Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Economics Chapter 6 प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार Textbook Exercise Questions and Answers.
Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Economics in Hindi Medium & English Medium are part of RBSE Solutions for Class 12. Students can also read RBSE Class 12 Economics Important Questions for exam preparation. Students can also go through RBSE Class 12 Economics Notes to understand and remember the concepts easily.
प्रश्न 1.
माँग वक्र का आकार क्या होगा ताकि कुल संप्राप्ति वक्र
(a) a मूल बिन्दु से होकर गुजरती हुई धनात्मक प्रवणता वाली सरल रेखा हो।
(b) a समस्तरीय रेखा हो।
उत्तर:
(a) कुल संप्राप्ति वक्र a मूल विन्दु से होकर गुजरती हुई धनात्मक प्रवणता वाली सरल रेखा तब होगी जब माँग वक्र का आकार x - अक्ष के समानान्तर हो।
(b) कुल संप्राप्ति वक्र a समस्तरीय रेखा होगी यदि माँग वक्र का आकार ऋणात्मक ढलान वाला हो।
प्रश्न 2.
नीचे दी गई सारणी से कुल संप्राप्ति माँग वक्र और माँग की कीमत लोच की गणना कीजिए।
मात्रा |
1 |
2 |
3 |
4 |
5 |
6 |
7 |
8 |
9 |
सीमान्त संप्राप्ति |
10 |
6 |
2 |
2 |
2 |
0 |
0 |
0 |
-5 |
उत्तर:
मात्रा |
सीमान्त |
कुल |
औसत |
कीमत |
1 |
10 |
10 |
10 |
10 |
2 |
6 |
16 |
8 |
8 |
3 |
2 |
18 |
6 |
6 |
4 |
2 |
20 |
5 |
5 |
5 |
2 |
22 |
4.4 |
4.4 |
6 |
0 |
22 |
3.7 |
3.7 |
7 |
0 |
22 |
3.1 |
3.1 |
8 |
0 |
22 |
2.8 |
2.8 |
9 |
-5 |
17 |
1.9 |
1.9 |
उपर्युक्त तालिका के आधार पर हम माँग की कीमत लोच निम्न प्रकार ज्ञात करेंगेमात्रा कीमत माँग की कीमत लोच
प्रश्न 3.
जब माँग वक्र लोचदार हो, तो सीमान्त संप्राप्ति का मूल्य क्या होगा?
उत्तर:
मांग वक्र लोचदार उस समय कहा जाता है जब कीमत की लोच इकाई से अधिक होती है। जब कीमत लोच इकाई से अधिक होती है, उस समय सीमान्त संप्राप्ति का मूल्यं धनात्मक होता है।
प्रश्न 4.
एक एकाधिकारी फर्म की कुल स्थिर लागत 100 रु. और निम्नलिखित माँग सारणी है
मात्रा |
1 |
2 |
3 |
4 |
5 |
6 |
7 |
8 |
9 |
10 |
कीमत |
100 |
90 |
80 |
70 |
60 |
50 |
40 |
30 |
20 |
10 |
अल्पकाल में सन्तुलन मात्रा, कीमत और कुल लाभ प्राप्त कीजिए। दीर्घकाल में सन्तुलन क्या होगा? जब कुल लागत 1000 रु. हो, तो अल्पकाल और दीर्घकाल में सन्तुलन का वर्णन करें।
उत्तर:
मात्रा |
कीमत |
कुल संप्राप्ति |
कुल लागत |
लाभ |
1 |
100 |
100 |
100 |
0 |
2 |
90 |
180 |
100 |
8 |
3 |
80 |
240 |
100 |
140 |
4 |
70 |
280 |
100 |
180 |
5 |
60 |
300 |
100 |
200 |
6 |
50 |
300 |
100 |
200 |
7 |
40 |
280 |
100 |
180 |
8 |
30 |
240 |
100 |
140 |
9 |
20 |
180 |
100 |
80 |
10 |
10 |
100 |
100 |
0 |
उपर्युक्त तालिका के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि एकाधिकारी फर्म का सन्तुलन 6 इकाइयों पर होगा क्योंकि यहाँ फर्म का लाभ अधिकतम 200 रुपये है तथा इस स्तर पर फर्म की सन्तुलन कीमत 50 रुपये है। इसका कारण यह भी है कि 6वीं इकाई पर फर्म की सीमान्त संप्राप्ति भी शून्य होगी अतः यहाँ पर फर्म का लाभ अधिकतम होगा। दीर्घकाल में भी एकाधिकार की स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि बाजार में नई फर्म के प्रवेश पर प्रतिबन्ध होगा।
अत: दीर्घकाल में भी एक ही फर्म होगी जो दीर्घकाल में भी लाभ प्राप्त करेगी। यदि कुल लागत 1000 हो जाती है तो अल्पकाल तथा दीर्घकाल में फर्म को उत्पादन की किसी भी मात्रा पर लाभ नहीं होगा क्योंकि किसी भी स्तर पर कुल संप्राप्ति 1000 के बराबर या अधिक नहीं है। अतः कुल लागत 1,000 रुपये होने पर एकाधिकारी फर्म उत्पादन बन्द कर देगी।
प्रश्न 5.
