Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi Antra Poem 7 (क) भरत-राम का प्रेम (ख) पद Textbook Exercise Questions and Answers.
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भरत-राम का प्रेम -
भरत राम का प्रेम सप्रसंग व्याख्या प्रश्न 1.
'हारेहु खेल जितावहिं मोही' भरत के इस कथन का क्या आशय है?
उत्तर :
भरत राम के स्वभाव की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि प्रभु श्रीराम मेरे ऊपर इतना स्नेह करते हैं कि बचपन में जब मैं खेल में हार जाता था तो भी वे मुझे ही जिता देते थे जिससे मुझे दुःख न हो। इस प्रकार कवि ने बड़े भाई राम के अपने अनुज भरत के प्रति गहरे स्नेहभाव का वर्णन किया है।
Bharat Ram Ka Prem Question Answer प्रश्न 2.
'मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ।' में राम के स्वभाव की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है?
अथवा
भरत-राम प्रेम कविता में तुलसी ने सम के किस स्वभाव की विशेषताओं का वर्णन किया है?
उत्तर :
भरत जी कहने लगे मैं अपने स्वामी श्रीराम के स्वभाव को जानता हूँ। भरत के इस कथन से पता चलता है कि भगवान राम अत्यन्त उदार हैं तथा भरत और अन्य परिवारीजनों पर उनका अपार स्नेह है। वह अपराध करने वाले पर क्रोध नहीं करते। वह अत्यन्त दयालु हैं। बचपन से अब तक उन्होंने भरत को कोई दुःख नहीं पहुँचाया है।
Class 12 Hindi Bharat Ram Ka Prem Question Answer प्रश्न 3.
राम के प्रति अपने श्रद्धाभाव को भरत किस प्रकार प्रकट करते हैं, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
अपने अग्रज राम के प्रति भरत श्रद्धा भाव रखते हैं और उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि मैं उन स्नेहिल स्वभाव से परिचित हूँ। वे अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते। मेरे ऊपर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह रहा है। उन्होंने मेरा मन कभी नहीं तोड़ा अर्थात् मेरे मन ने जो चाहा वह प्रभु श्री राम ने सदैव दिया। मैं उनके प्रति श्रद्धाभाव रखता हूँ और उनका इतना सम्मान करता हूँ कि उनके सामने संकोच के कारण मुख खोलने (कुछ कहने) का साहस नहीं करता।
भरत राम का प्रेम व्याख्या प्रश्न 4.
'महीं सकल अनरथ कर मूला' पंक्ति द्वारा भरत के विचारों-भावों का स्पष्टीकरण कीजिए।
उत्तर :
भरत जी कहते हैं कि 'महीं सकल अनरथ कर मूला' अर्थात् मैं ही सारे अनर्थ की जड़ हूँ। माता कैकेयी ने अपने पुत्र के लिए अर्थात् मेरे लिए अयोध्या का राज्य राजा दशरथ से माँगा और मैं निष्कंटक राज्य कर सकूँ इसलिए राम को चौदह वर्ष का वनवास दे दिया। इस प्रकार अयोध्या में राम के राज्याधिकार हननं तथा वन-गमन के अनर्थ के लिए मूल दोषी तो मैं ही हूँ। यह सब मेरे कारण हुआ। राम-सीता और लक्ष्मण को वनवास के कष्ट सहने पड़ रहे हैं। अयोध्या के नर-नारी विकल हैं, माताओं को राजा दशरथ के निधन से वैधव्य भोगना पड़ा है। ये सब अनर्थ मेरे कारण हुए हैं। ऐसा कहकर भरत आत्मग्लानि व्यक्त कर रहे हैं।
Bharat Ram Ka Prem Class 12 Question Answer प्रश्न 5.
'फरह कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली' पंक्ति में छिपे भाव और शिल्प-सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौन्दर्य-भरत जी यह कहना चाहते हैं कि मेरी माता कैकेयी ने जिस दुष्टता का परिचय दिया उससे होता। भाव यह है कि माता यदि दुष्ट है तो उसका पुत्र भी दुष्ट ही होगा, सज्जन नहीं हो सकता। अर्थात् सभी लोग यह मान रहे होंगे कि कैकेयी के साथ-साथ भरत भी दुष्ट है।
शिल्प सौन्दर्य -
पद
Class 12 Bharat Ram Ka Prem Question Answer प्रश्न 1.
राम के वन-गमन के बाद उनकी वस्तुओं को देखकर माँ कौशल्या कैसा अनुभव करती हैं? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए। गीतावली के पद 'जननी निरखति बान धनुहियाँ के आधार पर राम के वनगमन के पश्चात माँ कौशल्या की मन:स्थिति का वर्णन कीजिए।
अथवा
राम के वनगमन के बाद माता कौशल्या की मनोदशा का चित्रण तुलसी के पदों के आधार पर कीजिए।
उत्तर :
राम के वनगमन के बाद माता कौशल्या उनके द्वारा प्रयुक्त धनुष-बाण, उनके पदत्राण (जूतियाँ) देखकर वात्सल्य वियोग का अनुभव करती हैं और राम का स्मरण करती हुई उनकी यादों में खो जाती हैं। कभी उन्हें लगता है कि राम अभी यहीं हैं। तब वह सुबह-सुबह उनके कक्ष में जाकर उन्हें जगाती हैं और फिर यह समझकर कि अरे राम तो वन में हैं।
Bharat Ram Ka Prem Class 12 Vyakhya प्रश्न 2.
'रहि चकि चित्रलिखी सी' पंक्ति का मर्म अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जैसे चित्र में बनी वस्तुएँ जड़ होती हैं उसी प्रकार माता कौशल्या भी यह समझकर कि राम तो वन चले गए हैं जड़ हो जाती हैं। चित्र में अंकित कोई व्यक्ति बोलता, सुनता अथवा कोई काम नहीं करता है, चलना-फिरता नहीं है, उसी प्रकार की अवस्था माता कौशल्या की हो गई है। उनकी इसी दशा को कवि ने 'रहि चकि चित्रलिखी सी' कहा है।
Bharat Ram Ka Prem प्रश्न 3.
