सप्रसंग व्याख्याएँ -
1. जन्मी तो मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में थी, लेकिन मेरी यादों का सिलसिला शुरू होता है अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के उस दो-मंजिला मकान से, जिसकी ऊपरी मंजिल में पिताजी का साम्राज्य था, जहाँ वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकों-पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर 'डिक्टेशन' देते रहते थे। नीचे हम सब भाई-बहिनों के साथ रहती थी हमारी बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वविहीन माँ--सवेरे से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और पिताजी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर। अजमेर से पहले पिताजी इंदौर में थे जहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, सम्मान था, नाम था। कांग्रेस के साथ-साथ वे समाज-सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे।
कठिन शब्दार्थ :
- साम्राज्य = अधिकार।
- निहायत = बहुत अधिक।
- बेपढ़ी-लिखी = बिना पढ़ी-लिखी, अनपढ़।
- तत्पर = तैयार।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य ‘एक कहानी यह भी' से लिया गया है। इसमें लेखिका ने अपने जीवन की घटनाएँ व्यक्त की हैं।
व्याख्या - लेखिका मन्नू भण्डारी बताती है कि उनका जन्म मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था। लेकिन जहाँ तक उनकी याददाश्त की बात है तो वह अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के दो-मंजिला मकान से जुड़ी है। जिसकी ऊपरी मंजिल पर उनके पिता का सामान बुरी तरह अवस्थित अधिकार के साथ फैला हुआ था। जिनके बीच में बैठकर वे या तो अखबार पढ़ते रहते या फिर 'डिक्टेशन' देते रहते थे।
नीचे की मंजिल पर भाई-बहनों के साथ उनकी अनपढ़ माँ रहती थी। जो सुबह से शाम तक पिताजी की आज्ञाओं तथा लेखिका और उनके भाई-बहनों की इच्छाएं पूरी करते हुए काम में लगी रहती थी। माँ का स्वयं का इसके अलावा और कोई व्यक्तित्व नहीं था। लेखिका के पिताजी अजमेर आने से पहले इंदौर में रहते थे, जहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा, नाम और सम्मान था। काँग्रेस के साथ रहकर वे भी समाज सुधार के कार्यों में बड़े मन से लगे हुए थे। लेखिका अपने माता-पिता के विषय में, उनके व्यवहार के बारे में विस्तृत रूप से बताती है।
विशेष :
- लेखिका ने आत्मकथ्य की शुरुआत पिता-माता के कृतित्व-व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है।
- भाषा शैली सरल-सहज एवं प्रवाहमय है।
2. पर यह सब तो मैंने केवल सुना। देखा, तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पिता थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे, जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल-बूते और हौसले से अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश (विषयवार ) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया जो अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहत दी, पर अर्थ नहीं और शायद गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के सारे सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया।
कठिन शब्दार्थ :
- भग्नावशेष = टूटे-फूटे (खंडहर)।
- बल-बूता = हिम्मत।
- निचोड़ना = खत्म करना।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' से लिया गया है। इसमें लेखिका ने अपने पिता के कार्य-व्यवहार पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या - लेखिका बताती है कि पिता के पढ़ाए हुए शिष्य बड़े-बड़े पदों पर पहुँचे, वे उनकी खुशहाली के दिन भी बहत थे। एक तरफ कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी तरफ क्रोधी और अभिमानी। पर लेखिका ने यह सब केवल सुना था। देखा, जब पिता इन गुणों के खंडहर को ढो रहे थे। अर्थात् दिनों-दिन बढ़ती निराशा ने उनके गुणों को खंडहर के समान तोड़ दिया था। जीवन में उन्हें बहुत बड़ा आर्थिक झटका अर्थात् हानि के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे।
अजमेर आने के पश्चात् अपनी हिम्मत, ताकत और हौंसले के दम पर अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश के अधूरे पड़े काम को आगे बढ़ाना शुरू किया। पिताजी द्वारा किया जा रहा यह कार्य अपनी ही तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। इससे पहले अन्य किसी ने इस विषय पर कोई कार्य नहीं किया था। इस कार्य ने उन्हें यश, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, प्रसिद्धि बहुत दी किंतु अर्थ नहीं अर्थात् धन प्राप्त नहीं हुआ जो कि जीवन के लिए अनिवार्य है।
लगातार गिरती घर की आर्थिक दशा, हम सभी भाई-बहनों का बढ़ता बोझ, पिताजी को तोड़ता चला गया। इस स्थिति ने उनके व्यक्तित्व के सभी सकारात्मक पहलुओं को खत्म करना शुरू कर दिया था। इस कारण उनके स्वभाव में. चिड़चिड़ापन, शक, गुस्सा, नकारात्मक विचारों ने घर कर लिया।
विशेष :
- लेखिका ने पिताजी के सकारात्मक-नकारात्मक दोनों पक्षों पर प्रकाश डाला है।
- भाषा शैली सरल-सहज व प्रवाहपूर्ण है।
3. सिकुड़ती आर्थिक स्थिति के कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि वे कम-से-कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाएँ। नवाबी आदतें, अधूरी महत्त्वाकांक्षाएँ, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कँपाती-थरथराती रहती थीं। अपनों के हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे जिन्होंने आँख मूंदकर सबका विश्वास करते पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि जब-तब हम लोग भी उसकी चपेट में आते ही रहते।
कठिन शब्दार्थ :
- विस्फारित = और अधिक फैलना।
- अहं = अभिमान।
- शीर्ष = ऊँचाई।
- हाशिया = किनारा।
- यातना = सजा, पीड़ा।
- विश्वासघात = धोखा।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' से लिया गया है। घर की हालत एवं विपरीत हालातों का वर्णन लेखिका ने इस प्रसंग में किया है।
व्याख्या - लेखिका ने अपने पिताजी की आर्थिक स्थिति की विवेचना करते हुए बताया कि लगातार धनाभाव के कारण पिताजी का स्वभाव क्रोधी व शंकित होता जा रहा था। आर्थिक स्थिति के लगातार गिरने से उनका अहं और अधिक फैलता या बढ़ता जा रहा था। वे नहीं चाहते थे कि उनकी इस दशा व स्थिति का पता किसी को चले।
यहाँ तक कि इस स्थिति का भागीदार वे अपने बच्चों को भी नहीं बनाना चाहते थे। कहने का आशय है कि अपने बच्चों को अपना दर्द न बता कर उनसे कोई मदद नहीं चाहते थे क्योंकि उनका घमण्ड उन्हें बच्चों के सामने झुकने नहीं देना चाहता था। सदा से उनके अन्दर ऐशो-आराम की नवाबों वाली आदतें, उनकी अधूरी इच्छाएँ, हमेशा ऊँचाई पर रहने की आदतों ने जब उन्हें जीवन के किनारे पर ला खड़ा कर दिया तो उनका व्यक्तित्व निराशा और नाकामी के कारण गुस्से व क्रोध में बदल गया। उनका क्रोधित रूप सदैव बेचारी माँ को डराता-कँपकँपाता था।
वे हमेशा डर के कारण सहमी रहती थी। पिताजी के इस व्यवहार के पीछे उनके अपनों का ही विश्वासघात था, जिन पर वे आँख मूंद कर विश्वास करते थे। इस धोखे ने बाद के दिनों में पिताजी को इतना शक्की बना दिया था कि हम भाई-बहन उनके इस शक के दायरे में आते ही रहते थे। अर्थात् हमें उनका यह व्यवहार हमेशा झेलना पड़ता था।
विशेष :
- लेखिका ने पिताजी के शक्की व्यवहार के पीछे की वजह पर प्रकाश डाला है।
- भाषा शैली प्रवाहमय, शांत एवं सरल है।
4. पर यह पितृ-गाथा मैं इसलिए नहीं गा रही कि मुझे उनका गौरव-गान करना है, बल्कि मैं तो यह देखना चाहती हूँ कि उनके व्यक्तित्व की कौनसी खूबी और खामियाँ मेरे व्यक्तित्व के ताने-बाने में गुंथी हुई हैं या कि अनजाने-अनचाहे किए उनके व्यवहार ने मेरे भीतर किन ग्रन्थियों को जन्म दे दिया। मैं काली हूँ। बचपन में दुबली और मरियल भी थी। गोरा रंग पिताजी की कमजोरी थी सो बचपन में मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख बहिन सुशीला से हर बात में तुलना और फिर उसकी प्रशंसा ने ही, क्या मेरे भीतर ऐसे गहरे हीन-भाव की ग्रन्थि पैदा नहीं कर दी कि नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावजूद आज तक मैं उससे उबर नहीं पाई?
