Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 10 Hindi Kshitij Chapter 2 राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Textbook Exercise Questions and Answers.
RBSE Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 2 राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
RBSE Class 10 Hindi राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौनसे तर्क दिए?
उत्तर:
परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष टूट जाने पर तर्क देते हुए कहा कि यह धनुष पुराना व कमजोर था। यह तो राम के छूते ही टूट गया। इसमें राम का कोई दोष नहीं है। वैसे भी एक पुराने और अनुपयोगी धनुष को तोड़ने से हमें क्या लाभ हो सकता है और आपकी क्या हानि हो गई है? ऐसे धनुष के टूटने पर क्रोध करना ठीक नहीं है।
प्रश्न 2.
परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं उनके आधार पर ... दोनों के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
- राम के स्वभाव की विशेषताएँ-राम स्वभाव से कोमल और विनयी हैं। इसीलिए उनके मन में अपने बड़ों के प्रति श्रद्धा और आदर है। वे स्वयं को परशुराम का दास बताते हैं। वे व्यर्थ की बातों में न पड़कर लक्ष्मण को समझाते भी हैं और परशुराम का दिल जीत लेते हैं।
- लक्ष्मण के स्वभाव की विशेषताएँ-लक्ष्मण का स्वभाव राम के विपरीत है। वे उग्र, वीर और साहसी हैं। वे अपने व्यंग्य बाणों से परशुराम को छलनी कर देते हैं, जिस कारण परशुराम भड़क उठते हैं। इसके साथ ही वे वाचाल, मर्यादा का उल्लंघन करने वाले और आक्रामक स्वभाव के हैं।
प्रश्न 3.
लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का जो अंश आपको सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में लिखिए।
उत्तर:
लक्ष्मण - हे मुनिवर! हमने बचपन में न जाने कितनी धनुषियाँ (छोटे धनुष) तोड़ डालीं, तब आपने क्रोध नहीं किया। फिर इस धनुष पर आपकी इतनी ममता क्यों?
परशुराम - हे राजपुत्र ! लगता है तेरी मृत्यु आ गई है। इसीलिए तू सँभलकर बोल नहीं पा रहा है। तू शिव-धनुष को धनुही के समान बता रहा है जबकि इस धनुष के बारे में संसार भर को पता है।
लक्ष्मण - (व्यंग्य से) हे देव! हमने तो यही जाना था कि सारे धनुष एक जैसे ही होते हैं। फिर राम ने इसे नए के धोखे में देखा था। यह तो छते ही टूट गया। इसमें उनका क्या दोष है?
परशुराम - अरे शठ! लगता है तू मेरे स्वभाव को अभी नहीं जानता है। मैं तुझे बालक समझकर छोड़ रहा हूँ। तू मुझे निरा मुनि समझ रहा है। मैं बाल-ब्रह्मचारी हूँ। मैंने कई बार इस पृथ्वी के सारे राजाओं का संहार किया है । मैंने सहस्रबाहु की भुजाएँ काट डाली हैं। इतना ही नहीं, मेरे फरसे की कठोरता के भय से गर्भ के बच्चे भी गिर जाते हैं।
लक्ष्मण - (व्यंग्य से) वाह मुनिजी! आप तो बहुत बड़े योद्धा हैं। आप बार-बार मुझे अपना कुठार दिखाकर डराना चाहते हैं। आपका बस चले तो फूंक मार कर पहाड़ को उड़ा दें। मैं कोई छुई-मुई का फूल नहीं हूँ जो तर्जनी देखकर मुरझा जाऊँगा। मैं आपको ब्राह्मण समझ कर चुप रह गया हूँ। हमारे कुल में गाय, ब्राह्मण, देवता और भक्तों पर वीरता नहीं दिखाई जाती है। फिर आपके वचन ही करोड़ों वज्रों के समान घातक हैं। आपने शस्त्र तो व्यर्थ में ही धारण कर रखे हैं।
प्रश्न 4.
परशुराम ने अपने विषय में सभा में क्या-क्या कहा, निम्न पद्यांश के आधार पर लिखिए
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥
उत्तर:
परशुराम ने अपने बारे में सभा में कहा- मैं बाल-ब्रह्मचारी हूँ। सारा संसार जानता है कि मैं क्षत्रियों के कुल का शत्रु हूँ। मैंने अनेक बार अपनी भुजाओं के बल पर इस धरती को राजाओं अर्थात् क्षत्रियों से विहीन किया है। मेरे इस भयंकर फरसे ने सहस्रबाहु की हजारों भुजाओं को काट डाला। इसे देखकर गर्भधारिणी स्त्रियों के गर्भ भी गिर जाते हैं।
प्रश्न 5.
लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताईं?
उत्तर:
लक्ष्मण ने वीर योद्धा की विशेषताएँ बताते हुए कहा कि वीर योद्धा रण-भूमि में वीरता दिखाता है और अपने वीरतापूर्ण कार्यों के माध्यम से अपना परिचय देता है। वे अपने पौरुष का अहंकार नहीं रखते हैं और अपने मुँह से अपनी वीरता का बखान नहीं करते हैं।
प्रश्न 6.
"साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है।" इस कथन पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर:
साहस और शक्ति के साथ विनम्रता का होना एक बहुत ही अच्छा गुण है, क्योंकि विनम्रता इन दोनों पर नैतिक अंकुश रखती है। व्यक्ति कई बार शक्ति और साहस के बल पर उद्दण्डता करने लगता है। उसकी उस उद्दण्डता के कारण वह बुरा लगने लगता है। ऐसी स्थिति में विनम्रता ही उस पर अपना नियन्त्रण करती है। लक्ष्मण और परशुराम दोनों पराक्रमी एवं शक्ति-सम्पन्न हैं, परन्तु विनम्र न होने से अहंकारी लगते हैं। राम में विनम्रता अधिक है, तो वे अधिक प्रभावशाली लगते हैं।
प्रश्न 7.
भाव स्पष्ट कीजिए
(क) बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन पूँकि पहारू॥
(ख) इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
(ग) गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥
उत्तर:
(क) भाव-लक्ष्मण ने हँस कर मुनि परशुराम पर व्यंग्योक्ति की कि आप स्वयं को बड़ा भारी योद्धा समझने का भ्रम पाले हुए हैं। इसीलिए मुझे बार-बार फरसा दिखाकर डराने का प्रयास कर रहे हैं। आपका यह प्रयास पहाड़ को फूंक से उड़ाने जैसा लगता है, अर्थात् कोरी वाचालता बता रहा है। .
(ख) भाव-लक्ष्मण अपने साहस और वीरत्व का परिचय देते हुए कहते हैं कि हम कोई कुम्हड़बतिया नहीं हैं जो आपकी तर्जनी को देखते ही मुरझा जाएँ। हम भी कोई कम नहीं हैं। मैंने फरसे और धनुष-बाण को भली प्रकार देख-परख कर ही कोई बात कही है। मैं आपसे किसी बात में कम नहीं हूँ। इसलिए मुझे कम आँकने की भूल मत करना।
(ग) भाव-विश्वामित्र परशुराम की बुद्धि और समझ पर तरस खाते हुए सोचने लगे कि परशुराम को हरा-हरा ही दिखाई देता है अर्थात् स्वयं के बारे में बड़ी भ्रान्ति है । वे लक्ष्मण को गन्ने से बनी खाँड के समान समझ रहे हैं कि उसे एक ही बार में नष्ट कर डालेंगे। वे अज्ञानतावश यह नहीं समझ पा रहे हैं कि लक्ष्मण लोहे से बना खाँडा है जिससे संघर्ष मोल लेना आसान नहीं है।
प्रश्न 8.
