Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi Antra Chapter 14 संध्या के बाद Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
संध्या के समय प्रकृति में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं, कविता के आधार पर लिखिए।
उत्तर :
संध्या के समय जब सूर्य क्षितिज की ओर अपने कदम बढ़ाता है तब दिन की अपेक्षा प्रकृति में परिवर्तन हो जाता है। प्रकृति में निम्न परिवर्तन देखने को मिलता है -
(क) सूर्यास्त के समय उसकी लालिमा वृक्षों की चोटियों पर जाकर बिराज जाती है। वृक्षों के पत्ते लाल रंग के हो जाते
(ख) पीपल के पत्तों का रंग भी सुनहरा हो जाता है।
(ग) सूर्य की सुनहरी किरणों के कारण वृक्षों के पत्ते सुनहले हो जाते हैं।
(घ) अस्तालचलगामी सूर्य का प्रकाश गंगाजल में खंभे की भाँति प्रविष्ट होता हुआ प्रतीत होता है।
(ङ) सूर्य की सुनहरी किरणों के प्रभाव से गंगाजल चितकबरे अजगर की तरह धीरे-धीरे सरकता हुआ दिखाई देता है।
(च) गंगा तट की बालू भी धूप-छौंह के रंग में रंगी दिखाई देती है।
(छ) पक्षी, गाय और गाँव के किसान तथा व्यापारी अपने-अपने घरों को लौटने लगते हैं।
(ज) धीरे-धीरे कालिमा पसरने लगती है।
प्रश्न 2.
पंतजी ने नदी के तट का जो वर्णन किया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
गंगा-तट पर अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें पड़ रही हैं। गंगा-तट पर कहीं प्रकाश पड़ रहा है, कहीं छाया है। इस कारण तट की बालू धूप-छाँह रंग में रंजित दिखाई देती है। बालू, जल और वायु तीनों मिलकर तट का दृश्य ही अद्भुत बना देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है वायु पिघल कर जल और जल पिघलकर अपनी गति खोकर हिमखण्डों में बदल गया है। तट पर मन्दिरों में शंख और घंटे बज रहे हैं। श्वेत वस्त्र धारण कर वृद्धाएँ और विधवाएँ ध्यान मग्न बैठी हैं। श्वेत वस्त्र धारण करने के कारण उन्हें बगुलों की उपमा दी है। नीला जल श्वेत बादलों से प्रतिबिम्बित होने के कारण श्वेत दिखाई देता है।
प्रश्न 3.
बस्ती के छोटे से गाँव के अवसाद को किन-किन उपकरणों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है?
उत्तर :
माली की झोपड़ी से उठता हुआ धुऔं सारी बस्ती के ऊपर दूसरे आकाश-सा छा जाता है। ऐसा लगता है कि सारी बस्ती को अवसाद ने घेर लिया हो। कस्बे के व्यापारी अपनी-अपनी दुकानों पर टिन की ढिबरी के उजाले में बैठे हैं, जो उजाला कम और धुआँ अधिक उगलती है। यह धुओं एक तरह से उन व्यापारियों के मन का अवसाद ही है जो काला धुआँ बनकर बस्ती को घेर लेता है। छोटे व्यापारी इस छोटी-सी बस्ती में लेन-देन के झूठे सपने देखकर उस ढिबरी की लौ के साथ ही अपनी विवशता का, अपनी मौन निराशा को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए अपने अवसाद को ही प्रकट कर रहे होते हैं। चारों ओर का वातावरण निराशा और अवसाद के उपादानों से भरा पड़ा है।
प्रश्न 4.
लाला के मन में उठने वाली दुविधा को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
छोटी-सी बस्ती में किराना और परचून की साधारण-सी दुकान चलाने वाला व्यापारी न तो अपने परिवार की भोजन-वस्त्र आदि की समुचित व्यवस्था कर पाता है, न ही उसके पास पक्का और सुन्दर मकान ही है और न ही परिवार के लोग सुखी और स्वस्थ हैं। ऐसा सोचते हुए वह इस समाज-व्यवस्था की कमियों को दूर करने का उपाय साम्यवाद में ढूँढ़ता है। यदि सभी लोग सामूहिक रूप से उत्पादन करें तथा वितरण की समान व्यवस्था हो तो समाज में व्याप्त ऊँच-नीच का भेद मिट सकता है। लाला जब अपनी दैन्य स्थिति और साम्यवाद में उसका हल खोज रहा था उसका मन दु:ख, ग्लानि और लज्जा से भर रहा था लेकिन उसी समय एक बुढ़िया आधा-पाव आटा लेने आ गई। लाला ने कम तौलकर उसका शोषण किया। वास्तव में "दरिद्रता सब पापों की जननी है" कवि का यह कथन लाला की दुविधा को अभिव्यक्त करता है।
प्रश्न 5.
सामाजिक समानता की छवि की कल्पना किस तरह अभिव्यक्त हई है?
उत्तर :
कवि सुमित्रानन्दन पंत ने गाँव के लाला के माध्यम से समाज में व्याप्त दुःख का मूल कारण विषमता को माना है। लाला परिश्रम करके भी अपने परिवार के सुख को आकांक्षा को पूर्ण नहीं कर पा रहा है। अतः विषमता को दूर करने के लिए वह सोचता है कि सभी लोग सामूहिक रूप से समाज की उन्नति के उपाय करें और धन का वितरण गुण और योग्यता के आधार पर किया जाये, तो समाज में व्याप्त विषमता दूर होगी और समाज सुखी हो पायेगा। धन का स्वामी व्यक्ति न होकर समाज हो तो इस व्यवस्था परिवर्तन से सम्पूर्ण विश्व के सभी देशों के सभी प्राणी सुखी हो सकते हैं। वास्तव में व्यक्तिवादी सोच मनुष्य को स्वार्थी बनाती है, समाज में शोषण का आधार बनती है। अतः शोषण-विहीन समाज ही समाज से दरिद्रता के पाप को दूरकर सबको सुखी बना सकता है।
प्रश्न 6.
"कर्म और गुण के समान हो वितरण" पंक्ति के माध्यम से कवि कैसे समाज की ओर संकेत कर रहा
उत्तर :
कवि चाहता है कि संसार में शोषण-विहीन समाज का निर्माण हो। धन पर व्यक्ति का नहीं समाज का स्वामित्व हो। सभी लोग सामूहिक परिश्रम करके समाज का नव-निर्माण करें तथा समाज में सामूहिक वितरण प्रणाली अर्थात् कर्म और गुण के समान ही वितरण की व्यवस्था हो सकेगी। तभी समाज शोषण से मुक्त होकर मुक्ति के वातावरण में जी सकेगा तथा जो दरिद्रता पापों की जननी है, उसका अन्त होगा। लोग पाप, ताप और भय से मुक्त होंगे।
प्रश्न 7.
निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
तट पर बगुलों सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन।
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!
उत्तर :
प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि की भावपूर्ण अभिव्यक्ति को प्रकट करती हैं। एक ओर कवि ने श्वेत वस्त्र धारण किये हुए वृद्धाओं और विधवाओं को बगुलों की तरह रंग-साम्य के आधार पर चित्रित किया है लेकिन बगुले के समान ध्यानमग्न में व्यंग्य भी है, क्योंकि बगुले का ध्यान मात्र मछली को भ्रमित करने के लिए है। अतः वृद्धाएँ और विधवाएँ भी अपने मन को मिथ्या शांति देने के लिए ध्यानमग्न होने का प्रयास कर रही हैं। गंगा की मंथर-धारा के रूप में मानो उनके हृदय का दुख बहता जा रहा है। इन पंक्तियों द्वारा कवि उन उपेक्षिताओं के प्रति हमारे मन में करुणा उत्पन्न कर देता है। कवि का भाव-सौन्दर्य समाज के उत्पीडित वर्ग के प्रति करुणादायक है; अतः उपयुक्त है।
भाषा - संस्कृतनिष्ठ सामान्य बोलचाल की खड़ी बोली का प्रयोग उपयुक्त ही किया गया है। समस्त पद व्यंजना शब्द शक्ति से युक्त है।
अलंकार - "तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ, विधवाएँ" में उपमा तथा अनुप्रास अलंकार है। करुण रस का उद्रेक हुआ है।
शैली - चित्रात्मक शैली का प्रयोग दृष्टव्य है।
प्रश्न 8.