कठिन शब्दार्थ :
- पित् - पिता। गाथा = कहानी।
- खूबी = विशेषता। खामी = दोष।
- ग्रंथि = गाँठ।
- मरियल = मरी हुई सी।
- उबरना = बाहर निकलना।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' से लिया गया है। इसमें लेखिका ने अपने व्यवहार में छिपे गुण-दोष पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या - लेखिका ने अपने पिता के व्यवहार की वजह बताने के पीछे अपना व्यवहार व्यक्त करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि पिता के बारे में बताना मेरे लिए पिता की कहानी या उनके यश का गान नहीं करना है। लेखिका सिर्फ यह बताना चाहती है कि पिताजी के व्यक्तित्व के कौनसे गुण-दोष उनके स्वयं के अन्दर भी आ गए हैं। या पिताजी के व्यवहार द्वारा चाहते या न चाहते हुए भी बहुत सारी उनकी बातें लेखिका के मन में गाँठ बनकर बैठ गई थीं जिनमें से एक हैं जैसा लेखिका कहती है कि वह काली थी और देखने में दुबली व मरी-सी लगती थी।
उनके पिताजी को गोरा रंग पसंद था। इसलिए बचपन में लेखिका से दो साल बड़ी उनकी बहन सुशीला खूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख थी। पिताजी लेखिका की तुलना सदैव उसकी बहन से करते थे। साथ ही बहन की प्रशंसा भी, इन्हीं दो कारणों ने लेखिका के अवचेतन में एक हीन-भाव की गाँठ को जन्म दे दिया। कहने का आशय है कि अपनों द्वारा नीचा दिखाया जाना या कमतर समझना, बच्चों के मस्तिष्क विकास में नकारात्मक प्रभाव डालता है वह हीन-भावना से ग्रस्त हो जाते हैं और ऐसा ही लेखिका के साथ हुआ। बड़े होने के पश्चात् नाम, सम्मान, प्रतिष्ठा सब कुछ प्राप्त होने के बाद भी लेखिका उस हीन भावना से निकल नहीं पाई।
विशेष :
- लेखिका ने अपने मन की गाँठ को व्यक्त किया है। आत्मकथ्य की विशेषता है, गुण-दोष को निरपेक्षता के साथ व्यक्त करना, जो लेखिका ने किया है।
- भाषा शैली सरल-सहज व भावबोधक है।
5. शायद अचेतन के किसी पर्त के नीचे दबी इसी हीन भावना के चलते मैं अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती........ सब कुछ मुझे तुक्का ही लगता है। पिताजी के जिस शक्की स्वभाव पर मैं कभी भन्ना भन्ना जाती थी, आज एकाएक अपने खण्डित विश्वासों की व्यथा के नीचे मुझे उनके शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है....बहुत 'अपनों' के हाथों विश्वासघात की गहरी व्यथा से उपजा शक। होश सँभालने के बाद से ही जिन पिताजी से किसी-न-किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर ही चलती रही, वे तो न जाने कितने रूपों में मुझमें हैं. कहीं कुण्ठाओं के रूप में, कहीं प्रतिक्रिया के रूप में तो कहीं प्रतिच्छाया के रूप में।
कठिन शब्दार्थ :
- अचेतन = मन में कहीं गहरे, चेतनारहित।
- खंडित = टूटा-फूटा।
- व्यथा = पीड़ा।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' से लिया गया है। लेखिका ने अपने अंदर उपजी हीन भावना का कारण अपने पिता के व्यवहार को माना है।
व्याख्या - लेखिका के पिताजी अपनी बेटी को अधिकतर ही कम सुंदर, कम अक्ल समझते थे। वे सदैव उसकी तुलना उनकी बड़ी बहन से करते थे। और इसी कारण लेखिका के मन में धीरे-धीरे हीन भावना ने जड़ पकड़ ली। जब बड़े होकर लेखिका ने नाम, पैसा, प्रतिष्ठा सब कमाया तो उन्हें अपनी उपलब्धियों पर विश्वास नहीं हुआ। इसका कारण उनके मन के किसी गहरे कोने में छिपी हीन भावना ही थी जो उन्हें अपनी कामयाबी पर विश्वास नहीं करने दे रही थी।
लेखिका को अपनी हर उपलब्धि पर ऐसा लगता मानो गलती से तीर निशाने पर लग गया। लेखिका को याद आता है, जिस समय पिताजी के शक करने के स्वभाव पर वो झल्ला जाती थी। आज वही शक्की स्वभाव उनका स्वयं का बन गया है, जो उन्हें अपनों द्वारा दिए गए विश्वासघात की पीड़ा के नीचे नजर आता है। बहुत ही 'अपनों' द्वारा दिया गया धोखा या विश्वासघात से उत्पन्न हुआ शक, उनके स्वभाव की भी पहचान बन गया है।
लेखिका कहती है कि बचपन से लेकर होश संभालने तक जिन पिताजी से किसी न किसी बात पर हमेशा टकराहट चलती ही रहती थी, वहीं पिताजी न जाने कितने स्वरूपों में लेखिका के व्यक्तित्व में विद्यमान है, कहीं कुंठाओं यानी हीन-भावनाओं के रूप में तो कहीं प्रतिक्रिया यानि विद्रोह के रूप में, तो कहीं स्वयं की प्रति छाया के रूप में शंकित व क्रोधी बनकर।
विशेष :
- लेखिका ने अपने व्यक्तित्व की छाया में पिताजी के स्वरूप को ही स्वीकार किया है।
- भाषा शैली सरल-सहज व भाव उद्वेगपूर्ण है।
6. उस ज़माने में घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी, बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। आज तो मुझे बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि अपनी जिन्दगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ्लैट में रहने वालों को हमारे इस परम्परागत 'पड़ोस-कल्चर' से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है। मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरम्भिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था गुजार अपनी युवावस्था का आरम्भ किया था।
कठिन शब्दार्थ :
- पाबंदी = रोक-टोक, निषेध।
- शिद्दत = कठिनाई, कष्ट।
- विच्छिन्न = अलग-थलग।
- संकुचित = सिकुड़ा हुआ।
- असहाय = बेचारा।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' से लिया गया है। इसमें लेखिका ने अपने बचपन के दिनों का वर्णन किया है।
व्याख्या - लेखिका बताती है कि बचपन में उन्होंने सभी तरह के खेल खेले। गिल्ली-डंडा, पतंग उड़ाना, माँझा सतना सभी। लेकिन लडकियों के खेल का दायरा घर में ही सीमित रहता था। सबसे अच्छी बात यह थी कि उस समय घर की दीवारें घर तक ही न सीमित होकर पूरे मोहल्ले में फैली रहती थीं। मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई रोक-टोक नहीं थी। सब घर एक परिवार की तरह रहते थे इसलिए कोई भी किसी के घर आ-जा सकता था।