गीतावली से संकलित पद 'राघौ एक बार फिरि आवौ' में निहित करुणा और संदेश को अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस पद से यह व्यक्त होता है कि माता कौशल्या अपने पुत्र राम के वियोग में अत्यन्त व्याकुल हैं। वात्सल्य वियोग से युक्त इस पद में राम के दर्शन हेतु कौशल्या की व्याकुलता व्यंजित है। भले ही वे कह रही हों कि तुम्हारे प्रिय घोड़े तुम्हारे चले जाने से दुखी हैं अतः तुम आकर उन्हें अपने दर्शन दे दो, पर वास्तविकता यही है कि वे स्वयं राम को देखने के लिए व्याकुल हैं। राम का पशु प्रेम भी व्यंजित है।
तुलसीदास ने रामचरितमानस में भी लिखा है-'जासु वियोग विकल पसु ऐसे'। उसी प्रकार की बात कवि ने यहाँ कही है कि राम के वियोग में उनके घोड़े इस प्रकार दुर्बल हो गए हैं जैसे पाला पड़ने से कमल मुरझा जाते हैं। ऐसी ही दशा सभी अयोध्यावासियों की राम के वियोग में हो रही है। इस पद में राम के हृदय की करुणा व्यक्त हुई है। इस पद से संदेश मिलता है कि राम अत्यन्त उदार हैं। इससे माता कौशल्या का वात्सल्यभाव भी व्यक्त हुआ है।
Class 12th Hindi Bharat Ram Ka Prem Question Answer प्रश्न 4.
(क) उपमा अलंकार के दो उदाहरण छाँटिए।
(ख) उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग कहाँ और क्यों किया गया है? उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(क) (i) तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी-सी-माता कौशल्या के राम के प्रति वात्सल्य को मोरनी के प्रेम के समान बताया गया है। - उपमा अलंकार
(ii) रहि चकि चित्रलिखी सी-माता कौशल्या चित्रलिखित के समान जड़ हो गई। - उपमा अलंकार
(ख) तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे - वे घोड़े दिनों-दिन दुर्बल होते जा रहे हैं मानो पाले के द्वारा कुम्हलाए कमल हों। - उत्प्रेक्षा अलंकर
यहाँ कवि ने राम के वियोग में उनके पाले हुए घोड़ों की हीन दशा का वर्णन करने के लिए उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग किया है।
भरत-राम का प्रेम प्रश्न उत्तर प्रश्न 5.
पठित पदों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि तुलसीदास का भाषा पर पूरा अधिकार था।
उत्तर :
तुलसीदास को अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर अधिकार प्राप्त था। रामचरितमानस की रचना उन्होंने अवधी भाषा में की तो विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली की रचना ब्रजभाषा में की है। यहाँ संकलित. दोनों पद गीतावली से लिए गए हैं और ये ब्रजभाषा में लिखे गए हैं। उनकी भाषा में भावों को व्यक्त करने की पूरी क्षमता है। दोनों पदों में कौशल्या का वियोग वात्सल्य व्यंजित है अर्थात् तुलसी की भाषा में व्यंजना शब्द-शक्ति है। उनकी भाषा में प्रतीकात्मकता, आलंकारिकता एवं सहजता के गुण विद्यमान हैं। इस प्रकार काव्य-भाषा में पाए जाने वाले समस्त गुण तुलसी के इन पदों में उपलब्ध हैं जो इस बात के द्योतक हैं कि भाषा पर तुलसीदास का पूरा अधिकार है।
योग्यता विस्तार -
Class 12 Antra Chapter 7 Question Answer प्रश्न 1.
'महानता लाभलोभ से मुक्ति तथा समर्पण त्यांग से हासिल होता है' को केन्द्र में रखकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर :
महानता तभी प्राप्त होती है जब व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, लाभ, लोभ को त्याग दे और समर्पण एवं त्याग की भावना से युक्त होकर कार्य करे। भरत का चरित्र इन गुणों से युक्त है। वे अयोध्या के राज्य को ग्रहण नहीं करना चाहते क्योंकि वे राज्य के लोभी नहीं हैं और उस पर नैतिक रूप से राम का हक मानते हैं क्योंकि राम अयोध्या के ज्येष्ठ राजकुमार हैं। इस प्रकार भरत लोभ और लाभ की भावना से रहित हैं। राम के प्रति उनका सम्मान और समर्पण देखने योग्य है। भरत त्याग की भावना से युक्त हैं। वे स्वयं को दोषी मानते हैं और अपनी माता कैकेयी की करतूत की निन्दा तक करते हैं। इन सब गुणों के कारण भरत निश्चय ही महान व्यक्ति हैं।
Bharat Ram Prem Question Answer प्रश्न 2.
भरत के त्याग और समर्पण के अन्य प्रसंगों को भी जानिए।
उत्तर :
छात्र-छात्राएँ, अपने अध्यापक से जानकारी प्राप्त करें।
प्रश्न 3.
आज के सन्दर्भ में राम और भरत जैसा भ्रातप्रेम क्या सम्भव है? अपनी राय लिखिए।
उत्तर :
वर्तमान समय उपभोक्तावादी है जिसमें धन के लिए सर्वत्र संघर्ष व्याप्त है। पारिवारिक मूल्य, नैतिकता, रिश्ते-नाते, त्याग-समर्पण की भावनाएँसब कुछ समाप्त होता जा रहा है। भाई-भाई के बीच संघर्ष है, सम्पत्ति के लिए [मुकदमे लड़े जा रहे हैं, छोटे-बड़े का सम्बन्ध लोग भूल रहे हैं। यह मेरा भाई है यह भावना तिरोहित होती जा रही है। इसलिए इस विपारा, वातावरण में राम-भरत जैसा भ्रातृप्रेम दुर्लभ दिखायी देता है, किन्तु अभी भी कुछ संस्कारशील परिवार हैं जहाँ भाई-भाई के प्रति स्नेहभाव है।
सच तो यह है कि भाई-भाई के बीच यदि स्नेहसूत्र है तो एक-दूसरे के प्रति त्याग की भावना स्वतः विकसित हो जाती है किन्तु जहाँ संकीर्ण स्वार्थ भावना सामने आ जाती है, वहाँ यह स्नेह सूत्र दिखाई नहीं देता। दूसरा कारण है भाइयों की पत्नियाँ जो अपने-अपने पति को स्वार्थ की पूर्ति के लिए प्रेरित कर उस स्नेह को कमजोर करने में उत्प्रेरक का काम करती हैं। यदि भाई परस्पर मिलकर कोई समस्या सुलझाना चाहें तो उनकी पत्नियाँ उसमें बाधक बन जाती हैं।
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1.
किसकी आज्ञा पाकर भरत अपनी बात कहने के लिए सभा में खड़े हुए?
