Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi Vitan Chapter 2 राजस्थान की रजत बूँदें Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
राजस्थान में कुंई किसे कहते हैं ? इसकी गहराई और व्यास तथा सामान्य कुओं की गहराई और व्यास में क्या अंतर होता है?
उत्तर :
कुंई यानी बहुत छोटा सा कुआँ। राजस्थान में विशेषतः मरुभूमि वाले क्षेत्रों में पीने के पानी की समस्या के निवारणार्थ कुंइयाँ बनायी जाती है। अमत जैसा मीठा पानी प्रदान करने वाली कंई का व्यास तो चार-पाँच हाथ का ही होने से इसका मुँह तो बहुत छोटा होता है, परंतु इसे खोदते समय 30 से 60 हाथ की गहराई तक खोदा जाता है। अतः कुआँ और कुंई गहराई में तो लगभग समान होते हैं, परन्तु व्यास में कुंई कुएँ से बहुत छोटी होती है। कुएँ का व्यास जहाँ 15 से 20 हाथ का होता है, वहीं कुंई का व्यास केवल चार-पाँच हाथ का ही होता है।
प्रश्न 2.
दिनोंदिन बढ़ती पानी की समस्या से निपटने में यह पाठ आपकी कैसे मदद कर सकता है? तथा देश के अन्य राज्यों में इसके लिये क्या उपाय हो रहे हैं ? जाने और लिखें?
उत्तर :
लेखक ने इस पाठ में दर्शाया है कि किस प्रकार चेजारो अपनी जान की बाजी लगाकर कुंई निर्माण का कठिनतम कार्य करते हैं, जिससे वर्षा के जल की एक-एक बँद का संग्रह हो सके। दिनोदिन बढ़ती पानी की समस्या से निपटने के लिये ऐसे अनेक प्रयास किये जा रहे हैं, अतः हमें भी पानी की एक-एक बूंद का महत्व समझना चाहिये और पानी को व्यर्थ नहीं बहाना चाहिये।
इस पाठ के माध्यम से लेखक ने बतलाया है कि पानी के संग्रह के उपायों पर जोर दिया जाना चाहिये और पानी का समुचित उपयोग किया जाना चाहिये, तभी हम भविष्य में होने वाली पानी की समस्या से छुटकारा पा सकते हैं। अन्य राज्यों द्वारा किये जा रहे उपाय-राजस्थान के अलावा देश के अन्य राज्यों में भी दिनोंदिन बढ़ती पानी की समस्या से निपटने के लिये अनेक प्रकार के उपाय किये जा रहे हैं।
दक्षिण भारतीय राज्यों में पानी का संग्रह बड़े-बड़े पथरीले जलाशयों में किया जाता है, तो मुम्बई की एलीफेंटा-गुफाओं में पहाड़ों की ऊँचाई से नीचे गुफा-तल तक नाली सी काटकर एक चौकोर कुएँनुमा स्थान पर वर्षाजल एकत्र करने का उदाहरण भी द्रष्टव्य है। कई स्थानों पर कुंई की तकनीक का प्रयोग भी कारगर सिद्ध हो रहा है।
प्रश्न 3.
चेजारो के साथ गाँव समाज के व्यवहार में पहले की तुलना में आज क्या फर्क आया है ? पाठ के आधार पर बताइये?
उत्तर :
कुंई का निर्माण करने वाले चेजारो के साथ गाँव-समाज के व्यवहार में पहले की तुलना में आज बहुत फर्क आ गया है। पहले जहाँ काम के पहले दिन से ही इन चेजारों का विशेष ध्यान रखा जाता था और काम पूरा होने पर विशेष भोज का आयोजन होता था। यही नहीं, विदाई के समय इन्हें तरह-तरह के उपहार दिये जाते थे तथा वर्ष-भर के तीज-त्योहारों, विवाह आदि मंगल अवसरों पर भी चेजारो विभिन्न प्रकार की भेंट प्राप्त करते थे। और तो और फसल आने पर खलिहान में भी उनके नाम से अनाज का एक अलग ढेर रख लिया जाता था। वहीं आज लोग चेजारो के जान की बाजी लगाने वाले कठिन कार्य व परिश्रम के बदले उन्हें मजदूरी (दाम) देकर उनसे सदा के लिये सम्बन्ध समाप्त कर लेते हैं।
प्रश्न 4.
निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में कुंइयों पर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है। लेखक ने ऐसा क्यों कहा होगा?
