सप्रसंग व्याख्याएँ -
1. किंतु, खेतीबारी करते, परिवार रखते भी, बालगोबिन भगत साधु थे - साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरने वाले। कबीर को 'साहब' मानते थे, उन्हीं के गीतों को गाते, उन्हीं के आदेशों पर चलते। कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते। किसी से भी दो-टूक बात करने में संकोच नहीं करते, न किसी से खामखाह झगड़ा मोल लेते। किसी की चीज नहीं छूते, न बिना पूछे व्यवहार में लाते। इस नियम को कभी-कभी इतनी बारीकी तक ले जाते कि लोगों को कुतूहल होता!
कठिन शब्दार्थ :
- खरा = सच्चा।
- दो टूक = सीधी बात।
- खामखाह = बेकार में, व्यर्थ में।
- बारीक = महीन, गहरी।
- कुतूहल = आश्चर्य।।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। इसमें लेखक बालगोबिन, जो रेखाचित्र में मुख्य पात्र है उसके बारे में बताया है।
व्याख्या - बेनीपुरी जी 'बालगोबिन भगत' रेखाचित्र में उनके बारे में बताते हुए कहते हैं कि वे खेतीबाड़ी करते थे, परिवार भी साथ रखते थे जिसमें उनका पुत्र और पुत्रवधू थी। वैसे तो बालगोबिन साधु प्रवृत्ति के भक्त आदमी थे। साधु की तरह सज्जन, सरल, वाकपटु, मोह-माया से रहित, सभी विशेषताओं में खरे थे। भक्त कवि 'कबीर' को अपना 'साहब', 'स्वामी', 'प्रभु', 'ईश्वर', सभी कुछ मानते थे। संत कबीर की शिक्षाओं को उन्होंने अपने दैनिक जीवन में उतार रखा था।
वे उन्हीं के गीतों का पाठ करते, उन्हीं के आदेशों पर चलते, कभी असत्य नहीं बोलते, सबसे खरा व्यवहार अर्थात् सच्चा व्यवहार करते, उनके व्यवहार में कोई झूठ, स्वार्थ, लाग-लपेट नहीं होता था। किसी को भी दो टूक कहने में संकोच नहीं करते थे। चाहे कोई बुरा माने या अच्छा वे सदैव खरी-खरी बात ही कहते थे। न किसी से बिना बात के बेकार में झगड़ा करते. न किसी की चीज उससे बिना पछे छते और ना ही किसी की वस्त उपयोग में लेते। कई बा नियम को बहुत गहराई तक ले जाते कि लोगों को उनका व्यवहार देखकर आश्चर्य ही होता था।
विशेष :
- लेखक ने बालगोबिन भगत के व्यवहार को कबीर के समान बताया है कि वे सदैव सबसे संतुलित एवं सत्य निर्भर व्यवहार रखने वाले व्यक्ति थे।
- खड़ी बोली हिन्दी का परिनिष्ठत रूप है। भाषा शैली सरल-सहज है।
2. वे गृहस्थ थे लेकिन उनकी सब चीज 'साहब' की थी। जो कुछ खेत में पैदा होता था, सिर पर लाद कर पहले उसे साहब के दरबार में ले जाते-जो उनके घर से चार कोस दूरी पर था-एक कबीरपंथी मठ से मतलब। वह दरबार में भेंट' रूप रख लिया जाकर 'प्रसाद' रूप में जो उन्हें मिलता उसे घर लाते और उसी से गुजर चलाते। इन सबके ऊपर, मैं तो मुग्ध था उनके मधुर गान पर-जो सदा-सर्वदा ही सुनने को मिलते। कबीर के वे सीधे-साधे पद, जो उनके कंठ से निकल कर सजीव हो उठते।
कठिन शब्दार्थ :
- साहब = मालिक।
- मठ = आश्रम।
- मुग्ध = आकर्षित।
- सर्वदा = हमेशा।
- सजीव = जीवित।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। लेखक ने बालगोबिन की कबीर के प्रति श्रद्धा को रेख कित किया है।
व्याख्या - लेखक बालगोबिन के विषय में बताते हैं कि वैसे तो वे गृहस्थ जीवनयापन करते थे, घर था पुत्र-पुत्रवधू थी, लेकिन उनके खेत में जो भी खाने की वस्तु, खेती से उत्पन्न होती थी। वे सिर पर लादकर सबसे पहले 'साहब' यानि 'कबीर' के दरबार में लेकर जाते थे। दरबार से तात्पर्य एक ऐसे मठ या आश्रम से है जो कबीर द्वारा दिये गए ज्ञान पर आधारित रास्तों पर चलने वाले भक्तों के लिए बना हुआ था।
बालगोबिन द्वारा ले जाया गया सामान दरबार में रख लिया जाता था और लौटते समय प्रसाद के रूप में बालगोबिन को उस भेंट में से जो भी मिलता उसे अपने घर ले आते थे और उसी से उनका परिवार गुजर-बसर करता था। लेखक उनकी इस प्रवृत्ति पर तो आकर्षित थे ही, साथ ही उनके वे कबीर के भजन, जो हमेशा सुनने को मिलते थे। कबीर ज्ञान-वाणी के वे सीधे-सरलपद, उनके कंठ से निकल कर लोकजीवन में जीवित हो उठते थे। कहने का आशय है कि कबीर ने सदैव ही अपने पदों में वह कहा है जो उन्हें लोक-समाज में दिखाई पड़ता था। इस कारण उनके पद जीवन के और अधिक निकट जान पड़ते थे।
विशेष :
- लेखक ने कबीर के प्रति बालगोबिन की भक्ति पर प्रकाश डाला है।
- भाषा सरल-सहज है।
3. आसाढ़ की रिमझिम है। समूचा गाँव खेतों में उतर पड़ा है। कहीं हल चल रहे हैं; कहीं रोपनी हो रही है। धान के पानी-भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरतें कलेवा लेकर मेंड़ पर बैठी हैं। आसमान बादल से घिरा; धूप का नाम नहीं। ठंडी पुरवाई चल रही। ऐसे ही समय आपके कानों में एक स्वर-तरंग झंकार-सी कर उठी। यह क्या है-यह कौन है! यह पूछना न पड़ेगा। बालगोबिन भगत समूचा शरीर कीचड़ में लिथड़े, अपने खेत में रोपनी कर रहे हैं। उनकी अँगुली एक-एक धान के पौधे को, पंक्तिबद्ध, खेत में बिठा रही है। उनका कंठ एक-एक शब्द को संगीत के जीने पर चढ़ाकर कुछ को ऊपर, स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों की ओर!