लेकिन आज के महानगरीय परिवेश को देखकर लेखिका कहती है कि मुझे बहुत कठिनाई के साथ महसूस होता है कि महानगरों के इन फ्लैट्स ने हमारे परम्परागत पड़ौसी-संस्कृति को छिन्न-भिन्न कर दिया है। इस महानगर के रहन-सहन ने इमें सिकोड़ कर, बेचारा असहाय एवं असुरक्षित कर दिया है। कहने का आशय है कि पहले सारा मोहल्ला एक-दूसरे के सुख-दुःख के परिवार की तरह काम आता था, पर अब सब अकेले-अकेले अपनी पीड़ा भोगते हैं।
लेखिका बताती है कि उनकी एक दर्जन कहानियों के पात्र तो इसी मोहल्ले से उन्होंने लिए हैं। जिन लोगों के बीच रह कर लेखिका ने अपनी किशोर अवस्था पार कर युवावस्था में कदम रखा था उसी मध्य मोहल्ले के लोग लेखिका के मन में कहानी के पात्र बन कर बैठ गये थे।
विशेष :
- लेखिका ने महानगरीय परिवेश के एकल जीवन पर दुःख व्यक्त किया है।
- भाषाशैली प्रवाहपूर्ण एवं सरल-सहज है।
7. लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल पाक-शास्त्री बनाने के नुस्खे जुटाए जाते थे, पिताजी का आग्रह रहता था कि मैं रसोई से दूर ही रहूँ। रसोई को वे भटियारखाना कहते थे और उनके हिसाब से वहाँ रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना था। घर में आए दिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे और जमकर बहसें होती थीं। बहस करना पिताजी का प्रिय शगल था। चाय पानी या नाश्ता देने जाती तो पिताजी मुझे भी वहीं बैठने को कहते। वे चाहते थे कि मैं भी वहीं बैठू, सुनें और जानूँ कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है?
कठिन शब्दार्थ :
- सुघड़ = कुशल, निपुण।
- नुस्खा = विधि।
- भटियारखाना = खाना बनाने की जगह।
- जमावड़ा = इकट्ठा होना।
- शंगल = शौक।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य ‘एक कहानी यह भी' से लिया गया है। लेखिका अपने पिता के विषय में तथा उनके शौक व वर्तमान स्थिति के बारे में बता रही है।
व्याख्या - लेखिका ने अपने समय के बारे में बताते हुए कहा कि उस समय लड़कियों को स्कूली शिक्षा के साथ साथ पाक कला में निपुण तथा कुशल गृहिणी बनने के बारे में सिखाया जाता था। प्रत्येक घर में लड़कियों पर घर की जिम्मेदारी, रसोई की जवाबदारी का दबाव था। लेकिन लेखिका के पिताजी इस बात के विपरीत थे। उनका कहना था कि लेखिका रसोई से दूर ही रहें। अर्थात् रसोई का कार्य सीखने की कोई जरूरत नहीं है। रसोई को वे भटियारखाना अर्थात् भट्टीखाना कहते थे।
उनके अनुसार वहाँ पर रहना, अपनी क्षमता, काबलियत व प्रतिभा को खत्म करना था। लेखिका के घर में आए दिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के लोग इकट्ठे होते थे। और उन सबके बीच देश के हालातों को लेकर खूब चर्चा-बहस होती थी। इस तरह की बहस में भाग लेना पिताजी का प्रिय शौक था। लेखिका जब चाय-नाश्ता देने ऊपर उन लोगों के बीच जाती तो उनके पिताजी उन्हें वहीं बैठा लेते। वे चाहते थे कि लेखिका भी उन सबकी बातें सुने तथा जाने-समझे कि देश में इस तरह क्या चल रहा है, कैसी स्थिति-परिस्थिति बन रही है। क्योंकि उस समय स्वतंत्रता आन्दोलन अपने चरम पर था।
विशेष :
- लेखिका ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय एवं पिता द्वारा पुत्री को देश के हालात जानने की इच्छा पर प्रकाश डाला है।
- भाषाशैली प्रवाहमय, सहज-सरल है।
8. सन् '45 में जैसे ही दसवीं पास करके मैं 'फर्स्ट इयर' में आई, हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ। सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल..'जहाँ मैंने ककहरा सीखा, एक साल पहले ही, कॉलिज बना था और वे इसी साल नियुक्त हुई थीं, उन्होंने बाकायदा साहित्य की दुनिया में प्रवेश करवाया। मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला----खुद चुन-चुनकर किताबें दी - पढ़ी हुई किताबों पर बहसें की तो दो साल बीतते-न-बीतते साहित्य की दुनिया शरत्-प्रेमचन्द से बढ़कर जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा तक फैल गई और फिर तो फैलती ही चली गई।
कठिन शब्दार्थ :
- ककहरा = बारहखड़ी।
- बाकायदा = कायदे से, तरीके से।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' से लिया गया है। इसमें लेखिका अपनी शिक्षिका का परिचय देते हुए साहित्य की दुनिया में प्रवेश के बारे में बता रही है।
व्याख्या - लेखिका बता रही है कि सन् 1945 का समय था। दसवीं पास करते ही कॉलेज के प्रथम वर्ष में लेखिका ने प्रवेश लिया था। वहाँ उनका परिचय हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से हुआ। सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल, जहाँ से लेखिका ने अपनी प्रारम्भिक पढ़ाई शुरू की थी, वही स्कूल एक साल पहले बढ़ कर कॉलेज में बदल गया था। हिन्दी की अध्यापिका शीला अग्रवाल कॉलेज बनने के उसी साल में हिन्दी पढ़ाने हेतु नियुक्त हुई थी। उन्होंने ही तरीके से साहित्य की दुनिया से लेखिका का परिचय करवाया।
मात्र पढ़ने की रुचि को, उन्होंने चुन-चुन कर साहित्य पढ़ने की रुचि में बदला। उन्होंने लेखिका को स्वयं चुन कर किताबें पढ़ने को दी, पढ़ी हुई सभी किताबों पर साथ मिलकर बहस की, गंभीर मुद्दों पर चर्चा की। कॉलेज के दो साल बीतते-बीतते लेखिका ने साहित्यिक संसार के सभी महान् साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ डाला। शरत्-प्रेमचन्द से आगे बढ़कर जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल भगवती चरण वर्मा सभी के साहित्य-संसार से परिचित हुई। साहित्यिक दुनिया ने उन्हें एक अलग ही दृष्टिकोण से परिचित करवाया।
विशेष :
- लेखिका ने साहित्य के प्रति जिज्ञासा, प्रेम व बदलते दृष्टिकोण को व्यक्त किया है।
- भाषा शैली प्रवाहपूर्ण तथा सहज-सहज शब्दों से गुंथित है।