उत्तर :
इस कथन से लेखक का अभिप्राय यह है कि कुंई के निजी होने पर भी केवल उसे बनाने और उससे पानी लेने का ही उस व्यक्ति का हक है, परन्तु कुंई जिस क्षेत्र में बनती है वह गाँव-समाज की सार्वजनिक जमीन होती है अत: कुंई पर गाँव समाज का अंकुश लगा रहता है। बहुत जरूरत पड़ने पर ही समाज नई कुंई के लिये अपनी स्वीकृति देता है, क्योंकि क्षेत्र में जितनी ज्यादा कुंइयाँ होंगी, उतना ही अधिक भूमिगत नमी या दूसरी कुइयों के जल का बँटवारा होगा। इस प्रकार कुंइयों के नव-निर्माण व उपयोग आदि पर ग्राम-समाज का पूर्ण नियंत्रण रहने से निजी होते हुए भी कुंइयाँ सार्वजनिक सम्पत्ति बन जाती हैं।
प्रश्न 5.
कुंई निर्माण से सम्बन्धित निम्न शब्दों के बारे में जानकारी प्राप्त करें-पालरपानी, पातालपानी, रेजाणीपानी।
उत्तर :
मरुभूमि के समाज ने पानी को तीन रूपों में बाँटा है -
1. पहला रूप है पालरपानी-यह पानी सीधे बरसात से मिलता है। यह धरातल पर बहता है और इसे नदी, तालाब आदि में रोका जाता है।
2. पातालपानी-पानी का दूसरा रूप पातालपानी वही भूजल है जो कुओं में से निकाला जाता है। 3. रेजाणीपानी-पालरपानी और पातालपानी के बीच का पानी। तीसरा रूप रेजाणीपानी वह पानी है, जो कि धरातल से नीचे तो उतरता है, परंतु पाताल में नहीं मिल पाता है।
रेजाणीपानी खड़िया पट्टी के कारण पातालपानी से अलग बना रहता है। इस पट्टी के अभाव में रेजाणीपानी धीरे-धीरे जाकर पातालपानी में मिलकर अपना विशिष्ट रूप खो देता है। यदि किसी जगह भूजल, पातालपानी खारा है तो रेजाणीपानी भी उसमें मिलकर खारा हो जाता है। कुंई इस विशिष्ट रेजाणीपानी को ही समेटने का कार्य करती है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1.
चेजा व चेजारो (चेलवांजी) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
कुंई की खुदाई और एक विशेष तरह की चिनाई करने का काम चेजा कहलाता है और इस काम को करने में दक्षतम लोगों को चेजारो या चेलवांजी कहा जाता है। चेलवांजी अपनी जान को खतरे में डालकर कंई निर्माण का क वाजा कहा जाता है। चेलवांजी अपनी जान को खतरे में डालकर कुंई निर्माण का कठिनतम कार्य करते हैं।
प्रश्न 2.
राजस्थान में कुंइयाँ क्यों बनाई जाती हैं ?
उत्तर :
राजस्थान में मरुभूमि में रेत का विस्तार और गहराई अथाह है। यहाँ वर्षा न के बराबर होती है। यदि कभी वर्षा अधिक मात्रा में हो भी जाये तो उसे भूमि में समा जाने में देर नहीं लगती। अतः यहाँ पीने के पानी की समस्या बनी रहती है। बड़े कुओं में पानी तो डेढ़ सौ, दो सौ हाथ पर निकल आता है पर वह प्रायः खारा होता है। इसलिये पीने के काम में नहीं आ सकता। तब इन क्षेत्रों में अमृत जैसा मीठा जल प्रदान करने वाली कुंइयाँ बनाई जाती हैं, जिनसे पीने के पानी की समस्या हल हो सके। कुंई वर्षा के जल को बड़े विचित्र ढंग से समेटती है, जब वर्षा नहीं होती, तब भी।
प्रश्न 3.
कुंई की सफलता यानी सजलता उत्सव का अवसर किस प्रकार बन जाती है ?
उत्तर :
कुंई का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर गाँव में विशेष भोज का आयोजन होता है। विदाई के समय चेलवांजी को तरह-तरह की भेंट दी जाती है। यही नहीं वर्ष-भर के तीज-त्योहारों, विवाह आदि मंगल अवसरों पर भी उन्हें उपहार दिये जाते हैं। फसल आने पर खलिहान में भी उनके नाम से अनाज का एक अलग ढेर लगता है।
प्रश्न 4.
लेखक ने कुंई की तुलना हर दिन सोने का एक अंडा देने वाली मुर्गी से क्यों की है ?