कठिन शब्दार्थ :
- रिमझिम = धीमी-धीमी बारिश।
- रोपना = धान रोपना, मिट्टी में दबाना।
- कलेवा = नाश्ता।
- मेंड़ = मिट्टी से बने ऊँचे किनारे।
- पुरवाई = हवा, समीर।
- झंकार = वाद्य यंत्र की मधुर आवाज।
- लिथड़े = लिपटे।
- जीना = सीढ़ी।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। इसमें लेखक बालंगोबिन के खेती करते हुए गीत के स्वर की महत्ता बता रहे हैं।
व्याख्या - लेखक ने 'बालगोबिन भगत' रेखाचित्र में बताया कि आषाढ़ का महीना था और धीमे-धीमे बारिश हो रही थी। समस्त गाँव धान रोपने के लिए खेतों में ही मौजूद थे। कहीं हल चल रहे थे। कहीं धान रोपनी चल रही थी। पानी से भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरतें अपना कलेवा (नाश्ता) लेकर मिट्टी की बाड़ पर बैठी खा रही हैं। आकाश में चारों तरफ बादल घिरे हुए हैं धूप दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती है। ठंडी हवाएँ चल रही हैं। इसी बीच कानों में एक स्वर लहरी की झंकार पड़ती है।
गीत का स्वर सुन कर सब सोचने लगते हैं यह क्या है? यह कौन है? लेकिन गाँव के सभी लोग जानते ही थे कि यह बालगोबिन का गीत-स्वर है, बालगोबिन भगत समूचा कीचड़ में लिपटा हुआ अपने खेत में धान की रोपनी कर रहे थे। उनकी अंगुली एक-एक धान के पौधे को कतार में खेत में रोप रही थी, और उनका कंठ एक-एक शब्द को, एक-एक स्वर-लहरी को संगीत की सीढ़ी पर चढ़ाकर कुछ स्वरों को ऊपर स्वर्ग की ओर भेज रहे हैं और कुछ को पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लागों के कानों की ओर पहुँचा रहे थे।
विशेष :
- लेखक ने ग्रामीण परिदृश्य का सुन्दर चित्र उकेरा है।
- भाषा शैली सरल-सहज है। ग्रामीण शब्दों का प्रयोग है।
4. कातिक आया नहीं कि बालगोबिन भगत की प्रभातियाँ शुरू हुईं, जो फागुन तक चला करतीं। इन दिनों वह सबेरे ही उठते। न जाने किस वक्त जगकर वह नदी-स्नान को जाते-गाँव से दो मील दूर! वहाँ से नहा-धोकर लौटते और गाँव के बाहर ही, पोखरे के ऊँचे भिंडे पर, अपनी बँजड़ी लेकर जा बैठते और अपने गाने टेरने लगते। मैं शुरू से ही देर तक सोने वाला हूँ, किंतु, एक दिन, माघ की उस दाँत किटकिटाने वाली भोर में भी, उनका संगीत मुझे पोखरे पर ले गया था।
कठिन शब्दार्थ :
- कातिक = कार्तिक महीना, हिन्दी महीने का नाम।
- प्रभातियाँ = भोर/सुबह के समय गाये जाने वाले गीत।
- भिंडा = चबूतरा।
- खंजड़ी = हाथ से बजाया जाने वाला चिमटा।
- टेर = ऊँची आवाज में गाना।
- माघ - हिन्दी महीने का नाम।
- पोखर = पानी से भरे तालाब।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। इसमें लेखक बालगोबिन की दिनचर्या बता रहे हैं।
व्याख्या - लेखक बताते हैं कि बालगोबिन गृहस्थ होने के साथ-साथ संत कबीर के बहुत बड़े भक्त थे। कार्तिक का महीना पवित्र महीना माना जाता है जो कि सर्दियों की शुरुआत भी होती है। इस महीने के आरम्भ से ही बालगोबिन भगत सुबह अँधेरे में उठकर गांव की गलियों में संत कबीर के भजन गाते हुए निकलते थे, जो कि फाल्गुन के महीने अर्थात् सर्दी के अन्त तक चला करती थी। उनके उठने का समय किसी को मालूम नहीं पड़ता था।
भोर में उठकर नदी स्नान अर्थात् नदी के किनारे जाकर स्नान करते थे, जो कि गाँव से दो किलोमीटर दूर थी। वहाँ से स्नान वगैरह करके गांव के बाहर बने पोखर के ऊँचे चबूतरे पर बैठते और अपने भजन गाने लगते। बता रहे हैं कि वह सुबह तक देर से सोने वालों में से हैं लेकिन एक दिन माघ का महीना. जिसमें बहत ज्यादा सर्दी होती है, उस कंपकपाने वाली सर्दी में भी, उनका भाव-भजन और हाथ से बजाने वाले चिमटे की स्वर लहरी मुझे वहाँ तक ले गई। कहने का आशय है कि बालगोबिन भगत के भजन ताल युक्त होकर इतने भाव-विभोर करने वाले थे कि लेखक तेज सर्दी होने के बावजूद भी उठकर उनके पास संगीत-भजन सुनने के लिए गए।
विशेष :
- लेखक ने बालगोबिन की दिनचर्या एवं मधुर भजनों पर प्रकाश डाला है।
- देशज शब्दों के प्रयोग के साथ, खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है। भाव-शैली सरल व सहज है। 'भगत' में तत्सम् 'भक्त' का प्रयोग है।
