई है। लघु अथवा कुटीर उद्योगों के विकास से रोजगार के जो अवसर उपलब्ध हो सकते हैं, वह बड़े उद्योगों के लगने से नहीं मिल सकते।
(iv) राजनीतिक स्वार्थ - आज आरक्षण के नाम पर समाज के एक बड़े शिक्षित वर्ग की दुर्दशा हो रही है। राजनीतिक स्वार्थों के कारण शिक्षित बेरोजगारों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।
(v) कृषि की उपेक्षा - सरकार द्वारा उद्योगों पर ही विशेष ध्यान देने और कृषि क्षेत्र की उपेक्षा किए जाने से ग्रामीण बेरोजगारी बढ़ रही है।
(vi) स्वरोजगार योजनाओं का दरुपयोग - सरकार स्वरोजगार को प्रोत्साहन तथा सहायता दे रही है किन्तु उनका लाभ वास्तविक पात्रों को मिल ही नहीं पाता।
समस्या समाधान के प्रयास - किसी समस्या के कारण जान लेने के बाद निवारण का मार्ग स्वयं खुल जाता है।
उपसंहार - बेरोजगारों की बढ़ती फौज देश की अर्थव्यवस्था और विकास के बड़े - बड़े दावों की पोल खोल रही है। बेकारी भत्तों, मुफ्त अनाज बाँटने के नाटकों आदि से यह विकट समस्या नहीं सुलझेगी। आर्थिक और सामाजिक स्तर पर क्रान्तिकारी बदलाव और नियंत्रण ही इसका उपचार हो सकता है।
22. दहेज : एक सामाजिक कलंक
अथवा
दहेज : नारी - शक्ति का अपमान
प्रस्तावना - भारतीय संस्कृति में जिसने भी 'कन्यादान' की परंपरा चलाई, उसने नारी जाति के साथ बड़ा अन्याय किया। भूमि, वस्त्र, भोजन, गाय आदि के दान के समान कन्या का भी दान कैसी विडंबना है ! मानो कन्या कोई जीवन्त प्राणी, मनुष्य न होकर कोई निर्जीव वस्तु हो। दान के साथ दक्षिणा भी अनिवार्य मानी गई है। बिना दक्षिणा के दान निष्फल होता है तभी तो कन्यादान के साथ दहेज रूपी दक्षिणा की व्यवस्था की गई है।
दहेज की परंपरा - दहेज हजारों वर्ष पुरानी परंपरा है लेकिन प्राचीन समय में दहेज का आज जैसा निकृष्ट रूप नहीं था। दो चार वस्त्र, बर्तन और गाय देने से सामान्य गृहस्थ का काम चल जाता था। वह नवदम्पति के गृहस्थ जीवन में कन्यापक्ष का मंगल कामना का द्योतक था। आज तो दहेज कन्या का पति बनने की फीसं बन गया है। विवाह के बाजार में वर की नीलामी होती है। काली कमाई के अपव्यय से समाज के सम्पन्न लोग आमजन को चिढ़ाते और उकसाते हैं।
कन्यापक्ष की हीनता - इस स्थिति का कारण सांस्कृतिक रूढ़िग्रस्तता भी है। प्राचीनकाल में कन्या को वर चुनने की स्वतन्त्रता थी। किन्तु जब से माता - पिता ने उसको किसी के गले बाँधने का यह पुण्यकर्म अपने हाथों में ले लिया तब से कन्या अकारण ही हीनता का पात्र बन गयी। आज तो स्थिति यह है कि बेटी वाले को बेटे वाले की उचित - अनुचित सभी बातें सहन करनी पड़ती हैं। कन्या का पिता वर् - पक्ष के यहाँ भोजन तो क्या पानी तक न पी सकेगा। कुछ कट्टर रूढ़ि भक्तों में तो उस नगर या गाँव का जल तक पौमा मना है। मानो सम्बन्ध क्या किया दुश्मनी मोल ले ली।
इस भावना का अनुचित लाभ वर - पक्ष पूरा - पूरा उठाता है। बर महाशय चाहे अष्टावक्र हों परन्तु पत्नी उर्वशी का अवतार ए। घर में चाहे साइकिल भी न हो परन्तु वह कीमती मोटर साइकिल पाये बिना तोरण स्पर्श न करेंगे। बेटी का बाप होना जैसे पूर्व जन्म और वर्तमान जीवन का भीषण पाप हो गया है। विवाह जैसे परम पवित्र सम्बन्ध को सौदेबाजी और व्यापार के स्तर तक ले जाने वाले निश्चय ही नारी के अपमानकर्ता और समाज के घोर शत्रु हैं। यदि. कोई भी व्यक्ति बेटी का बाप न बनना चाहे तो पुरुषों की क्या स्थिति होगी ?
दहेज के दुष्परिणाम - दहेज के दानव ने भारतीयों की मनोवृत्ति को इस हद तक दूषित किया है कि एक साधारण परिवार की कन्या के पिता का सम्मान सहित जीना कठिन हो गया है। इस प्रथा की बलिवेदी पर न जाने कितने कन्या कुसुम बलिदान हो चुके हैं। लाखों परिवारों के जीवन की शांति को भंग करने और मानव की सच्चरित्रता को मिटाने का अपराध इस प्रथा ने किया है। जिस अग्नि को साक्षी मानकर कन्या ने वधू - पद पाया है, आज वही अग्नि उसके प्राणों है। किसी भी दिन का समाचार - पत्र उठाकर देख लीजिए, वधू - दहन के दो - चार समाचार अवश्य दृष्टि में पड़ जाएंगे।
समस्या का समाधान - इस कुरीति से मुक्ति का उपाय क्या है ? इसके दो पक्ष हैं - जनता और शासन। शासन कानून बनाकर इसे समाप्त कर सकता है और कर भी रहा है किन्तु बिना जन - सहयोग के ये कानून लाभदायक नहीं हो सकते। इसलिए महिला वर्ग और कन्याओं को स्वयं संघर्षशील बनना होगा, स्वावलम्बी बनना होगा। ऐसे वरों का तिरस्कार करना होगा जो उन्हें केवल धन - प्राप्ति का साधन मात्र समझते हैं। इसके अतिरिक्त विवाहों में सम्पन्नता के प्रदर्शन तथा अपव्यय पर. भी कठोर नियंत्रण आवश्यक है।
उपसंहार - यद्यपि दहेज विरोधी कानून काफी समय से अस्तित्व में है, किन्तु प्रशासन की ओर से इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। आयकर विभाग, जो निरंतर नए - नए करों को थोपकर सामान्य जन को त्रस्त करता है, इस ओर क्यों ध्यान नहीं देता ? विवाहों में एक निश्चित सीमा से अधिक व्यथ पर अच्छा खासा कर लगाया जाए। साधु - संत और धर्मोपदेशक क्यों नहीं इस नारी विरोधी प्रथा की आलोचना करते हैं ? जनता और प्रशासन दोनों को ही इस दिशा में सक्रिय होना चाहिए और इस सामाजिक कलंक को समाप्त कर देना चाहिए।
23. जनसंख्या - वृद्धि की समस्या
अथवा
जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम
प्रस्तावना - आज भारत की जनसंख्या एक अरब पच्चीस करोड़ से भी ऊपर जा पहुँची है। महान भारत की इस उपलब्धि पर भी इतराने वाले कुछ विचार विमूढ़ हो सकते हैं। हर बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि जनसंख्या का यह दैत्याकार रथ विकास के सारे कीर्तिमानों को रौंदता हुआ देश के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है।
बढ़ती जनसंख्या की समस्या - भारत की जनसंख्या में अनियन्त्रित वृद्धि सारी समस्याओं का मूल कारण बनी हुई है। गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, अपराध - वृद्धि, तनाव, असुरक्षा, सभी जनसंख्या - वृद्धि के ही परिणाम हैं। भारत के विश्व की महाशक्ति बनने के सपने जनसंख्या के प्रहार से ध्वस्त होते दिखाई दे रहे हैं। 'एक अनार सौ बीमार' यह कहावत चरितार्थ हो रही है। जनसंख्या वृद्धि के महा - अश्वमेध का घोड़ा शेयर बाजार के उफान, मुद्राकोष की ठसक, विदेशी निवेश की दमक सबको अँगूठा दिखाता आगे - आगे दौड़ रहा है।
जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम - जनसंख्या और उत्पादन - दर में चोर - सिपाही का खेल होता रहता है। जनसंख्या वृद्धि आगे - आगे दौड़ती है और पीछे - पीछे उत्पादन वृद्धि। वास्तविकता यह है कि उत्पादन वृद्धि के सारे लाभ को जनसंख्या की वृद्धि व्यर्थ कर देती है। आज हमारे देश में यही हो रहा है। जनसंख्या वृद्धि सारी समस्याओं की जननी है। बढ़ती महँगाई, बेरोजगारी, कृषि - भूमि की कमी, उपभोक्ता - वस्तुओं का अभाव, यातायात की कठिनाई सबके मूल में यही बढ़ती जनसंख्या है।
नियंत्रण के उपाय - आज के विश्व में जनसंख्या पर नियंत्रण रखना प्रगति और समृद्धि के लिए अनिवार्यतः आवश्यकता है। भारत जैसे विकासशील देशके लिए जनसंख्या नियन्त्रण परम आवश्यक है। जनसंख्या पर नियन्त्रण के अनेक उपाय हो सकते हैं।
(i) वैवाहिक आयु में वृद्धि करना एक सहज उपाय है। बाल विवाहों पर कठोर नियन्त्रण होना चाहिए।
(ii) दूसरा. उपाय संतति - निग्रह अर्थात् छोटा परिवार है। परिवार नियोजन के अनेक उपाय आज उपलब्ध हैं।
(iii) तीसरा उपाय राजकीय सुविधाएँ उपलब्ध कराना है। परिवार नियोजन अपनाने वाले व्यक्तियों को वेतन वृद्धि देकर, पुरस्कृत करके तथा नौकरियों में प्राथमिकता देकर भी जनसंख्या नियन्त्रण को प्रभावी बनाया जा सकता है।
(iv) इनके अतिरिक्त शिक्षा के प्रसार द्वारा तथा धार्मिक और सामाजिक नेताओं का सहयोग भी जनसंख्या - नियन्त्रण में सहायक हो सकता है। ये सभी तो प्रोत्साहन और पुरस्कार से सम्बन्धित हैं किन्तु कठोर दण्ड के भय के बिना विशेष सफलता नहीं मिल सकती। धर्म - जाति के आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवस्था के रहते हुए भी जनसंख्या पर नियन्त्रण असम्भव है।
उपसंहार - आज देश के सामने जितनी समस्याएँ हैं प्रायः सभी के मूल में जनसंख्या वृद्धि ही मूख्य कारण दिखाई देता है। जनता और सरकार दोनों ने ही इस भयावह समस्या से आँखें बंद कर रखी हैं। इस खतरे की घंटी की आवाज को अनसुना किया जा रहा है। कहीं ऐसा न हो कि यह सुप्त ज्वालामुखी एक दिन अपने विकट विस्फोट से राष्ट्र के कुशल - क्षेम को जलाकर राख कर दे।
24. आतंकवाद : एक विश्वव्यापी समस्या
अथवा
बढ़ता आतंकवाद : एक चुनौती
प्रस्तावना -
धर्म के नाम पर इंसानियत का खून।
नये - नये चेहरों पर जेहाद का जुनून॥
क्या खूब स्वागत है इक्कीसवीं सदी का।
मौत की स्याही से लिखा जाता है सुकून।
आतंकवाद से आज विश्व के अधिकांश देश पीड़ित हैं। धर्म और जेहाद के नाम पर नित्य कहीं - न - कहीं निर्दोष लोगों की हत्याएँ हो रही हैं। हत्या, शोषण, मादक द्रव्यों और अवैध शस्त्रों के व्यापार में लिप्त अनेक आतंकी गिरोह शान्ति और सभ्यता के शत्रु बने हुए हैं।
आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या - आज आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या बन चुका है। आज ऐसे संगठन और गिरोह सक्रिय हैं जो आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं। भारत तो दशकों से आतंकवाद का दंश झेलता आ रहा है। किन्तु जब 11 सितम्बर, 2001 को अमेरिकन वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर भस्मसात् हुआ, इंग्लैण्ड की ट्रेनों में धमाके हुए, इण्डोनेशिया के पर्यटन स्थलों पर तबाही हुई तो सारे विश्व को आतंकवाद की भयावहता स्वीकार करनी पड़ी। आतंकवाद के पीछे विभिन्न देशों के आर्थिक और राजनैतिक स्वार्थ निहित हैं। मादक पदार्थों तथा अवैध शस्त्र व्यापार चलाने वाले माफ्रिया संगठन आतंकवादियों के पोषक बने हुए हैं। कुछ देशों की सरकारें भी आतंकवादियों की संरक्षक बनी हुई हैं।
भारत में आतंकवादी गतिविधियों का इतिहास - भारत में आतंकी गतिविधियाँ पूर्वी सीमान्त से प्रारम्भ हुईं। नागालैण्ड, . त्रिपुरा, असम आदि राज्यों में आतंकवाद काफी समय प्रभावी रहा। इसके पश्चात् पंजाब और जम्मू - कश्मीर ने आतंकवाद की क्रूरता को झेला। अब तो लगभग सारे देश में आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं। गुजरात का अक्षरधाम मन्दिर, संसद भवन, दिल्ली का लाल किला, मुम्बई की लोकल ट्रेनें, बनारस का संकटमोचन मन्दिर सभी आतंकी - प्रहार झेल चुके हैं। भारत और पाकिस्तान के मध्य चलाई गई 'समझौता एक्सप्रेस' में बम विस्फोट, मुंबई के ताज होटल पर हमला तथा पठानकोट एअर बेस पर हमला आतंकवाद की भयानक घटनायें हैं। छोटी - मोटी आतंकी घटनाएँ आज भी जारी हैं। - आतंकवाद की नर्सरी - आज सारा संसार जान चुका है कि आतंकवाद की नर्सरी पाकिस्तान है। वर्षों से इस देश में आतंकवादियों को प्रशिक्षण और शरण मिलती आ रही है।
समाप्ति के उपाय - आतंकवाद से टुकड़ों में नहीं निपटा जा सकता। अब तो संसार के सभी जिम्मेदार राष्ट्रों को संगठित होकर आतंकवाद के विनाश में सक्रिय भागीदारी करनी होगी। पाकिस्तान को सही रास्ते पर आने को मजबूर करना होगा। भारतीय नेताओं को भी वोट बैंक, स्वार्थ और सत्ता - लोलुपता त्यागकर देश की आंतरिक सुरक्षा को अभेद्य बनाना होगा। जनता को भी केन्द्रीय सत्ता में प्रचण्ड संकल्प वाले युवा लोगों को चुनकर भेजना होगा।
उपसंहार - आतंकवाद मानव - सभ्यता पर कलंक है। उसे धर्म का अंग बताकर निर्दोषों का खून बहाने वाले मानव, मानव नहीं दानव हैं। उनका संहार करना हर सभ्य राष्ट्र का दायित्व है।
25. आरक्षण : कब तक और क्यों ?
प्रस्तावना -
उँगली पकड़कर कब तक हमें चलना सिखाओगे।
आरक्षण का मीठा जहर चटाकर हमें कैसे आगे बढ़ाओगे॥
जितना विलक्षण हमारा जाति आधारित समाज है उतनी ही विलक्षण आज देश में आरक्षण व्यवस्था भी हो चुकी है। हमारे समाज में अनेक जातियाँ उपेक्षित, तिरस्कृत और शोषित चली आ रही थीं। हमारे संविधान निर्माताओं ने सामाजिक न्याय और जाति - वर्ग विहीन समाज की स्थापना के उद्देश्य से इन जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया जिससे ये समाज की उच्च मानी जाने वाली जातियों के समकक्ष आ सकें किन्तु यह प्रयास अपने लक्ष्य से भटक गया है।
आरक्षण का मूल उद्देश्य - अछूत या शूद्र कही जाने वाली जातियाँ लम्बे समय से शोषण और तिरस्कार का दंश भोगती आ रही थीं। इनको सवर्ण कही जाने वाली जातियों के समकक्ष लाने के उद्देश्य से ही आरक्षण - व्यवस्था का प्रावधान किया गया था। आरक्षण का यह उद्देश्य निश्चित ही प्रशंसा योग्य था। सामाजिक विषमता को समाप्त करना और सामाजिक - न्याय स्थापित करना ही इसका मूल उद्देश्य था।
इसके लिए जातीय सर्वेक्षण कराकर ऐसी जातियों की अनुसूचियाँ बनाई गईं जो सामाजिक रूप से अत्यन्त दलित और पिछड़ी हुई थीं। इनके लिए सरकारी नौकरियों में स्थान आरक्षित किए गए। इसके पश्चात् पिछड़ों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के नाम पर आरक्षण की व्यवस्था की गई। अब ऐसा लगता है कि आरक्षण - व्यवस्था अपने पवित्र उद्देश्य से भटक गई है। इसका प्रयोग राजनीतिक हथियार के रूप में हो रहा है। अब तो अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की बात भी चल पड़ी है। हर जाति और वर्ग के लोग आरक्षण की माँग कर रहे हैं।
आरक्षण की वर्तमान स्थिति - आरक्षण व्यवस्था को लागू हुए लगभग आधी शताब्दी होने जा रही है। आरक्षण की समाप्ति के बजाय इसका क्षेत्र निरन्तर बढ़ाया जा रहा है। यह तथ्य स्वयं इस बात को पुष्ट करता है कि यह व्यवस्था अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल रही है। जिस जातीय दुर्भाव और सामाजिक - विषमता को समाप्त करने के उद्देश्य से आरक्षण लाया गया वह और गहरा होता जा रहा है।
आरक्षण का सही स्वरूप - आरक्षण की आवश्यकता सदैव रही है परन्तु उसका आधार स्वार्थमूलक न होकर तार्किक और लोकमंगलकारी होना चाहिए। केवल जातीय आधार पर असीमित आरक्षण,कदापि सामाजिक न्याय नहीं हो सकता। उसका आधार आर्थिक भी होना चाहिए। प्रतिभा किसी जाति - विशेष की बपौती नहीं होती। हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जो कन्याकुमारी (रामेश्वरम्) के एक गांव के अछूत मछुआरे मुसलमान परिवार में जन्मे लेकिन अपनी प्रतिभा से देश के सबसे बड़े वैज्ञानिक और राष्ट्रपति बने। आरक्षण स्वावलम्बन और स्वाभिमान का मन्त्र बने, अयोग्यों की बैसाखी नहीं। वह सामाजिक समरसता का अग्रदूत बने, सामाजिक विघटन का नहीं। देश के भाग्य - विधाताओं को आरक्षण नीति की समयानुकूल समीक्षा करनी चाहिए।
उपसंहार - आरक्षण आज एक अत्यन्त संवेदनशील मुद्दा बन चुका है। इसके दुष्परिणाम देश को खण्डित कर दें तो आश्चर्य नहीं। इसे सुलझाना राजनीतिज्ञों के वश की बात नहीं, क्योंकि उनके मन और वचन के बीच सत्ता लोलुपता की खाई है। अब तो सच्चे समाजसेवियों से ही कुछ आशा की जा सकती है कि वे आगे आकर खण्ड - खण्ड होने जा रहे सामाजिक - सद्भाव की सुरक्षा के लिए समर्पित हों और सामाजिक न्याय की प्रतिष्ठा करने में अग्रदूत बनें। संविधान में निश्चित आरक्षण की अवधि कब की समाप्त हो चुकी है। उसे अनिश्चित समय तक तो नहीं बढ़ाया जा सकता ?
26. विद्यार्थी और अनुशासन
अथवा
घटता अनुशासन : उजड़ते विद्यालय
भूमिका - जिस जीवन में कोई नियम या व्यवस्था नहीं, जिसकी कोई आस्था और आदर्श नहीं, वह मानव - जीवन नहीं पशु जीवन ही हो सकता है। ऊपर से स्थापित नियंत्रण या शासन सभी को अखरता है। इसीलिए अपने शासन में रहना सबसे सुखदायी होता है। बिना किसी भय या लोभ के नियमों का पालन करना ही अनुशासन है। विद्यालयों में तो अनुशासन में रहना और भी आवश्यक हो जाता है।
विद्यार्थी जीवन और अनुशासन - वैसे तो जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन आवश्यक है किन्तु जहाँ राष्ट्र की भावी पीढ़ियाँ ढलती हैं उस विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का होना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। किन्तु आज विद्यालयों में अनुशासन की स्थिति अत्यन्त शोचनीय है। अनुशासन में रहना आज के विद्यार्थियों को शायद अपनी शान के खिलाफ लगता है। अध्ययन के बजाय अन्य बातों में छात्रों की रुचि अधिक देखने में आती है।
अनुशासनहीनता के कारण - विद्यालयों में बढ़ती अनुशासनहीनता के पीछे मात्र छात्रों की उद्दण्डता ही कारणे नहीं है। सामाजिक परिस्थितियाँ और बदलती जीवन - शैली भी इसके लिए जिम्मेदार है। टीवी ने छात्र को समय से पूर्व ही युवा बनाना प्रारम्भ कर दिया है। उसे फैशन और आडम्बरों में उलझाकर उसका मानसिक और आर्थिक शोषण किया जा रहा है। बेरोजगारी, उचित मार्गदर्शन न मिलना तथा अभिभावकों का जिम्मेदारी से आँख चुराना भी अनुशासनहीनता के कारण हैं।
दुष्परिणाम - छात्रों में बढ़ती अनुशासनहीनता न केवल इनके भविष्य को अंधकारमय बना रही है बल्कि देश की भावी तस्वीर को भी बिगाड़ रही है। आज चुनौती और प्रतियोगिता का जमाना है। हर संस्था और कम्पनी श्रेष्ठ युवकों की तलाश में है। इस स्थिति में नकल से उत्तीर्ण और अनुशासनहीन छात्र कहाँ ठहर पायेंगे ? आदमी की शान अनुशासन तोड़ने में नहीं उसका स्वाभिमान के साथ पालन करने में है। अनुशासनहीनता ही अपराधियों और गुण्डों को जन्म दे रही है।
निवारण के उपाय - इस स्थिति से केवल अध्यापक या प्रधानाचार्य नहीं निपट सकते। इसकी जिम्मेदारी पूरे समाज को उठानी चाहिए। विद्यालयों में ऐसा वातावरण हो जिसमें शिक्षक एवं विद्यार्थी अनुशासित रहकर शिक्षा का आदान - प्रदान कर सकें। अनुशासनहीन राजनीतिज्ञों को भी अनुशासित होकर भावी पीढ़ी को प्रेरणा देनी होगी।
उपसंहार - आज का विद्यार्थी आँख बंद करके आदेशों का पालन करने वाला नहीं है। उसकी आँखें और कान. दोनों खले हैं। समाज में जो कुछ घटित होगा वह छात्र के जीवन में भी प्रतिबिम्बित होगा। समाज अपने आपको सँभाले तो छात्र स्वयं सँभल जायेगा। अनुशासन की खुराक केवल छात्रों को ही नहीं बल्कि समाज के हर वर्ग को पिलानी होगी। जब देश में चारों ओर अनुशासनहीनता छायी हुई है, तो विद्यालयों में इसकी आशा करना व्यर्थ है।
27. जातिवाद और साम्प्रदायिकता का विष
प्रस्तावना -
"मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
× × ×
भारत माता का मंदिर यह समता का संवाद यहाँ
सबका शिव कल्याण यहाँ है, पावें सभी प्रसाद यहाँ।
शायरों और कवियों की ये वाणियाँ भारतभूमि की उदारता और सहिष्णुता की उद्घोषणाएँ हैं। जाति और सम्प्रदाय के नाम पर मनुष्यों को टुकड़ों में बाँटना और उनके हृदयों में द्वेष के बीज बोना हमारी संस्कृति को कभी स्वीकार नहीं हुआ। हमारे पूर्वजों ने आचार, विचार, चिन्तन, भाषा, वेशभूषा और परंपराओं की विविधताओं को एक राष्ट्रीयता के सूत्र में पिरोकर सारे विश्व के सामने मानवीय एकता का आदर्श प्रस्तुत किया है। मानव मात्र के लिए मंगल - कामना भारतीय जीवन - दर्शन का आदर्श रहा है -
'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दुःखभग्भवेत।'
साम्प्रदायिकता क्या है ? - भारतीय मान्यता के अनुसार धैर्य, क्षमता, आत्मसंयम, चोरी न करना, पवित्र भावना, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, बुद्धिमत्ता, विद्या, सत्य और क्रोध न करना-ये धर्म के दस लक्षण हैं। सभी धर्म इनको अपना आदर्श और अपना अंग मानते हैं। सारे संसार का एक ही धर्म है। हाँ, उस धर्म की अपने - अपने ढंग से व्याख्या करने वाले सम्प्रदाय अनेक हैं हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, जैन, बौद्ध, ईसाई आदि।
महाभारत में कहा गया है कि जो सब धर्मों को सम्मान नहीं देता, वह धर्म नहीं अधर्म है। साम्प्रदायिक दुराग्रह ही साम्प्रदायिकता है। धर्म के नाम पर मनुष्य को मनुष्य का गला काटने की दुष्प्रेरणा, साम्प्रदायिक कटुता के नाम पर दूसरों का घर जलाने की और नारियों के अपमान की कु - शिक्षा दिया जाना शैतानियत है, दानवता है। इसे धर्म कहना धर्म का और ईश्वर का घोर अपमान है। इसी प्रकार समाज को उच्च और नीच जातियों में बाँटना मानवता का अपमान है।
साम्प्रदायिकता का परिणाम - साम्प्रदायिक द्वेष के जहर को इस देश ने शताब्दियों से झेला है। सन् 1947 में देश के विभाजन के समय खून की जो होली खेली गई थी वह आज भी कोढ़ के रूप में जब चाहे फूट निकलती है। इसका परिणाम होता है - हत्या, आगजनी, लूट, बलात्कार और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में देश की बदनामी। करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति का विनाश होता है तथा द्वेष की खाइयाँ और गहरी हो जाती हैं। इस साम्प्रदायिक दुराग्रह ने ही तो सुकरात को जहर परोसा, ईसा को सूली पर चढ़ाया, गाँधी के जिगर में गोली उतारी थी। - साम्प्रदायिक दुराग्रह के पीछे कौन ? साम्प्रदायिक द्वेष का जहर बेचने वाले अनेक प्रकार के मुखौटे लगाए जन - मन को विषैला बनाते रहते हैं। इनमें धार्मिक नेता, स्वार्थी राजनीतिज्ञ और कुछ कट्टर मानसिकता वाले अविवेकी लोग भी शामिल हैं। हमारा एक पड़ोसी देश भी अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिक उन्माद को हवा देता रहता है। जातिवाद को हवा देने वाले भी राजनीतिक लोग हैं।
साम्प्रदायिक सद्भाव आवश्यक - आज देश को साम्प्रदायिक सद्भाव की अत्यन्त आवश्यकता है। अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियाँ और द्वेषी पड़ोसी हमें कमजोर बनाने और विखण्डित करने पर तुले हुए हैं। ऐसे समय में देशवासियों को परस्पर मिल - जुलकर रहने की परम आवश्यकता है। मन्दिर - मस्जिद के नाम पर लड़ते रहने का परिणाम देश के लिए बड़ा घातक हो सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बदनामी होती है। अर्थतन्त्र पर भारी बोझ पड़ता है। अतः हम प्रेम और सदभाव से रहें तो कितना अच्छा है!