आशय स्पष्ट कीजिए -
(क) ताम्रपर्ण, पीपल से, शतमुख/झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!
(ख) दीप-शिखा-सा ज्वलित कलश/नभ में उठकर करता नीराजन!
(ग) सोन खगों की पाँति/आर्द्र ध्वनि से नीरव नभं करती मुखरित!
(घ) मन से कढ़ अवसाद श्राँति/आँखों के आगे बुनती जाला!
(ङ) क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों/गोपन मन को दे दी हो भाषा!
(च) बिना आय की क्लाति बन रही/उसके जीवन की परिभाषा!
(छ) व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी/दोषी जन के दुःख क्लेश की।
उत्तर :
(क) सूर्यास्त के समय लालिमा के बिखरने से पीपल के पत्ते भी ताँबे जैसे लाल रंग के हो गये हैं। और झरते हुए पीपल के पत्ते इस प्रकार दिखाई देते हैं मानो सैकड़ों धाराओं से युक्त बहते चंचल झरने सुनहरे रंग में रंग गये हैं।
(ख) मन्दिर का कलश सूर्य की सुनहरी किरणों से प्रकाशित होकर दीपक की लौ जैसा दिखाई देता है जो कि अस्ताचलगामी सूर्य की आरती करके अपनी पूजा-अर्चना प्रकट कर रहा हो।
(ग) सूर्यास्त की सुनहली किरणों ने पक्षियों को सुनहला पक्षी बना दिया है। वे पंक्तिबद्ध उड़ते हुए अपनी ममतामयी ध्वनि से शांत आकाश को कोलाहल से यानी कलरव से भर देते हैं।
(घ) टिन की ढिबरी प्रकाश कम देती है, लेकिन धुआँ ज्यादा उगलती है। कवि इसके प्रकाश की आशा से और धुएँ की अवसाद से तुलना करता हुआ कह रहा है कि गाँव के छोटे व्यापारियों के मन में निराशा ज्यादा है, खुशी कम है। अतः ढिबरी से उगलता धुआँ उनकी आँखों के आगे निराशा का जाल-सा बुन देता है।
(ङ) उन दीपकों के मंद उजाले ने दुकानदारों के मन की घोर निराशाओं को अभिव्यक्ति प्रदान कर दी है अर्थात अधिक श्रम करके भी उन्हें जीवन में सुख नहीं मिलता, उनका मन निराशा से भर उठता है। दीपक की क्षीण ज्योति इस भाव को अभिव्यक्ति देने में सफल रही है।
(च) ग्रामीण बस्ती का व्यापारी सोचता है कि इस गाँव में उसकी आय के स्रोत बहुत सीमित हैं। अतः उसे शहरी व्यापारियों जैसा सुख नहीं मिल पाता। उसके जीवन में आय कम है, अतः गरीबी ही उसके जीवन का अर्थ बन गई है।
(छ) गाँव का व्यापारी सोच रहा है कि अमीर-गरीब का भेद व्यक्ति का दोष न होकर समाज-व्यवस्था या जग की परम्परा का दोष है। इसे समाप्त होना चाहिए। समाज का ही सारा धन हो, व्यक्ति का नहीं हो, तो समाज में कोई दुखी नहीं होगा।
योग्यता विस्तार -
प्रश्न 1.
ग्राम्य जीवन से सम्बन्धित कविताओं का संकलन कीजिए।
उत्तर :
छात्र स्वयं करें।
प्रश्न 2.
कविता में निम्नलिखित उपमान किसके लिए आए हैं, लिखिए-
(क) ज्योति स्तम्भ सा उपमान-संध्याकालीन सूर्य के लिए है।
(ख) केंचुल-सा उपमान-सूर्यास्त के कारण चितकबरे गंगाजल को आया है।
(ग) दीपशिखा-सा उपमान-संध्याकाल में सूर्य के सुनहले प्रकाश में चमकते मन्दिर कलश के लिए।
(घ) बगुलों-सी उपमान श्वेत वस्त्रधारी गंगा तट पर बैठी वृद्धाओं और विधवाओं के लिए।
(ङ) स्वर्ण चूर्ण सी उपमान - सूर्यास्त के समय गो-रज के लिए आया है।
(च) सनन् तीर-सा उपमान-उपमान तीव्र गति उड़ते जा रहे पक्षियों के पंखों की सरसराहट और उनके कंठों से निकलते स्वरों के लिए।
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
गंगातट की रेती का रंग है -
(क) नीला
(ख) काला
(ग) धूपछौंही
(घ) सफेद
उत्तर :
(ग) धूपछौंही
प्रश्न 2.
सोन खगों की पंक्ति लगती है -
(क) अँधेरे की रेखाओं जैसी
(ख) सुनहली रेखाओं जैसी
(ग) लालिमा की रेखाओं जैसी
(घ) उड़ते धागों जैसी
उत्तर :
(क) अँधेरे की रेखाओं जैसी
प्रश्न 3.
कस्बे के व्यापारी बैठे हैं -
(क) घरों में
(ख) दुकानों पर
(ग) अलाव जलाकर
(घ) गंगातट पर
उत्तर :
(ख) दुकानों पर
प्रश्न 4.
लाला कैसी समाज चाहता है -
(क) धन संपन्न
(ख) शोषण मुक्त
(ग) सुशिक्षित
(घ) संघर्षशील
उत्तर :
(ख) शोषण मुक्त
प्रश्न .5
पापों की जननी है -
(क) अशिक्षा
(ख) दरिद्रता
(ग) स्वार्थ भावना
(घ) धन लोलुपता
उत्तर :
(ख) दरिद्रता
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
सूर्यास्त के समय संध्याकालीन लालिमा कहाँ जा पहुँची है?
उत्तर :
संध्याकालीन लालिमा वृक्षों के शिखरों पर जा पहुँची है।
प्रश्न 2.
कवि पंत ने 'स्वर्णिम निर्झर' किन्हें कहा है?
उत्तर :
कवि ने लाल रंग के हो गए पीपल वृक्ष के हिलते पत्तों को 'स्वर्णिम निर्झर' (सुनहरे झरने) कहा है।
प्रश्न 3.
सरिता में प्रकाश के स्तंभ के समान धंसता हुआ क्या लग रहा है?
उत्तर :
अस्त होता हुआ सूर्य नदी के जल में फँसे हुए प्रकाश के स्तंभ जैसा लग रहा है।
प्रश्न 4.
सूर्यास्त के समय गंगा की रेती फैली लग रही है?
उत्तर :
सूर्यास्त के समय गंगा तट की रेती धूप-छाँह के रंगवाली और साँपों जैसी आकृतियों से युक्त दिखाई दे रही है।
प्रश्न 5.
'सिकता, सलिल, समीर सदा से' वाक्यांश में कौन सा अलंकार है? लिखिए।
उत्तर :
इस वाक्यांश में अनुप्रास अलंकार है क्योंकि यहाँ 'स' वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हुई है।
प्रश्न 6.
'दीपशिखा सा ज्वलित कलश' में अलंकार बताइए।
उत्तर :
इस पंक्ति में 'कलश' उपमेय की 'दीपशिखा' उपमान से तुलना की गई है। अतः यहाँ उपमा अलंकार है।
प्रश्न 7.
गंगातट पर बगुलों के समान किन्हें बैठी दिखाया गया है?
उत्तर :
गंगातट पर ध्यान मग्न सी बैठी वृद्ध और विधवा स्त्रियों को बगुलों के समान दिखाया गया है।
प्रश्न 8.
संध्या के समय आकाश में तीर के समान सनसनाता हआ क्या जाता प्रतीत हो रहा है?
उत्तर :
तेजी के साथ जाते पक्षियों के पंखों की ध्वनि और उनके कंठों से निकलता स्वर सनसनाते तीर के समान प्रतीत हो रहा है।
प्रश्न 9.
पैंठ से लौटते व्यापारी गंगा पार कैसे जा रहे हैं?