पाठ के आधार पर तुलसी के भाषा-सौन्दर्य पर दस पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर:
तुलसी रससिद्ध कवि हैं। तुलसी की भाषा शुद्ध-साहित्यिक अवधी है। उन्होंने भाषा को प्रौढ़ साहित्यिक स्वरूप प्रदान किया है तथा संवाद-योजना के द्वारा पात्रानुसार कोमल, मधुर एवं व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग कलात्मक रूप में किया है। तुलसीदास ने तत्सम शब्दों के तद्भव रूप रखकर श्रुति-माधुर्य का समावेश किया है। आपने चौपाई-दोहा छन्दों में रचना कर भाषा को सुगेय और लोकप्रिय बनाया है। छन्दों के चरणान्त में वर्णों का दीर्घ या गुरु रूप में प्रयोग कर नाद-सौन्दर्य की वृद्धि की है। तुलसी के काव्य में अनुप्रास, अतिशयोक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश, वक्रोक्ति, रूपक, मानवीकरण, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग सहजता के साथ हुआ है। उन्होंने वीर तथा हास्य रस के साथ ही मुहावरों, सूक्तियों और व्यंग्योक्तियों का भी सुन्दर प्रयोग किया है।
प्रश्न 9.
इस पूरे प्रसंग में व्यंग्य का अनूठा सौन्दर्य है। उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पूरे प्रसंग में लक्ष्मण के कथनों में व्यंग्य का अनूठा सौन्दर्य झलकता है। परशुराम मुनि हैं, ब्राह्मण हैं। इसके साथ ही वे बहुत ही अड़ियल और बड़बोले हैं। इसलिए लक्ष्मण उन पर व्यंग्य बाण चलाना ही उपयुक्त समझते हैं जिससे वे और अधिक क्रोधित हो उठते हैं। लक्ष्मण अपने व्यंग्य बाणों से उनकी खोखली वीरता की धज्जियाँ उड़ा देते हैं। जब परशुराम आवेश में आकर शिव-धनुष तोड़ने वाले का संहार करने की बात करते हैं तब लक्ष्मण कहते हैं कि हमने बचपन में. ऐसे कितने ही धनुष तोड़े।
जब परशुराम कहते हैं कि शिव-धनुष की तुलना धनुही से नहीं की जा सकती, तब लक्ष्मण कहते हैं कि हमारे लिए सब धनुष एकसे ही होते हैं। इसी प्रकार जब परशुराम क्रोध में आकर विश्वामित्र को कहते हैं कि मैं अभी इसे मारकर गुरु के ऋण से उऋण होता हूँ, तब लक्ष्मण व्यंग्य प्रहार करते हुए कहते हैं- माता-पिता का तो ऋण आप उतार ही चुके हैं। अब आपको गुरु-ऋण भारी पड़ रहा है। लम्बे समय से न चुका पाने के कारण ब्याज भी बढ़ गया होगा, किसी हिसाबी को बुला लो। मैं अभी अपनी थैली खोल कर हिसाब चुकाता हूँ। इस प्रकार यह पठितांश व्यंग्य से भरपूर है।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार पहचान कर लिखिए
(क) बालकु बोलि बधौं नहि तोही।
(ख) कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।
(ग) तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा।
बार बार मोहि लागि बोलावा॥
(घ) लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥
उत्तर:
(क) 'ब' और 'ह' की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
(ख) 'कोटि कुलिस' में 'क' वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास तथा 'कोटि कुलिस सम' में उपमा अलंकार है।
(ग) 'तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा' में सम्भावनात्मक वर्णन होने से उत्प्रेक्षा अलंकार है।
'बार-बार मोहि लागि बोलावा' में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
(घ) 'लखन उतर आहुति सरिस' और 'जल सम बचन' में उपमा अलंकार है।
'भृगुबरकोपु कृसानु' तथा 'रघुकुलभानु' में रूपक अलंकार है। रचना और अभिव्यक्ति
प्रश्न 11.
"सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाए जाने वाले बहुत से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके।"
आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए नहीं होता बल्कि कभी-कभी सकारात्मक भी होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।
उत्तर:
क्रोध के पक्ष में मत-क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए हुए नहीं होता वह कभी-कभी सकारात्मक भी होता है, क्योंकि वह अन्याय का प्रतिकार करता है और साहस तथा वीरता का प्रदर्शन कर उत्साह का संचार भी करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई दुष्ट अभिमानी व्यक्ति आपके घर आकर आपसे अपशब्द कहता रहे और आप सिर नीचा करके सुनते रहें तो वह शान्त कैसे होगा? वह तो अपनी दुष्टता का प्रदर्शन ही करता रहेगा।
उस पर क्रोध करने पर ही वह उस समय शान्त होगा। इसी प्रकार परशुराम बढ़-चढ़कर बकझक करते हुए लक्ष्मण को मारने को तैयार हो जाते तो उन्हें कौन रोक पाता? इसलिए लक्ष्मण का भी व्यंग्यात्मक क्रोध करना आवश्यक था, क्योंकि ऐसे समय में क्रोध रक्षक की भूमिका निभाता है। क्रोध के विपक्ष में मत-क्रोध एक अवगुण है, मनुष्य का शत्रु है, क्योंकि वह उसे घमंडी और बड़बोला बनाता है। क्रोध विनाश का कार्य करता है, वह निर्माण नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, लक्ष्मण ने अपनी व्यंग्योक्तियों से परशुराम के क्रोध की आग को इतना भड़का दिया था कि राम यदि संकेत से लक्ष्मण को नहीं रोकते तो कुछ भी हो सकता था। अतः क्रोध से बचना चाहिए।
प्रश्न 12.
संकलित अंश में राम का व्यवहार विनयपूर्ण और संयत है, लक्ष्मण लगातार व्यंग्य बाणों का उपयोग करते हैं और परशुराम का व्यवहार क्रोध से भरा हुआ है। आप अपने आपको इस परिस्थिति में रखकर लिखें कि आपका व्यवहार कैसा होता?
उत्तर:
उपर्युक्त परिस्थिति में हमारा व्यवहार सन्तुलित होता। हम लक्ष्मण की तरह परशुराम के बड़बोलेपन का विरोध तो करते, लेकिन उनका अपमान नहीं करते। हम भी साहस के साथ जोर-जोर से बोलकर उन्हें परिस्थिति समझने के लिए मजबूर करते। यदि वे सुनने और समझने के लिए तैयार हो जाते तो हम उनके प्रति विनय का प्रदर्शन करते, क्योंकि वे बड़े होने के साथ-साथ मुनि और सम्माननीय थे। ऐसा नहीं होता कि वे ज्ञानी होने के कारण परिस्थिति को . समझ नहीं पाते।
प्रश्न 13.
अपने किसी परिचित या मित्र के स्वभाव की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
हमारे मित्र के स्वभाव की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- हमारा मित्र कुशाग्रबुद्धि, सत्यवादी तथा निरभिमानी है।
- उसमें विनम्रता, सहनशीलता, सहजता और ईमानदारी पूरी तरह से समायी हुई है।
- वह अपने माता-पिता एवं गुरुजनों का आदर करता है।
- वह दूसरों का सहयोग करने के लिए हमेशा तत्पर रहता है।
- वह जिज्ञासु प्रवृत्ति का है। वह प्रत्येक नई बात की तह में जाकर उसे समझना चाहता है।
- मेरा मित्र क्रोधी एवं घमण्डी नहीं है, पर आत्म-सम्मानी है।
प्रश्न 14.