उपसंहार - देश का दुर्भाग्य है कि साम्प्रदायिक सद्भाव क्षीण होता जा रहा है। 'सत्ताकेन्द्रित जोड़ - तोड़' ने 'धर्म - निरपेक्षता' या 'साम्प्रदायिक सदभाव' को एक खोखला नारा बनाकर रख दिया है। इसके लिए जनता को ही आगे आना होगा। सभी धर्मावलम्बियों को मिल - बैठकर इसका हल निकालना होगा।
28. भारतीय नारी : कल और आज
अथवा
भारतीय नारी : प्रगति की ओर
भूमिका - नर और नारी जीवन - रूपी रथ के दो पहिए हैं। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता। अतः दोनों को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए। भारतीय महापुरुषों ने इसीलिए नारी की महिमा का बखान किया है। मनु कहते हैं - “जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ सभी देवता निवास करते हैं।" स्वार्थी और अहंकारी पुरुषों ने नारी को अबला और पुरुष की आज्ञाकारिणी मानकर उसकी गरिमा को गिरा दिया। उसे. अशिक्षा और पर्दे की दीवारों में कैद करके, एक दासी जैसा जीवन बिताने को बाध्य कर दिया।
बीते कल की नारी - हमारे देश में प्राचीन समय में नारी को समाज में पूरा सम्मान प्राप्त था। वैदिक कालीन नारियाँ सुशिक्षित और स्वाभिमानिनी होती थीं। कोई भी धार्मिक कार्य पत्नी के बिना सफल नहीं माना जाता था। धर्म, दर्शन, शासन, युद्ध - क्षेत्र आदि सभी क्षेत्रों में नारियाँ पुरुषों से पीछे नहीं थीं। विदेशी और विधर्मी आक्रमणकारियों के आगमन के साथ ही भारतीय नारी का मान - सम्मान घटता चला गया। वह अशिक्षा और पर्दे में कैद हो गयी। उसके ऊपर तरह - तरह के पहरे बिठा दिये गये।सैकड़ों वर्षों तक भारतीय नारी इस दुर्दशा को ढोती रही।
आज की नारी - स्वतंत्र भारत की नारी ने स्वयं को पहचाना है। वह फिर से अपने पूर्व गौरव को पाने के लिए बेचैन हो उठी है। शिक्षा, व्यवसाय, विज्ञान, सैन्य - सेवा, चिकित्सा, कला, राजनीति हर क्षेत्र में वह पुरुष के कदम से कदम मिलाकर चल रही है। वह सरपंच है, जिला - अध्यक्ष है, मेयर है, मुख्यमंत्री है, प्रधानमंत्री है, राष्ट्रपति है, लेकिन अभी भी यह सौभाग्य नगर - निवासिनी नारी के ही हिस्से में दिखायी देता, है। उसकी ग्रामवासिनी करोड़ों बहनें अभी भी अशिक्षा, उपेक्षा और पुरुष के अत्याचार झेलने को विवश हैं। एक ओर नारी के सशक्तीकरण (समर्थ बनाने) की, उसे संसद और विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण देने की बातें हो रही हैं तो दूसरी ओर पुरुष वर्ग उसे नाना प्रकार के पाखण्डों और प्रलोभनों से छलने में लगा हुआ है।
भारतीय की नारी - भारतीय नारी का भविष्य उज्ज्वल है। वह स्वावलम्बी बनना चाहती है। अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाना चाहती है। सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहती है। ये सारे सपने तभी पूरे होंगे जब वह भावुकता के बजाय विवेक से काम लेगी। स्वतंत्रता को स्वच्छंदता नहीं बनाएगी। पुरुषों की बराबरी की अंधी दौड़ में न पड़कर अपना कार्य - क्षेत्र स्वयं निर्धारित करेगी।
उपसंहार - पुरुष और नारी के संतुलित सहयोग में ही दोनों की भलाई है। दोनों एक - दूसरे को आदर दें। एक - दूसरे को आगे बढ़ने में सहयोग करें।
29. कन्या - भ्रूण हत्या : महापाप
अथवा
कन्या को जन्म लेने दो
अथवा
कन्या की गर्भ में हत्या : घोर अपराध
प्रस्तावना - हमारी भारतीय - संस्कृति में कन्या को देवी का स्वरूप माना जाता है। नवरात्र और देवी जागरण के समय कन्या - पूजन की परम्परा से सभी परिचित हैं। हमारे धर्मग्रन्थ भी नारी की महिमा का गान करते हैं। आज उसी भारत में कन्या को माँ के गर्भ में ही समाप्त कर देने की लज्जाजनक परम्परा चल रही है। इस दुष्कर्म ने सभ्य जगत के सामने हमारे मस्तक को झुका दिया है।
बेटों का है मान जगत में, बेटी का कोई मान नहीं,
हे प्यारे भगवान ! बता तो, बेटी क्या इंसान नहीं।
कन्या - भ्रूण हत्या के कारण - कन्या - भ्रूण को समाप्त करा देने के चलन के पीछे अनेक कारण हैं। कुछ राजवंशों और सामन्त परिवारों में विवाह के समय वर पक्ष के सामने न झुकने के झूठे अहंकार ने कन्याओं की बलि ली। पुत्री की अपेक्षा पुत्र को महत्व दिया जाना, धन लोलुपता, दहेज - प्रथा तथा कन्या के लालन - पालन और सुरक्षा में आ रही समस्याओं ने भी इस निन्दनीय कार्य को बढ़ावा दिया है। दहेज के लोभियों ने इस समस्या को विकट बना दिया है। वहीं झूठी शान के प्रदर्शन के कारण भी कन्या का विवाह सामान्य परिवारों के लिए बोझ बन गया है।
कन्या - भ्रूण हत्या के दुष्परिणाम - विज्ञान की कृपा से आज गर्भ में ही संतान के लिंग का पता लगाना सम्भव हो गया है। अल्ट्रासाउण्ड मशीन से पता लग जाता है कि गर्भ में कन्या है या पुत्र। यदि गर्भ में कन्या है तो कुबुद्धि वाले लोग उसे डॉक्टरों की सहायता से नष्ट करा देते हैं। इस निन्दनीय आचरण के कुपरिणाम सामने आ रहे हैं। देश के अनेक राज्यों में लड़कियों और लड़कों के अनुपात में चिन्ताजनक गिरावट आ गयी है। लड़कियों की कमी होते जाने से अनेक युवक कुँवारे घूम रहे हैं। यदि सभी लोग पुत्र ही पुत्र चाहेंगे तो पुत्रियाँ कहाँ से आएँगी ? विवाह कहाँ से होंगे ? वंश कैसे चलेंगे? इस महापाप में नारियों की भी सहमति होना बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है।
कन्या - भ्रूण हत्या रोकने के उपाय - इस घृणित कार्य को रोकने के लिए जनता और सरकार दोनों का प्रयास आवश्यक है। यद्यपि सरकार ने लिंग परीक्षण को अपराध घोषित करके कठोर दण्ड का प्रावधान किया है फिर भी चोरी छिपे यह काम चल रहा है। इसमें डॉक्टरों तथा परिवारीजन दोनों का सहयोग रहता है। इस समस्या का हल तभी सम्भव है जब लोगों का लड़कियों के प्रति हीनता का भाव समाप्त हो। पुत्र और पुत्री में कोई भेद नहीं किया जाये। लड़कियों को स्वावलम्बी बनाया जाये।
उपसंहार - कन्या भ्रूण हत्या भारतीय समाज के मस्तक पर कलंक है। इस महापाप में किसी भी प्रकार का सहयोग करने वालों को समाज से बाहर कर दिया जाना चाहिए और कठोर कानून बनाकर दण्डित किया जाना चाहिए। कन्या - भ्रूण हत्या मानवता के विरुद्ध अपराध है।'
30. जहर फैलाते शहर
अथवा
शहरीकरण का दुष्प्रभाव
प्रस्तावना - इक्कीसवीं सदी नगर सभ्यता की सदी है, ऐसा कहना बहुत कुछ सही प्रतीत होता है। कम - से - कम भारत में तो उजड़ते गाँव और प्रतिदिन बसते शहर यही कहानी कह रहे हैं। शहरी जीवन की बाहरी तड़क - भड़क और सुख - सुविधाओं से भ्रमित होकर ग्रामीण युवा शहरों की ओर भाग रहे हैं। यह बढ़ता शहरीकरण किस तरह चुपके - चुपके जहर परोस रहा है इस पर भौतिक सुख - सुविधाओं के दीवानों का ध्यान नहीं है। शहरीकरण का आशय पहले मनुष्य छोटे समूह के रूप में एक स्थान पर रहने लगे तो ग्राम बने। जब उसने खेती करना सीखा तो उसे एक ही स्थान पर रहने की आवश्यकता हुई। यही ग्राम धीरे - धीरे कस्बों, नगरों तथा महानगरों में विकसित हो गये। महानगरों के विकास में पाश्चात्य सभ्यता का विशेष योगदान रहा है।
शहरों की ओर पलायन के कारण -
शहरीकरण का भारतीय समाज पर प्रभाव - शहरों की तीव्र वृद्धि होने से जो दुष्प्रभाव हमारे समक्ष उत्पन्न हो रहे हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं -
शहरीकरण का निराकरण - बढ़ते शहरों पर नियन्त्रण हेतु गाँवों में स्वरोजगार, कुटीर उद्योग आदि को प्रोत्साहन देना होगा। गाँव की प्रतिभा का उपयोग ग्रामीण विकास में ही करने की योजना निर्मित करनी होगी। कृषि को उद्योग का दर्जा प्रदान कर उससे सम्बन्धित अन्य उद्योग जैसे - पशुपालन, डेयरी, ऑयल मिल, आटा मिल, चीनी उद्योग आदि को प्रोत्साहन दिया जाए तो लोग गाँवों में रोजगार का अभाव महसूस नहीं करेंगे। इसके अतिरिक्त संचार सुविधा, परिवहन सुविधा आदि को भी ग्रामीण संरचना की दृष्टि से विस्तारित किया जाए। शहरों की तुलना में ग्रामीणों को अधिक साधन - सुविधाएँ देने से लोग पलायन नहीं करेंगे और बढ़ते शहरों पर नियन्त्रण किया जा सकेगा।
उपसंहार - विकास के पाश्चात्य मॉडल का अन्धानुकरण ही शहरीकरण की अबाध वृद्धि का कारण है। यदि ग्रामों की उपेक्षा करते हुए विकास का प्रयास जारी रहता है तो वह अधूरा विकास होगा। देश के लाखों गाँवों के विकास में ही देश की प्रगति का मूल मन्त्र निहित है।
31. बाल - श्रम : एक सामाजिक कलंक
अथवा
बालक का बचपन बचाओ
अथवा
शोषण से बालकों की मुक्ति
प्रस्तावना - 'प्रथमे नार्जिता विद्या' कहकर जीवन के आरम्भ में, बचपन में, विद्या ग्रहण न करने वाले को प्रशंनीय नहीं माना गया है। बचपन शारीरिक और मानसिक विकास का समय है। यह समाज का कर्तव्य है कि वह बालकों को इसका अवसर उपलब्ध कराये। समाज की आर्थिक संरचना ऐसी हो कि बच्चों को पेट भरने के लिए श्रमिक बनकर न जूझना पड़े। आचार्य चाणक्य ने उन माता - पिता को शत्रु की संज्ञा दी है, जो अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिलाते।
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
बाल - श्रम - 14 वर्ष से कम आयु के बालक - बालिका को बाल - श्रमिक माना जाता है। इस आयु में शारीरिक श्रम करना ही बाल - श्रम है। भारतीय संविधान में 14 वर्ष से कम उम्र के बालक - बालिकाओं से श्रमिक के रूप में कार्य लेना गैर - कानूनी तथा वर्जित है। इस आयु वर्ग के बालकों से किसी व्यावसायिक संस्था अथवा घर में काम लेना निषिद्ध घोषित किया गया है।
बाल - श्रम की स्थिति - संवि संम्मत न होने पर भी हमारे देश में बाल - श्रम निरन्तर जारी है। छोटे - छोटे बच्चे - कारखानों, लघु गृह उद्योगों, दुकानों तथा घरों में काम करतें देखे जा सकते हैं। घरों में बर्तन - सफाई का काम करने, चाय की दुकानों पर कप - प्लेट धोने, साइकिल - स्कूटर की दुकानों पर.पंचर जोड़ते, हलवाइयों की दुकानों पर बर्तन माँजते आदि अनेक मोटे काम करते बच्चे देखे जा सकते हैं। कछ बच्चे तो कांच उद्योग जैसे उद्योगों में भी कार्यरत देखे जा सकते हैं, जिसमें कार्य करने में गम्भीर जोखिम रहता है।
बाल - श्रम के कारण - बाल - श्रम भारत में जारी हने का प्रमुख कारण गरीबी है। माता पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि वे अपने बच्चों को स्कूल में पढ़ने भेजें। बालकों के लिए शिक्षा की निःशुल्क तथा अनिवार्य व्यवस्था होने पर भी वे उससे वंचित रहते हैं। मध्याह्न पोषण - आहार भी उनको वहाँ जाने के लिए आकर्षित नहीं करता। उनके लिए चार पैसे कमाकर परिवार के पेट भरने में सहयोग देना जरूरी होता है।
बाल - श्रमिकों का शोषण - घरों अथवा उद्योगों में काम करने वाले बालकों का दिन - रात शोषण होता है। उनको नियत समय से अधिक बारह - चौदह घण्टे काम करना होता है। उनका वेतन किसी वयस्क श्रमिक के वेतन से आधा या चौथाई ही होता है। बीमारी अथवा किसी अन्य कठिनाई के कारण काम पर न आने पर उनको अवकाश नहीं मिलता और वेतन काट लिया जाता है। उनका कार्य करने का स्थान गंदा और अस्वास्थ्यकर होता है जिससे वे बीमार हो जाते हैं। उनको बात - बात पर डाँटा - डपटा और मारा - पीटा जाता है।
नियोक्ता जानते हैं कि उनका दुर्व्यवहार सहकर भी बच्चे काम करेंगे। उनके मजबूर माता - पिता उनको काम पर अवश्य भेजेंगे। व भयंकर सर्दी, गर्मी, बरसात सहकर भी काम करते हैं। उनको अपना खाना साथ ले जाना पड़ता है। नियोक्ता की ओर से उनको कोई सुविधा नहीं दी जाती है। मालिक जानता है कि ये बाल - श्रमिक उसकी किसी भी बात का विरोध नहीं करेंगे। अतः वह उनके साथ मनमानी करता है और तरह - तरह से उनका शारीरिक और मानसिक शोषण करता है।
बालकों का बचपन बचाने की आवश्यकता - बाल - श्रम से बालकों का बचपन संकट में है, उसको बचाना बहुत जरूरी है। भारत के उत्तम भविष्य के लिए इन बालकों को शिक्षा प्राप्त करने तथा शारीरिक - मानसिक विकास करने का अवसर मिलना ही चाहिए। यह समाज तथा सरकार दोनों का ही सम्मिलित दायित्व है।
माता - पिता को छोटे परिवार का महत्त्व समझाया जाये। उनको बालक के भविष्य के लिए उसे नौकरी करने के लिए न भेजकर स्कूल भेजने के लिए प्रेरित किया जाय। सुदृढ़ आर्थिक स्थिति के लोग मिलकर ऐसे बच्चों की मदद करें। सामाजिक संस्थाएँ आगे आकर उचित वातावरण तैयार करें। सरकार गरीब परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के उपाय करे तथा बाल - श्रम रोकने के लिए कठोर कानून भी बनाये, तभी बालकों का बचपन सुरक्षित हो सकता है।
उपसंहार - बच्चे देश का भविष्य होते हैं। उनकी प्रगति और विकास पर ही देश की प्रगति और विकास निर्भर है। यदि। उनके बचपन को कारखानों की भट्ठियों में झोंकना जारी रहेगा तो देश का भविष्य भी उसकी राख से दूषित हो जायेगा। अतः आवश्यकता यह है कि इस दिशा में ईमानदारीपूर्वक गम्भीर प्रयास किये जाएँ।
32. सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार
अथवा
भ्रष्टाचार और काला धन
अथवा
भ्रष्टाचार से प्रदूषित राजनीति
प्रस्तावना - आज देश में भ्रष्टाचार सबसे ज्वलंत और व्यापक समस्या बना हुआ है। इस संक्रामक बीमारी के नित्य नए मरीज सामने आ रहे हैं। जिस देश की ख्याति कभी सदाचार के लिए थी, आज वह भ्रष्टाचार के क्षेत्र में नए - नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है।
भ्रष्टाचार क्या है ? - सत्य, प्रेम, अहिंसा, धैर्य, क्षमा, अक्रोध, विनय, दया, अस्तेय (चोरी न करना), शूरता आदि गुण प्रत्येक समाज में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। जो व्यक्ति इनमें से यथासम्भव अधिकाधिक गुणों को आचरण में उतारता है, वही सदाचारी है। इन गुणों की उपेक्षा करना या उनके विरोधी दुर्गुणों को अपनाना ही आचरण से भ्रष्ट होना अर्थात् भ्रष्टाचार है।
भ्रष्टाचार के विविध रूप - आज भ्रष्टाचार ने देश के हर वर्ग और क्षेत्र को ग्रसित कर रखा है। चाहे शिक्षा हो, चाहे धर्म, चाहे व्यवसाय हो, चाहे राजनीति यहाँ तक कि कला और विज्ञान भी इस घृणित व्याधि से मुक्त नहीं हैं। सरकारी कार्यालयों में जाइए तो बिना सुविधा शुल्क (रिश्वत) के आपका काम नहीं होगा। न्यायालयों में न्याय भी बिकने लगा है। धार्मिक क्षेत्र में पाखण्ड और प्रदर्शन का बोलबाला, पूँजी निवेश के नाम पर उपभोक्ता के निर्मम शोषण को वैध रूप दिया जाना आदि व्यावसायिक भ्रष्टाचार के ही बदले हुए स्वरूप हैं। - राजनीतिक भ्रष्टाचार ने तो देश में बड़े - बड़े कीर्तिमान स्थापित किए हैं। सन् 1962 के जीप खरीद काण्ड से प्रारम्भ हुए भ्रष्टाचार की कीर्ति कथा केतन देसाई और आई. पी. एल. क्रिकेट तक अक्षुण्य चली आई है।
राजनीतिक भ्रष्टाचार के नए - नए चमत्कार सामने आना जारी है। कामन वेल्थ गेम्स घोटाला, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श सहकारी समिति घोटाला, कोयला आवंटन में घोटाला की कथा, विकलांगों के ट्रस्ट में बेईमानी, आदि। इस उपलक्ष्य में अनेक राजा, राजकुमारी, दरबारी, पदाधिकारी, कार्पोरेट और व्यापारी 'तिहाड़ - तपोवन' में एकांत आत्मचिंतन के लिए भेजे जा चुके हैं।
काला धन - भ्रष्टाचार विदेशी पूँजी निवेश की देन है। इसी से काला धन पैदा होता है। जिस पूँजी का बैंकों के माध्यम से लेन - देन नहीं होता तथा जिस पर देय कर अदा नहीं किया जाता, उसको काला धन कहते हैं। इसमें कमीशन, रिश्वत, भेंट आदि सम्मिलित हैं, जो विधि विरुद्ध तरीके से पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने के कारण राजनेताओं तथा सरकारी अफसरों को प्राप्त होते हैं।
भ्रष्टाचार का प्रभाव - आज जीवन के हर क्षेत्र में विश्वसनीयता का संकट छाया हुआ है। लगता है हमने भ्रष्टाचार को सामान्य व्यवहार का अंग मान लिया है।।
भीड़ अन्धों की खड़ी खुश रेबड़ी खाती।
अँधेरे के इशारों पर नाचती गाती।
जब शीर्षस्थ लोग भ्रष्ट होंगे तो सामान्य व्यक्ति का तो कहना ही क्या है। जब देश का कोई भी भेद बिक सकता है, कोई भी अधिकारी बिक सकता है तो किसी दिन देश भी बिक सकता है। विदेशी शक्तियाँ देश को अपने अर्थ - बल से गुलाम बनाना चाहती हैं, वे भ्रष्टाचार के सन्धि - द्वार से भारत पर अपना आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो सकती हैं।
