Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi Aroh Chapter 11 हम तौ एक एक करि जांनां, संतों देखत जग बौराना Textbook Exercise Questions and Answers.
The questions presented in the RBSE Solutions for Class 11 Hindi are solved in a detailed manner. Get the accurate RBSE Solutions for Class 11 all subjects will help students to have a deeper understanding of the concepts.
पद के साथ -
प्रश्न 1.
कबीर की दृष्टि में ईश्वर एक है। इसके समर्थन में उन्होंने क्या तर्क दिये हैं?
उत्तर :
कबीर की दृष्टि में ईश्वर एक है। इसके समर्थन में कबीर ने निम्नलिखित तर्क दिये हैं -
प्रश्न 2.
मानव-शरीर का निर्माण किन पंच तत्वों से हुआ है?
उत्तर :
मानव-शरीर का निर्माण पंच तत्वों से हुआ है, वे तत्व हैं -
प्रश्न 3.
जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनिन काटे कोई।
सब घटि अंतरितूंही व्यापक धरै सरूपै सोई॥
इस आधार पर बताइये कि कबीर की दृष्टि में ईश्वर का क्या स्वरूप है?
उत्तर :
कबीर की दृष्टि में ईश्वर सर्वव्यापी और अविनाशी है। वह चराचर जगत् में उसी प्रकार समाया हुआ है, जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि समाई रहती है। जैसे लकड़ी के काटे जाने पर उसमें समाई हुई अग्नि नहीं कटती उसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थ नश्वर हैं, वे नष्ट हो सकते हैं, किन्तु उसमें व्याप्त ईश्वर अनश्वर है और संसार में विविध स्वरूपों में दिखाई देता है। मनुष्य का शरीर मर जाता है, किन्तु उसमें विद्यमान परमात्मा का अंश-आत्मा कभी नहीं मरती।
प्रश्न 4.
कबीर ने अपने को दीवाना क्यों कहा है ?
उत्तर :
कबीर ने स्वयं को दीवाना कहा है। ईश्वरीय सत्ता का साक्षात्कार होने से कबीर परमात्मा के दीवाने हो गए हैं। वे संसार के हानि-लाभ, यश-अपयश, जीवन-मरण, राग-द्वेष से सर्वथा ऊपर हो गए हैं। उनको 'जित देखो तित तू ही दिखाई देता है। ईश्वर के प्रति उनकी इसी लगन ने कबीर को परमात्मा का.दीवाना बना दिया है।
प्रश्न 5.
कबीर ने ऐसा क्यों कहा है कि संसार बौरा गया है?
उत्तर :
कबीर कहते हैं कि लोग पाखण्डी अज्ञानी धार्मिकों की बातों पर तो भरोसा करते हैं, किन्तु जब कोई उनको ईश्वरीय सत्य का ज्ञान कराता है तो वे उसको मारने दौड़ पड़ते हैं। अन्ध-विश्वास, धार्मिक दिखावा और आडम्बर उनको आकर्षक लगता है। पत्थर की मूर्ति की पूजा, कुरान का पाठ, दम्भपूर्वक ध्यान-मुद्रा में बैठना, पीपल आदि वृक्षों का पूजन करना, तीर्थ-यात्रा पर गर्व करना, सिर पर टोपी तथा गले में माला पहनना और माथे पर तिलक-छापे लगाना, साखी-सबदों का गायन करना, राम और रहीम को अलग मानकर हिन्दू-मुसलमानों का आपस में लड़ना, ये सभी उनको प्रिय और सच्चा धर्म प्रतीत होते हैं। वे ईश्वर को सहज प्रेम से पाने का प्रयास नहीं करते। यह सब देखकर कबीर को लगता है कि यह संसार बौरा गया है।
प्रश्न 6.
कबीर ने नियम और धर्म का पालन करने वाले लोगों की किन कमियों की ओर संकेत किया है ?
उत्तर :
परम्परागत नियमों तथा धर्म का पालन करने वाले लोगों को सच्चा ज्ञान नहीं है। वे प्रात:काल स्नान करके स्वयं को . पवित्र हुआ मान लेते हैं, परन्तु उनका मन ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार आदि दुर्गुणों के कारण अपवित्र बना रहता है। वे सर्वव्यापी निर्गुण ईश्वर की उपासना करने के स्थान पर पत्थर की मूर्तियों का पूजन करते हैं। वे अपने अन्दर स्थित परमात्म-स्वरूप आत्मा का हनन करते रहते हैं।
प्रश्न 7.
अज्ञानी गुरुओं की शरण में जाने पर शिष्यों की क्या गति होती है?
उत्तर :
यदि गुरु अज्ञानी है तो वह शिष्य को क्या ज्ञान देगा? वह जो कुछ शिक्षा देगा उससे तो शिष्य के मन में अज्ञान और भ्रम की वृद्धि ही होगी। ऐसे अज्ञानी गुरु के अज्ञानी शिष्य अपने गुरु के साथ-साथ भवसागर में डूब जाते हैं। कहा भी है-'लोभी गुरु लालची चेला, दोनों नरक में ठेलमठेला।'
प्रश्न 8.
बाह्याडम्बरों की अपेक्षा स्वयं (आत्म)को पहचानने की बात किन पंक्तियों में की गयी है। उन्हें अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर :
बाह्याडम्बरों की अपेक्षा स्वयं (आत्म) को पहचानने की बात निम्नलिखित.पंक्तियों में कही गई है -
ईश्वर-प्राप्ति के लिए लोग ध्यान लगाते हैं और अपने इस प्रयास पर गर्व करते हैं। वे पेड़ और पत्थर की मूर्तियों की पूजा करते हैं तथा तीर्थयात्रा पर घमण्ड करते हैं। वे सिर पर टोपी तथा गले में माला पहनते हैं और माथे पर छापे-तिलक लगाते हैं। वे साखी और सबद को गाते फिरते हैं। अज्ञानीजन इन सब बाह्य आडम्बरों को अपनाते हैं किन्तु वे स्वयं अर्थात् अपनी आत्मा को, जो ईश्वरीय अंश है, जानने का प्रयास नहीं करते। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर बाह्याडम्बरों की अपेक्षा स्वयं को पहचानने की बात कबीरदास जी की ही पंक्तियों में इस प्रकार कही गई है -
"कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना। केतिक कहौं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना।।"
पद के आस-पास -
शिक्षक महोदय की सहायता से स्वयं करें।
अति लघूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1.
