सप्रसंग व्याख्याएँ -
1. जो शब्द सबसे कम समझ में आते हैं और जिनका उपयोग होता है सबसे अधिक; ऐसे दो शब्द हैं सभ्यता और संस्कृति। इन दो शब्दों के साथ जब अनेक विशेषण लग जाते हैं, उदाहरण के लिए जैसे भौतिक-सभ्यता और आध्यात्मिक-सभ्यता, तब दोनों शब्दों का जो थोड़ा बहुत अर्थ समझ में आया रहता है, वह भी गलत-सलत हो जाता है। क्या यह एक ही चीज़ है अथवा दो वस्तुएँ? यदि दो हैं तो दोनों में क्या अन्तर है?
कठिन शब्दार्थ :
- आध्यात्मिक = परमात्मा या आत्मा से संबंध रखने वाला।
- अन्तर = भेद।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध 'संस्कृति' से लिया गया है। इसमें लेखक ने सभ्यता और संस्कृत जैसे विषय पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या - लेखक ने सूक्ष्म तात्त्विक दृष्टि द्वारा सभ्यता और संस्कृति के विषय में बताया है कि हमें जो शब्द सबसे कम समझ में आते हैं और जिनका उपयोग सबसे ज्यादा होता है, ऐसे दो शब्द हैं सभ्यता और संस्कृति। मनुष्य अपने जीवन में सभ्यता और संस्कृति जैसे शब्दों का इस्तेमाल बहुत अधिक करता है लेकिन उसके अर्थ से परिचित नहीं है। वह इन दोनों शब्दों के साथ अनेक विशेषण लगा देता है जैसे भौतिक सभ्यता और आध्यात्मिक सभ्यता। यहाँ पर भौ सभ्यता से तात्पर्य है रहन-सहन, खान-पान, क्रिया-कलाप।
सभी ऐशो-आराम से सज्जित सभ्यता भौतिकता के अन्तर्गत आती है तथा परमात्मा या आत्मा से संबंध रखने वाले समस्त क्रियाकलाप आध्यात्मिकता के अन्तर्गत आते हैं। इससे इन दोनों शब्दों का थोड़ा-बहुत अर्थ समझ में आता है जो कभी गलत भी हो जाता है। व्यक्ति भ्रमित हो जाता है कि क्या ये एक चीज है? या दो वस्तुएँ हैं? अगर ये दो वस्तुएँ है तो इन दोनों के मध्य क्या अंतर है? इन दोनों शब्दों को पहचानने व भेद करने का प्रकार क्या है?
विशेष :
- लेखक ने सभ्यता और संस्कृति दोनों पर जिज्ञासा व्यक्त की है कि क्या ये दोनों एक ही हैं या अलग-अलग अर्थ देते हैं।
- खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है। भाषा सरल-सहज व बोधगम्य है।
2. कल्पना कीजिए उस समय की जब मानव समाज का अग्नि देवता से साक्षात नहीं हुआ था आज तो घर-घर चूल्हा जलता है। जिस आदमी ने पहले-पहल आग का आविष्कार किया होगा, वह कितना बड़ा आविष्कर्ता होगा! अथवा कल्पना कीजिए उस समय की जब मानव को सुई-धागे का परिचय न था, जिस मनुष्य के दिमाग में आई होगी कि लोहे के एक टुकड़े को घिसकर उसके एक सिरे को छेदकर और छेद में धागा पिरोकर कपड़े के दो टुकड़े एक साथ जोड़े जा सकते हैं। वह भी कितना बड़ा आविष्कर्ता रहा होगा !
कठिन शब्दार्थ :
- साक्षात = आँखों के सामने प्रत्यक्ष, सीधे।
- पहले-पहल = सर्वप्रथम।
- आविष्कर्ता = खोज करने वाला, आविष्कार करने वाला।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध संस्कृति से लिया गया है। मानव जीवन के प्रारम्भ में हुए दो उदाहरणों द्वारा लेखक ने सभ्यता और संस्कृति के अर्थ पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या - लेखक कहते हैं कि कल्पना कीजिए कि उस समय की जब मानव समाज को अग्नि के बारे में कोई के समय में हर घर में चूल्हा जलता है अर्थात् जिसने सर्वप्रथम आग की खोज की होगी वह कितना बड़ा आविष्कर्ता होगा। इसी तरह लेखक एक और उदाहरण देकर समझाते हैं कि कल्पना कीजिए उस समय की जब मानव को सुई-धागे के विषय में कोई जानकारी नहीं थी।
जिस भी मनुष्य के दिमाग में सर्वप्रथम यह बात आई कि लोहे के टुकड़े को ठोक-पीट कर, घिस कर उसके एक सिरे में छेद करके उस छेद में धागा पिरो कर कपड़े के दो टुकड़े एक साथ जोड़े जा सकते हैं। इस तरह सुई का निर्माण या खोज करने वाला भी कितना बड़ा आविष्कर्ता रहा होगा। लेखक ने दो उदाहरणों से मनुष्य-विकास के मुख्य दो चरणों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि ये दोनों विकास किस शब्द के अन्तर्गत आयेंगे? सभ्यता के या संस्कृति के? ये दोनों ही विकास व खोज सभ्यता के अन्तर्गत माने गए हैं।
विशेष :
- लेखक ने अग्नि व सुई-धागे की खोज द्वारा किस तरह मनुष्य की सभ्यता विकसित हुई उस पर प्रकाश डाला है।
- भाषा शैली सरल-सहज व प्रश्नात्मक है।