यदि अभ्यास प्रश्न 3 का एकाधिकारी फर्म सार्वजनिक क्षेत्र का फर्म हो, तो सरकार इसके प्रबन्धक के लिए दी हुई सरकारी स्थिर कीमत (अर्थात् वह कीमत स्वीकारकर्ता है और इसलिए पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक बाजार के फर्म जैसा व्यवहार करता है) स्वीकार करने के लिए नियम बनाएगी और सरकार यह निर्धारित करेगी कि ऐसी कीमत निर्धारित हो, जिससे बाजार में माँग और पूर्ति समान हो। उस स्थिति में सन्तुलन कीमत, मात्रा और लाभ क्या होंगे?
उत्तर:
यदि एकाधिकारी फर्म सार्वजनिक क्षेत्र में हो तथा सरकार वहाँ पर कीमत निर्धारित करे जहाँ बाजार माँग तथा बाजार पूर्ति बराबर हो तो सन्तुलन कीमत बाजार कीमत के समान ही होगी तथा इस कीमत पर बाजार में विक्रय की जाने वाली मात्रा सन्तुलन मात्रा होगी। इस स्थिति में फर्म सामान्य लाभ की प्राप्ति करेगी।
प्रश्न 6.
उस स्थिति में सीमान्त संप्राप्ति वक्र के आकार पर टिप्पणी कीजिए, जिसमें कुल संप्राप्ति वक्र
1. धनात्मक प्रवणता वाली सरल रेखा हो।
2. समस्तरीय सरल रेखा हो।
उत्तर:
1. यदि कुल संप्राप्ति वक्र धनात्मक प्रवणता वाली सरल रेखा हो तो सीमान्त संप्राप्ति वक्र ऋणात्मक ढाल वाला अथवा नीचे की ओर ढाल वाली रेखा होती है। इस अवस्था में सीमान्त संप्राप्ति धनात्मक होती है, किन्तु गिरती हुई होती है।
2. जब कुल संप्राप्ति वक्र समस्तरीय सरल रेखा होती है तो सीमान्त संप्राप्ति वक्र शून्य होता है अर्थात् यहाँ पर सीमान्त संप्राप्ति शून्य होती है तथा कुल संप्राप्ति अधिकतम होती है।
प्रश्न 7.
नीचे सारणी में वस्तु की बाजार माँग वक्र और वस्तु उत्पादक एकाधिकारी फर्म के लिए कुल लागत दी हुई है। इनका उपयोग कर।
मात्रा |
0 |
1 |
2 |
3 |
4 |
5 |
6 |
7 |
8 |
कीमत |
52 |
44 |
37 |
31 |
26 |
22 |
19 |
16 |
13 |
(a) सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत सारणी।
(b) वह मात्रा जिस पर सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत बराबर है।
(c) निर्गत की संतुलन मात्रा और वस्तु की संतुलन कीमत।
(d) संतुलन में कुल संप्राप्ति, कुल लागत और कुल लाभ।
उत्तर:
(a) सीमान्त संप्राप्ति और सीमान्त लागत तालिका
मात्रा |
कीमत |
कुल लागत |
कुल संप्राप्ति |
कुल संप्राप्ति |
कुल लागत |
लाभ |
0 |
52 |
10 |
0 |
- |
- |
-10 |
1 |
44 |
60 |
44 |
44 |
50 |
-16 |
2 |
37 |
90 |
74 |
30 |
40 |
-16 |
3 |
31 |
100 |
93 |
19 |
10 |
-7 |
4 |
26 |
102 |
104 |
11 |
02 |
2 |
5 |
22 |
105 |
110 |
06 |
03 |
5 |
6 |
19 |
109 |
114 |
04 |
04 |
5 |
7 |
16 |
115 |
112 |
-2 |
06 |
-3 |
8 |
13 |
125 |
104 |
-8 |
10 |
-21 |
(b) उपर्युक्त तालिका के अनुसार 6 इकाइयों पर सीमान्त संप्राप्ति तथा सीमान्त लागत बराबर है।
(c) उपर्युक्त तालिका के अनुसार निर्गत की सन्तुलन मात्रा 6 इकाई है, जिस पर वस्तु की सन्तुलन कीमत 19 रुपये है।
(d) उपर्युक्त तालिका के अनुसार है।
सन्तुलन मात्रा = 6 इकाई
सन्तुलन मात्रा पर कुल संप्राप्ति = 114 रुपये
सन्तुलन मात्रा पर कुल लागत = 109 रुपये
सन्तुलन मात्रा पर लाभ = 5 रुपये
प्रश्न 8.
