Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi Antra Chapter 7 नए की जन्म कुंडली : एक Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
लेखक ने व्यक्ति को हमारी भारतीय परंपरा का विचित्र परिणाम क्यों कहा है ?
उत्तर :
लेखक ने अपने एक मित्र को, निबंध में 'व्यक्ति' के नाम से प्रस्तुत करते हुए, उसे भारतीय परंपरा का विचित्र परिणाम कहा है। यदि हम भारत की परंपरागत मान्यताओं पर ध्यान दें और लेखक के मित्र (व्यक्ति) के विचारों पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि व्यक्ति के बारे में उसका मत यही है।
भारतीय परंपरा में धर्म को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। 'धर्म' से किसी उपासना पद्धति का अर्थ नहीं लेना चाहिए। धर्म का अर्थ है-धारण किए जाने योग्य व्यवहार, व्यक्ति का कर्तव्य, वस्तु का गुण और एक अनुशासन जिसे जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वीकार करना उचित माना जाए। हमारे पूर्वजों ने सामाजिक जीवन को सुखी बनाने के लिए तो नियम या परंपराएँ लागू की, उन्हीं का सामूहिक नाम धर्म है। धर्म के अतिरिक्त, मानवीय मूल्य और पारिवारिक जीवन भी हमारी परंपराओं से शासित रहे हैं। निबंध में लेखक का मित्र संयुक्त परिवारों के बिखरने को एक बहुत बड़ी घटना मानता है।
उसके अनुसार सबसे बड़ी भूल राजनीति और साहित्य में समाज सुधार की उपेक्षा किया जाना है। वह स्पष्ट कहता है कि समाज से धार्मिक अनुशासन का समाप्त होना और भारतीय परंपराओं का नियंत्रण न रहना ही सारी समस्याओं की जड़ है। इस प्रकार व्यक्ति की सोच और उसकी दृढ़ मान्यताएँ भारतीय परंपराओं को एक विचित्र रूप में प्रस्तुत करती हैं। यही कारण है कि लेखक ने उसे भारतीय परंपरा का 'विचित्र परिणाम' कहा है।
प्रश्न 2.
'सौंदर्य में रहस्य न हो तो वह एक खूबसूरत चौखटा है।' व्यक्ति के व्यक्तित्व के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लेखक ने मित्र के संदर्भ में यह पंक्ति लिखी है। बारह वर्षों के अन्तराल के बाद लेखक मित्र से मिला। उसके बाल सफेद हो चुके थे। वह रंग-रूप वाला सुन्दर था। उसके माथे पर रेखाएँ पड़ी थीं। ये रेखाएँ उसके अनुभव की, उसके गम्भीर चिन्तन की थीं। व्यक्ति का अनुभव और उसका चिन्तन ही उसका वास्तविक सौन्दर्य है। केवल शारीरिक सौन्दर्य का . महत्त्व नहीं है। जिसमें भाव सौन्दर्य नहीं है उसका शरीर सौन्दर्य व्यर्थ है। कागज यदि कोरा है और सुन्दर भी है किन्तु उस पर मर्म वचन नहीं लिखा है तो कागज का सौन्दर्य व्यर्थ है। सुन्दर चौखटे का महत्त्व नहीं है उसमें लगे चित्र का सौन्दर्य है। मित्र के माथे की रेखाएँ उसके गम्भीर भावों और चिन्तन की द्योतक थीं। इसलिए लेखक को अपना अधबूढ़ा मित्र भी संदर लग रहा था।
प्रश्न 3.
सामान्य-असामान्य तथा साधारण-असाधारण के अन्तर को व्यक्ति और लेखक के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लेखक अपने मित्र को असामान्य और असाधारण समझता था। लेखक की दृष्टि में सामान्य की परिभाषा कुछ भिन्न थी। लेखक की मान्यता थी कि जिसमें अपने भीतर के असामान्य के उग्र आदेश का पालन करने का मनोबल न हो वह सामान्य व्यक्ति है। इस आधार पर लेखक स्वयं को सामान्य व्यक्ति मानता है और 'मित्र को असामान्य मानता था। लेखक लोगों को खुश करने के लिए कार्य करता.था। मित्र जिस कार्य को हाथ में लेता उसे अधिकारिक ढंग से भली-भाँति कर डालना चाहता था।
मित्र अपनी भावनाओं और विकारों को बिना किसी हिचक या संकोच के प्रकट कर देता था। लेखक ने जिन्दगी में सफलता प्राप्त की उसे असफलता मिली। लेखक प्रतिष्ठित, भद्र और यशस्वी कहलाया। मित्र के नाम और रूप की पहचान नहीं बन पायी। वह धुन का पक्का था। उसका आत्मीय लोगों से द्वन्द्व हो गया, उसमें इस क्षति को सहन करने की क्षमता थी। उसमें सब कुछ सहने की क्षमता थी इसलिए वह असामान्य और असाधारण था और लेखक सामान्य और साधारण था।
प्रश्न 4.
'उसकी पूरी जिन्दगी भूल का एक नक्शा है।' इस कथन द्वारा लेखक व्यक्ति के बारे में क्या कहना चाहता है?
उत्तर :
उस व्यक्ति ने भावुकता के कारण अपनी जिन्दगी को भूल का नक्शा बताया। उसने अपनी जिन्दगी के बदले हुए ढंग का कारण भूल को बताया। लेखक ने व्यक्ति के दुःख को समझ लिया था। व्यक्ति को समय-समय पर असफलता ही मिली जबकि वह जिन्दगी में छोटी-छोटी सफलता चाहता था। वह अपने ढर्रे को बदलना नहीं चाहता था। सिद्धान्तवादी होना ही उसकी भूल थी। इसी कारण उसे असफलता का सामना करना पड़ा। लेखक सोचता है कि व्यक्ति के पास जीवन का एक निश्चित ढंग तो है, एक नक्शा तो है, उसके पास तो जीवन का कोई नक्शा ही नहीं है।
प्रश्न 5.
पिछले बीस वर्षों की सबसे महान घटना संयुक्त परिवार का ह्रास है, क्यों और कैसे ?
उत्तर :
व्यक्ति ने बीस वर्षों की महत्वपूर्ण घटना संयुक्त परिवार के एस को बताया। परिवार समाज की बुनियादी इकाई अच्छाई-बुराई परिवार के माध्यम से व्यक्त होती है। बच्चे परिवार में पलते हैं। उनके चरित्र का विकास और सांस्कृतिक शिक्षा परिवार से ही मिलती है। व्यक्ति ने कहा कि साहित्य और राजनीति के पास समाज सुधार का कोई कार्यक्रम नहीं है। जिसका परिवार का प्रभाव पड़े। जमाने के साथ संयुक्त सामंती परिवार बिखर गए हैं। सामंती परिवार के विचारों के प्रति विद्रोह भी हुआ। हमारे परिवारों में अब भी पुराने सामंती संस्कार पड़े हैं। साहित्य और राजनीति द्वारा उपेक्षा किए जाने के कारण संयुक्त परिवार बिखर गए हैं।
प्रश्न 6.
इन वर्षों में सबसे बड़ी भूल है, 'राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम न होना', इस संदर्भ में आप अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
उपर्युक्त कथन पूर्णत: सत्य है। राजनीति का उपयोग समाज को गन्दा करने के लिए हो रहा है। राजनीति ने समाज में जातिवाद, ऊँच-नीच के भेदभाव को बढ़ावा दिया है। इन्हें समाप्त करने का प्रयास नहीं कि व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण लोगों को दलों में बाँट दिया। राजनीतिकों की कथनी और करनी में बहुत अन्तर है। इन लोगों ने समाज में भेदभाव को मिटाने का कोई प्रयास नहीं किया। राजनीतिकों ने सैद्धान्तिक रूप से बड़ी-बड़ी बातें तो बहुत की किन्तु उन्हें क्रियान्वित नहीं किया। इसी कारण परिवार और समाज में सुधार नहीं हो रहा है।
प्रश्न 7.
'अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर में नहीं, घर के बाहर दी गई।' इससे लेखक का क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
लेखक का अभिप्राय है कि लोग अन्याय और अत्याचार का विरोध करने की बातें घर के बाहर ही करते हैं, घर-परिवार में होने वाले अन्याय-अत्याचार का विरोध नहीं करते। संयुक्त सामंती परिवारों के विचारों और संस्कारों का विरोध हुआ पर उसका शुभ परिणाम नहीं निकला। घर में संस्कार की शिक्षा पाने वाले बच्चे बाहर साहित्य और राजनीति की चर्चा सुनते हैं। पर घर जाकर वे वैसा ही नहीं करते। वे बाहर पूँजी और धन की सत्ता से विद्रोह की बात सुनते हैं और विद्रोह का प्रयत्न भी करते हैं, परन्तु घर में जाकर विद्रोह नहीं करते। वे इसे शिष्टता के विरुद्ध मानते हैं। घर में विद्रोह करने से आत्मीयजनों से संघर्ष होगा, टकराव होगा। इस कारण घर में विरोध नहीं करते। वे समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाते हैं। लेखक इस दृष्टिकोण के पक्ष में नहीं है।
प्रश्न 8.