3. जिस योग्यता, प्रवृत्ति अथवा प्रेरणा के बल पर आग व सुई-धागे का आविष्कार हुआ, वह है व्यक्ति विशेष की संस्कृति और उस संस्कृति द्वारा जो आविष्कार हुआ, जो चीज़ उसने अपने तथा दूसरों के लिए आविष्कृत की, उसका नाम है सभ्यता। जिस व्यक्ति में पहली चीज़, जितनी अधिक व जैसी परिष्कृत मात्रा में होगी, वह व्यक्ति उतना ही अधिक व वैसा ही परिष्कृत आविष्कर्ता होगा।
कठिन शब्दार्थ :
योग्यता = क्षमता।
प्रवृत्ति = स्वभाव, आदत, व्यवहार।
प्रेरणा = मन में उत्पन्न उच्च विचार, जो प्रेरक बुद्धि प्रदान करे।
बल = शक्ति।
परिष्कृत = शुद्ध किया हुआ, साफ किया हुआ।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध संस्कृति' से लिया गया है। लेखक ने सभ्यता के विषय में बताने का प्रयास किया है। मनुष्य द्वारा किये गए किस कार्य को हम सभ्यता के अन्तर्गत मान सकते हैं।
व्याख्या - लेखक ने बताया कि मनुष्य-जीवन के प्रारम्भिक दिनों में जब सुविधानुसार या कार्यानुसार चीजों का ने अग्नि तथा सुई-धागे का आविष्कार प्रमुख था। उस आविष्कार की खोज करने वाले ने जिस क्षमता, योग्यता, व्यवहार अथवा प्रेरक बुद्धि द्वारा आग व सुई धागे का आविष्कार किया, वह उस व्यक्ति विशेष की संस्कृति को बताता है और उस संस्कृति द्वारा जो आविष्कार हुआ, अर्थात् जो वस्तु उसने स्वयं के लिए तथा दूसरों के उपयोग के लिए खोज की उसे कहेंगे सभ्यता।
वस्तु की खोज करना संस्कृति तथा उसे सबके लिए उपयोगी बनाना सभ्यता कहलाता है। लेखक कहते हैं कि जिस व्यक्ति में पहली चीज जितनी अधिक शुद्ध मात्रा में खोज की हुई होगी वह व्यक्ति उतना ही अधिक और वैसा ही शुद्ध व परिष्कृत आविष्कारक होगा। लेखक का यहाँ यह कहने का आशय है. कि प्रथम खोज में कोई मिलावट या अशुद्धि नहीं पाई जाती है, न वस्तु में और न ही आविष्कर्ता की बुद्धि में। लेकिन धीरे-धीरे बुद्धि में भी और वस्तु में भी जरूरतानुसार अन्य चीजें व सोच सम्मिलित हो जाती है।
विशेष :
- लेखक ने सभ्यता और संस्कृति का अर्थ व भेद स्पष्ट किया है।
- भाषा शैली सरल-सहज व. परिष्कृत है।
4. एक संस्कृत व्यक्ति किसी नयी चीज़ की खोज करता है; किन्तु उसकी संतान को वह अपने पूर्वज से अनायास ही प्राप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी भी नए तथ्य का दर्शन किया, वह व्यक्ति ही वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है और उसकी संतान जिसे अपने पूर्वज से वह वस्तु अनायास ही प्राप्त हो गई है, वह अपने पूर्वज की भाँति सभ्य भले ही बन जाए, संस्कृत नहीं कहला सकता।
कठिन शब्दार्थ :
- संस्कृत = शुद्ध, परिष्कृत।
- पूर्वज = पूर्व उत्पन्न हुए।
- अनायास = सायास, बिना प्रयास के।
- विवेक = बुद्धि।
- तथ्य = खोज, स्रोत, सत्य।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध संस्कृति' से लिया गया है। संस्कृत और सभ्य के मध्य के क्षीण अन्तर को बताया गया है।
व्याख्या - लेखक ने इस गद्यांश में यह बताने का प्रयास किया है कि कोई व्यक्ति किसी चीज या वस्तु की खोज करता है, उसकी वह खोज शुद्ध, परिष्कृत होगी। आचार-व्यवहार से वह संस्कृत व्यक्ति कहलायेगा। यही खोज उस व्यक्ति की संतान को अपने पूर्वज (पिता-दादा) से बिना प्रयास के ही प्राप्त हो जाती है तो उसके लिए हम उसे संस्कृत व्यक्ति न कह कर सभ्य व्यक्ति कहेंगे क्योंकि संतान ने वह ज्ञान पूर्वज द्वारा प्राप्त किया है।
पूर्वज या संस्कृत व्यक्ति अपनी बद्धि, विवेक व सोच से एक नए सत्य की खोज करता है एक नया दर्शन, दृष्टि प्राप्त करता है और वही दर्शन, वही दृष्टि, वही खोज, वही सत्य उसकी संतान को बिना प्रयास उसकी संतान होने के कारण प्राप्त हो जाती है। तो यहाँ हम खोज किये गए व्यक्ति को संस्कृत और उसकी संतान को सभ्य की दृष्टि से ही जानेंगे। किसी को देख, सुन, ज्ञान प्राप्त कर स्वयं को बदलना, जीवन दृष्टि को बदलना सभ्यता की निशानी है।
विशेष :
- लेखक ने संस्कृत व सभ्य के मध्य के अत्यन्त क्षीण अन्तर को प्रकट किया है।
- भाषा शैली सरल-सहज व बोध क्लिष्टता की ओर है।
5. एक आधुनिक उदाहरण लें। 'न्यूटन' ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का आविष्कार किया। वह संस्कृत मानव था। आज के युग का भौतिक विज्ञान का विद्यार्थी न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण से तो परिचित है ही, लेकिन उसके साथ उसे और भी अनेक बातों का ज्ञान प्राप्त है जिससे शायद न्यूटन अपरिचित ही रहा। ऐसा होने पर भी हम आज के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी को न्यूटन की अपेक्षा अधिक सभ्य भले ही कह सकें; पर न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते।