निर्गत के उत्तम अल्पकाल में यदि घाटा हो, तो क्या अल्पकाल में एकाधिकारी फर्म उत्पादन को जारी रखेगी?
उत्तर:
जब तक अल्पकाल में एक फर्म की वस्तु की कीमत औसत परिवर्ती लागत के बराबर या अधिक होती है, तब तक फर्म उत्पादन जारी रख सकती है। यदि वस्तु की कीमत औसत परिवर्ती लागत से कम हो जाती है, तो एकाधिकारी फर्म उत्पादन बन्द कर देती है।
प्रश्न 9.
एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में किसी फर्म की माँग वक्र की प्रवणता ऋणात्मक क्यों होती है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में बाजार में विभिन्न फर्मे विभेदात्मक उत्पाद बेचती हैं। इस बाजार में वस्तु की कीमत भी कुछ हद तक निर्गत मात्रा को प्रभावित करती है।
एकाधिकारी बाजार में फर्म का ऋणात्मक माँग वक्र कीमत तथा मात्रा में ऋणात्मक सम्बन्ध को दर्शाता है। इस बाजार में कम कीमत पर लोग अधिक मात्रा क्रय करते हैं तथा ऊंची कीमत पर लोग कम मात्रा क्रय करते हैं। इस कारण माँग वक्र ऋणात्मक होता है।
प्रश्न 10.
एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में दीर्घकाल के लिए किसी फर्म का सन्तुलन शून्य लाभ पर होने का क्या कारण है?
उत्तर:
एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में अल्पकाल में जब फर्मों का लाभ धनात्मक होता है तो उससे आकर्षित होकर बाजार में नई फर्मे प्रवेश करती हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है तथा कीमत कम होती जाती है तथा लाभ में भी निरन्तर कमी आती जाती है तथा यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक लाभ शून्य नहीं हो जाता है।
प्रश्न 11.
तीन विभिन्न विधियों की सूची बनाइए, जिसमें अल्पाधिकारी फर्म व्यवहार कर सकती है।
उत्तर:
तीन विभिन्न विधियाँ जिसमें अल्पाधिकारी फर्म व्यवहार कर सकती है, निम्न प्रकार है।
1. द्वि - अधिकारी फर्म आपस में सांठ-गांठ करके यह निर्णय ले सकती है कि वे एक - दूसरे से स्पर्धा नहीं करेंगे और एक साथ दोनों फर्मों के लाभ को अधिकतम स्तर तक ले जाने का प्रयत्न करेंगे।
2. द्वि - अधिकारी फर्मों में प्रत्येक यह निर्णय ले सकती है कि अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए वह वस्तु को कितनी मात्रा का उत्पादन करेगी। यहाँ यह मान लिया जाता है कि उनकी वस्तु की मात्रा की पूर्ति को कोई अन्य फर्म प्रभावित नहीं करेगी।
3. कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि अल्पाधिकार बाजार संरचना में वस्तु की अनम्य कीमत होती है अर्थात् माँग में परिवर्तन के फलस्वरूप बाजार कीमत में निर्बाध संचलन नहीं होता। इसका कारण यह है कि किसी भी फर्म द्वारा आरम्भ की गई कीमत में परिवर्तन के प्रति एकाधिकारी फर्म प्रतिक्रिया प्रकट करती है।
प्रश्न 12.