उत्तर :
मुनि वशिष्ठ की आज्ञा पाकर भरत अपनी बात कहने के लिए सभा में खड़े हुए।
प्रश्न 2.
खेलते समय भरत जब हारने वाले होते थे तो राम क्या करते थे?
उत्तर :
खेलते समय भरत जब हारने वाले होते थे तो राम स्वयं हार जाते थे और भरत को जिता देते थे।
प्रश्न 3.
राम को वापस लाने के लिए भरत कहाँ गए थे?
उत्तर :
राम को वापस लाने के लिए भरत चित्रकूट गए थे।
प्रश्न 4.
राम-वियोग में कौशल्या किसे छाती से लगाती है?
उत्तर :
राम-वियोग में कौशल्या राम की जूतियों को छाती से लगाती है।
प्रश्न 5.
कौशल्या संदेश में राम से क्या कहती हैं?
उत्तर :
कौशल्या संदेश में राम से कहती हैं कि उसके पाले-पोसे घोड़े वियोग में व्याकुल हैं।
प्रश्न 6.
'भरत-राम का प्रेम कविता कहाँ से ली गयी है?
उत्तर :
यह कविता तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस' के 'अयोध्या कांड' से ली गयी है।
प्रश्न 7.
'पद' के दो पद कहाँ से लिए गए हैं?
उत्तर :
यह कविता या पद' तुलसीदास द्वारा रचित 'गीतावली' से लिए गए हैं।
प्रश्न 8.
पदों में किसका वर्णन है?
उत्तर :
इन पदों में श्रीराम के जीवन काल का वर्णन है।
प्रश्न 9.
राम के जाने के बाद माता कौशल्या की कैसी मनोदशा हो जाती है?
उत्तर :
श्रीराम के जाने के बाद माता कौशल्या उनके खिलौनों को दिल से, लगाकर उनको याद करती है और विलाप करती है।
प्रश्न 10.
माता कौशल्या राम को क्या कहकर बुला रही है?
उत्तर :
माता कौशल्या राम को उनके घोड़े की दुहाई देती है और कहती है कि जिन घोड़ों को तुम प्यार से पुचकारते थे, इनके लिए बस एक बार चले आओ।
प्रश्न 11.
कवि ने माता कौशल्या के दुःख की तुलना किससे की है?
उत्तर :
कवि ने माता कौशल्या के दुखों की तुलना एक मोर से की है।
प्रश्न 12.
'पद' कविता में क्या विशेष है?
उत्तर :
इस कविता में करुण रस है। यह काव्यांश अवधी मिश्रित ब्रजभाषा में लिखित है। इस कविता में अनुप्रास तथा उपमा अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया गया है।
प्रश्न 13.
जननी निरखति बान धनुहियां।
बार बार उर नैननि लावति प्रभुज की ललित पनहियां।।
पंक्तियों का भावार्थ लिखो।
उत्तर :
माता कौशल्या श्रीराम के खेलने वाले धनुष-बाण को देखती हैं और उनकी सुन्दर छोटी-छोटी जूतियों को अपने हृदय और आँखों से बार-बार लगाती है
लघूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1.
'पुलकि सरीर सभाँ भए पढ़े पंक्ति में जिस सभा का उल्लेख हुआ है, वह कहाँ हुई है?
उत्तर :
उक्त पंक्ति में जिस सभा का उल्लेख है वह चित्रकट में आयोजित हुई थी। जब भरत को पता चला कि राम लक्ष्मण और सीता सहित वनवास हेतु गए हैं तो वे उन्हें अयोध्या वापस लौटा लाने के लिए चित्रकूट जा पहुँचे। वहीं यह सभा आयोजित की गई थी। भरत पुलकित होकर कुछ कहने के लिए सभा में खड़े हो गये।
प्रश्न 2.
'फरह कि कोदव बालि सुसाली' का मूल भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भरत जी को अपनी माता कैकेयी की करतूत का पता है। उसने स्वार्थवश भरत के लिए राज्य और राम के लिए वनवास का जो वर माँगा है उससे भरत को बहुत पीड़ा हुई है और उन्हें लगता है कि कोई इस बात पर विश्वास नहीं करेगा कि इस छल-प्रपंच और कैकेयी की करतूत में भरत शामिल नहीं है। इसीलिए वे कहते हैं कि दुष्ट माता का पुत्र दों (बुरा अन्न) में धान (अच्छा अन्न) की बाल नहीं लग सकती। जब मेरी माता दुष्ट है तो उसका पुत्र होने से कोई भी मुझे साधु (सज्जन) स्वभाव का नहीं मान सकता। यही इस पंक्ति का मूल भाव है।
प्रश्न 3.
'विधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।।' के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर :
यह भरत जी का कथन है। भरत ने कहा कि विधाता भी हम दोनों भाइयों का स्नेह सहन नहीं कर सका। राम का मेरे प्रति दुलार (स्नेह) है। संभवतः यह विधाता को सहन नहीं हुआ और उसने मेरी माता कैकेयी के बहाने से हम दोनों के स्नेह के बीच व्यवधान डालने का प्रयास किया। भले ही इस प्रयास में वह सफल नहीं हो सका क्योंकि कैकेयी के षड्यन्त्र से भी हम दोनों के बीच स्नेह कम नहीं हुआ। राम का दुलार मेरे प्रति बढ़ा ही है, घटा नहीं। यही भरत जी कहना चाहते हैं।
प्रश्न 4.
तुलसीदास के संकलित काव्यांश के आधार पर भरत और राम के प्रेम पर टिप्पणी कीजिए।
अथवा
काव्यांश के आधार पर भरत और राम के प्रेम की तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
छोटे भाई के रूप में राम, भरत को अपना यथोचित स्नेह देते थे। राम भरत के अपराध करने पर भी उन पर क्रोध नहीं करते थे। राम भरत के साथ खेलते हुए स्वयं हार जाते और भरत को जिता देते थे। भरत अपने बड़े भाई का सदा सम्मान करते थे। भरत-राम का एक-दूसरे के प्रति बहुत प्रेम था।
प्रश्न 5.
भरत का आत्म-परिताप उनके चरित्र के किसं उज्ज्वल पक्ष की ओर संकेत करता है?
अथवा
'भरत-राम का प्रेम' शीर्षक काव्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि भरत के परिताप का कारण क्या था और कैसे कहा जा सकता है कि यह परिताप भरत के उज्ज्वल पक्ष को प्रस्तुत करता है?