उत्तर :
व्यापारी अपने ऊँटों और घोड़ों के साथ नावों पर खाली बोरों पर बैठकर हुक्का पीते गंगा पार जा रहे हैं।
प्रश्न 10.
माली की झोंपड़ी से उठने वाला धुआँ कैसा लग रहा है?
उत्तर :
धुऔं आकाश के नीचे स्थित दूसरे आकाश जैसा और नीली रेशम से बनी हलकी और मंद वायु में तैर रही, जाली जैसा लग रहा है।
प्रश्न 11.
कस्बे के व्यापारी कहाँ और कैसे बैठे हुए हैं?
उत्तर :
कस्बे के व्यापारी अपनी दुकानों पर टिन की ढिबरियाँ जलाकर बैठे हुए हैं।
प्रश्न 12.
लाला के मन में संवेदनशीलता कब जागी?
उत्तर :
जब दुकान की आय से परिवार का पालन नहीं हो रहा था। लाला शारीरिक और मानसिक व्यथा से पीड़ित हो रहा था तभी उसके मन में मानवीय संवेदना जागी।
प्रश्न 13.
लाला सामाजिक व्यवस्था में क्या परिवर्तन चाह रहा था?
उत्तर :
लाला चाह रहा था कि समाज में सभी को उसके परिश्रम का पूरा फल प्राप्त हो। दरिद्रता दूर हो।
प्रश्न 14.
बुढ़िया के आधा-पाव आटा लेने आने पर लाल ने क्या किया?
उत्तर :
लाला ने बुढ़िया को पूरी तोल से आटा नहीं दिया।
प्रश्न 15.
कवि ने बुढ़िया के प्रसंग द्वारा क्या व्यंग्य किया है?
उत्तर :
कवि ने लोगों की कथनी और करनी में अंतर को सामने लाकर यह संकेत दिया है कि संसार में गरीबी ही सारे पापों की जड़ है।
लयूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
संध्या में पक्षी, पशु और मनुष्यों के लौटने का पंतजी ने जो चित्रात्मक वर्णन किया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
पंतजी प्रकृति को गहराई से देखते हैं। आकाश में उड़ने वाले पक्षी पंक्तिबद्ध जाते हुए ऐसे लगते हैं मानो अंधकार की रेखाएँ हों। सुनहरी पंख वाले सोन पक्षी आर्द्र ध्वनि करते लौट रहे हैं। उनके कलरव से सारा आकाश गुंजायमान हो रहा है। तीव्र गति से जा रहे पक्षियों के पंखों की गति से लग रहा है जैसे कोई तीर सनसनाता हुआ जा रहा हो। गायें घर लौट रही हैं। उनके पैरों के खुरों से धूल उड़ रही है जिस पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें पड़ रही हैं। वह रज देखने में स्वर्ण चूर्ण सी लगती है। कुत्ते भौंक रहे हैं और सियार हुआँ-हुआँ कर रहे हैं। पंतजी का यह वर्णन बड़ा चित्रात्मक है।
प्रश्न 2.
'संध्या के बाद' कविता में ग्रामीण परिवेश में व्याप्त संध्या की नीरवता का सुन्दर चित्रण किया है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
गरीबी के कारण गाँव के निवासियों का मन और जीवन दोनों ही निराशा के अन्धकार से ग्रसित हैं। इस कारण उनका जीवन नीरस हो गया है। गाँव की संध्या भी नीरस है। वह भी ग्रामीणों का साथ देती हुई प्रतीत होती है। जाड़े की रात है। खेत, बाग, घर, वृक्ष, नदी तट और पानी की लहरें सब शान्त हैं -
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिट्टी खपरे के घर आँगन।
घरों में हलचल नहीं है, केवल काला धुआँ झोंपड़ियों से बाहर निकल रहा है। उदास मन से व्यापारी अपनी दुकान पर बैठे हैं।
प्रश्न 3.
'गरीबी एक अभिशाप है, यह कथन 'संध्या के बाद' कविता से भली प्रकार स्पष्ट होता है। अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर :
'भूखा मरता क्या न करता' यह उक्ति सदा से चरितार्थ होती आ रही है। 'संध्या के बाद' कविता में कवि ने इसे , पूर्ण अभिव्यक्ति दी है। कस्बे का व्यापारी जो दुकान पर बैठा समानता के बारे में सोच रहा है, शोषण विहीन समाज की कल्पना करता है। वही एक बुढ़िया को आटा तोलते समय डडी मार देता है। उस समय उसकी सोच समाप्त हो जाती है। र गरीब है, कच्चे घर में रहता है। छोटी दुकान से आमदनी अधिक नहीं होती। यही कारण है कि वह लेनदेन में ईमानदारी नहीं बरतता है।
प्रश्न 4.
'रोक दिए हैं किसने उसकी जीवन उन्नति के सब साधन?' व्यापारी की सोच क्या है और वह क्या चाहता
उत्तर :
सुमित्रानन्दन पंतजी ने गाँव के व्यापारी के माध्यम से अपनी बात कही है। गाँव का व्यापारी सोचता है मेरी इस गरीबी और दुर्दशा का कारण क्या है? इसके लिए क्या व्यक्ति दोषी है अथवा समाज-व्यवस्था इसका कारण है। वह चाहता है कि इस गलत समाज-व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए। कर्म और गुण के आधार पर आय-व्यय का वितरण हो। सब में सामूहिक कार्य करने की प्रेरणा जाग्रत हो।
प्रश्न 5.
'पशु पर फिर मानव की हो जय' पंतजी की भावना को व्यक्त कीजिए।
अथवा
'पंतजी मानवतावादी कवि हैं। इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
उत्तर :
व्यक्तिगत स्वार्थ और शोषण की प्रवृत्ति ही सामाजिक असमानता का कारण है। व्यक्ति सामूहिक रूप में कार्य करे और सबके लिए सोचे तभी समाज का भला हो सकता है। स्वार्थ भावना के कारण ही व्यक्ति दूसरों का शोषण करता है। परस्पर मिलकर कार्य करने की भावना प्रबल होनी चाहिए। जब तक व्यक्ति केवल अपने बारे में ही सोचेगा विषमता नहीं मिटेगी। कर्म और गुण के आधार पर सार्वजनिक आय का वितरण होना आवश्यक है। उन्नति के लिए सभी कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य करें। इस काव्यांश में कवि ने शोषण रहित समाज की स्थापना का सन्देश दिया है।
प्रश्न 6.
कवि पंत शब्द-शिल्पी हैं। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रत्येक कवि की अपनी भाषा और अपनी अभिव्यक्ति होती है। पंतजी इस क्षेत्र में बेजोड़ हैं। उन्होंने अपनी कविता के अनुरूप ही अपनी भाषा का शिल्प गढ़ा है। उन्होंने 'संध्या के बाद' कविता में नये शब्दों का निर्माण किया है। जैसे-ताम्रपर्ण, विश्लथ, वृहद चिम चितकबरा; गंगाजल, सपांकित, लवोपम आदि। लवोपम शब्द बिल्कुल नया शब्द है। 'विषण्ण निशि बेला को स्वर' में विषण्ण निशि बेला एकदम नया प्रयोग है। जीवन की परिभाषा, कौड़ी की स्पर्धा ऐसे प्रयोग हैं जो पंतजी जैसे शिल्पी ही कर सकते हैं। 'डंडी मारना' मुहावरे को साहित्यिक भाषा में स्थान दिया है। स्पष्ट है कि कवि पंत भावों के अनुकूल शब्द गढ़ने में कुशल हैं।
प्रश्न 7.