9. प्रभात-फेरियाँ, हड़तालें, जुलूस, भाषण हर शहर का चरित्र था और पूरे दमखम और जोश-खरोश के साथ इन सबसे जुड़ना हर युवा का उन्माद। मैं भी युवा थी और शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने रगों में बहते खून को लावे में बदल दिया था। स्थिति यह हुई कि एक बवण्डर शहर में मचा हुआ था और एक घर में। पिताजी की आजादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उठू-बैलूं, जानें-समझें। हाथ उठा-उठाकर नारे लगाती, हड़तालें करवाती, लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो किसी की दी हुई आजादी के दायरे में चलना मेरे लिए।
कठिन शब्दार्थ :
- दमखम = जोश।
- उन्माद = नशा, पागलपन, सनक।
- बवंडर = आँधी-तूफान, चक्रवात।
- बर्दाश्त = सहन।
- दायरा = सीमा।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' से लिया गया है। इस प्रसंग में लेखिका ने स्वतंत्रता आन्दोलन के समय चल रही देश की गतिविधियों को व्यक्त किया है।
व्याख्या - स्वतंत्रता आन्दोलन का समय चल रहा था। ऐसे समय में पूरे देश में प्रभात फेरियों में देशगान, हड़ताल, जुलूस, भाषण का माहौल था। प्रत्येक शहर में युवा वगे पागलपन की हद तक जाकर पूरे जोश, उमंग एवं उत्साह के साथ इन सब गतिविधियों में भाग ले रहा था। लेखिका भी उस समय युवा थी। देश की प्रत्येक गतिविधि का पूरा असर उन पर भी था। शीला अग्रवाल की जोशीली एवं देशप्रेम की बातों ने उनमें भी जोश भर दिया था। देशप्रेम की बातों ने तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के जोश ने सभी युवाओं की रगों में बहते खून को उबलते लावे में बदल दिया था। लेखिका के लिए यह स्थिति बहुत मुश्किल थी।
एक बवंडर यानि तूफान शहर में चल रहा था और दूसरा उनके खुद के घर में। पिताजी ने लेखिका को सिर्फ इतनी ही आजादी दी थी कि वह घर में आए लोगों के साथ उठने-बैठने या देश के हालात जानने भर. तक ही थी। पिताजी के लिए लेखिका का हाथ उठा-उठा कर नारे लगाना, हड़ताल करवाना, लड़को के साथ सड़कों पर चलना, उनके आधुनिक होने के बावजूद भी उनके लिए बर्दाश्त के बाहर था। और लेखिका के लिए किसी की दी हुई आजादी की सीमा में बँध कर चलना मुश्किल था।
विशेष :
- लेखिका ने यहाँ अपने पिता व स्वयं के मध्य वैचारिक मतभेद को स्पष्ट किया है।
- भाषाशैली ओजपूर्ण, प्रवाहमय व सारगर्भित है।
10. जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे निषेध, सारी वर्जनाएँ और सारा भय कैसे ध्वस्त हो जाता है, यह तभी जाना और अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिताजी से टक्कर लेने की जो सिलसिला तब शुरू हुआ था, राजेन्द्र से शादी की, तब तक वह चलता ही रहा। यश-कामना बल्कि कहूँ कि यश-लिप्सा, पिताजी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके जीवन की धुरी था यह सिद्धांत कि व्यक्ति को कुछ विशिष्ट बन कर जीना चाहिए....कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, सम्मान हो, प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हो। इसके चलते ही मैं दो-एक बार उनके कोप से बच गई थी।
कठिन शब्दार्थ :
- रग = नस।
- लहू = खून, रक्त।
- निषेध = रोक, बाधा।
- वर्जना = नियम, रोक।
- ध्वस्त = नष्ट, खत्म।
- कामना = अभिलाषा।
- लिप्सा = इच्छा, चाह।
- धुरी = नियम।
- वर्चस्व = प्रभुत्व, अधिकार।
- कोप = क्रोध।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' से लिया गया है। आजादी का समय और पिताजी की रोक-टोक, दोनों ही स्थितियों का वर्णन इस प्रसंग में किया गया है।
व्याख्या - लेखिका बताती है कि जब युवाओं की नसों में रक्त, जब लावा बन जाता है अर्थात् उनके रक्त में क्रोध, उन्माद, उत्साह सभी मिलकर लावे का रूप ले लेता है, तब उनके लिए सारी बाधाएँ, सारे नियम और सारा डर, भय नष्ट हो जाता है। उन्हें अपने जोश के समक्ष और कुछ नहीं नजर आता है। वे डर, भय की सभी सीमाओं को पार कर आगे बढ़ जाते हैं। यह बात सत्य है इसका ज्ञान लेखिका को तभी हुआ जब उन्होंने क्रोध से सबको डरा देने वाले पिताजी से अपने विचारों को लेकर टकराहट शुरू हुई और ये टकराहट लेखिका ने शादी की राजेन्द्र यादव से, तब तक चलती रही।
कभी भी पिता-पुत्री के विचार एक नहीं हो पाये। लेखिका बताती है कि उनके पिताजी के स्वभाव की एक ही कमजोरी थी और वह थी यश प्राप्त करने की इच्छा। उनके जीवन का नियम और सिद्धान्त यही था कि व्यक्ति को अपने जीवन में विशिष्ट बन कर जीना चाहिए। जीवन जीते हुए उसे कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, यश प्राप्त हो, प्रसिद्धि मिले। जीवन क्षेत्र में उसका प्रभुत्व व प्रतिष्ठा बने और इसी एक चाह के कारण लेखिका कई बार उनके क्रोध से बच गई। क्योंकि ये सब कार्य करते हुए लेखिका को समाज में यश, प्रसिद्धि और पहचान प्राप्त हो रही थी।
विशेष :
- लेखिका ने अपना विद्रोह एवं पिता के नियम-सिद्धान्तों की व्याख्या की है।
- भाषाशैली ओजमयी, प्रवाहपूर्ण है। भावों का उतार-चढ़ाव सहज है।
11. आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो इतना तो समझ में आता ही है क्या तो उस समय मेरी उम्र थी और क्या मेरा भाषण रहा होगा। यह तो डॉक्टर साहब का स्नेह था जो उनके मुँह में प्रशंसा बनकर बह रहा था या यह भी हो सकता है कि आज से पचास साल पहले अजमेर जैसे शहर में चारों ओर से उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की का बिना किसी संकोच और झिझक के यों धुआँधार बोलते चले जाना ही इसके मूल में रहा हो। पर पिताजी! कितनी तरह के अन्तर्विरोधों के बीच जीते थे वे! एक ओर 'विशिष्ट' बनने और बनाने की प्रबल लालसा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सजगता। पर क्या यह सम्भव है? क्या पिताजी को इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं था कि इन दोनों का तो रास्ता ही टकराहट का है?