जो पुराना है, अब वह लौटकर आ नहीं सकता। लेकिन नए ने पुराने का स्थान नहीं लिया।' इस नए और पुराने के अंतर्द्वन्द्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
नए और पुराने का संघर्ष सनातन है। लेखक यह मानता है कि हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं अपनाया। पुराने के स्थान पर नए विचारों को स्थान नहीं दिया। हम अपनी आंतरिक प्रेरणाओं के आधार पर ही कार्य करते रहे। नया पुराने का स्थान नहीं ले सका। हमारी धर्म-भावना गई किन्तु वैज्ञानिक बुद्धि उसका स्थान नहीं ले सकी। धर्म के कारण जीवन अनुशासित था। वैज्ञानिक मानवीय दर्शन और दृष्टि ने जीवन को अनुशासित नहीं किया। हम ऊँचे और व्यापक जीवन-मूल्यों को अपनाने में असमर्थ रहे हैं। नया-नया चिल्ला रहे हैं पर नया क्या है उसे जान नहीं रहे हैं। हम नए के चक्कर में पुराने को भी भूल गए। लेखक का कहना है कि नए-नए की पुकार धर्म और दर्शन का स्थान नहीं ले सकी। हम न नए रहे, न पुराने।
प्रश्न 9.
निम्नलिखित गद्यांशों की व्याख्या कीजिए -
(क) इस भीषण संघर्ष की हृदय भेदक....... इसलिए वह असामान्य था।
(ख) लड़के बाहर राजनीति या साहित्य के मैदान में ........ घर के बाहर दी गई।
(ग) इसलिए पुराने सामंती अवशेष बड़े मजे ....... शिक्षित परिवारों की बात कर रहा हूँ।
(घ) मान-मूल्य, नया इंसान ....... वे धर्म और दर्शन का स्थान न ले सके।
उत्तर :
इस प्रश्न का उत्तर 'सप्रसंग व्याख्याएँ' अंश में देखिए और व्याख्याएँ कीजिए।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए।
(क) सांसारिक समझौते से ज्यादा विनाशक कोई चीज नहीं।
आशय - समझौता करने वाले व्यक्ति को अपने सिद्धान्तों की कुर्बानी देनी पड़ती है। जो व्यक्ति सिद्धान्तवादी है वह किसी अनुचित बात पर समझौता नहीं कर सकता। उसकी अच्छी और महत्त्वपूर्ण बातों के मार्ग में उसके अपने और पराये सभी बाधा उपस्थित करते हैं। उसे बहुत संघर्ष करना पड़ता है। लेखक का विचार है कि समझौता करना बुरा है, सिद्धान्त पर अडिग रहना ही उचित है।
(ख) बुलबुल भी यह चाहती है कि वह उल्लू क्यों न हुई!
आशय - मनुष्य कभी-कभी आत्मविश्वास खो बैठता है और अच्छाई को छोड़कर बुराई की ओर भागता है। वह दूसरों . को अच्छा और स्वयं को बुरा समझता है। वह दूसरों के विचारों को महत्त्व देकर उन्हें ग्रहण करने का प्रयास करता है चाहें वे अनुपयुक्त ही क्यों न हों। बुलबुल और उल्लू के द्वारा मनुष्य की इसी प्रवृत्ति को दर्शाया है।
(ग) मैं परिवर्तन के परिणामों को देखने का आदी था, परिवर्तन की प्रक्रिया को नहीं।
आशय - समाज में दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं - एक वे जो परिवर्तन देखते हैं, दूसरे वे जो यह जानना चाहते हैं कि परिवर्तन कैसे हुआ और क्यों हुआ ? लेखक परिवर्तन का परिणाम देखना चाहता है, परिवर्तन की प्रक्रिया जानना नहीं चाहता। इसी कारण वह पड़ोसियों की जिन्दगी के परिवर्तन को देखता है परिवर्तन क्यों और कैसे हुआ, इसे नहीं देखता।
(घ) जो पुराना है, अब वह लौटकर आ नहीं सकता।
आशय - समय परिवर्तनशील है। 'जो बीत गई सो बात गई' के अनुसार जो समय निकल गया या जीवन निकल गया वह लौट नहीं सकता। इसलिए जीवन में परिवर्तन आता ही रहता है। नए को पुराने का स्थान ग्रहण करना ही पड़ता है।
योग्यता विस्तार -
छात्र प्रश्न 1, 2 तथा 3 का हल स्वयं करें।
बहुविकल्पीय प्रश्न -
प्रश्न 1.
लेखक के मित्र का दिमाग था -
(क) कल्पनाओं का पिटारा
(ख) गुणों की खान
(ग) लोहे का एक शिकंजा
(घ) लोहे की एक चिमटी
उत्तर :
(ग) लोहे का एक शिकंजा
प्रश्न 2.
सौंदर्य में रहस्य न हो तो वह है -
(क) मिठास रहित सुंदरफल
(ख) अनाकर्षक आकार
(ग) रसविहीन काव्य :
(घ) खूबसूरत चौखटा
उत्तर :
(घ) खूबसूरत चौखटा
प्रश्न 3.
'मुक्तिबोध' के अनुसार सबसे अधिक विनाशक है -
(क) हठी स्वभाव
(ख) घोर सिद्धान्तवादिता
(ग) सांसारिक समझौता
(घ) असाधारणता
उत्तर :
(ग) सांसारिक समझौता
प्रश्न 4.
मुक्तिबोध के मित्र के अनुसार परिवार है -
(क) संस्कारों की प्रथम पाठशाला
(ख) मानव के विकास का आँगन
(ग) सामाजिक जीवन का आधार
(घ) समाज की एक श्रेणी
उत्तर :
(घ) समाज की एक श्रेणी
प्रश्न 5.
मुक्तिबोध के मित्र की प्रमुख चरित्रगत विशेषता थी -
(क) उसका हँसमुख होना
(ख) उसका अहंकारी होना
(ग) उसका सिद्धान्तवादी होना
(घ) उसका दार्शनिक होना।
उत्तर :
(ग) उसका सिद्धान्तवादी होना
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
मुक्तिबोध को अपने मित्र के व्यक्तित्व के बारे में क्या लगता था ?
उत्तर :
मुक्तिबोध को लगता था कि उसका मित्र भारतीय परंपरा का एक विचित्र परिणाम था
प्रश्न 2.
मुक्तिबोध के मित्र के लिए उसके विचार और अनुभव किसके समान थे ?
उत्तर :
मित्र के लिए उसके विचार और अनुभव उसके मानसिक जगत के पहाड़ों, चट्टानों, खाइयों, नदियों, जंगल तथा रेगिस्तान आदि के समान थे।
प्रश्न 3.
लेखक मुक्तिबोध ने लोहे के शिकंजे या सुनार की चिमटी के समान किसे बताया है ?
उत्तर :
लेखक ने अपने मित्र के दिमाग को लोहे के शिकंजे या सुनार की छोटी-सी चिमटी के समान बताया है।
प्रश्न 4.
बारह वर्षों बाद मित्र के मिलने पर मुक्तिबोध को आश्चर्य क्यों हुआ ?
उत्तर :
बारह वर्षों के अंतराल में दोनों मित्रों के रंग-रूप और विचारों में बहुत परिवर्तन आ गया था, यही मुक्तिबोध के लिए आश्चर्य का कारण था।
प्रश्न 5.
मुक्तिबोध ने अपने निबंध में खूबसूरत चौखटा किसे माना है ?
उत्तर :
मुक्तिबोध ने रहस्यरहित सुंदरता को एक खूबसूरत चौखटे के समान माना है।
प्रश्न 6.
मुक्तिबोध को 'दूरी' अच्छी भी लगती है और बुरी भी, क्यों ?
उत्तर :
मुक्तिबोध को दूरी एक चुनौती के समान प्रतीत होती है। अतः अच्छी लगती है और मित्रों के बीच दूरी खटकती है। इसलिए बुरी भी लगती है।
प्रश्न 7.
मुक्तिबोध की दृष्टि में उसके मित्र का व्यक्तित्व कैसा था ?
उत्तर :
लेखक की दृष्टि में उसका मित्र एक असामान्य और असाधारण व्यक्ति था।
प्रश्न 8.
मुक्तिबोध ने अपने निबंध में मित्र को 'क्रूर और निर्दय' क्यों कहा है ?
उत्तर :
क्योंकि वह अपने विचारों और सिद्धान्तों की खातिर स्वयं को और अपने मित्रतापूर्ण संबंधों को भी कुर्बान कर सकता था।
प्रश्न 9.
लेखक मुक्तिबोध के अनुसार सामान्य व्यक्ति कौन होता है ?
उत्तर :
मुक्तिबोध के अनुसार जो व्यक्ति अपनी आत्मा के कठोर निर्णय का पालन करने में असमर्थ हो, वह सामान्य व्यक्ति होता है।
प्रश्न 10.
कोई काम करते समय लेखक की भावना क्या होती थी ?
उत्तर :
लेखक की भावना होती थी कि लोग उसके काम से प्रसन्न होकर, उसकी प्रशंसा करेंगे।
प्रश्न 11.
मुक्तिबोध ने स्वयं व अपने मित्र को दो विरोधी ध्रुवों के समान क्यों बताया है ?
उत्तर :
क्योंकि मुक्तिबोध जीवन में सफल रहे और मित्र असफल रहा। मुक्तिबोध को प्रतिष्ठा और पहचान मिली और मित्र अन पहचाना ही रह गया।
प्रश्न 12.
'भूल का एक नक्शा' किसने किसको बताया ?
उत्तर :
मुक्तिबोध के मित्र ने स्वयं को 'भूल का एक नक्शा' बताया।
प्रश्न 13.
बुलबुल कब चाहती है कि वह उल्लू हो जाए ?