दूसरों की क्षमताओं को कम नहीं समझना चाहिए-इस शीर्षक को ध्यान में रखते हुए एक कहानी लिखिए। ..
उत्तर:
हमें दूसरों की क्षमताओं को कम नहीं समझना चाहिए, क्योंकि जो ऐसा समझता है, वह अपने आप में घमण्डी बन जाता है। इस सन्दर्भ में हम कछुआ-खरगोश की कहानी लिख सकते हैं। की बात है कि एक तालाब में एक कछआ रहता था। उस तालाब के पास ही एक बिल में खरगोश भी रहता था। तालाब में पानी पीने जाने के कारण खरगोश और कछुए में मित्रता हो गयी। खरगोश बहुत चालाक था। वह कछुए की क्षमता को बहुत कम आँकता था। एक दिन दोनों में दौड़ की शर्त लग गयी। जो निर्धारित स्थान पर पहले पहुँच जायेगा, उसी की जीत हो जायेगी।
खरगोश दौड़कर आधी दूर तक जल्दी पहुँच गया। उसने सोचा कि अभी तो कछुआ को यहाँ तक आने में बहुत समय लगेगा। इसलिए वह पेड़ के नीचे विश्राम करने लगा। खरगोश को नींद आ गयी। कछुआ धीरे-धीरे चलते हुए निर्धारित स्थान पर पहुँच गया, वह कहीं पर रुका नहीं चलता ही रहा। जब खरगोश की नींद खुली और उसने फिर से दौड़ लगाई तो उसने देखा कि कछुआ तो पहले ही वहाँ पहुँच चुका था। इस प्रकार कछुआ दौड़ में जीत गया। खरगोश को पछतावा हुआ, क्योंकि उसने कछुए की क्षमता को कम करके आँका था। इसलिए शिक्षा मिलती है कि हमें कभी भी दूसरों की क्षमताओं को कम नहीं समझना चाहिए।
प्रश्न 15.
उन घटनाओं को याद करके लिखिए जब आपने अन्याय का प्रतिकार किया हो।
उत्तर:
हमने कई अवसरों पर अन्याय का प्रतिकार किया हमारे विद्यालय में एक निर्धन छात्र पढ़ता था। वह विद्यालय द्वारा निर्धारित पूरी पोशाक पहनकर नहीं आता था। एक दिन शारीरिक शिक्षक ने जूतों की जगह चप्पल पहनकर आने पर उस पर पचास रुपये जर . नहीं हम.भी दुःखी हुए, क्योंकि वह जुर्माना देने में असमर्थ था। मैंने प्रधानाचार्य के पास जाकर इस अन्याय का प्रतिकार किया। अन्ततः उसका जुर्माना माफ कर दिया गया।
एक बार जब मैं बस में यात्रा कर रहा था तब एक यात्री बस में चढ़ा और मेरे पास वाली खाली सीट पर आकर बैठ गया। पैसे माँगने पर उस यात्री ने बस कन्डक्टर को पैसे दे दिए लेकिन बस कन्डक्टर ने उसे बदले में टिकट नहीं दी। बस चलने के बाद जब उसने टिकट माँगी तब उसने कहा कि टिकट का क्या करोगे। मैं भी आपके साथ ही चल रहा हूँ। दुबारा तुमसे कोई किराया नहीं माँगूंगा। यह देखकर मैंने उस अन्याय का प्रतिकार किया। अन्ततः कंडक्टर ने उस यात्री को टिकट दे दी।
प्रश्न 16.
अवधी भाषा आज किन-किन क्षेत्रों में बोली जाती है?
उत्तर:
अवधी भाषा अवध क्षेत्र में बोली जाती है। इसके क्षेत्र हैं - लखीमपुर-खीरी, बहराइच, गोंडा, बाराबंकी, लखनऊ, सीतापुर, उन्नाव, फैजाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, रायबरेली आदि। पाठेतर सक्रियता
तुलसी की अन्य रचनाएँ पुस्तकालय से लेकर पढ़ें।
उत्तर:
छात्र स्वयं पढ़ें।
दोहा और चौपाई के वाचन का एक पारम्परिक ढंग है। लय सहित इनके वाचन का अभ्यास कीजिए।
उत्तर:
छात्र स्वयं अभ्यास करें।
कभी आपको पारम्परिक रामलीला अथवा रामकथा की नाट्य प्रस्तुति देखने का अवसर मिला होगा, उस अनुभव को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
छात्र अपने अनुभवों को स्वयं लिखें।
इस प्रसंग की नाट्य-प्रस्तुति करें।
उत्तर:
छात्र स्वयं तैयारी कर करें।
कोही; कुलिस, उरिन, नेवारे-इन शब्दों के बारे में शब्दकोश में दी गई विभिन्न जानकारियाँ प्राप्त कीजिए।
उत्तर:
कोही-विशेषण, काव्य में प्रयुक्त शब्द, क्रोधी का तद्भव रूप। कुलिस-कुलिश का तद्भव रूप, अर्थ-वज्र। उरिन-उऋण का तद्भव रूप, विशेषण, अर्थ है- ऋण से मुक्त। नेवारे-'निवारण' क्रिया का अवधी रूप, अर्थ है-रोका, मना किया।
RBSE Class 10 Hindi राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Important Questions and Answers
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
किस कारण से परशुराम क्रोधित हुए थे?
उत्तर:
उनके गुरु शिवजी का धनुष श्रीराम सीता स्वयंवर में तोड़ डाला था।
प्रश्न 2.
किनके वचनों को सुनकर परशुराम क्रोधित हो उठे?
उत्तर:
लक्ष्मण के व्यंग्यपूर्ण एवं धृष्टता भरे वचनों को सुनकर परशुराम क्रोधित हो गये।
प्रश्न 3.
परशुराम ने क्रोधित होकर लक्ष्मण से क्या कहा?
उत्तर:
यही कि तुम धृष्टता में ऐसा काम मत करो, जिससे तुम्हारे माता-पिता शोक में आ जाएँ।
प्रश्न 4.
धनुष के टूटने पर लक्ष्मण ने कौनसे तर्क दिए?
उत्तर:
यही कि यह शिव धनुष पुराना था। श्रीराम ने इसे नया जान कर हाथ लगाया और यह हाथ लगते ही टूट गया।
प्रश्न 5.
"इहाँ कुम्बड़बतियां कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरिजाहीं" पंक्ति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आशय कि यहाँ कुम्बड़बतिया या छुईमुई के फूल कोई नहीं है जो आपकी अंगुली दिखाने मात्र से डर जाएंगे।
प्रश्न 6.
'कम्बडबतिया' शब्द का प्रयोग किस अर्थ में किया गया है?
उत्तर:
'कुम्बड़बतिया' शब्द का प्रयोग कमजोर एवं निर्बल व्यक्ति के पक्ष में किया गया है।
प्रश्न 7.
लक्ष्मण की किन बातों से परशुराम ने अपना अपमान महसूस किया?
उत्तर:
लक्ष्मण ने परशुराम के बड़बोलेपन का मजाक उड़ाया। भरी सभा में निर्भीक रहकर उन्हें चुनौती देते हुए उनके पराक्रम को ललकारा था।
प्रश्न 8.