"हमतौ एक-एक करिजांनां।"कबीर ने इस पंक्ति में क्या भाव व्यक्त किया है ?
उत्तर :
कबीर एकेश्वरवादी हैं। प्रस्तुत पंक्ति में कबीर ने बताया है कि ईश्वर एक ही है और वही समस्त सृष्टि का रचयिता है। संसार के प्रत्येक पदार्थ और प्राणी में उसी का स्वरूप दिखाई दे रहा है।
प्रश्न 2.
'दोजग' का क्या अर्थ है ? कबीर के मत में यह 'दोजग'किनके लिए है ?
उत्तर :
'दोजग' शब्द का अर्थ है-दोजख अर्थात् नरक। कबीर के मत में ईश्वर को दो या अनेक मानने वाले अज्ञानी हैं। वे ईश्वर और अल्लाह को अलग-अलग मानकर लड़ते हैं। ऐसे लोगों को नरक में जाना होगा। उनकी मुक्ति नहीं हो सकती।
प्रश्न 3.
"एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै कोहरा सांनां।" इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जिस प्रकार कुम्हार एक ही मिट्टी को सानकर उससे विभिन्न बर्तनों का निर्माण करता है, उसी प्रकार एक ही ईश्वर ने यहीं पच तत्वों द्वारा समस्त प्राणी जगत् को बनाया है।
प्रश्न 4.
'काष्ट' और 'अगिनि' के माध्यम से सन्त कबीर क्या संदेश देना चाहते हैं ?
उत्तर :
लकड़ी में अदृश्य रूप में अग्नि समाई रहती है। लकड़ी को काटे जाने से वह नहीं कटती। इसी प्रकार जीव के शरीर में ईश्वर व्याप्त है। शरीर नष्ट हो सकता है किन्तु आत्मा अविनाशी है। ज्ञानी व्यक्ति को सभी में उसी परमात्मा के दर्शन होते हैं।
प्रश्न 5.
'काहे रे नर गरबांनां।' इस पंक्ति में कबीर लोगों को क्या चेतावनी दे रहे हैं?
उत्तर :
कबीर लोगों को चेतावनी दे रहे हैं कि वे अज्ञान के कारण ईश्वर के सच्चे स्वरूप को नहीं पहचानते और माया-मोह से ग्रस्त रहते हैं। माया अर्थात् सांसारिक सुख और संपत्ति मिथ्या हैं। अत: इन पर गर्व करना मूर्खता है।
प्रश्न 6.
संसार का माया-मोह किसको नहीं व्यापता?
उत्तर :
जो लोग ईश्वर के सच्चे भक्त होते हैं, उनको निर्भीकता प्राप्त हो जाती है। संसार के माया-मोह उनको भयभीत नहीं करते, उनको नहीं व्यापते।
प्रश्न 7.
कबीर ने संसार को पागल कहा है, क्यों?
उत्तर :
यह संसार झूठी बातों और बाहरी आडम्बरों पर विश्वास करता है। सत्य को सुनना भी उसको अच्छा नहीं लगता। सत्य से विमुख और झूठ से प्रेम करने वाला यह संसार कबीर की दृष्टि में पागल है।
प्रश्न 8.
आतम मारि पखानहि पूजै'-प्रस्तुत पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
ईश्वर तो आत्मा के रूप में हमारे भीतर ही विद्यमान है किन्तु अज्ञानी लोग उसे ठुकराकर पत्थर की मूर्ति को ईश्वर मानकर पूजते हैं। अत: वे पागल हैं।
प्रश्न 9.
कबीर ने पीर-औलिया को ज्ञानशून्य क्यों कहा है ?
उत्तर :
पीर-औलिया इस्लाम के मानने वाले हैं, परन्तु 'एकेश्वर' पर भरोसा ही नहीं करते। ये कुरान पढ़ने-पढ़ाने और अपने मुरीदों को खुदा को प्राप्त करने के दिखावटी उपाय बताने को ही धर्म समझते हैं। एकमात्र खुदा पर विश्वास न करना ही उनका
अज्ञान है।
प्रश्न 10.
हिन्दू और मुसलमान आपस में क्यों लड़ते हैं?
उत्तर :
हिन्दू और मुसलमान धर्म के नाम पर आपस में लड़ते हैं। हिन्दुओं को राम प्यारा है तो मुसलमानों को रहीमा राम और रहीम तो एक ही हैं और वे सब उसी की सन्तानें हैं, यह सत्य वे समझ नहीं पाते।
प्रश्न 11.
'गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े-से कबीर का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
कबीर का कहना है कि अज्ञानी गुरु अपने शिष्यों का भला नहीं कर सकता, उनको सच्चा मार्ग नहीं दिखा सकता। अज्ञान के कारण वह स्वयं का तथा अपने शिष्यों के पतन का कारण बनता है।
प्रश्न 12.
कहा नहिं मानै'-प्रस्तुत पंक्ति के आधार पर बताइये कि कबीर का क्या कहना है? जिसे लोग नहीं मानते।
उत्तर :
कबीर लोगों को बाहरी आडम्बर त्यागकर, निर्गुण ईश्वर की उपासना का उपदेश देते हैं; जिसे धर्म के दिखावटी रूप से प्रभावित लोग नहीं मानते हैं।
प्रश्न 13.
कबीर की दृष्टि में ईश्वर-प्राप्ति का सरल उपाय क्या है?
उत्तर :
कबीर की दृष्टि में ईश्वर-प्राप्ति का सरल उपाय है-ईश्वर से सच्चा और स्वाभाविक प्रेम करना। इस सहज साधना द्वारा ईश्वर को सरलता से पाया जा सकता है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1.
संतो देखत जग बौराना"-पद में कबीर ने क्या संदेश दिया है ?