उत्तर :
जब समाज में बुलबुल जैसे गुणी जनों की उपेक्षा और गुणहीनों की कद्र होने लगती है तो बुलबुल रूपी गुणी जन उल्लू या गुणहीन बनना चाहते हैं।
प्रश्न 14.
मुक्तिबोध के मित्र ने बीस सालों की सबसे महान घटना किसे बताया ?
उत्तर :
मित्र ने संयुक्त परिवारों के बस को पिछले बीस वर्षों की सबसे महान घटना बताया।
प्रश्न 15.
मित्र ने पिछले वर्षों की सबसे बड़ी भूल किसे बताया ?
उत्तर :
मित्र ने राजनीति और साहित्य में सामाजिक सुधार की उपेक्षा किए जाने को सबसे बड़ी भूल बताया।
प्रश्न 16.
लेखक के मित्र ने परिवारों में चलते रहे पुराने सामंती अवशेष किन्हें कहा है ?
उत्तर :
मित्र ने परिवारों में चली आ रही पुरानी सामंती परंपराओं को पुराने सामंती अवशेष कहा है।
प्रश्न 17.
धर्म और दर्शन का स्थान किसने नहीं लिया ?
उत्तर :
धर्म और दर्शन का स्थान वैज्ञानिक मानवीय दर्शन और वैज्ञानिक मानवीय दृष्टि ने नहीं लिया।
लयूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
लेखक जिस व्यक्ति से मिला था उसके सम्बन्ध में लेखक की धारणा क्या थी?
उत्तर :
लेखक उस व्यक्ति को बुद्धिमान समझता था जो भविष्य में मेधावी प्रतिभाशाली होगा। वह गंभीर है, भारतीय परम्परा का परिणाम है। विचार उसके लिए स्वाभाविक प्राकृतिक तत्व हैं। वह अपने विचारों और भावों को प्रकट करते हुए भी भावों में खोया रहता था। उसका व्यक्तित्व अन्तर मुखी था। वह विचारों को प्रकट ही नहीं करता था, उन्हें व्यवहार में भी लाता था। वह बड़ी छोटी और बारीक बातों को सूक्ष्म रूप से और मजबूती से पकड़कर सामने रख देता था।
प्रश्न 2.
बारह वर्ष बाद व्यक्ति से मिलने पर लेखक को क्या अनुभव हुआ ?
उत्तर :
बारह वर्ष बाद मित्र के मिलने पर लेखक को आनन्द भी हुआ और आश्चर्य भी। लेखक को अचानक उससे मिलने का आश्चर्य अधिक हुआ क्योंकि समय के प्रभाव ने उन्हें बहुत दूर कर दिया था। दोनों के कार्य-क्षेत्र बदल गए थे। लेखक ने अनुभव किया कि व्यक्ति के बाल सफेद हो गए हैं। उसके माथे पर जो रेखाएँ थीं। लेखक को वे रेखाएँ अच्छी लगी क्योंकि ये रेखाएँ उसके चिन्तन और अनुभव को प्रकट कर रही थीं।
प्रश्न 3.
लेखक ने अपने मित्र को 'भूतपूर्व नौजवान' क्यों कहा ?
उत्तर :
जब बारह वर्ष बाद लेखक और इसका मित्र मिले तो मित्र के बाल सफेद हो चुके थे। लेकिन बाल सफेद हो जाने से उसे बूढ़ा कहना सही नहीं था। उसका व्यक्तित्व दूसरों पर जो प्रभाव छोड़ता था, वह उसके वर्तमान रंग-रूप का नहीं होता था। वह उसके भूतपूर्व रंग-रूप का होता था। इसी कारण लेखक ने उसे 'भूतपूर्व नौजवान' कहा है।
प्रश्न 4.
मुक्तिबोध और उसका मित्र एक-दूसरे से दूर क्यों होते चले गए ?
उत्तर :
मुक्तिबोध का मित्र जब राजनीति के क्षेत्र में उतरा तो उन्होंने उसके बारे में घोषणा की कि वह एक राजनीतिक व्यक्ति है ही नहीं। राजनीति में उतरना, उसका कठोर सत्यों से दूर भागना है। इसके बाद जब मित्र साहित्य के क्षेत्र में आया तो बहुत देर हो चुकी थी। घर वालों और बाहर वालों के विरोध के कारण वह जर्जर हो चुका था। अपने जिद्दी स्वभाव के कारण वह अपने सिद्धांतों पर अडिग रहा और दोनों मित्र एक-दूसरे से दूर होते चले गए।
प्रश्न 5.
मित्र द्वारा उकसाए जाने पर लेखक को अपने बारे में क्या अनुभव होता था ?
उत्तर :
लेखक स्वयं को एक सामान्य व्यक्ति और अपने मित्र को असामान्य और असाधारण व्यक्ति मानता था। मित्र की असाधारणता उसके भीतर दबे हुए असाधारण व्यवहार को उकसा देती थी। ऐसी स्थिति में लेखक मित्र के समाने स्वयं को हीन समझने लगता था क्योंकि उसमें अपने भीतर के असामान्य द्वारा दिए जाने वाले आदेश का पालन करने का साहस नहीं था।
प्रश्न 6.
लेखक ने मित्र की उल्का पिंड से किस प्रकार समानता की ?
उत्तर :
वर्षों दूर रहने के बाद वह अपने मित्र से मिला था। उल्का पिंड जिस प्रकार सैकड़ों वर्षों के बाद सूर्य के पास आकर उसका चक्कर लगाता है और पुन: आकाश मार्ग पर निकल जाता है। उसी प्रकार मित्र भी कई स्थानों पर भटकने के बाद मित्र से मिला था। वह चिन्तक और विचारक बन गया था। लेखक को लगता था कि वह फिर किसी अभियान पर निकल जाएगा और पता नहीं दोबारा कब मिलेगा। अत: उसने मित्र की तुलना उल्का पिण्ड से की थी।
प्रश्न 7.
'अभिधार्थ एक होते हुए भी ध्वन्यार्थ, व्यंग्यार्थ अलग-अलग हो जाते हैं।' दूरियों के संदर्भ में इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मुक्तिबोध और उसका मित्र बारह वर्ष बाद मिल रहे थे। दोनों एक-दूसरे की क्षमताओं को भली-भाँति पहचानते थे। दूर रहने से दोनों के विचारों और विश्वासों में अंतर आ गया। इसका कारण दूरियाँ ही थीं। दोनों मित्र एक ही भाषा का , प्रयोग करते थे। उनके कथनों या शब्दों का अभिधार्थ (सामान्य अर्थ) तो एक ही होता था किन्तु दूरी और विचार-भिन्नता के कारण उनके कथनों के व्यंग्यार्थ कुछ और ही होते थे। ये सब मनों (दिलों) में दूरी के कारण ही होता था।
निबंधात्मक प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
"मुझे खुशी भी थी कि मैं उसे कतई भूल गया था।" लेखक को मित्र के भूलने की खुशी क्यों थी ?
उत्तर :
लेखक और मित्र के बीच समय का बड़ा पहाड़ खड़ा होने के कारण दोनों के स्वभाव और कार्यक्षेत्र में अन्तर आ गया था। उसका मित्र असाधारण और असामान्य व्यक्ति था। यदि लेखक मित्र के साथ रहता तो उसके व्यक्तित्व के सामने वह बौना रह जाता। वह धुन का पक्का था और अपने विचार और कार्य के लिए स्वयं को और उसके साथ लोगों को कुर्बान कर सकता था। इस त्याग के लिए यदि आत्मीयों का उसके विरुद्ध युद्ध होता तो वह उस क्षति को भी स्वीकार कर लेता था। लेखक ने उसको जिन्दगी के इस बुनियादी तथ्य का विरोध किया। यदि लेखक उसके साथ रहता तो अपने विचारों को स्वतंत्रता से व्यक्त नहीं कर पाता। इसलिए वह पुराने मित्र को भूलने में खुशी का अनुभव कर रहा था।
प्रश्न 2.
सांसारिक समझौता किस स्थिति में विनाशक हो जाता है ?
उत्तर :
प्रत्येक व्यक्ति के अपने सिद्धान्त होते हैं, अपने विचार होते हैं। कुछ व्यक्ति अपने सिद्धान्तों के प्रति कठोर होते हैं। लेकिन जब वही व्यक्ति अपने सिद्धान्तों को छोड़कर दूसरे के सिद्धान्तों को, दूसरों की मान्यताओं को अपनाने लगता है तो बड़ी कठिनाई होती है। लेखक कहता है कि सांसारिक समझौता उस समय अधिक विनाशक हो जाता है, जब किसी महत्वपूर्ण बात करने या महत्वपूर्ण विचारों को सामने रखने पर अपने या अपने जैसे पराए लोग बाधा डालें, आड़े पर जाये। जितनी जबर्दस्त बाधाएँ आएँगी उतनी ही कड़ी लड़ाई को शान्त करने के लिए जो समझौता होगा वह निम्नस्तर का होगा और विनाशक होगा।
प्रश्न 3.
लेखक की अपेक्षा मित्र नाम हीन और आकार हीन क्यों रह गया? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लेखक और मित्र के स्वभाव एवं कार्य-शैली में जमीन-आसमान का अन्तर था। दोनों में दो ध्रुवों का भेद था। मित्र जिद्दी था, किसी से समझौता करना नहीं जानता था, लेखक समझौते में विश्वास करता था, इसलिए समझौता कर लेता था। लेखक लोगों को खुश करने के लिए काम करता था, वह काम को हाथ में लेकर उसे अधिकारिक ढंग से भली भाँति कर डालना चाहता था। लेखक व्यावहारिक था, उसकी कार्यशैली आत्म-प्रकटीकरण की और निर्द्वन्द्व थी। इसलिए लेखक सफल हुआ और वह असफल हुआ। लेखक प्रतिष्ठित, भद्र और यशस्वी हुआ। मित्र ने लेखक की यशस्विता को बड़ी सत्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया। अतः वह असफल रहा और नामहीन तथा आकारहीन रह गया।
प्रश्न 4.