निवारण के उपाय - भ्रष्टाचार की इस बाढ़ से जनजीवन की रक्षा केवल चारित्रिक दृढ़ता ही कर सकती है। समाज और देश के व्यापक हित में जब व्यक्ति अपने नैतिक उत्तरदायित्व का अनुभव करे और उसका पालन करे तभी भ्रष्टाचार का विनाश हो सकता है। कुछ अन्य उपाय हैं -
उपसंहार - भारतीय जन - जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार की उपस्थिति देखकर ऐसा लगता है कि सरकार और जनता अब भ्रष्टाचार के साथ जीने की अभ्यस्त हो गई है। यद्यपि न्यायपालिका की सक्रियता ने भ्रष्टाचार पर प्रहार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है किन्तु भ्रष्टाचार का सीधा संबंध मनुष्य के चरित्र और संस्कारों से होता है। जब तक चरित्रनिष्ठ लोग देश.का और समाज का नेतृत्व नहीं करेंगे तब तक 'लोकपाल' भी लोकतंत्र को भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं कर पाएँगे। इससे मुक्ति के लिए लोगों को त्याग - बलिदान तथा कठोर संघर्ष के लिए तत्पर रहना होगा -
वक्त की तकदीर स्याही से लिखी जाती नहीं,
खून में कलमें डुबाने का जमाना आ गया है।
33. वाहनों की वृद्धि : घातक समृद्धि
अथवा
बढ़ते वाहन : घटती साँसें
प्रस्तावना - वाहन का होना सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ी रहा है। पशुओं और मनुष्यों द्वारा खींचे और ढोए जाने वाले परंपरागत वाहन आज लुप्तप्राय हो चुके हैं। इनका स्थान पेट्रोल और डीजल चालित वाहनों ने ले लिया है। आज सड़कों पर स्वचालित वाहनों का राज है। दुपहिया, तिपहिया, चौपहिया, छह, आठ और बारह पहियों वाले नाना प्रकार और उपयोग के वाहन सड़कों पर दौड़ रहे हैं।
वाहनों का ईंधन - कुछ अपवादों को छोड़ दें तो प्रायः सभी स्वचालित वाहन पेट्रोल और डीजल का उपयोग करते हैं। गैस, बिजली, सौर ऊर्जा, हाइड्रोजन आदि से भी वाहन चलाए जा रहे हैं किन्तु इनकी संख्या नगण्य है। वाहनों की संख्या बढ़ने से ईंधन की खपत भी बढ़ती जा रही है।
वाहनों की बढ़ती संख्या - सड़कों पर वाहनों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। वाहन निर्माता कंपनियाँ नाना प्रकार के आकर्षक विज्ञापन देकर लोगों को वाहन खरीदने के लिए आकर्षित कर रही हैं। लाखों से आगे अब करोड़ों रुपयों के मूल्य की लग्जरी कारें उतारी जा रही हैं। वाहन खरीदने के लिए ऋण की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। व्यक्तिगत वाहनों के अलावा सार्वजनिक और व्यावसायिक वाहनों की संख्या भी निरंतर बढ़ती जा रही है। गाड़ियों की निरंतर बढ़ती संख्या ने सड़कों को छोटा साबित कर दिया है।
वाहनों में वृद्धि के दुष्परिणाम - वाहनों की बढ़ती भीड़ के अनेक दुष्परिणाम सामने उपस्थित हैं -
(i) बढ़ती दुर्घटनाएँ - सड़क हादसों में हो रही निरंतर वृद्धि वाहनों के बढ़ने का ही दुष्परिणाम है। सड़क दुर्घटनाएँ रोज सैकड़ों - हजारों लोगों की बलि ले रही हैं। इन खूनी सड़कों द्वारा ली गई जिंदगियों की संख्या आतंकी घटनाओं में मारे गए लोगों से सैकड़ों गुना अधिक हो गई है। सड़कों पर ये खून - खराबा निरंतर जारी है।
(ii) अर्थव्यवस्था पर बढ़ता भार - वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण पेट्रोल और डीजल की मांग बढ़ती जा रही है। देश की आवश्यकता का अधिकांश ईंधन बाहर से आता है। आजकल पेट्रोलियम के भाव आकाश चूम रहे हैं। इस प्रकार वाहनों की संख्या बढ़ने से तेल का आयात भी बढ़ता जा रहा है। देश की अर्थव्यवस्था पर निरंतर भार बढ़ रहा है।
(iii) शोषण का साधन वाहन खरीदने के लिए निर्माता कम्पनियाँ तथा बैंक ऋण देती हैं। इससे लोग अनावश्यक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। ऋणदाता ब्याज सहित वाहन का दूना मूल्य उनसे वसूल करता है। इससे जनता का अनावश्यक शोषण होता है तथा समाज में अनुचित प्रतिस्पर्धा बढ़ती है। लाभ होता है तो केवल पूँजीपति वर्ग को।
(iv) समय और धन की हानि - वाहनों की संख्या बढ़ने से व्यस्त मार्गों पर प्रायः जाम लगते रहते हैं। इन जामों में फंसे लोगों का समय तो नष्ट होता ही है, व्यर्थ ईंधन फूंकने का खर्च भी उठाना पड़ता है। कभी - कभी ये जाम रोगियों के लिए जानलेवा साबित होते हैं।
(v) पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि–वाहनों के बढ़ने से ईंधन अधिक व्यय हो रहा है। इससे वायुमंडल में कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस अधिक मात्रा में मिल रही है और वायुमंडल प्रदूषित हो रहा है। दिन और रात दौड़ रहे वाहनों के शोर से ध्वनि प्रदूषण भी भोगना पड़ रहा है। इससे लोगों की अनेक प्रकार के रोग हो रहे हैं और उनका स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है।
(vi) सड़कों की दुर्दशा - वाहनों का भार बढ़ने से सड़कें क्षतिग्रस्त हो रही हैं। सड़कों का उचित रख - रखाव न होने। से दुर्घटनाएँ बढ़ रही हैं और यात्रियों को परेशानी भोगनी पड़ रही है। सड़कों के रख - रखाव पर पैसा भी बर्बाद हो रहा है।
उपसंहार - वाहनों की निरंतर बढ़ती संख्या एक ऐसी समस्या है जिसका समाधान जनता और सरकार दोनों के समझबूझयुक्त सहयोग से ही संभव है। जनता वाहनों के प्रयोग में संयम से काम ले। आवश्यक होने पर ही वाहन का प्रयोग किया जाए। अनेक देशों में साइकिल के प्रयोग को अनिवार्य बनाया गया है। हमारी सरकारें भी ऐसा कर सकती हैं। कारों के प्रयोगकर्ताओं पर विशेष कर लगाया जाय। वाहन क्रय करने के लिए ऋण देने की व्यवस्था को समाप्त किया जाय।
34. प्लास्टिक की थैलियों की समस्या
अथवा
पर्यावरण की दुश्मन : प्लास्टिक की थैलियाँ
प्रस्तावना - वर्तमान युग को 'प्लास्टिक का युग' कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। जीवन के हर क्षेत्र में सर्वव्यापी ईश्वर के समान प्लास्टिक उपस्थित है। गरीब से गरीब और अमीर से अमीर सेबकी सेवा में प्लास्टिक हाजिर है। लाखों की कार में भी वह मौजूद है और टूटी झोपड़ी में भी। प्लास्टिक के असंख्य उत्पादों में जो सर्वव्यापक बना हआ है वह है उसकी थैलियाँ। बडी नाजक काया वाली विविध रूप - रंगों वाली ये थैलियाँ बाजार की जान हैं. ग्राहकों के हाथ की शान हैं।
बाजार की जान थैलियाँ - एक मित्र ने मझसे एक पहेली पछी - ग्राहक ले पैसा खडा, भरा दुकान में माल। एक चीज के बिन हुए दोनों ही बेहाल।' वह चीज़ क्या है ? वह चीज़ है थैली। प्लास्टिक थैलियों पर बाजार कितना आश्रित हो चुका है - घर से हाथ हिलाते आइए, आपकी हर खरीद के लिए थैलियाँ सेवा में उपस्थित हैं। चाहे आप पाँच रुपया का दूध खरीदिए या हजारों रुपए की साड़ी सब थैली में ही मिलेंगे। बस रंग - रूप में फर्क हो जाएगा।
प्लास्टिक थैलियाँ बनी समस्या - प्लास्टिक थैलियों की सुलभता, सामान ले जाने की सुगमता, सबसे सस्ता साधन, अनेक खूबियाँ थैलियों के पक्ष में जाती हैं। फिर लोग इनकी जान के पीछे क्यों पड़े हैं ? छापे पड़ रहे हैं। थैलियाँ जब्त की जा रही हैं। रैलियाँ और जुलूस निकालकर प्लास्टिक थैलियों का बहिष्कार करने की अपीलें की जा रही हैं। कपड़े और जूट के थैले बाँटे जा रहे हैं। इन नाचीज़ - सी थैलियों से आदमी इतना क्यों घबरा गया है ?
इसका कारण है इन बेकसूर और मासूम दिखाई पड़ने वाली थैलियों के दुष्परिणाम। ये थैलियाँ अजर - अमर हैं। न सड़ती हैं न घुनती हैं। जहाँ भी पहुंच जाती हैं अड़कर पड़ जाती हैं। अगर आपके नाली क्षेत्र में प्रवेश कर गईं तो उसका गला अवरुद्ध हो जाएगा। पानी नालियों से जाने के बजाय आपके कमरे, आँगन में लहराएगा या फिर सड़कों और बाजारों में किलोल करता नजर आएगा।
पर्यावरण की दुश्मन - प्लास्टिक की थैलियाँ पर्यावरण की शत्रु बन गई हैं। धरती में दबाएँ तो मिट्टी बेकार, जल में बहाएँ तो जल प्रदूषित, आग में जलाएँ तो वायु में जहर घोल देती हैं। इनका निस्तारण एक कठिन समस्या बन गया है। निर्धारित मानकों का प्रयोग न किए जाने से इनमें खाद्य पदार्थों का रखा जाना असुरक्षित है।
समाधान कैसे हो - थैलियों को प्रतिबंधित और त्याज्य बनाने के लिए जो नाटक - नौटंकी हो रहे हैं वे कभी स्थायी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। छोटे - छोटे दुकानदारों या थैली विक्रेताओं को आतंकित करने से क्या होगा ? राजस्थान की भाँति अन्य राज्यों में थैलियों के निर्माण पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता ? जब थैलियाँ मिलेंगी ही नहीं तो लोग अपने आप वैकल्पिक साधनों को अपनाएँगे। थैलियों के निर्माण में ऐसे पदार्थ का प्रयोग होना चाहिए जो विघटनशील हो। पर्यावरण के अनुकूल हो, सस्ता तथा सुलभ हो।
उपसंहार - प्लास्टिक की थैलियों का निर्माण तथा प्रयोग सरकारी स्तर पर कठोरता से प्रतिबंधित होना चाहिए। लोगों में इनसे होने वाली हानियों के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जानी चाहिए। बुद्धिजीवी वर्ग को इस अभियान से जुड़ना चाहिए। इनका कोई विकल्प अवश्य ही उपलब्ध कराया जाना चाहिए
35. वरिष्ठ नागरिकों की समस्याएँ
अथवा
उपेक्षित वृद्धावस्था
प्रस्तावना - आजकल वयोवृद्ध, सेवानिवृत्त लोगों को एक सम्मानजनक नाम वरिष्ठ नागरिक दिया गया है। लगभग 60 वर्षीय वृद्ध जन वरिष्ठ नागरिक माने जाते हैं। यह शुभ लक्षण है कि इनकी समस्याओं की ओर समाज का ध्यान जा रहा है। जिन्होंने जीवन भर अपने कार्यों से समाज की विविध रूपों में सेवा की, वृद्धावस्था में उनकी समस्याओं पर ध्यान देना समाज का नैतिक कर्तव्य है। प्रायः समाज का यह वर्ग उपेक्षा का पात्र रहा है। परिवार में और परिवार के बाहर इन लोगों की समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने के प्रयत्न बहुत कम ही हुए हैं।
वरिष्ठ नागरिकों की समस्याएँ - वरिष्ठ नागरिकों की अनेक समस्याएँ हैं। इनमें सर्वप्रथम उनका स्वयं को अकेला अनुभव करना हैं। घर - परिवार में रहते. हुए भी उन्हें लगता है कि उनकी ओर उचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वे स्वयं को अकेला और उपेक्षित अनुभव करते हैं। वरिष्ठ नागरिकों की एक प्रमुख समस्या है उनकी अस्वस्थता। वृद्धावस्था में प्रायः अनेक रोग व्यक्ति को पीड़ित करने लगते हैं। उनके स्वास्थ्य पर परिवारीजन अधिक ध्यान नहीं देते। शारीरिक अक्षमता और धन का अभाव दोनों ही उन्हें पीड़ित करते हैं।
वरिष्ठ नागरिकों की एक भावनात्मक समस्या है उनको उचित सम्मान न मिलना। परिवार में और परिवार के बाहर उन्हें बेकार का आदमी समझकर समुचित सम्मान नहीं दिया जाता।
समस्याओं के समाधान - वरिष्ठ नागरिकों के एकाकीपन को दूर करने के लिए परिवार के सदस्यों को उनके साथ कुछ समय बिताना चाहिए। परिवार के बच्चों को उनके साथ वार्तालाप करने तथा खेलने के लिए प्रेरित करना चाहिए। वरिष्ठ नागरिकों के लिए मिलने - बैठने के स्थान, क्लब आदि की व्यवस्था होनी चाहिए।
वरिष्ठ नागरिकों के स्वास्थ्य का परिवार के सदस्यों को ध्यान रखना चाहिए। उनके उपचार की यथासंभव उचित व्यवस्था करनी चाहिए। अस्पतालों में वरिष्ठ नागरिकों को विशेष सुविधाएँ मिलनी चाहिए।
वरिष्ठ नागरिक हमारे समाज के सम्माननीय अंग हैं। उनका सम्मान हमारी सामाजिक सभ्यता का परिचायक है। अतः हर स्थान पर उन्हें उचित आदर दिया जाना चाहिए।
वरिष्ठ नागरिकों से अपेक्षाएँ - वरिष्ठ नागरिकों को भी अपने आचार - व्यवहार के प्रति सचेत रहना चाहिए। उन्हें कोई कार्य ऐसा नहीं करना चाहिए जो उनकी गरिमा के प्रतिकूल हो। परिवार में रहते हुए उन्हें संयम और उदारता का परिचय देना चाहिए। परिवार के साथ सामंजस्य बनाकर चलने पर उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिए।
उपसंहार - यद्यपि सरकार और सामाजिक संस्थाओं ने वरिष्ठ नागरिकों के लिए अनेक सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं फिर भी उनको समाज में सुख और सम्मानपूर्वक रहने के लिए बहुत कुछ किया जाना आवश्यक है। वृद्धावस्था पेंशन, रेलयात्रा में किराए में कटौती, बैंकों में अधिक ब्याज दिया जाना आदि सरकारी सुविधाएँ हैं। इसके अतिरिक्त स्वयंसेवी संगठनों ने भी वृद्धाश्रम तथा क्लब आदि स्थापित किए हैं। आशा है समाज आर्थिक और पारिवारिक रूप से विपन्न वृद्ध लोगों पर विशेष ध्यान देगा।
36. मिलावट का रोग
अथवा
खाद्य पदार्थों में मिलावट
प्रस्तावना - पहले एक फिल्मी गीत बजा करता था -
खाली की गारंटी दूंगा, भरे हुए की क्या गारंटी ?
ना जाने किस चीज में क्या हो ? गरम मसाला लीद भरा हो ?
आज खाद्य पदार्थों में मिलावट एक धंधा बन चुका है। ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे ग्राहक निश्चित होकर खरीद सके। मुनाफे में अंधे समाज के शत्रु, मिलावट - कर्ताओं ने आदमी की जिंदगी को दाँव पर लगा दिया है।
मिलावट का यथार्थ रूप - आज ऐसी कोई वस्तु बाजार में नहीं मिलती जिसे शुद्ध कहा जा सके। दूध में पानी, घी में डालडा, मसालों में पत्थर का चूरा, धनिये में घोड़े की लीद, काली मिर्च में पपीते के बीज, यूरिया से निर्मित जहरीला दूध आदि बाजार में खाद्य पदार्थों में मिलावट के इतने रूप मिल जाएँगे कि उपभोक्ता अधिक पैसा देकर भी शुद्ध वस्तु प्राप्त नहीं कर सकता। व्यापारियों की अधिक - से - अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृन्ति ने ही हमारे देश पर नकली महँगाई थोप दी है। इससे कम धन कमाने वाला व्यक्ति अपना पेट पालन करने में भी असमर्थ हो गया है। सरकार में बैठे लोग इस प्रकार की नीतियाँ बना देते हैं जिससे वस्तुएँ महँगी हो जाती हैं और महँगी वस्तुओं में मिलावट करने से अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है।
मिलावट और समाज - भारतीय समाज पहले धर्म पर अटूट विश्वास रखता था। वह मिलावट, कम तौलना अथवा झूठ बोलकर ठगने को पाप समझता था। लेकिन धर्म की लाठी ज्यों - ज्यों कमजोर होती जा रही है मानव उतना ही बेईमान होता जा रहा है। आज भ्रष्टाचार द्वारा धन कमाना एक तरह का चलन हो गया है। सामाजिक कार्यों में धन - दान करके कोई भी घोर मिलावटिया सम्मान का पात्र बन जाता है।
उसका नाम 'भामाशाहों' में गिना जाता है। उनका सार्वजनिक अभिनन्दन होता है। लड़के - लड़कियों के विवाहों के अवसर पर ऐसे लोग पानी की तरह पैसा बहाते हैं। छोटी - मोटी बीमारियों के इलाज में बेतहाशा धन खर्च किया जाता है। धार्मिक कथाएँ, भण्डारे, जगराते और मूर्तियाँ लगवाने या मन्दिर बनवाने के लिए मुक्तहस्त से पैसा दिया जाता है। समाज ऐसे लोगों का सम्मान करता है तो एक तरह से वह उनकी मिलावट, धोखाधड़ी और ठगी को सामाजिक मान्यता प्रदान कर रहा है। अतः समाज मिलावट को रोकने में सक्षम नहीं है।
मिलावट और सरकार - समाज की तरह सरकार भी इन मिलावाटियों का ही साथ देती है। कानन तो सख्त बनाए जाते हैं लेकिन उसकी नीयत इन कानूनों का कड़ाई से पालन करवाने की नहीं है। परिणामस्वरूप मिलावट ऐशो - आराम की जिन्दगी जी रहे हैं और गरीब जनता उस मिलावटी सामान का उपभोग करने को मजबूर होती है। राजनेताओं को चुनाव लड़ने के लिए चन्दा चाहिए, अफसर और अन्य कर्मचारियों को गलत काम को सही करने के लिए रिश्वत चाहिए। फिर जनता मिलावटी वस्तुओं को खाकर बीमार पड़ती है तो उनकी बला से। इस प्रकार कुएँ में भाँग पड़ी हुई है। हर व्यक्ति अपनी तरह से उस नशे का आनन्द ले रहा है। परिणाम सिर्फ गरीब के हिस्से में आया है। अतः मिलावट रुकने का नाम नहीं ले रही है। कम मेहनत से ज्यादा धन कमाना आज मानव का स्वभाव बनता जा रहा है।
उपसंहार - मिलावट की समस्या दिन पर दिन जटिल से जटिलतर होती जा रही है। नेता, अफसर, कर्मचारी और व्यापारियों की साँठ - गाँठ से जनता घाटे में रह रही है। वस्तु के लिए पूरी कीमत खर्च करके भी उसे सही औ वस्तु नहीं मिल पा रही है। समाधान सिर्फ सामाजिक चेतना है। जनता जाग्रत हो, संगठित हो, आन्दोलन और हड़ताल करे तभी इस भयानक बीमारी से निजात पायी जा सकती है। सरकार और नेताओं के भरोसे इस समस्या का कोई समाधान सम्भव नहीं है।
37. देश के उत्थान में युवावर्ग का योगदान
अथवा
भारतीय लोकतंत्र का संरक्षक : युवावर्ग
अथवा
राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका
प्रस्तावना -
जब - जब संकट घिरे देश पर
किसने वक्ष अड़ाए हैं ?
देश प्रेम की बलिवेदी पर
किसने शीश चढ़ाए हैं ?
प्यासी धरती को श्रम - जल से
कौन सींचता आया है ?
किसने सपनों के सुमनों से
माँ का रूप सजाया है ?