'सूर समर करनी करहि, कहि न जनावहि आपु' का भावार्थ बताइये।
उत्तर:
यही कि शूरवान यानि वीर पुरुष युद्ध में ही वीरता दिखाते हैं। व्यर्थ में बोलकर अपनी वीरता की आत्मप्रशंसा नहीं करते।
प्रश्न 9.
'अयमय खांड न ऊरवमय' का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
विश्वामित्र ने लक्ष्मण के सन्दर्भ में परशुराम से कहा कि ये गन्ने के रस से बनी खांड नहीं है वरन् लोहे से बना खांडा (तलवार) है।
प्रश्न 10.
'बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु' कथन का तात्पर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परशुराम के क्रोध की अग्नि को बढ़ते देख रघुकुल के सूर्य श्रीराम जल के समान अग्नि को शांत करने वाले वचन बोले।
प्रश्न 11.
परशुराम किसके कुल के घोर शत्रु माने जाते हैं?
उत्तर:
यों के कुल के घोर शत्रु माने जाते हैं।
प्रश्न 12.
विश्वामित्र किनके गुरु थे?
उत्तर:
विश्वामित्र राम-लक्ष्मण के गुरु थे।
प्रश्न 13.
'रिपु' शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
'रिपु' शब्द का अर्थ शत्रु है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
लक्ष्मण को परशुराम को मारने पर पाप और अपयश की सम्भावना क्यों थी?
उत्तर:
क्षत्रिय होने के नाते लक्ष्मण की कुल-परम्परा में ब्राह्मण अवध्य माने जाते थे अर्थात् ब्राह्मण-हत्या पाप-कर्म माना जाता था। परशुराम ब्राह्मण थे। अतः युद्ध में यदि परशुराम मारे जाते तो लक्ष्मण को पाप लगता और परशुराम जीत जाते तो वीर क्षत्रिय होने के कारण उनको अपयश मिलता।
प्रश्न 2.
क्रोध पर विनय और व्यंग्य का अलग-अलग प्रभाव कैसे पड़ता है? 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
विनय क्रोध को शान्त करता है, जबकि व्यंग्य क्रोध को भड़काता है। लक्ष्मण परशुराम के प्रति जैसे-जैसे व्यंग्यपूर्ण कथन करते हैं, वैसे-वैसे परशुराम का क्रोध बढ़ता जाता है। इसके विपरीत श्रीराम की विनयपूर्ण वाणा उनक क्रोध को शान्त कर देती है।
प्रश्न 3.
"आयेसु काह कहिअ किन मोहि।" श्रीराम की इस बात को सुनकर परशुराम ने प्रतिक्रियास्वरूप क्या कहा?
उत्तर:
श्रीराम की सेवक वाली बात सुनकर परशुराम ने प्रतिक्रियास्वरूप कहा कि जिसने शिव-धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा दुश्मन है। उसे इस राज-समाज से स्वयं अलग हो जाना चाहिए, अन्यथा यहाँ उपस्थित सभी राजा मारे जायेंगे।
प्रश्न 4.
'कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥' इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस कथन का आशय यह है कि परशुराम अपने क्रोधी स्वभाव के लिए सारे संसार में प्रसिद्ध हैं। इसी कारण पिता की आज्ञा मान कर उन्होंने अपनी माता का वध किया। इस कृत्य से वे माता-पिता के ऋण से उऋण हो गये। यह बात सारा संसार जानता है।
प्रश्न 5.
शूरवीर और कायर में क्या अन्तर बताया गया है?
उत्तर:
शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता का कार्य करते हैं वे अपने मुँह से अपनी प्रशंसा नहीं करते हैं जबकि शत्रु को समक्ष पाकर कायर लोग युद्ध करने की बजाय अपनी डींग हाँका करते हैं।
प्रश्न 6.
'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' पाठ में क्या सन्देश दिया गया है?
उत्तर:
इस पाठ में यह सन्देश दिया गया है कि बिना सोचे-समझे कभी भी किसी पर क्रोध नहीं करना चाहिए। इससे समस्या सुलझने के बजाय उलझती है। यह सन्देश हमें परशुराम के व्यवहार से ही नहीं बल्कि लक्ष्मण की उग्रता से भी मिलता है।
प्रश्न 7.
परशुराम ने लक्ष्मण के बारे में विश्वामित्र से क्या-क्या कहा?
उत्तर:
परशुराम ने लक्ष्मण के बारे में विश्वामित्र से कहा कि यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है। यह अपने कुल का कलंक और विनाशक है। साथ ही यह नियन्त्रणविहीन, निडर, अमर्यादित और अज्ञानी है।
प्रश्न 8.
राम-लक्ष्मण-परशराम संवाद' पाठ में किन जीवन-मल्यों को अपनाने का संकेत किया गया है?
उत्तर:
इस पाठ में विनम्रता, मर्यादा-पालन और शीलयुक्त आचरण अपनाने का संकेत किया गया है। परशुराम का क्रोधपूर्ण व्यवहार उनके मुनि रूप और वंश के अनुकूल नहीं है। उसी प्रकार लक्ष्मण का व्यवहार भी अपनी कुल परम्परा और सामाजिक मर्यादाओं के विपरीत है।
प्रश्न 9.
परशुराम की बात सुनकर विश्वामित्र ने उनसे क्या प्रार्थना की?
उत्तर:
परशुराम की बात सुनकर विश्वामित्र ने उनसे प्रार्थना की कि साधुजन बालकों के गुण-दोषों की ओर ध्यान नहीं देते। इसलिए आप भी लक्ष्मण के गुण-दोषों को न देखकर, बालक समझकर उनके अपराध को क्षमा कर दें।
प्रश्न 10.
सभा में हाहाकार क्यों मच गया था?
उत्तर:
लक्ष्मण के व्यंग्यपूर्ण वचन सुनकर परशुराम ने अपना फरसा संभाल लिया था। यह देख कर सारी सभा में हाहाकार मच गया था, क्योंकि अब लक्ष्मण के अनर्थ की आशंका उत्पन्न हो चुकी थी।
प्रश्न 11.
लक्ष्मण के कुल में किन-किन पर वीरता नहीं दिखाई जाती है और क्यों?
उत्तर:
लक्ष्मण के कुल में देवता, ब्राह्मण, भक्तजन और गाय पर वीरता नहीं दिखाई जाती है, क्योंकि उनकी कुल-परम्परा के अनुसार ये सब अवध्य एवं पूज्य होते हैं। इन पर वीरता दिखाने पर पाप लगता है।
प्रश्न 12.
'होइहि कोउ एक दास तुम्हारा' राम के इस कथन में किस जीवन-सत्य का बोध होता है?
उत्तरं:
राम के इस कथन से उनकी बड़ों के प्रति विनम्रता, निडरता और सत्यप्रियता झलकती है। हमें सत्य वचना की रक्षा करते हुए बड़ों के समक्ष अपने विचार निडरता से व्यक्त करने चाहिए, लेकिन विनम्रता को नहीं त्यागना चाहिए।
प्रश्न 13.
परशुराम ने राम की विनयपूर्ण बातों का क्या जवाब दिया और क्यों?
उत्तर:
परशुराम ने राम की विनयपूर्ण बातों का जवाब क्रोधयुक्त होकर ही दिया। उन्होंने कहा-तुम सेवक हो? सेवक तो वही होता है, जो सेवा करता है, जो शत्रु जैसा कार्य करता है, वह तो लड़ाई ही मोल लेता है।
प्रश्न 14.