अथवा गोधूलि बेला में कुंइयों पर मेला सा क्यों लग जाता है ?
उत्तर :
जिस प्रकार सोने का अंडा देने वाली मुर्गी अत्यन्त लाभकारी होती है, परन्तु प्रतिदिन केवल एक ही अंडा देती है, उसी प्रकार अमृतमय जल प्रदान करने वाली कुंई से दिनभर में बस दो-तीन घड़ा मीठा पानी ही निकाला जा र गाँव गोधूलि बेला में कुंइयों पर आता है और तब यहाँ इतनी भीड़ होती है कि मानो मेला लग जाता है।
प्रश्न 5.
कुंई और कुएँ में क्या-क्या अंतर होते हैं ? पाठ के आधार पर लिखिए।
उत्तर :
कुंई नाम से लगता है कि वह एक बहुत छोटा-सा कुआँ है। कुंई में कुएँ की अपेक्षा पहला अंतर उसका व्यास में कम होना है। इसके अतिरिक्त कुएँ का निर्माण भूजल पाने के लिए होता है। कुंई भूजल से कुएँ की तरह नहीं जुड़ती। कुंई वर्षा के जल को कुछ नए ही ढंग से समेटती है। वर्षा न होने पर भी उसका यह काम जारी रहता है। कुंई में न तो पूरी तरह सतह पर बहने वाला पानी होता है और न पूरी तरह भूजल ही होता है। लेखक भी इस पहेली को अनसुलझी ही छोड़ देता है।
प्रश्न 6.
'खड़िया-पट्टी' के अन्य नाम क्या-क्या हैं ?
उत्तर :
अलग-अलग जगहों पर खड़िया पट्टी के अलग-अलग नाम हैं। कहीं यह चारोली है, तो कहीं धाधड़ो, कहीं इसे 'धड़धड़ो' कहा जाता है, तो कहीं पर यह बिट्ट रो बल्लियों के नाम से भी जानी जाती है। कहीं पर तो इसका नाम केवल ‘खड़ी' भी है।
निबन्धात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1.
कुंई का मुँह छोटा रखने के क्या कारण हैं ?
उत्तर :
कुंई का मुँह छोटा रखने के तीन कारण हैं -
1. छोटे व्यास में पानी की ऊँचाई बढ़ जाने से पानी आसानी से निकाला जा सकता है।
2. दूसरा कारण है-अत्यधिक गर्मी पड़ना। तेज गर्मी के प्रकोप से कुंई के फैले हुए जल का भाप बनकर उड़ जाना आसान हो जायेगा। छोटा मुँह होने पर ऊपर की गर्मी का असर गहराई में स्थित जल पर नहीं पड़ेगा और उसकी मात्रा सुरक्षित रहेगी।
3. पीने के पानी को शुद्ध बनाये रखने के लिये उसे ढकना अति आवश्यक है। छोटा मुँह है लिये से टकना अति आवश्यक है। छोटा मुँह होने से कई को ढकना अत्यन्त सरल हो जाता है।
प्रश्न 2.
क्या कुंई प्रत्येक स्थान पर बनाई जा सकती है ? इसकी निर्माण की प्रक्रिया बताइए।
उत्तर :
कुंई केवल उसी स्थान पर बनाई जा सकती है, जहाँ रेत के नीचे खड़िया की पट्टी हो। इसी कारण कुंई राजस्थान के सभी हिस्सों में नहीं मिलेगी। राजस्थान के चुरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर के कई क्षेत्रों में यह पट्टी चलती है और इसी कारण वहाँ गाँव-गाँव में कुंइयाँ ही कुंइयाँ हैं। जैसलमेर जिले के एक गाँव खड़ेरों की ढाणी में तो एक सौ बीस कुंइयाँ थीं। इस कारण लोग इस क्षेत्र को छह-बीसी (छह गुणा बीस) के नाम से जानते थे। कहीं-कहीं कुंई को ‘पार' भी कहते हैं। जैसलमेर और बाड़मेर के कई गाँव पार (कुंई) के कारण ही आबाद हैं और इसलिये उन गाँवों के नाम भी पार पर ही हैं। जैसे-जानरे आलो पार और सिरगु आलो पार।