कठिन शब्दार्थ :
- युग = समय।
- परिचित = जानकार।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध 'संस्कृति' से लिया गया है। इसमें लेखक ने न्यानो न्यूटन के माध्यम से सभ्य और संस्कृत की परिभाषा पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या - लेखक कहते हैं कि संस्कृत और सभ्य को समझने के लिए हम एक नया आधुनिक उदाहरण लेते हैं। यह बात सभी जानते हैं कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का आविष्कार किया। इससे पहले गुरुत्वाकर्षण पर किसी ने कोई भी खोज नहीं की थी। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि न्यूटन का आविष्कार परिष्कृत होने के कारण शुद्ध व एकल था अर्थात् उस खोज को करने वाला व्यक्ति न्यूटन संस्कृत था।
इसी से मिलता-जुलता उदाहरण यह है कि वर्तमान में भौतिक विज्ञान का विद्यार्थी न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के ज्ञान व खोज से परिचित है, आशय यह है कि वह उसके बारे में अच्छी तरह से जानता है। लेकिन वह विद्यार्थी उस ज्ञान के साथ-साथ उसे और भी अनेक बातों का, अनेक खोजों का भी ज्ञान है। जिनसे शायद न्यूटन अपरिचित हो अर्थात् न्यूटन उन नई खोजों के बारे में नहीं जानता हो।
इस तरह की स्थिति होने पर हम उस विद्यार्थी को न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण ज्ञान को जानने के अलावा अन्य ज्ञान को भी जानने पर उसे सभ्य कह सकते हैं लेकिन उसे न्यूटन की तरह संस्कृत नहीं कहेंगे। लेखक के कहने का भाव यह है कि किसी के किए गए आविष्कार को जान-समझ कर हम सभ्य भले ही बन सकते हैं पर उस आविष्कर्ता की तरह संस्कृत नहीं कहला सकते।
विशेष :
- लेखक ने संस्कृत और सभ्य को न्यूटन के आविष्कार के माध्यम से समझाया है।
- भाषा सरल-सहज व परिनिष्ठत है। भाषा का प्रवाह सरल है।
6. आग के आविष्कार में कदाचित पेट की ज्वाला की प्रेरणा एक कारण रही। सई-धागे के आविष्कार में शायद शीतोष्ण से बचने तथा शरीर को सजाने की प्रवृत्ति का विशेष हाथ रहा। अब कल्पना कीजिए उस आदमी की जिसका पेट भरा है, जिसका तन ढंका है, लेकिन जब वह खुले आकाश के नीचे सोया हुआ रात के जगमगाते तारों को देखता है, तो उसको केवल इसलिए नींद नहीं आती क्योंकि वह यह जानने के लिए परेशान है कि आखिर यह मोती भरा थाल क्या है?
कठिन शब्दार्थ :
- कदाचित् = कभी, शायद।
- ज्वाला = आग, अग्नि।
- शीतोष्ण = सर्दी-गर्मी।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध 'संस्कृति' से लिया गया है। इसमें व्यक्ति के संस्कृत होने की जिज्ञासा को व्यक्त किया गया है।
व्याख्या - लेखक ने बताया कि मनुष्य की जिज्ञासा प्रवृत्ति ही उसे आविष्कार हेतु प्रेरित करती है। जो व्यक्ति संस्कृत है वह शांति से नहीं बैठ सकता, कोई न कोई कार्य में लगा ही रहता है। जिस प्रकार आग के आविष्कार का कारण पेट की आग बुझाना कारण रहा। इसी तरह सुई-धागे का आविष्कार मानव-बुद्धि ने सर्दी-गर्मी से बचने के लिए तथा नंगे शरीर को छिपाने या सजाने के लिए किया होगा। यहाँ कहने का आशय है कि मनुष्य की आवश्यकता उसे वस्तु की खोज के लिए प्रेरित करती है।
आगे लेखक इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि कल्पना करिये किसी आदमी का पेट भर गया, उसका तन या शरीर भी ढंक गया लेकिन जब वह खुले आकाश के नीचे सोया हुआ रात के जगमगाते हुए तारों को देखता है तो उसकी जिज्ञासा उसे सोने नहीं देती है। वह जानने को परेशान रहता है कि ऊपर ये मोतियों से भरा थाल क्या है? क्यों ये चमक रहे हैं? क्या और कैसे कई प्रश्न उसके दिमाग में घूमते रहते हैं। इसलिए उसको नींद नहीं आती है। यहाँ उसकी जरूरत या आवश्यकता का प्रश्न नहीं है बल्कि जानने का, जिज्ञासा का प्रश्न है।
विशेष :
- लेखक ने मनुष्य की जिज्ञासा प्रवृत्ति की ओर संकेत किया है कि उसकी जिज्ञासा ही खोज का कारण होती है। नहीं भरा पेट तथा ढका तन आराम से सो भी सकता है।
- भाषा सरल-सहज व प्रश्नात्मक है।