उत्तर :
कबीर समाज-सुधारक कवि थे। 'संतो देखत जग बौराना'-पद में भी कबीर ने यह बताया है कि माया का प्रभाव अत्यन्त प्रबल होता है। इसमें फंसे लोगों को सत्य प्रिय नहीं होता। धर्म के बाहरी आडम्बरपूर्ण स्वरूप को ही लोग सच्चा धर्म समझ लेते हैं। आत्म-शुद्धि के लिए प्रातः काल ही स्नान करना सच्चा धर्म नहीं है। ध्यान-मुद्रा में समाधि लेकर बैठने, टोपी-माला पहनने, तिलक-छापे लगाने और साखी सबद गाने से ईश्वर नहीं मिलता। ईश्वर तो एक है, राम-रहीम भी एक हैं। हिन्दू-मुसलमान सभी उसी एक ईश्वर की संतानें हैं। फिर धर्म के नाम पर लड़ना मूर्खता ही तो है। ईश्वर तो सहज प्रेम द्वारा,सरलता से प्राप्त हो सकता है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित सूक्तियों का केन्द्रीय भाव लिखिए -
(क) मर्मन काहू जानां।
(ख) सहजै सहज समाना।
उत्तर :
(क) मर्मन काह जाना - धर्म का मूल तत्व प्रेम और सहज जीवन बिताना है। इस बात को न तो हिन्दू समझते हैं और न मुसलमान। ईश्वर-अल्लाह एक है। हिन्दू-मुसलमान उसी एक ईश्वर की सन्तानें हैं। अतः एक-दूसरे के भाई हैं। धर्म के इस मर्म को दोनों ही नहीं समझते। वे तो धर्म के नाम पर एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहते हैं। धर्म के इस मर्म को कोई नहीं जानता, यह देखकर सन्त कबीर को दुःख होता है।
(ख) सहजै सहज समाना - लोग ईश्वर के सच्चे स्वरूप को नहीं जानते। टोपी-माला पहनने, तिलक-छापे लगाने, ध्यान मुद्रा में बैठने, धार्मिक पुस्तकें पढ़ने, भजन-कीर्तन करने, पत्थरों को पूजने आदि से ईश्वर को नहीं पाया जा सकता। ईश्वर के सहज स्वरूप को प्राप्त करने का सरल उपाय है उससे स्वाभाविक-सच्चा प्रेम करना। बाहरी आडम्बरों को छोड़कर ईश्वर के प्रति सच्चे समर्पण से ही वह प्राप्त होता है और सरलता से प्राप्त होता है।
प्रश्न 3.
'झूठे जग पतियाना'-इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कबीर कहते हैं कि संसार में झूठ की पूजा होती है। सत्य मार्ग पर चलने का साहस लोग नहीं दिखा पाते। ईश्वर को पाने के लिए लोग तरह-तरह के आडम्बर करते हैं। अज्ञानी गुरुओं द्वारा बताये भ्रष्ट मार्ग पर चलते हैं, शबद-कीर्तन करते हैं, पद गाते हैं, टोपी-माला पहनते हैं, तिलक-छापे लगाते हैं, कुरान-पुराण पढ़ते-पढ़ाते हैं, पत्थर की मूर्तियों को पूजते हैं और न जाने क्या-क्या ढोंग करते हैं। ईश्वर-प्राप्ति के लिए सहज-प्रेम-साधना उनको प्रिय नहीं लगती। सच्चा मार्ग बताने वाले को तो वे मारने दौड़ते हैं। इससे लगता है कि यह संसार पागल हो गया है।
प्रश्न 4.
सब घटि अंतरि तूंही व्यापका' प्रस्तुत पंक्ति का आशय लिखिए।
उत्तर :
कबीर का कहना है कि परमात्मा इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। संसार में अनेक पदार्थ तथा प्राणी हैं। सभी को बनाने वाला एक ही ईश्वर है। उस ब्रह्म का तेज प्रत्येक स्वरूप में दिखाई दे रहा है। जिस प्रकार लकड़ी में अग्नि अन्तर्निहित होती है, लकड़ी को काटने से अग्नि नहीं कटती और उसी लकड़ी में बनी रहती है, उसी प्रकार जीवों के अन्दर स्थित परमात्मा का अंश भी सदैव वहाँ रहता है।
प्रश्न 5.
हम तो एक-एक करिजांनां।' प्रस्तुत पंक्ति का भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
कबीर के मत में ईश्वर एक ही है और वही इस सृष्टि का रचयिता है। इस संसार की रचना एक ही पवन, एक ही जल, एक ही अग्नि, एक ही मिट्टी से हुई है। प्रत्येक प्राणी परमात्मा का स्वरूप है। अज्ञानी मनुष्य इस बात को नहीं समझता।
प्रश्न 6.
एकै खाक गढ़े सब भांडै'-इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कबीर एकेश्वरवादी हैं। वह मानते हैं कि इस सृष्टि के समस्त पदार्थों और प्राणियों का रचयिता वही एक ईश्वर है। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी को पानी मिलाकर सानता है और उससे अनेक प्रकार के बरतन बनाता है, उसी प्रकार परमात्मा ने पंचतत्वों को मिलाकर इस संसार के समस्त प्राणियों की रचना की है। प्रत्येक प्राणी में उसी ईश्वर का,तेज समाया हुआ है।
प्रश्न 7.
कबीर के कथन 'दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग' का आशय क्या है?
उत्तर :
कबीर का मानना है कि ईश्वर एक ही है। उसको दो या अनेक नहीं माना जा सकता। ईश्वर को अनेक मानना अज्ञानता और मूर्खता है। जो मनुष्य माया के वशीभूत हैं तथा भ्रम में पड़े हैं वही ईश्वर को दो मानते हैं। कबीर तो एक ही ईश्वर में विश्वास करते हैं और सबमें उसको ही देखते हैं। ईश्वर को दो मानने वाले कुपथगामी हैं और इसका दुष्परिणाम भी उनको भुगतना पड़ेगा। दोजख अथ परक उन्हीं के लिए बना है, उनको नरक-गमन का दण्ड भुगतना पड़ेगा।
प्रश्न 8.