राजस्थान में कुंई का निर्माण करने वाले लोगों को चेलवांजी या चेजारो कहा जाता है। चेजारो भूमि की गर्मी सहन करते हुए भीड़-भरी जगह में कुंई का निर्माण करते हैं। भीतर से नीचे मिट्टी की खुदाई बसौली से की जाती है। खुदी हुई मिट्टी को बाल्टी के सहारे ऊपर भेज दिया जाता है। बीच-बीच में नीचे की गर्म हवा को बाहर निकालने के लिये ऊपर से मुट्ठी भर-भर कर रेत झटके से भीतर फेंकी जाती है। इस प्रकार चेलवांजी जान को खतरे में डालकर दूसरों की प्यास बुझाने के लिये अमृतमय जल की स्त्रोत कुंई का निर्माण करते हैं।
पाठ का सारांश :
'राजस्थान की रजत बूंदें' शीर्षक पाठ में 'अनुपम मिश्र ने राजस्थान की मरुभूमि में अमृतरूपी जल प्रदान करने वाली कुंई की संरचना, निर्माण, रख-रखाव व इसके फायदों को निम्न बिन्दुओं के माध्यम से अत्यन्त सरल भाषा में व्यक्त किया है मरुभूमि में अमृत जैसे मीठे पानी का मूल स्त्रोत 'कुंई' रेगिस्तान में रेत-ही-रेत है। वर्षा भी न के बराबर होती है। कभी वर्षा संभावना से अधिक हो भी जाए, तो रेत उसे सोख लेती है। पीने का पानी प्राप्त करने के लिये लोग यहाँ पर प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग कर अपने जीवन को सुखमय बना रहे हैं।
ऐसे क्षेत्रों में बड़े कुएँ खोदते समय मिट्टी में हो रहे परिवर्तन से खड़िया पट्टी का पता चलता है। बड़े कुओं में पानी तो डेढ़ सौ-दो सौ हाथ पर निकल आता है, परन्तु वह खारा होने के कारण पीने के काम नहीं आ सकता बस तब इन क्षेत्रों में 'कुंइयाँ' बनाई जाती हैं, जिससे अमृत जैसा मीठा पानी प्राप्त होता है। जहाँ रेत के नीचे खड़िया की पट्टी होगी, वहीं कई का निर्माण हो सकता है।
'कुंई' कुएँ से बिलकुल अलग-'कुंई' को हम छोटा-सा कुआँ कह सकते हैं, क्योंकि यह व्यास में कुएँ से बहुत ही छोटी होती है। कुएँ का व्यास जहाँ 15 से 20 हाथ का होता है, वहीं कुंई का व्यास केवल चार-पाँच हाथ ही होने से इसका मुँह भी बहुत छोटा होता है।
कुंई एक और अर्थ में कुएँ से बिलकुल अलग है। कुआँ भूजल को पाने के लिये बनता है पर कुंई भूजल से ठीक वैसे नहीं जुड़ती, जैसे कुआँ जुड़ता है। कुंई वर्षा के जल को बड़े ही विचित्र ढंग से समेटती है, वर्षा होती है तब भी और नहीं होती है तब भी परन्तु गहराई में कुंई व कुआँ लगभग समान ही होते हैं।
चेंजा व चेजारो(चेलवांजी)-कुंई की खुदाई और एक विशेष तरह की चिनाई करने का काम 'चेंजा' कहलाता है और यह कार्य करने में दक्षतम लोग 'चेजारो' या 'चेलवांजी' कहलाते हैं।
कंई का निर्माण चेजारो ही करते हैं। " पानी के तीन रूप-मरुभूमि के समाज के लिये उपलब्ध पानी को तीन रूपों में बाँटा जा सकता है - 1. पालरपानी, 2. पातालपानी, 3. रेजाणीपानी। सीधे बरसात से मिलने वाला पानी 'पालरपानी' है। यह धरातल पर बहता है और इसे नदी, तालाब आदि में रोका जाता है।
कुओं में से निकाला जाने वाला भूजल पातालपानी' है। धरातल से नीचे उतरा लेकिन पाताल में न मिल पाया। पालरपानी और पातालपानी के बीच का पानी का तीसरा रूप रेजाणीपानी' है।
कुंई निर्माण की प्रक्रिया - श्रेष्ठतम चिनाई 'कुंई' का प्राण है। हर दिन थोड़ी-थोड़ी खुदाई होती है, डोल से मलबा निकाला जाता है और फिर आगे की खुदाई रोककर अबतक हो चुके काम की चिनाई की जाती है, ताकि मिट्टी भसके, धंसे नहीं। चेजारो भूमि की गर्मी सहन करते हुए भीड़ भरी जगह में कुंई का निर्माण करते हैं। भीतर से नीचे मिट्टी की खुदाई बसौली से की जाती है। खुदी हुई मिट्टी को बाल्टी के सहारे ऊपर भेज दिया जाता है। बीच-बीच में नीचे की गर्म हवा को बाहर निकालने के लिये ऊपर से मुट्ठी भर-भर कर रेत झटके से भीतर फेंकी जाती है। इस प्रकार चेजारो अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरों की प्यास बुझाने के लिये अमृतरूपी जल की स्त्रोत कुंई का निर्माण करते हैं।