कठिन शब्दार्थ :
- मूल = जड़।
- अंतर्विरोध = मन की भावनाओं में विरोध।
- लालसा = इच्छा, चाह।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखिका मन्नू भंडारी द्वारा लिखित आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' से लिया गया है। लेखिका अपने पीछे गुजरे समय को याद करती है तथा पिता के विचारों पर मंथन भी करती है।
व्याख्या - लेखिका कहती है कि सब कुछ होने के बाद जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो इतना ही समझ आता है कि क्या तो उस समय मेरी आयु थी और किस तरह का मेरा भाषण रहा होगा? या फिर यह भी हो सकता है कि आज से पचास साल पहले बिना संकोच के अजमेर जैसे छोटे शहर में बिना झिझक के एक लड़की के धुआँधार बोलते चले जाना। यही बात जरूर डॉ. साहब की प्रशंसा के मूल में रही होगी या फिर स्नेह ही इसका कारण हो सकता है।
लेखिका अपने पिता की समझ पर आश्चर्य करती है कि वे अपने मन के विरोधों के मध्य किस प्रकार जीते हैं? एक तरफ विशिष्ट बनने और बनाने की बड़ी तेज इच्छा रहती है उनकी तथा दूसरी तरफ सामाजिक छवि के प्रति भी उतने ही सजग रहते हैं कि कोई उनकी तरफ किसी तरह के आक्षेप ना लगाएँ।
लेकिन क्या यह संभव है? लेखिका ऐसा करना या होना संभव नहीं मानती हैं। क्योंकि समाज में कुछ करने पर ही विशिष्ट होना या न होना निर्भर करता है। लेकिन पिताजी को इस बात का बिल्कुल अहसास नहीं था, इन दोनों का रास्ता ही टकराहट का है या तो आप सामाजिक छवि बना लें या फिर कुछ विशिष्ट कार्य कर जायें। दोनों ही अलग-अलग हैं।
विशेष :
- लेखिका अपने पिता के अंतर्विरोधों को स्पष्ट करती है। विशिष्टता और सामाजिक अच्छी छवि दोनों में अन्तर्भेद है को व्यक्त करती है।
- भाषा शैली प्रवाहमय है। शब्दों का वाक्य-विन्यास अद्भुत है।
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
'एक कहानी यह भी' किसके द्वारा लिखा गया आत्मकथ्य है?
उत्तर:
'एक कहानी यह भी' मन्नू भंडारी द्वारा लिखा गया आत्मकथ्य है।
प्रश्न 2.
मन्नू भंडारी का जन्म कहाँ हुआ था?
उत्तर:
मन्नू भंडारी का जन्म मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था।
प्रश्न 3.
लेखिका के पिताजी ने कौन-से शब्दकोश की रचना की?
उत्तर:
लेखिका के पिताजी ने अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश (विषयवार) की रचना की।
प्रश्न 4.
लेखिका बचपन में कैसी दिखती थी?
उत्तर:
लेखिका बचपन में मरियल-सी, दुबली एवं काली दिखती थी।
प्रश्न 5.
लेखिका के पिताजी का स्वभाव कैसा था?
उत्तर:
लेखिका के पिताजी एक तरफ कोमल, संवेदनशील थे तथा दूसरी तरफ क्रोधी, शक्की और अहंवादी थे।
प्रश्न 6.
'भग्नावशेषों को ढोते पिता' पंक्ति का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
उनके पिताजी की आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी थी। वे अपने पुराने गुणों को बचे-खुचे अंशों के सहारे जी रहे थे।
प्रश्न 7.
लेखिका के पिताजी का शक्की होना किस कारण से हुआ?
उत्तर:
उनके पिताजी को अपनों के विश्वासघात ने शक्की बना दिया था।
प्रश्न 8.
लेखिका पर अपने पिता के कारण कौन-से नकारात्मक प्रभाव पड़े?
उत्तर:
लेखिका हीन-भावना से ग्रस्त तथा "बहुत' अपनों के विश्वासघात के कारण चिड़चिड़ी और शक्की हो गई थी।
प्रश्न 9.
लेखिका को साहित्यिक दुनिया से किसने परिचय करवाया?
उत्तर:
लेखिका को उनकी हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने चुन-चुन कर साहित्य पढ़ने की सलाह दी। तथा साहित्य से परिचय करवाया।
प्रश्न 10.
लेखिका को वर्तमान में कैसा जीवन पसन्द नहीं था?
उत्तर:
लेखिका को महानगरीय फ्लैट्स में रहने वाला एकाकी जीवन पसन्द नहीं था।
प्रश्न 11.
लेखिका ने अपने विद्यार्थी जीवन में किस तरह के कार्यक्रमों में भाग लिया?
उत्तर:
लेखिका ने हड़ताल, जुलूस, भाषण तथा प्रभात-फेरियों में बढ़-चढ़कर भाग लिया।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
'एक कहानी यह भी' पाठ के आधार पर मन्नू भण्डारी के व्यक्तित्व की कोई तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ के आधार पर मन्नू भण्डारी के व्यक्तित्व की तीन विशेषताएँ ये हैं - (1) नेतृत्व क्षमता-उस समय स्वतन्त्रता आन्दोलन में छात्रों का नेतृत्व किया, प्रभातफेरियों और जुलूसों में भाग लिया। (2) साहित्यिक चेतना मन्नू भण्डारी अपने पिता के साथ गोष्ठियों में भाग लेती थी। प्रो. शीला अग्रवाल के प्रभाव से उनका लेखकीय व्यक्तित्व उभरा। (3) विद्रोही स्वभाव-मन्नू भण्डारी प्रारम्भ से ही विद्रोही स्वभाव की थी। पिता से विद्रोह कर अपनी पसन्द से 'विवाह किया।
प्रश्न 2.