अथवा
भरत के आत्म-परिताप में तुलसीदास ने उसके चरित्र की किन विशेषताओं को प्रकट किया है? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
भरत का आत्म परिताप इस बात का द्योतक है कि वे साधु स्वभाव के हैं और राम के प्रति अगाध स्नेह रखते हैं। उनकी माता कैकेयी ने जो कुछ किया उसमें उनकी कोई सहभागिता नहीं है और राम को बलगमन में जो भी कष्ट उठाने पड़ रहे हैं उसके लिए वे स्वयं को दोषी मान रहे हैं।
प्रश्न 6.
'महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन' का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-पक्षीय सौन्दर्य-भरत जी ने चित्रकूट में आयोजित सभा में श्री राम के गुणों की तथा उनके स्वभाव की भूरि-भूरि प्रशंसा की और कहा कि मैं उनका इतना आदर करता हूँ और उनसे इतना स्नेह करता हूँ कि उनके सामने मुख खोलने का साहस नहीं कर सकता । वे मेरे लिए आदरणीय हैं। बड़ों के समक्ष तर्क प्रस्तुत करना, उनसे बहस करना शिष्टता नहीं होती इसलिए मैंने उनके सम्मुख कुछ भी कहने का साहंस कभी नहीं किया और आज भी कुछ नहीं कह सकता। कवि ने यहाँ बड़ों के प्रति छोटों के शिष्टाचार का उल्लेख किया है।
प्रश्न 7.
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े।
नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा।
एहि तें अधिक क मैं काहा।
पंक्तियों में निहित भाव-सौन्दर्य लिखिए।
उत्तर :
भाव-सौन्दर्य भरत राम को मनाने चित्रकूट गये। वहाँ मुनि वशिष्ठ के कहने पर वह सभा में बोलने के लिए उठे तो उनका शरीर रोमांचित हो गया और उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे। उन्होंने कहा कि मेरी भावना तो मुनि वशिष्ठ के कथन में ही व्यक्त हो गई है। इससे अधिक मैं और क्या कहूँ। इन पंक्तियों में भरत का राम के प्रति गहरा प्रेम और सत्कार व्यक्त हुआ है।
प्रश्न 8.
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि ते अधिक कहीं मैं काहा॥
पंक्तियों का भावार्थ लिखिए।
उत्तर :
प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से तुलसीदास राम और भरत के मिलाप का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि भरत ऋषि-मुनियों के साथ राम से मिलने वन गए थे। जब उनको बोलने को कहा जाता है तब वे रोने लगते हैं और कहते हैं कि ऋषि-मुनि ने सब कुछ कह दिया, अब उनके कहने के लिए कुछ बचा नहीं है। मैं अपने भाई का स्वभाव जानता हूँ, वे कभी हमको दुखी नहीं देख सकते हैं।
प्रश्न 9.
'मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ' इन पंक्तियों के माध्यम से राम की किन विशेषताओं का उल्लेख किया गया
उत्तर :
इन पंक्तियों के माध्यम से राम की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(क) श्रीराम बहुत दयालु और स्नेही हैं। उन्होंने बचपन से ही भरत पर स्नेह और कृपा बरसाई है।
(ख) भरत श्रीराम के प्रिय अनुज थे। उन्होंने हमेशा भरत के हित के लिए काम किया है।
(ग) श्रीराम ने खेलों में भी अपने प्रिय भरत के प्रति कभी नाराजगी नहीं दिखाई। वह हमेशा उसे खश रखने की कोशिश करते थे।
(घ) श्रीराम ने अपराधियों पर भी कभी क्रोध नहीं किया।
प्रश्न 10.
'हारेंहु खेल जितावहिं मोही' इस पंक्ति का भावार्थ लिखिए।
उत्तर :
प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से तुलसीदास श्रीरामचंद्र और भरत के सकारात्मक चरित्र को प्रस्तुत करते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम जी अपने भाई भरत को खेल के मैदान में हमेशा जीतने देते हैं क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि भरत को किसी भी प्रकार का कष्ट हो। भरत अपने भाई श्रीराम चंद्र जी की प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि श्री राम जी बहुत दयालु और प्रेम करने वाले भाई हैं। इस तरह दोनों भाई एक-दूसरे के लिए सकारात्मक विचार रखते हैं। दोनों के बीच बहुत प्यार और श्रद्धा है।
प्रश्न 11.
बताइए कि भरत राम के प्रति अपनी श्रद्धा कैसे प्रकट करते हैं?
उत्तर :
भरत जी को अपने बड़े भाई श्रीराम से बहुत प्रेम है। वह खुद को 'अपने बड़े भाई श्रीराम का अनुयायी मानते हैं और भगवान की तरह श्रीराम की पूजा करते हैं। जब भरत जी जंगल में श्रीराम से मिलने जाते हैं तो श्रीराम की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता है। जब वह अपने भाई से मिलते हैं तो उनके आँसू नहीं रुकते। भरत जी ने श्रीराम को अपना गुरु कहकर अपनी इच्छा व्यक्त की। वह अपने भाई की विशेषताओं को बताकर अपनी श्रद्धा और आशा व्यक्त करते हैं।
प्रश्न 12.
'रहि चकि चित्रलिखी सी' का अर्थ अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस पंक्ति में पुत्र वियोगिनी माता की पीड़ा दिखाई देती है। माता कौशल्या श्रीराम से वियोग के कारण दुखी और आहत हैं। वह श्रीराम की वस्तुओं से अपना मन बहलाने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन उनका दुःख लगातार बढ़ता जा रहा है। वह अपने बेटे को होने वाली कठिनाइयों के बारे में सोचकर दुखी हो जाती हैं और खुद की परवाह करना भी छोड़ देती हैं। वह इतनी दुखी हैं कि उनके चेहरे पर कोई अभिव्यक्ति नहीं है।
निबन्धात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1.