कंई के निर्माणोपरान्त उत्सव व आयोजन तथा चेलवांजी का सम्मान कुंई का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर विशेष भोज का आयोजन होता है। यद्यपि पहले दिन से ही काम करने वालों का विशेष ध्यान रखा जाता है, तथापि विदाई के समय चेलवांजी को तरह-तरह की भेंट दी जाती है, और उन्हें वर्ष-भर के तीज-त्योहारों व विवाह आदि मंगल अवसरों पर भी नेग, भेंट आदि दी जाती है। यही नहीं फसल आने पर उनके नाम से अनाज का एक अलग ढेर भी रख लिया जाता है।
कुंई का मुंह छोटा रखने के कारण-कुंई का मुँह छोटा रखने के तीन प्रमुख क रण हैं -(i) छोटे व्यास में पानी की ऊँचाई बढ़ जाती है। आराम से पानी निकाला जा सकता है। (ii) दूसरा कारण है--अत्यधिक गम का पड़ना। तेज गर्मी से कुंई का फैला हुआ जल आसानी से भाप बनकर उड़ जायेगा, परन्तु छोटा मुँह होने से ऊपर की गर्मी का असर गहराई में स्थित जल पर नहीं पड़ेगा और उसकी मात्रा सुरक्षित रहेगी। (iii) पीने के पानी को शुद्ध बनाये रखने के लिये उसे ढकना अति आवश्यक है। ढंकने के उद्देश्य से छोटे मुँह का होना अत्यन्त लाभकारी सिद्ध होता है।
'कुंई' एक सार्वजनिक सम्पत्ति - राजस्थान के खड़िया-पत्थर वाले क्षेत्र में लगभग हर घर में कुंई मिल जाती है। सबकी निजी कुंई होते हुए भी यह सार्वजनिक सम्पत्ति मानी जाती है। इन पर ग्राम-समाज का अंकुश रहता है। किसी नई कुई के लिये स्वीकृति अब कम ही दी जाती है, क्योंकि इससे भूमि की नमी का अधिक विभाजन होता है। जितनी अधिक कुंइयाँ होंगी, उतना ही नमी का बँटवारा होगा और इसका सीधा प्रभाव जल-स्तर पर पड़ता है। - गोधूलि वेला में कुंइयों पर मेला (भीड़)-कुंई से दिन-भर में केवल दो-तीन घड़ा मीठा पानी ही निकाला जा सकता है। इसीलिये प्रायः पूरा गाँव गोधूलि वेला में कुंइयों पर आता है। तब मानो मेला-सा लग जाता है।
'कुंई के लिये प्रसिद्ध क्षेत्र 'कुँई' पूरे राजस्थान में तो नहीं मिलेगी। यह तो केवल उन्हीं क्षेत्रों में मिल सकती है, जहाँ रेत के नीचे खड़िया की पट्टी हो। - चुरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर के कई क्षेत्रों में यह पट्टी चलती है और इसी कारण वहाँ गाँव-गाँव में कुंइयाँ ही कुंइयाँ हैं।
जैसलमेर जिले के एक गाँव 'खडेरो की ढाँणी' में तो 120 कुंइयाँ थी, अत: लोग इस क्षेत्र को छह-बीसी (छह गुणा बीस) के नाम से जानते थे। कहीं-कहीं इन्हें 'पार' भी कहते हैं। कुंइयों के पास गाँव भी आबाद हैं और इसलिये उन गाँवों के नाम भी 'पार' पर ही हैं; जैसे - जानरे आलो पार, सिरगु आलो पार। पार कुंई को ही कहा जाता है। खड़िया पट्टी के विभिन्न नाम-अलग-अलग स्थानों पर खड़िया पट्टी के भी अलग-अलग नाम हैं। कहीं पर 'चारोली' है, तो कहीं 'धाधड़ो', धड़धड़ो तो कहीं पर 'बिट्ट रो बल्लियों के नाम से भी जानी जाती है। कहीं तो इस पट्टी का नाम केवल 'खड़ी' भी है।
कठिन शब्दार्थ :