5. खेत, बगीचा, घर-सब पर कुहासा छा रहा था। सारा वातावरण अजीब रहस्य से आवृत मालूम पड़ता था। उस रहस्यमय वातावरण में एक कुश की चटाई पर पूरब मुँह, काली कमली ओढ़े, बालगोबिन भगत अपनी खजड़ी लिए बैठे थे। उनके मुँह से शब्दों का तांता लगा था, उनकी अँगुलियाँ खंजड़ी पर लगातार चल रही थीं। गाते-गाते इतने मस्त हो जाते, इतने सुरूर में आते, उत्तेजित हो उठते कि मालूम होता, अब खड़े हो जाएंगे। कमली तो बार बार सिर से नीचे सरक जाती। मैं जाड़े से कँपकँपा रहा था, किंतु तारे की छाँव में भी उनके मस्तक के श्रमबिंदु, जब-तब, चमक ही पड़ते।
कठिन शब्दार्थ :
- कुहासा = ओस का अँधेरा, कोहरा।
- आवृत = ढका हुआ।
- कुश = एक घास का नाम।
- कमली = कम्बल।
- खंजड़ी = बजाने वाला चिमटा, वाद्य यंत्र।
- ताँता = कतार।
- सुरुर = नशा।
- छाँव = छाया।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। सर्दी के मौसम और बालगोबिन के भजन-रूप को कवि व्यक्त कर रहे हैं।
व्याख्या - लेखक बता रहे हैं कि माघ महीने की अलसुबह जब बालगोबिन के भजन स्वर को सुनकर लेखक नींद में से उठकर जाते हैं। रास्ते में देखते हैं कि खेत, बगीचा, घर चारों तरफ, सब पर कोहरे का धुआँ छाया हुआ था। सारा ग एक अजीब-सा रहस्यमयी परत से ढका हुआ था। उसी रहस्यमयी वातावरण में एक कुश से बनी चटाई पर पूरब दिशा की ओर मुँह करके, काली कम्बल ओढ़े, बालगोबिन भक्त अपनी खंजड़ी (चिमटा) लेकर बैठे हुए थे। उनके मुँह से लगातार स्वरों की कतार निकल रही थी अर्थात् भजन के स्वर निकल रहे थे।
भजन के साथ-साथ उनके हाथ लगातार खंजड़ी को बजा रहे थे, गाते-गाते वे इतने मस्त हो रहे थे, मानो किसी नशे में ही उत्साहित होकर आधे खड़े खड़े होकर भजन गा रहे थे। इस मुद्रा को देखकर प्रतीत होता था कि वे अभी खड़े हो जाएंगे। कम्बल उनके इस तरह उत्साहित होने पर बार-बार उनके शरीर से नीचे सरक जाती थी।
लेखक बता रहे हैं कि वे जाड़े में कंपकंपा रहे थे किन्तु सर्दी की तारों भरी सुबह (जो कि अभी पूरी तरह से हुई नहीं थी) में उनके मस्तक पर पसीने की बूंदें झिलमिला रही थी। इतनी सर्दी में भजनों का उत्साह, तेज स्वर लहरी के कारण पसीने के कण उन्हें गर्मी का अहसास दे रहे थे तथा उनके मस्तक पर चमक रहे थे।
विशेष :
- लेखक ने बालगोबिन के मस्त होकर भजन गाते स्वरूप को रेखांकित किया है।
- देशज शब्दों के प्रयोग के साथ, खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग हुआ है।
- भाषा सरल एवं सहज है।
6. बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया जिस दिन उनका बेटा मरा। इकलौता बेटा था वह! कुछ सुस्त और बोदा-सा था, किंतु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नजर रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए, क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं। बड़ी साध से उसकी शादी कराई थी, पतोहू बड़ी ही सुभग और सुशील मिली थी। घर की पूरी प्रबंधिका बनकर भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से निवृत्त कर दिया था उसने।
कंठिन शब्दार्थ :
- चरम = उच्च बिंदू पर पहुँचना।
- उत्कर्ष = उन्नति, ऊँचाई पर।
- बोदा = दबा हुआ।
- साध = इच्छा, आशा।
- सुभग = सुन्दर, सौभाग्यशाली।
- प्रबन्धिका = प्रबन्ध संभालने वाली।
- निवृत = छुटकारा।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। इसमें लेखक ने बालगोबिन के व्यक्तित्व का वह उच्चतम रूप देखा, जब उसके पुत्र की मृत्यु हुई थी।
व्याख्या - लेखक ने भजन गाते हुए लीन बालगोबिन के स्वरूप को देखा जो कड़ाके की सर्दी में पूरी तन्मयता से गा रहे थे। उस स्वरूप को याद करके लेखक को वह दिन याद आ जाता है जब उसके पुत्र की मृत्यु हुई थी। लेखक कहते हैं कि वह दिन उनकी संगीत-साधना का सबसे उच्चतम दिन था, उनकी साधना की चरम उन्नति का दिन था जब बालगोबिन के पुत्र की मृत्यु हुई, कि वह उनका इकलौता पुत्र था। स्वभाव से सुस्त और कुछ दबा हुआ-सा कमजोर लड़का था। और इस कारण बालगोबिन अपने पुत्र से अधिक स्नेह रखते थे।