7. पेट भरने और तन ढंकने की इच्छा मनुष्य की संस्कृति की जननी नहीं है। पेट भरा और तन ढंका होने पर भी ऐसा मानव जो वास्तव में संस्कृत है, निठल्ला नहीं बैठ सकता। हमारी सभ्यता का एक बड़ा अंश हमें ऐसे संस्कृत आदमियों से ही मिला है, जिनकी चेतना पर स्थूल भौतिक कारणों का प्रभाव प्रधान रहा है, किन्तु उसका कुछ हिस्सा हमें मनीषियों से भी मिला है जिन्होंने तथ्य-विशेष को किसी भौतिक प्रेरणा के वशीभत होकर नहीं, बल्कि उनके अ अन्दर की सहज संस्कृति के ही कारण प्राप्त किया है। रात के तारों को देखकर न सो सकने वाला मनीषि हमारे आज . के ज्ञान का ऐसा ही प्रथम पुरस्कर्ता था।
कठिन शब्दार्थ :
- जननी = जन्म देने वाली।
- निठल्ला = खाली बैठना, बिना काम के बैठना।
- अंश = भाग, हिस्सा।
- चेतना = बुद्धि, जागृति।
- प्रधान = मुख्य।
- मनीषियों = ऋषि-मुनि, विद्वान।
- वशीभूत = वश में होना।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध संस्कृति' से लिया गया है। इसमें लेखक ने यह बताया है कि हमारी सभ्यता का बहुत बड़ा हिस्सा या ज्ञान हमें संस्कृत व्यक्तियों एवं ऋषि-मुनियों और विद्वानों से प्राप्त हुआ है।
व्याख्या - लेखक ने अनेक उदाहरणों द्वारा यह बताने का प्रयास किया है कि मनुष्य की स्वाभाविक जिज्ञासु प्रवृत्ति तथा अन्तःज्ञान ही उसे किसी खोज की ओर प्रेरित करता है। सिर्फ पेट भरना और शरीर को ढकना ही संस्कृति को उत्पन्न करना नहीं है। आवश्यकता, संस्कृति की जननी अवश्य है लेकिन पूर्ण रूप से उस पर निर्भर नहीं है। पेट भरा और तन ढंका होने के बाद भी संस्कृत व्यक्ति खाली नहीं बैठ सकता है। वह कुछ न कुछ ऐसे कार्य में लगा ही रहता है जो उसकी वृत्ति को शान्ति दे सके।
इसीलिए हमारी सभ्यता को विकसित करने का एक बहुत बड़ा हिस्सा हमें ऐसे ही संस्कृत आदमियों से मिलता है जिनकी बुद्धि पर स्थूल भौतिक कारणों का प्रभाव मुख्य रहा हो। कहने का आशय है कि भौतिकतावादी वस्तु एवं उनके निर्माण की जिज्ञासा का मुख्य भाव ऐसे संस्कृत व्यक्तियों में अधिक रहा हो सकता है।
इसी तरह का कुछ और भाग हमें मनीषियों (विद्वानों) से प्राप्त हुआ है। जिन्होंने किसी भी तरह के सत्य की खोज भौतिक कारणों से नहीं बल्कि अपने अंदर की सहज जिज्ञासु संस्कृति के कारण प्राप्त की है। रात्रि के समय आकाश में खिले तारों को देख कर न सोने वाला विद्वान हमारे आज के ज्ञान का प्रथम पुरस्कर्ता था। लेखक का भाव यह है कि सिर्फ भौतिक कारण ही हमें किसी खोज की ओर प्रेरित नहीं करता वरन् मनुष्य का आंतरिक सहज ज्ञान भी हमें आविष्कर्ता बना सकता है।
विशेष :
- लेखक ने ऋषि-विद्वानों की आंतरिक जिज्ञासु प्रवृत्ति तथा सहज व्यक्ति के भौतिक कारणों द्वारा उत्पन्न संस्कृति पर प्रकाश डाला है।
- भाषा प्रवाह सहज-सरल है। भाषा बोधगम्य एवं प्रभावपूर्ण है।
8. भौतिक प्रेरणा, ज्ञानेप्सा-क्या ये दो ही मानव संस्कृति के माता-पिता हैं? दूसरे के मुँह में कौर डालने के लिए जो अपने मुँह का कौर छोड़ देता है, उसको यह बात क्यों और कैसे सूझती है? रोगी बच्चे को सारी रात गोद में लिए जो माता बैठी रहती है, वह आखिर ऐसा क्यों करती है? सुनते हैं कि रूस का भाग्यविधाता लेनिन अपनी डैस्क में रखे हुए डबलरोटी के सूखे टुकड़े स्वयं न खाकर दूसरों को खिला दिया करता था।
वह आखिर ऐसा क्यों करता था? संसार के मजदूरों को सुखी देखने का स्वप्न देखते हुए कार्ल मार्क्स ने अपना सारा जीवन दुःख में बिता दिया। और इन सबसे बढ़कर आज नहीं, आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व सिद्धार्थ ने अपना घर केवल इसलिए त्याग दिया कि किसी तरह तृष्णा के वशीभूत लड़ती-कटती मानवता सुख से रह सके।
कठिन शब्दार्थ :
- ज्ञानेप्सा = ज्ञान की लिप्सा अर्थात् इच्छा।
- कौर = टुकड़ा।
- डैस्क = टेबल।
- त्याग = छोड़ना।
- तृष्णा = प्यास, लाभ।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध 'संस्कृति' से लिया गया है। इसमें लेखक उन लोगों के चरित्र पर प्रकाश डाल रहे हैं जो किसी खोज से परे होकर भी संस्कृति के वाहक हैं।
व्याख्या - लेखक ने बताया कि भौतिक आवश्यकता और ज्ञान की इच्छा-क्या ये दोनों ही मानव संस्कृति के माता-पिता माने जाते हैं? तो फिर दूसरे के मुँह में रोटी का टुकड़ा डालने के लिए जो अपने मुँह का कौर (टुकड़ा) छोड़ देता है, उसको यह बात कैसे दिखाई देती है? कैसे वह सोच पाता है कि दूसरा भूखा है उसे खिलाना चाहिए? बीमार बच्चे को सारी रात गोद में लिये बैठी रहती है जो माता, वह ऐसा क्यों करती है? रूस का भाग्य विधाता लेनिन अपनी टेबिल (मेज) पर रखे ब्रेड के टुकड़े को स्वयं न खा कर दूसरों को खिला देता है, क्यों?