पाठ्म में निर्धारित अंश के आधार पर कबीर की भाषा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। वे स्वयं मानते हैं-'मसि कागद छुयो नहिं कलम गहि नहि हाथ'। कबीर ने जो ज्ञान अर्जित किया था, वह सत्संग और पर्यटन से मिलने वाला ज्ञान था। विभिन्न स्थानों के भ्रमण तथा लोगों के सम्पर्क के कारण कबीर की काव्य-भाषा में अनेक भाषाओं के शब्द सम्मिलित हो गये हैं। साधुओं के साथ के कारण कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी' कहा गया है। उसको 'पंचमेल खिचड़ी' भी कहा जाता है।
कबीर ने स्वयं अपनी भाषा को पूर्वी माना है-'भाषा मेरी पूरबी।' जो रस और अलंकार उसमें है, वह अनायास ही आ गये हैं। किन्तु कबीर की भाषा में प्रवाह है तथा अपने विचारों और भावों को सफलतापूर्वक व्यक्त करने की शक्ति है। ईश्वर और आध्यात्मिकता के वर्णन के समय उसमें गाम्भीर्य है, तो सामाजिक कुरीतियों और पंडित-मौलवियों आदि के पाखण्ड का खण्डन करते समय उसमें व्यंग्य का पैनापन भी दिखाई देता है। जैसे -
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना॥
प्रश्न 9.
कबीर एक समाज सुधारक थे। उदाहरण देकर इस कथन को सिद्ध कीजिए।
उत्तर :
कबीर काशी में रहते थे। उनके समय समाज में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित थे। विभिन्न मतावलम्बियों तथा हिन्दू-मुसलमान आपस में लड़ते-मरते थे। अंधविश्वासों, पाखण्डों और बाह्याडंबरों का बोलबाला था। कबीर ने अपनी कविता के माध्यम से लोगों को इनसे मुक्ति की राह दिखाई तथा समाज को एकता, प्रेम और सद्भाव का संदेश दिया।
उन्होंने कहा कि प्रात:काल स्नान करने से मन शुद्ध नहीं होता। कुरान और धार्मिक पुस्तकों के पठन-पाठन से ईश्वर प्राप्त नहीं होता। ध्यान-मुद्रा में आसन लगाना, पीपल के पेड़ और पत्थर की मूर्तियों की पूजा करना, तीर्थ-यात्रा पर घमण्ड करना, तरह-तरह की टोपियाँ और मालाएँ पहनना तथा तिलक-छापे लगाना इत्यादि ढोंग हैं तथा धर्म और सच्ची ईश्वरोपासना से इनका कुछ भी लेना-देना नहीं है -
पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।
कबीर मानते हैं कि अज्ञानी गुरु और उसके शिष्यों का पतन हो जाता है। ये सब भ्रम में पड़े हैं और अन्त में पश्चात्ताप की आग में जलते हैं। ईश्वर तो सहज प्रेम से ही प्राप्त होता है।
प्रश्न 10.
कबीर के धर्म सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट कीजिए। उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर :
कबीर के समय में समाज में अनेक मत प्रचलित थे। उनके अनुसार ईश्वर अनेक थे तथा उनको प्राप्त करने के उपाय भी भिन्न-भिन्न थे, जो आडम्बरों पर आधारित थे। कबीर ने उन सभी को अज्ञान माना और निरर्थक बताया। कबीर मानते हैं कि ईश्वर निर्गुण और निराकार है। उसका अवतार नहीं होता। यही ईश्वर सृष्टि का रचयिता है तथा प्रत्येक पदार्थ और जीव-जन्तु में समाया है।
जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी सानकर तरह-तरह के बर्तन बनाता है, उसी तरह ईश्वर ने पाँच तत्वों से सृष्टि की रचना की है। 'एकै खाक गढ़े सब भांहै, एकै कोहरा सांना' लकड़ी में स्थित अग्नि की तरह ईश्वर सभी प्राणियों में व्याप्त है। ईश्वर की सच्ची भक्ति तथा प्रेम मनुष्य को माया-मोह से मुक्त करता है तथा उसे निर्भय बना देता है।
निबन्धात्मक प्रश्न -
प्रश्न :
यदि कबीर भारत में आज जीवित होते तो क्या अपने विचार स्वतन्त्रता और निर्भीकता के साथ प्रकट कर पाते? कल्पना पर आधारित उत्तर दीजिए।
उत्तर :
कबीर जिस समय काशी में रहते थे, उस समय भारत विभिन्न राजाओं द्वारा शासित था। अनेक मत-मतान्तर प्रचलित थे तथा उनके पीठाधीश तथा अनुयायी अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझते थे। अनेक पूजा-पद्धतियाँ थीं तथा अनेक देवी-देवता पूजे जाते थे। हिन्दू-मुसलमानों में भी झगड़े होते रहते थे। आज भारत में प्रजातन्त्रीय शासन हैं तथा देश एक संविधान के अनुसार शासित है। भारत में आज भी अनेक जातियाँ तथा मत हैं और उनमें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता नहीं है। हिन्दू-मुस्लिम समस्या तो आज भी है।
प्रजातन्त्र - राज्य होने के कारण भारत के नागरिकों को कुछ मूल अधिकार प्राप्त हैं, जिनमें अपनी बात बोलने और लिखने की स्वतन्त्रता भी है। इससे लगता है कि प्राचीन भारत की अपेक्षा आज देश में विचारों की आजादी अधिक है। कबीर स्वभाव से निर्भीक और अक्खड़ थे। वह बिना भयभीत हुए अपनी बात कह देते थे। वह मुसलमानों को उनके दोष बताते हुए कहते थे -
मुसलमान के पीर औलिया मुर्गा मुर्गी खाई
खाला केरी बेटी ब्याहैं, घरंहि में करें सगाई।
और हिन्दुओं को फटकराते थे -
वेश्या के पाँयन तर सौहें, यह देखो हिन्दुआई।