फरसे को दिखाते हुए परशुराम ने लक्ष्मण से आवेगपूर्ण वाणी में क्या कहा था?
उत्तर:
फरसे को दिखाते हुए परशुराम ने लक्ष्मण से आवेगपूर्ण वाणी में कहा था कि मेरे इस फरसे ने सहस्रबाहु की भुजाओं को ही नहीं काट डाला, बल्कि यह क्षत्राणियों के गर्भ में पल रहे बच्चों का भी नाश कर डालता है।
प्रश्न 15.
अहो मुनीसु महाभट मानी' में निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस कथन में परशराम के बडबोलेपन पर व्यंग्य है। यह उनकी वीरता को चनौती है। इसके साथ ही उन्हें महामुनियों के विपरीत आचरण करने वाला तथा पराक्रमी योद्धा कहकर लक्ष्मण द्वारा उनकी वीरता का उपहास भी निडरतापूर्वक किया
गया है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
पाठ 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' के आधार पर परशुराम की स्वभावगत विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
परशुराम ब्राह्मण कुल में उत्पन्न बाल-ब्रह्मचारी थे। वे वीर योद्धा, क्रोधी, अहंकारी एवं क्षत्रिय कुल के विरोधी थे। उन्होंने अपने पिता की आज्ञा को मान कर अपनी माता की गर्दन काट दी थी। वे शिव के परम भक्त थे। सीता स्वयंवर में टूटने वाला धनुष शिवजी का ही था इसलिए अपने गुरु के टूटे धनुष को देख वे अत्यन्त क्रोधित हो जाते हैं। लक्ष्मण के व्यंग्य भरे कटु वचनों को सुनकर अपना भुजबल सिद्ध करने के लिए फरसा दिखाते हुए कहते हैं कि सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाला यह फरसा गर्भस्थ शिशु को भी नष्ट कर देता है।
परशुराम ने सेवक और शत्रु के विषय में कहा कि सेवक वह होता है जो सेवा-कार्य करता है शत्रु के समान कार्य करने वाले से तो लड़ाई ही करनी चाहिए। इसलिए जिसने शिव-धनुष तोड़ने का कार्य किया वह उनके लिए शत्रु के समान है। चूंकि किसी के द्वारा विनय-याचना करने पर उनका क्रोध भी शांत हो जाता है। विश्वामित्र द्वारा शील-वचन कहने पर वे लक्ष्मण को क्षमा भी करते हैं।
प्रश्न 2.
लक्ष्मण द्वारा परशुराम पर किये गए व्यंग्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
लक्ष्मण परशुराम के क्रोध से परिचित थे फिर भी अपने उग्र स्वभाव के कारण वे परशुराम का क्रोध बढ़ाने हेतु कई व्यंग्य वचन कहते हैं। उन्होंने परशुराम को कहा कि आपके स्वभाव से तो सारा संसार परिचित है। आप अपनी माता का वध करके माता-पिता के ऋण से मुक्त हो गये अब गुरु-ऋण से दुःखी हैं । परशुराम द्वारा अपनी वीरता बखान करने पर लक्ष्मण ने कहा कि वीर योद्धा कभी धैर्य नहीं छोड़ता और आप क्रोधी हो। वीर युद्ध भूमि में शत्रु-मर्दन करता है कायरों की भाँति अपनी प्रशंसा नहीं करता।
लक्ष्मण परशुराम की गर्वभरी बातों का उपहास उड़ाते हुए कहते हैं कि हम कोई कुम्बड़बतिया अर्थात् छुई-मुई का फूल नहीं हैं जो आपकी अंगुली दिखाने मात्र से डर जाएँगे। अंत में लक्ष्मण कहते हैं कि गुरु-ऋण का भार अर्थात् उसका ब्याज आप पर बहुत बढ़ गया है इसलिए किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लो और गुरु-ऋण से मुक्त हो जाओ। इस प्रकार लक्ष्मण निडरता और निर्भीकता से परशुराम पर व्यंग्य वचनों की बौछार कर रहे थे।
प्रश्न 3.
'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' में राम के किस स्वभाव की प्रशंसा व्यक्त हुई है?
उत्तर:
रघुकुल के भानु अर्थात् सूर्य कहे जाने वाले श्री राम स्वभाव से शांत एवं विनयी प्रवृत्ति के थे। परशुराम के पूछने पर धनुष किसने तोड़ा ? राम का उत्तर विनयपूर्वक यही था कि नाथ आप का कोई दास ही होगा। परशुराम को नाथ कह कर तथा स्वयं को दास कह कर अपने विनयी स्वभाव का परिचय देते हैं। परशुराम की ललकार पर श्रीराम शांत रहे और केवल अनुनय-विनय ही करते रहे। अपने मधुर वचनों से उनकी क्रोधाग्नि को शांत करने का प्रयास करते रहे।
लक्ष्मण की कटु-व्यंग्योक्तियों से परशुराम की क्रोधाग्नि बढ़ती ही जा रही थी तो श्रीराम ने शीतल जल के समान अपने मधुर वचनों द्वारा उस अग्नि को शांत करने का ही प्रयत्न किया। इससे यही पता चलता है कि राम शांत एवं विनम्र स्वभाव के थे। अपने से बड़ों, गुरुजनों का, मुनियों का, ब्राह्मणों का तथा समस्त सभाजनों का आदर सम्मान करने वाले थे। उनकी वाणी में सदैव मधुरता का गुण विद्यमान रहता था।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1.