आखिर ये सारे लोग किस भावना में आकर ऐसा करते हैं? संसार के सभी मजदूरों के अधिकार के लिए लड़ने वाला कार्ल मार्क्स क्यों अपनी सारी जिन्दगी दुःख में बिताता है? और इन सभी उदाहरणों से बढ़ कर आज से अढाई हजार वर्ष पहले सिद्धार्थ (बुद्ध) ने अपना घर सिर्फ इसलिए छोड़ दिया था कि आपस की इच्छा, अधिकार, मोह, आसक्ति में डूबी इस मानवता को ज्ञान प्राप्त कर मानवता को सुखी रहने का संदेश दे सकें। लेखक के कहने का भाव है कि संस्कृति खोज का नाम ही नहीं है बल्कि परपीड़ा को दूर कर उन्हें सुखी बनाने की निःस्वार्थ भावना भी संस्कृति ही कही जायेगी।
विशेष :
- लेखक ने संसार के ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिन्होंने अपने स्वसुख का त्याग कर परसुख को महत्ता प्रदान की है।
- भाषा शैली सरलता व सहजता से प्रेरित है। प्रश्नात्मकता इस शैली का प्रमुख गुण है।
9. और सभ्यता? सभ्यता है संस्कृति का परिणाम। हमारे खाने-पीने के तरीके, हमारे ओढ़ने-पहनने के तरीके, हमारे गमनागमन के साधन, हमारे परस्पर कट मरने के तरीके; सब हमारी सभ्यता हैं। मानव की जो योग्यता उससे आत्म-विनाश के साधनों का आविष्कार कराती है, हम उसे उसकी संस्कृति कहें या असंस्कृति? और जिन साधनों के बल पर वह दिन-रात आत्म-विनाश में जुटा हुआ है, उन्हें हम उसकी सभ्यता समझें या असभ्यता? संस्कृति का यदि कल्याण की भावना से नाता टूट जाएगा तो वह असंस्कृति होकर ही रहेगी और ऐसी संस्कृति का अवश्यंभावी परिणाम असभ्यता के अतिरिक्त दूसरा क्या होगा?
कठिन शब्दार्थ :
- परिणाम = फल, निष्कर्ष।
- गमना-गमन = आने-जाने।
- परस्पर = एक-दूसरे।
- आत्म-विनाश = स्वयं का विनाश।
- नाता = रिश्ता।
- अतिरिक्त = अलावा।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध 'संस्कृति' से लिया गया है। इसमें लेखक ने सभ्यता और असभ्यता के मध्य अन्तर को स्पष्ट किया है।
व्याख्या - लेखक बताते हैं कि मनुष्य के लिए सभ्यता क्या है? क्या हमारे पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने, आने-जाने तथा आपस में लड़-मर के कटने की रीति या प्रकार को सभ्यता कहा जा सकता है? मनुष्य जो अपनी ही योग्यता को अपने ही आत्म-विनाश के साधनों के आविष्कार में लगा देता है उसे क्या कहेंगे? संस्कृति या असंस्कृति? लेखक कहते हैं कि मनुष्य जिन साधनों का प्रयोग करने में रात-दिन लगा रहता है उससे उसके आत्म का ही विनाश हो रहा है। उसके इस कार्य को सभ्यता समझा जाएगा या असभ्यता? संस्कृति का रिश्ता यदि कल्याण की भावना से अलग विनाश की भावना से जुड़ी हुआ है तो उसे असंस्कृति ही कहा जायेगा। और ऐसी असंस्कृति का प्रभाव अवश्य ही असभ्यता के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता है।
लेखक का भाव यह समझाना है कि मनुष्य संस्कृति और सभ्यता की सीमा में रह कर प्रयोग व अनुसंधान अवश्य करे, किन्तु इतना ध्यान अवश्य रखे कि उनका कोई भी कार्य स्वयं के लिए तथा अन्यों के लिए विनाशकारी न हो। विनाशकारी सोच रखने वाला व्यक्ति भी असंस्कृत व असभ्य ही माना जायेगा।
विशेष :
- लेखक ने सभ्य एवं असभ्य तथा संस्कृत व असंस्कृत के माध्यम से यही संदेश दिया है कि परपीड़ा में सहभागी होना, संस्कृत व सभ्य होना है।
- भाषा शैली प्रवाहमय एवं परिनिष्ठित है। अर्थ व्यंजना गाम्भीर्य लिये हुए है।
10. संस्कृति के नाम से जिस कूड़े-करकट के ढेर का बोध होता है, वह न संस्कृति है न रक्षणीय वस्तु।क्षण क्षण परिवर्तन होने वाले संसार में किसी भी चीज़ को पकड़कर बैठा नहीं जा सकता। मानव ने जब-जब प्रज्ञा और मैत्री भाव से किसी नए तथ्य का दर्शन किया है तो उसने कोई वस्तु नहीं देखी है, जिसकी रक्षा के लिए दलबंदियों की जरूरत है। मानव संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है और उसमें जितना अंश कल्याण का है, वह अकल्याणकर की अपेक्षा श्रेष्ठं ही नहीं स्थायी भी है।
कठिन शब्दार्थ :
- बोध = ज्ञान।
- रक्षणीय = रक्षा करने वाली।
- प्रज्ञा = बुद्धि, विवेक।
- तथ्य = सत्य।
- दलबंदी = गुटबंदी।
- अविभाज्य = जो बाँटा न जा सके।