यदि द्वि - अधिकारी का व्यवहार कुर्नोट के द्वारा वर्णित व्यवहार के जैसा हो, तो बाजार माँग वक्र को समीकरण q = 200 - 4p द्वारा दर्शाया जाता है तथा दोनों फर्मों की लागत शून्य होती है। प्रत्येक फर्म के द्वारा सन्तुलन और सन्तुलन बाजार कीमत में उत्पादन की मात्रा ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
प्रश्नानुसार दिया हुआ समीकरण:
q = 200 - 4p
यदि p = 0 मानें तो दिए हुए समीकरण में p = 0 रखने पर
q = 200 - 4 x 0
q = 200
अतः कुल माँगी गई मात्रा = 200
यदि कल्पना करें कि फर्म B वस्तु की शुन्य इकाई की पूर्ति करती है और फर्म A मानती है कि अधिकतम माँग 200 इकाइयाँ है इसलिए वह उसकी आधी मात्रा अर्थात् 100 इकाइयों की पूर्ति करने का निर्णय लेती है। यदि फर्म A 100 इकाइयों की पूर्ति कर रही है तो फर्म B मानती है कि अधिकतम मांग 200 इकाइयों में से 100 इकाइयों की माँग बाजार में अब भी है। अतः वह इसकी आधी मात्रा अर्थात् 50 इकाइयों की पूर्ति करेगी।
अब फर्म A यह मानती है कि 50 इकाइयों की पूर्ति फर्म B कर रही है अतः अब भी बाजार में 150 इकाइयों (150 - 50) की मांग बाजार में विद्यमान है। अतः वह इसकी आधी माँग अर्थात् 75 इकाइयों की पूर्ति करती है। इस प्रकार दोनों फर्मों में एक - दूसरे के प्रति संचलन जारी रहेगा। इससे सन्तुलन प्राप्त होगा। अतः दोनों फर्म अंततः निम्नलिखित के बराबर निर्गत की पूर्ति करेंगी है।
बाजार में पूर्ति की कुल मात्रा दोनों फर्मों की पूर्ति की मात्रा के योग के बराबर है।
चूँकि कीमत पूर्ति की मात्रा पर निर्भर करती है, अतः कीमत
q = 200 - 4p
4p = 200 - q
4p = 200 - 400/3
4p = 200/3
p = 200/3 x 1/4 = 50/3
= 16.67रु. होगी।
प्रश्न 13.
आय अनम्य कीमत का क्या अभिप्राय है? अल्पाधिकार के व्यवहार में इस प्रकार का निष्कर्ष कैसे निकल सकता है?
उत्तर:
कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि अल्पाधिकार बाजार संरचना में वस्तु की अनम्य कीमत होती है, अर्थात् माँग में परिवर्तन के फलस्वरूप बाजार कीमत में निर्बाध संचलन नहीं होता है। इसका कारण यह है कि किसी भी फर्म द्वारा प्रारम्भ की गई कीमत में परिवर्तन के प्रति एकाधिकारी फर्म प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यदि एक फर्म यह महसूस करती है कि कीमत में वृद्धि से अधिक लाभ का सृजन होगा और इसीलिए वह अपने निर्गत को बेचने के लिए कीमत में वृद्धि करेगी।
अन्य फर्म इसका अनुकरण नहीं कर सकती है। अतः कीमत वृद्धि से बिक्री की मात्रा में भारी गिरावट आएगी, जिससे फर्म की संप्राप्ति और लाभ में गिरावट आएगी। अतः किसी फर्म के लिए कीमत में वृद्धि करना विवेक संगत नहीं होगा। दूसरी ओर, फर्म यह आकलन कर सकती है कि वह अत्यधिक मात्रा में निर्गत को बेचकर अधिक संप्राप्ति और लाभ अर्जित करेगी और इसीलिए वह अपनी वस्तु को कम कीमत पर बेचती है।
अन्य फर्म इसी कार्य को एक खतरे के रूप में ग्रहण करेगी और इसीलिए पहले फर्म का अनुकरण करेगी तथा अपनी कीमत को भी कम कर देगी। अत: कम कीमत के कारण कुल विक्रय मात्रा में वृद्धि में सभी फर्म भागीदार होते हैं और आरम्भ में जो फर्म कीमत को कम करती है, वह अपने विक्रय की मात्रा में अत्यल्प वृद्धि को ही प्राप्त कर पाती है।
प्रथम फर्म के द्वारा कीमत में अपेक्षाकृत अधिक कमी करने से विक्रय की मात्रा में अपेक्षाकृत अल्प वृद्धि होती है। इस प्रकार इस फर्म को बेलोचदार माँग वक्र का अनुभव होता है और कीमत को कम करने के निर्णय से इसे संप्राप्ति और लाभ की न्यून मात्रा प्राप्त होती है। अत: किसी भी फर्म को प्रचलित कीमत जो कि पूर्ण प्रतिस्पर्धा की अपेक्षा अधिक अनम्य होती है, में परिवर्तन करना विवेकपूर्ण नहीं लगता है।