भक्त तुलसीदास का जीवन परिचय उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के आधार पर संक्षिप्त में दीजिए।
उत्तर:
भक्त शिरोमणि तुलसीदास का जन्म बांदा जिले के राजापुर गाँव में सन् 1532 में हुआ था। तुलसी का बचपन बहुत संघर्षपूर्ण रहा। बचपन में माता-पिता से विछोह हो गया। गुरु-कृपा से रामभक्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ। इनके गुरु का नाम नरहरिदास था। पत्नी से मिली भर्त्सना के पश्चात् ये संसारी मोह-माया से विमुख हो गए थे। रामभक्ति परम्परा में तुलसी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। इनका रचित 'रामचरितमानस' भारतीय संस्कृति का आधार-स्तम्भ-ग्रंथ माना जाता है। इसके अलावा कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्णगीतावली, विनय-पत्रिका इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। अवधी तथा ब्रजभाषा के प्रचलित रूप इनकी रचनाओं में मिलते हैं। सन् 1623 में काशी नगरी में उनका देहावसान हुआ।
राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद Summary in Hindi
कवि-परिचय :
रामभक्ति परम्परा के अग्रणी कवि गोस्वामी तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजापुर गाँव में सन् 1532 में हुआ था। उनकी माता का नाम हुलसी तथा पिता का नाम आत्माराम दुबे था। जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था। एक महात्मा की कृपा से इनका बचपन व्यतीत हुआ। उनके गुरु का नाम नरहरि था। उनका विवाह रत्नावली से हुआ था। उसी के उपदेश से वे भगवान् की भक्ति की ओर उन्मुख हुए। सन् 1623 में उनका स्वर्गवास हुआ। उन्होंने 'रामचरितमानस' के अलावा अनेक ग्रन्थों की रचना की। उनके रचित ग्रन्थों में 'कवितावली', 'गीतावली', 'दोहावली', 'कृष्ण-गीतावली' तथा 'विनयपत्रिका' आदि प्रसिद्ध हैं।
पाठ-परिचय :
पठित अंश 'रामचरितमानस' के बालकाण्ड के 'राम-लक्ष्मण-परशराम-संवाद' से लिया गया है। सीता स्वयंवर में राम द्वारा शिव-धनुष भंग करने के बाद परशुराम क्रोधित होकर आते हैं। वे शिव-धनुष को खंडित देखकर आपे से बाहर हो जाते हैं। राम के विनय और विश्वामित्र के समझाने पर वे शान्त हो जाते हैं। इसी बीच राम, लक्ष्मण और परशुराम के बीच जो संवाद हुआ, उसी प्रसंग का यहाँ वर्णन किया गया है।
सप्रसंग व्याख्याएँ :
राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद :
1. नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयेसुकाह कहिअकिन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअलराई॥
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥
बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँन असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
येहि धनु पर ममता केहि हेतू।सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥
कठिन-शब्दार्थ :
- संभुधनु = शिवजी का धनुष।
- भंजनिहारा = तोड़ने वाला।
- होइहि = होगा।
- आयेसु = आज्ञा।
- किन = क्यों नहीं।
- रिसाइ = क्रोध करके।
- सेवकाई = सेवा।
- अरिकरनी = शत्रुता का कर्म।
- लराई = लड़ाई।
- तोरा = तोड़ा।
- गाउ = अलग करके।
- जैहहि = जाएंगे।
- अवमाने = अपमान करके।
- लरिकाई = बचपन में।
- भृगुकुलकेतु = भृगुवंश के महान् पुरुष अर्थात् परशुराम।
- कालबस = मृत्यु के वश में।
- सँभार = सँभलकर।
- त्रिपुरारिधनु = शिवजी का धनुष।
- बिदित = परिचित।
- सकल = सारा।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश तुलसीदास द्वारा रचित 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' से लिया गया है। सीता स्वयंवर में शिव-धनुष का टूटना और क्रोधित अवस्था में परशुराम का सभा में प्रवेश करने का वर्णन किया गया है जहाँ जाकर वे धनुष तोड़ने वाले के बारे में पूछते हैं
व्याख्या - राम परशुराम से कहते हैं- हे नाथ! शिव के धनुष को तोड़ने वाला कोई आपका सेवक ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे आप क्यों नहीं कहते? इसे सुनकर क्रोधित मुनि परशुराम नाराज होकर बोले-सेवक वही है, जो सेवा करे, शत्रु कर्म करके जो युद्ध करे, वह सेवक नहीं है। हे राम! सुनो, जिसने शिव-धनुष तोड़ा है, वह सहस्रबाहु की तरह मेरा शत्रु है इसलिए वह उपस्थित राजाओं के समूह से स्वयं अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जायेंगे।
मुनि के वचनों को सुनकर लक्ष्मण मुस्कराए और परशुराम का अपमान करते हुए बोले-हे स्वामी ! बाल्यावस्था में अनेक धनुष तोड़ डाले किन्तु कभी आपने इस तरह क्रोध नहीं किया। इस धनुष पर ममता किस कारण है। उसे सुनकर भृगुवंश की ध्वजा परशुराम क्रोध करके बोले। हे राजपुत्र! कालवश होने के कारण बोलने में तुझे समझ नहीं है कि तू क्या कह रहा है? यह संसार भर को ज्ञात है कि यह शिव-धनुष क्या सामान्य छोटे धनुष के समान है?
विशेष :
- शिव-धनुष टूटने पर परशुराम के क्रोधित स्वभाव का वर्णन हुआ है तथा सेवक-शत्रु के मध्य अन्तर बताया गया है।
- अवधी भाषा का प्रयोग है। ओज गुण से दीप्त तथा रूपक, उपमा अलंकार प्रस्तुत है।
2. लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छीत लाभु जून धनु तार। देखा राम नयन के भार॥
छुअत टूट रघुपतिहन दोस।मुनि बिनु काज करिअकत रोस॥
बोले चितै परसु की ओरा।रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गभन्ह के अभक दलन परसु मोर अति घोर॥
कठिन-शब्दार्थ :
- जाना = जानकारी में।
- छति = हानि।
- जून = पुराना।
- दोसू = दोष।
- कत = क्यों।
- रोसू = क्रोध।
- परसु = फरसा।
- सुभाउ = स्वभाव।
- बोलि = जानकर।
- बधौं = मारना।
- जड़ = मूर्ख।
- कोही = क्रोधी।
- बिस्वबिदित = संसार में प्रसिद्ध।
- द्रोही = दुश्मन।
- भुजबल = भुज़ाओं के बल से।
- बिपुल = बहुत बार।
- महि-देवन्ह = ब्राह्मणों।
- सहसबाहु = सहस्रबाहु नामक राजा जिसका वधः परशुराम ने किया था।
- छेदनिहारा = काटने वाला।
- महीपकुमारा = राजा का पुत्र।
- सोचबस = चिंता में।
- गर्भन्ह = गर्भ में पल रहे।
- अर्भक = बच्चे।
- दलन = कुचलने वाला।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश तुलसीदास द्वारा रचित 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' से लिया गया है। यहाँ लक्ष्मण व परशुराम के मध्य संवाद होता है। जिसमें लक्ष्मण द्वारा किया गया उपहास परशुराम की क्रोधाग्नि में घी डालने का कार्य करता है। ..