उनकी समझ के अनुसार ऐसे लोगों पर जो कमजोर या निगरानी के हकदार होते हैं उन पर प्रेम-स्नेह का भाव अधिक होना चाहिए। इसीलिए हर माता-पिता, अपनी हर तरह से कमजोर संतान के प्रति अधिक प्रेम-भाव रखते हैं। बालगोबिन ने बड़ी इच्छा और आशा से अपने पुत्र की शादी करवाई थी, पुत्रवधू प्रभु कृपा से बड़ी ही सौभाग्यशाली, सुशील एवं शालीन व्यवहार की मिली थी। घर का पूरा प्रबन्ध संभाल कर बालगोबिन भगत को दुनियादारी के बहुत से कार्यों से छुटकारा दिला दिया था। आशय है कि घर का कार्य, बाहर के कार्य स्वयं करने लगी थी। जिससे बालगोबिन को स्वयं की भक्ति-साधना के लिए समय मिल जाता था।
विशेष :
- लेखक ने बालगोबिन, उसके पुत्र एवं पुत्रवधू के बारे में बताया है।
- देशज शब्द एवं हिन्दी खड़ी बोली का सहज-सुन्दर प्रयोग हुआ है।
7. उनका बेटा बीमार है, इसकी खबर रखने की लोगों को कहाँ फुरसत! किंतु मौत तो अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है। हमने सुना, बालगोबिन भगत का बेटा मर गया। कुतूहलवश उनके घर गया। देखकर दंग रह गया। बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफेद कपड़े से ढाँक रखा है। वह कुछ फूल तो हमेशा ही रोपते रहते, उन फूलों में से कुछ तोड़कर उस पर बिखरा दिए हैं; फूल और तुलसीदल भी। सिरहाने एक चिराग जला रखा है। और, उसके सामने जमीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं! वही पुराना स्वर, वही पुरानी तल्लीनता।
कठिन शब्दार्थ :
- फुरसत = खाली समय।
- तल्लीन = भाव-विभोर होकर, जिन्हें आस-पास की कोई खबर ना हो।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। बालगोबिन के जीवन की सबसे हृदय विदारक घटना उसके बेटे की मृत्यु के बारे में बताया गया है।
व्याख्या - लेखक ने बताया कि बालगोबिन का पत्र, शारीरिक रूप से कमजोर था। जिसके कारण बालगोबिन का पुत्र पर अत्यधिक स्नेह था। उनका बेटा बीमार चल रहा था, लेकिन बीमारी की खबर लोगों के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं थी इसलिए उन्हें कोई जिज्ञासा भी नहीं थी, बीमारी की जानकारी रखने की। किन्तु मृत्यु ऐसी दर्दनाक घटना होती है कि सबका ध्यान अपनी ओर खींच ही लेती है। लेखक ने भी बालगोबिन के बेटे की मृत्यु के बारे में सुना, तो वे भी यह जानने को उत्सुक होकर उनके घर गये कि इस मृत्यु पर बालगोबिन की क्या प्रतिक्रिया होती है। जाकर उनके घर देखा तो लेखक दंग रह गये। बेटे को आंगन में चटाई बिछा कर सुला रखा था, सफेद कपड़े से उसे ढंक रखा था।
बालगोबिन की आदत थी, फूल रोपने की, उनके आँगन में खिले फूलों की पत्तियाँ तोड़ कर शव पर बिखरा रखी थी और तुलसी की पत्तियाँ भी बिखरी हुई थीं। सिरहाने की तरफ एक चिराग जला रखा था। बालगोबिन, पुत्र के शव के पास आसन जमाए संत कबीर के गीत उच्च स्वर में गाये जा रहे थे, उनका वही पुराना स्वर था और उसी तल्लीन भाव से डूबे हुए, भाव-विभोर होकर भजन में मग्न थे। जीवन की नश्वरता को वह बखूबी समझते थे, कि जो आया है उसे एक दिन जाना ही होगा। इसलिए वे दुःखी न होकर आनन्दमग्न थे।
विशेष :
- लेखक ने बालगोबिन के अद्भुत व्यक्तित्व का परिचय दिया है।
- भाषा-शैली सरल-सहज है एवं बोधगम्य है।
8. किंतु, बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं! हाँ, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नजदीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। आत्मा परमात्मा के पास चली गई, विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात? मैं कभी-कभी सोचता, यह पागल तो नहीं हो गए। किंतु नहीं, वह जो कुछ कह रहे थे उसमें उनका विश्वास बोल रहा था वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है।
कठिन शब्दार्थ :
- पतोहू = पुत्रवधू।
- चरम = उच्च भाव।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। लेखक ने इसमें बालगोबिन के पुत्र की मृत्यु के पश्चात् किस प्रकार बालगोबिन हिम्मत रखते हैं तथा पुत्रवधू को ढांढस बँधाते हैं उसका वर्णन किया गया है।