लेखक को मित्र का कथन हास्यास्पद और मूखर्तापूर्ण क्यों लगा ?
उत्तर :
लेखक ने मित्र से वर्षों की सबसे बड़ी भूल के सम्बन्ध में प्रश्न किया। मित्र ने कहा कि राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम नहीं है। साहित्य के पास भी समाज-सुधार का कार्यक्रम नहीं है। सबने केवल यह सोचा कि राजनीतिक और साहित्यिक आन्दोलन के द्वारा समाज में परिवर्तन हो जाएगा। सामाजिक सुधार का कार्य काल्पनिक प्रभावों को सौंप दिया। राजनीतिक संस्थाओं ने सामाजिक सुधार का कार्य स्वयं हाथों में नहीं लिया। साहित्य पर भी इसका प्रभाव पड़ा। इसी कारण आजादी के बाद जातिवाद का उदय हुआ। मित्र का यह विचार लेखक को हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण प्रतीत हुआ।
प्रश्न 5.
साहित्य और राजनीति के सम्बन्ध में मित्र के विचारों पर अपना मत प्रकट कीजिए।
उत्तर :
मित्र के अनुसार राजनीतिक संस्थाओं और साहित्य ने समाज सुधार का कार्य उनसे पड़ने वाले प्रभावों को सौंप दिया। उसने कहा कि समाज में वर्ग हैं, श्रेणियाँ हैं। श्रेणियों में परिवार हैं। समाज की एक बुनियादी इकाई परिवार है। समाज की अच्छाई-बुराई परिवार के माध्यम से व्यक्त होती है। मनुष्य के चरित्र का विकास परिवार में होता है। बच्चे परिवार में पलते हैं और वहीं उन्हें सांस्कृतिक शिक्षा मिलती है। वे अपनी सारी अच्छाइयाँ-बुराइयाँ परिवार से लेते हैं। मित्र का यह कथन पूर्णतः सत्य है। किन्तु यह सत्य नहीं है कि राजनीति और साहित्य का परिवार पर प्रभाव नहीं पड़ता। इतिहास साक्षी है गाँधीजी की प्रेरणा से देशवासी स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े थे। माखन लाल चतुर्वेदी की कविताओं का नौजवानों पर प्रभाव पड़ा। भक्तिकालीन कवियों का प्रभाव हमारे परिवारों पर पड़ा है। रामचरितमानस तो घर-घर में पढ़ी जाती है।
प्रश्न 6.
'मुझे लगा कि वह मुझे गाली दे रहा है। लेखक को मित्र के कथन से ऐसा क्यों अनुभव हुआ?
उत्तर :
मित्र की यह विचारधारा थी कि राजनीति और साहित्य के पास समाज सुधार का कोई कार्यक्रम नहीं है। लोग इसे सामान्य बात समझते हैं। इसलिए राजनीतिक और साहित्यिक संस्थाओं पर यह कार्यभार डाल दिया। उन्होंने सोचा कि इनके जरिए वस्तुस्थिति में परिवर्तन आ जाएगा। मित्र ने कहा कि इसी कारण सामंती परंपराओं में कोई सुधार नहीं हुआ। लड़के बाहर तो राजनीति और साहित्य की चर्चा करते हैं पर घर जाकर उसकी चर्चा नहीं करते थे। समाज में पूँजीवाद के प्रति विद्रोह की बात की जाती थीं, परन्तु घर में नहीं की। अन्यायपूर्ण व्यानरया को घर में चुनौती नहीं दी गई। घर में संघर्ष न हो इसलिए बाहर की चर्चा घर में नहीं की गई। लेखक मित्र की बात सुनता था। मित्र ने जोर देकर अपनी बात कही, इससे लेखक को लगा कि मित्र गाली दे रहा है।
प्रश्न 7.
"जमाने के साथ संयुक्त सामंती परिवार का ह्रास हुआ।" मित्र के कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मित्र का कहना था कि समय के परिवर्तन के साथ सामन्ती परिवारों का विघटन हो गया। यद्यपि उन विचारों और संस्कारों के प्रति विद्रोह भी हुआ जो सामन्ती परिवार में पाए जाते थे। लड़के घर के बाहर राजनीति और साहित्य की चर्चा करते किन्तु घर पर पहले जैसा ही व्यवहार करते। समाज में बाहर पूँजी और धन की सत्ता के विद्रोह की बात करते, घर पर उसकी चर्चा नहीं की जाती। इस चर्चा से घर में टकराव और संघर्ष की संभावना थी। इसलिए घर पर इस प्रकार की चर्चा नहीं की गई। परिणाम यह हुआ कि परिवारों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पुराने विचार ही घर में रहें। पुराने को छोड़कर नये के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं बना है।
प्रश्न 8.
“नये ने पुराने का स्थान नहीं लिया।" मुक्तिबोध के मि के इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मित्र का मत है कि जो बातें और मान्यताएँ पुरानी हो चुका के लौटकर नहीं आ सकतीं। हमें समय के अनुसार नए विचारों और पद्धतियों को अपनाना चाहिए था परन्तु ऐसा हो नहीं पाया। समाज को दिशा देने वाले धर्म को तो हमने उपेक्षित कर दिया लेकिन उसके स्थान पर वैज्ञानिक पद्धति को नहीं अपना सके। हमने नये को अपनाने का दिखावा ही ज्यादा किया। नया क्या होता है, इसे नहीं जान पाए। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज में चले आ रहे मानवीय मूल्यों की उपेक्षा हुई। हम इनकी परिभाषाएँ ही भूल गए। नई पीढ़ी, पुरानी से प्राप्त धर्म, दर्शन और व्यापक मानसिक अनुशासन के बहुमूल्य उत्तराधिकार को नहीं समझ पाई।
लेवक परिचय :
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर 1917 को ग्वालियर (मध्य प्रदेश) के श्योपुर कस्बे में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके पिता पुलिस विभाग में सब-इंस्पेक्टर थे। पिता के व्यक्तित्व का आप पर प्रभाव पड़ा। इसी कारण आप में ईमानदारी, न्यायप्रियता एवं दृढ़ इच्छाशक्ति के गुण उत्पन्न हुए।
आपका सम्पूर्ण जीवन संघर्षों और विरोधों से भरा था। उन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा का अध्ययन किया, जिसका प्रभाव इनकी कविताओं में देखने को मिलता है। आपकी भाषा मौलिक है, जिसमें तत्सम शब्दों के अतिरिक्त अंग्रेजी व उर्दू के प्रचलित शब्दों का अधिक मात्रा में प्रयोग किया गया है। आपकी भाषा में मुहावरे एवं लोकोक्तियों के भी सुन्दर उदाहरण मिल जाते हैं। आपने अपने काव्य में अनेक नये उपमान और प्रतीकों का प्रयोग किया है। पहली बार इनकी कविता 1943 में अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक में छपी। ये नयी कविता के प्रमुख कवि हैं।
आपके चाँद का मुँह टेढ़ा है और भूरी-भूरी खाक धूल काव्य संग्रह है। नये साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, कामायनी एक पुनर्विचार, एक साहित्यकार की डायरी आलोचना साहित्य है। आपने लम्बे समय तक 'नया खून' (साप्ताहिक) का संपादन किया।
संक्षिप्त कथानक :
लेखक अपने मित्र की प्रतिभा और योग्यता से अत्यंत प्रभावित था। लेखक मानता था कि उसका मित्र एक दिन मेधावी और प्रतिभाशाली व्यक्ति माना जाएगा। बारह वर्ष बाद लेखक मित्र से मिला। उसमें परिवर्तन आ गया था। लेखक मित्र के वर्तमान स्वरूप से प्रभावित नहीं था। मित्र बुद्धि प्रधान था और लेखक भावना प्रधान। मित्र दृढ़ निश्चय वाला और किसी के सामने न झुकने वाला था जबकि लेखक समझौतावादी था।
लेखक स्वयं को सामान्य और मित्र को असामान्य मानता था। लेखक का मित्र अपने को भूल का नक्शा बताता है। मित्र ने संयुक्त परिवार के विघटन को बीस वर्ष पुरानी घटना बताया और राजनीति तथा साहित्य का समाज-सुधार के कार्यक्रमों से विरत हो जाने को सबसे बड़ी भूल बताया। मित्र ने कहा पुराना लौटकर नहीं आएगा। नया पुराने का स्थान नहीं ले सका है। धर्म भावना भले ही हिल गयी हो किन्तु वैज्ञानिक दृष्टिकोण अभी नहीं बना है। जातिवाद पनप रहा है। धर्म और दर्शन से आस्था समाप्त हो गई है।
पाठका सारांश :
मित्र के प्रति धारणा - लेखक मित्र को बुद्धिमान समझता था। वह मेधावी, प्रतिभाशाली बनेगा। वह गंभीर था और विचारों को धूप और हवा की तरह स्वाभाविक प्राकृतिक तत्व मानता था। वह विचारों और भावों को प्रकट करने के साथ-साथ उनका स्पर्श करता और सूंघता भी था। उसका दिमाग तेज था। वह छोटी, बड़ी और बारीक बात को सूक्ष्मता से पकड़ लेता था।
मित्र से मिलन - बारह वर्ष बाद लेखक और मित्र का मिलन हुआ। लेखक को आनन्द और आश्चर्य हुआ। इस अन्तराल ने दोनों की दिशाएँ बदल दी थीं। लेखक अपने को बुद्धिमान समझने लगा था। वह मित्र की बुद्धिमत्ता को मस्तिष्क-तन्तुओं की हलचल मानता था।