मन्नू भण्डारी के पिताजी के स्वभाव की क्या विशेषताएँ थी?
उत्तर:
मन्नू भण्डारी के पिता अत्यन्त कोमल, संवेदनशील और प्रखर समाज-सुधारक होने के साथ ही शक्की स्वभाव के व्यक्ति थे। वे अन्तर्विरोधों के बीच जीने के कारण अस्थिर चित्त व्यक्ति होने के साथ ही बेहद क्रोधी और अहमवादी व्यक्ति थे।
प्रश्न 3.
'एक कहानी यह भी' के आधार पर सन् 1946-47 में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर:
सन् 1946-47 के दिनों में आजादी के नाम पर स्त्रियों को उतनी ही स्वतन्त्रता थी कि वे घर में आए लोगों के बीच उठे-बैठें और देश की स्थितियों को समझें, परन्तु घर से बाहर निकल कर हड़तालों, जुलूसों में भाग न लें।
प्रश्न 4.
"आर्थिक स्थिति खराब हो जाने पर व्यक्ति के स्वभाव और विचारों में भी परिवर्तन आ जाता है।" 'एक कहानी यह भी' पाठ के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
आर्थिक स्थिति खराब हो जाने पर व्यक्ति की प्रसन्नता, उदारता और सदाशयता नष्ट हो जाती है। वह संकुचित, कंजूस और शक्की हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सद्भावनाओं से रहित होकर क्रोधी, अहंवादी, प्रतिष्ठा की झूठी शान रखना आदि विरोधी भावनाओं से ग्रस्त हो जाता है।
प्रश्न 5.
अपनों का विश्वासघात व्यक्ति की दशा और दिशा दोनों को बदल देता है। 'एक कहानी यह भी' पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अपनों का विश्वासघात व्यक्ति को तोड़कर रख देता है। वह स्थान बदलने के साथ ही शक्की, अहंकारी, क्रोधी और चिड़चिड़ा लेखिका के पिता की भाँति होकर अपने व्यक्तित्व को भी खण्डित कर लेता है।
प्रश्न 6.
लेखिका के पिता की कार्यशैली कैसी थी?
उत्तर:
लेखिका के पिता. विद्वान् लेखक थे। समय की मार ने उन्हें कमजोर बना दिया था, इसलिए उनकी कार्यशैली अव्यवस्थित हो गयी थी। वे फैली-बिखरी पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं आदि के बीच कुछ पढ़ते रहते या फिर 'डिक्टेशन' देते रहते थे। वे घर पर ही आश्रय देकर छात्रों को पढ़ाते भी थे।
प्रश्न 7.
लेखिका की माँ अपनी सन्तानों के लिए आदर्श क्यों नहीं बन पाई?
उत्तर:
लेखिका की माँ अपनी संतानों के लिए अपने व्यक्तित्व की कमजोरियों के कारण आदर्श नहीं बन पाई, क्योंकि जहाँ वे एकदम भोली और अशिक्षित थीं, वहीं वे बेचारी निरीह और व्यक्तित्वविहीन थीं।
प्रश्न 8.
"पड़ोस-संस्कृति मानव-मन को प्रभावित करती है।" 'एक कहानी यह भी' पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लेखिका के एक दर्जन प्रारम्भिक कहानियों के पात्र अजमेर के उसी मोहल्ले के रहे जिनके बीच उसका बचपन और किशोरावस्था बीती थी। लेखिका को उनकी जीवन-शैली, भाव-भंगिमाएँ, भाषा आदि याद रहीं। इससे स्पष्ट होता है कि पड़ोस-संस्कृति मानव-मन को प्रभावित करती है।
प्रश्न 9.
लेखिका किसके सहयोग से जागरूक नागरिक बन पायी?
उत्तर:
लेखिका के पिता ने उसे रसोईघर से हटाकर, सामाजिक समस्याओं की ओर उन्मुख किया। उसे घर में होने वाली बडी-बडी चर्चाओं में शामिल किया, जिससे वह उनके सहयोग से जागरूक नागरिक बन पायी।
प्रश्न 10.
लेखिका के मन में हीनता की ग्रन्थि कैसे पनप गयी थी?
उत्तर:
लेखिका के पिता उसकी बड़ी बहिन सुशीला को उसके स्वस्थ शरीर, हँसमुख स्वभाव और गोरे रंग-रूप के कारण बहुत प्यार करते थे। वे हर बात में उसकी प्रशंसा और उससे लेखिका की तुलना करते थे। इससे लेखिका के मन में अपने-आप हीनता की ग्रन्थि पनप गयी थी।
प्रश्न 11.
लेखिका के मन में पनपी हीन ग्रन्थि का क्या दुष्परिणाम हुआ? .
उत्तर:
लेखिका के मन में पनपी हीन-ग्रन्थि ने उसे हमेशा के लिए दबा दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि वह अपनी उपलब्धियों पर भरोसा नहीं कर पाती थी। खण्डित विश्वास के कारण अपनी उपलब्धि को वह तुक्का समझने लगी, उसे वह अपनी योग्यता का प्रतिफल नहीं मानती थी।
प्रश्न 12.
लेखिका को देश-चिन्तक बनाने में आप किसकी भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानते हो और क्यों?
उत्तर:
लेखिका को देश-चिंतक बनाने के मामलों में उसके पिता की भूमिका को ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं, क्योंकि उन्होंने ही उसे रसोईघर से हटाकर घर में होने वाली राजनैतिक संगोष्ठियों में उठना-बैठना सिखाया।
प्रश्न 13.
प्रो. शीला अग्रवाल की जोशीली बातों का लेखिका पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
प्रो. शीला अग्रवाल की जोशीली बातों से लेखिका के मन में साहस, जोश और उत्साह का भाव जागा। उसमें साहित्यिक संस्कार पनपने लगे। परिणामस्वरूप लड़कियों की अगुआ बनकर हड़तालें करवाने लगी और चौराहों पर खड़े होकर जोरदार भाषण देने लगी।
प्रश्न 14.
'एक कहानी यह भी' के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि "दकियानूसी विचारधारा जहाँ मन को हतोत्साहित करती है, वहीं प्रगतिशील विचारधारा मानव मन को गर्वित करती है।"
अथवा
"दकियानूसी विचारधारा जहाँ मानव मन को हतोत्साहित करती है, वहीं प्रगतिशील विचारधारा मानव मन को गर्वित करती है।" 'एक कहानी यह भी' के आधार पर कथ्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लेखिका की भाषणबाजी को सुनकर लेखिका के पिता के दकियानूसी मित्र ने जहाँ उन्हें हतोत्साहित कर लेखिका को घर से बाहर निकलना बन्द करवा दिया था, वहीं वे डॉ. अम्बालाल द्वारा लेखिका की प्रशंसा सुन कर गर्वित हो उठे थे।
प्रश्न 15.