व्याख्या - लेखक ने बताया कि बालगोबिन पुत्र के शव के पास आसन लगाकर भजन गाये चले जा रहे थे, उन्हें किसी ने रोते या दुःख मनाते नहीं देखा, हाँ गाते-गाते अपनी पुत्रवधू के नजदीक भी जाते तो उसे रोने के बदले खुश होकर उत्सव मनाने को कहते, क्योंकि वे जीवन की क्षण-भंगुरता को समझते थे। वे यही कह रहे थे कि रोने की कोई बात नहीं है आत्मा अपने परमात्मा के पास चली गई है।
अब तक आत्मा जो परमात्मा से अलग होकर विरहिणी जीवन जी रही थी, उसका विरह अब खत्म हो गया है, वह अपने प्रियतम से जाकर सदा के लिए. मिल गई है, भला, इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या होगी? लेखक सोच रहे थे कि ऐसे समय बालगोबिन कहीं पागल तो नहीं हो गये, किन्तु नहीं, बालगोबिन जो भी कह रहे थे, उसके पीछे उनका दृढ़ विश्वास बोल रहा था, वह विश्वास जिसे उच्च स्तर पर प्रभु-कृपा का ज्ञान प्राप्त हो चुका है, जो जगत की निस्सारता व क्षण-भंगुरता से परिचित है। वह विश्वास जो सदा से सत्य है कि मृत्यु अवश्य है, वह विश्वास जो मृत्यु को परमात्मा मिलने में सिर्फ एक साधन मानता है।
विशेष :
- लेखक ने बालगोबिन के माध्यम से जीवन-सत्य को प्रकट किया है कि मृत्यु उत्सव है परमात्मा से आत्मा के मिलन का।
- भाषा सरल-सहज व सांकेतिक अर्थों से पूर्ण है।
9. बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी। किंतु ज्योंही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई, पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया, यह आदेश देते हुए कि इसकी दूसरी शादी कर देना। इधर पतोहू रो-रोकर कहती-मैं चली जाऊँगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा, बीमार पड़े, तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा? मैं पैर पड़ती हूँ, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए! लेकिन भगत का निर्णय अटल था। तू जा, नहीं तो मैं ही इस घर को छोड़कर चल दूंगा-यह थी उनकी आखिरी दलील और इस दलील के आगे बेचारी की क्या चलती?
कठिन शब्दार्थ :
- तूल नहीं देना = बात नहीं बढ़ाना, किसी भी मामले को नहीं उछालना।
- अवधि = समय।
- चुल्लू = अँजुरी-भर।
- अटल = नहीं टलने वाला, अडिग।
- दलील = तर्क।
प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। इसमें लेखक ने बालगोबिन के पुत्र की मृत्यु होने के पश्चात् पुत्रवधू को पीहर चले जाने का आदेश देने का वर्णन किया
व्याख्या - लेखक ने बताया है कि बेटे के क्रिया-कर्म में बालगोबिन ने किसी भी बात को बढ़ाया नहीं, किन्तु आग पुत्रवधू के हाथों ही दिलवाई गई। कहने का आशय है कि संत कबीर के भक्त होने के कारण अंदेशा था कि क्रिया - कर्म की विधि में बालगोबिन ना-नुकुर करते लेकिन बालगोबिन ने किसी भी प्रकार के कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। सारे कर्म पूर्ण होने के पश्चात् पुत्रवधू के भाई को बुलवा कर बहू को उसके साथ जाने का आदेश दिया और भाई से कहा कि पुत्रवधू की दूसरी शादी कर देना।
इधर पीहर जाने व ससुर की देखभाल कौन करेगा जैसी बातों को समझ कर पुत्रवधू रोने लगी। पुत्रवधू कह रही थी कि मैं चली जाऊँगी तो उसे (बालगोबिन) पानी कौन देगा? कौन बुढ़ापे में इसके लिए भोजन बनाएगा, मैं इनके पैर पकड़ती हूँ मुझे अपने चरणों से अलग मत कीजिए। पुत्रवधू की बातें सुनकर भी भगतजी अपनी बात पर ही टिके हुए थे, उनका निर्णय बदलने वाला नहीं था। वे कहते हैं कि तु अपने भाई के साथ जा नहीं तो मैं इस घर को छोड़ कर चला जाऊंगा। यह उनका आखिरी तर्क था और इस तर्क के आगे उस बेचारी की एक नहीं चली। उसे अंततः अपने भाई के साथ जाना ही पड़ा।
विशेष :
- लेखक ने बालगोबिन के दृढ़ व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है।
- भाषा सरल-सहज व सांकेतिक अर्थपूर्ण है।
10. बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई। वह हर वर्ष गंगा-स्नान करने जाते। स्नान पर उतनी आस्था नहीं रखते, जितना संत-समागम और लोक-दर्शन पर। पैदल ही जाते। करीब तीस कोस पर गंगा थी। साधु को संबल लेने का क्या हक? और, गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों माँगे? अतः, घर से खाकर चलते, तो फिर घर पर ही लौटकर खाते। रास्ते भर खजड़ी बजाते, गाते, जहाँ प्यास लगती, पानी पी लेते। चार-पाँच दिन आने-जाने में लगते; किंतु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती! अब बुढ़ापा आ गया था, किंतु टेक वही जवानीवाली।