बारह वर्ष बाद - दोनों मित्र जब बारह वर्ष के अन्तराल के बाद मिले तो दोनों में बहुत अन्तर था। मित्र के बाल सफेद हो गए थे। लेखक स्वयं को मित्र से अधिक आगे निकला हुआ मानता था। लेखक ने सफलता अर्जित कर ली थी, इसलिए दोनों में अन्तर आ गया था। लेखक मित्र के वर्तमान स्वरूप से प्रभावित नहीं था। मित्र नौजवान नहीं था। लेखक अपने को
भावना प्रधान और मित्र को बुद्धिवादी समझता था। दोनों की भाषाएँ एक र्थी लेकिन अभिधार्थ एक होते हुए भी ध्वन्यार्थ और व्यंग्यार्थ अलग-अलग थे। इस कारण दोनों में दूरियाँ बढ़ गई थीं।
स्वभावगत अन्तर - दोनों के स्वभाव में अधिक अन्तर था। मित्र असाधारण और असामान्य था। उसमें क्रूरता और निर्दयता थी। मित्र धुन का पक्का था और अपने विचारों के लिए अपने को कुर्बान कर सकता था। लेखक का उसके विचारों से वैर था। मित्र जब राजनीति में आया तो लेखक ने उसे पलायनवादी कहो। उसका साहित्य में उतरना लेखक को अच्छा लगा। विरोधों को सहते-सहते वह जिद्दी हो गया था। लेखक का स्वभाव मित्र से भिन्न था। इस कारण दोनों में दूरियाँ बढ़ गई थीं।
सामान्य-असामान्य का अन्तर - लेखक स्वयं को सामान्य और मित्र को असामान्य मानता था। सामान्य व्यक्ति समझौता कर लेता है, किन्तु असामान्य व्यक्ति समझौता नहीं करता। वह मनोबलकानी है इसलिए झुकता नहीं। लेखक छोटी सफलता में प्रसन्न हो जाता है। पर मित्र की असफलता में भी भव्यता और गरिमा है। लेखक दूसरों को प्रसन्न करने के लिए कार्य करता है जबकि मित्र की कार्य-शक्ति आत्म-प्रकटीकरण की निर्द्वन्द्व शैली है।
उल्का पिंड की तरह - मित्र का व्यक्तित्व उल्का पिंड के समान था। उल्का पिंड सूर्य के चक्कर लगाकर आकाश मार्ग पर निकल जाता है। मित्र ने भी संघर्ष सहे हैं और उन अप्रत्याशित संघर्षों के कारण वह टूट कर धूल हो गया है।
भूल का नक्शा - लेखक का मित्र अपने जीवन को भूल का नक्शा कहता है। लेखक को ज्ञात है कि उसके मित्र ने अपने विचारों के लिए संघर्ष किया है और बलिदान भी दिया है। उसने अपने विचारों के लिए जिन्दगी गवाई है।
बीस वर्ष की महान घटना और भूल - लेखक ने मित्र से पूछा कि पिछले बीस वर्ष की महान घटना कौन-सी है ? मित्र ने संयुक्त परिवारों के विघटन को बीस वर्ष की महान घटना बताया। मित्र ने अपने आस-पास परिचितों के परिवारों के बारे में सोचा तो मित्र का कथन नितान्त सत्य प्रतीत हुआ। लेखक ने दूसरा प्रश्न किया कि पिछले बीस वर्षों की सबसे बड़ी भूल क्या है ? मित्र ने कहा कि राजनीति और साहित्य का समाज-सुधार के कार्यक्रमों से विरत हो जाना ही सबसे बड़ी भूल है। परिवार समाज की एक इकाई है। समाज में जातिवाद आज भी व्याप्त है। परिवार ही बच्चे में सांस्कृतिक और चारित्रिक विकास कर सकते हैं। संयुक्त परिवारों का विघटन हो गया है। इसलिए बच्चों में संस्कारों का अभाव है।
मित्र की भावना - मित्र ने कहा अब पराना लौट कर नहीं आ सकता और नये ने पराने का स्थान नहीं लिया है। धर्म न गई है किन्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं पनपा है। नये मल्यों का विकास नहीं हुआ है। जीवन से धर्म और दर्शन निकल गये हैं। अब सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष करने वाले लोगों का अभाव हो गया है।
कठिन शब्दार्थ :
महत्वपूर्ण मद्यांशों की सप्रसंग व्यारव्याएँ -
मुझे लगता था कि वह व्यक्ति हमारी भारतीय परंपरा का एक विचित्र परिणाम है। वह अपने विचारों को अधिक गंम्भीरता पूर्वक लेता था। वे उसके लिए धूप और हवा जैसे स्वाभाविक प्राकृतिक तत्व थे। शायद इससे भी अधिक। दरअसल, उसके लिए न वे विचार थे, न अनुभूति। वे उसके मानसिक भूगोल के पहाड़, चट्टान, खाइयाँ, जमीन, नदियाँ, झरने, जंगल और रेगिस्तान थे। मुझे यह भान होता रहता कि वह व्यक्ति अपने को प्रकट करते समय, स्वयं की सभी इंन्द्रियों से काम लेते हुए, एक आंतरिक यात्रा कर रहा है।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के परिचयात्मक निबंध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' से लिया गया है।
प्रसंग - इस अंश में मुक्तिबोध अपने मित्र की चारित्रिक विशेषताओं का परिचय करा रहे हैं। उनका मित्र अपने विचारों को पूर्ण गम्भीरता और बेबाकी से व्यक्त किया करता था।
व्याख्या - मुक्तिबोध का अपने मित्र के बारे में मानना था कि भारतीय परंपराएँ उसमें सामान्य रूप से नहीं बल्कि एक चमत्कारिक रूप में व्यक्त हो रही थीं। उनका मित्र अपने विचारों को बहुत गम्भीरतापूर्वक व्यक्त किया करता था। विचार उसके व्यक्तित्व में उसी प्रकार स्वाभाविक रूप में विद्यमान रहते थे जैसे मनुष्य के जीवन में धूप और हवा आदि प्राकृतिक तत्व हुआ करते हैं। लेखक को लगता था कि उसके मित्र के लिए विचार अत्यधिक महत्वपूर्ण थे।
लेखक के अनुसार मित्र के जीवन में उसके विचार और अनुभव साधारण रूप में नहीं थे। वे तो उसके मानसिक संसार में स्थित पहाड़, चट्टान, खाइयों, भूमि, नदियों, झरनों, जंगलों और रेगिस्तानों के समान थे। भाव यह है कि उसके विचारों और अनुभवों से उसके मनोजगत का पूरा परिचय समाया रहता था। लेखक को ऐसा लगा करता था कि उसका मित्र जब अपनी भावनाओं और विचारों को प्रकट करता था तो उसके शरीर की हर इन्द्रिय उसमें भागीदार होती थी। वह पूर्ण तन्मयता और खुलेपन से अपने विचारों और अनुभवों को व्यक्त किया करता था।
विशेष :
2. वह अपने विचारों या भावों को केवल प्रकट ही नहीं करता था, बल्कि उन्हें स्पर्श करता था, सूंघता था, उनका आकार-प्रकार, रंग-रूप और गति बता सकता था, मानो उसके सामने वे प्रकट साक्षात और जीवंत हों। उसका दिमाग लोहे का एक शिकंजा था या सुनार की एक छोटी-सी चिमटी, जो बारीक-से-बारीक और बड़ी-से-बड़ी बात को सूक्ष्म रूप से और मजबती से पकड कर सामने रख देती है।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्ति बोध' के परिचयात्मक निबंध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' से उद्धृत है।
प्रसंग - यहाँ लेखक अपने मित्र के भावों को प्रकट करने की शैली के बारे में बता रहा है।
व्याख्या - इस अंश में लेखक बता रहा है कि उसका मित्र अपने भावों को इस प्रकार प्रकट करता था मानो वे साकार और जीवन्त हों। उसकी सभी इंद्रियाँ उसकी अभिव्यक्ति में भाग लेती थीं। मानो वह अपने विचारों को छू सकता था, उनकी गंध ग्रहण कर सकता था, उनके रूप-रंग और आकार तक का उसे अनुभव हुआ करता था। लेखक के मित्र का दिमाग बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी बात को भी पूरी शक्ति से श्रोता के सामने प्रकट कर सकता था। वह अपने विचारों और भावों से बड़ी गहराई के साथ जुड़ा हुआ था।
विशेष :
3. मुझे वह प्रभाव अच्छा लगता। जी चाहता कि उसके बारे में रोमैंटिक कल्पना की जाए। लेकिन यह कहना मुश्किल था कि उसकी सुंदरता उसके रूप की थी, या उसके माथे पर पड़ी हुई रेखाओं की। कम-से-कम मुझे तो वे लकीरें अच्छी लगतीं। खूबसूरत कागज सुंदर तो होता ही है, लेकिन यदि वह कोरा हुआ, और उसमें कोई मर्म-वचन लिखा हुआ न रहे तो, सौंदर्य में रहस्य ही क्या रहा? सौन्दर्य में रहस्य न हो तो वह एक खूबसूरत चौखटा है।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के परिचयात्मक निबंध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' से अवतरित है।
प्रसंग - इस अंश में लेखक अपने मित्र के प्रभावशाली व्यक्तित्व के बारे में बता रहा है। मित्र के व्यक्तित्व में जो विशेष प्रभाव था वह उसके बाहरी रंग-रूप के कारण नहीं था बल्कि उसके द्वारा अर्जित अनुभव के कारण था जो उसके माथे की रेखाओं से प्रकट होता था।