'भरत-राम का प्रेम कविता का सारांश लिखिए।
उत्तर :
भरत-राम का प्रेम प्रस्तुत अंश 'रामचरितमानस' के अयोध्याकाण्ड से है। राम के वनगमन के पश्चात् जब भरत अपनी ननिहाल से अयोध्या आए और उन्हें सारी बातें पता चली तो वे राम को वापस अयोध्या लाने हेतु चित्रकूट गए। वहाँ सभा में भरत ने राम के स्वभाव का वर्णन करते हुए कहा कि वे हम सब भाइयों से इतना स्नेह करते.थे कि खेल में भी कभी किसी का मन नहीं तोड़ते थे। दुर्भाग्यवश मेरी कुटिल माता के द्वारा उसमें व्यवधान डाल दिया गया।
मैं यह नहीं कहता कि मैं सज्जन और मेरी माता 'मंदबुद्धि' हैं। स्वप्न में भी मैं किसी को दोष न देकर केवल यही कहता हूँ कि मैं अभागा हूँ जो यह दिन देखना पड़ा। राम के वनगमन से अन्य माताएँ एवं अयोध्या नगरवासी अत्यन्त दुखी हैं किन्तु भरत का राम के प्रति स्नेह देखकर अत्यन्त मुदित हैं। भरत को इस बात का दुःख है कि राम, लक्ष्मण और सीता मुनियों के वेष में वन में निवास कर रहे हैं।
प्रश्न 2.
'पद' कविता का सारांश लिखिए।
उत्तर :
पद-यहाँ संकलित दोनों पद तुलसीदास द्वारा रचित 'गीतावली' से लिए गए हैं। प्रथम पद में राम के वनगमन के बाद माता कौसल्या की हार्दिक वेदना का वर्णन है। वे राम की वस्तुओं को देखकर उनका स्मरण करती हुई अपने दुःख का परिचय देती हैं। दूसरे पद में राम के वियोग में दुखी घोड़ों को देखकर वे मन ही मन राम से यह अनुरोध करती हैं कि आप एक बार अयोध्यापुरी लौटकर इन दुखी अश्वों को अपनी सूरत दिखाओ जिससे ये अपना दुःख भूलकर सामान्य हो सकें। वे पथिकों से कहती हैं कि तुम राम से मेरा यह सन्देश अवश्य कह देना कि उनके वियोग में इन अश्वों की दशा अत्यन्त विषम हो रही है। इस पद में राम के वियोग में अयोध्यावासियों की तथा माता कौसल्या की वेदना भी व्यंजित हुई है।
प्रश्न 3.
'तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे' का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव पक्षीय सौन्दर्य कौशल्या पथिक के माध्यम से राम को वन में सन्देश भेजती हई कहती हैं कि तमने प्रेम से जिन घोड़ों को पाला-पोसा है वे तुम्हें देखने को व्याकुल हैं। यद्यपि भरत उनकी पूरी देखभाल करते हैं किन्तु वे दिनों-दिन दुर्बल होते जा रहे हैं ठीक उसी प्रकार जैसे पाला (तुषार) पड़ने से कमल मुरझाता जाता है।
शिल्प-सौन्दर्य - इसका शिल्प सौन्दर्य भी उत्तम है। ब्रजभाषा का प्रयोग है तथा पूरी पंक्ति में उत्प्रेक्षा अलंकार है। बिम्ब विधान की क्षमता भी इस पंक्ति में है। इसमें गीति काव्य के तत्त्व निहित हैं।
प्रश्न 4.
फरह कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।'के काव्य सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भाव-पक्षीय सौन्दर्य-भरत जी कहते हैं कि कोदों में धान नहीं लग सकता और काले घोंघे से मोती उत्पन्न नहीं होता। भाव यह है कि मेरी माता कैकेयी ने जो करतूत की है उसे देखकर लोग यही निष्कर्ष निकालेंगे कि कैकेयी का पुत्र होने से भरत भी दुष्ट और षड्यन्त्रकारी ही होगा, वह साधु (सज्जन) पुरुष नहीं हो सकता।
शिल्प-सौन्दर्य - यहाँ प्रतीकात्मक शैली और वक्रोक्ति अलंकार है, कोदों और संबुक (घोंघा) 'कैकेयी' के प्रतीक हैं तथा सुसाली (धान) और मुकुता (मोती) 'भरत' के लिए प्रयुक्त प्रतीक हैं। अवधी भाषा का प्रयोग है और यह चौपाई छन्द है।
प्रश्न 5.
'बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया' के काव्य सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भाव-पक्षीय सौन्दर्य - माता कौशल्या राम के वनगमन के उपरान्त वात्सल्य वियोग से पीड़ित होकर राम के द्वारा इस्तेमाल किए उस छोटे से धनुष-बाण को देख रही हैं जो बचपन में उनके हाथ में शोभा पाता था। उसे देखकर उन्हें पुराने दिन स्मरण आते हैं कि किस प्रकार वे राम को सोते से जगाती थीं और उनसे अनुरोध करती थीं कि उठो, बहुत देर हो भाई और सखा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। भाइयों को बुलाकर उनके साथ भोजन कर लो, जो कुछ अच्छा लगे वह खा लो, माता तुम्हारे ऊपर बलिहारी हो रही है।
शिल्प-सौन्दर्य - यहाँ वात्सल्य वियोग की व्यंजना है, स्मरण अलंकार है। माता कौशल्या अपने पुत्र के वियोग में विकल दिखाई गई हैं। बंध बोलि. जेंइय जो में छेकानप्रास अलंकार है. पद छन्द है तथा ब्रजभाष का प्रयोग है।
प्रश्न 6.
'जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे।' का काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-पक्षीय सौन्दर्य - माता कौशल्या वन गए राम के पास पथिक के माध्यम से यह सन्देश भिजवाती हैं कि तुमने जिन घोड़ों को पाला-पोसा था, साज-संभाल की थी, वे तुम्हारे लिए अत्यन्त व्याकुल हैं। कम से कम एक बार उन्हें देखने के लिए ही आ जाओ। हे राम! तुमनें जिन घोड़ों को दूध पिलाकर पाला-पोसा था और अपने कमल जैसे हाथ उनकी पीठ पर फिराकर उन्हें प्यार से पुचकारा था, वे घोड़े तुम्हारे लिए तरस रहे हैं। घोड़ों की व्याकुलता के माध्यम से कौशल्या की राम को अपने सामने देखने की व्यग्रता व्यंजित हुई है।
शिल्प-सौन्दर्य - इस पंक्ति में कौशल्या का वियोग वात्सल्य व्यंजित है। कर पंकज में उपमा, बार-बार में पुनरुक्ति, पय प्याइ पोखि में अनुप्रास अलंकार है। भावानुकूल ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। गीतिकाव्य की सरसता और प्रवाह दर्शनीय है।
साहित्यिक परिचय का प्रश्न -
प्रश्न :
तुलसीदास का साहित्यिक परिचय लिखिए।
उत्तर :
साहित्यिक परिचय-भाव-पक्ष - आपके काव्य में निर्गुण और सगुण, ज्ञान, भक्ति और कर्म, शैव और वैष्णव, द्वैत और अद्वैत के समन्वय का सन्देश है।।
कला-पक्ष - तुलसी ने अवधी तथा ब्रजभाषा में काव्य-रचना की है। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रचुरता है। तुलसी की अवधी परिष्कृत तथा साहित्यिक है। तुलसी ने दोहा, चौपाई, सोरठा, छप्पय, कवित्त, सवैया इत्यादि का प्रयोग अपनी काव्य-रचनाओं में किया है। अपने समय में प्रचलित समस्त प्रमुख अलंकारों उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, यमक, श्लेष, विभावना, प्रतीप इत्यादि को तुलसी के काव्यों में स्थान मिला है। तुलसी के काव्य में सभी रसों का परिपाक हुआ है।
प्रमुख कृतियाँ -
कवि परिचय :
जन्म - सन् 1532 ई. में उत्तर प्रदेश के जिला बाँदा के गाँव राजापुर में। अन्य मत के अनुसार जिला कासगंज के 'सोरों' में। पिता आत्माराम दुबे, माता हुलसी। अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण बचपन में परित्याग। नरहरिदास द्वारा : पालन-पोषण और शिक्षा। कष्टमय बाल्यकाल। रत्नावली से विवाह। पत्नी के व्यंग्य से आहत. होकर गृहत्याग। काशी, सिट; अयोध्या आदि तीर्थों का भ्रमण। राम भक्ति के कारण 'रामचरित मानस की रचना। सन् 1623 ई. में काशी में निधन।
साहित्यिक परिचय - भाव-पक्ष-भक्तिकाल की सगुण धारा की रामभकिन शाखा के प्रमुख कवि। लोकमंगल और समन्वय का सन्देश। आपके काव्य में निर्गुण और सगुण, ज्ञान, भक्ति और कर्म, शैव और वैष्णव, द्वैत और अद्वैत के समन्वय का सन्देश है। निराशा और अवसाद के गर्त में गिरे हिन्दू समाज को आशा और प्रसार का मार्ग दिखाया है। राम के आदर्श रूप की स्थापना। राम भक्ति द्वारा समाज को सशक्त बनाने का प्रयास किया। राम महामानव और अवतारी पुरुष हैं। वह दुष्टों के संहार तथा धर्म की स्थापना के लिए जन्मे हैं। तुलसी रामभक्ति शाखा ही नही हिदी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनका भावपक्ष अत्यन्त सशक्त है।
कला-पक्ष - तुलसी ने अवधी तथा ब्रजभाषा में काव्य-रचना की है। उसकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रचुरता है। तुलसी की अवधी परिष्कृत तथा साहित्यिक है। तुलसी ने राम के चरिज पर आधारित महाकाव्य 'रामचरित मानस' की रचना की है। सम्पूर्ण महाकाव्य सात काण्डों में विभाजित है। तुलसी दोहा चेपाई, सोरठा, छप्पय, कवित्त, सवैया इत्यादि का प्रयोग अपनी काव्य-रचनाओं में किया है। अपने समय में प्रचलित समस्त प्रमुख अलंकारों उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, यमक, श्लेष, विभावना, प्रतीप इत्यादि को तुलसी के काव्यों में स्थान मिला है। महाकाव्य के अतिरिक्त अन्य काव्य-शैलियों को भी तुलसी ने अपनाया है। तुलसी के काव्य में सभी रसों का परिपाक हुआ है।
ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। जिनमें 5 अधिक महत्वपूर्ण हैं - 1. रामचरितमानसः, 2. विनयपत्रिका, 3. गीतावली, 4. कवितावली, 5. दोहावली। इनके अतिरिक्त उनके लिखे अन्य काव्यग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं 6. बरवै यमायण, 7. श्रीकृष्ण गीतावली, 8. जानकीमंगल, 9. पार्वतीमंगल, 10. वैराग्य संदीपनी, 11. रामलला नहळू, 12. रामाज्ञा प्रश्नावली। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तुलसीकृत रचनाओं में इन्हीं 12 को स्थान दिया है। रामचरितमानस 7 खण्डों में रचित तुलसी का महाकाव्य है। इसकी रचना अवधी भाषा में दोहा-चौपाई शैली में की गई है। रच्या कौशल, प्रबन्ध पटुता, सहृदयता एवं शिल्प-सौन्दर्य की दृष्टि से यह महाकाव्य हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ काव्य-ग्रन्थ है। भक्तिभावना की अभिव्यक्ति के विचार से 'विनयपत्रिका' अनुपम काव्य-ग्रन्थ है। यह मुक्तक शैली में लिखा गया है।
इसकी रचना ब्रजभाषा में की गई है। दोहावली में भक्ति, नीति आदि विषयों का समावेश है। कवितावली में कवित्त-सवैया शैली को अपनाया गया है। रमणीयता की दृष्टि से यह तुलसी की अन्यतम रचना है। इसी प्रकार गीतावली में रामकथा का वर्णन किया गया है। सीता वनवास एवं लवकुश चरित तुलसी के इसी ग्रन्थ में हैं। इस प्रकार इसकी परिधि रामचरितमानस से भी बड़ी है।
सप्रसंग व्याख्याएँ
भरत-राम का प्रेम
1. पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि ते अधिक कहौं मैं काहा।।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।
सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँन कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जिय जोही। हारेहु खेल जितावहिं मोही।।
महूँ। सनेह सकोच बस सनमुख कहीं न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।
शब्दार्थ :
सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस' नामक महाकाव्य के 'अयोध्याकाण्ड' से ली गई हैं। इस अंश को हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग -2' में 'भरत-राम का प्रेम' शीर्षक से संकलित किया गया है।