प्रजातन्त्र भारत में विचार स्वातंत्र्य केवल संविधान में ही दर्ज है। धर्म और जाति के नाम पर आलोचना सहन नहीं की जाती। तस्लीमा नसरीन को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा है और भारत में भी उसे बसने की अनुमति कुछ कट्टर लोगों के कारण नहीं मिली है। इसी प्रकार दूसरे सम्प्रदाय के कुछ कट्टर लोगों के कारण चित्रकार हुसैन को भारत से बाहर रहना पड़ रहा है। इस कारण मुझे लगता है कि कबीर को हिन्दू-मुसलमान दोनों के विरोध का सामना करना पड़ता।
हो सकता है उन पर हमला भी होता। सम्भवत: कबीर के समय में दूसरे की बात सुनने का धैर्य लोगों में आज की अपेक्षा अधिक था। उनकी प्रतिक्रिया हिंसापूर्ण, मार-काट और उपद्रव के रूप में नहीं होती थी। आज विरोध हिंसापूर्ण और जानलेवा होता है। विरोध विचार का नहीं व्यक्ति का होता है। अत: मेरे विचार से वह भी अपने विचार पूर्ण स्वतन्त्रता तथा निर्भीकता एवं बेबाकी के साथ प्रकट करते भले ही उन्हें इसका कुछ भी परिणाम भुगतना पड़ता।
कवि-परिचय :
कबीर का व्यक्तित्व महान् था। वह एक सन्त, समाज-सुधारक, श्रेष्ठ कवि और सच्चे ईश्वर-भक्त थे। सत्य के प्रति उनकी अपार निष्ठा थी तथा आडम्बर से वह कोसों दूर थे। आँखों देखे सत्य को प्रखर वाणी में निर्भीक होकर कहने वाले कबीर के समान हिन्दी में कोई दूसरा कवि नहीं हुआ है।
जीवन-परिचय - कबीर के जीवन से सम्बन्धित तथ्यों पर विद्वान एकमत नहीं हैं। माना जाता है कि कबीर का जन्म 1398 ई. में वाराणसी के पास लहरतारा (उ.प्र.) में एक जुलाहा परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम नीरू तथा माता का नाम नीमा था। जनश्रुति के अनुसार कबीर एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसने उनको लोक-लज्जा के कारण त्याग दिया था। नीमा-नीरू को ये मिले और उन्होंने इनका पालन किया। कबीर विवाहित थे। कबीर ने स्वीकार किया है-“नारी तो हम हूँ करी"! इनकी पत्नी का नाम लोई था। इनके पुत्र का नाम कमाल तथा पुत्री का नाम कमाली था। कुछ विद्वानों के मतानुसार कबीर का विवाह नहीं हुआ था। कबीर के गुरु उस समय के प्रसिद्ध सन्त स्वामी रामानन्द थे। अधिकतर विद्वान् मानते हैं कि सन् 1518 में कबीर ने मगहर में जाकर प्राण त्यागे थे। कबीर इस मान्यता का खण्डन करना चाहते थे कि काशी में मृत्यु होने पर स्वर्ग तथा मगहर में मरने पर नरक की प्राप्ति होती है।
साहित्यिक परिचय - कबीर भक्तिकाल की निर्गुणोपासक धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। सन्त कवि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने स्वयं यह बात स्वीकार की है-'मसि कागद छुयो नहीं, कलम गहि नहि हाथ'। कबीर ने पर्यटन और सत्संग से ज्ञान प्राप्त किया था। इसी कारण उनकी भाषा में अनेक प्रान्तीय भाषाओं के शब्द हैं। उनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' तथा 'सधुक्कड़ी' कहा जाता है। कबीर की शैली उपदेशात्मक है और उसमें व्यंग्य तथा प्रतीक का पुट उसको मोहक बनाता है। कबीर की कविता उनके हृदयगत भावों की सहज अभिव्यक्ति है।
कबीर ने कविता लिखने के विचार से कुछ नहीं लिखा, अपनी रचनाओं को स्वयं लिपिबद्ध भी नहीं किया। कबीर को अलंकार, रस, छन्द आदि का ज्ञान भी नहीं था, किन्तु उनकी कविता का प्रभाव पाठक के मन पर सीधा और गहरा होता है। कबीर जो कुछ कहते हैं उसे पूरे विश्वास और दृढ़ता के साथ कहते हैं। अपनी बात को स्पष्ट और प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त करने के कारण ही कबीर को प्रसिद्ध समालोचक डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'वाणी का डिक्टेटर' कहा है। - कबीर की कविता में दो प्रवृत्तियाँ हैं। पहली प्रवृत्ति है - गुरु-महिमा तथा परमात्मा की भक्ति। कबीर के मत में गुरु ही ईश्वर की प्राप्ति का माध्यम है। कबीर ईश्वर के निराकार स्वरूप के उपासक हैं।
उनकी कविता में प्रयुक्त शब्द राम, मुरारी आदि निराकार ईश्वर को व्यंजित करते हैं। कबीर एकेश्वरवादी हैं, अद्वैत में विश्वास करते हैं। परमात्मा को पति तथा आत्मा को पत्नी रूप में प्रस्तुत . करके कबीर ने रहस्यवाद की सृष्टि की है। साधना के क्षेत्र में वह हठयोग से प्रभावित हैं। उनकी कविता की दूसरी प्रवृत्ति है-कबीर का समाज-सुधारक स्वरूप। इसमें कबीर की वाणी का ओज, तर्कशीलता तथा आत्मविश्वास का प्रबल स्वरूप दिखाई देता है। धर्म के नाम पर प्रचलित विश्वासों तथा पाखण्ड का खण्डन करते समय कबीर की निर्भीकता दर्शनीय होती है। ‘जो तू तुरक तुरकिनी जाया, आन मार्ग तें क्यों नहिं आया।
रचनाएँ - माना जाता है कि कबीर ने 'अगाध मंगल', 'उग्र गीता', 'कबीर की वाणी', 'अनुराग सागर', 'अमर मूल', 'विवेकसागर', 'शब्दावली' इत्यादि अनेक ग्रन्थों की रचना की थी, परन्तु इन रचनाओं को प्रामाणिक नहीं माना जाता है। कबीर की कविता का संग्रह 'बीजक' नाम से प्रसिद्ध है। इसमें साखी, सबद और रमैनी संकलित हैं।
सप्रसंग व्याख्याएँ एवं अर्थग्रहण तथा सौन्दर्य-बोध पर आधारित प्रश्नोत्तर -
1. हम तौ एक एक करि जांनां।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां॥