इन प्रश्नों के उत्तर में एक ही नाम, एक छवि उभरती है और वह है देश का 'युवा वर्ग'। वह युवा वर्ग ही था जिसने मातृभूमि को परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ने वाले क्रूर विदेशी शासन को चुनौती दी थी -
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना, बाजू - ए - कातिल में है।
युवा - वर्ग की क्षमता - विधाता के किसी निर्माण को देखो। जवानी उसकी आयु का चरम क्षण होती है। जवानी की उमंगें सागर को मात करती हैं। जवान कल्पनाएँ आकाश को भी छोटा साबित कर देती हैं। धरती फोड़कर वे जलधारा निकाल सकती हैं। पहाड़ों के सिर पर वे रास्ता बना लेती हैं।
प्रस्तावना -
पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे।
सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे।
कविवर माखनलाल चतुर्वेदी ने युवा रक्त की भूमिका को सराहते हुए कहा है -
द्वार बलि का खोल चल, भूडोल कर दें, -
एक हिमगिरि एक सिर का मोल कर दें।
मसल कर अपने इरादों - सी उठाकर,
दो हथेली हैं कि पृथ्वी गोल कर दें।
युवा - वर्ग की क्षमताएँ अनन्त हैं। अतः यह तो इनकी क्षमताओं का दोहन करने वालों के ईमान पर निर्भर है कि वे इस छुरी से निरपराध का गला काटते हैं या इसे एक शल्य चिकित्सक के हाथ में थमाकर किसी मरणोन्मुख के प्राण बचाते हैं।
युवा - वर्ग और भारतीय लोकतन्त्र - समाज का हर वर्ग, लोकतन्त्र का हर स्वयंभू ठेकेदार युवकों को अपने पक्ष में खरीद लेना चाहता है। भारतीय लोकतन्त्र का भविष्य जिनके कन्धों पर टिका है, उन युवाओं को बेरोजगार भटकते देखकर, उनका चारित्रिक पतन होते देखकर, क्या इस लोकतन्त्र को तनिक भी लज्जा का अनुभव होता है ? केवल युवा - वर्ग के बाहुबल का और उसकी प्रतिभा का शोषण ही लोकतन्त्र का पावन कर्तव्य बन गया है। युवाओं की समस्याओं का समाधान करना शासन और समाज का अनिवार्य दायित्व है।
युवा ही लोकतन्त्र के संरक्षक - लोकतन्त्र को प्रतिष्ठा और स्थायित्व दिलाने वाले उसके युवक ही होते हैं। भारतीय लोकतन्त्र की अधिकांश समस्याएँ उसके युवकों की समस्याएँ हैं और युवा - वर्ग पर ही उनके समाधान भी हैं। युवा पीढ़ी में हम जैसे संस्कार बोएँगे वैसे ही काटने पड़ेंगे। उनकी सुशिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, जीवनयापन और अभिलाषाओं के प्रति यह लोकतन्त्र जितना जागरूक और सचेष्ट रहेगा. उतनी ही उनसे अपेक्षाएँ कर सकेगा। यवा - वर्ग में व्याप्त असन्तोष, भटकाव और निराशा भारतीय लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा को उज्ज्वल नहीं बना पाएगी।
उपसंहार - युवा शक्ति का विवेक और ईमानदारी से प्रयोग करना देश के वयोवद्ध नेतत्व का परम कर्तव्य है। युवा वर्ग एक दुधारी तलवार है, जरा चूके तो लेने के देने पड़ सकते हैं। युवाओं को अपनी महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थ की सीढ़ी बनाने वाले, श्मशानी पीढ़ी के लोग सावधान हो जाएँ। यह आग कभी भी उनके पाखण्ड - पूर्ण इरादों को जलाकर खाक कर सकती है।
38. जनतंत्र और मीडिया
अथवा
जनतंत्र की प्रहरी पत्रकारिता
प्रस्तावना - जनतंत्र में मीडिया का महत्वपूर्ण स्थान है। मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी तथा चौथा स्तम्भ माना जाता है। विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका द्वारा हुई चूक को सामने लाकर वह लोकतंत्र की सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान देता है। मीडिया के कारण ही अनेक घोटाले उजागर होते हैं तथा जनता के अधिकारों की रक्षा होती है।
मीडिया का स्वरूप - मीडिया पत्रकारिता को ही कहते हैं। यद्यपि पत्रकारिता शब्द समाचार - पत्रों से सम्बन्धित है किन्तु आज उसका व्यापक रूप मीडिया ही है। मीडिया के दो रूप हैं-एक मुद्रित या प्रिन्ट मीडिया तथा दूसरा, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया। मुद्रित मीडिया के अन्तर्गत दैनिक समाचार - पत्र, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक पत्र - पत्रिकायें आदि आते हैं। इनमें समाचारों के अतिरिक्त विभिन्न घटनाओं और सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक इत्यादि विषयों के बारे में प्रकाशित किया जाता है। टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट आदि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के अन्तर्गत आते हैं। आज इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रभाव तथा प्रसार बढ़ने के कारण मुद्रित पत्रकारिता पिछड़ गई है किन्तु उसकी आवश्यकता कम नहीं हुई है।
समाचार - पत्रों का विकास - समाचार - पत्र शब्द आज पूरी तरह लाक्षणिक हो गया है। अब समाचार - पत्र केवल समाचारों से पूर्ण पत्र नहीं रह गया है, बल्कि यह साहित्य, राजनीति, धर्म, विज्ञान आदि विविध विधाओं को भी अपनी कलेवर - सीमा में सँभाले चल रहा है। किन्तु वर्तमान स्वरूप में आते - आते समाचार - पत्र ने एक लम्बी यात्रा तय की है। भारत में अंग्रेजी शासन के साथ समाचार - पत्र का आगमन हुआ। इसके विकास और प्रसार में ईसाई मिशनरियों, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और राजा राममोहन राय का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा।
प्रचलित पत्र - पत्रिकाएँ तथा चैनल - देश के स्वतन्त्र होने के पश्चात् समाचार - पत्रों का तीव्रता से विकास हुआ और आज अनेक अखिल भारतीय एवं क्षेत्रीय समाचार - पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। इनमें हिन्दी भाषा में प्रकाशित - नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, पंजाब केसरी, नवजीवन, जनयुग, राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला, भारत, आज, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर आदि हैं तथा अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित - टाइम्स ऑफ इण्डिया, इण्डियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाइम्स, नार्दर्न इण्डिया, स्टेट्समैन आदि हैं। इनके अतिरिक्त अनेक साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक पत्रिकाएँ भी प्रकाशित हो रही हैं। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का भी खूब प्रसार हुआ है। दूरदर्शन के विकास में 'आज तक', 'जी न्यूज', 'सहारा', 'स्टार', . 'सेट मैक्स' इत्यादि अनेक देशी - विदेशी चैनलों ने प्रमुख भूमिका अदा की है।
समाचार - पत्र मीडिया का एक प्रमुख अंग है। दूरदर्शन और रेडियो के रहते हुए भी समाचार - पत्रों की व्यापकता और विश्वसनीयता बराबर बनी हुई है।
मीडिया का महत्व जीवन के हर क्षेत्र के लिए आज मीडिया महत्त्वपूर्ण बन गया है। (i) जनमत को प्रभावित करने और राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने में उसकी भूमिका सराहनीय है। (ii) व्यापारिक गतिविधियों को प्रकट करना, ग्राहक को सचेत करना, धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर चर्चा करना, सामाजिक परिवर्तनों पर सही दृष्टिकोण रखना, खेल और मनोरंजन को समुचित स्थान देना तथा नवीनतम वैज्ञानिक प्रगति को प्रकाश में लाना आदि ऐसे कार्य हैं, जिन्होंने मीडिया को जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग बना दिया है।
मीडिया का दायित्व - मीडिया के जीवन - व्यापी महत्त्व को देखते हुए उससे कुछ दायित्वों के निर्वहन की आशा भी की जाती है। उससे यह भी अपेक्षा है कि वह विश्व - शान्ति और विश्वबन्धुत्व की भावना को प्रोत्साहित करे।
उपसंहार - पत्रकारिता को एक गौरवशाली आजीविका माना गया है। अतः क्षुद्र लाभों से और भयादोहन से मुक्त रहकर उसे सामाजिक नेतृत्व की महती भूमिका निभानी चाहिए। मीडिया की स्वतन्त्रता प्रजातन्त्र की सुरक्षा का आधार है। अतः जनता और शासन दोनों को इसका सम्मान करना चाहिए।
39. जनतंत्र में जनता
प्रस्तावना - राजतंत्र शासन का सबसे पुराना रूप है। राजा ही किसी समाज पर शासन करता था। राजा और उसका पुत्र ही शासक होता था। भारत में राजा को ईश्वर का अवतार माना जाता था। उसके निर्णय पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता था। राजा को भी अपनी प्रजा का पालन - पोषण एक पिता की तरह करना होता था। राजतंत्र के अतिरिक्त अधिनायक तंत्र अथवा डिक्टेटरशिप भी शासन का एक तरीका रहा है।
शासन का लोकप्रिय स्वरूप - भारत में राजतंत्र सफल शासन पद्धति रही हैं। इग्लैंड ने तो प्रजातंत्र को स्वीकार करके भी राजा को पददलित नहीं किया है। आधुनिक युग में जनतंत्र शासन का लोकप्रिय स्वरूप है। इस शासन प्रणाली में राजशक्ति जनता के हाथ में रहती है। जनता स्वयं अपना शासक चुनती है। इस प्रकार जनता स्वयं ही अपनी शासक होती है, जनतंत्र एक ऐसी शासन पद्धति है जिसमें जनता ही शासित होती है और वही शासन भी करती है। जनतंत्र शासन विश्व में अत्यन्त लोकप्रिय है। भारत में तो प्राचीन काल में जनतंत्रात्मक शासनं हुआ करता था। इंग्लैंड का जनतंत्र राजतंत्र और जनतंत्र का मिश्रित रूप है। नेपाल में भी राजतंत्र समाप्त हो चुका है और जनतंत्र की स्थापना हो चुकी है।
जनता का दायित्व - जनतंत्र में जनता का दायित्व ही प्रमुख बात है। जनता कैसा शासक तथा किस तरह का शासन चाहती है। यह निर्णय भी अंततः जनता ही करती है। वह जिन लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है, वे जनप्रतिनिधि ही मंत्रिमण्डल बनाते हैं और प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं। प्रधानमंत्री ही शासन - सत्ता का संचालक होता है। जनतंत्र में कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा व्यवस्थापिका - ये तीन प्रमुख शासन के आधार होते हैं। मीडिया को जनतंत्र का चौथा आधार माना जाता है।
जनतंत्र में जनता की सत्ता की वास्तविकता - रामधारी सिंह दिनकर ने जनतंत्र में जनता को सर्वोच्च अधिकारी माना है। राजसिंहासन की सच्ची अधिकारिणी जनता ही होती है। उन्होंने ललकार कर सभी नेताओं से कहा है। सिंहासन खाली . करो कि जनता आती है। जनता जनतंत्र में सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होती हैं किन्तु क्या वास्तव में ऐसा ही होता है।
जनतंत्र वह शासन तंत्र है जिसमें शासन जनता के नाम पर कुछ चतुर राजनीतिज्ञ करते हैं। सत्ता की चाबी उनके ही हाथों में होती है। बातें तो जनता की सर्वोच्चता की बहुत होती हैं किन्तु ये केवल कहने भर की बात है। जब जनता के हित की बात कहकर कोई कानून या नियम उस पर आरोपित किया जाता है तो उससे पूर्व जनता की राय नहीं ली जाती। जनता यदि उसका विरोध करती है, तो शासन की शक्ति उसका दमन करने लग जाती है।
इससे भयंकर हिंसा होती है और जनता का विरोध यदि सफल भी होता है तो उससे पहले बहुत कुछ अघटित घट चुका होता है। इस प्रकार जनतंत्र में जनता के नाम पर शासन तो होता है किन्तु उसमें जनता की राय का महत्व नहीं होता। वर्तमान मोदी सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून के राज्यसभा में पास न होने पर उसे दूसरी बार अध्यादेश के रूप में प्रस्तुत करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
उपसंहार - जनतंत्र एक अच्छी शासन - प्रणाली है। किन्तु राजनैतिक दलों तथा राजनेताओं को भी ईमानदार तथा विचारशील होने की जरूरत है। उनको जनता की सर्वोच्चता को स्वीकार करना चाहिए। वर्तमान नेता तो कहते हैं कि चुनाव के बाद वही शासक हैं और वे जैसा चाहें वैसा कर सकते हैं।
40. महिला जागरण
अथवा
कामकाजी महिला और राष्ट्र - निर्माण
प्रस्तावना - नारी और पुरुष गृहस्थ जीवन के दो पहिये हैं। अब तक सारे संसार में नारी के प्रति दृष्टिकोण में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। उसे शारीरिक रूप से अक्षम माना जाता है। अत: किसी प्रकार के श्रमसाध्य कार्य में उसे लगाने में संकोच किया जाता रहा है। लेकिन आधुनिक शिक्षा व्यवहार ने इस दिशा में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया है। आज महिलाएँ भी पुरुष के समान ही हर क्षेत्र में आगे बढ़कर काम कर रही हैं, यह एक सुखद स्थिति है।
वर्तमान में महिलाओं की स्थिति - आज महिलाओं द्वारा उच्च से उच्च शिक्षा ग्रहण कर पुरुष के बराबर अपनी योग्यता जा रहा है। चिकित्सा, इन्जीनियरिंग, कम्प्युटर, प्रौद्योगिकी तथा उच्च प्रशासनिक एवं पलिस सेवाओं में उनका पुरुषों के समान ही सम्मानजनके स्थान है। पुलिस सेवा में किरण बेदी जैसी अनेक महिलाएं अपनी कार्यकुशलता का लोहा मनवा चुकी हैं। आज केन्द्रीय राजधानी दिल्ली और राज्यों की राजधानियों के उच्चपदस्थ स्थानों पर महिलाओं ने अपनी योग्यता स्थापित की है। यूरोप और अमेरिका ही नहीं आज इजरायल, मिश्र और छोटे - छोटे अरब देशों एवं अफ्रीका जैसे पिछड़े महाद्वीपों के छोटे - छोटे देशों की अनेक महिलाओं ने वायुयान संचालन एवं सेना, पुलिस और परिवहन के क्षेत्रों में भी कार्य करके पुरुषों की बराबरी का साहस दिखाया है।
राष्ट्र - विकास में योगदान - संसार के विकसित देशों और विकासशील देशों में नारी का अपने राष्ट्र - निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। चीन और भारत जैसे विशाल आबादी वाले देशों को छोड़कर विश्व के अन्य देशों में औद्योगिक रूप से बहुत तेजी से विकास हुआ है। अतः कुशल और उच्च प्रशिक्षण युक्त पुरुषों के समान ही वहाँ की नारी शक्ति भी उनके विकास में सहयोगिनी बनी हुई है। भारत और चीन में भी कुशल और उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। अतः उनको राष्ट्र - निर्माण और विकास में नियोजित करना आवश्यक हो गया है। अतः दोनों ही देशों में कामकाजी महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। राष्ट्र के निर्माण और विकास में उनका योगदान कम महत्व का नहीं है।
कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ - भारत में शिक्षण - प्रशिक्षण और कामकाज करके योग्यता ग्रहण करने में तो महिलाओं का तेजी से योगदान बढ़ा है। परन्त पुरुष समाज का नारी के प्रति दृष्टिकोण अभी तक नहीं बदला है आ पुरुष नारी को हेय दृष्टि से देखता है। वह उसे बच्चे बनाने वाली मशीन की तरह ही बनाये रखना चाहता है। अत: उनके विकास और स्वतन्त्रता की राह में हर तरह के काँटे बिछाने के प्रयास किये जा रहे हैं।
परिणामस्वरूप महिलाएं अपनी योग्यता के अनुसार खुलकर कार्य नहीं कर पाती हैं। भारतीय समाज तो अभी तक उस प्राचीन सामन्ती व्यवस्था की मानसिकता से अधिक आगे नहीं बढ़ पाया है, अत: यहाँ कामकाजी महिलाएँ बड़ी कठिनाई से अपना जीवनयापन कर पा रही हैं। हमारे देश में आज भी अकेली दरिन्दों की सामूहिक हवश का उन्हें शिकार होना पड़ता है। अतः भारत में अभी भी महिलाएं सुरक्षित नहीं कही जा सकती।
समस्याओं का समाधान - सदियों से संघर्ष करते - करते महिलाओं ने बड़ी कठिनाई से इस स्थिति को प्राप्त किया है जिसमें वह पुरुष की क्रीतिदासी न होकर उसकी सहयोगिनी बन पाई है। वह पुरुष के समान ही राष्ट्र - निर्माण एवं विकास में भाग ले रही है। अतः असभ्य आचरण करने वाले थोड़े से दरिन्दों के भय से वह अपना लक्ष्य - त्याग नहीं कर सकती। सरकारी स्तर पर उनके लिए 'कामकाजी महिला हॉस्टल' बनाये गये हैं, जहाँ वे सुरक्षित और सुखपूर्वक रहकर अपने राष्ट्र - निर्माण के महान योगदान में भागीदारी निभा रही हैं।
बड़े शहरों में इस प्रकार के सामूहिक फ्लैट्स बनाए गये हैं जिनमें अकेली महिलाएँ सुख - सुविधा सम्पन्न सुरक्षित जीवन - यापन कर रही हैं। कामकाज के स्थान पर भी उन्हें हर प्रकार की सुरक्षा उपलब्ध है। शिक्षा के प्रसार ने पुरुषों के दृष्टिकोण में भी अपेक्षित परिवर्तन किया है। अतः अब कामकाजी महिलाएं निश्चिन्त होकर राष्ट्र विकास में सहयोगिनी बनी हुई हैं।
उपसंहार - इस प्रकार महिलाएँ जो राष्ट्र - निर्माण में पुरुष के बराबर की ही सहभागिनी रही हैं। आज निर्भय होकर अपने दायित्व का निर्वाह कर रही हैं। पुरुष समाज के समझदार लोगों को इस कार्य में उनका पूर्ण सहयोग देकर तथा प्रोत्साहित करके राष्ट्र - निर्माण के यज्ञ में देश की आधी आबादी की प्रतिभा का विकास करना चाहिए तथा आवश्यक रूप से कार्य - संयोजन करना चाहिए।
41. भारतीय कृषक
अथवा
किसान : भारत की पहचान
प्रस्तावना - कृषि कर्म करने वाला ही कृषक कहलाता है। खेती संसार का सबसे पुराना व्यवसाय है। यह मनुष्य के सभ्यता की ओर उन्मुख होने का प्रथम चरण है। भारत गाँवों में बसता है, कहने का यही अर्थ है कि भारत की बहुसंख्यक जनता किसान है और किसान गाँवों में ही रहते हैं। भारतमाता ग्रामवासिनी' कहकर कवि पंत ने इसी तथ्य ओर संकेत किया है। किसान भारत की पहचान है।
सरल तथा प्राकृतिक जीवन - भारतीय किसान का जीवन दिखावट से दूर है। वह सरल और प्राकृतिक जीवन जीता है। वह मोटा खाता और मोटा पहनता है। उसकी आवश्यकताएँ सीमित हैं। वह वर्षा, धूप और सर्दी सहन करता है। प्रातः जल्दी उठना, अपने खेतों तथा पशुओं की देखभाल करना और कठोर श्रमपूर्ण जीवन बिताना ही उसकी दिनचर्या है।
संसार का अन्नदाता - किसान समस्त संसार का अन्नदाता है। वह अपने खेतों में जो अन्न उगाता है, उससे ही संसार का पेट भरता है। खाद्यान्न ही नहीं वह अन्य वस्तुएँ भी अपने खेतों में पैदा करता है। वह कपास उगाता है, जो लोगों के तन ढकने के लिए वस्त्र बनाने के काम आती है। वह गन्ना पैदा करता है जो गुड़ और शक्कर के रूप में लोगों को मधुरता देता है। वह तिल, सरसों, अलसी आदि तिलहन पैदा करता है जो मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पर्ति का साधन है। किसान साग - सब्जी, फल इत्यादि का उत्पादन करके लोगों की आवश्यकताएँ पूरी करता हैं। उसी के प्रयत्न से पशुओं को चारा भी मिलता है।
भारतीय किसान की दशा - समाज के लिए इतना सब करने वाले किसान की दशा अच्छी नहीं है। उसकी आर्थिक स्थिति दयनीय है। कषि में जो पैदावार होती है, उसका परा मल्य उसको नहीं मिल पाता। कषि वह अपने पारिवारिक दायित्वों की पर्ति कर सके। उसको तथा उसके परिवार को न भरपेट भोजन मिल पाता है न अच्छे वस्त्र। शादी - विवाह इत्यादि पारिवारिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए किसान को ऋण लेना पड़ता है।
समाज तथा शासन की उपेक्षा - किसान समाज तथा शासन की उपेक्षा का शिकार है। खेतों के लिए बीज, खाद, कृषि उपकरण तथा पानी चाहिए जो अत्यन्त महँगे हैं। इसके लिए वह महाजनों तथा बैंकों से ऋण लेता है। ऋण की शर्ते ऐसी होती हैं कि वह संकट में पड़ जाता है। जब ऋण नहीं चका पाता तो महाजन तथा बैंकें उसकी सम्पत्ति नीलाम कर देते हैं। किसानों द्वारा निरन्तर आत्महत्याएँ किया जाना इसी उपेक्षा का करुण परिणाम हैं।
भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र को विदेशी पूँजी निवेश के लिए खोल दिया है। सरकार का कहना है कि वह किसान को उसकी उपज का अच्छा मूल्य दिलाना चाहती है। बड़े - बड़े देशी - विदेशी पूँजीपति खेती को एक उद्योग का रूप देकर मलता है। किसान का शोषण करेंगे। वह अपने आर्थिक लाभ के लिए फसल उगायेंगे, इससे जनता के समक्ष खाद्यान्न का संकट भी पैदा होगा। उनको न किसान के हित की चिन्ता है और न जनता के हित की।
पिछड़ेपन के कारण - भारत का किसान पिछड़ा हुआ है। वह अशिक्षित है तथा असंगठित भी है। उसको उत्तम और नई कृषि प्रणाली का पर्याप्त ज्ञान नहीं है। संगठित न होने के कारण उसे सरकार तथा पूँजीपति वर्ग का शोषण सहन करना पड़ता है। वह सरकार को कृषक हितैषी नीति अपनाने को बाध्य नहीं कर पाता। भारतीय किसान अन्धविश्वासी भी है अत: अपनी दुर्दशा को वह अपना दुर्भाग्य मानकर चुपचाप सहन कर लेता है। अपने शोषण के प्रतिकार की भावना ही उसके मन में नहीं उठती।