प्रसंग : चित्रकूट में आयोजित सभा में जब मुनि वशिष्ठ भरत से अपने मन की बात कहने के लिए कहते हैं तब भरत की क्या दशा होती है और वे राम के स्वभाव के बारे में क्या कहते हैं, इसी का वर्णन करते हुए तुलसीदास ने भरत और राम के प्रेम का उल्लेख इन पंक्तियों में किया है।
व्याख्या : मुनि वशिष्ठ का आदेश पाकर भरत जी सभा में अपनी बात कहने के लिए खड़े हो गए। उनका शरीर पुलकित (रोमांचित) हो गया और उनके कमल जैसे नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे। भरत जी ने कहा कि मुझे जो कुछ कहना था वह तो हे मुनिवर आपने पहले ही कह दिया है। अब इससे अधिक भला मैं और क्या कह सकता हूँ? मैं अपने स्वामी (राम) . का स्वभाव जानता हूँ। वे तो इतने दयालु हैं कि अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते, मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा एवं स्नेह है। बचपन में खेल खेलते समय भी मैंने कभी उनकी अप्रसन्नता नहीं देखी।
बचपन से ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी कभी मेरा मन नहीं तोड़ा। मैंने उनकी कृपा करने की रीति का अनुभव अपने हृदय में किया है। जब मैं खेल में हार जाता था तब भी वे मुझे ही जिता देते थे। मैंने भी सदा उनका इतना सम्मान किया है कि उनके सामने अपना मुँह तक नहीं खोला अर्थात् सम्मानवश मैंने कभी उनके सामने बोलने तक का साहस नहीं किया। प्रभु श्री राम के दर्शन करने की लालसा मेरे नेत्रों को सदा से रही है और आज तक ये नेत्र उनके दर्शन के लिए लालायित रहते हैं।
विशेष :
2. बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारां। नीच बीचु जननी मिस पारा।।
यह कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरह कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।
हृदय हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा।।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।।
साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।
शब्दार्थ :
सन्दर्भ : गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित यह काव्यांश 'रामचरितमानस' के 'अयोध्याकाण्ड' से अवतरित है। इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'भरत-राम का प्रेम' शीर्षक से संकलित किया गया है।
प्रसंग : भरत ने चित्रकूट में आयोजित सभा में प्रभु श्री राम के स्नेहिल स्वभाव का वर्णन करते हुए कहा कि उनका मेरे प्रति सहज स्नेह है, वे खेल में भी मुझे हारने नहीं देते थे और मैं बचपन से ही उनका इतना आदर करता रहा हूँ कि उनके सामने मुँह खोलने की बात सोच भी नहीं सकता परन्तु विधाता को हमारा यह स्नेह सहन नहीं हुआ और उसने माता कैकेयी के बहाने से इसमें दरार डालने की कोशिश की।
व्याख्या : विधाता को हमारा (राम-भरत का) यह प्रेम सहन नहीं हुआ और उसने कैकेयी को बहाना बनाकर इसमें दरार डालने की कोशिश की। यह कहने में भी मुझे संकोच हो रहा है और यह मुझे शोभा नहीं देता कि मैं यह कहूँ कि जो कुछ हुआ उसमें मेरा कोई दोष नहीं है। भला अपने कहने से कौन साधु, पवित्र हो सकता है अर्थात् यह तो दूसरों को देखना है कि भरत दोषहीन और पवित्र हैं। यदि मैं यह कहूँगा तो उसका कोई मतलब नहीं। माता का दोष है और मैं साधु और सदाचारी हूँ यह बात हृदय में लाना भी बुरा है।
जिसकी माता ने ऐसा वर मांगकर 'दुष्टता' दिखाई हो वह भला स्वयं को 'पवित्र' और सदाचारी कैसे कह सकता है। कोदों के पेड़ में 'धान' कैसे उग सकता है ? काले घोंघे से सफेद मोती भला कैसे पैदा हो सकता है ? इसलिए मैं अन्त में यही कहने को विवश हूँ कि स्वप्न में भी कोई दूसरा लेशमात्र भी दोषी नहीं है, सब कुछ मेरे दुर्भाग्य का फल है। मैं जानता हूँ कि सब कुछ मेरे इस दुर्भाग्य रूपी अगाध समुद्र में डूब गया है।
अपने पाप पर विचार न करके मैंने माता के प्रति जो दुर्वचन कहे, वे भी ठीक नहीं। अब अपने हृदय में पराजित (निराश) होकर जब सब ओर दृष्टिपात करता हूँ अर्थात् विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि बस एक ही प्रकार से मेरा भला हो सकता है और वह यह कि यहाँ मेरे गुरु, स्वामी और हितकारी प्रभु श्रीराम और सीताजी विराजमान हैं। इसलिए वे जो कुछ करेंगे वह मेरे हित में ही होगा और उसका परिणाम मेरे लिए हितकर ही होगा।
सज्जनों की इस सभा में, प्रभु श्रीराम के सान्निध्य में सच्चे मन से यह बात कह रहा हूँ। इसमें मेरा कोई छल-प्रपंच या प्रेम का दिखावा नहीं है। इस बात को मुनिवर वशिष्ठ जी और प्रभु श्रीराम भलीभाँति जानते हैं।
विशेष :
3. भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहिं बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिन पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ ऐहि घाएँ।।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिष तामस तीछी।।
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।
शब्दार्थ :
सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस' के 'अयोध्याकाण्ड' से ली गई हैं जिन्हें हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'भरत-राम का प्रेम' शीर्षक से संकलित किया गया है।
प्रसंग : भरत जी राम को अयोध्या लौटा लाने के लिए चित्रकूट गए हैं। चित्रकूट में आयोजित सभा में वे अपने मनो गाव व्यक्त कर रहे हैं।
व्याख्या : भरत कहते हैं राजा दशरथ ने तो राम के प्रति अपने प्रेम-प्रण का निर्वाह करते हुए राम के वन-गमन करते ही प्राण त्याग दिए। दशरथ मरण और माता कैकेयी की दुर्बुद्धि का साक्षी (गवाह) तो सारा संसार है। राम, लक्ष्मण और सीता के वियोग में माताओं की जो दीन दशा हो गयी है वह देखी नहीं जाती। इनके वियोग की असहनीय ज्वाला में अयोध्या के समस्त नर-नारी भी व्याकुल हैं। इस सारे अनर्थ की जड़ मैं हूँ क्योंकि मुझे राजा बनाने के लिए ही तो माता कैकेयी ने यह सारा छल-प्रपंच किया। जब इस बारे में सोचता हूँ तो असहनीय पीड़ा से हृदय फटता-सा प्रतीत होता है पर क्या करूँ, इसें सहन करना ही पड़ता है।