एकै पवन एक ही पानी एकै जोति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भाई एकै कोहरा सांना॥
जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटे कोई।
सब घटि अंतरि तुंही व्यापक धरै सरूपै सोई।।
माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां।
निरभै भया कछु नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां।
शब्दार्थ :
संदर्भ तथा प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित कबीरदास के पदों से लिया गया है। इस पद में कबीरदास ने 'परमात्मा एक ही है' इस सत्य को अनेक तर्कों से सिद्ध किया है।
व्याख्या - कबीर कहते हैं कि ईश्वर अनेक नहीं हो सकते। वह एक ही है और हम भी उस एक को एक ही मानते हैं। जिन्होंने इस सत्य को नहीं पहचाना है उन्हीं को नरक में जाना पड़ता है। जो लोग नाम और धर्म के आधार पर ईश्वर को अनेक बताते हैं उन्हीं की मुक्ति नहीं होती। उस ईश्वर ने ही इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की है और इसके प्रत्येक पदार्थ में उसी ईश्वर के दर्शन हो रहे हैं।
जो ईश्वर को और जगत् को दो और अलग-अलग मानते हैं, उनको तो नरक में जाना होगा। ऐसे लोग अज्ञानी हैं और सत्य को नहीं पहचानते हैं। एक ही वायु, एक ही पानी और एक ही ज्योति सबमें समायी हुई है। एक ही कुम्हार ने मिट्टी को सानकर सभी बरतनों की रचना की है अर्थात् उसी एक परमात्मा ने एक ही दिव्य पदार्थ (पंचतत्व) से समस्त पदार्थों तथा जीवों को बनाया है। जिस प्रकार बढ़ई लकड़ी को काटकर अलग कर देता है परन्तु उसमें निहित अग्नि को नहीं काट सकता। इसी प्रकार जीव का शरीर ही नष्ट होता है, उसमें व्याप्त परमात्मा का अंश आत्मा, अविनाशी है।
वह ईश्वर ही प्रत्येक के हृदय में व्याप्त है तथा अनेक स्वरूपों में व्यक्त हो रहा है। यह संसार तो माया के फेर में पड़ा है, अज्ञान और प्रेम से लिप्त होकर ललचा रहा है और घमण्ड से भर गया है। कबीर पूछते हैं-हे मनुष्यो! तुम्हें किस बात का घमण्ड है? अज्ञानवश जिस धन-सम्पत्ति पर तुम घमंड कर रहे हो, वह तो नश्वर है और उसमें गर्व करने की कोई बात नहीं है। परमात्मा के प्रेम में दीवाना हुआ कबीर निर्भय हो गया है और सांसारिक माया, मोह कुछ भी उसको प्रभावित नहीं करता है अर्थात् ईश्वर की कृपा से जिसे निर्भीकता प्राप्त हो जाती है, उस पर माया का प्रभाव नहीं होता है।
विशेष - ईश्वर एक और सर्वव्यापक है। अपने इस मत को कबीर ने अनेक तर्कों से प्रमाणित किया है।
अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
हम तौ एक एक करिजांनां'-से कबीर का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
कबीर एकेश्वरवादी थे। वह एक ही ईश्वर में विश्वास करते थे और उसे सर्वव्यापक मानते थे। कबीर ने इस पंक्ति में बताया है कि ईश्वर निराकार होकर इस सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। जिस ओर भी देखें, उसी ओर ईश्वर की सत्ता का आभास होता है। ईश्वर और जगत दो और अलग-अलग नहीं हैं। ईश्वर ने ही इस जगत की रचना की है और प्रत्येक पदार्थ में उसके दर्शन हो रहे हैं। ब्रह्म और जीव-जगत की इस अभिन्नता को कवि ने यहाँ व्यंजित किया है।
प्रश्न 2.
कबीर'काष्ठ' तथा 'अग्नि'का उदहारण देकर क्या बताना चाहते हैं?
उत्तर :
कबीर ने कहा है कि 'अग्नि', 'काष्ठ' के अन्दर विद्यमान है। बढ़ई काष्ठ अर्थात् लकड़ी को तो काट सकता है परन्तु उसमें अन्तर्निहित अग्नि को नहीं काट सकता। इस उदाहरण द्वारा कबीर बताना चाहते हैं कि जिस प्रकार काष्ठ में निहित अग्नि दिखाई नहीं देती उसी प्रकार जगत् में व्याप्त परमात्मा दिखाई नहीं देता। काष्ठ को काटा जा सकता है अर्थात् वह नष्ट हो सकता है परन्तु अग्नि नष्ट नहीं होती। उसी प्रकार संसार के पदार्थ नाशवान् हैं परन्तु उनमें व्याप्त ईश्वर अमर और अनश्वर है।
प्रश्न 3.
कबीर ने स्वयं को निर्भय क्यों बताया है ?
उत्तर :
माया के प्रभाव के कारण मनुष्य मोह और अहंकार आदि मनोविकारों से पीड़ित होता है। इन विकारों से ग्रस्त होकर वह परमात्मा से दूर रहता है। संपूर्ण सृष्टि में ईश्वर को देखने के भाव ने कबीर को निर्भीक कर दिया है। वह माया के प्रभाव से मुक्त हो गए हैं। अत: उनको किसी से भय नहीं रहा है।
प्रश्न 4.
सब घटि अंतरि तूंही व्यापक धरै सरूपै सोई'-का केन्द्रीय भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कबीर मानते हैं कि ईश्वर एक है तथा इस जगत का स्रष्टा है। वह इस संसार के प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त है। संसार के विविध जीव-जन्तुओं तथा पदार्थों में उसी की सत्ता विद्यमान है। उसने ही स्वयं को विभिन्न रूपों में प्रकट किया है। सब के भीतर वही। ईश्वर समाया हुआ है। 'तू' शब्द से आशय यहाँ ईश्वर से ही है। इस पंक्ति में कबीर ने ईश्वर की सर्वव्यापकता का वर्णन किया है।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्न -
प्रश्न 1.