व्याख्या - लक्ष्मण हँसकर- परशुराम से बोले-हे देव! मेरी समझ से सारे धनुष एक समान हैं। पुराने धनुष को तोड़ने से क्या लाभ-हानि, श्रीराम ने इसे नए के धोखे में देखा था। लेकिन यह तो छूते ही टूट गया, इसमें श्रीराम का क्या दोष है? इसलिए हे मुनि! आप बिना कारण ही क्रोध क्यों कर रहे हैं? अपने फरसे की ओर देखकर परशुराम बोले-रे मूर्ख! तूने मेरे स्वभाव को अभी नहीं सुना है। बालक समझकर मैं तुम्हारा वध नहीं कर रहा हूँ।
रे बुद्धिहीन! क्या तू मुझे केवल मुनि ही समझ रहा है। मैं बाल-ब्रह्मचारी तथा अत्यधिक क्रोधी हूँ तथा सारे संसार को पता है कि मैं क्षत्रियों के कुल का घोर शत्रु हूँ। मैंने अपनी भुजाओं के बल पर ही इस पृथ्वी को अनेक बार भूप-विहीन किया है अर्थात् भूमि को राजाओं से रिक्त किया है और अनेक बार उनके राज्यों की भूमि को जीतकर. ब्राह्मणों को दान कर चुका हूँ। हे राजपुत्र! मेरे फरसे को देखो, यह सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाला है। हे राजपुत्र! अपने माता-पिता को शोक-ग्रस्त मत करो। क्षत्राणियों के गर्भो में शिशुओं को मारने वाला मेरा यह फरसा अत्यधिक भयंकर है।
विशेष :
- लक्ष्मण द्वारा शिव-धनुष को छोटी धनुहिया कहने पर परशुराम के क्रोध की अग्नि को भड़कते दिखाया है।
- ओजगुण एवं अलंकारों से सज्जित अवधी भाषा का प्रयोग दृष्टव्य है।
3. बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूंकि पहारू॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछुकहहु सही रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥
बधे पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरां गंभीर॥
कठिन-शब्दार्थ :
- बिहसि = हँसकर।
- मृदु = कोमल।
- महाभट = महान् योद्धा।
- कुठारु = कुल्हाड़ा।
- पहारू = पहाड़।
- कुम्हड़बतिया = कुम्हड़ेका फल, छुईमुई का पौधा।
- तरजनी = अँगूठे के पास वाली उँगली।
- सरासन = धनुष।
- भृगुसुत = परशुराम।
- रिस = क्रोध।
- सहौं = सहता हूँ।
- महिसुर = ब्राह्मण।
- हरिजन = भक्त।
- गाई = गाय।
- सुराई = वीरता।
- अपकीरति = अपयश।
- पा = पाँव।
- कुलिस = कठोर।
- छमहु = क्षमा करना।
- सरोष = क्रोध सहित।
- भृगुबंसमनि = परशुराम।
- गिरा = वाणी।
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश तुलसीदास द्वारा रचित 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' से लिया गया है। इसमें लक्ष्मण द्वारा। परशुराम को बताया गया है कि रघुकुल में देवता, ब्राह्मण, भक्तजन और गाय पर शौर्य प्रदर्शित नहीं किया जाता है।
व्याख्या : परशुराम के कठोर वचन सुनकर लक्ष्मण कोमल वाणी में बोले- अहो, मुनिश्रेष्ठ! तुम अपने आपको महान् योद्धा मानते हो। इसीलिए आप मुझे बार-बार अपना कुल्हाड़ा दिखा रहे हो। मानो फंक से ही पहाड़ उड़ा डालना चाहते हो। लेकिन मनिवर! हम भी कोई कम्हडे की बतिया या छईमई का पौधा नहीं हैं जो अँगली देखकर ही कम्हला जायंगे। हे मुनिवर ! मैंने आपके हाथ में कुठार और कंधे पर धनुष-बाण देखकर ही कुछ अभिमानपूर्वक कहा है। सोचा कि सामने कोई सचमुच योद्धा है।
आपको भृगुपुत्र समझकर और यज्ञोपवीत देखकर अर्थात् ब्राह्मण जानकर आपके द्वारा कही गई उचित-अनुचित बातों को मैं अपना क्रोध रोक कर सुन रहा हूँ। क्योंकि देवता, ब्राह्मण, भक्तजन तथा गाय, हमारे कुल में इन पर शौर्य प्रदर्शित नहीं किया जाता है। आप ब्राह्मण हैं, यदि मुझसे आपका वध हो जाए तो मुझे ही पाप लगेगा और यदि आपसे हार जाऊँगा तो अपयश मिलेगा। इसलिए यदि आप मुझे मार भी दें तो भी मुझे आपके पैरों में ही पड़ना पड़ेगा।
हे परशुरामजी ! आपके तो वचन ही करोड़ों वज्र के समान कठोर हैं फिर आपने यह धनुष-बाण व्यर्थ में ही धारण कर लिया है। इसलिए इन्हें देखकर यदि मैंने आपको अनुचित कह दिया हो तो हे धैर्यवान महामुनि! मुझे क्षमा कर देना। लक्ष्मण के ये व्यंग्य वचन सुनकर भृगुवंशमणि परशुराम क्रोध सहित गंभीर वाणी में बोले।
विशेष :
- परशुराम के क्रोध के प्रति लक्ष्मण द्वारा रघुकुल की प्रशंसा एवं लक्ष्मण के स्वभाव की उग्रता दर्शाई गई है।
- भाषा ओजमयी, प्रवाहपूर्ण एवं अलंकारों से सज्जित है। उत्प्रेक्षा, रूपक अलंकार एवं अवधी भाषा का प्रयोग है।
4. कौसिक सुनहुमंद येहुबालकु।कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू॥
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहाँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
नहि संतोषु त पुनि कछु कहह। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरबती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥
कठिन-शब्दार्थ :
- कौसिक = विश्वामित्र।
- मंद = मूर्ख।
- कालबस = मौत के वश में।
- भानुबंस = सूर्यवंश।
- निरंकुसु = उदंड।
- अबुधु = मूर्ख!
- असंकू = निडर।
- छन = क्षण भर में।
- खोरि = दोष।
- हटकहु = रोको।
- प्रतापु = बल, शक्ति।
- सुजसु = सुयश।
- अछत = छोड़कर।
- बरनै पारा = वर्णन कर पायेगा।
- दुसह = असहनीय।
- बीरबती = वीरता के मार्ग पर चलने वाला, जिसने वीरता का व्रत लिया हो।
- अछोभा = अक्रोधी।
- करनी = काम।
- जनावहिं = परिचित कराता।
- बिद्यमान = सामने, प्रकट।
- कथहिं = कहते हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश तुलसीदास द्वारा रचित 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' से लिया गया है। परशुराम लक्ष्मण को उदंड, मूर्ख बता रहे हैं, इस पर लक्ष्मण भी शूरवीरों की प्रवृत्ति को स्पष्ट करते हुए परशुराम का उपहास बना रहे हैं।
व्याख्या : परशुराम ने विश्वामित्र से कहा कि यह बालक (लक्ष्मण) बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है। यह काल के वश होकर अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंशी होते हुए भी चन्द्रमा के कलंक के समान है। यह सभी तरह से उदंड, मूर्ख और निडर है। यह अभी क्षणभर में काल का ग्रास हो जायेगा। मैं पुकार कर कहे देता हूँ फिर मुझे कोई दोष मत देना। यदि तुम इसकी रक्षा करना चाहते हो तो उसे हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर रोक लो। तब लक्ष्मण ने कहा कि हे मुनि! आपका सुयश आपके अलावा और कौन वर्णन कर सकता है।
आपने अपने मुख से अपनी करनी अनेक बार बहुत प्रकार से कही है। इतने पर भी यदि आपको सन्तोष नहीं हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। आप क्रोध रोककर असह दु:ख सहन न कीजिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले धैर्यवान और क्षोभरहित हैं। आप गाली देते हुए शोभा नहीं पाते हैं। शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता का कार्य करते हैं और अपने मुँह से अपनी प्रशंसा नहीं करते हैं। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही व्यर्थ में अपने प्रताप की अर्थात् अपने यश की, कीर्ति की डींग हाँका करते हैं।
विशेष :