यह सुनकर कि राम ने लक्ष्मण और सीता को साथ लेकर मुनिवेश धारण कर वनगमन किया है और वे बिना पदत्राण (जूतों) के पैदल ही गए हैं, मेरा कठोर हृदय नहीं फटा किन्तु उसमें भयंकर घाव (पीड़ा, कष्ट) हो गया है। शंकर को साक्षी रखकर कह रहा हूँ कि मैं उस कष्ट को बड़ी कठिनाई से सहन कर पा रहा हूँ। फिर निषादराज के स्नेह को देखकर और भी मन में लज्जित हो रहा हूँ कि जो पराए हैं वे तो राम से इतना स्नेह करते हैं और जो अपने हैं वे राम जैसे साधु पुरुष के दुःख का कारण बने।
मेरा हृदय निश्चय ही वज्र का बना है और शायद इतना कठोर है कि वह राम को इस वेश में देखकर भी विदीर्ण नहीं हुआ। सब कुछ मुझे अपनी आँखों से देखना पड़ रहा है। क्या करूँ विधाता जीव को (प्राणी को) हर स्थिति में जीवित रखता है। वे जो इतने सरल, स्नेही हैं कि उन्हें देखकर रास्ते के साँप-बिच्छू तक अपना विष त्याग देते हैं और तामसी प्रवृत्ति वाले भी अपने तीव्र क्रोध को छोड़ देते हैं, ऐसे राम, लक्ष्मण और सीता जिसे अपने शत्रु लगे हों ऐसी कैकेयी के पुत्र होने का अपार दुःख मुझे सहन करना पड़ रहा है। भला मुझे छोड़कर ऐसा दुःख विधाता और किसी को क्यों सहन कराएगा।
विशेष :
(पद)
1. जननी निरखति बान धनुहियाँ।
बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ।।
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
"उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे"।।
कबहुँ कहति यों "बड़ी बार भई जाहु भूप पहँ, भैया।
लि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया।।"
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि.चित्रलिखी सी।
तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी।।
शब्दार्थ :
सन्दर्भ : प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'गीतावली' से लिया गया है, जो हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'पद' शीर्षक से संकलित है
प्रसंग : श्रीराम के वनगमन के उपरान्त कौशल्या उनके द्वारा प्रयोग में लाई गई वस्तुओं को देख-देखकर उनका स्मरण करती हैं। कभी पहले की तरह उनके कक्ष में जाकर उन्हें जगाती हैं। बाद में वास्तविकता का बोध होने पर ठगी-सी जड़वत हो जाती हैं। उनकी इसी मन:स्थिति का चित्रण तुलसीदास ने इस पद में किया है।
व्याख्या : माता कौशल्या राम के द्वारा प्रयोग में लाए गए छोटे से धनुष-बाण को देखकर अपने पुत्र का स्मरण करती हैं जो 14 वर्ष के लिए पिता की आज्ञा से वन में चले गए हैं। बार-बार वे राम की पनहियाँ (जूतियाँ) लेकर बड़े प्रेम से उन्हें कभी आँखों के सामने लाती हैं तो कभी स्नेह में भरकर उन्हें छाती से लगा लेती हैं।
कभी उन्हें ऐसा लगता है कि राम यहाँ अयोध्या में ही हैं। इसलिए पहले की तरह सुबह होते ही उनके कक्ष में जाकर उन्हें जगाती हुई प्रियवचन कहती हैं- "हे तात! उठो, माता तुम्हारे सुन्दर मुख पर बलिहारी जाती है, उठकर देखो तुम्हारे भाई और सखा सब दरवाजे पर खड़े तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।" कभी कहती हैं - बड़ी देर हो गई, देखो राजा (पिताश्री दशरथ), तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, तुम वहाँ जाओ। भाइयों को बुलाकर जो कुछ अच्छा लगे वह खा लो, माता तुम्हारे निहोरे कर रही है, तुम्हारे ऊपर मैं स्वयं को न्योछावर करती हूँ।
फिर अचानक उन्हें ध्यान आता है कि राम यहाँ नहीं हैं। वे तो वन चले गए हैं। यह सोचकर वे चकित होकर चित्रलिखित सी जड़वत हो जाती हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि उस समय माता कौशल्या की अपने पुत्र के प्रति प्रेमभावना ठीक उस मोरनी जैसी प्रतीत होती है जो मोर की प्रतीक्षा में हो और उसके वियोग में रात-दिन आँसू बहा रही हो।
विशेष :
2. राघौ! एक बार फिरि आवौ।
ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ।।
जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे।
क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले! ते अब निपट बिसारे।।
भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।
तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे।।
सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु संदेसो।
तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो।।
शब्दार्थ :
सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'गीतावली' से ली गई हैं जिन्हें हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'पद' शीर्षक से संकलित किया गया है।
प्रसंग : राम के वनगमन के कारण उनके द्वारा पाले-पोसे गए घोड़े अत्यन्त व्याकुल हैं। माता कौशल्या पथिक के माध्यम से राम को यह सन्देश भिजवा.रही हैं कि उन्हें अपने घोड़ों को इस तरह विस्मृत नहीं कर देना चाहिए।
व्याख्या : माता कौशल्या किसी पथिक को सन्देश देती हुई कहती हैं कि हे पथिक! यदि तुम्हें वन में कहीं राम मिल जाएँ तो उनसे मेरा यह सन्देश अवश्य कह देना कि तुम्हारे पाले-पोसे घोड़े तुम्हारे वियोग में अत्यन्त व्याकुल हैं। इसलिए हे राघव (राम) कम से कम एक बार तो वन से आकर इन्हें देख लो। हे राम! अपने इन श्रेष्ठ घोड़ों को, जिन्हें तुमने पाला पोसा है, देखकर फिर वन में वापस चले जाना। तुमने जिन घोड़ों को दूध पिलाकर और अपने कमल जैसे हाथ इनके बदन पर फिराकर बार-बार प्रेम से पुचकारा था, वे तुम्हारे वियोग में भला कैसे रह सकेंगे ?
हे लाडले पुत्र राम! क्या तुमने अपने उन घोड़ों को पूरी तरह विस्मृत कर दिया? यद्यपि तुम्हारे न होने से भरत उन घोड़ों की सौगुनी अधिक देखभाल करते हैं, क्योंकि वे तुम्हारे प्रिय घोड़े हैं तथापि तुम्हारे बिना वे घोड़े इस प्रकार दिनों-दिन दुर्बल होते जा रहे हैं जैसे पाला पड़ने से कमल दिनों-दिन मुरझाता जाता है। हे पथिक! तुम राम से जाकर मेरा यह सन्देश अवयं कह देना। तुलसीदास जी कहते हैं कि माता कौशल्या ने कहा कि मुझे सबसे अधिक इन घोड़ों की चिन्ता है कि ये तुम्हारे वियोग में भला कैसे जीवित रहेंगे ?
विशेष :