- अंश = भाग, हिस्सा।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित निबन्ध 'संस्कृति' से लिया गया है। इसमें लेखक ने बताया है कि मानव संस्कृति कल्याण की भावना से जुड़ी हुई है। जो कभी बँट सकती है।
व्याख्या - लेखक ने आधुनिक युग की सोच पर व्यंग्य करते हुए कहा है कि संस्कृति के नाम पर लोग जिस कूड़े करकट के ढेर को ज्ञान का नाम देते हैं वह संस्कृति नहीं है और न ही वह मनुष्य मात्र की रक्षा के लिए है। क्षण-क्षण बदलते इस संसार की सोच व कार्य-पद्धति, जिसमें व्यक्ति अपनी खोज को पकड़ कर बैठ जाता है कि यह दूसरे के लिए नहीं है। ऐसी भावना कभी किसी का भला नहीं कर सकती है। मनुष्य ने जब-जब अपनी बुद्धि और मित्रता की भावना से किसी नये सत्य की खोज की है तो उसने उसके पीछे कोई वस्तु नहीं देखी, कि जिसकी रक्षा के लिए गुटबन्दी करनी जरूरी हो।
अगर मनुष्य ने सत्य के किसी नए पक्ष को खोजा है तो वह पकड़ कर बैठने वाली वस्तु नहीं है लिए समान रूप से है और यही संस्कृति है। संस्कृति कभी न बँटने वाली वस्तु है, उसमें कल्याण की भावना निहित होती है। वह अकल्याणकारी भावना से कहीं अधिक श्रेष्ठ और स्थायी होती है। सबके कल्याण की भावना से किया गया कार्य उत्कृष्ट एवं सदैव रहता है जबकि स्वयं के लिए किया गया कार्य स्वयं के साथ ही नष्ट हो जाता है।
विशेष :
- लेखक ने कल्याण की भावना पर जोर देते हुए बताया है कि संस्कृति का प्रमुख भाग कल्याण में छिपा होता है।.
- भाषा प्रवाहपूर्ण व बोधयुक्त है। भाषा हिन्दी सरलता व सहजता लिये हुए है।
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
'संस्कृति' पाठ में कौनसे दो शब्द ऐसे हैं, जो सबसे अधिक काम में आते हैं?
उत्तर:
'सभ्यता और संस्कृति' सबसे अधिक काम में आते हैं।
प्रश्न 2.
किस आधार पर आग व सुई-धागे का आविष्कार हुआ?
उत्तर:
योग्यता, प्रवृत्ति तथा प्रेरणा के बल पर आग व सुई-धागे का आविष्कार हुआ।
प्रश्न 3.
आग व सुई-धागे का आविष्कार किसके अन्तर्गत आता है?
उत्तर:
आग व सुई-धागे का आविष्कार व्यक्ति विशेष की संस्कृति के अन्तर्गत आता है।
प्रश्न 4.
लेखक के अनुसार संस्कृति क्या है?
उत्तर:
नयी खोज की योग्यता, प्रवृत्ति या प्रेरणा ही संस्कृति है।
प्रश्न 5.
लेखक के अनुसार सभ्यता क्या है?
उत्तर:
संस्कृति द्वारा किये गए या आन्तरिक योग्यता के आधार पर किये गए आविष्कार दूसरों के उपयोग में आते हैं, सभ्यता कहलाते हैं।
प्रश्न 6.
लेखक के अनुसार संस्कृत व्यक्ति कौन है?
उत्तर:
'बुद्धि एवं विवेक' से नए तथ्य का दर्शन करने वाला तथा आविष्कार करने वाला संस्कृत व्यक्ति है।
प्रश्न 7.
लेखक के अनुसार सभ्य व्यक्ति कौन है?
उत्तर:
पूर्वजों द्वारा प्राप्त ज्ञान व सत्य आविष्कार को उपयोग में लाने वाला सभ्य है।
प्रश्न 8.
मनुष्य ने आग का आविष्कार क्यों किया होगा?
उत्तर:
मनुष्य ने जरूरत के लिए पेट की भूख को शान्त करने के लिए अग्नि का आविष्कार किया होगा।
प्रश्न 9.
'मोती का भरा थाल' किसे कहा गया है?
उत्तर:
मोती भरा थाल, आकाश में खिले तारों को कहा गया है।
प्रश्न 10.
लेखक ने किन मनोभावों को मानव-संस्कृति का जनक माना है?
उत्तर:
लेखक ने 'भौतिक प्रेरणा, ज्ञानेप्सा और त्याग' को मानव संस्कृति का जनक माना है।
प्रश्न 11.
मानवता के विकास के लिए किस मानवीय गुण का स्थान सर्वोपरि है?
उत्तर:
त्याग का स्थान सर्वोपरि है। माता का रात को सो न पाना, लेनिन व कार्ल मार्क्स की दूसरों के प्रति सहानुभूति तथा सिद्धार्थ का मानवता के लिए घर त्यागना।
प्रश्न 12.
'संस्कृति और असंस्कृति' में क्या अन्तर है?
उत्तर:
मानव के विकास, ज्ञान और कल्याण की भावना संस्कृति में निहित है तथा मानवता के ह्रास, विनाश और अकल्याण की भावना असंस्कृति है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
'संस्कृति' पाठ में सर्वस्व त्याग के कौन-से उदाहरण दिये गये हैं?
उत्तर:
लेखक ने सर्वस्व त्याग के ये उदाहरण दिये हैं-
- माता रोगी बच्चे को सारी रात गोद में लिए बैठी रहती है।
- लेनिन डबल रोटी का टुकड़ा स्वयं न खाकर दूसरों को खिलाता था।
- कार्ल मार्क्स ने मजदूरों की खातिर जीवनभर कष्ट झेले।
- सिद्धार्थ ने मानवता के हितार्थ अपना सारा सुख त्याग दिया था।
प्रश्न 2.