थर्ड ईयर फिर से खुलने की खुशी लेखिका के मन में किस कारण से दबकर रह गई थी?
उत्तर:
अगस्त, 1947 के महीने में लेखिका और उसकी सहेलियों ने संघर्ष करके थर्ड ईयर की कक्षा को खुलवाया था, लेकिन उन्हीं दिनों देश आजाद हो गया। उसी खुशी के आगे कक्षा खुलने की खुशी दबकर रह गयी थी।
प्रश्न 16.
'एक कहानी यह भी' आपको क्या सन्देश देती है?
उत्तर:
'एक कहानी यह भी' हमें कई सन्देश देती है। पहला सन्देश यह है कि स्वतंत्रता और जन-आन्दोलनों में स्त्री-पुरुष की बराबरी की भागीदारी होनी चाहिए। दसरा सन्देश यह है कि माता-पिता को में किसी भी तरह से बाधक नहीं बनना चाहिए और सन्तानों को भी अच्छी परम्पराओं और पारिवारिक संस्कारों से अलग नहीं होना चाहिए।
भंडारी
प्रश्न 17.
लेखिका को अपने पिता से संघर्ष क्यों करना पड़ा?
उत्तर:
लेखिका के पिता जहाँ एक ओर सामाजिक प्रतिष्ठा भी बनाये रखना चाहते थे, वहीं दूसरी ओर वे अपनी पुत्री को विशिष्ट बनाने के साथ ही उसे परिवार की मर्यादा में रखना चाहते थे। इसी आधार पर उनकी लड़की ने क्रान्ति की राह पकड़कर लड़कों के साथं घूम-घूम कर नारे लगाये, हड़तालों में भाग लिया। इस कारण लेखिका को अपने पिता से संघर्ष करना पड़ा।
प्रश्न 18.
किन कारणों से लेखिका के मन में हीन-भावना घर कर गयी थी?
उत्तर:
लेखिका की बड़ी बहन सुशीला बहुत ही स्वस्थ और गोरी थी जबकि लेखिका काली और मरियल थी। जिसके कारण उसके पिता उसकी उपेक्षा कर बातों ही बातों में सुशीला की प्रशंसा किया करते थे। लेखिका उनकी भावना को अच्छी तरह समझ गयी थी। जिसके कारण लेखिका के मन में अपने काले रंग और मरियल शरीर के प्रति हीन भावना घर कर गयी थी।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मन्नू भंडारी की एक कहानी यह भी' का सार संक्षिप्त रूप में लिखिए।
उत्तर:
मन्नू भण्डारी की 'एक कहानी यह भी' उनके जीवन की प्रारम्भिक घटनाओं की कथा है। इसमें मन्नू लेवार आत्मकथा नहीं लिखी है। उन्होंने अपने इस आत्मकथ्य में उन घटनाओं और व्यक्तियों को परिप्रेक्ष्य में लिया है, जो उनके जीवन से जुड़े हैं। अपने पिताजी-माताजी, भाई-बहनों के परिचय के साथ पिताजी के विचारों का संक्षिप्त रूप से वर्णन किया है। युवावस्था से जुड़ी घटनाओं के साथ पिताजी के कार्य-व्यवहार एवं उनकी कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का व्यक्तित्व विशेष रूप से प्रकट हुआ है। जिन्होंने आगे चलकर लेखकीय व्यक्तित्व निर्माण में उनका आधार बने हैं।
लेखिका ने प्रमुख घटनाओं के वर्णन से साधारण लड़की के असाधारण लेखिका बनने की कहानी को खूबसूरती से उभारा है। स्वतंत्रता-आन्दोलन के चरम पर आजादी की आँधी ने मन्नू भंडारी का भी स्वयं में शामिल कर लिया था। आजादी की लड़ाई में पारिवारिक विरोध एवं सामाजिक हेयता के बीच मन्नू भंडारी का अपने भाषणों व संगठन क्षमता द्वारा विरोध करने का तरीका देखते ही बनता है।
प्रश्न 2.
मन्नू भंडारी की 'एक कहानी यह भी' के आधार पर उनके पिताजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
मन्नू भंडारी के पिताजी एक सुशिक्षित, दरियादिल व संवेदनशील व्यक्ति थे। जब वे इन्दौर में रहते थे तब उनकी बड़ी प्रतिष्ठा व सम्मान था। समाज सुधार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के साथ-साथ राजनीति में भी काफी दिलचस्पी रखते थे। लेकिन इंदौर में ही एक आर्थिक झटके के कारण, वो भी अपनों द्वारा किये गए विश्वासघात की वजह से वे इंदौर छोड़ अजमेर आ गए। शिक्षा का वे केवल उपदेश ही नहीं देते थे वरन् आठ-आठ, दस-दस विद्यार्थियों को अपने घर में रखकर पढ़ाया करते थे।
उन्होंने अपने बलबूते पर हिन्दी-अंग्रेजी विषयवार शब्दकोश तैयार किया। आर्थिक झटके से उत्पन्न हुई विपरीत परिस्थितियों ने तथा नवाबी आदतों एवं अधूरी महत्त्वाकांक्षाओं ने उन्हें क्रोधी और शक्की बना दिया था। लेखिका और उनके पिता के मध्य अनेक अन्तर्विरोध एवं विचार-भिन्नता थी। पिताजी एक तरफ 'विशिष्ट' बनने और बनाने की प्रबल लालसा रखते थे तथा दूसरी तरफ सामाजिक छवि उत्तम बनी रहे के प्रति सजगता बरतते थे। उनके घर में आए दिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे और जमकर बहस होती थी। लेखिका को वह इन सबमें शामिल करते थे लेकिन चाहते थे कि वह ये सब घर की चहारदीवारी में ही रह कर जाने और सुने।
प्रश्न 3.
'एक कहानी यह भी' की लेखिका ने आस-पड़ोस की संस्कृति के महत्त्व पर कैसे प्रकाश डाला है? समझाइये।
उत्तर:
लेखिका ने अपने बचपन की घटनाओं द्वारा यह समझाने का प्रयत्न किया है कि पड़ोस व्यक्ति के निर्माण में सकारात्मक भूमिका निभाता है। जब वह छोटी थी तब उनके लिए परिवार में रहने की ही बाध्यता थी। लेकिन यह परिवार पूरे मोहल्ले को मिलाकर बनता था। मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर पाबंदी नहीं थी बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा थे। आपसी सहयोग, मेलजोल, सद्भावना, सहानुभूति, भाई-चारा, अपनापन सभी पड़ोस-संस्कृति द्वारा ही प्राप्त होता है।
लेखिका के कहांनियों के तमाम पात्र इसी मोहल्ले की देन है जिसे लेखिका ने स्वयं स्वीकार किया है। महानगरों के फ्लैट्स सिस्टम ने इस अपनेपन की कड़ी को तोड़ कर रख दिया है। बच्चों को आपसी मेलजोल से दूर कर संकीर्ण, असहाय और असुरक्षित बना दिया है। इसलिए महानगरों के निवासी अकेलेपन की त्रासदी झेलने की वजह से अनेक बीमारियों से ग्रसित रहते थे। परिवार के मध्य रहते हुए भी उनकी स्थिति बंद कमरे तक सीमित रह गई है। व्यस्त जीवन और अकेलेपन की प्रवृत्ति ने उनमें आपसी प्रेम-सौहार्द्र एवं मेलमिलाप को खत्म कर दिया है।
प्रश्न 4.