ग्रामीण व्यापारियों के माध्यम से कवि ने ग्रामीण जीवन का कारुणिक चित्र खींचा है। अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए।
उत्तर :
कवि ने कविता में ग्रामीण व्यापारियों की दशा का मार्मिक चित्र खींचा है। दुख ही उसके जीवन की परिभाषा है। निराश और निष्क्रिय बना वह दुकान पर बैठकर अपने दुखद जीवन के सम्बन्ध में सोचता है। उसका जीवन जड़वत है। 'बत्ती जला बैठे सब कस्बे के व्यापारी' पंक्ति द्वारा कवि ने उन व्यापारियों की दयनीय स्थिति का चित्रण किया है जो व्यापार के अभाव में हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। सकुची-सी परचून की दुकान उसके अरमानों को पूरा करने में असमर्थ है। उसका पक्का मकान नहीं है। सुख-सुविधाओं का अभाव है। दुकान पर बैठा-बैठा अपनी असमर्थता के सम्बन्ध में सोचता रहता है। कवि ने ग्रामीण गरीबी का भावात्मक चित्रण किया है। व्यापारी तो उसकी भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम है।
निबंधात्मक प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
'संध्या के बाद' कविता का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
पंतजी ने अपनी कविता में दो चित्र प्रस्तुत किए हैं। एक ग्रामीण परिवेश की प्रकृति का चित्रण और दूसरा ग्रामीणों की आर्थिक विपन्नता और दयनीय स्थिति का चित्रण। कविता का आरम्भ ही प्राकृतिक वातावरण के वर्णन से हुआ है। संध्या धीरे-धीरे धरती पर उतर रही है। उसकी लालिमा केवल वृक्षों की चोटियों पर शेष रह गई है। सुनहरी किरणों से प्रभावित झरनों का पानी स्वर्णिम बनकर गिर रहा है। गंगा-जल में सूर्य की आभा धंस रही है। श्वेत बादलों का प्रतिबिम्ब नदी के पानी पर पड़ रहा है।
ग्रामीणों की दयनीय स्थिति का यथार्थ वर्णन कवि का उद्देश्य है। छोटे दुकानदार कम आमदनी के कारण अपने परिवार का भलीभाँति भरण-पोषण नहीं कर पाते हैं। उनके पास रहने को पक्के मकान नहीं हैं। प्रकाश की व्यवस्था नहीं है। टिन की ढिबरी के मंद प्रकाश में काम करते हैं। झोंपड़ी से इतना घना काला धुआँ उठता है जिससे आकाश के नीचे एक काला आकाश और दिखाई देता है। गरीबी के कारण वह पाप करता है। वस्त्रों के अभाव में फटे कपड़ों की गुदड़ी से अपना तन ढक लेता है। वृद्धाओं और विधवाओं का निराशापूर्ण जीवन है। इसका चित्रण करना ही कवि का उद्देश्य है।
प्रश्न 2.
कवि पंत प्रकृति चित्रण के यथार्थ चितेरे हैं। 'संध्या के बाद' शीर्षक कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
पंतजी को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है। उन्होंने प्रकृति को निकटता से और सूक्ष्मता से निहारा है। प्रस्तुत कविता इसका उदाहरण है। ग्रामीण अंचल अस्ताचलगामी सूर्य के कारण संध्या की छाया धीरे-धीरे धरती पर पड़ने लगी है। संध्या में लालिमा केवल वृक्षों पर दिखाई दे रही है। पीपल के पत्तों का रंग बदल गया है। सूर्य की अन्तिम सुनहरी किरणों से जल भी स्वर्णिम हो गया है। सूर्य का प्रकाश नदी के जल में अन्दर तक दिखाई दे रहा है।
सूर्य की किरणों से प्रकाशित गंगाजल चितकबरे अजगर की तरह धीरे-धीरे बह रहा है। बालू धूप-छौंह के रंग की सी दिखती है। गगनचारी पक्षी पंक्तिबद्ध अपने घोंसलों की ओर लौट रहे हैं। मन्दिरों के कलश सूर्य की किरणों से प्रकाशित हो रहे हैं। गायों के खरों से धूल उड़ रही है जो स्वर्ण चूर्ण सी दिखती है। सारा वातावरण शान्त है और अंधकार धीरे-धीरे सबको निगल रहा है। झोंपड़ी से उठता काला धुआँ संध्या की कालिमा को और गहरा कर रहा है।
प्रश्न 3.
'संध्या के बाद' कविता का काव्य-सौन्दर्य अपने शब्दों में लिखिए।
भावपक्ष - 'संध्या के बाद' कविता में कवि ने अस्त होते हुए सूर्य बिम्ब और आस-पास के वातावरण का बड़ा सूक्ष्म निरीक्षण और विविधतापूर्ण चित्रण किया है। संध्या और अस्त होते सूर्य का मनोहारी चित्रण है। पक्षी, पशुओं मनुष्य संध्या को घर लौटते हैं। गरीबी का भावात्मक वर्णन है। निराश व्यापारी ढिबरी के मन्द प्रकाश में दुकान पर बैठे हैं। निराश हैं और अपनी गरीबी के सम्बन्ध में सोच रहे हैं। ग्रामीण परिवेश की नीरसता का अच्छा चित्रण किया है। कविता का भाव पक्ष मन को प्रभावित करने वाला है।
कलापक्ष - कविता का आत्मपक्ष जितना सबल है उतना ही अभिव्यक्ति पक्ष भी सफल है। भाषा में माधुर्यगुण है, सरसता है। भाषा भावानुकूल है। अलंकारों का सहज रूप में प्रयोग हुआ है। दीप शिखा-सा, बगुलों-सी, तमस रेखाओं-सी, स्वर्ण चूर्ण-सी में उपमा अलंकार है, शब्द चयन सार्थक है। लक्षण और व्यंजना शब्द शक्ति के साथ ध्वनि, शब्द और बिम्बों का अच्छा प्रयोग किया है। परिनिष्ठित खड़ी बोली का प्रयोग है।
प्रश्न 4.
'सध्या के बाद' कविता में पंतजी की कल्पना की सुन्दर उड़ान देखने को मिलती है। उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर :
कवि पंत यदि प्रकृति के सुकुमार कवि हैं तो उनकी कल्पनाएँ भी सभी को आश्चर्यचकित करने वाली हैं। कविता में प्रारम्भ से ही उन्होंने कल्पना की सुन्दर उड़ान भरी है। संध्या का मानवीकरण किया है। वह पक्षी की भाँति अपने पंख समेटकर पेड़ों पर जा बैठी है, संध्या होते ही अस्ताचलगामी सूर्य के प्रकाश को कवि ने 'प्रकाश स्तम्भ-सा' कहकर एक नई कल्पना प्रस्तुत की है। पानी पर सूर्य की रोशनी पड़ रही है। कहीं छाया है कहीं प्रकाश है।
कवि ने मंथर गति से प्रवाहित लहरों के लिए 'चितकबरे अजगर' की कल्पना की है। श्वेत वस्त्र धारी विधवाओं के लिए रंग साम्य के कारण 'बगुलों-सी' की कल्पना की है। गगनचारी पक्षियों की पंक्ति को देखकर 'समय रेखाओं-सी' की कल्पना कर ली। परचून की छोटी-सी दुकान के लिए 'सकुची-सी' का प्रयोग किया है। चिन्ताग्रस्त व्यापारी जो शान्त अपनी दुकान पर बैठा है, उसके लिए बिल्कुल नई कल्पना की जड़ अनाज के ढेर सदृश।' ऐसे बहुत से उदाहरण कविता से दिये जा सकते हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि पंतजी कल्पना के बेजोड़ कवि हैं।
कवि परिचय :
सुमित्रानन्दन पंत का जन्म उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गाँव में सन् 1900 ई. में हुआ था। इनका बचपन का नाम गोसाईं दत्त था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा और उच्च शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई। गाँधी जी के भाषण से प्रभावित होकर आपने 1919 में कॉलेज छोड़ दिया। सन् 1978 में आपका स्वर्गवास हो गया।
पंत जी प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। आप बचपन में ही काव्य-रचना करने लगे थे किन्तु वास्तविक कवि कार्य बाद में आरम्भ हुआ। सन् 1938 में आपने 'रूपाभ' नामक पत्रिका निकाली। छायावादी कवियों में आप सबसे अधिक कल्पनाशील एवं भावुक कवि माने जाते हैं। उनकी कविताओं का मूलाधार मानवतावाद है। 'पल्लव' और उसकी भूमिका का हिन्दी कविता के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। आप में सूक्ष्म से सूक्ष्म हृदय के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने की क्षमता है।
आपकी कविताओं में पल-पल परिवर्तित होने वाली प्रकृति के सजीव चित्र मिलते हैं। आपके सम्पूर्ण साहित्य में आधुनिक चेतना के दर्शन होते हैं। आपकी भाषा कहीं सरल और कहीं संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट भाषा बन गई है। उसमें सब प्रकार के भावों को प्रकट करने की क्षमता है। आपको सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार और भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिले हैं। वीणा, ग्रन्थि, पल्लव, गुंजन, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णधूलि आदि प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। आपने 'लोकायतन' महाकाव्य की रचना की है। 'चिदम्बरा' पर आपको भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ है।
पाठ-परिचय :
'संध्या के बाद' का सार - संध्या मानो अपनी किरणों को समेट कर वृक्षों की चोटियों पर चढ़कर बैठ गई है। सूर्यास्त के समय सरिता के जल में सूर्य-बिम्ब एक लम्बे स्तम्भ-सा दीखता है। सूर्य क्षितिज में छिप गया है। गंगाजल चितकबरे अजगर की भाँति मंदगति से आगे बढ़ रहा है। वायु के चलने से गंगातट की रेत धूप-छाँह के रंग की होकर लहराते सर्प जैसी लगती है। गंगाजल में बादलों के प्रतिबिम्ब और सूर्य की किरणों के पड़ने से इन्द्रधनुष का सा रंग दिखाई देता है।
गंगातट पर पूजा के घंटे बज रहे हैं। तट पर वृद्धाएँ और विधवाएँ पूजा-अर्चना करती दिखाई देती हैं। व्यापारी नाव में बैठकर घर लौट रहे हैं। अँधेरे में सब कुछ डूबता जा रहा है। माली की कुटिया से धुंआ उठ रहा है। छोटे कस्बे में व्यापारी दुकान सजाए बैठे हैं। गरीबी के कारण लोग दुखी हैं। बात-बात पर झूठ बोलते हैं। कवि सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की कामना करता है। समाज शोषण विहीन बने । सम्पूर्ण बस्ती को अंधकार ग्रस लेता है। धीरे-धीरे सारी बस्ती सो जाती है।
काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ -
1. सिमटा पंख साँझ की लाली, जा बैठी अब तरु शिखरों पर।
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख, झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!