कठिन शब्दार्थ :
- अनुरूप = अनुसार।
- संबल = सहारा।
- उपवास = व्रत।
- टेक = अपनी ही करने में टिके रहना, उच्च स्वर निकालना।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। इसमें लेखक ने बालगोबिन के जीवन के अंतिम समय को रेखांकित किया है।
व्याख्या - लेखक बालगोबिन के मस्त-मौला व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए उनकी दिनचर्या पर प्रकाश डालते हैं कि बालगोबिन की मृत्यु उन्हीं के स्वभाव के अनुसार हुई। वह हर वर्ष गंगा-स्नान के लिए जाते थे। चूँकि स्नान पर वो इतनी आस्था या विश्वास नहीं रखते थे लेकिन गंगा-स्नान के दौरान अनेक ऋषि-संतों से मिलने, व उनके दर्शनों के प्रति जरूर इच्छा रखते थे। घर से गंगा तीस कोस पर थी, इसलिए पैदल ही जाते। साधु व्यक्ति को किसी के सहारे की क्या आवश्यकता और गृहस्थ जीवनचर्या होने के कारण क्यों किसी से भीख माँगते।
अतः अपने घर से खा-पीकर चलते। गंगा तक पहुँचने के रास्ते-भर खंजड़ी बजाते हुए भजनों को गाते हुए चलते, जहाँ प्यास लगती वहाँ पानी पी लेते। गंगा-स्नान से वापस लौटने में उन्हें चार-पाँच दिन लग जाते। खाने को लेकर इस मध्य उनका उपवास ही रहता किन्तु इस लम्बे व्रत में भी वही अखण्ड मस्ती उनके स्वभाव में दिखाई पड़ती थी। बालगोबिन अब वृद्ध हो चले थे, लेकिन उनमें उत्साह, उमंग और भजन गाने का उच्च स्वर वही जवानी वाला था। वह किसी तरह भी वृद्ध प्रतीत नहीं होते थे।
विशेष :
- लेखक ने बालगोबिन के मस्त-मौला व्यवहार को बताया है।
- भाषा सरल-सहज व बोधगम्य है।
11. इस बार लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त थी। खाने-पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी, थोड़ा बुखार आने लगा। किन्तु नेम-व्रत तो छोड़ने वाले नहीं थे। वहीं दो जून गीत, स्नान-ध्यान, खेतीबाड़ी करना। दिन-दिन छीजने लगे। लोगों ने नहाने से मना किया, आराम करने को कहा। किन्त हँस कर टाल देते रहे। उस दिन भी संध्या में गीत गाए, किन्तु मालूम होता जैसे तागा टूट गया हो, माला का एक-एक दाना बिखरा हुआ हो। भोर में लोगों ने गीत नहीं सुना, जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे सिर्फ उनका पंजर पड़ा है।
कठिन शब्दार्थ :
- सुस्त = कमजोर, थकी हुई।
- जून = समय।
- तागा = धागा।
- भोर = सुबह का समय।
- पंजर = कंकाल, मृत शरीर।
- नेम = नियम।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' से लिया गया है। इसमें लेखक ने भगत बालगोबिन के अंतिम समय का वर्णन किया है
व्याख्या - लेखक ने बालगोबिन के जीवन के प्रत्येक पक्ष पर प्रकाश डालते हुए उनकी मृत्यु के विषय में बताया है कि उन दिनों उनकी तबीयत कुछ खराब थी। कमजोर लग रहे थे। खाने-पीने के बाद भी उनकी तबीयत नहीं सुधरी, थोड़ा बुखार भी रहने लगा था। लेकिन भगत अपना नेम यानि नियम तथा व्रत-उपवास कुछ भी नहीं छोड़ना चाहते थे। वहीं दोनों समय उनके भजन-गीत चलते, स्नान-ध्यान होता तथा ऐसी हालत में खेतीबाड़ी का भी काम वे देखते थे। इन सब के कारण दिन पर दिन वे कमजोर होते चले गए।
लोगों ने बीमारी की अवस्था में नहाने-धोने से मना किया, आराम करने को कहा, किन्तु उनकी बातों को भगत हँसकर टाल देते थे। उस दिन भी शाम के समय उन्होंने भजन-गीत गाए, किन्तु उनके स्वर को सुन कर यही प्रतीत होता था मानो स्वर का धागा बीच-बीच में से टूट रहा हो, जैसे किसी मोती की माला का एक-एक दाना बिखर गया हो। जब दूसरे दिन सुबह में लोगों ने उनके गीत की आवाज नहीं सुनी तो जाकर देखा कि बालगोबिन भगत अब इस दुनिया में नहीं रहे, उनके स्थान पर उनका निर्जीव शरीर पड़ा हुआ था।
विशेष :
- लेखक ने बालगोबिन भगत की मृत्यु का अंकन किया है कि अंत समय तक वे अपने कर्म-पथ से डिगे नहीं थे।
- भाषाशैली सरल-सहज एवं बोधगम्य है।
- 'तागा' शब्द में तत्सम प्रयोग हुआ है।
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
रामवृक्ष बेनीपुरी ने 'बालगोबिन भगत' हिन्दी की किस विधा पर लिखा है?