व्याख्या - लेखक कहता है कि उसके मित्र के व्यक्तित्व में जो प्रभाव था वह उसके वर्तमान रंग-रूप के कारण न था बल्कि उसने जो पहले जीवन-संघर्ष किया था उसके कारण था। लेखक को मित्र का यह प्रभाव अच्छा लगता था। लेखक चाहता था कि मित्र के उस प्रभाव को लेकर एक रोमैंटिक कल्पना से युक्त रचना की जाए। लेकिन लेखक यह निश्चय नहीं कर पाता था कि मित्र के प्रभाव में जो सुंदरता लक्षित होती थी वह शारीरिक सुंदरता थी या उसने जो जीवन में विशाल अनुभव प्राप्त किए थे, उनकी सुंदरता थी। अनुभव और संघर्ष का प्रमाण देने वाली, मित्र के मस्तक पर पड़ी रेखाएँ मित्र को अच्छी लगती थीं। एक सुंदर कागज हो लेकिन वह कोरा हो। उस पर कोई हृदय को छू लेने वाली बात न लिखी हो तो वह ली नहीं लगता। रहस्य से पूर्ण सौंदर्य ही मन को प्रभावित करता है। सीधा-सपाट सौंदर्य तो चित्र रहित चौखटे के समान होता है। लेखक के मित्र के माथे की रेखाएँ उसके व्यक्तित्व को रहस्यमय और आकर्षक बनाती थीं।
विशेष :
4. मेरी अपनी दृष्टि से वह असाधारण और असामान्य था। एक असाधारणता और क्रूरता भी उसमें थी। निर्दयता भी उसमें थी। वह अपनी एक धुन, अपने एक विचार या एक कार्य पर सबसे पहले खुद को, और उसके साथ लोगों को कुर्बान कर सकता था। इस भीषण त्याग के कारण, उसके अपने आत्मीयों का उसके विरुद्ध युद्ध होता, तो वह उसकी क्षति भी बरदाश्त कर लेता। उसकी जिंदगी के इस बुनियादी तथ्य से मैंने हमेशा वैर किया।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के परिचयात्मक निबन्ध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' से लिया गया है।
प्रसंग - इस अंश में लेखक अपने मित्र को औरों से भिन्न स्वभाव वाला बता रहा है। मित्र अपने विचारों की मान्यता के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता था। अपने विचार पर अडिग रहते हुए वह किसी का भी परित्याग कर सकता था।
व्याख्या - मुक्तिबोध का मानना था कि उसका मित्र एक असाधारण व्यक्तित्व वाला था। अपने विचारों पर उसकी उसे दूसरों से भिन्न ही नहीं बनाती थी बल्कि उसे करता और निर्दयता की सीमा तक पहँचा देती थी। अपने विचार मनवाने की धुन में, वह स्वयं अपने जीवन को ही नहीं, बल्कि अपने परिचित लोगों से अपने संबंधों को भी त्याग सकता था। ऐसे हठी स्वभाव के कारण यदि उसके अपने लोग भी उसका विरोध करते तो उनसे भी संबंध तोड़ लेने को तैयार हो सकता था। अपने विचारों के प्रति उसका लगाव एक सनक जैसा था। लेखक कहता है कि उसने अपने मित्र के चरित्र की इस विचित्र विशेषता का सदा विरोध किया।
विशेष :
5. 'लेकिन आज मैं यह सोचता है कि सांसारिक समझौते से ज्यादा विनाशक कोई चीज नहीं-खास तौर पर वह जहाँ किसी अच्छी महत्त्वपूर्ण बात करने के मार्ग में अपने या अपने जैसे लोग और पराए लोग आड़े आते हों। जितनी जबरदस्त उनकी बाधा होगी, उतनी ही कड़ी लड़ाई भी होगी, अथवा उतना ही निम्नतम समझौता होगा।'
संदर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के चिन्तन प्रधान निबन्ध 'नए की जन्म कुंडली : एक' से ली गई हैं।
प्रसंग - लेखक और उसके मित्र के स्वभाव में अन्तर था। एक समझौते में विश्वास करता था दूसरा कठोर था। समझौता यदि दबाव में आकर या अपनों से संघर्ष को बचाने के लिए हो तो अनुचित है। इसी का उल्लेख यहाँ है।
व्याख्या - लेखक एक सीमा तक ही समझौतावादी है। उसका मत है कि समझौता करना एक सही सीमा तक ही उचित है। जो समझौता दबाव में आकर किया जाय वह विनाशकारी होता है। लेखक की दृष्टि में ऐसा समझौता उचित नहीं है जब किसी अच्छी और महत्त्वपूर्ण बात को क्रियान्वित करने में अपने या पराये लोग रुकावट डालें और उस समय संघर्ष के भय से व्यक्ति समझौता कर ले, वह विनाशक है। अच्छी महत्त्वपूर्ण बात को पूरा करने के मार्ग में जितनी अधिक बाधाएँ सामने आएँगी। उतना ही अधिक और कड़ा संघर्ष होगा। उस संघर्ष से बचने के लिए जो समझौता किया जाएगा वह निम्नकोटि का समझौता होगा। उनके सामने झुक जाना या समझौता कर लेना, बहुत हानिकारक परम्परा को जन्म देता है।
विशेष :
6. "इस भीषण संघर्ष की हृदय भेदक प्रक्रिया में से गुजरकर उस व्यक्ति का निजत्व कुछ ऐंडा-बेंड़ा, कुछ विचित्र अवश्य हो गया था। किन्तु सबसे बड़ी बात यह थी कि उसकी बाजू सही थी। इसलिए वह असामान्य था।" दूसरे शब्दों में, मैं सामान्य उसको समझता हूँ, जिसमें अपने भीतर के असामान्य के उन आदेश का पालन करने का मनोबल न हो। मैं अपने को ऐसा ही आदमी समझता हूँ।
संदर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के लेख 'नए की जन्म कुंडली : एक' से ली गई हैं। यह लेख 'अंतरा भाग-1' में संकलित है।
प्रसंग - 'मुक्तिबोध' का मित्र असाधारण और असामान्य था। वह संघर्षशील था किन्तु समझौता नहीं कर सकता था। इसी कारण उसे भीषण अंतर्द्वद्व से गुजरना पड़ा था।
व्याख्या - लेखक का कथन है कि उसका मित्र घर और बाहर के लोगों से संघर्ष करते-करते जर्जर हो गया था। उसे अपने जीवन में हृदय को भेद डालने वाली संघर्ष की प्रक्रिया से बार-बार गुजरना पड़ा था। इस कारण उसके जीवन में असाधारण परिवर्तन आ गए थे। उसका स्वभाव और व्यवहार विचित्र हो गया था। वह अपने विचारों को लेकर कुछ हठी और दुराग्रही हो गया था। इन सारी बातों के होते हुए भी सबसे बड़ी बात यह थी कि उसका पक्ष सही था।
इसी कारण लेखक ने उसे असामान्य व्यक्ति माना है। लेखक के अनुसार सामान्य व्यक्ति वह होता है, जो अपने भीतर पनप रही असामान्यता के आदेश का पालन नहीं कर पाता। वह असामान्यता उसे बाहरी दबावों के विरुद्ध उकसाती है। लेकिन सामान्य व्यक्ति में इतना मनोबल नहीं होता कि वह अपनी अंतरात्मा के आदेश का पालन कर सके। लेखक स्वयं को एक सामान्य व्यक्ति मानता है और अपने मित्र की असाधारणता को स्वीकार करता है।
विशेष :
7. वह व्यक्ति हमेशा मेरे भीतर के असामान्य को उकसा देता था, इसीलिए अपने भीतर के उस उकसे हुए असामान्य की रोशनी में, मैं एक ओर स्वयं को हीन अनुभव करता, तो दूसरी ओर ठीक वही असामान्य मेरी कल्पना और भावना को उत्तेजित करके मुझे, अपने से वृहत और व्यापक जो भी है, उसमें डुबो देता- चाहे वह इंटीग्रल केलक्युलस हो, सुदूर नेब्यूला हो, या कोई ऐतिहासिक कांड हो अथवा कोई दार्शनिक सिद्धान्त हो या विशाल सामाजिक लक्ष्य हो।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के परिचयात्मक निबंध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' से अवतरित है।
प्रसंग - लेखक बता रहा है कि उसके मित्र का असामान्य चरित्र उसके भीतर सोए पड़े आसमान्य व्यवहार को जगा देता था। इससे वह अपने भीतर एक हीनता की भावना का अनुभव करता था।
व्याख्या - लेखक स्वीकार करता है कि वह एक साधारण या सामान्य व्यक्ति है। उसमें अपने मित्र जैसा असामान्य आत्मबल नहीं है। किन्तु उसके भीतर भी कुछ असामान्य कर दिखाने की भावना छिपी रहती थी। इसी कारण मित्र का कोई भी काम उसे एक चुनौती जैसा प्रतीत होता था। उस चुनौती को स्वीकार न कर पाने के कारण लेखक को अपने मन में हीनता का अनुभव होता था। लेकिन वह चुनौती या उकसावा उसके मन में नई-नई कल्पनाएँ और भावनाएँ भी जगा देता था।
लेखक का हृदय भावुक हो उठता था। उसे लगता था कि वह अपने से महान और व्यापक किसी सत्ता के विचारों में डूब गया है। वह विषय चाहे गणित की कोई गणना करने की विधि हो या वह अत्यन्त दूर स्थित कोई आकाशगंगा हो चाहे वह कोई ऐतिहासिक घटना हो या दर्शनशास्त्र का कोई सिद्धान्त हो या फिर वह समाज के हित से संबंधित कोई विषय हो। इस प्रकार लेखक ने भलीभाँति जान लिया था कि एक असामान्य व्यक्ति के चरित्र में क्या विशेषताएँ और समस्याएँ होती हैं और एक सामान्य व्यक्ति को जीवन में कैसे-कैसे दबाव और चुनौतियाँ झेलनी पड़ती हैं।
विशेष :