ज्योति स्तंभ-सा धंस सरिता में, सूर्य क्षितिज पर होता ओझल।
बृहद् जिह्म विश्लथ केंचुल सा लगता चितकबरा गंगाजल।।
शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक कृति से हमारी पाठ्य पुस्तक 'अंतरा' के काव्य खण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' शीर्षक कविता से लिया गया है।
प्रसंग - सूर्यास्त और उसके पश्चात् प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों को कवि ने मानवीकरण के माध्यम से सजीव कर चित्रात्मक शैली में वर्णित किया है। संध्या काल में गंगा-तट के दृश्यों का यथार्थ चित्रण करते हुए कवि पंत कह रहे हैं कि -
व्याख्या - संध्यारूपी पक्षिणी अपने पंखों को समेट अपनी लालिमा के साथ वृक्षों की ऊँची फुनगियों पर जाकर बैठ गई है। भाव है कि संध्या हो गई है और उसकी लालिमा केवल वृक्षों की फुनगियों पर ही दिखाई दे रही है अर्थात् धरती पर श्यामता व्याप्त हो गई है, थोड़ी-सी लालिमा वृक्षों पर ही दिखाई दे रही है। संध्याकालीन सूर्य की सुनहली किरणें पीपल के हिलते हुए पत्तों पर पड़ रही हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो सुनहले रंग वाले सैकड़ों झरने झर रहे हों।
क्षितिज पर अस्ताचलगामी सूर्य का प्रतिबिम्ब सरिता के जल पर पड़ रहा है. ऐसा लगता है मानो प्रकाश का स्तंभ सरिता के जल में धंसता जा रहा हो। अर्थात धीरे-धीरे वह छिपता जा रहा है। संध्याकाल में गंगाजल की स्थिति एक अजगर के समान लग रही है जो अपनी चितकबरी केंचुली को उतारकर थका हुआ सा लग रहा है। अर्थात् गंगा की धारा पर संध्याकालीन सूर्य की किरणें पड़ रही हैं और वह मंथरगति से प्रवाहित हो रही है।
विशेष :
2. धूपछाँह के रंग की रेती, अनिल ऊर्मियों से सांकित।
नील लहरियों में लोड़ित, पीला जल रजत जलद से बिंबित!
सिकता, सलिल, समीर सदा से, स्नेह पाश में बँधे समुज्जवल।
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल, ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल।।
शब्दार्थ :
संदर्भ - कवि सुमित्रानन्दन पंत के प्रसिद्ध काव्य संग्रह 'ग्राम्या' से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' शीर्षक कविता से प्रस्तुत काव्यांश को उद्धृत किया गया है।
व्याख्या - कवि गंगातट की बालू का वर्णन करते हुए कहता है कि धूप-छाँह जैसे रंग में रंगी गंगा-तट की बालू वायु की लहरों से सौ का आकार ग्रहण कर लेती है। बालू का रंग मटमैला है, उस पर सूर्य की संध्याकालीन किरणें पड़ रही हैं। अतः बालू की श्यामता और सूर्य की किरणों के सुनहले रंग के कारण धूप-छाँह की कल्पना की है। वायु के कारण तट की बालू पर लहरें पड़ गई हैं जो सौ जैसी प्रतीत हो रही हैं। संध्या काल के सूर्य की सुनहली आभा के कारण गंगाजल पीतवर्ण का हो गया है।
ऐसा प्रतीत होता है मानो वह नीली लहरों से मथा जा रहा हो। सूर्य किरणों से पीली लहराते जल पर चाँदी जैसे सफेद बादलों की छाया पड़ रही है जो एक अदभुत छटा बिखेर रही है। बाल, रेत और वायु तीनों ही जैसे सदा से आपस में प्रेम-बन्धन में बंधे हुए हैं। इस दृश्य को देखकर ऐसा लगता है मानो वायु पिघलकर जल बन गया है और जल अपनी गति खोकर बर्फ के टुकड़ों में परिवर्तित हो गया हो। श्वेत बादलों का प्रतिबिम्ब बालू और जल पर पड़ रहा है। अतः किनारे का पानी श्वेत बादलों की परछाईं के कारण हिमखण्ड जैसा प्रतीत होता है।
विशेष :
3. शंख घंट बजते मन्दिर में, लहरों में होता लय कंपन।
दीप शिखा-सा ज्वलित कलश, नभ में उठकर करता नीराजन!
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ, विधवाएँ जप-ध्यान में मगन।
मंथर धारा में बहता, जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!
शब्दार्थ :
संदर्भ - हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित उपर्युक्त पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख स्तम्भ कविवर सुमित्रानन्दन पंत के 'ग्राम्या' नामक प्रसिद्ध काव्य-संग्रह से उद्धृत की गयी हैं।
प्रसंग - संध्या-काल के पश्चात गंगातट के अति आकर्षक दृश्यों के साथ ही ग्राम-जीवन में जो घटनाएँ घटित होती हैं, कवि ने उनका यथार्थ चित्रण किया है। कवि तट की हलचल को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि -
व्याख्या - सूर्यास्त के समय जीवन का परिदृश्य भी बदल जाता है। लोग सूर्य को अस्ताचल-गामी समझकर विदाई देने को सन्नद्ध हो जाते हैं। मंदिर में शंख और घंटे बज रहे हैं। उमसे वायु में हो रहा कंपन जैसे गंगा के जल में विलीन हो रहा है। मंदिर के शिखर पर स्थित कलश मानो आकाश में उठकर दीपशिखा से सूर्य की आरती कर रहा है। तट पर अनेक श्वेत वस्त्रधारिणी वृद्धाएँ और विधवाएँ तट पर जप-ध्यान में मग्न हैं। ऐसा लगता है कि सूर्य की विदाई-वेला से अभिभूत होकर वे भी अपने जीवन-साथी के वियोग की पीड़ा को धारा-प्रवाह के साथ ही अदृश्य रूप से विसर्जित कर रही हैं। सूर्य की विदाई-वेला ने जनजीवन के भक्ति-भाव को उद्दीप्त कर दिया है।
विशेष :
4. दूर तमस रेखाओं-सी, उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित।
सोन खगों की पाँति, आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज, किरणों की बादल-सी जलकर।
सनन् तीर-सा जाता नभ में, ज्योतित पंखों कंठों का स्वर!
