RBSE Class 12 Economics Notes Chapter 6 प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार

These comprehensive RBSE Class 12 Economics Notes Chapter 6 प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार will give a brief overview of all the concepts.

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Economics in Hindi Medium & English Medium are part of RBSE Solutions for Class 12. Students can also read RBSE Class 12 Economics Important Questions for exam preparation. Students can also go through RBSE Class 12 Economics Notes to understand and remember the concepts easily.

RBSE Class 12 Economics Chapter 6 Notes प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार

→ पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाजार की कुछ विशेषताओं को यदि छोड़ दिया जाए तो हमारे सम्मुख एकाधिकार, एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा तथा अल्पाधिकारी बाजार संरचना बनती है, जिनकी अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं।

→ वस्तु बाजार में सामान्य एकाधिकार: जिस बाजार संरचना में केवल एक ही विक्रेता होता है, एकाधिकार कहलाता है तथा उसके द्वारा उत्पादित वस्तु की कोई स्थानापन्न वस्तु नहीं होती है। इस बाजार में अन्य फर्मों के प्रवेश पर भी प्रभावी रोक होती है।

RBSE Class 12 Economics Notes Chapter 6 प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार

→ बाजार माँग वक्र औसत संप्राप्ति वक्र है: बाजार माँग वक्र वे मात्राएँ दर्शाता है, जिसे उपभोक्ता विभिन्न कीमतों पर सम्मिलित रूप से खरीदने के इच्छुक हैं। एकाधिकार फर्म द्वारा बाजार में बेची जाने वाली मात्रा वस्तु की कीमत पर निर्भर करती है। यदि फर्म वस्तु की कीमत अधिक रखती है तो वह ऊँची कीमत पर कम मात्रा का विक्रय कर पाती है। इसके विपरीत यदि फर्म वस्तु की कीमत कम रखती है तो वह वस्तु की अधिक मात्रा का विक्रय कर पाती है। बाजार में एकाधिकार में एक ही फर्म होती है अतः उसे बाजार माँग वक्र का सामना करना पड़ता है। अतः एकाधिकार फर्म उत्पादन मात्रा अथवा कीमत दोनों में से किसी एक पर अपना नियन्त्रण रख सकती है।

एकाधिकारी फर्म का माँग वक्र ही उसका औसत संप्राप्ति (आय) वक्र होता है क्योंकि इस प्रकार के बाजार में औसत संप्राप्ति एवं कीमत एक ही होती है। एकाधिकारी फर्म का औसत संप्राप्ति वक्र ऊपर से नीचे की ओर ढलान वाला वक्र होता है।
एकाधिकार में वस्तु की कीमत तथा विक्रय की गई मात्रा का गुणनफल फर्म की कुल संप्राप्ति कहलाती है। फर्म द्वारा वस्तु की प्रति इकाई विक्रय से प्राप्त संप्राप्ति, औसत संप्राप्ति कहलाती है। एकाधिकार में कुल संप्राप्ति वक्र से औसत संप्राप्ति को ज्ञात किया जा सकता है।

→ कुल, औसत और सीमान्त संप्राप्तियाँ: किसी फर्म द्वारा बाजार में विक्रय की गई मात्रा को वस्तु की कीमत से गुणा करके कुल संप्राप्ति प्राप्त की जा सकती है तथा कुल संप्राप्ति में विक्रय की गई मात्रा का भाग देकर औसत संप्राप्ति ज्ञात की जा सकती है
कुल संप्राप्ति = वस्तु की बाजार में बेची गई मात्रा × वस्तु की कीमत
RBSE Class 12 Economics Notes Chapter 6 प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार 1
एक अतिरिक्त इकाई की बिक्री से कुल संप्राप्ति में जो परिवर्तन होता है, उसे सीमान्त संप्राप्ति कहते हैं। इसे निम्न सूत्र द्वारा ज्ञात कर सकते हैं
सीमान्त संप्राप्ति = \(\frac{\Delta \mathrm{TR}}{\Delta \mathrm{Q}}\)
कुल संप्राप्ति तथा सीमान्त संप्राप्ति में आपस में सम्बन्ध पाया जाता है, जब कुल संप्राप्ति में वृद्धि होती है तो सीमान्त संप्राप्ति (आगम) धनात्मक होती है। जब कुल संप्राप्ति अधिकतम होती है तब सीमान्त संप्राप्ति शून्य होती है तथा जब कुल संप्राप्ति घटती है तो सीमान्त संप्राप्ति ऋणात्मक होती है। सीमान्त संप्राप्ति तथा औसत संप्राप्ति में भी सम्बन्ध पाया जाता है। सीमान्त संप्राप्ति तथा औसत संप्राप्ति जब घटती हैं तो सीमान्त संप्राप्ति, औसत संप्राप्ति से कम होती है। यदि औसत संप्राप्ति वक्र अतिप्रवण हो तो सीमान्त संप्राप्ति वक्र औसत संप्राप्ति वक्र से बहुत नीचे होता है।

→ सीमान्त संप्राप्ति और माँग की कीमत लोच: सीमान्त संप्राप्ति के मूल्य का सम्बन्ध माँग की कीमत लोच के साथ भी होता है। जब सीमान्त संप्राप्ति का मूल्य धनात्मक होता है तो माँग की कीमत लोच इकाई से अधिक होती है और जब सीमान्त संप्राप्ति का मूल्य ऋणात्मक होता है तो माँग की कीमत लोच इकाई से कम होती है। अतः जैसे-जैसे वस्तु की मात्रा में वृद्धि होती है, सीमान्त संप्राप्ति का मूल्य घटता है और माँग की कीमत लोच का मूल्य भी न्यून हो जाता है। 