- लक्ष्मण द्वारा शूरवीर को धैर्यवान व विनम्र बताया गया है जो युद्ध में वीरता दिखाते हैं, आत्मप्रशंसा नहीं करते जैसे गुणों का बखान किया गया है।
- शांत प्रसाद व ओज रस से पूर्ण, अवधी भाषा का प्रयोग, व्यंजनापूर्ण उक्तियों से युक्त पद्यांश की भाषा शैली है।
5. तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥
अब जनि देइ दोसु.मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा॥
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही॥
उतर देत छोडौं बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे॥
न त येहि काटि कुठार कठोरे। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे॥
गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँन बूझ अबूझ॥
कठिन-शब्दार्थ :
- कालु = मृत्यु।
- मोहि लागि = मेरे लिए।
- सुधारि = सँवारकर।
- कर = हाथ।
- घोरा = भयंकर।
- बधजोगू = वध करने के योग्य।
- मरनिहार = मरने के योग्य।
- साँचा = वास्तव में।
- छमिअ = क्षमा कर दो।
- अकरुन = करुणाहीन, निर्दय।
- कोही = क्रोधी।
- गुरुद्रोही = गुरु का अपमान करने वाला।
- सील = व्यवहार।
- उरिन = ऋणमुक्त।
- गाधिसूनु = गाधि के पुत्र अर्थात् विश्वामित्र।
- अयमय = लोहे का बना हुआ।
- ऊखमय = गन्ने से बना हुआ।
- अजहुँ = अब भी। अबूझ = अज्ञानी।
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश तुलसीदास द्वारा रचित 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' से लिया गया है। लक्ष्मण द्वारा कठोर वचनों के प्रयोग पर परशुराम विश्वामित्र को उन्हें समझाने को कहते हैं का प्रसंग उपस्थित है।
व्याख्या : लक्ष्मण परशुराम से कहने लगे कि आप तो मानो मृत्यु को हाँक लगा-लगाकर अर्थात् आवाज दे-देकर मेरे लिए बुला रहे हैं। लक्ष्मण की कठोर बातें सुनकर परशुराम ने अपने फरसे को सँभाल कर हाथ में ले लिया और कहने लगे कि आप लोग अब मुझे इस बालक के वध के लिए दोष मत देना, क्योंकि यह बालक कटुवचन कहने के कारण वध के योग्य है। मैं तो इसे बालक समझकर अब तक बहुत बचाता रहा, परन्तु अब यह वास्तव में ही मारने योग्य हो चुका है।
यह सुनकर विश्वामित्र ने परशुराम से कहा--हे परशुरामजी! आप तो साधु हैं। साधुजन बालकों के गुण अधिक ध्यान नहीं देते, इसलिए आप इसे क्षमा कर दीजिए। तब परशराम बोले कि हे विश्वामित्रजी! आप जानते हैं कि मैं बहुत निर्दय और क्रोधी स्वभाव का हूँ। मेरे हाथों में यह तेज कुल्हाड़ा भी है। मेरे सामने मेरे गुरु का अपमान करने वाला अपराधी भी खड़ा है। वह बार-बार जवाब पर जवाब दिए जा रहा है। इतना होने पर भी यदि मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ तो केवल आपके (विश्वामित्र) प्रेम और सद्भाव के कारण, नहीं तो अब तक मैं इसे इस कठोर कुल्हाड़ी से काटकर थोड़े से ही श्रम से गुरु-ऋण से उऋण हो गया होता।
परशुराम की बात सुनकर विश्वामित्र अपने मन में हँसे और सोचने लगे कि देखो मुनि परशुराम को कैसा हरा ही हरा सूझ रहा है। अर्थात् वे सभी क्षत्रियों को हराने के कारण राम-लक्ष्मण को भी सामान्य क्षत्रिय ही मान रहे हैं और उन्हें भी आसानी से मार डालने के सपने देख रहे हैं। वे इस बात से अभी तक अनभिज्ञ हैं कि उनके सामने गन्ने के रस से बनी खांड नहीं, बल्कि लोहे से बना हुआ तेज खांडा (तलवार) है। अर्थात् राम-लक्ष्मण सामान्य योद्धा नहीं हैं, इसलिए मुनिवर अज्ञानियों की तरह अभी इनके प्रभाव को समझ नहीं पा रहे हैं।
विशेष :
- परशुराम के क्रोध के समक्ष विश्वामित्र सोचते हैं कि ये गन्ने के रस से बनी खांड के समान वीर नहीं हैं बल्कि लोहे से बने खांडा (तलवार) है। इस प्रकार श्रीराम-लक्ष्मण की वीरता का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है।
- अवधी भाषा का प्रयोग लाक्षणिकता से पूर्ण ओजमयी है। खांड-खांडा का अर्थ उक्तिवैचित्र्य को प्रस्तुत करता है।
6. कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही॥
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े॥
अनुचित कहि सबु लोंगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे॥
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥
कठिन-शब्दार्थ :
- सील = स्वभाव।
- बिदित = परिचित।
- उरिन = ऋण से मक्त।
- गररिन = गरु का ऋण।
- हर माथें काढ़ा = हम पर निकालना।
- बड़ = बहुत।
- बाढ़ा = बढ़ गया।
- आनिअ = लाओ।
- ब्यवहरिआ = हिसाब-किताब करने वाला।
- भृगुबर = परशुराम।
- बचौं = बच रहा हूँ, छोड़ रहा हूँ।
- नृपद्रोही = राजाओं के शत्रु।
- सुभट = वीर योद्धा।
- गाढ़े = अच्छे।
- द्विजदेवता = ब्राह्मण देवता।
- संयनहि = आँखों के इशारे से।
- नेवारे = रोका, मना किया।
- कृसानु = आग।
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश तुलसीदास द्वारा रचित राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' से लिया गया है। लक्ष्मण की उग्रता से भड़के परशुराम के क्रोध पर राम अपनी शीतल वाणी का प्रयोग करते हैं तथा उनका क्रोध शांत करते हैं।
व्याख्या : लक्ष्मण परशुराम से कहने लगे कि हे मुनि! आपके शील-स्वभाव के बारे में कौन नहीं जानता। यह सारा संसार आप से परिचित है। आप अपने माता-पिता के ऋण से तो अच्छी तरह से उऋण हो चुके हैं। इसलिए अब आप पर गुरु का ऋण ही शेष बचा है। उसे उतारने की ही चिन्ता आपके मन में है। अब आप मुझे मारकर शायद गुरु के ऋण से मुक्त होना चाहते हैं। यह आपके लिए ठीक भी है। दिन भी बहुत हो गये हैं। अब तक तो आप पर गुरु ऋण का ब्याज बहुत बढ़ गया होगा।
इसलिए अब किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लीजिए। मैं तुरन्त अपनी थैली खोल कर चुका दूंगा। लक्ष्मण के द्वारा कहे गये कटु वचनों को सुनकर परशुराम ने अपना फरसा साध लिया। सारी सभा में हाय-हाय की पुकार मच गयी। लक्ष्मण ने फिर से कहा--भृगुवर! परशुरामजी! आप मुझे अपना फरसा दिखा रहे हो और मैं आपको ब्राह्मण समझकर बार-बार लड़ने से बच रहा हूँ। हे क्षत्रियों के शत्रु! लगता है कि आपका युद्ध-भूमि में कभी पराक्रमी वीरों से पाला नहीं पड़ा, इसलिए हे ब्राह्मण देवता! आप अपने घर में ही अपनी वीरता के कारण फूले-फूले फिर रहे हो।
लक्ष्मण के ऐसे वचन सुनकर सभा में उपस्थित लोग 'अनुचित है', 'अनुचित है' कहने लगे। राम ने भी आँखों के संकेत से लक्ष्मण को बोलने के लिए मना किया। इस प्रकार लक्ष्मण के उत्तर आहुति में घी के समान भड़काने वाले थे। परशुराम का क्रोध आग के समान था जो लक्ष्मण के वचनों से भड़क उठा था। अतः आग को बढ़ता देखकर श्रीराम जल के समान शीतल वचन बोले।
विशेष :
- लक्ष्मण द्वारा व्यंग्योक्ति एवं राम द्वारा शीतल वचन का सुन्दर दृश्य उपस्थित हुआ है। श्रीराम का शील स्वभाव एवं लक्ष्मण का उग्र स्वभाव प्रदर्शित होता है।
- ओजपूर्ण कटुवचन, उपमा-उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग, अवधी भाषा की प्रस्तुति का वर्णन हुआ है।