शब्दार्थ
संदर्भ - प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा' के काव्य खण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से लिया गया है। इसके रचयिता कवि सुमित्रानन्दन पंत हैं।
प्रसंग - ग्रामीण-क्षेत्र में संध्याकाल में गंगा-तट की हलचलों के साथ ही गायें जंगल से लौटती हैं और गोधूलि से दिशाएँ रँग जाती हैं। पक्षी अपने-अपने घोंसलों को लौटते हैं। अत: कुछ क्षण चारों ओर कोलाहल-सा मच जाता है। कवि ने इस वातावरण को चित्रित करते हुए कहा है कि -
व्याख्या सूर्यास्त के समय पक्षी समूहों में अपने-अपने घोंसलों की ओर उड़े जा रहे हैं। इनमें सुनहले पक्षी भी हैं जो पंक्ति बनाकर उड़े जा रहे हैं। ये पंक्तियाँ दूर से अंधकार की रेखाओं जैसी लग रही हैं। ऐसा भी लगता है कि यह पंखों की गति का कोई चित्र हो। ये पक्षी अपनी सरस ध्वनियों से शांत आकाश को गुंजित कर रहे हैं। गाएँ घरों को लौट रही हैं। उनके चलने से धूल उड़ रही है। यह धूल अस्त होते सूर्य के सुनहले प्रकाश से सोने के चूर्ण जैसी प्रतीत हो रही है। आकाश में उठ रही यह धूल, किरणों के बादल की भाँति प्रतीत हो रही हैं। आकाश में तीव्र गति से जा रहे पक्षियों के चमकते पंखों की सरसराहट और उनके स्वर ऐसे लग रहे हैं, जैसे सनसनाते हए तीर जा रहे हों।
विशेष :
5. लौटे खग, गायें घर लौटीं, लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर।
छिपे गृहों में म्लान चराचर, छाया भी हो गई अगोचर।
लौट पैंठ से व्यापारी भी, जाते घर उस पार नाव पर।
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे, खाली बोरों पर, हुक्का भर!
शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद कविता से अवतरित किया गया है।
प्रसंग - संध्याकाल में सभी चराचर अपने घर लौटते हैं। कवि ने पक्षी, गाय, पैंठ से लौटते व्यापारियों का मनोहारी चित्रण किया है, वे कहते हैं कि -
व्याख्या - पक्षी अपने शावकों के पास घोंसलों की ओर लौट रहे हैं। उधर गायें भी जंगलों से चरकर अपने बछड़ों के पास घर लौट रही हैं। हारे-थके शिथिल अंगों वाले किसान अपने खेतों से घरों की ओर लौट रहे हैं। सभी जीव हार-थककर घरों में आकर छिप गये हैं। धीरे-धीरे संध्या के बाद की अंधेरी वेला सभी को अपनी गोद में छिपा लेती है। परिणामस्वरूप अब उनकी परछाई भी अदृश्य हो गयी है। दिनभर लगने वाले बाजार अर्थात् हाट या पैंठ भी खत्म हो गयी। अतः व्यापारी अपने ऊँटों और घोड़ों के साथ खाली बोरों पर बैठे हुक्के गुड़-गुड़ाते हुए नावों द्वारा नदी पार घरों को जा रहे हैं। संध्या अपने साथ विश्राम की बेला लेकर आती है। सभी थके-हारे जीव रात्रि विश्राम के लिए घर लौट रहे हैं।
विशेष :
6. जाड़ों की सूनी द्वाभा में, झूल रही निशि छाया गहरी।।
डूब रहे निष्प्रभ विषाद में, खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी!
बिरहा गाते गाड़ी वाले, दूंक-दूंककर लड़ते कूकर।
हुआँ-हुआँ करते सियार, देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!
शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य-कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है।
प्रसंग - संध्या के बाद' कविता में कविवर सुमित्रानन्दन पंत ने सर्दी की रात्रि में होने वाले प्राकृतिक एवं सामाजिक परिदृश्यों का बड़ी सूक्ष्मता से वर्णन किया है।
व्याख्या - रात्रि की गहरी काली छाया धीरे-धीरे सम्पूर्ण वातावरण पर छा रही है। परिणामस्वरूप खेत, बाग, घर, वृक्ष, नदियों के किनारे और उसकी लघु-चंचल लहरें भी अंधकार में विलीन होने लगी हैं। लगता है कि दिवस के छिप जाने के दुःख का प्रभाव उन पर हो गया है और वे अपना दुःखपूर्ण चेहरा अँधेरे में छिपा रहे हैं।
उधर संध्या होते ही काम पर गये गाड़ीवान घर लौट रहे हैं। उनके कंठ से अचानक विरहा लोकगीत फूट पड़ा है। गाड़ीवान विरहिणी के भावों को अपने गीत के माध्यम से व्यक्त कर रहे हैं। संध्या काल में कुत्तों के लड़ने और भौंकने के स्वर सुनाई दे रहे हैं। जंगल में एक साथ मिलकर सियारों के कंठ से निकलते हुआँ-हुआँ के स्वर सुनाई दे रहे हैं। इस प्रकार ये सभी उस दुःखपूर्ण रात्रि को अपने स्वर देकर मानो समर्थन प्रदान कर रहे हों अथवा उसके दुःख में अपना दुःख भी मिलाकर रात्रि के दुःखी मन से सहानुभूति प्रदान कर रहे हों।
विशेष :
7. माली की मैंडई से उठ, नभ के नीचे नभ-सी धूमाली।
मंद पवन में तिरती, नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जला दुकानों में, बैठे सब कस्बे के व्यापारी।
मौन मन्द आभा में, हिम की ऊँघ रही लम्बी अँधियारी!
शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्यकृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है।
प्रसंग - सर्दी की रात से कुछ पहले माली की झोंपड़ी से उठते हुए धुएँ और दुकानों में बत्ती जलाकर बैठे व्यापारियों का कवि वर्णन कर रहा है।
व्याख्या - गाँव के बाहरी छोर पर रहने वाले मालियों की फूस की झोंपड़ियों में भोजन की तैयारी के लिए जलाए गये चूल्हों से निकलने वाले धुएँ की परत ऐसी लग रही है जैसे आकाश के नीचे दूसरा आकाश हो। मंद-मंद चलती पवन से हिलती हुई यह धुएँ की परत नीली हलकी रेशमी जाली जैसी प्रतीत हो रही है।
उधर कस्बे के सभी व्यापारी अपनी छोटी दुकानों पर तेल से जलने वाली बत्ती अथवा टीन की ढिबरी जलाकर बैठे हैं, क्योंकि दिनभर मजदूरी करके लौटे गरीब मजदूर और किसान भोजन पकाने की जुगाड़ में सौदा खरीदकर ले जायेंगे। बत्तियों के मंद प्रकाश में जाड़ों की लम्बी रात ऊँघती सी प्रतीत हो रही हैं। लगता है आलस्य में डूबा अँधेरा इस बर्फीली रात्रि में ऊँघ रहा हो।
विशेष :
8. धुआँ अधिक देती है, टिन की ढबरी, कम करती उजियाला।
मन से कढ़ अवसाद श्रांति, आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी-सी बस्ती के भीतर, लेन-देन के थोथे सपने।
दीपक के मंडल में मिलकर, मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है।
प्रसंग - सर्दी की रात्रि में ग्रामीण-समाज में लेन-देन करते व्यापारियों की घोर गरीबी और निराशा का चित्रण करते हुए कवि कह रहा है
व्याख्या - ग्रामीण क्षेत्रों में प्रकाश का कोई साधन नहीं होता, अत: व्यापारी दुकानदार अधिक धुआँ उगलने वाली टिन मंद-मंद प्रकाश में बैठे आने वाले खरीददारों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनके मन में निराशा और दुख है, क्योंकि उस छोटी-सी दुकान से उनके परिवार का पालन नहीं हो पाता। ढिबरी से निकलते हुए धुएँ के साथ उनके मन का दुःख भी प्रकट हो रहा है। ऐसा आभास हो रहा है कि उस छोटी-सी बस्ती में उनके द्वारा देखे जा रहे धनवान बनने के स्वप्न खोखले ही सिद्ध हो रहे हैं। उन दीपकों के प्रकाशमंडल में उनको सदा से चले आ रहे सुख-दुख याद आ रहे हैं।
विशेष :
9. कैंप-कैंप उठते लौ के संग, कातर उर क्रंदन, मूक निराशा।
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों, गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गयी क्षण में बस्ती, मिट्टी खपरे के घर आँगन।
भूल गये लाला अपनी सुधि, भूल गया सब ब्याज, मूलधन!
शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है।
प्रसंग - रात्रि में ग्रामीण-क्षेत्र के व्यापारी गरीबी के कारण मिट्टी के तेल की ढिबरी जलाकर बैठते हैं। उनके हाव-भावों से उनके मन की व्यथा झलक रही है। कवि कहता है कि -
व्याख्या - ज्यों-ज्यों ढिबरी के दीपक की लौ हवा से काँपती है, उनके मन में छिपे मौन रोदन और पीड़ा बाहर आ जाते हैं। वह मंद-मंद प्रकाश मानो उसके मन में छिपी हुई निराशापूर्वक भावना को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहा हो।
कुछ समय पश्चात मिट्टी के खपरों से छायी हुई वह बस्ती रात्रि के अन्धकार में विलीन हो जाती है। उनके घर-आँगन उस अंधेरे द्वारा निगल लिये जाते हैं। बढ़ते अँधेरे के साथ बिक्री न होने से व्यापारियों की निराशा बढ़ती जा रही है। उन्हें अपनी ही सुध-बुध नहीं रही। ब्याज से कमाई करने के सपने बिखर गए हैं।
विशेष :
10. सकुची सी परचून किराने की ढेरी, लग रही ही तुच्छतर।
इस नीरव प्रदोष में आकुल, उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन, छोटी हस्ती का सस्तापन।
जाग उठा उसमें मानव, औ' असफल जीवन का उत्पीड़न!।।
शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है।
प्रसंग - रात्रि आगमन ने छोटे व्यापारी के मन को व्याकुल कर दिया है। कवि ने उसके मन की भावनाओं और निराशापूर्ण स्थिति को वाणी प्रदान की है। वह कहते हैं कि -
व्याख्या - गाँवों के छोटे व्यापारियों की छोटी-सी किराना-परचून की दुकान पर सामान की बहुत छोटी-छोटी ढेरियाँ लगी हैं कुछ बड़ी भी हैं, लेकिन व्यापारी उन्हें तुच्छ से तुच्छ समझता है। इस रात्रि के शान्त वातावरण में वह ग्राह अभाव में सोचने को मजबूर हो रहा है कि इस छोटी-सी ढेरी से वह अपने परिवार का पालन भी नहीं कर पा रहा है। फिर वह बड़ा आदमी कैसे बनेगा? वह अपनी छोटी हैसियत का मूल्यांकन करके निराश-सा हो जाता है। कवि व्यापारी के मन में मानवता के भाव जाग्रत होते हुए देखता है। इस संकटमय स्थिति में लाला के मन में मानवीय भावनाएँ जाग रही हैं। आज उसे पता चल रहा है कि एक असफल व्यक्ति का जीवन कितना कष्टदायक होता है। अब तक उसने जो सपने देख थे, वे .. सब धन के अभाव में टूटने जा रहे थे।
विशेष :
11. दैन्य दुःख अपमान ग्लानि, चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा।
बिना आय की क्लांति बन रही, उसके जीवन की परिभाषा।
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही, वह दिन-भर बैठा गद्दी पर।
बात-बात पर झूठ बोलता, कौड़ी-की स्पर्धा में मर-मर!
शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से 'अंतरा भाग-1' के काव्य खण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत है।
प्रसंग - गाँव के एक गरीब व्यापारी की मनोदशा का चित्रण है। गरीबी की मार के कारण वह टूट चुका है।
व्याख्या - कवि पंत गाँव के लोगों की गरीबी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि छोटी-सी बस्ती का किराना और परचून का छोटा व्यापारी अपने जीवन की दीनता और गरीबी से दुखी है तथा अपने आपको अपमानित अनुभव कर रहा है। वह भूख और प्यास से दुखी है। उसके जीवन की सारी अभिलाषाएँ मर गई हैं। गरीबी ने उसकी आकांक्षाओं को कुचल दिया है। उसका जीवन दुख की परिभाषा बन गया है। गरीबी का दुख ही उसके जीवन का अर्थ बन गया है। वह सोचता है कि गरीबी के कारण उसे भरपेट भोजन भी प्राप्त नहीं होगा। वह तो दिनभर छोटी-सी दुकान की गद्दी पर अनाज की ढेरी के समान निर्जीव बनकर बैठा रहता है। अर्थात् जीवन में सक्रियता नहीं है। वह धन कमाने की होड़ के कारण गद्दी पर बैठकर छोटी-छोटी बात के लिए झूठ बोलता है। फिर भी अपनी निर्धनता दूर नहीं कर पाता है।
विशेष :
12. फिर भी क्या कुटुंब पलता है? रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन।
बना पा रहा वह पका घर? मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गई कंधों से कथड़ी ठिठुर रहा अब सर्दी से तन।
सोच रहा बस्ती का बनिया, घोर विवशता का निज कारण!
शब्दार्थ :
संदर्भ - सुमित्रानन्दन पंत की काव्य कृति 'ग्राम्या' से कविता 'संध्या के बाद' उद्धृत है जो 'अंतरा भाग-1' में संकलित है। यह काव्यांश उसी कविता का अंश है।
प्रसंग - दरिद्रता की मार झेलने वाला गाँव का छोटा व्यापारी अपनी दयनीय स्थिति से चिन्तित है। उसकी मानसिक स्थिति एवं सोच का अच्छा चित्रण है। परिवार के भरण-पोषण की चिन्ता में डूबा दुकान पर बैठा है।
व्याख्या - कवि पंत गरीब व्यापारी की व्यथा को अभिव्यक्ति देते हुए लिखते हैं कि वह व्यापारी छोटी दुकान पर बैठा सोच या इस छोटी-सी दुकान से वह अपने परिवार को पाल सकता है। क्या इस छोटी-सी आमदनी से उसका कुटुम्ब चल ? इस दुकान की आमदनी से उसके परिवारीजनों को सभी सुविधाएँ नहीं मिल सकी। भोजन के अभाव में परिवार के लोग स्वस्थ नहीं रह सकते। वह सोचता है कि क्या वह कभी अपने रहने के लिए पक्का मकान बना सकेगा ? क्या वह कभी सुखी रह पाएगा ? क्या वह इतना धन एकत्रित कर सकेगा, जिससे उसे सुख प्राप्त हो सके।
उसके कंधों पर फटे कपड़ों की गुदड़ी पड़ी है। जिससे वह सर्दी से अपने तन की रक्षा करता है किन्तु चिन्ता में डूबा हुआ है, उसे अपने तन तथा गुदड़ी का ध्यान भी नहीं रहता। उसके कंधे से गुदड़ी खिसक जाती है और उसका शरीर ठंड से काँपने लगता है। घोर निराशा ने उसे संज्ञाशून्य-सा कर दिया है। वह गरीब व्यापारी अपनी गरीबी का कारण खोज रहा है। वह सोचता है कि उसकी इस दीनता, इस अपमान और इस लाचारी का कारण क्या है ? वह इस दीन-हीन स्थिति से कैसे छुटकारा पाए?
विशेष :
13. शहरी बनियों-सा वह भी उठ, क्यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी, जीवन उन्नति के सब साधन?
यह क्या संभव नहीं, व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही, सकल आय-व्यय का हो वितरण?