RBSE Class 12 Economics Notes Chapter 6 प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार

→ एकाधिकारी फर्म का अल्पकालीन सन्तुलन:

  • शून्य लागत की सामान्य स्थिति: जब कुल लागत शून्य होती है तो इस स्थिति में एकाधिकारी को अधिकतम लाभ तब होता है, जब कुल संप्राप्ति अधिकतम होती है।
  • पूर्ण प्रतिस्पर्धा के साथ तुलना: एकाधिकारी फर्म की तुलना में एक प्रतिस्पर्धी फर्म सन्तुलन की स्थिति में | कम कीमत पर अधिक मात्रा का विक्रय करती है।
  • धनात्मक लागत का परिचय: धनात्मक लागत की स्थिति में अल्पकालीन सन्तुलन का विश्लेषण दो प्रकार से किया जा सकता है
    • कुल लागत के प्रयोग द्वारा विश्लेषण:इस विधि के अनुसार एकाधिकारी फर्म अपनी उत्पादन मात्रा उस स्तर पर निश्चित करेगी, जहाँ उसे अधिकतम लाभ प्राप्त हो रहा हो। यह निर्गत का वह स्तर होगा जिसके लिए कुल संप्राप्ति वक्र और कुल लागत वक्र के बीच उर्ध्वाधर दूरी अधिकतम होगी तथा कुल संप्राप्ति वक्र कुल लागत वक्र के ऊपर अवस्थित होगा अर्थात् कुल संप्राप्ति – कुल लागत अधिकतम है।
    • औसत और सीमान्त वक्र के प्रयोग द्वारा: इस विधि के अनुसार निर्गत का सन्तुलन स्तर उस बिन्दु पर संगत होता है, जहाँ सीमान्त संप्राप्ति तथा सीमान्त लागत बराबर होती है तथा सीमान्त लागत वक्र उस बिन्दु पर सीमान्त संप्राप्ति वक्र को नीचे की तरफ से काटता हुआ ऊपर की तरफ उठता हो।

→ पुनः पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तुलना: पूर्ण प्रतिस्पर्धा में जब कीमत सीमान्त लागत के बराबर हो जाती है, तब यह समझा जाता है कि फर्म सन्तुलन में है। पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाजार एकाधिकारी फर्म की अपेक्षा अधिक उत्पादन करता है और अधिक विक्रय करता है। इसके अतिरिक्त पूर्ण प्रतिस्पर्धा में एकाधिकारी फर्म की तुलना में कीमत कम होती है। प्रतिस्पर्धी फर्म द्वारा अर्जित लाभ एकाधिकारी फर्म की अपेक्षा कम होता है। 

→ दीर्घकाल में: पूर्ण प्रतिस्पर्धी फर्म दीर्घकाल में शून्य लाभ प्राप्त करती है, जबकि दीर्घकाल में एकाधिकारी फर्म लाभ प्राप्त करती है।

→ कछ आलोचनात्मक मत: एकाधिकार में उपभोक्ता को निर्गत की कम मात्रा प्राप्त होती है तथा उपभोग की प्रत्येक इकाई के लिए अधिक कीमत अदा करती है। एकाधिकार फर्म की निम्न आधार पर आलोचना की जाती है

  • एकाधिकार की स्थिति वास्तविक जगत में नहीं पाई जाती है।
  • शुद्ध एकाधिकार की स्थिति में भी फर्मों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है। कई विद्वानों का मत है कि एकाधिकार का अस्तित्व समाज के लिए लाभकारी होता है।

RBSE Class 12 Economics Notes Chapter 6 प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार

→ अन्य पूर्ण प्रतिस्पर्धारहित बाजार

  • एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा-इस बाजार में फर्मों की संख्या काफी अधिक होती है और फर्मों का निर्बाध प्रवेश और बहिर्गमन होता है, किन्तु उनके द्वारा उत्पादित वस्तु सजातीय नहीं होती है। प्रत्येक विक्रेता की वस्तु अन्य विक्रेता से किसी न किसी रूप में भिन्न होती है। इस बाजार में कीमत पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तुलना में ऊँची होती है।
  • अल्पकाल में फर्म कैसे व्यवहार करती है?-यदि किसी वस्तु विशेष के बाजार में एक से अधिक विक्रेता हों, किन्तु विक्रेताओं की संख्या अल्प हो.तो उस बाजार संरचना को अल्पाधिकार कहते हैं। अल्पाधिकार की एक विशेष स्थिति जिसमें केवल दो विक्रेता होते हैं, उसे द्वि-अधिकार कहते हैं। द्वि-अधिकार के विषय में निम्नलिखित बातें महत्त्वपूर्ण हैं
    • दोनों फर्मे आपस में प्रतियोगिता न करने का निर्णय कर सकती हैं। ऐसी अवस्था में दोनों फर्मों का लाभ अधिकतम हो जाता है।
    • दोनों फर्मों में से प्रत्येक फर्म यह निर्णय ले लेती है कि प्रत्येक को कितना उत्पादन करना है।
    • कई अर्थशास्त्रियों का मत है कि द्वि-अधिकार में माँग में परिवर्तन होने पर बाजार कीमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
Prasanna
Last Updated on Jan. 22, 2024, 9:36 a.m.
Published Jan. 21, 2024