उत्तर:
लेखक ने 'बालगोबिन भगत' हिन्दी गद्य की रेखाचित्र विधा पर लिखा है।
प्रश्न 2.
रामवृक्ष बेनीपुरी का गद्य में विविध साहित्य किसमें प्रकाशित है?
उत्तर:
रामवक्ष बेनीपरी का परा गद्य साहित्य 'बेनीपरी रचनावली' के आठ खंडों में प्रकाशित है।
प्रश्न 3.
रामवृक्ष बेनीपुरी विशिष्ट शैलीकार होने के कारण किस नाम से जाने जाते थे?
उत्तर:
विशिष्ट शैलीकार होने के कारण उन्हें 'कलम का जादूगर' कहा जाता था।
प्रश्न 4.
बालगोबिन गृहस्थ थे, फिर उन्हें भगत क्यों कहा जाता था?
उत्तर:
बालगोबिन गृहस्थ संत थे, उनका आचरण, सोच और प्रवृत्ति साधु-संतों जैसी थी।
प्रश्न 5.
बालगोबिन भगत अपने खेत की पैदावार को कहाँ और क्यों ले जाते थे?
उत्तर:
बालगोबिन खेत की पैदावार को भेंट रूप सिर पर लाद कर कबीरपंथी मठ में ले जाते थे।
प्रश्न 6.
लेखक के जीवन की कौनसी विशेषता प्रकट हुई है?
उत्तर:
कलाकारों तथा संत-स्वभाव के भक्तों का सम्मान करना और संगीत के प्रति गहरी रुचि रखना, लेखक के जीवन की विशेषता है।
प्रश्न 7.
बालगोबिन की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष क्या था?
उत्तर:
जब बालगोबिन के पुत्र की मृत्यु हुई तब भी वे संगीत-साधना में लीन थे, उनका यही व्यवहार संगीत साधना का चरम उत्कर्ष था।
प्रश्न 8.
बालगोबिन की पुत्रवधू की चारित्रिक विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
उनकी पुत्रवधू सुन्दर, सुशील एवं प्रबन्धिका के गुणों से युक्त थी।
प्रश्न 9.
भगतजी ने समाज की प्रचलित दो कौनसी महत्त्वपूर्ण मान्यताओं को चुनौती दी?
उत्तर:
भगतजी ने पतोहू के हाथों पुत्र को अग्नि दिलवाई तथा पतोहू के भाई को कह कर विधवा-विवाह करने के लिए कहा।
प्रश्न 10.
भगत का आत्मसम्मान किस बात से प्रकट होता है?
उत्तर:
वे गृहस्थ संत थे इसलिए गंगा-स्नान से जाते-आते किसी से माँग कर नहीं खाते थे।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
बालगोबिन भगत रेखाचित्र सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करता है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बालगोबिन भगत बेटे की मृत्यु पर तल्लीनता से गाते रहे, बेटे की चिता को स्वयं आग न देकर पतोहू से ही दिलवायी और श्राद्ध की अवधि पूर्ण होते ही पतोहू के भाई को भुलाकर पतोहू को मायके भेज दिया था और कहा था कि इसका दूसरा विवाह करा देना। बालगोबिन ऐसी सामाजिक परम्पराओं और रीति-रिवाजों को पाखण्ड मानते थे। प्रस्तुत रेखाचित्र ऐसी रूढ़ियों पर प्रहार करता है।
प्रश्न 2.
भगत के जीवन की घटना.के आधार पर मोह तथा प्रेम में अन्तर समझाइये।
उत्तर:
प्रेम में वैराग्य होता है, मोह में नहीं। मोह में मनुष्य अपने स्वार्थ की चिन्ता करता है और प्रेम में वह प्रिय का हित देखता है। बालगोबिन भगत ने अपने व्यवहार से यह अन्तर स्पष्ट किया है। उन्होंने अपनी पतोहू के प्रति पुत्र की मृत्यु के पश्चात् मोह न प्रकट कर प्रेम प्रकट किया। यदि वे उसे अपनी सेवा के लिए रख लेते तो यह उनका मोह होता, लेकिन उन्होंने उसके भविष्य की चिन्ता और उसका जीवन सुधारने के लिए उसे दूसरा विवाह करने की सलाह दी, इससे उनका प्रेम प्रकट हुआ है।
प्रश्न 3.
कबीर पंथ मानव को किस प्रकार जीने की प्रेरणा देता है? 'बालगोबिन भगत' पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कबीर पंथ मानव को गृहस्थी के साथ-साथ सांसारिक प्रलोभनों से दूर रहने की प्रेरणा देता है। वह मनुष्य को सरल, सीधा, सच्चा और खरा जीवन जीने की भी प्रेरणा देता है। कबीरपंथ में अपरिग्रह को विशेष महत्त्व दिया गया है, वह आत्मा-परमात्मा का मिलन शाश्वत मानकर मोह-माया से मुक्त रहने का सन्देश देता है। कबीरपंथ कहता है कि मनुष्य अपने जीवन को साहब की संपत्ति समझे और अपने आप को प्रभु चरणों में अर्पित करने की भी प्रेरणा देता है।
प्रश्न 4.