8. हम दोनों में दो ध्रुवों का भेद था। जिंदगी में मैं सफल हुआ, वह असफल। प्रतिष्ठित, भद्र और यशस्वी मैं कहलाया। वह नामहीन और आकारहीन रह गया। लेकिन अपनी इस हालत की उसे कतई परवाह नहीं थी। इसका मुझे बहुत बुरा लगता, क्योंकि वस्तुतः वह मेरी यशस्विता को भी बड़ी सत्ता के रूप में स्वीकार न कर पाता।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के परिचयात्मक निबंध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग - इस अंश में लेखक 'मुक्तिबोध' अपने और मित्र के स्वभावगत भेद की चर्चा कर रहे हैं। परीत ध्रुवों के समान थे, यह बता रहे हैं।
व्याख्या - मक्तिबोध कहते हैं कि उनकी और मित्र की कार्यशैली में मौलिक अन्तर था। वह कोई भी काम करते थे तो उसके व्यावहारिक पहलू पर अधिक ध्यान देते थे और मित्र जब कोई कार्य हाथ में लेता था तो वह खुलकर अपनी राय प्रकट करता था। इस कारण उनका जीवन दो विपरीत ध्रुवों के समान था। इसका परिणाम यह निकला कि लेखक जीवन में सफल होता गया और अड़ियल स्वभाव का मित्र असफल होता रहा।
लेखक ने जीवन में सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त की, वह भद्र पुरुषों की श्रेणी में गिना गया और उसने जीवन में पर्याप्त यश कमाया। इसके विपरीत लेखक के मित्र के नाम को भी कोई विरला ही जान पाया। उसके स्वरूप से भी लोग अपरिचित बने रहे। लेखक के मित्र ने अपनी ऐसी हालत की कभी, कतई चिंता नहीं की। उसका यह स्वभाव लेखक को बहुत बुरा लगता था। क्योंकि उसके इस आचरण से लगता था कि वह लेखक के यश को बहुत महत्व नहीं देता था। इससे लेखक स्वयं को उसके सामने हीन अनुभव करता था।
विशेष :
9. किन्तु आज उसने मुझसे कहा कि उसकी पूरी जिंदगी भूल का एक नक्शा है। मैं उसके विषाद को समझ गया। वह जिंदगी में छोटी-छोटी सफलताएँ चाहता था। उसके पास तो सिर्फ एक भव्य असफलता है। (यह मेरी टिप्पणी है, उसकी नहीं) मैंने सिर्फ इतना ही जवाब दिया, "लेकिन नक्शा तो है! यहाँ तो न गलत का नक्शा है, न सही का!"
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के परिचयात्मक निबंध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' से लिया गया है।
प्रसंग - लेखक के मित्र ने एक दिन उसके सामने स्वीकार किया कि उसने जीवन में अनेक भूलें की हैं। लेखक ने उसे सांत्वना दी। इस गद्यांश में वही प्रसंग दिया गया है।
व्याख्या - लेखक का मित्र जीवन में कोई बड़ी सफलता, प्रतिष्ठा, नाम नहीं पा सका। उसका हठीला और आग्रही स्वभाव, इसमें बाधक बना रहा। वह मित्र और प्रशंसक बहुत कम बना पाया। अपनी इन भूलों को एक दिन लेखक के सामने स्वीकार किया। उसने अपनी जिंदगी को 'भल का एक नक्शा' बताया। लेखक ने मित्र के कथन के पीछे छिपे पश्चात्ताप को समझ गया। उसने जान लिया कि मित्र के जीवन में की गई अपनी भूलों पर पछतावा हो रहा था।
उसका मित्र भीतर से चाहता था कि उसे जीवन में छोटी-छोटी सफलताएँ, प्रशंसाएँ मिलती रहें। किन्तु लेखक, मित्र की असफलता को भी एक भव्य वस्तु मानता था। उसने मित्र को सांत्वना देते हुए कहा कि उसके (मित्र के) पास कम से कम एक नक्शा तो था। भले ही वह भूलों का ही क्यों न हो। परन्तु उसके (लेखक के) पास तो कैसा भी नक्शा नहीं था। यह बात लेखक ने मित्र का मन रखने के लिए कही थी। वह चाहता था कि मित्र अपनी असफलताओं और भूलों पर दुखी न हो।
विशेष :
10. चारों ओर चाँदनी की रहस्यमय मधरता फैली हई थी। चारों ओर ठंडा एकांत फैला हआ था। मेरी अजीब मनोस्थिति हो गई। मैं अपने पड़ोसियों की जिंदगियाँ ढूँढ़ने लगा, अपने परिचितों का जीवन तलाशने लगा। एक अनइच्छित बेचैनी मुझमें फैल गई। हाँ, यह सही है कि जिंदगी और जमाना बदलता जा रहा थ। किन्तु मैं परिवर्तन के परिणामों को देखने का आदि था, परिवर्तन की प्रक्रिया को नहीं।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांशपाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के परिचयात्मक निबंध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' से अवतरित है।
प्रसंग - लेखक और मित्र के बीच पिछले 20 वर्षों की सबसे महान घटना को लेकर बातें चल रही थीं। इस गद्यांश में इसी विषय को प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या - लेखक और उसके मित्र के बीच इस विषय पर चर्चा चल रही थी कि पिछले बीस वर्षों की सबसे महान घटना कौन-सी थी ? दोनों मित्र चाँदनी रात में एकांत में चर्चा कर रहे थे। वातावरण में एक अजीब-सी रहस्यमय अनुभूति थी जो मन को मधुरता से भर रही थी। मित्र ने लेखक के उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में कहा था कि पिछले बीस वर्षों की सबसे महान घटना थी.-'संयुक्त परिवारों का बिखर जाना।' मित्र के उत्तर को सुनकर लेखक ठगा-सा रह गया।
इस उत्तर को सुनकर उसका मन बेचैन-सा हो गया। वह इस उत्तर की सत्यता अपने पड़ोसियों की जिन्दगियों में खोजने लगा। अपने परिचित लोगों के संयुक्त परिवारों की दशा को याद करते हुए इस उत्तर की सत्यता परखने लगा। क्या सचमुच उनके संयुक्त परिवार बिखर गए थे ? वह इस कटु सत्य को झेल नहीं पा रहा था। वह मान रहा था कि लोगों के जीवन और समय का रूप बदलता जा रहा था। किन्तु वह इन परिवर्तनों के परिणामों को ही देखता आ रहा था। ये परिवर्तन मनुष्यों के जीवन में किस प्रकार घटित हो रहे थे। इस बात पर उसका ध्यान कभी नहीं गया।
अतः मित्र के उत्तर को सुन वह स्तब्ध-सा रह गया। सच यही था कि पिछले बीस वर्षों में लोगों के परिवार संयुक्त नहीं रह गए थे। एकल परिवार हम दो, हमारे दो-के प्रति लोगों का आकर्षण बहुत आगे बढ़ चुका था।
विशेष :
11. "राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। साहित्य के पास सामाजिक सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। सबने सोचा कि हम जनरल (सामान्य) बातें करके, सिर्फ और एकमात्र राजनीतिक या साहित्यिक आन्दोलन के जरिए, वस्तुस्थिति में परिवर्तन कर सकेंगे। फलतः सामाजिक सुधार का कार्य केवल अप्रत्यक्ष प्रभावों को सौंप दिया गया......।"
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के परिचयात्मक निबंध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' से लिया गया है।
प्रसंग - इस अंश में लेखक को मित्र द्वारा बताई गई सबसे बड़ी भूल का परिचय कराया गया है।
व्याख्या - जब लेखक के मित्र ने पिछले बीस वर्षों की सबसे महान घटना संयुक्त परिवारों का ह्रास' बताई तो लेखक ने उसकी परीक्षा लेने की नीयत से पूछा कि बीते वर्षों में सबसे बड़ी भूल क्या हुई ? मित्र तनिक सोचकर कहा कि पिछले वर्षों में सबसे बड़ी भूल यह हुई कि राजनीतिक लोगों ने अपने कार्यक्रमों में समाज सुधार को स्थान नहीं दिया। इसी प्रकार साहित्यकारों ने भी समाज सुधार को अपना काम नहीं माना।
सब लोग यही सोचते रहे कि केवल स बातें करके, अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली जाए। राजनीतिकों और साहित्यकारों, दोनों को यह विश्वास था कि केवल आन्दोलनों के जरिए वे समाज में सुधार कर सकते थे। अतः उन्होंने समाज सुधार में सीधा भाग नहीं लिया। इस काम को साहित्य और राजनीति से पड़ने वाले प्रभावों के हवाले छोड़ दिया। परिणाम यह हुआ कि समाज-सुधार का काम राम भरोसे चलता रहा। लेखक के मित्र के अनुसार यह एक बहुत बड़ी भूल थी।
विशेष :
12. लेकिन मेरा मित्र तैश में था। उसने कहा, “समाज में वर्ग हैं, श्रेणियाँ हैं। श्रेणियों में परिवार हैं। समाज की एक बुनियादी इकाई परिवार भी है। समाज की अच्छाई-बुराई परिवार के माध्यम से व्यक्त होती है। मनुष्य के चरित्र का विकास परिवार में होता है। बच्चे पलते हैं, उन्हें सांस्कृतिक शिक्षा मिलती है। वे अपनी सारी अच्छाइयाँ-बुराइयाँ वहाँ से लेते हैं। हमारे साहित्य तथा राजनीति के पास ऐसी कोई दृष्टि नहीं है जो परिवार को लागू हो....."