किसान की दशा में सुधार - भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है परन्तु स्वतंत्र भारत की सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं। दिया वह उद्योगों के विकास द्वारा भारत को सम्पन्न बनाने की नीति पर चलती रही है, यह नीति उचित नहीं है। सरकार को अपनी नीति कृषि के विकास को आधार बनाकर बनानी चाहिए। किसानों को खेती की प्रगति तथा उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। उनको इसके लिए बजट में पर्याप्त धन उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
किसानों के बच्चों की शिक्षा की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। उनको कृषि की नवीनतम तकनीक का प्रशिक्षण तथा ज्ञान दिया जाना चाहिए। कृषि को समन्नत बनाकर तथा कृषकों का स्तर उठाकर ही भारत को समद्ध तथा शक्तिशाली बनाया जा सकता है। लगता है उत्तरदायी सरकारों ने इस कठोर सत्य को स्वीकार किया है। किसानों को उनकी लागत का दुगुना बाजार - मूल्य दिलाने, प्राकृतिक आपदाओं के समय के लिए सही बीमा नीति बनाने, ऋण माफी आदि की घोषणाएँ भी हुई हैं। आशा है भारतीय किसान के दिन बहुरेंगे।
'उपसंहार - आज भारत स्वाधीन है तथा जनतंत्र सत्ता से शासित है। भारत की अधिकांश जनता गाँवों में रहती है तथा कृषि और उससे सम्बन्धित व्यवसायों से अपना जीवनयापन करती है। उसके आर्थिक उत्थान पर ध्यान देना आवश्यक है। अभी तक वह उपेक्षित और असंतुष्ट है। असंतोष का यह ज्वालामुखी फूटे और भीषण विनाश का दृश्य उपस्थित हो, उससे पूर्व ही हमें सजग हो जाना चाहिए।
42. पर्यावरण संरक्षण : प्रदूषण नियंत्रण
अथवा
पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता
प्रस्तावना - मनुष्य इस पृथ्वी नामक ग्रह पर अपने आविर्भाव से लेकर आज तक प्रकृति पर आश्रित रहा है। प्रकृति पर आश्रित रहना उसकी विवशता है। प्रकृति ने पृथ्वी के वातावरण को इस प्रकार बनाया है कि वह जीव - जन्तुओं के जीवन के लिए उपयुक्त सिद्ध हुआ है। पृथ्वी का वातावरण ही पर्यावरण कहलाता है।
पर्यावरण संरक्षण मनुष्य ने सभ्य बनने और दिखने के प्रयास में पर्यावरण को दूषित कर दिया है। पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखना मानव तथा जीव - जन्तुओं के हित में है। आज विकास के नाम पर होने वाले कार्य पर्यावरण के लिए संकट बन गए हैं। पर्यावरण के संरक्षण की आज महती आवश्यकता है।
पर्यावरण प्रदूषण आज का मनुष्य प्रकृति के साधनों का अविवेकपूर्ण और निर्मम दोहन करने में लगा हुआ है। सुख - सुविधओं की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के उद्योग खड़े किए जा रहे हैं, जिनका कूड़ा - कचरा और विषैला अपशिष्ट भूमि, जल और वायु को प्रदूषित कर रहा है। हमारी वैज्ञानिक प्रगति ही पर्यावरण को प्रदूषित करने में सहायक हो रही है। - पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार आज हमारा पर्यावरण तेजी से प्रदूषित हो रहा है। यह प्रदूषण मुख्य रूप से तीन प्रकार का है -
(i) जल प्रदूषण - जल मानव - जीवन के लिए परम आवश्यक पदार्थ है। जल के परम्परागत स्रोत हैं - कुएँ, तालाब, नदी तथा वर्षा का जल। प्रदूषण ने इन सभी स्रोतों को दूषित कर दिया है। महानगरों के समीप से बहने वाली नदियों की दशा दयनीय है। गंगा, यमुना, गोमती आदि सभी नदियों की पवित्रता प्रदूषण की भेंट चढ़ गई है। उनको स्वच्छ करने में करोड़ों रुपये खर्च करके भी सफलता नहीं मिली है, अब तो भूमिगत जल भी प्रदूषित हो चुका है।
(ii) वायु प्रदूषण - वायु भी जल की तरह अति आवश्यक पदार्थ है। आज शुद्ध वायु का मिलना भी कठिन हो गया है। वाहनों, कारखानों और सड़ते हुए औद्योगिक कचरे ने वायु में भी जहर भर दिया है। घातक गैसों के रिसाव भी यदा - कदा प्रलय मचाते रहते हैं। गैसीय, प्रदूषण ने सूर्य की घातक किरणों से धरती की रक्षा करने वाली 'ओजोन परत' को भी छेद डाला है।
(iii) ध्वनि प्रदूषण - कर्णकटु और कर्कश ध्वनियाँ मनुष्य के मानसिक सन्तुलन को बिगाड़ती हैं और उसकी कार्य - क्षमता को भी प्रभावित करती हैं। आकाश में वायुयानों की कानफोड़ ध्वनियाँ, धरती पर वाहनों, यन्त्रों और संगीत का मुफ्त दान करने वाले ध्वनि - विस्तारकों का शोर - सब मिलकर मनुष्य को बहरा बना देने पर तुले हुए हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार का प्रदूषण भी पनप रहा है और मानव जीवन को संकट में डाल रहा है।
(iv) मृदा प्रदूषण - कृषि में रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों के प्रयोग ने मिट्टी को भी प्रदूषित कर दिया है।
(v) विकिरणजनित प्रदूषण - परमाणु विस्फोटों तथा परमाणु संयन्त्रों से होते रहने वाले रिसाव आदि से विकिरणजनित प्रदूषण भी मनुष्य को भोगना पड़ रहा है।
(vi) खाद्य प्रदूषण - मिट्टी, जल और वायु के बीच पनपने वाली वनस्पति तथा उसका सेवन करने वाले पशु - पक्षी भी आज दूषित हो रहे हैं। चाहे शाकाहारी हो या मांसाहारी, कोई भी भोजन प्रदूषण से नहीं बच सका है।
प्रदूषण नियंत्रण (रोकने) के उपाय - प्रदूषण ऐसा रोग नहीं है जिसका कोई उपचार ही न हो। प्रदूषण फैलाने वाले सभी उद्योगों को बस्तियों से सुरक्षित दूरी पर ही स्थापित किया जाना चाहिए। किसी भी प्रकार की गन्दगी और प्रदूषित पदार्थ को नदियों और जलाशयों में छोड़ने पर कठोर दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिए। वायु को प्रदूषित करने वाले वाहनों पर भी नियन्त्रण आवश्यक है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक जीवन जीने का अभ्यास करना भी आवश्यक है। प्रकृति के प्रतिकूल चलकर हम पर्यावरण प्रदूषण पर विजय नहीं पा सकते। जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि को रोकने की भी जरूरत है। छायादार तथा सघन वृक्षों का आरोपण भी आवश्यक है। कृषि में रासायनिक खाद तथा कीटनाशक रसायनों के छिड़काव से का भी जरूरी है।
उपसंहार - पर्यावरण प्रदूषण एक अदृश्य दानव की भाँति मनुष्य - समाज या समस्त प्राणी - जगत् को निगल रहा है। यह एक विश्वव्यापी संकट है। यदि इस पर समय रहते नियन्त्रण नहीं किया गया तो आदमी शुद्ध जल, वायु, भोजन और शान्त वातावरण के लिए तरस जाएगा। प्रशासन और जनता, दोनों के गम्भीर प्रयासों से ही प्रदूषण से मुक्ति मिल सकती है।
43. विज्ञान : वरदान या अभिशाप
अथवा
विज्ञान के गुण - दोष
प्रस्तावना - मनुष्य ही इस सृष्टि का एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसके पास विवेक - बुद्धि है। विवेक द्वारा वह उचित - अनुचित का निर्धारण कर उचित को ग्रहण करता है और अनुचित से बचता है। बुद्धि उसको नवीन बातें सोचने की क्षमता देती है। इसी कारण सभ्यता, संस्कृति, विज्ञान आदि का विकास हुआ है। विज्ञान प्रस्तुत शताब्दियों की ऐसी मानव - उपलब्धि है, जिसने संसार का स्वरूप ही बदल दिया है।
कल्पवृक्ष विज्ञान - आज विज्ञान मानव - जीवन के लिए हर मनोकामना की पूर्ति करने वाला कल्पवृक्ष बना हुआ है। विज्ञान ने मानव को प्रकृति पर निर्भरता से मुक्त करके उसे अकल्पनीय सुख - सुविधाएँ और सुरक्षा उपलब्ध कराई हैं। वही रासायनिक खादों, उन्नत बीजों, कृषि - यंत्रों, बाँधों, नहरों और कृत्रिम वर्षा से मानव के कृषि - भण्डार को भर रहा है। वही नाना प्रकार की गृह - निर्माण सामग्री और शैल्पिक ज्ञान से मानव के विलास - भवनों की रचना कर रहा है। वही मानव - तन को मन - मोहक, कृत्रिम और परम्परागत वस्त्रों से अलंकृत कर रहा है।
क्षय, कैंसर, कुष्ठ तथा एड्स जैसे रोगों पर विजय पाने में यह संघर्षरत है। जीन से लेकर क्लोन बनाने तक की मंजिल तय करके वह जीवन के रहस्य को ढूँढ़ रहा है। प्लास्टिक सर्जरी से कुरूपों को सुरूप बना रहा है। मस्तिष्क, हृदय और गुर्दो की पुनः स्थापना कर रहा है।।
भीमकाय यन्त्रों को उसी की विद्युत - शक्ति घुमा रही है। वही जल, थल, नभ में नाना प्रकार के वाहनों में दौड़ लगवा रहा है। वही अन्तरिक्ष और ब्रह्माण्ड के कुँआरे पथों को नाप रहा है। मोबाइल फोन, टेलीफोन, टेलीविजन और इण्टरनेट जैसे उपकरणों से उसने सारे विश्व को सिकोड़कर छोटा कर डाला है।
रेडियो - दूरबीनों से यह ब्रह्माण्ड की छानबीन कर रहा है, वसुन्धरा के गर्भ में झाँक रहा है, सागरों के अतल तल को माप रहा है। मनोरंजन के अनेक साधनों के साथ व्यापार के क्षेत्र में भी उसने ई - मेल, ई - बैंकिंग जैसे साधन उपलब्ध कराए हैं।
विज्ञान का अभिशाप - विज्ञान की उपर्युक्त वरदात्री छवि के पीछे उसका अभिशापी चेहरा भी छिपा हुआ हैं। विज्ञान द्वारा अनेक महाविनाशकारी अस्त्र शस्त्रों का आविष्कार हुआ है। परमाणु हथियार, विध्वंसक गैसें; जीवाणु - विषाणु बम आदि मनुष्य का थोक में विनाश करने में सक्षम हैं। हिरोशिमा और नागासाकी जैसे नगरों को विश्व के मानचित्र से मिटाने का श्रेय भी विज्ञान को ही जाता है। विज्ञान की कृपा से ही आज का यह जगमगाता प्रगतिशील विश्व बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है।
मानव मूल्यों का ह्रास - विज्ञान के कारण श्रेष्ठ मानव मूल्य ध्वस्त हो गये हैं। प्रेम, त्याग, परोपकार, अहिंसा आदि गुणों को कोई नहीं पूछ रहा।
कवि दिनकर ने विज्ञान की विभति पर इठलाने वाले आज के मानव को सावधान किया है -
सावधान मनुष्य यदि विज्ञान है तलवार,
तो इसे दे फेंक तजकर मोह स्मृति के पार।
हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी नादान,
फूल काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान।
उपसंहार - 'ज्ञान का ही रूप है विज्ञान, नहीं वह अभिशाप या वरदान।' एक ही वस्तु एक पक्ष से देखने पर वरदान प्रतीत होती है और वही दूसरे पक्ष से देखने पर अभिशाप प्रतीत होती है। औषधि के रूप में जो विष जीवन - रक्षक है, वही विष के रूप में प्राणघातक है। एक ही लोहे से बधिक की तलवार और शल्य - चिकित्सक की छुरी बनती है, किन्तु इसमें विष या लोहे को दोषी नहीं बताया जा सकता। ज्ञान का उपयोग ही उसके परिणाम को निश्चित करता है। विज्ञान भी विशिष्ट और क्रमबद्ध ज्ञान ही है। हम चाहें तो उसे सत्य, शिव और सुन्दर की अर्चना बना दें और चाहें तो उसे महाविनाश, अमंगल और कुरूपता का उपकरण बना दें।
44. सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार क्रान्ति
अथवा
दूरसंचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी का विस्तार
प्रस्तावना - प्राचीनकाल से ही मनुष्य दूरस्थ व्यक्ति से सम्पर्क के अनेक प्रकार के उपायों को काम में लाता रहा है। आदिम जन - जातियों में ढोल या नगाड़ों की सांकेतिक ध्वनियों अथवा सींग के बाजों द्वारा सन्देश दिए जाते थे। शान्ति के सन्देशवाहक कबूतरों ने भी संवाद - वाहक की भूमिका निभाई। धीरे - धीरे एक व्यवस्थित डाक - प्रणाली का विकास हुआ। वैज्ञानिक प्रगति के साथ - साथ अनेक संचार उपकरणों का आविर्भाव हुआ और अब हम दूर - संचार के नाम से एक क्रान्तिकारी संचार - तन्त्र के विकास और स्थापना में जुटे हुए हैं। तार (टेलीग्राम) से इंटरनेट तक की यह विकास - यात्रा बड़ी रोचक और रोमांचक रही है।
दूरसंचार की आवश्यकता - आज मानवीय गतिविधियाँ इतनी बहुसंख्यक और संकुल हो चुकी हैं कि सम्पर्क के सामान्य साधन अक्षम और अपर्याप्त सिद्ध हो गए हैं। सामान्य व्यक्ति से लेकर समाज के विभिन्न वर्गों के लोग दूरसंचार पर आश्रित हो गए हैं। दूरसंचार ने विश्व को चमत्कारिक रूप से छोटा कर दिया है। संसार के किसी भी घटित महत्त्वपूर्ण घटना को सर्वविदित कराने में, दूरसंचार की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो चुकी है।
दरसंचार के प्रमख साधन - विज्ञान ने आज हमें दरसंचार के विविध साधन उपलब्ध करा दिए हैं। टेलीफोन, मोबाइल फोन, रेडियो, टेलीविजन, फैक्स, संचार उपग्रह, इंटरनेट आदि उपकरणों ने सूचनाओं के आदान - प्रदान के क्षेत्र को अनंत विस्तार देने के साथ - साथ बड़ा सुगम और सुलभ बना दिया है।
भारत में दूरसंचार का महत्त्व - सारा विश्व आज दूरसंचार - क्रान्ति से गुजर रहा है। भारत भी उससे अछूता नहीं है। आज भारत में दूरभाष को व्यापक बनाने में बी, एस. एन. एल. ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा उसे गाँव - गाँव तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त की है.। स्वचालित एक्सचेंज प्रणाली के आगमन से दूरसंचार में क्रान्ति आई है। इसके अतिरिक्त कदम - कदम पर पी. सी. ओ. बथ तथा प्रत्येक जेब्र में मोबाइल उपलब्ध है।
इस दिशा में मोबाइल फोन का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आज बी. एस. एन. एल., रिलायन्स, आइडिया, वोडाफोन, टाटा इन्डीकॉम, एअरटेल, यूनीनॉर, एअरसेल, एम टी एस आदि अनेक कम्पनियाँ मोबाइल फोन सुविधा उपलब्ध करा रही हैं। कुछ दिन पहले ही 3G सेवा का अधिकार दूरसंचार कम्पनियों को मिल गया है। मोबाइल पर वीडियो कान्फ्रेन्सिंग तथा लाइव टी. वी. देखना भी सम्भव हो गया है।
दूरसंचार - क्रान्ति का प्रभाव और भविष्य - दूरसंचार के क्रान्तिकारी प्रसार ने भारत के जन - जीवन को गहराई से प्रभावित किया है। साधारण गृहस्थ से लेकर व्यवसायी, चिकित्सक, वैज्ञानिक और प्रशासन - तन्त्र सभी इससे लाभान्वित हो रहे हैं। इस क्रान्ति का प्रभाव बड़ा दूरगामी सिद्ध होगा। इससे शासन - प्रशासन में शीघ्रता, चुस्ती और पारदर्शिता आएगी। राष्ट्रीय एकता पुष्ट होगी। भारत का विश्व की आर्थिक - शक्ति बनने का सपना भी दूरसंचार की सर्वसुलभता पर निर्भर है।
उपसंहार - दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी निरंतर सुधार और विस्तार की ओर अग्रसर है। सूचना के साधनों ने डाक व्यवस्था का महत्त्व समाप्त - सा कर दिया है। मोबाइल फोन ने पत्र - लेखन को इतिहास की वस्तु - सा बना दिया है। देखना है कि दूरसंचार के क्षेत्र में और कौन से चमत्कार सामने आते हैं ?
45. मोबाइल फोन की लोकप्रियता
अथवा
मोबाइल फोन : दैनिक जीवन में
अथवा
मोबाइल फोन : कितना लाभ, कितनी हानि ?
प्रस्तावना - महाभारत का यक्ष - युधिष्ठिर संवाद एक प्रसिद्ध और रोचक प्रसंग है। यदि आज के युग में यक्ष और युधिष्ठिर होते, तो यक्ष युधिष्ठिर से पूछते-'जीवनभर मनुष्य का साथ कौन निभाता है ?' तो युधिष्ठिर यही उत्तर देते मोबाइल, मोबाइल ही हमेशा मनुष्य के पास रहकर उसका साथ निभाता है।'
सबका साथी - मोबाइल फोन विज्ञान का ऐसा ही आविष्कार है जो आज हमारे दैनिक जीवन का अटूट अंग बन गया है। शिक्षक हो या छात्र, सब्जी विक्रेता हो या चाय वाला, मजदूर हो या सफाईकर्मी, व्यवसायी हो या किसान, मोबाइल फोन सबके कर - कमलों की शोभा बढ़ाता दिखायी देता है।
मोबाइल फोन से लाभ - मोबाइल फोन जेब में रहे तो व्यक्ति अपनों से जुड़ा रहता है। वह देश में हो या विदेश में, जब चाहे इच्छित व्यक्ति से सम्पर्क कर सकता है। मोबाइल फोन ने हमें अनेक सुविधाएँ प्रदान की हैं। यह संकट का साथी है। किसी विपत्ति में पड़ने पर या दुर्घटना हो जाने पर हम अपने परिवारीजन और पुलिस को सूचित कर सकते हैं। व्यापारी, डॉक्टर, छात्र, सैनिक, गृहिणी, किशोर, युवा और वृद्ध मोबाइल सभी का विश्वसनीय साथी है।
युवा तो मोबाइल के दीवाने हैं। यह उनके मनोरंजन का साधन है, सखा और सखियों से वार्तालाप कराने वाला भरोसेमंद साथी है। अब तो इससे इंटरनेट, ई - मेल, ई - बैंकिंग, टिकिट - बुकिंग. जैसी अनेक सुविधाएँ प्राप्त हैं। इसमें लगा कैमरा भी बहुउपयोगी है। अपराधियों को पकड़ने में भी मोबाइल सर्विलांस सहायक होता है।
मोबाइल फोन के कुपरिणाम - मोबाइल फोन ने जहाँ अनेक सुविधाएँ प्रदान की हैं वहीं इसने अनेक संकटों और असुविधाओं को भी जन्म दिया है। मोबाइल फोन का अनावश्यक प्रयोग समय की बरबादी करता है। गलत नम्बर मिल जाना, असमय बज उठना, सभा - सोसाइटियों के कार्यक्रम में विघ्न डालना, दुष्ट लोगों द्वारा अश्लील संदेश भेजना, अपराधी प्रकृति के लोगों द्वारा दुरुपयोग आदि मोबाइल फोन के कुपरिणाम हैं।
इसके अतिरिक्त अनचाहे विज्ञापन और सूचनाएँ भी मोबाइल धारक को परेशान करती रहती हैं। छात्र इसका प्रयोग नकल करने हेतु करने लगे हैं। इन सबसे बढ़कर जो हानि हो रही है वह है मोबाइल का अस्वास्थ्यकर प्रभाव। मोबाइल के लगातार और लम्बे समय तक प्रयोग से बहरापन हो सकता है। इससे निकलने वाली तरंगें मस्तिष्क को हानि पहुँचाती हैं। इससे हृदय रोग हो सकते हैं।
उपसंहार - इसमें संदेह नहीं कि मोबाइल फोन ने हमारे सामाजिक - जीवन में एक क्रांति - सी ला दी है, लेकिन इस यंत्र का अनियंत्रित प्रयोग गंभीर संकट का कारण भी बन सकता है। वाहन चलाते समय इसका प्रयोग जान भी ले सकता है। विद्यालयों के वातावरण को बिगाड़ने में तथा सामाजिक - जीवन में स्वच्छंदता और अनैतिकता के कुरूप दृश्य दिखाने में मोबाइल फोन सहायक बना है.। हमें इसका समझ - बूझ और संयम से प्रयोग करके लाभ उठाना चाहिए। इसका गुलाम नहीं बन जाना चाहिए।
46. इंटरनेट : ज्ञान की दुनिया
अथवा
इंटरनेट : ज्ञान भण्डार का द्वार
अथवा
इंटरनेट : लाभ और हानि
भूमिका - इंटरनेट का सामान्य अर्थ है - सूचना - भण्डारों को सर्वसुलभ बनाने वाली तकनीक। आज इंटरनेट दूर - संचार का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और आवश्यक अंग बन चुका है। कम्प्यूटर तथा इंटरनेट का चोली - दामन का साथ है। कम्प्यूटर के प्रसार के साथ - साथ इंटरनेट का भी व्यापक विस्तार होता जा रहा है। शिक्षा, व्यापार, अर्थव्यवस्था, सामाजिक सम्बन्ध, शोध, व्यक्तिगत जीवन, मनोरंजन, चिकित्सा तथा सुरक्षा आदि सभी क्षेत्र इंटरनेट से जुड़कर लाभान्वित हो रहे हैं। घर बैठे ज्ञान - विज्ञान सम्बन्धी सूचना - भण्डार से जुड़ जाना इंटरनेट ने ही सम्भव बनाया है।
इंटरनेट की कार्यविधि - सारे संसार में स्थित टेलीफोन प्रणाली अथवा उपग्रह संचार - व्यवस्था की सहायता से एक - दूसरे से जुड़े कम्प्यूटरों का नेटवर्क ही इंटरनेट है। इस नेटवर्क से अपने कम्प्यूटर को सम्बद्ध करके कोई भी व्यक्ति नेटवर्क से जुड़े अन्य कम्प्यूटरों में संग्रहित सामग्री से परिचित हो सकता है। इस उपलब्ध सामग्री को संक्षेप में w.w.w. (वर्ल्ड वाइड वेब) कहा जाता है।
भारत में इंटरनेट का प्रसार - भारत में इंटरनेट का निरंतर प्रसार हो रहा है। बहुउपयोगी होने के कारण जीवन के हर क्षेत्र के लोग इससे जुड़ रहे हैं। शिक्षा - संस्थान, औद्योगिक - प्रतिष्ठान, प्रशासनिक - विभाग, मीडिया, मनोरंजन - संस्थाएँ, संग्रहालय, पुस्तकालय सभी इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। ऐसा अनुमान है कि इंटरनेट से जुड़े व्यक्तियों एवं संस्थाओं की संख्या करोड़ों तक पहुँच चुकी है।
इंटरनेट से लाभ - इंटरनेट की लोकप्रियता दिनों - दिन बढ़ती जा रही है। इंटरनेट कनेक्शन धारक व्यक्ति किसी भी समय, किसी भी विषय पर तत्काल इच्छित जानकारी प्राप्त कर सकता है। छात्र, शिक्षक, वैज्ञानिक, व्यापारी, खिलाड़ी, मनोरंजन - इच्छुक तथा सरकारी विभाग इंटरनेट से अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार सूचनाएँ प्राप्त कर सकते हैं। युवा वर्ग के लिए तो इंटरनेट ने ज्ञान और मनोरंजन के असंख्य द्वार खोल दिए हैं। ई - मेल, टेली - बैंकिंग, हवाई और रेल - यात्रा के लिए अग्रिम टिकट - खरीद, विभिन्न बिलों का भुगतान, ई - मार्केटिंग इत्यादि नई - नई सुविधाएँ इंटरनेट द्वारा उपलब्ध कराई जा रही हैं। इस प्रकार दिन - प्रतिदिन इंटरनेट हमारे दैनिक जीवन का अत्यन्त उपयोगी अंग बनता जा रहा है।