शब्दार्थ :
संदर्भ - यह काव्यांश पंतजी की लम्बी कविता 'संध्या के बाद' से उद्धृत है। यह कविता 'अंतरा भाग-1' के काव्य खण्ड में संकलित है।
प्रसंग - स्वयं गरीबी भोग रहे कस्बे के छोटे से दुकानदार के मन में अब मानवतावादी विचार जाग रहे हैं। वह चाहता है । समाज के सभी वर्गों के बीच आय का समान बँटवारा होना चाहिए।
व्याख्या - गाँव का छोटा गरीब व्यापारी अपनी दुकान पर बैठा अपनी गरीबी का कारण खोज रहा है। वह अपने आप से प्रश्न करता है कि क्या वह अपना विकास नहीं कर सकता ? क्या वह भी शहरी व्यापारियों की तरह बड़ा सेठ नहीं बन सकता ? क्या कारण है जो मैं इतना गरीब हूँ। उसे भी महाजन अर्थात् बड़ा सेठ बनने का अधिकार है पर वह महाजन क्यों नहीं बन पा रहा है। वह सोचता है कि मेरी उन्नति को किसने रोक रखा है। मेरी प्रगति में कौन बाधक है। क्या समाज की यह व्यवस्था, जो चल रही है, यह नहीं बदल सकती। इस व्यवस्था में परिवर्तन होना ही चाहिए। जब तक इस व्यवस्था में परिवर्तन नहीं होगा, हम गरीब ग्रामीण व्यापारियों की दशा में सुधार सम्भव नहीं है। हम भी सुखी जीवन जी सकते हैं। जब तक कर्म और गुण के आधार पर सभी की आमदनी और खर्च का वितरण नहीं होगा हमारा जीवन सुखी नहीं हो सकता।
विशेष :
14. घुसे घरौंदों में मिट्टी के, अपनी-अपनी सोच रहे जन।।
क्या ऐसा कुछ नहीं, फूंक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग, मिलकर भोग करें जीवन का
जन-विमुक्त हो जन-शोषण से, हो समाज अधिकारी धन का?
शब्दार्थ :
संदर्भ - मानवतावादी विचारधारा के कवि सुमित्रानन्दन पंत की कृति 'ग्राम्या' से 'अंतरा भाग-1' के काव्य खण्ड में 'संध्या के बाद' शीर्षक से संकलित कविता से प्रस्तुत पंक्तियाँ उद्धृत हैं।
प्रसंग - गाँव के व्यापारी के मन में जाग रही साम्यवादी सामाजिक व्यवस्था के द्वारा कवि एक संदेश देना चाह रहा है। सब समान हों, शोषण समाप्त हो, योग्यता के अनुसार वितरण हो, इसी प्रकार की विचारधारा की अभिव्यक्ति हुई है।
व्याख्या - कवि पंत ग्रामीण परिवेश में जीवनयापन करने वाले लोगों के सम्बन्ध में लिखते हैं कि गाँव के सभी लोग मिट्टी के घरौंदों में घुस गए हैं। उन्होंने अपने आप को उन घरौंदों में कैद कर लिया है और केवल अपने सुख-दुख के बारे में ही सोच रहे हैं। वे इतने स्वार्थी हो गए हैं कि दूसरों के सम्बन्ध में सोचने का समय ही उनके पास नहीं है। समाज में व्याप्त शोषण के विषय में कोई नहीं सोच रहा है। पंत लिखते हैं कि क्या ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती जिससे इनमें चेतना आए। कोई इनको ऐसी प्रेरणा दे जिससे ये आपस में मिलकर काम करें। एक नए समाज का निर्माण करें। सब मिलकर सामूहिक सामाजिक जीवन का भोग कर सकें। सब मिलकर समाज का उत्थान करें और समाज के उत्पादन का सामूहिक रूप में उपभोग करें। समाज में शोषण की व्यवस्था समाप्त हो जाय। समाज का धन एक व्यक्ति या वर्ग का न हो। समाज की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर समाज के सभी लोगों का अधिकार हो। धन का योग्यता, गुण और कर्म के अनुसार वितरण हो। तभी शोषण विहीन समाज का निर्माण हो सकेगा।
विशेष :
15. दरिद्रता पापों की जननी, मिटें जनों के पाप, ताप, भय।
सुन्दर हों अधिवास, वसन, तन, पशु पर फिर मानव की हो जय?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी, दोषी जन के दुःख क्लेश की।
जन का श्रम जन में बँट जाए, प्रजा सुखी हो देश-देश की!
शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश सुमित्रानन्दन पंत की कविता 'संध्या के बाद' का अंश है। यह कविता 'अंतरा भाग-1' संकलित है।
प्रसंग - कवि ने अपने प्रगतिशील एवं साम्यवादी विचारों को ग्रामीणों के दरिद्रता से त्रस्त जीवन के माध्यम से व्यक्त कर रहा है। एक शोषणविहीन समाज की परिकल्पना प्रस्तुत की गई है।
व्याख्या - कवि ने अपने विचारों को ग्रामीण व्यापारी के माध्यम से व्यक्त किया है। पंत का कहना है कि समाज में धोखा, ठगी, चोरी, हत्या आदि जितने भी दुष्कर्म हो रहे हैं वे सब गरीबी के कारण ही हो रहे हैं। गरीबी ही व्यक्ति को अनुचित कार्य करने के लिए विवश करती है। इसलिए कवि का कहना है कि गरीबी सारे पापों की जननी है। 'भूखा मरता क्या न करता' कथन यथार्थ ही है । लोगों के पाप, कष्ट और भय दूर होने चाहिए।
यह तभी सम्भव है जब गरीबी-मुक्त समाज होगा। लोगों को सुन्दर निवास, सुन्दर वस्त्र और स्वस्थ तन की प्राप्ति तभी हो सकती है, जब समाज से पाप और दुख दूर हों। तभी पशुता की बर्बरता समाप्त होगी और मानवता की विजय होगी और तभी समाज सुखी होगा। समाज की इस विकृत व्यवस्था का दोषी कोई एक व्यक्ति नहीं है अपितु समाज की परम्परा दोषी है। संसार के सभी देशों की जनता तभी सुखी और समृद्ध हो सकती है जब मनुष्य के श्रम का उचित बँटवारा हो जाय। यदि मनुष्य को उसके श्रम का फल मिल जाय तो सभी का जीवन सुखी हो जाएगा।
विशेष :
16. टूट गया वह स्वप्न वणिक का, आई जब बुढ़िया बेचारी।
आध-पाव आटा लेने, लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख उठा घुघ्यू डालों में लोगों ने पट दिए द्वार पर।
निगल रहा बस्ती को धीरे, गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!
शब्दार्थ :
संदर्भ - पंतजी की कविता 'संध्या के बाद' का यह काव्यांश है जो 'अंतरा भाग-1' के काव्य खण्ड में संकलित है।
प्रसंग - ग्रामीण व्यापारी के माध्यम से कवि ने गरीबी की स्थिति का वर्णन किया है। गरीबी के कारण व्यापारी डंडी मारना नहीं छोड़ता। व्यापारी की कथनी और करनी में अन्तर है।
व्याख्या - पंतजी लिखते हैं कि छोटे कस्बे का व्यापारी अपनी परचून और किराने की दुकान पर बैठा गरीबी दूर करने के उपाय के सम्बन्ध में सोच रहा था। समाज की परिपाटी को बदलने की सुन्दर कल्पनाओं में डूबा हुआ था, उसी समय एक बुढ़िया ने आकर उससे आधा-पाव आटा माँगा। व्यापारी का सपना उसकी आवाज से टूट गया। समाज की परिपाटी को बदलने की कल्पना गायब हो गई। लाला शोषण विहीन समाज की कल्पना कर रहा था लेकिन उसकी मनोवृत्ति ने शोषण करना नहीं छोड़ा।
उसने बुढ़िया को आधा-पाव आटा पूरा नहीं दिया। तोलते समय डंडी मार दी। वह जिस सुन्दर समाज की कल्पना कर रहा था। उस समाज को वह स्वयं विकृत कर रहा था। इसी समय पेड़ पर बैठा घूधू बोल पड़ा, मानो वह व्यापारी को अनैतिक कार्य के लिए सचेत कर रहा था। शायद वह अपनी भाषा में लाला से कह रहा था कि तुम नैतिकता की बात करते हो और स्वयं अनैतिक कार्य कर रहे हो। धीरे-धीरे गहरा अन्धकार बढ़ता जा रहा था और सबको निद्रा की गोद में पहुँचा रहा था।
विशेष :