लेखक ने आग और सई-धागे का उदाहरण देकर किनके अन्तर को स्पष्ट किया है?
उत्तर:
लेखक ने आग अ गे का उदाहरण देकर संस्कृति और सभ्यता के अन्तर को स्पष्ट किया है। इन दोनों के आविष्कार करने की शक्ति अथवा मूल. प्रेरणा को संस्कृति तथा आविष्कार को सभ्यता बताया है।
प्रश्न 3.
लेखक ने संस्कृति और असंस्कृति किसे कहा है?
उत्तर:
लेखक ने मानव-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर किसी नये तथ्य की खोज करने की योग्यता को संस्कृति कहा है। लेकिन मानव का अकल्याण करने की भावना से की जाने वाली खोज की योग्यता को असंस्कृति कहा है।
प्रश्न 4.
लेखक के अनसार असभ्यता किसे कहेंगे?
उत्तर:
लेखक के अनुसार जब मनुष्य दूसरों के विनाश के लिए विध्वंसक हथियार बनाता है तो उसके द्वारा बनाये जाने वाले हथियारों जैसे बम, मिसाइलें, परमाणु बम आदि को असभ्यता ही कहेंगे।
प्रश्न 5.
लेखक ने संस्कृति के विविध रूप किन्हें माना है?
उत्तर:
लेखक ने आग और सुई-धागे का आविष्कार करने वाली भावना को, तारों की जानकारी चाहने वाली ज्ञान इच्छा को, पर-दुःख को लेकर संवेदनशील बनाने वाली प्रेरणा और सर्वस्व त्याग करने वाली महा मानवता को ही संस्कृति के विविध रूप माना है।
प्रश्न 6.
लेखक के अनुसार संस्कृति कब असंस्कृति हो जाती है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार संस्कृति में मानव-कल्याण की भावना निहित होती है। जब यही भावना टूट कर मानव के अकल्याण और विनाश में सहायक बन जाती है तब वह असंस्कृति हो जाती है।
प्रश्न 7.
लेखक किस बात से भयभीत है? आप उसके भय को दूर करने के लिए क्या सुझाव देना उचित समझेंगे?
उत्तर:
लेखक बढ़ती हुई असंस्कृति की भावना से भयभीत है, क्योंकि इससे मानव-संस्कृति का घोर अनर्थ हो, जायेगा। इस स्थिति में भय को दूर करने का सुझाव यह है कि हमारा वैज्ञानिक विकास कल्याणकारी भावना को लेकर हो। प्राप्त उपलब्धियों का उपयोग स्वार्थ से ऊपर उठकर हो।
प्रश्न 8.
लेखक ने सभ्य किसे कहा है?
उत्तर:
लेखक ने उस व्यक्ति को सभ्य कहा है जो संस्कृति के परिणामस्वरूप उत्पन्न वस्तुओं और परिणामों का ज्ञाता हो, परम्परा से प्राप्त आविष्कारों तथा उनसे प्राप्त वस्तुओं का उपयोग कल्याणकारी भावना से युक्त होकर करता हो।
प्रश्न 9.
लेखक के अनुसार मनुष्य-संस्कृति का जनक होने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार मनुष्य-संस्कृति का जनक होने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताओं से ऊपर उठकर निरन्तर किसी सूक्ष्म रहस्य की खोज में लगा रहे और उससे जानने का प्रयत्न करे।
प्रश्न 10.
मनीषियों से मिलने वाला ज्ञान हमें उनकी किस प्रवृत्ति के कारण प्राप्त होता है?
उत्तर:
मनीषियों से मिलने वाला ज्ञान उनकी सहज संस्कृति के कारण हमें प्राप्त होता है, क्योंकि वे हमेशा ही ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। वे अदम्य जिज्ञासा वृत्ति रखते हैं और सामान्य सफलता पर कभी भी संतुष्ट होकर नहीं बैठते हैं।
प्रश्न 11.
असंस्कृति और असभ्यता के संबंध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
असंस्कृति असभ्यता की जननी है। जिस प्रकार संस्कृत व्यक्ति अपनी लगन से सभ्यता को जन्म देता है, उसी प्रकार मानव के विनाश में लगा हुआ व्यक्ति समस्त घातक हथियारों, युद्धक विमानों, मिसाइलों, परमाणु बमों आदि का आविष्कार करता है।
प्रश्न 12.
लेखक ने मानव-संस्कृति में कौनसी चीज स्थायी बतायी है और क्यों?
उत्तर:
लेखक ने मानव-संस्कति में कल्याणकारी निर्माण को स्थायी बताया है. क्योंकि अकल्याणकारी बातें समय के साथ ही अनुपयोगी सिद्ध हो जाती हैं, जबकि कल्याणकारी चीजें अपनी उपयोगिता के आधार पर दीर्घकाल तक बनी रहती हैं।
प्रश्न 13.
भदंत आनन्द कौसल्यायन के अनुसार मानव संस्कृति क्या है?
उत्तर:
भदंत आनन्द कौसल्यायन के अनुसार मानव संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है और वह मानव कल्याणकारी है। वह मानव के आन्तरिक सूक्ष्म गुण के साथ उसकी योग्यता, प्रवृत्ति अथवा प्रेरणा की जननी है। उसे देश या धर्म के आधार पर बाँटा नहीं जा.सकता है। इसलिए वह मानव-कल्याण करने वाली श्रेष्ठ और स्थायी है। उसकी खोज किसी किसी सम्प्रदाय विशेष के लिए नहीं होती है, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए ही होती है।
प्रश्न 14.