प्रस्तुत पद्य में किस रस का वर्णन है ?
उत्तर :
प्रस्तुत पद्य में शान्त रस है। इसमें संसारव्यापी परमात्मा की एकता का वर्णन है। कवि ने संसार के प्रत्येक पदार्थ में परमात्मा की सत्ता का व्याप्त होना बताया है। ईश्वर के इसी सर्वव्यापकता में अद्वैत सत्ता का दर्शन करते हुए कवि ने उसको काष्ठ-अग्नि, खाक-भांडे आदि उदाहरणों द्वारा व्यक्त किया है। इसका स्थायी भाव निर्वेद है। संसार के पदार्थों की नश्वरता, उनमें व्याप्त ईश्वर की अमरता, ईश्वर-भक्ति से माया के प्रभाव से मुक्ति आदि आलम्बन तथा काष्ठ, अग्नि, खाक-भांडे आदि उद्दीपन विभाव हैं।
प्रश्न 2.
जैसे बाढ़ी काष्ठ ही काटै अगिनि नकाटै कोई' में अलंकार निर्देशकीजिए।
उत्तर :
'जैसे बाढ़ी काष्ठ ही काटै अगिनि न काटै कोई' में उदाहरण अलंकार है। जब उपमेयं में प्रदर्शित धर्म का पुष्टीकरण उपमान में प्रदर्शित धर्म से यथा, जैसे - जिमि, ज्यों आदि के साथ किया जाता है, तो उदाहरण अलंकार होता है। यहाँ कवि ने काष्ठ को काटने पर उसमें स्थित अग्नि के न कटने का उदाहरण देकर 'जैसे वाचक शब्द के द्वारा नश्वर संसार में अमर ईश्वर के व्याप्त होने की पुष्टि की गयी है। अग्नि और ईश्वर का समान धर्म अमरता तथा अदृश्यता है।
2. संतो देखत जग बौराना।
साँच कहाँ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना॥
नेमी. देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना॥
बहुतक देखा धीर .औलिया, पढ़े कितेब कुराना।
के मुरीद तदबीर बतावै, उनमें उहै जो ज्ञाना॥
आसन मारि डिंभे धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।
पीपर पाथर पूजन लागे, 'तीरथ गर्व भुलाना॥
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना॥
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना॥
घर घर मन्तर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना।
गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना॥
कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना।
केतिक कहीं कहा नहिं मान, सहजै सहज समाना॥
शब्दार्थ :
संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित कबीर के पदों से लिया गया है। कबीर ने इस पद में बाहरी आडम्बरों में भूले हुए संसार के लोगों पर व्यंग्य प्रहार किया है और ईश्वर की सहज भक्ति पर बल दिया है।
व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं-हे सन्तजनो! देखो संसार के लोग पागल हो गये। यदि मैं इनको सत्य का ज्ञान कराता हूँ । तो यह मुझे मारने के लिए मेरे पीछे भागते हैं। इस संसार के लोग असत्य बातों पर सरलता से विश्वास कर लेते हैं। मैंने इस संसार में अनेक लोगों को देखा है, जो धर्म के परम्परागत नियमों का कठोरता से पालन करते हैं। धर्म के बाहरी स्वरूप को अपनाने वाले भी अनेक हैं। ये प्रात: उठकर स्नान करते हैं और समझते हैं कि पानी में नहाकर वे पवित्र हो गए हैं। परन्तु तन-मन की शुद्धि जल में स्नान करने से नहीं होती।
ये अज्ञानी लोग अपने अंदर व्याप्त परमात्मा के अंश आत्मा को भुलाकर पत्थर की मूर्तियों को पूजते फिरते हैं। उनको धर्म के वास्तविक स्वरूप का कोई ज्ञान नहीं होता। मैंने मुसलमानों के अनेक पीर और औलिया देखे हैं। वे धार्मिक पुस्तकें, कुरान आदि पढ़ते-पढ़ाते हैं। वे खुदा के सच्चे अनुयायी नहीं होते। वे अपने शिष्यों को खुदा को प्राप्त करने के उपाय बताते हैं। ऐसे लोगों में उतना ही ज्ञान होता है, जो संसार में प्रचलित है।
अत: उनका धर्मज्ञान गम्भीर न होकर सतही होता है। मैंने ऐसे पाखण्डी साधकों को देखा है, जो ईश्वर की साधना के लिए ध्यान-मुद्रा में बैठकर समाधि लगाते हैं। यह उपाय भी उनको ईश्वर की प्राप्ति नहीं करा पाता क्योंकि वे दम्भी (घमण्डी) होते हैं तथा उनके मन में स्वयं के महान् साधक होने का अहंकार भरा रहता है। अपने अज्ञान के कारण लोग पीपल के वृक्षों और पत्थर की मूर्तियों की पूजा करते हैं।
वे तीर्थ-स्थानों की यात्राएँ करने का गर्व करते हैं और सच्चे ईश्वर-भक्त होने के भ्रम में पड़े रहते हैं। ऐसे लोग धर्म के बाहरी-दिखावटी स्वरूप में विश्वास करते हैं। वे तरह-तरह की टोपियाँ सिर पर पहनते हैं, गले में भाँति-भाँति की मालाएँ धारण करते हैं, माथे पर तिलक-छापे लगाते हैं और समझते हैं कि वही सच्चे ईश्वर-भक्त हैं। अज्ञानी लोग दोहों और पदों को गाकर अपनी भक्ति का प्रदर्शन करते हैं परंतु वे अपने हृदयस्थ ईश्वर को नहीं पहचानते हैं।
ऐसे लोग हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों में पाये जाते हैं। हिन्दू कहते हैं कि उनको राम से प्यार है, वही उनका ईश्वर है। मुसलमान कहते हैं कि उनको रहमत वाले खुदा से प्यार है। ईश्वर एक है, राम और रहीम तो उसके नाम मात्र हैं। इस सत्य को न समझकर वे धर्म के नाम पर एक-दूसरे से लड़ते-मरते रहते हैं। वे एक ही ईश्वर के बन्दे हैं-इस मर्म को वे समझते ही नहीं हैं। हिन्दू और मुसलमानों के धर्म-गुरु घर-घर जाकर लोगों को ईश्वर-प्राप्ति के विविध रहस्यपूर्ण उपाय बताते हैं।
उनको स्वयं के महान् धर्मात्मा तथा धर्म-गुरु होने का घमण्ड होता है। ऐसे अज्ञानी और घमण्डी गुरु तथा अन्धविश्वासी चेले सभी अज्ञान के समुद्र में डूब जाते हैं। सच्चा ईश्वरीय ज्ञान उनको कभी प्राप्त ही नहीं होता। जब जीवन का अन्त-समय आता है, तब उनके पास पछताने के अलावा कोई उपाय शेष नहीं रह जाता। कबीर कहते हैं-हे साधको ! मेरी बात सुनो। ये सभी लोग अज्ञान और भ्रम में पड़े हुए हैं और सत्य से भटक गये हैं।
मैं इनको कितना ही समझाता हूँ, परन्तु वे मेरा कहना नहीं मानते। वे धर्म की इस सीधी-सच्ची बात को नहीं समझते कि ईश्वर को स्वाभाविक प्रेम की साधना द्वारा सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। सहज प्रेम के द्वारा ही मनुष्य ईश्वर में विलीन हो सकता है।
विशेष :
अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
कबीर ने इस पद में संसार के लोगों में क्या कमियाँ बताई हैं?