इंटरनेट से हानि - आज नगरों में स्थान - स्थान पर इंटरनेट ढाबे (साइबर कैफे) खुलते जा रहे हैं। इनमें आने वाले युवा ज्ञानवर्द्धन के लिए कम, अश्लील मनोरंजन के लिए अधिक आते हैं। इंटरनेट के माध्यम से कम्प्यूटर में संचित गोपनीय सामग्री सुरक्षित नहीं रह गई है। वाइरस का प्रवेश कराके उसे नष्ट किया जा सकता है। विरोधी देश एक - दूसरे की गोपनीय सूचनाएँ चुरा रहे हैं। इंटरनेट ने साइबर अपराधों को जन्म दिया है।
उपसंहार - विज्ञान के हर आविष्कार के साथ लाभ और हानि जडे हैं। इंटरनेट भी इससे अछता नहीं है। हानियों से बचने के विश्वसनीय उपाय खोजे जा रहे हैं। इंटरनेट का सदुपयोग मानव - समाज के लिए वरदान बन सकता है। इंटरनेट सारे विश्व को एक ग्राम के समान छोटा बना रहा हैं। लोगों को पास - पास ला रहा है और देशों रहा है।
47. कम्प्यूटर की उपयोगिता
अथवा
संचार माध्यमों में कम्प्यूटर की उपयोगिता
अथवा
कम्प्यूटर शिक्षा और आवश्यकता
प्रस्तावना - आज कम्प्यूटर की लोकप्रियता और ग्राह्यता निरंतर बढ़ती जा रही है। इसका मुख्य कारण इस यंत्र की बहुमुखी उपयोगिता है। जीवन के हर क्षेत्र में कम्प्यूटर ने अपना स्थान बना लिया है। अब तो टी.वी., वाशिंग मशीन, ए. सी. आदि की तरह कम्प्यूटर भी 'स्टेटस सिम्बल' अर्थात् जीवन स्तर की श्रेष्ठता का परिचायक बन गया है। घर में कम्प्यूटर का होना प्रगतिशीलता का परिचायक माना जाता है।
कम्प्यूटर का प्रसार - आरम्भिक कम्प्यूटर इतने स्थूलकाय थे और उनका संचालन इतना श्रमसाध्य था कि कम्प्यूटर का कोई उज्ज्वल भविष्य नहीं दिखाई देता था। किन्तु ट्रांजिस्टरों एवं चिप्स के प्रयोग से जैसे - जैसे कम्प्यूटर लघुकाय होते गए, उनका प्रचार - प्रसार बड़ी तीव्रता से बढ़ता गया। आज पी. सी. और लेपटॉप संस्करणों के रूप में कम्प्यूटर घर - घर एवं प्रत्येक व्यापारिक क्षेत्र में जगह बनाता जा रहा है। शिक्षा, व्यापार, अनुसन्धान, युद्ध, उद्योग, कृषि, संचार, अन्तरिक्ष विज्ञान, मौसमी भविष्यवाणी आदि सभी क्षेत्रों में कम्प्यूटर का प्रवेश हो चुका है। अब तो कम्प्यूटर ज्योतिषी बनकर जन्मकुण्डली भी बना रहा है और वैवाहिक - एजेण्ट की भूमिका भी निभा रहा है।
कम्प्यूटर के चमत्कार - शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर ने छात्रों के लिए ज्ञान - विज्ञान और प्रशिक्षण के अपार क्षेत्र खोल दिए हैं। कम्प्यूटर की सहायता से ही नासा के वैज्ञानिक धरती पर बैठे - बैठे चन्द्र - अभियान एवं मंगलग्रह पर जीवन की खोज में लगे हुए हैं। कम्प्यूटर से ही प्रक्षेपास्त्रों का संचालन और नियन्त्रण हो रहा है। प्राकृतिक आपदाओं के पूर्वानुमान में कम्प्यूटर ही प्रमुख भूमिका अदा कर रहा है। विशालकाय उद्योगों के संचालन, बैंकिंग, संचार - सेवा के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग आवश्यक हो गया है।
कम्प्यूटर शिक्षा की अनिवार्यता - आज कम्प्यूटर को शिक्षा का भी अभिन्न अंग स्वीकार कर लिया गया है। कई प्रदेशों में सीनियर सेकण्डरी स्तर पर कम्प्यूटर शिक्षा को अनिवार्य किया जाना इसके महत्त्व का स्पष्ट संकेत है। छात्रों का भविष्य आज कम्प्यूटर से जुड़ गया है। चाहे वह लिपिक बनना चाहे या व्यापारी, वैज्ञानिक बनना चाहे या प्रबन्धन क्षेत्र में जाए, कलाकार बने या अध्यापक, कम्प्यूटर - शिक्षा उसकी अतिरिक्त योग्यता बन जाती है। अतः कम्प्यूटर - शिक्षा अनिवार्य हो गई है। इस प्रकार हर दृष्टि से कम्प्यूटर - शिक्षा की उपयोगिता प्रमाणित हो रही है।
उपसंहार - आज मनुष्य कम्प्यूटर के रोमांचकारी और सुख - सुविधा प्रदायक स्वरूप पर मुग्ध है, किन्तु मानव - जीवन में कम्प्यूटर का दिनोंदिन बढ़ता प्रभाव खतरे की घण्टी भी है। कम्प्यूटर धीरे - धीरे मानव की अनेक प्राकृतिक क्षमताओं को समाप्त कर रहा है। स्मरण शक्ति और तर्क शक्ति का ह्रास करने के साथ - साथ बच्चों और यवाओं में सामाजिकता की भावना को भी समाप्त कर रहा है। निरंतर प्रयोग से आँखों और मस्तिष्क को हानि पहुँचा रहा है। इसके अतिरिक्त कम्प्यूटर का प्रयोग कुछ ध्वंसात्मक आविष्कारों के लिए भी किया जा रहा है। रोबोट सैनिकों का निर्माण, जो कम्प्यूटर चालित होंगे, युद्धों के स्वरूप को ही बदल डालेगा। कहीं ऐसा न हो कि कम्प्यूटर एक दिन आदमी को बेदखल करके उसके स्थान पर आसीन हो जाय।
48. बढ़ता भूमण्डलीय ताप : संकट की पदचाप
अथवा
पृथ्वी के तापमान में वृद्धि : जल - प्रलय का संकेत
प्रस्तावना - 'शतपथ ब्राह्मण' तथा 'बाइबिल' में जल - प्रलय का वर्णन मिलता है। दजला - फरात तथा लाल सागर आदि का सम्पूर्ण क्षेत्र जलमग्न हो गया था। इसकी विशाल जलराशि हिमालय से टकरा रही थी। इसमें समस्त देव - जाति की सभ्यता नष्ट हो गई थी। एकमात्र मनु बचे थे। हिन्दी के महाकवि प्रसाद ने इस घटना पर आधारित अपने 'कामायनी' नामक महाकाव्य में लिखा है -
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था, एक सघन।
एक तत्त्व ही की प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन॥
चिन्ता का विषय - आजकल वैज्ञानिकों तथा पर्यावरण के प्रति संवेदनशील लोगों के लिए एक प्राकृतिक परिवर्तन चिन्ता का कारण बना हुआ है। मीडिया में भी इसकी चर्चा प्रायः सुनने को मिलती रहती है। यह परिवर्तन है - 'ग्लोबल वार्मिंग' अर्थात् भूमण्डलीय तापमान में वृद्धि। प्रकृति ने शीत और ताप का एक स्वाभाविक संतुलन बना रखा है। यह संतुलन जीवधारियों, फसलों और ऋतुचक्र के लिए परम आवश्यक है। मनुष्य की औद्योगिक गतिविधियों ने इस संतुलन को अस्थिर कर दिया है। इससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। प्रकृति के साथ मनुष्य की यह आपराधिक छेड़ - छाड़ बहुत महँगी साबित हो सकती है।
तापमान में वृद्धि के कारण - वैज्ञानिक कहते हैं कि भू - मण्डल के तापक्रम में वृद्धि के अनेक कारण हैं। इसमें प्रमुख कारण वायुमण्डल में कार्बन डाई - ऑक्साइड गैस की मात्रा का बढ़ना है। लकड़ी और कोयले का ईंधन के रूप में प्रयोग तथा पेट्रोल तथा डीजल से चलने वाले वाहन निरंतर कार्बन डाई - ऑक्साइड का उत्सर्जन कर रहे हैं। पेड़ - पौधे कार्बन डाई - ऑक्साइड को ग्रहण करके ऑक्सीजन छोड़ते हैं, लेकिन मनुष्य ने जंगलों को नष्ट करके इस प्राकृतिक लाभ को भी समाप्त कर दिया है। इनके अतिरिक्त अनेक उद्योग भी वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा बढ़ा रहे हैं।
तापमान बढ़ के दष्परिणाम - 'ग्लोबल वार्मिंग' यानि भ - मण्डलीय तापमान में वद्धि से नदियों को जल देने वाले ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इससे भविष्य में जहाँ भयंकर बाढ़ें आ सकती हैं वहीं बाद में नदियों में जल की मात्रा घटती जाएगी। एक दिन गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ सरस्वती की भाँति लुप्त हो सकती हैं। पहले ध्रुव प्रदेशों को तापमान की वृद्धि से अप्रभावित समझा जाता था परन्तु अब उत्तरी ध्रुव के हिमखण्ड भी पिघलने लगे हैं।
यदि ध्रुव प्रदेशों में हजारों वर्षों से जमी बर्फ पिघली तो समुद्र के जल स्तर में भी वृद्धि होगी और संसार के समुद्र तटों पर स्थित अनेक नगर डूब जाएंगे। इसके अतिरिक्त तापमान बढ़ने से ऋतुचक्र भी गड़बड़ा जाएगा। इसका प्रमाण देखने को मिल रहा है। गर्मियाँ लम्बी होती जा रही हैं और शीत ऋतु सिकुड़ती जा रही है। वर्षा अनिश्चित हो रही है। इस प्रकार तापमान वृद्धि से एक भयंकर संकट की पदचाप सुनाई दे रही है।
नियंत्रण के उपाय - 'ग्लोबल वार्मिंग' ऐसा संकट है जिसे मनुष्य ने स्वयं पैदा किया है। यह एक विश्वव्यापी विपत्ति है। इससे बचने के लिए सभी देशों को ईमानदारी से सहयोग करना पड़ेगा। विकसित तकनीक अपनाकर पेट्रोलियम आधारित वाहनों के इंजनों में सुधार करना होगा। ईंधन के.रूप में लकड़ी तथा कोयले के प्रयोग पर नियंत्रण करना होगा। सौर ऊर्जा का अधिक - से - अधिक प्रयोग करना होगा। जंगलों का विनाश रोकना होगा और वन - क्षेत्र को अधिक - से - अधिक बढ़ाना होगा।
उपसंहार - भौतिक सुख - सुविधाओं के विस्तार और विकास के नाम पर मनुष्य ने अपने ही पर्यावरण को अत्यन्त हानि पहुँचाई है। आर्थिक लाभ की अंधी दौड़ में फंसा मानव अपने ही विनाश को आमंत्रित कर रहा है। अतः समय रहते तापमान वृद्धि के संकट से बचाव के उपाय तुरन्त नहीं अपनाए गए तो यह रोग लाइलाज हो जाएगा।
49. परमाणु शक्ति और मानव
अथवा
परमाणु शक्ति : कितनी सुरक्षित
प्रस्तावना - प्राकृतिक पदार्थों का विश्लेषण करते - करते मनुष्य उसकी अंतिम इकाई परमाणु तक जा पहुँचा। किन्तु उसे इतने से ही संतोष नहीं हुआ उसने परमाणु को विखंडित कर उसने अंदर झाँकने का भी प्रयास किया। परमाणु का विखंडन करते हुए उसे उसमें छिपी अपार ऊर्जा का पता चला। इस ऊर्जा का प्रयोग उसने किया महाविनाश के उपकरण परमाणु बम को बनाने में। आज अनेक देशों के पास परमाणु बम और उससे भी अधिक विनाशकारी हाइड्रोजन बम हैं।
परमाणु शक्ति का विकास - महान वैज्ञानिक आइन्सटीन ने सिद्ध किया कि पदार्थ को ऊर्जा में तथा ऊर्जा को पदार्थ में परिवर्तित किया जा सकता है। उनके अनुसार एक औंस ईंधन (यूरेनियम) से 15 लाख टन कोयले के बराबर शक्ति प्राप्त की जा सकती है। इससे पूर्व ही वैज्ञानिक रदरफोर्ड ने 1919 ई. में प्रथम परमाणु विस्फोट करने में सफलता प्राप्त की थी। इसके बाद अमेरिका के वैज्ञानिकों ने 1945 ई. की 13 जुलाई को एलामोगेडो के रेगिस्तान में परमाणु बम का परीक्षण किया और सफलता प्राप्त की।
इसके बाद सोवियत रूस ने 1949 ई में इंग्लैण्ड ने 1952 ई. में तथा फ्रांस ने 1960 ई. में परमाणु - विस्फोट किए। 1964 ई. में चीन, 1974 ई. में भारत और 1998 ई. में पाकिस्तान आदि देशों ने अपने आपको परमाणु सम्पन्न देशों की पंक्ति में शामिल किया + आज तो रूस और अमेरिका हाइड्रोजन बम बना देश बन गए हैं। हाइडोजन बम की क्षमता हिरोशिमा पर गिराए गए बम से एक सौ गुना अधिक है।
परमाणु शक्ति का विनाशक स्वरूप - 6 अगस्त और 9 अगस्त, 1945 ई. को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नामक नगरों पर परमाणु बम गिराए। वहाँ व्यापक विनाश हुआ। सारा संसार अमेरिका के इस अमानवीय कृत्य से स्तम्भित हो गया। दूसरी ओर विश्व के अनेक देशों ने अमेरिका के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए एक - एक कर परमाणु बम बनाना प्रारम्भ किया। आज पाकिस्तान जैसे छोटे देश भी परमाणु सम्पन्न राष्ट्र बन गए हैं। यदि ये संहारक अस्त्र आतंकवादियों के हाथ पड़ गए तो सारे विश्व की न जाने कितनी आबादी नष्ट हो जाएगी। इस खतरे ने विश्व के समझदार लोगों की नींद उड़ा दी है।
परमाणु शक्ति का कल्याणकारी रूप - परमाणु शक्ति विनाशक ही नहीं, कल्याणकारी भी है। आज इसके सहयोग से घातक रोगों की चिकित्सा की जा रही है। ऊर्जा के क्षेत्र में परमाणु शक्ति का चमत्कारी उपयोग देखा जा सकता है। फसलों की वृद्धि, रेडियो कोबाल्ट और कीटाणुओं से उनकी रक्षा अब आइसोटोप्स द्वारा सुगम हो गई इसके अलावा नदियों का प्रवाह बदलने, पर्वतों को काटने आदि श्रमसाध्य कार्यों को सम्पन्न करने में परमाणु शक्ति का सकारात्मक प्रयोग किया जा रहा है। परमाणु शक्ति चालित बिजलीघर तथा पनडुब्बियाँ इसके कल्याणकारी रूप का प्रभाव है।
परमाणु शक्ति कितनी सुरक्षित - यद्यपि परमाणु शक्ति ऊर्जा का स्वच्छ और असीम स्रोत माना जाता है किन्तु विश्व में अनेक बार ऐसी घटनाएँ हुई हैं जो परमाणु शक्ति के सुरक्षित प्रयोग के बारे में शंकाएँ उत्पन्न करती हैं। रूस में चेरनोविल संयंत्र से घातक रेडियोएक्टिव पदार्थ का रिसाव तथा अभी कुछ समय पूर्व जापान में सुनामी और भूकंप से वहाँ के परमाणु संयंत्रों को पहुँची हानि और फैले विकिरण के उदाहरण सामने हैं। अतः परमाणु शक्ति के सुरक्षित प्रयोग को लेकर लोग आशंकित हो गए हैं।
भारत में परमाणु शक्ति - भारत में 1956 ई. में ट्राम्बे में 'भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की गई। इस केन्द्र द्वारा कल्याण हेतु परमाणु शक्ति का उपयोग सम्भव हो गया है। 1961 ई. में इसका और विस्तार किया गया। 18 मई, 1974 को राजस्थान के पोखरण क्षेत्र में भूमिगत परीक्षण किया गया। इस प्रकार भारत विश्व का छठवाँ परमाणु शक्ति सम्पन्न देश बन गया। परमाणु विस्फोटों से खनिजों का पता लगाना, नहर खोदना तथा भूमिगत जलाशय बनाना आदि कार्य संभव हो गए हैं। आशा है परमाणु शक्ति के कल्याणमय प्रयोग के नए द्वार खुलेंगे।
50. राष्ट्रीय सुरक्षा और विज्ञान
प्रस्तावना - युद्ध मानव की दूषित प्रवृत्तियों में से एक है। इसे निन्दनीय कहा गया है। इसमें मनुष्य की बर्बरता ही प्रकट होती है। जीवित रहने का अधिकार प्रत्येक को है। शासक का कर्त्तव्य बताया गया है कि वह अपनी प्रजा की सम्पत्ति तथा जीवन की रक्षा करे। दूसरे राज्य की धन - सम्पत्ति लूटने और निरपराध लोगों का वध करने के अनेक उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। अतः आत्मरक्षार्थ किया गया युद्ध शासन का अनिवार्य और आवश्यक कर्तव्य हो जाता है।
युद्ध को तुम निंद्य कहते हो मगर
आ गया हो शत्रु जब
द्वार पर ललकारता
'युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।
राष्ट्रीय सुरक्षा में विज्ञान - राष्ट्रीय सुरक्षा में विज्ञान का भी योगदान है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को विज्ञान ने प्रभावित त्थरों के हथियारों से लेकर आज तक के तकनीक प्रधान हथियारों के आविष्कार तथा निर्माण का श्रेय विज्ञान को ही जाता है। आवश्यकता के अनुरूप नये - नये अस्त्र - शस्त्रों का आविष्कार विज्ञान के द्वारा ही हुआ है।
आग्नेय अस्त्रों का प्रयोग - आग्नेय - अस्त्र अस्त्रों की अगली सीढ़ी है। शत्रु पर दूर से प्रभावी प्रहार करने में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें बन्दूकें, पिस्तौल, रिवाल्वर, तोप इत्यादि हथियार आते हैं।
राष्ट्र रक्षा और सेना - राष्ट्र की रक्षा सेना करती है। सेना के तीन प्रमुख अंग हैं - थल सेना, जल सेना और वायु सेना।
थल सेना - थल सेना सेना का प्रमुख अंग है। यह जमीन पर लड़कर शत्रु का प्रतिरोध करती है। राइफल, तोपें, जीप, टैंक आदि थल सेना द्वारा प्रयोग किये जाते हैं। बख्तरबंद गाड़ियाँ भी प्रयोग में आती हैं।
जल सेना - जिन देशों की सीमा समद से घिरी होती है, उनको उस ओर से जल - दस्यओं तथा शत्र के आक्रमण का खतरा रहता है। इसकी रक्षा के लिए जल सेना का गठन होता है। जल सेना के पास नौकाएँ, पोत, जलयान, पनडुब्बी आदि होते हैं। विशाल युद्ध - पोत विभिन्न अस्त्र - शस्त्रों से सुसज्जित होते हैं। यह इतने विशाल होते हैं कि युद्धक विमान इनसे उड़ान भर सकते हैं। इन पर विशाल तोपें आदि लगी रहती हैं।
वायु सेना - आकाश मार्ग से शत्रु के आक्रमण का सामना वायु सेना करती है। वायु सेना के पास अनेक प्रकार के विमान होते हैं। ये विमान सेना को सामान तथा खाद्य पदार्थ आदि पहुँचाने के काम आते हैं। बम - वर्षक विमान शत्रु पर हमला करते हैं तथा उसे क्षति पहुँचाते हैं। वायु सेना, थल सेना तथा जल सेना को संरक्षण तथा सुरक्षा भी देती है। वायु सेना अपने विमानों से परमाणु - आयुध तथा मिसाइल आदि को चलाने का काम भी लेती है।
मेडीकल तथा इंजीनियरिंग विभाग - सेना के अपने मेडीकल विभाग होते हैं। इसके अन्तर्गत अपने अस्पताल तथा डॉक्टर और स्वास्थ्य सेवायें चलती हैं। इनमें आपरेशन आदि की भी व्यवस्था होती है। युद्ध तथा सामान्य दिनों में सेना के लोगों की स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति इनमें होती है। इंजीनियरिंग विंग सड़कें, पुल आदि बनाने, सैन्य - उपकरणों की मरम्मत करने तथा अन्य तकनीकी कार्य करता है।
परमाणु, रासायनिक तथा जीवाणु हथियार - आज राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए परम्परागत अस्त्र - शस्त्रों पर निर्भरता नहीं है। विज्ञान ने परमाणु तकनीक से निर्मित बम तथा अन्य आयुध बनाये हैं, जिनकी प्रहार क्षमता अपार है तथा लक्ष्यभेद अचक है। तरह - तरह के रासायनिक हथियार भी आज बन चुके हैं। इससे शत्रु की प्रहार क्षमता प्रभावित होती है। इनसे शत्रु के सैनिक तथा नागरिक तो मारे जाते हैं किन्तु सम्पत्ति नष्ट नहीं होती। जीवाणु हथियारों का प्रयोग वर्जित है किन्तु इनके प्रयोग द्वारा शत्रु - सेना में मारक रोगों को फैलाया जाता है, शत्रु को सोचने - समझने तथा हमला करने का अवसर ही नहीं मिलता।
उपसंहार - राष्ट्रीय सुरक्षा में विज्ञान का अत्यन्त महत्व है। विज्ञान के सहयोग के बिना राष्ट्र की सुरक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। राष्ट्रीय सुरक्षा करने वालों को कदम - कदम पर विज्ञान द्वारा आविष्कृत तथा निर्मित उपकरणों की आवश्यकता होती है।
51. अन्तरिक्ष में विज्ञान
प्रस्तावना -
यह मनुज
जिसका गगन में जा रहा है यान
काँपते जिसके करों को देखकर परमाणु।
यह मनुज विज्ञान में निष्णात।
जो करेगा, स्यात्, मङ्गल और विधु से बात।
प्रस्तुत शताब्दी विज्ञान के नित - नवीन प्रयोगों और आविष्कारों की है। विज्ञान ने पृथ्वी की पुस्तक के सभी पृष्ठ खोलकर पढ़ डाले हैं। अब वह धरती पर अपनी उपलब्धियों से सन्तुष्ट नहीं है। अब उसका ध्यान अन्तरिक्ष की ओर है।
धरती एक परिवार - यह विज्ञान की ही देन है कि अमेरिका आदि दूरस्थ स्थानों पर घटित घटना का पता भारत को चन्द मिनटों में ही चल जाता है। मोबाइल, फोन, इण्टरनेट आदि यन्त्रों से हम बातें कर सकते हैं तथा सब कुछ जान सकते हैं। विज्ञान ने धरती को एक परिवार बना दिया है।
अन्य ग्रहों का ज्ञान - आज मनुष्य का ध्यान धरती से बाहर अन्य ग्रहों की ओर जा पहुँचा है, जो इसी सौरमण्डल में। स्थित हैं। पहले वह धरती के उपग्रह चन्द्रमा तक पहुँचा। अब तो चन्द्रमा पर बस्ती बसाने की योजनायें बनने लगी हैं। अमेरिका, यूरोप आदि के देशों में चन्द्रमा पर कॉलोनी बसाने के लिए भूमि की बुकिंग भी हो रही है। वर्तमान में वैज्ञानिकों का ध्यान अन्तरिक्ष में सुदूर स्थित ग्रहों की ओर है। उसके राकेटयान शनि तथा मंगल ग्रहों तक पहुँच चुके हैं। मंगल पर जल होने का विश्वास व्यकः कया जा रहा है। शनि के उपग्रह टाइटनिक का अध्ययन भी आरम्भ हो चुका है।
कल्पना का यथार्थ में परिवर्तन - अंग्रेजी भाषा के लेखक एच. जी. वेल्स ने धरती पर मंगलग्रह के निवासियों के काल्पनिक आक्रमण का वर्णन अपने उपन्यास में किया था। यह कल्पना इंग्लैण्ड तथा यूरोप के लोगों के मस्तिष्क में सजीव रही है। आज विज्ञान इस कल्पना को यथार्थ में परिवर्तित करने में लगा है। उसका राकेटयान मंगल की धरती पर उतर चुका है और वहाँ के चित्र पृथ्वी पर प्राप्त हो रहे हैं। वैज्ञानिक इनका अध्ययन कर रहे हैं। उनका विचार है कि मंगल की जलवायु पृथ्वी के निवासियों के रहने के लिए उपयुक्त हो सकती है। वहाँ पानी की उपस्थिति तो नहीं मिली है, परन्तु रैत् पर बनी हुई लकीरों से उनको वहाँ पानी होने का विश्वास हो रहा है।
अन्तरिक्ष का अध्ययन–अन्तरिक्ष में हमारा सौरमण्डल है, जिसमें नौ ग्रह तथा उनके उपग्रह स्थित हैं। वैज्ञानिक नौ से अधिक ग्रहों की खोज कर चुके हैं। 'यूरेनस' ग्रह भी खोजा जा चुका है। विज्ञान धरती पर बढ़ती जनसंख्या के लिए चन्द्रमा तथा मंगल आदि ग्रहों पर आवास बनाने की दिशा में काम कर रहा है।
अन्तरिक्ष बहुत विस्तृत तथा विशाल है। हमारे सौरमण्डल तथा आकाशगंगा के समान उसमें अनेक सौरमण्डल तथा आकाशगंगायें हैं। ये हमारी पृथ्वी से बहुत दूर स्थित हैं। अभी वहाँ तक पहुँचना सम्भव नहीं है। किन्तु विज्ञान उनके बारे में जानने का प्रयास कर रहा है। अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली दूरबीनों के आविष्कार से इनका अध्ययन सम्भव हो सका है। . विज्ञान ने इन ग्रह - नक्षत्रों की पृथ्वी से दूरी को नापने के लिए 'प्रकाश वर्ष' का आविष्कार किया है।