'संस्कृति' नामक पाठ का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
'संस्कृति' पाठ में लेखक का उद्देश्य संस्कृति, असंस्कृति, सभ्यता और असभ्यता जैसे शब्दों का अर्थ बताना रहा है। हिन्दू-संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति जैसे विभाजनों को अनुचित बतलाकर संस्कृति के मूल स्वरू प्रकाश डालना भी लेखक का उद्देश्य रहा है। लेखक के अनुसार सम्पूर्ण मानव-संस्कृति एक है। मूल रूप से सभी मानव समान हैं तथा उनमें जाति, वर्ण आदि का विभाजन अनुचित है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
निबन्ध 'संस्कृति' में व्यक्त विचारों को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
लेखक भदंत आनन्द कौसल्यायन के निबन्ध 'संस्कृति' का मूल प्रतिपाद्य व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
भदंत आनंद कौसल्यायन द्वारा लिखित 'संस्कृति' निबन्ध एक प्रसिद्ध रचना है, जिसमें सभ्यता और संस्कृति जैसे प्रश्नों की व्याख्या विभिन्न उदाहरणों द्वारा व्यक्त की गई है। लेखक के अनुसार इन दो शब्दों का प्रयोग सबसे अधिक होता है लेकिन इसके साथ विशेषण लगा कर इसकी गलत व्याख्या की जाती है। लेखक ने बताया कि अग्नि व सुई-धागे का आविष्कार करने वाला प्रथम संस्कृत व्यक्ति था। जिस योग्यता, प्रवृत्ति तथा प्रेरणा के बल पर अग्नि व सुई धागे का आविष्कार हुआ वह संस्कृति है।
जो वस्तु उसने स्वयं तथा दूसरों के प्रयोग के लिए आविष्कृत की, वह सभ्यता है। पूर्वजों द्वारा खोज की गई वस्तु का ज्ञान उसकी संतान को सहज ही प्राप्त हो जाता है तो वे संस्कृत व्यक्ति न कहलाकर सभ्य कहलायेंगे। लेखक ने यह भी बताया कि जिस आदमी का पेट भरा तथा तन ढका हो, वह आकाश के नीचे सोकर आकाश के तारों पर जिज्ञासा व्यक्त करता हो, तो वह हमारी सभ्यता का विस्तार करता है।
समाज में ऐसे मनीषि विद्यमान हैं जिन्होंने स्थूल भौतिक कारण को छोड़कर नए का आविष्कार किया है। बहुत सारे व्यक्ति स्वयं भूखे रहकर अपना भोजन दूसरों को दे देते हैं। लेखक का मानना है कि मानव संस्कृति को बाँटा नहीं जा सकता है, इसमें कल्याण ही स्थायी है। रचनाकार का
परिचय सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1.
लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भदंत आनन्द कौसल्यायन का जन्म सन् 1905 में पंजाब के अंबाला जिले के सोहाना गाँव में हुआ था। बचपन का नाम हरदास था। हिन्दी सेवक कौसल्यायनजी बौद्ध भिक्षु थे। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में जीवन समर्पित कर दिया। उनकी पुस्तकें 'भिक्षु के पत्र', 'जो भूल न सका', 'हा! ऐसी दरिद्रता', 'बहानेबाजी', 'यदि बाबा न होते', 'रेल का टिकट', 'कहाँ क्या देखा' आदि प्रमुख हैं।
उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के माध्यम से देश-विदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। सरल, सहज, बोलचाल की भाषा में लिखे उनके निबंध, संस्मरण यात्रा और वृत्तांत काफी चर्चित रहे। वे गाँधीजी के साथ लम्बे अर्से तक वर्धा में रहे। 1988 में उनका निधन हो गया।
प्रसिद्ध बौद्ध-भिक्षु, गाँधी भक्त तथा साहित्यकार भदंत आनंद कौसल्यायन का जन्म सन् 1905 में अंबाला के सोहाना गाँव में हुआ। बौद्ध भिक्षु के रूप में उन्होंने देश-विदेश का काफी भ्रमण किया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अपना सारा जीवन समर्पित किया। वे गाँधीजी के साथ लंबे अर्से तक वर्धा में रहे। कौसल्यायन की बीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिनमें 'भिक्षु के पत्र', 'जो भूल न सका', 'आह ! ऐसी दरिद्रता', 'बहानेबाजी', 'यदि बाबा ना होते', 'रेल का टिकट', 'कहाँ क्या देखा' आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के माध्यम से देश-विदेश में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार का महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया।
'संस्कृति' निबन्ध में लेखक ने संस्कृति और सभ्यता के अन्तर को स्पष्ट करते हुए उनसे जुड़े अनेक जटिल प्रश्नों को सुलझाने की प्रेरणा दी है। लेखक ने संस्कृति और सभ्यता के अन्तर को समझने के लिए 'आग' और 'सुई-धागे' का उदाहरण देते बताया कि इन दोनों को खोजने की शक्ति या प्रवृत्ति 'संस्कृति' है और आविष्कृत वस्तु 'सभ्यता' है। इस प्रकार संस्कृति का परिणाम ही सभ्यता बताया है। इसके साथ ही मानव की योग्यता और प्रवृत्ति मानव-विनाश के साधन खोजती है उसे 'असंस्कृति' कहा है।
इसके अलावा 'हिन्दू संस्कृति' और 'मुस्लिम संस्कृति' में खतरा होने की बात पर शोर मचाने और ये संस्कृतियाँ हैं, क्या बला की बात कही गयी है? अन्त में लेखक ने मानव संस्कृति को अविभाज्य बताते हुए उसमें समाविष्ट कल्याणकारी अंश को श्रेष्ठ ही नहीं, स्थायी भी बताया है। इस प्रकार लेखक की दृष्टि में जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं है, वह न सभ्यता है, न संस्कृति।