उत्तर :
कबीर ने बताया है कि संसार के लोग धर्म के सच्चे स्वरूप को नहीं जानते। वे अपने अन्दर ईश्वर के दर्शन करने के स्थान पर पत्थर की मूर्तियों की पूजा करते हैं। वे स्नान करने, तीर्थयात्राएँ करने, तिलक-छापे लगाने तथा साखी-सबद को गाने को ही सच्चा धर्म समझते हैं। धर्म का नाम लेकर हिन्दू-मुसलमान परस्पर लड़ते हैं। वे धर्म का मर्म नहीं समझते। वास्तव में ये सब अज्ञानी हैं। इनको ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती।
प्रश्न 2.
कबीर ने संसार को पागल क्यों बताया है?
उत्तर :
कबीर का सच्चे धर्म का उपदेश लोगों को प्रिय नहीं लगता था। वे कबीर का विरोध तथा निन्दा करते थे। कबीर ने संसार को पागल बताया है क्योंकि यह संसार पाखण्डी लोगों की पूजा करता है, उनकी बातों और उपदेशों पर विश्वास करता है तथा कबीर जैसे सच्चे धर्मवादी सन्तों की निन्दा करता है, उनकी उपेक्षा करता है तथा उनको प्रताड़ित करता है।
प्रश्न 3.
'आपस में दोउ लरि-लरिमूए, मर्मन काहू जाना'-कबीर किस मर्म की बात कह रहे हैं?
उत्तर :
हिन्दू और मुसलमानों में बैर-विरोध और लड़ाई-झगड़े होते रहे हैं, कबीर के समय में भी होते थे। हिन्दू राम की उपासना करते हैं तथा मुसलमान रहीम की। दोनों ही अपने-अपने धर्मों को श्रेष्ठ मानकर आपस में लड़ते हैं। कबीर कहते हैं कि धर्म के तत्व को हिन्दू और मुसलमान दोनों ही नहीं समझते। राम और रहीम में कोई फर्क नहीं है। ईश्वर एक है तथा दोनों उसी एक ईश्वर , की संतान हैं। कबीर धर्म के इसी मर्म का ज्ञान कराना चाहते हैं।
प्रश्न 4.
कौन से गुरु और शिष्यों को अंत समय पछताना पड़ता है?
उत्तर :
यदि गुरु को धर्म का सच्चा ज्ञान न हो और वह पाखण्ड को ही धर्म समझता हो तो स्वाभाविक है कि वह अपने शिष्यों को ईश्वर के सच्चे धर्म से परिचित नहीं करा सकता। वह अपने शिष्यों को ईश्वर के सच्चे स्वरूप का ज्ञान भी नहीं करा सकता। उसके उपदेशों को अपनाकर तथा उसके मार्गदर्शन से उसके शिष्य भी पथभ्रष्ट हो जाते हैं। वे भी पाखण्ड को ही धर्म मान लेते हैं। अज्ञानी गुरु से सच्चा धर्मज्ञान न मिल पाने के कारण उनका ईश्वर से साक्षात्कार नहीं हो पाता। उनकी मुक्ति नहीं हो पाती तथा वे अपने अज्ञानी गुरु के साथ ही भव-सागर में डूब जाते हैं।
काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
"केतिक कहाँ कहा नहिं मान, सहजै सहज समाना"-में कौन-सा अलंकार है तथा क्यों ?
उत्तर :
"केतिक कहीं कहा नहिं माने, सहजै सहज समाना"-में अनुप्रास अलंकार है। अनुप्रास का अर्थ है-बार-बार अधिकता के साथ आना। अर्थात् जब किसी पद्य में कोई वर्ण एक से अधिक बार आता है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। प्रस्तुत पंक्ति के पूर्वार्ध में 'क' वर्ण तीन बार तथा उत्तरार्ध में 'स' वर्ण तीन बार आये हैं। अत: यहाँ अनुप्रास अलंकार होगा। इस प्रकार वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
प्रश्न 2.
छन्द की दृष्टि से प्रस्तुत पद्य की विशेषता प्रकट कीजिए।
उत्तर :
'सन्तो देखत जग बौराना' की रचना 'पद' छन्द में हुई है। इस पद में संगीतात्मकता है। यह गीतिकाव्य है। इसकी भाषा में अपूर्व प्रवाह है। पद तुकान्त है तथा तुक की दृष्टि से ही कुराना, जाना, गुमाना, अनुमाना, रहिमाना, अभिमाना इत्यादि अकारान्त शब्दों को आकारान्त में प्रयोग किया गया है। शैली व्यंग्यपूर्ण है तथा व्यंग्य पैने और सटीक हैं।