विज्ञान और अन्तरिक्ष में यातायात - विज्ञान ने अन्तरिक्ष में यात्रा करने की कल्पना ही नहीं की है, अपितु उसे यथार्थ रूप देने में भी वह लगा है। आकाश में उड़ने का पहला साधन वायुयान था। चन्द्रमा तक पहुँचने के लिए विशेष प्रकार के यान का प्रयोग किया गया था। अन्तरिक्ष में स्थित अन्य ग्रहों में अध्ययन के उपकरण भेजने के लिए राकेट, मिसाइल आदि का सहारा लिया गया है।
उपसंहार - विज्ञान का अन्तरिक्ष के अध्ययन पर पूरा ध्यान है। उसने ऐसे अनेक उपकरण बनाये हैं, जिनसे अन्तरिक्ष का ज्ञान प्राप्त करना सम्भव हो सका है। उसने शक्तिशाली दूरबीनों तथा कैमरों का निर्माण किया है, जो अन्तरिक्ष को जानने में मनुष्य के सहायक हैं।
52. अंतरिक्ष - भ्रमण : सपना और सच्चाई
प्रस्तावना - सपने देखना मानव की स्वाभाविक - मानसिक क्रिया है और उसके हर सपने को साकार करने का भार विज्ञान के कन्धों पर होता है। पक्षियों की तरह आकाश में उड़ने का सपना देखा तो वायुयान बना। मछली आदि जलजीवों की तरह तैरने का सपना देखा तो जलयान और पनडुब्बी बनी। इसी प्रकार भ्रमण करके धरती को जानने की जिज्ञासा भी मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। इसी प्रवृत्ति की सन्तुष्टि हेतु उसने प्रकृति के दुर्गम पर्वत, नदी, नाले, झरने, प्रपात, समुद्र, उत्तरी ध्रुव, दक्षिणी ध्रुव की यात्राएँ की हैं। अन्तरिक्ष का भ्रमण करना भी उसके द्वारा देखा गया एक सपना ही है। लेकिन अब यह सपना सच्चाई में बदलने वाला है।
अन्तरिक्ष भ्रमण की तैयारी - सुपरसोनिक और जेट विमानों के बाद मानव ने अन्तरिक्ष यान बनाये और लायका, नील आर्मस्ट्रांग और लूना खोद बग्घी को चन्द्रमा पर उतारा। अन्तरिक्ष यात्रा का यह पहला चरण था। आज विश्व के अनेक छोटे - बड़े देशों ने अन्तरिक्ष में अपने उपग्रह छोड़े हुए हैं। लगभग दस हजार उपग्रह अन्तरिक्ष में भ्रमण कर रहे हैं। यह सब अन्तरिक्ष भ्रमण के सपने को पूरा करने के द्वितीय चरण हैं। लेकिन अभी कुछ दिन पहले मानव ने 'स्पेस टैक्सी' का आविष्कार करके अन्तरिक्ष यात्रा के सपने को पूरा करने के लिए तीसरे चरण का प्रारम्भ किया है।
क्या है स्पेस टैक्सी - वैज्ञानिकों ने 'स्पेस एक्स' कम्पनी के माध्यम से 'स्पेस टैक्सी' का निर्माण किया है, जो मानव की अन्तरिक्ष - भ्रमण की इच्छा को पूरा करने में हर प्रकार से समर्थ है। इस टैक्सी का नाम 'फाल्कन नाइन' रखा गया है, जो अमेरिका के फ्लोरिडा प्रान्त में स्थित केप कनवेरल से उड़ान भरने के लिए तैयार हो चुकी है। इसकी लम्बाई 180 फीट, चौड़ाई 12 फीट और वजन 12,500 किग्रा है।
बाहर से देखने पर यह एक अठारह मंजिला भवन जैसा दिखाई देती है अथवा एक सफेद राकेट जैसा महसूस होती है। स्पेस एक्स' कम्पनी ने फाल्कन और ड्रैगन नामक दो कैप्सूल उन अन्तरिक्ष यात्राओं से भिन्न निर्मित किये हैं, जिनमें हम अन्तरिक्ष में जाकर पृथ्वी के कुछ चक्कर लगाकर लौट आते. थे। इनके द्वारा हम स्पेस स्टेशन की यात्रा कर सकेंगे. जहाँ कुछ दिन ठहरने की व्यवस्था की गई है। सन् 2006 में इस यान के निर्माण की घोषणा की गई थी। सन् 2008 में पहली परीक्षण उड़ान भरी गई जो सफल रही। अब 2010 में यह अन्तरिक्ष भ्रमण के लिए एक टैक्सी के रूप में तैयार है। अतः आप आवश्यक किराया चुकाकर अब अन्तरिक्ष भ्रमण को जा सकेंगे।
अन्तरिक्ष भ्रमण से लाभ - धरती पर रहते - रहते मनुष्य के मन में एक तरह की ऊब - सी पैदा हो गई है। अन्तरिक्ष भ्रमण के द्वारा वह अपनी आदिम घुमन्तू प्रवृत्ति को सन्तुष्ट कर सकेगा। अन्तरिक्ष यानों द्वारा अब तक वह हफ्ते या महीने दो महीने तक यान के भीतर ही रहकर पृथ्वी का चक्कर लगाता रहा था, जो एक साहसिक कार्य ही था। लेकिन अब वह इस स्पेस - टैक्सी द्वारा स्पेस स्टेशन पर उतरकर वहाँ कुछ दिन रह भी सकता है। वह टैक्सी यात्रियों को लाने ले जाने का कार्य करती रहेगी। वहाँ वह एक उपनिवेश बनाकर रह सकेगा।
उपसंहार - मानव की जिज्ञासु वृत्ति को पूर्णतया सन्तुष्ट करने वाला यह अभियान कवि दिनकर की पंक्तियों को सच्चा सिद्ध करता है
घुट रही नर बुद्धि की है श्वास। चाहिए उसको नई धरती नया आकाश।।
यह अन्तरिक्ष भ्रमण उसे नयी धरती और नये आकाश को उपलब्ध करा सकता है। 'स्पेस टैक्सी' उसकी इस इच्छा को बखूबी पूरा करने की क्षमता रखती है।
53. उत्तम स्वास्थ्य के लिए योग
अथवा
योग और छात्र जीवन
प्रस्तावना - भारतीय - संस्कृति का मूलाधार योग है। हमारे तीन देवताओं में शिव तो अखण्ड समाधि में लीन रहने के लिए प्रसिद्ध हैं ही। श्रीकृष्ण को भी योगीराज कहा जाता है। उनके द्वारा महाभारत युद्ध के रणक्षेत्र में अर्जुन को दिये गये उपदेशों को गीता में संकलित किया गया है। गीता के बारे में कहा जाता है कि गीता को भली - भाँति पढ़ने के पश्चात अन्य किसी शास्त्र को पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती यथा - "गीता सुगीता कर्तव्य किमन्यै शास्त्र विस्तरै"। गीता में योग के आठ विभाग बताये गये हैं। महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रन्थ 'योग पातञ्जलि' में इनका विस्तार से वर्णन किया है।
योग की भारतीय धारणा - भारत में शिक्षा की व्यवस्था आश्रम प्रणाली के रूप में विकसित हुई थी। ऋषियों के अपने निजी आश्रम होते थे। छात्रों को 25 वर्ष तक की अवस्था में बह्मचर्य का पालन करते हुए गुरु - आश्रम में रहना होता था। स्नातक होने के पश्चात गुरु - दीक्षा लेकर ही वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था। हमारे यहाँ धौम्य, भारद्वाज, वशिष्ठ, सांदीपन आदि ऋषियों के प्रसिद्ध आश्रम थे। आगे चलकर तक्षशिला, विक्रमशिला और नालन्दा आदि विश्वविद्यालय प्रसिद्ध हुए। विद्यार्थी को ब्रह्मचारी के रूप में योग साधना करते हुए विद्या ग्रहण करनी होती थी। अतः योग विद्यार्थी - जीवन का आधार रहा है और आज भी योग का छात्र जीवन में वही स्थान है जो प्राचीन भारत में था।
योग के लाभ - योग साधारणतः जोड़ या मिलन को कहते हैं। जब हम मन सहित इन्द्रियों को वश में करके प्राणायाम द्वारा उनका आत्मा से मिलन करा देते हैं, तो वह 'योग' कहा जाता है। 'अष्टांग योग' में योग के दो भाग किये गये हैं। महर्षि पतंजलि ने पहले चार विभाग-यम - नियम - प्रत्याहार और आसन को शारीरिक और प्राणायाम, ध्यान, धारणा और समाधि को मानसिक अंग माना है। इन दो के मिलन से ही योग सिद्ध होता है। योग साधना करने वाला व्यक्ति अंग्रेजी की उस कहावत का अक्षरशः पालन करता है जिसमें कहा गया है कि "स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।" रोगी शरीर का व्यक्ति संसार में कोई कार्य नहीं कर सकता। साहसिक कार्यों को करने के लिए स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मस्तिष्क आवश्यक है। यह सब योग से सुलभ होते हैं। अतः छात्र जीवन की सफलता के लिए योग परमावश्यक है।
योग में ध्यान रखने योग्य बातें - योग साधना करने के लिए आवश्यक है कि हम अपनी जीवन - शैली योग के अनुकूल बनायें। 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' वाली कहावत का पालन करते हुए हमें शारीरिक क्षमताओं से अधिक आसन या प्राणायाम आदि साधन नहीं करने चाहिए। योग का मूल मन्त्र धैर्य धारण करना है। धीरे - धीरे अभ्यास करते हुए ही हमें आगे बढ़ना चाहिए। कछ लोग योग द्वारा चमत्कार करने के लिए शरीर से अति करने लग जाते हैं। वास्तव में योग में अप्राकृतिक चमत्कारों के लिए कोई स्थान नहीं है।
हमारे यहाँ शिव, कृष्ण, गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी प्राचीन और मध्य काल में योग साधक रहे हैं, जिन्हें हम अवतार, तक मानते हैं अर्थात् ईश्वर के रूप में मान्यता देते हैं। जबकि आधुनिक युग में महर्षि अरविन्द, महर्षि दयानन्द और विवेकानन्द ऐसे ही योगी हुए हैं लेकिन उनका जीवन सन्तुलित आचरण पर आधारित रहा है। अतः सन्तुलित योग साधन ही छात्र जीवन का आधार बन सकता है। योग द्वारा महान बनने के लिए हमें गुरुओं के आदेश का पालन करना चाहिए।
उपसंहार - निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि योग द्वारा हम श्रेष्ठ जीवन का आचरण करके एक अच्छे इन्सान बन सकते हैं। हमारी शिक्षा का भी यही उद्देश्य है। वह हमें योग्य मानव, योग्य नागरिक और श्रेष्ठ छात्र बनाती.है। अतः हम योग द्वारा इस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास कर सकते हैं। आज यूरोप के अनेक लोग खान - पान और रहन - सहन में भारतीय जीवन - पद्धति के मूलाधार योग को अपनाने के लिए लालायित हो रहे हैं। हमारे देश के साधारण से योग साधक आज विदेशों में पूजे जा रहे हैं। धन - वैभव से सम्पन्न भौतिकवादी यूरोपीय वहाँ की व्यस्त - जीवन शैली को छोड़कर भारतीय योग साधना युक्त जीवन - शैली की शरण में आ रहे हैं। अतः छात्र जीवन में योग का अभ्यास करके अपने जीवन को उत्तम बनाना चाहिए। यही छात्र जीवन में योग का महत्व है।
54. एक भयंकर प्राकृतिक आपदा
अथवा
दैवी प्रकोप और मनुष्य
प्रस्तावना - मनुष्य प्रकृति की ही देन है। संसार में जन्म लेकर वह प्रकृति के मनोहर स्वरूप के प्रति आकर्षित होता ही है। वह प्रकृति पर अधिकार पाने के लिए प्रयत्न करता तो रहा है किन्तु अपार शक्तिशालिनी प्रकृति को जीतना उसके बस में नहीं है। प्रकृति का सुन्दर रूप उसे मुग्ध करता है तो उसका भयावह स्वरूप उसे डराता भी है सागर और वायुमण्डल में उठने वाले भयानक तूफान उसे प्रकृति की अपार शक्ति का परिचय कराते रहे हैं। प्रकृति का भयानक रूप - शीतल - मंद - सुगंधित वायु तन - मन को सुख देती है तो प्रभंजन हमें भयभीत भी करता है। सागर की मंद - मंद लहरों में हम मधुर संगीत सुनते हैं तो उसकी तूफानी लहरें हमें मौत की दहाड़ सुनाती हैं। हिमालय की चोटी पर एकाकी बैठे आदि पुरुष मनु ने प्रलय के जल की लहरों का ऐसा ही भयावह रूप देखा था
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ, कठिन काल के जालों - सी।
चली आ रही फेन उगलती, फन फैलाए व्यालों - सी।
प्रकृति के प्रकोप का सामना - चैत और बैसाख गर्मी के आगमन का संकेत देते हैं। परन्तु इस वर्ष लोगों ने इन महीनों में सावन - भादों की वर्षा की झडी देखी है। इतना पानी बरसा है कि पिछले पचास वर्षों के रिकार्ड ध्वस्त हो गए हैं। पर्वतों पर भारी वर्षा के कारण नदियाँ उफनी तो जलाशय लबालब हो गए। बाँधों के टूटने का संकट पैदा हो गया। कुछ अति वर्षा तथा कुछ बाँधों को बचाने के लिए उससे छोड़े पानी के कारण सड़कें बह गईं। खेत - खलिहान जलमग्न हो गए। भारी वर्षा ने लोगों का जीवन संकटमय कर दिया।
प्राकृतिक प्रकोप और कृषक - बैशाख में खेत में पकी खड़ी फसल को देखकर किसान का मन नाच उठता है। वह फसल काटकर पैदावार घर लाने की कल्पनाएँ करके ही प्रसन्न हो उठता है। घर पर फसल का आना उसके परिश्रम का है। उससे उसके महाजन का कर्ज चुकाने, बाल - बच्चों का विवाह करने, संतान को पढ़ाने - लिखाने तथा अन्य सपने जुड़े होते हैं। ये सभी सपने इस फसल के कारण ही साकार होते हैं।
हा हन्त। बैसाख सावन में बदला और आकाश घने बादलों से ढक गया। तेज बौछारें शुरू हुई फिर ओले गिरने लगे। दो - दो ग्राम के ओले गिरे। सरसों और गेहूँ की बालियाँ टूट कर दाने कीचड़ में बिछ गए। तेज रफ्तार से चलने वाली हवा ने फसल को खेतों में लिटा दिया। आलू के खेत जलाशय बन गए। आलू मिट्टी के अन्दर ही सड़ गया। यह महाविनाश दस - पाँच नहीं सैकड़ों - हजारों किलोमीटर तक फैला था। सालभर की मेहनत बरबाद हो गई हैं। कुछ भी नहीं बचा। कहीं से कोई सहारा नहीं। निराश अन्नदाता किसान हृदयाघात से मर रहे हैं या आत्मघात कर रहे हैं।
भीषण संकट - प्रकृति का यह रौद्ररूप भीषण है। उससे पैदा हुआ संकट और भयानक है। किसानों के सामने घर - परिवार को बचाने की समस्या है तो अन्य लोगों के सामने खाद्य - पदार्थों की कमी तथा महँगाई की समस्या है। पशुओं के लिए भूसा और चारा भी नहीं बचा है। प्रदेश तथा देश की सरकारें सहायता तो कर रही हैं परन्तु वह ऊँट के मुँह में जीरा है। इस सहायता में भावना की अपेक्षा राजनैतिक लाभ का विचार अधिक है।
उपसंहार - प्रकृति का रौद्र रूप पहले भी लोगों ने देखा है। देवी आपदाएँ पहले भी आई हैं। ईतिभीति का उल्लेख तुलसी ने रामचरितमानस में भी किया है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि प्रकृति की शक्ति के सामने मनुष्य की शक्ति नगण्य है। ऐसी आपदाओं का सामना हम मिलजुलकर, एक दूसरे की सहायता करके तथा सच्चे सद्भाव के साथ ही कर सकते हैं।
55. राजस्थान की संस्कृति
प्रस्तावना - सभ्यता और संस्कृति के विषय में बड़ा भ्रम है। किसी विचार और व्यवहार को निखारना, धोना, माँजना या उसमें उत्तमोत्तम गुणों का आधान करना ही संस्कृति है। किसी समाज के विचारों, परम्पराओं, दर्शन, कला, शिल्प, साहित्य तथा धार्मिक विश्वासों का सामूहिक नाम ही संस्कृति कहा जाता है। बहुधा संस्कृति और सभ्यता को एक समझ लिया जाता है किन्तु यह ठीक नहीं है। संस्कृति मानव समाज का आन्तरिक सतत् विकास है तो सभ्यता उसके बाह्य भौतिक जीवन का प्रदर्शन है।
राजस्थानी संस्कृति - मरु प्रदेश, राजपूताना और अब राजस्थान का भारतीय सांस्कृतिक मानचित्र पर एक विशिष्ट स्थान रहा है। मरुस्थल में फलती - फूलती शूरवीरों और राजपुत्रों की यह क्षात्र - धर्मी धरा केवल शस्त्रों की झंकार और रणोन्मादी हुंकारों से ही नहीं गूंजी है। रण के साथ ही रंग की साधना, इस धरती की वह विशेषता रही है, जिसने इसे भारतीय संस्कृति की बहुरंगी माला का मूल्यवान रत्न बना दिया है।
राजस्थान की सांस्कृतिक विशेषताएँ - राजस्थानी संस्कृति की अनेक निजी तथा सामान्य विशेषताएँ हैं, जो इस प्रकार
(i) शूरता की साधना - राजस्थान सदा से शूरवीरों की जन्मस्थली रहा है। वीरता, स्वाभिमान और बलिदान की भावना इस प्रदेश के कण - कण में और मन - मन में समाई रही है। यहाँ के कवियों ने भी इस भावना पर धार चढ़ाई है -
बादल ज्यूँ सुरधनुस बिण, तिलक बिणा दुज - पूत।
बनौ न सोभे मौड़ बिण, घाव बिणा रजपूत॥
यहाँ की माताओं ने पालने में ही पुत्र को अपनी भूमि की रक्षा पर प्राण निछावर करने की लोरियाँ सुनाई हैं। व्यक्तिगत वीरता के प्रदर्शन की उन्मत्तता ने इस धरती पर अनेक निरर्थक रक्तपात भी कराये हैं तथापि शूर - वीरता राजस्थानी संस्कृति का प्रधान गुण है।
(ii) शरणागत रक्षा - यहाँ के शासकों ने शरण में आए शत्रुपक्षीय व्यक्ति की रक्षा में अपना सर्वस्व तक दांव पर लगाया है। हमीर इस परम्परा की मूर्धन्य मणि हैं।
(iii) जौहर व्रत - यह भी राजस्थानी संस्कृति की निजी विशेषता रही है। पतियों के केसरिया बाना धारण करके युद्धभूमि में जाने के पश्चात् अपने सतीत्व की रक्षा तथा पत्नीव्रत का पालन करने वाली राजपूत नारियाँ जलती चिता में कूदकर जान दे देती थीं। इसी को जौहर कहते हैं।
(iv) अतिथि - सत्कार राजस्थान अपने उदार आतिथ्य भाव के लिए सदा से प्रसिद्ध रहा है। अतिथि बनने पर शत्रुओं तक को उचित सम्मान देना, यहाँ की संस्कृति की विशेषता रही है।
(v) साहित्य एवं कला प्रेम राजस्थान में केवल रण की ही साधना नहीं हुई, यहाँ शिल्प, कला और साहित्य को भी भरपूर सम्मान और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है। कवियों को राज्याश्रय मिला। अनेक उत्कृष्ट काव्यकृतियों का सृजन हुआ और आज तक यह परम्परा निर्बाध चली आ रही है। यहाँ केवल अभेद्य दुर्ग ही निर्मित नहीं हुए अपितु भव्य आवासों, मन्दिरों, जलाशयों तथा कीर्ति - स्तम्भों का भी निर्माण हुआ। लोकगीत, लोकनाट्य, कठपुतली प्रदर्शन, संगीत, नृत्य आदि कलाओं ने भी यहाँ समुचित सम्मान पाया है।
(vi) त्यौहार तथा उत्सव - राजस्थान अपने त्यौहारों और उत्सवों के लिये भी प्रसिद्ध है। गणगौर तथा तीज जैसे विशिष्ट सांस्कृतिक छाप वाले त्यौहारों के साथ यहाँ सभी प्रदेशों में प्रचलित होली, दीपावली, दशहरा, रक्षाबन्धन आदि त्यौहार भी उत्साह के साथ मनाये जाते हैं। त्यौहारों के अतिरिक्त राजस्थान में अनेक मेले और उत्सव भी मनाये जाते हैं। पुष्कर, करौली, भरतपुर, तिलवाड़ा, धौलपुर आदि के उत्सव प्रसिद्ध हैं।
(vii) धार्मिक प्रवृत्तियाँ राजस्थान में धर्म के प्रति गहरी आस्था सदा से रही है। यहाँ अनेक धर्मानुयायी निवास करते हैं। अनेक प्रसिद्ध तीर्थस्थल यहाँ प्रतिष्ठित हैं। धार्मिक अनुष्ठान तथा परम्परागत संस्कारों को भी यथेष्ट महत्त्व प्राप्त रहा है।
संस्कृति पर आधुनिक प्रभाव - संस्कृति कोई जड़ अवधारणा नहीं होती। वह परिवेश और परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। अन्य भारतीय प्रदेशों की भाँति राजस्थानी संस्कृति भी आधुनिकता की घुसपैठ से प्रभावित हुई है। लोगों की सोच और शैली में परिवर्तन हुआ है। शिक्षा का प्रचार - प्रसार हुआ है। अनेक रूढ़ियाँ और परम्पराएँ शिथिल हुई हैं।
उपसंहार - राजस्थानी संस्कृति पुरानी और परम्परा प्रिय रही है किन्तु वह निरन्तर विकासशील भी है। देश तथा विदेश में होने वाले नवीन परिवर्तन से वह अछूती नहीं है। अपनी परम्परागत विशेषताओं की रक्षा करते हुए वह नवीनता की लहरों में भी बह रही है। आधुनिकता तथा परम्परा का यह समन्वय राजस्थान की संस्कृति को जीवन्त बनाये रखेगा।
56. राजस्थान के प्रमुख पर्वोत्सव
अथवा
हमारे प्रमुख त्यौहार
प्रस्तावना - भारत पर्वो, उत्सवों और त्यौहारों का देश कहा जाता है। यहाँ हर महीने कहीं - न - कहीं कोई - न - कोई पर्व या त्यौहार मनाया जाता है। इन त्यौहारों और उत्सवों में कुछ ऐतिहासिक हैं, कुछ धार्मिक हैं, कुछ ऋतुओं पर आधारित हैं तो कुछ कृषि से संबंधित हैं। राजस्थान तो अपने रंगीलेपन के लिए सदा से प्रसिद्ध रहा है। यहाँ के त्यौहारों और उत्सवों में राजस्थानी संस्कृति का निरालापन अलग ही छलकता है।
प्रमुख पर्वोत्सव और त्यौहार - राजस्थान में मनाए जाने वाले प्रमुख पर्वोत्सव और त्यौहार इस प्रकार हैं .. (i) तीज - यह महिलाओं का त्यौहार है। श्रावण मास के शुक्लपक्ष की तृतीया को किशोरियाँ और नवविवाहिताएँ इसे विशेष उल्लास से मनाती हैं। इस त्यौहार के उपलक्ष्य में सौभाग्यसूचक सामग्री का आदान - प्रदान होता है। इस दिन कन्याएँ और नवविवाहिताएँ बाग - बगीचों में या घरों पर ही झूला झूलती हैं। नारी - हृदय की आकांक्षाओं और व्यथाओं को प्रतिध्वनित करने वाला यह त्यौहार राजस्थान में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।
(ii) रक्षाबन्धन - यह त्यौहार सावन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। कहीं - कहीं पर ब्राह्मण अपने यजमानों की कलाई पर रक्षा सूत्र बाँधकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं और बदले में कुछ धन प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर यह भाई और बहिन के स्नेहमय सम्बन्ध
को राखी के धागे से दृढ़तर बनाने वाला त्यौहार है। राजस्थानी इतिहास की कुछ गौरवमयी घटनाएँ भी इस त्यौहार से जुड़ी हैं।
(iii) गणेश चतुर्थी - यह प्रमुख रूप से विद्या - बुद्धि की प्राप्ति के इच्छुक छात्रों का त्यौहार है। बच्चे इस दिन नये वस्त्र धारण करके गुरुजनों को भेंट देते हैं और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। इस दिन बुद्धि प्रदाता गणेश जी की पूजा की जाती है।
(iv) जन्माष्टमी - भादों मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को यह त्यौहार मनाया जाता है। यह भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव हैं। इस दिन बहुत - से लोग व्रत रखते हैं, मन्दिरों व घरों में कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित झाँकियाँ भी सजाई जाती हैं।