मन्नू भंडारी अपने व्यक्तित्व में उपजी हीन भावना व कुंठा को किस प्रकार पिता की देन मानती हैं? . स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लेखिका के पिताजी संवेदनशील व्यक्ति थे, लेकिन अपनों द्वारा दिए गए एक बड़े विश्वासघात ने उनकी आर्थिक स्थिति बिगाड़ दी थी जिसकी वजह से वे शक्की और क्रोधी हो गए थे। लेखिका को बचपन से ही उनके इस शक का और क्रोध का खामियाजा भुगतना पड़ा। पिताजी को चूँकि गोरा रंग पसंद था और लेखिका काली, दुबली व मरियल-सी थी।
उनकी बड़ी बहन सुशीला गौरी, स्वस्थ और हँसमुख थी, जिसे पिता बहुत प्यार करते थे। वे दोनों बहनों की तुलना करते थे, जिससे लेखिका को सदैव नीचा देखना पड़ता था। पिताजी के इस व्यवहार ने लेखिका के मन में हीन भावना भर दी थी। मान-सम्मान, प्रतिष्ठा पाने के उपरांत भी वह इस कुंठा से नहीं निकल पाई। पिता के दोहरे .. व्यवहार ने उन्हें कदम-कदम पर आहत ही किया था। युवावस्था में किये गए कार्यों को पिताजी द्वारा दोहरे मापदण्डों ने लेखिका के अन्दर उलझन पैदा कर दी थी। विचारों की टकराहट के कारण लेखिका कुंठा, हीनता की सदैव शिकार ही रही, जो पिताजी की ही देन थी।
प्रश्न 5.
लेखिका मन्नू भंडारी के खंडित आत्मविश्वास को उनकी अध्यापिका द्वारा किस प्रकार उभारा गया? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
मन्नू भंडारी के सफल व्यक्तित्व पर उनकी अध्यापिका की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
लेखिका मन्नू भंडारी बचपन से ही हीन भावनाओं से ग्रसित थी। उनके अनुसार उन्हें स्वयं को लेकर अनेक कुंठाएँ उनके मन में जमी हुई थीं। जब वे कॉलेज के प्रथम वर्ष में आई, तब उनका नई नियुक्त हुई हिन्दी की अध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ। अब तक बिना लेखकों को जाने-समझे किताबें पढ़ने वाली मन्नू को शीला अग्रवाल ने प्रसिद्ध लेखकों की विचारात्मक किताबें पढ़ने की सलाह दी। वे उन्हें चुन-चुन कर किताबें पढ़ने को देती और बाद में उन पर लम्बी बहस भी करती थी।
उन्होंने ही मन्नू भंडारी के भीतर छिपी असाधारण क्षमता से मन्नू का परिचय करवाया। लेखिका को स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने को उत्साहित किया। उनकी जोशीली एवं आत्मविश्वास से पूर्ण बातों ने ही लेखिका की भूमिका को बदल दिया। उन्हीं के मार्गदर्शन में लेखिका ने हड़ताल, जुलूस, प्रभात-फेरियाँ व भाषणबाजी की। अध्यापिका के प्रोत्साहन ने ही लेखिका के साहित्यिक संसार एवं कार्यक्षेत्र को नयी दिशा प्रदान की।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न -
प्रश्न 1.
मन्नू भंडारी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए संक्षेप में उनके कृतित्व के बारे में भी बताइये।
उत्तर:
मन्नू भंडारी का जन्म सन् 1931 में भानपुरा गाँव (मध्यप्रदेश) में हुआ। उनकी पढ़ाई-लिखाई राजस्थान के अजमेर शहर में हुई। हिन्दी कथा साहित्य की प्रमुख लेखिका की रचनाओं में स्त्री-मन से जुड़ी अनुभूतियों को देखा जा सकता है। कहानियाँ, उपन्यास, फिल्म-कथा सभी में उनकी भाषा की सादगी तथा प्रामाणिक अनुभूति स्पष्ट दिखाई देती है। 'एक प्लेट सैलाब', 'मैं हार गई', 'त्रिशंक' (कहानी-संग्रह): 'आपका बंटी', 'महाभोज' (उपन्यास) तथा 'एक कहानी यह भी' (आत्मकथ्य) आदि। इनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए इन्हें अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। दिल्ली के मिरांडा हाउस में अध्यापन के पश्चात् आजकल दिल्ली में ही ये स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।
स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कथा-साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर मन्नू भण्डारी का जन्म सन् 1931 में गाँव भानपुर, जिला मंदसौर (म.प्र.) में हुआ था। इनकी इंटर तक की शिक्षा राजस्थान के अजमेर शहर में हुई। बाद में इन्होंने हिन्दी में एम.ए. किया। दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज में अध्यापन कार्य से अवकाश प्राप्ति के बाद आजकल दिल्ली में ही रहकर स्वतन्त्र लेखन कर रही हैं।
इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - 'एक प्लेट सैलाब', 'मैं हार गई', 'यही सच है', 'त्रिशंकु' (कहानी-संग्रह); 'आपका बंटी', 'महाभोज' (उपन्यास)। इसके अलावा उन्होंने फिल्म एवं टेलीविजन धारावाहिकों के लिए पटकथाएँ भी लिखी हैं। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें हिन्दी अकादमी के शिखर सम्मान सहित अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चके हैं, जिनमें भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के पुरस्कार शामिल हैं।
'एक कहानी यह भी' शीर्षक पाठ आत्मकथात्मक शैली में रचित है। लेखिका ने बतलाया है कि उसके पिता इन्दौर छोड़कर अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के दोमंजिले मकान में कैसे रहने आ गये? उसका आर्थिक परेशानियों से भरा जीवन अजमेर में राजनीतिक पार्टियों के मध्य कैसे गुजरा और कॉलेज जीवन में लेखिका की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का उस पर क्या प्रभाव पड़ा, जिसके कारण वह साहित्यिक क्षेत्र में अपनी रुचि जगा सकी, स्वतन्त्रता आन्दोलन में होने वाली हड़तालों और प्रभातफेरियों में वे कैसे भाग ले सकी, नेतृत्व कर सकी और भाषणबाजी कर अपना नाम कमा सकीं।