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के निबंध 'नए की जन्म कुण्डली : एक' से उद्धृत है।
प्रसंग - लेखक के मित्र ने सबसे बड़ी भूल बताई थी, सामाजिक सुधार की राजनीति और साहित्य में उपेक्षा होना। लेकिन लेखक उसके मत से पूरी तरह सहमत न था। मित्र ने लेखक के विचार को, भाँप लिया और वह आवेश में आ गया। इस अंश में लेखक का मित्र अपने मत पर जोर दे रहा है।
व्याख्या - लेखक का मित्र कहने लगा कि मनुष्य समाज, वर्ग और श्रेणियों में बँटा हुआ है। परिवार समाज की एक श्रेणी या इकाई है। परिवारों द्वारा ही किसी समाज की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ प्रकट होती हैं। परिवार में ही मनुष्य के चरित्र का विकास होता है। परिवार में ही बच्चों का लालन-पालन होता है और उसके संस्कारों का निर्माण होता है। अत: बच्चों में . जो भी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ आती हैं, वे उनके परिवारों से ही प्राप्त होती हैं। आज संकट यह है कि हमारे राजनीति और हमारे साहित्य के पास परिवार को सुधारने वाली कोई दूरदृष्टि नहीं। इसी का परिणाम है कि संयुक्त परिवार बिखरते चले गए हैं।
विशेष :
13."लड़के बाहर राजनीति या साहित्य के मैदान में खेलते और घर आकर वैसा ही सोचते या करते, जो सोचा या किया जाता रहा। समाज में, बाहर, पूँजी या धन की सत्ता से विद्रोह की बात की गई, लेकिन घर में नहीं। वह शिष्टता और शील के बाहर की बात थी। मतलब यह कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर में नहीं; घर से बाहर दी गई।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यावतरण 'अंतरा भाग-1' में संकलित 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के निबन्ध 'नए की जन्म कुण्डली: एक' से उद्धृत है।
प्रसंग - व्यक्ति लेखक से संयुक्त सामंती परिवार के बस की बात कह रहा था। परिवार समाज की बुनियादी इकाई है जहाँ मनुष्य संस्कारित बनता है, उसके चरित्र का विक्रास होता है। मनुष्य का व्यवहार और बाहर एक-सा ही नहीं होता। इसी की चर्चा इस गद्यांश में है।
व्याख्या - उस व्यक्ति ने कहा कि नयी पीढ़ी घर और बाहर एक-सा ही व्यवहार नहीं करती। लड़कों को घर के बाहर राजनीति और साहित्य से सम्पर्क रहता है, उन पर चर्चा करते हैं, तर्क-वितर्क करते हैं, किन्तु घर में राजनीति और साहित्य की चर्चा नहीं करते। घर में उनका इनसे कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता। घर में वे वही सोचते और करते हैं जैसा घर के सदस्य करते हैं। घर के बाहर समाज में पूँजी और धन की शक्ति का घोर विरोध किया जाता है। उसके महत्त्व के प्रति विद्रोह किया जाता है। किन्तु घर में उसका विरोध नहीं होता। घर में पूँजी और धन के महत्व का विरोध करना शिष्टता और शालीनता के विरुद्ध माना जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अन्यायपूर्ण व्यवहार को चुनौती बाहर दी जाती है घर में नहीं, जबकि घर और बाहर दोनों जगह एक-सा व्यवहार होना चाहिए। जहाँ अन्याय दीखे वहीं विरोध और विद्रोह होना चाहिए।
विशेष :
14. "इसलिए पुराने सामंती अवशेष बड़े मजे में हमारे परिवारों में पड़े हुए हैं। पुराने के प्रति और नए के प्रति इस भयानक अवसरवादी दृष्टि अपनाई गई है। इसलिए सिर्फ एक सप्रश्नता है। प्रश्न है, वैज्ञानिक पद्धति का अवलंबन करके उत्तर खोज निकालने की न जल्दी है, न तबीयत है, न कुछ। मैं मध्यवर्गीय शिक्षित परिवारों की बात कर रहा हूँ।"
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश ‘गजानन माधव मुक्तिबोध' के निबन्ध 'नए की जन्म कुंडली : एक' का अंश है। यह निबन्ध 'अंतरा भाग-1' में संकलित है।
प्रसंग - व्यक्ति ने कहा कि बाहर विद्रोह करने वाले घर में विद्रोह नहीं करते। वे घर में एक अजीब-सा समझौता कर लेते हैं। व्यक्ति ने ऐसे समझौतों को अच्छा नहीं माना और अस्वीकार किया। इसी क्रम में यह व्यक्ति का कथन है।
व्याख्या - व्यक्ति ने कहा कि परिवारों के विघटन के डर से घरों में विरोध नहीं हो रहा है। इस समझौतावादी दृष्टिकोणों के कारण ही परिवारों में पुराने सामंतवादी अवशेष विद्यमान हैं। पुरानी मान्यताएँ, पुरानी परम्पराएँ अभी तक मिटी नहीं हैं। आज भी परिवार लकीर के फकीर बने हुए हैं। रूढ़ियों के विरोध में कोई जबाम नहीं खोल रहा। उनकी चर्चा भी नहीं कर रहा है। परिवारों ने अवसरवादी दृष्टिकोण अपना रखा है।
मौका देखकर कभी नये को महत्त्व दे देते हैं और कभी पुराने को अपना लेते हैं, कभी पुराने विचारों को अपना लेते हैं तो कभी नए विचारों को महत्त्व दे देते हैं। सत्यता यह है कि हमारा दृढ़ निश्चय ही नहीं है। हम कभी पुराने की ओर लुढ़क जाते हैं और कभी नए की ओर। हम यह निश्चय नहीं कर पाते कि पुराना अच्छा है या नया अच्छा है। हमारा दृष्टिकोण वैज्ञानिक नहीं है। पुराने नए को अपनाने का यह द्वन्द्व मध्यमवर्गीय परिवारों में अधिक देखने को मिलता है। वे इस प्रश्न का समाधान करने के लिए चिन्तित नहीं हैं।
विशेष :
15. मान-मूल्य, नया इंसान परिभाषाहीन और निराकार हो गए। वे दृढ़ और नया जीवन, नए व्यापक मानसिक सत्ता के अनुशासन का रूप धारण न कर सके। वें धर्म और दर्शन का स्थान न ले सके।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश 'गजानन माधव मुक्तिबोध' के निबन्ध 'नए की जन्म कुंडली : एक' से लिया गया है। यह निबन्ध 'अंतरा भाग-1' में संकलित है।
प्रसंग - नए ने पुराने का स्थान नहीं लिया है क्योंकि हमारा दृष्टिकोण धर्म-भावना की तरह अनुशासित नहीं है। सही उत्तर खोजने की लापरवाही है। नए के लिए चिल्ला तो रहे हैं। पर नया क्या है इसे समझ नहीं रहे हैं, इसी प्रसंग में उक्त पंक्तियाँ दी गई हैं।
व्याख्या - उस व्यक्ति ने कहा कि पहले हमारा जीवन धर्म पर आधारित था। धर्म के कारण अनुशासित था। धर्म के कारण हमारी विचारधारा और आन्तरिक प्रेरणाएँ नियंत्रित रहती थीं। हमने नए विचारों के युग में धर्म की तो उपेक्षा कर दी लेकिन उसके स्थान पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित नहीं कर पाए। नया महत्त्वपूर्ण है, अच्छा है, उसे ग्रहण करना चाहिए, इस प्रकार तो हम कहते रहे परन्तु उस नए के बारे में कुछ नहीं जानते। नया अपनाने से जीवन में क्या परिचालन होगा। इसे नहीं जानते। इस प्रकार हमारी मान्यताएँ, जीवन मूल्य तथा एक नए मानव की परिकल्पना आज भी परिभाषाहीन बनी हुई हैं। हमारे मस्तिष्क में उनका कोई स्वरूप अवस्थित नहीं है। परिणाम यह हुआ कि हमारी नई मान्यताएँ दृढ़ नहीं बन सकी। वे पुराने धर्म और दर्शन का विकल्प नहीं बन पाईं। हम कोई नया मानसिक अनुशासन नहीं गढ़ सके। इसका नतीजा सामाजिक ढाँचे के बिखरने के रूप में सामने आ रहा है।
विशेष :