(v) दशहरा - क्वार (आश्विन) मास के शुक्लपक्ष की दशमी को यह त्यौहार मनाया जाता है। रामलीलाओं के प्रदर्शन तथा रावण - दहन के रूप में यह सारे भारत और राजस्थान में भी मनाया जाता है। कोटा में दशहरा अत्यन्त धूमधाम से मनाया जाता है।
(vi) दीपावली - दीपावली का त्यौहार भी देशव्यापी त्यौहार है और राजस्थानी इसे मनाने में पीछे नहीं रहते। इस त्यौहार के स्वागत में घरों एवं दुकानों की सफाई तथा लिपाई - पुताई की जाती है। यह त्यौहार कई दिनों का संयुक्त पर्व है। धनतेरस को नये बर्तन या अन्य गृहोपयोगी वस्तुएँ खरीदने की प्रथा है। दीपावली पर व्यापारी वर्ग अपने बही - खातों का पूजन करता है। रात्रि को गणेश और लक्ष्मी जी का पूजन होता है। यह उल्लास और समृद्धि का त्यौहार है।
(vii) होली - होली का त्यौहार सारे भारत में मनाया जाता है। फाल्गुन के महीने की पूर्णिमा को होलिका दहन होता है और दूसरे दिन रंग की होली खेली जाती है।
(vii) शीतलाष्टमी होली के आठ दिन बाद शीतला अष्टमी मनाई जाती है। शीतला (चेचक) से बच्चों को बचाने के लिए शीतला देवी की पूजा की जाती है। इसे बासोड़ा भी कहते हैं। इस दिन चाकसू में बड़ा मेला लगता है।
(ix) गणगौर - गणगौर राजस्थान का सर्वप्रमुख त्यौहार है। कन्याएँ उत्तम वर पाने के लिए तथा विवाहिताएँ अखण्ड सौभाग्य ... पाने के लिए इस दिन (गौरा) पार्वती का पूजन करती हैं। इस दिन राजस्थान के प्रमुख नगरों में भव्य और विशाल शोभायात्रा के . साथ झाँकियाँ भी होती हैं। जयपुर का गणगौर का मेला प्रसिद्ध है।
अन्य धर्मावलम्बियों के त्यौहार - इन हिन्दू त्यौहारों के अतिरिक्त राजस्थान में अन्य धर्मावलम्बियों के त्यौहार भी उत्साह के साथ मनाए जाते हैं। मुसलमान बन्धु ईद, मुहर्रम आदि, ईसाई बन्धु क्रिसमस तथा सिख भाई वैशाखी आदि पर्यों को मेगाते हैं। राजस्थानी लोग मक्त भाव से एक - दसरे के पर्वो और त्यौहारों में भाग लेते हैं।
मेले - महावीर जी का मेला जैन धर्मावलम्बियों से सम्बद्ध है। इसके अतिरिक्त कोटा का दशहरा, पुष्कर जी का मेला, गोगामेढ़ी का मेला, रानी सती का मेला, गणेश चतुर्थी का मेला तथा ख्वाजा का उर्स यहाँ के प्रसिद्ध मेले हैं।
उपसंहार - पर्व और मेले लोकमानस के उल्लास और सांस्कृतिक एकता के प्रतीक हैं। इन त्यौहारों के माध्यम से जहाँ परम्पराएँ और धर्म जुड़े हैं वहीं ये पर्वोत्सव राजस्थान को शेष भारत के साथ सांस्कृतिक रूप से जोड़ने वाले भी हैं। अतः इन सभी पर्वोत्सवों को जन - जीवन के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाने का प्रयास होना चाहिए।
57.राजस्थान और पर्यटन
अथवा
राजस्थान के प्रमुख पर्यटन स्थल
प्रस्तावना - आज 'पर्यटन' शब्द का एक विशेष अर्थ में प्रयोग हो रहा है। आवागमन के साधनों की सुलभता के कारण विश्व में लाखों लोग पर्यटन के भौतिक और मानसिक लाभ उठाते हुए देश - देशान्तरों में भ्रमण कर रहे हैं। पर्यटन अब केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं है अपितु संसार के अनेक देशों की अर्थव्यवस्था ही पर्यटन पर आधारित हो गई है।
पर्यटन का महत्त्व - पर्यटन का अनेक दृष्टियों से उल्लेखनीय महत्त्व है। इसका सर्वाधिक महत्त्व मनोरंजन के साधन के रूप में है। प्राकृतिक सौन्दर्य के दर्शन के साथ ही मानव कला - कौशल के अद्भुत नमूनों का परिचय पाने में पर्यटन अत्यन्त सहायक होता है। पर्यटन से विभिन्न देशों के निवासी एक - दूसरे के समीप आते हैं। इससे अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव और सम्पर्क में वृद्धि होती है।
छात्र ज्ञानवर्द्धन के लिए, व्यवसायी व्यापारिक सम्पर्क और बाजार की खोज के लिए, कलाकार आत्मतुष्टि और आर्थिक लाभ के लिए तथा वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिए पर्यटन करते हैं। पर्यटकों से विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है तथा राजस्व में वृद्धि होती है। पर्यटन से अनेक उद्योगों के विकास और विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ है। होटल उद्योग, गाइड व्यवसाय, कुटीर उद्योग तथा खुदरा व्यापार को पर्यटन ने बहुत लाभ पहुँचाया है। यही कारण है कि अब सरकारें भी पर्यटन को बढ़ावा दे रही हैं।
पर्यटन - मानचित्र पर राजस्थान - यों तो भारत के अनेक प्रदेश अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और जैविक विविधता के कारण पर्यटकों को आकर्षित करते रहे हैं, किन्तु राजस्थान का इस क्षेत्र में अपना अलग महत्त्व है। भारत के पर्यटन - मानचित्र पर राजस्थान का स्थान किसी अन्य प्रदेश से कम नहीं है। प्रतिवर्ष लाखों पर्यटकों को आकर्षित करने के कारण, आज राजस्थान भारत के पर्यटन - मानचित्र पर अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करा चुका है।
राजस्थान के पर्यटन स्थल - राजस्थान के पर्यटन स्थलों को प्राकृतिक, वास्तु - शिल्पीय तथा धार्मिक वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
(i) प्राकृतिक पर्यटन स्थलों में भरतपर का घना पक्षी विहार प्रमख है। यहाँ शीत ऋत में साइबेरिया जैसे अतिदरस्थ स्थलों से हजारों पक्षी प्रवास के लिए आते हैं। पक्षी - प्रेमियों और पर्यटकों के लिए यह सदैव ही आकर्षण का केन्द्र रहा है। सरिस्का तथा रणथम्भौर का बाघ अभयारण्य भी महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल रहा है। अब राजस्थान सरकार इसे प्रदान करने में रुचि ले रही है। इसके अतिरिक्त राजस्थान की अनेक प्राकृतिक झीलें और गिरिवन भी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। पुष्कर, जयसमन्द, राजसमन्द आदि उल्लेखनीय झीलें हैं।
(ii) वास्तुशिल्पीय पर्यटन स्थलों में राजस्थान के महल, दुर्ग और मन्दिर आते हैं। जैसलमेर, जयपुर, जोधपुर, उदयपुर आदि के राजभवन उल्लेखनीय पर्यटन स्थल हैं। राजस्थान में दुर्गों की भी दर्शनीय शृंखला है। इनमें जयपुर का नाहरगढ़, सवाई माधोपुर का रणथम्भौर, जैसलमेर का सोन्मर दुर्ग, बीकानेर का जूनागढ़, भीलवाड़ा का माण्डलगढ़, चित्तौड़गढ़ का भव्य चित्तौड़गढ़ आदि पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।
राजस्थान में मन्दिर भी वास्तुशिल्प के अद्भुत नमूने हैं। ओसियाँ का मन्दिर, अपूर्णा का मन्दिर, रणकपुर का जैन मन्दिर और मन्दिरों का सिरमौर आब्रू स्थित दिलवाड़ा आदि हैं। इनके अतिरिक्त चित्तौड़गढ़ स्थित कीर्तिस्तम्भ राजस्थान की कीर्ति का प्रमाण है। अजमेर की ख्वाजा साहब की दरगाह का भी पर्यटन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान
उपसंहार - पर्यटन ने राजस्थान को विश्व के मानचित्र पर महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाया है। प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक राजस्थान आते हैं। इनसे राज्य को ख्याति के अतिरिक्त पर्याप्त राजस्व भी प्राप्त होता है। पर्यटन विभाग एवं राजस्थानवासियों के पारस्परिक सहयोग से इस दिशा में श्रेय और प्रेय दोनों की सिद्धि हो सकती है।
58. राजस्थान के लोकगीत
प्रस्तावना - लोकमानस ने अपनी अभिव्यक्ति के जो माध्यम चुने हैं, गीत उनमें सबसे मार्मिक और सर्वांगपूर्ण हैं। छन्द के बन्धन से मुक्त, भाषा की विविधता से समृद्ध, सहज आत्मप्रकाशन से प्रकाशित और संस्कृति के वैभव से मण्डित लोक - गीत परम्परा हर प्रदेश का खुला हुआ हृदय होती है। कविता के विधानों से मुक्त लोक गीत हृदय से सहज ही फूट पड़ने वाली भावधारा है जो परिवेश को सदा से गुंजाती आ रही है।।
लोक - गीतों का स्वरूप - लोक - गीतों के प्रधान लक्षण हैं - उनकी भाव - प्रधानता, अनुभूति की तीव्रता और अकृत्रिम भाव - प्रकाशन। लोक - गीत का प्राण है - उसकी मर्मस्पर्शिता। उत्सव, पर्व, ऋतु और कार्य के अनुसार लोक - गीतों के अनेक रूप देखने को मिलते हैं।
राजस्थानी लोक - गीतों के विविध रूप - राजस्थान तो लोक - गीतों से सदैव गूंजता रहने वाला प्रदेश है। राजस्थानी लोक - गीतों में राजस्थानी संस्कृति और परम्पराओं के विविध चित्र देखने को मिलते हैं। इन लोक - गीतों को स्थूल रूप से संस्कार - गीत, ऋतु - गीत, पर्व तथा उत्सव - गीत, धार्मिक - गीत तथा विविध गीतों में विभाजित किया जा सकता है।
(i) संस्कार - गीत - संस्कार - गीत जन्मोत्सव, विवाह, जनेऊ आदि अवसरों पर गाये जाते हैं। फेरों के अवसर पर प्रचलित लोक - गीत अवसर की मार्मिकता को व्यक्त करता है। दादा और काका धन के लोभी हैं. उन्होंने अपनी प्यारी बेटी को पराई बना दिया है
दमड़ा रा लोभी, ओ काकासा कीदी रे पराई ढोलारी।
(ii) ऋतु - गीत - ऋतु - परिवर्तन के साथ लोक - गीतों के स्वर और विषय - सामग्री बदल जाती है। राजस्थान सदा से इन्द्रदेव की कृपा के लिए तरसता रहने वाला प्रदेश है। सावन की रिमझिम फुहारों का स्वागत राजस्थानी नारियों द्वारा इस गीत में किया जा रहा है -
नित बरसो रे मेहा बागड़ में।
मोठ बाजरों बागड़ निपजै, गेहूणा निपजे खादर में।
इसी प्रकार वर्षा ऋतु में झूलों पर झूलती नारियों के कण्ठ से स्वतः फूट पड़ने वाले गीत अत्यन्त मार्मिक होते है।
सावण तो लाग्ये पिया भावणो जी
होजी ढोला, बरसण लाग्या जी मेह।
(ii) उत्सव - त्यौहार - गीत - विभिन्न पर्व, उत्सव - त्यौहारों पर गाये जाने वाले लोक - गीत भी राजस्थान में प्रचलित हैं। गणगौर और तीज राजस्थान के प्रमुख त्यौहार हैं। इन त्यौहारों पर भी स्त्रियाँ लोक - गीत गाती हैं। गणगौर से सम्बन्धित गीत की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं -
खोलिए गणगौर माता खोलिए किबारा
द्वारे. ऊँभी थारे पूजण बारी।
इसी प्रकार गणगौर पूजने के लिए एक पत्नी अपने पति से आज्ञा लेती हुई कहती है -
खेलण द्यो गणगौर. म्हाने खेलण द्यो गणगौर।
ओ जी म्हारी सखियाँ जोबें बाट।
भंवर म्हांने खेलण यो गणगौर।
अन्य विविध लोक - गीत - इनके अतिरिक्त कृषि कार्य से सम्बन्धित, पीसने - कूटने से सम्बन्धित, धार्मिक कार्यों, जात - मेलों से सम्बन्धित भी अनेक गीत राजस्थान के कण्ठ में विराजते हैं। अन्य गीतों में अनेक लोकप्रसिद्ध वीरों, प्रेमियों, दानियों आदि के जीवन प्रसंग का वर्णन, देवी - देवताओं की स्तुति आदि विषय होते हैं।
उपसंहार - राजस्थानी लोकगीतों में राजस्थानी संस्कृति का मौलिक स्वरूप सुरक्षित है। आधुनिकता और प्रगतिशीलता के ताप से इन गीत - कुसुमों के मुरझाने का भय उत्पन्न हो रहा है। दूरदर्शन के प्रसार के साथ लोक - कलाओं के साथ लोकगीतों के लिए भी संकट उत्पन्न हो गया है। इन लोकगीतों को आधुनिक मनोरंजन के साधनों के साथ जोड़कर ही इस संकट से बचा जा सकता है।
59. राजस्थान : भाषा और साहित्य
प्रस्तावना - कभी मारवाड़, मेरवाड़ा, मरुस्थान आदि नामों से पुकारे जाने वाले प्रदेशों को ही आज राजस्थान कहा जाता है। इतिहासकार टॉमस ने इसको राजपूताना तथा कर्नल टाड ने इसे राजस्थान कहा है। पूर्वकाल में इस प्रदेश में प्रचलित साहित्यिक भाषा को 'डिंगल' कहा जाता है। डिंगल में ही समस्त रासो ग्रन्थों तथा वीरगीत काव्यों की रचना हुई है। आज राजस्थान में व्यापक रूप में प्रयुक्त होने वाली भाषा को राजस्थानी नाम से जाना जाता है।
राजस्थानी भाषा तथा उसकी विभाषाएँ - कुछ भाषा वैज्ञानिक मानते हैं कि आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के प्रचलन में आने से पूर्व ही राजस्थानी भाषा का विकास हो चुका था। आठवीं सदी के ग्रन्थ 'कुवतापमाला' में राजस्थानी के लिए 'मरु' भाषा का प्रयोग हुआ है। आगे चलकर राजस्थान की भाषा के मरुभाषा, मरुबानी आदि नाम भी प्राप्त होते हैं। राजस्थानी की विभाषाओं अर्थात् बोलियों का विकास भी हिन्दी की अन्य बोलियों से पूर्व हो चुका था। मारवाड़ी, बीकानेरी, मालवी, उदयपुरी, मेवाती आदि बोलियों का उल्लेख विभिन्न ग्रन्थों में हुआ है। आज भी प्रायः ये सभी बोलियाँ राजस्थान में प्रचलित हैं। राजस्थानी के वर्तमान साहित्य पर भी इनकी छाप परिलक्षित होती है।
राजस्थानी भाषी क्षेत्र - राजस्थानी भाषा का मुख्य क्षेत्र राजस्थान की पूर्ववर्ती सभी रियासतों के भू - भाग में व्याप्त है। जयपुर, जैसलमेर, बीकानेर, भरतपुर, अलवर, उदयपुर, जोधपुर, अजमेर आदि के साथ - साथ राजस्थान से सटें अन्य प्रदेशों के भी कुछ स्थानों में राजस्थानी का प्रयोग होता है। पंजाब के कुछ स्थानों, हरियाणा के कुछ जिलों तथा मध्य प्रदेश में भी कुछ स्थानों में राजस्थानी बोली जाती है। इसके प्रभाव क्षेत्र में सिन्ध, कश्मीर, उत्तराखण्ड तथा महाराष्ट्र के भी कुछ भू - भाग आते है।
राजस्थानी भाषा की विभिन्न बोलियाँ - राजस्थानी भाषा की चार प्रमुख बोलियाँ मानी गई हैं - मारवाड़ी, जयपुरी, मालवी और मेवाती। ग्रियर्सन ने राजस्थानी भाषा की पाँच बोलियाँ मानी हैं -
(i) मारवाड़ी - यह उदयपुर, बीकानेर, जोधपुर तथा जैसलमेर में बोली जाती है। इसकी अनेक उप - बोलियाँ भी प्रचलित हैं। बीकानेरी, बागड़ी, मेवाड़ी, शेखावाटी, सिरोही, थली, गोठबाडी इनमें प्रमुख हैं।
(ii) जयपुरी - यह जयपुर, कोटा तथा बूंदी में बोली जाती है। इसमें जयपुरी, अजमेरी, हाड़ौती, किशनगढ़ी, राजावाड़ी, चौरासी, तोरावाटी आदि उप - बोलियाँ सम्मिलित हैं।
(iii) मालवी - मालवी और नीमाड़ी मालवा तथा झालावाड़ में प्रचलित हैं।
(iv) मेवाती - यह मेवात क्षेत्र में बोली जाती है। यह ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली से प्रभावित है। भरतपुर, अलवर, गुड़गाँव आदि इसके क्षेत्र हैं।
(v) भीली - आबू, बाँसवाड़ा, डूंगरपुर इत्यादि स्थानों में बोली जाती है। यह गुजराती तथा सौराष्ट्री से प्रभावित है।
राजस्थानी भाषा का साहित्य - राजस्थानी भाषा का साहित्यिक रूप 'डिंगल' नाम से जाना जाता है। डिंगल में रासो. काव्य तथा वीरगीतों के अतिरिक्त पर्याप्त आंचलिक साहित्य की रचना हुई है। चन्दवरदाई, नरपति नाल्ह, पृथ्वीराज, बाँकीदास,
नाथूदान, करणीदास, सूर्यमल्ल इत्यादि राजस्थानी के प्रसिद्ध प्राचीन कवि हैं। 'पृथ्वीराज रासो', 'खुमान रासो', 'वीसलदेव रासो', 'परमाल रासो' (आल्हा खण्ड) इत्यादि प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।
राजस्थानी कवियों की कविताओं में जो माधुर्य और आकर्षण है, उसे निम्नलिखित काव्यांशों में अनुभव किया जा सकता है -
पीथल धौला आबियो, बहुली लागी खोड।
काँगण मत्त गयंद ज्यूँ, ऊभी मुक्ख मरोड॥
× × ×
अकबर सँमद अथाह, सूरापण भरियो सजल।
मेवाड़ो तिण माँह, पोयण फूल प्रताप सी॥
× × ×
बादल ज्यूँ सुरधनस बिण, तिलक बिणा दुज - पूत।
बनौ न सोभै मोड़ बिण, घाव बिणा रजपूत॥
× × ×
सूरज रै सोने रो भूखो
समदरियै रो खार
मन मीणे कर बादलियो बण
जा पूज्यो गिरनार।
सेठिया आधुनिक राजस्थानी साहित्य पर खड़ी बोली का व्यापक प्रभाव है। नवीन राजस्थानी कविगण भाषा, छन्द, अलंकार आदि क्षेत्रों में नये प्रयोग कर रहे हैं। उनकी भाषा के स्वरूप भी आधुनिक खड़ी बोली हिन्दी कविता के बहुत निकट है। उनका वर्ण्य - विषय भी वर्तमान समाज के कृषक - मजदूर तथा आम पीड़ित जनों की समस्यायें हैं। डॉ. तारा प्रकाश जोशी की निम्नलिखित पंक्तियाँ दर्शनीय हैं.
पूरब से पश्चिम तक फैली;
कानूनों की काली स्याही।
यहाँ वही अपराधी केवल,
जिसका कोई नहीं गवाही।
नन्दचतुर्वेदी, मरुधर मृदुल, डॉ. सावित्री डागा, डॉ. प्रभा वाजपेयी, मीठेश निर्मोही, अम्बिका दत्त, प्रीता भार्गव इत्यादि अपनी रचनाओं से राजस्थानी साहित्य का भण्डार भर रहे हैं।
उपसंहार - राजस्थान वीरभूमि है। शौर्य, बलिदान और त्याग के उदाहरण राजस्थानी भाषा के साहित्य में भरे पड़े हैं। रणभूमि में वीरों की हुंकार और उनकी तलवारों की झंकार सदा गूंजती रही है। वीर, शृंगार और शांत रस राजस्थानी साहित्य में प्रधान रहे हैं। आज का राजस्थानी साहित्य नवीन परिवर्तनों तथा युगबोध से प्रभावित है। आज के साहित्य में भारतीय समाज में होने वाले परिवर्तनों की स्पष्ट छाप है। विकास के पथ पर निरन्तर बढ़ते राजस्थान की छवि उसके साहित्य में भी दिखाई दे रही है।
60. राजस्थान में जल संरक्षण
अथवा
जल संरक्षण की आवश्यकता
प्रस्तावना - जल का एक नाम 'जीवन' भी है। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि पृथ्वी पर जीवन का प्रारम्भ जल से ही हुआ। अतः जल जीवन का आधार है। जल के बिना प्राणियों का अस्तित्व सम्भव नहीं है। जल मनुष्य के लिए प्रकृति का अमूल्य उपहार है।
जल संकट - संसार में जल का भयंकर अभाव होने की सम्भावना है। इसका कारण निरन्तर बढ़ रही जनसंख्या है। मनुष्यों तथा पशुओं की वृद्धि के साथ ही पानी की आवश्यकता तेजी से बढ़ रही है। दूसरी ओर प्रकृति से छेड़छाड़ के कारण पहाड़ों तथा ग्लेशियरों की बर्फ तेजी से पिघल रही है और अत्यधिक दोहन के कारण भूजल का भण्डार भी घट रहा हैं। ऐसी दशा में पानी की माँग बढ़ेगी ही। यह माना जा रहा है कि तीसरा विश्व - युद्ध पानी के लिए ही होगा।
जल संरक्षण का तात्पर्य - जलसंरक्षण का तात्पर्य है। जल का अपव्यय रोकना और वर्षा के समय व्यर्थ बह जाने वाले जल को भविष्य के लिए सुरक्षित करके रखना। बताया जाता है कि धरती का तीन - चौथाई भाग जल से ढंका हुआ है, किन्तु पीने योग्य या उपयोगी जल की मात्रा बहुत सीमित है। हम प्रायः धरती के भीतर स्थित जल को उपयोग में लाते हैं। कुएँ, हैण्डपंप, नलकूप, सबमर्सिबिल पम्प आदि से यह जल प्राप्त होता है।
धरती के ऊपर नदी, तालाब, झील, झरनों आदि का जल उपयोग में आता है किन्तु प्रदूषण के चलते ये जलाशय अनुपयोगी होते जा रहे हैं। धरती के भीतर स्थित जल की अंधाधुंध खिंचाई के कारण जल का स्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है। यह भविष्य में जल के घोर संकट का संकेत है। अतः जल का संरक्षण करना अनिवार्य हो गया है।
राजस्थान में जल संरक्षण - राजस्थान में धरती के अंदर जल का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। भू - गर्भ के जल का वर्षा के जल से होता है जो राजस्थान में अत्यन्त कम होता है। अतः धरती को पानी वापस नहीं मिल पाता। अब जलसंरक्षण की चेतना जाग्रत हो रही है। लोग परम्परागत रीतियों से जल का भण्डारण कर रहे हैं। सरकार भी इस दिशा में प्रयास कर रही है। खेती में जल की बरबादी रोकने के लिए सिंचाई की फब्बारा पद्धति, पाइप लाइन से आपूर्ति, हौज पद्धति, खेत में ही तालाब बनाने आदि को अपनाया जा रहा है। मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त श्री राजेन्द्र सिंह का 'तरुण भारत संघ' तथा अन्य स्वयंसेवी संगठन भी सहयोग कर रहे हैं।
जल संरक्षण के अन्य उपाय - उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त जलसंरक्षण के अन्य उपायों का अपनाया जाना भी परम आवश्यक है। शीतल पेय (कोकाकोला आदि) बनाने वाली कम्पनियों तथा बोतल बंद जल बेचने वाले संस्थानों पर नियंत्रण किया जाना चाहिए। वर्षा के जल को संग्रह करके रखने के लिए पुराने तालाब, पोखर आदि का संरक्षण आवश्यक है। उनको पाटकर उनका भवन - निर्माण तथा अन्य कार्यों के लिए उपयोग रोका जाना आवश्यक है। नये तालाब अधिक - से - अधिक बनाये जाने चाहिए। नगरों में पानी का अपव्यय बहुत हो रहा है। अतः जल के अपव्यय पर कठोर नियंत्रण होना चाहिए।
उपसंहार - धरती के अन्दर जल स्तर का गिरते जाना आने वाले जलसंकट की चेतावनी है। भूमण्डल का वातावरण गर्म हो रहा है। इससे नदियों के जन्म - स्थल ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि हमारी प्रसिद्ध नदियों का मात्र ही शेष रह जाए। अतः हम सभी का दायित्व है कि तन, मन और धन से जल संरक्षण को सफल बनाएँ।