लेखक द्वारा बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष किस दिन देखा गया?
अथवा
"बालगोबिन भगत की संगीत साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया।" बालगोबिन भगत के जीवन में उस दिन कौनसी घटना घट गई, जिससे उनकी संगीत साधना का चरम उत्कर्ष देखा गया?
उत्तर:
लेखक को उनकी संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखने को मिला, जिस दिन उनके पुत्र की मृत्यु हो गयी थी। वे उस दिन सामान्य गृहस्थों की तरह विलाप न करके शव के सामने बैठकर भक्ति के पद तल्लीन होकर गा रहे थे।
प्रश्न 5.
'बालगोबिन भगत' पाठ में आये विक्रम संवत् के कैलेण्डर के नाम क्रम से लिखिए। .
उत्तर:
विक्रम संवत् के कैलेण्डर के अनुसार माहों के नाम क्रमानुसार इस प्रकार हैं-चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, सावन, भाद्रपद (भादों), आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन।
प्रश्न 6.
'बालगोबिन भगत' रेखाचित्र के आधार पर बताइए कि कैसे व्यक्तियों पर ज्यादा नजर रखनी चाहिए?
उत्तर:
'बालगोबिन भगत' रेखाचित्र के आधार पर हमें उन व्यक्तियों या बच्चों पर विशेष रूप से नजर रखनी चाहिए जो सुस्त और बोदे होते हैं। अर्थात् जो कम बुद्धि वाले या मानसिक रूप से कमजोर होते हैं, वे ही निगरानी, स्नेह और दूसरे की कृपा के अधिक हकदार होते हैं।
प्रश्न 7.
बालगोबिन भगत का मृत्यु के प्रति क्या दृष्टिकोण था?
उत्तर:
बालगोबिन कबीरपंथी संत थे। वे मत्यु को दुःख का कारण न मानकर आत्मा-परमात्मा के मिलन का साधन मानते थे। इसी सोच के कारण उन्होंने पुत्र की मृत्यु पर पुत्रवधू को रोने के स्थान पर उत्सव मनाने को कहा था।
प्रश्न 8.
अमुक व्यक्ति 'साधु' है-यह आप किस आधार पर कहेंगे? 'बालगोबिन भगत' पाठ के आधार पर बताइये।
उत्तर:
बाहरी पहनावे के आधार पर किसी व्यक्ति को 'साधु' नहीं कहा जा सकता है। साधु व्यक्ति परोपकारी, निर्लोभी, अपरिग्रही, माया-मोह से मुक्त, सत्यवादी, आस्तिक, सांसारिक राग-द्वेष से रहित तथा निष्कपट होता है। वह आत्मा से जुड़ा व्यक्तित्व होता है।
प्रश्न 9.
बालगोबिन भगत सद्गृहस्थ थे-यह आप कैसे कह सकते हो?
उत्तर:
बालगोबिन भगत सद्गृहस्थ थे-उनके परिवार में एक पुत्र और पतोहू भी थी। भगतजी अन्य गृहस्थों की तरह ही अपनी खेती-बारी करते थे। वे लोक-व्यवहार में खरे और नि:स्वार्थ भाव से पूरित थे।
प्रश्न 10.
'बालगोबिन भगत' पाठ से हमें क्या सन्देश मिलता है?
उत्तर:
'बालगोबिन भगत' पाठ से हमें सन्देश मिलता है कि गृहस्थ धर्म का पालन कर्मनिष्ठ रहकर करना चाहिए। ईश्वर के प्रति समर्पित हो, ऊँच-नीच के भेद को त्यागकर, नारी को पुरुष के समान समझकर और रूढ़िवादी न होकर विवेक से काम लेना चाहिए।
प्रश्न 11.
बालगोबिन भगत के संगीत के स्वर लोगों को किस नींद से जागने की प्रेरणा देते थे और क्यों?
उत्तर:
बालगोबिन भगत के संगीत के स्वर लोगों को सामान्य नींद से जागने की प्रेरणा न देकर, सांसारिक मोह माया की नींद से जागने की प्रेरणा देते थे, क्योंकि उनका गीत-संगीत एवं प्रभाती के स्वर प्रभु-भक्ति से पूरित होते थे।
प्रश्न 12.
लेखक बालगोबिन के किस गुण पर मुग्ध था?
उत्तर:
लेखक बालगोबिन के व्यक्तित्व में समाये संगीत के गान पर मुग्ध था, जो उसे हमेशा सुनने को मिलते थे। वे कबीर के सीधे-सादे पद गाते थे जो उनके कंठ से निकलकर सजीव हो उठते थे।
प्रश्न 13.
बालगोबिन भगत के संगीत को लेखक ने जादू क्यों कहा है?
उत्तर:
खेतों में काम करते समय जब उनका संगीत-स्वर लोगों को सुनाई देता था तो खेलते हुए बच्चे झूम उठते थे, मेंड़ों पर खड़ी औरतें गुनगुनाने लगती थीं, हलवाहों के पैर ताल से उठने लगते थे। इसलिए लेखक ने बालगोबिन भगत के संगीत को जादू कहा है।
प्रश्न 14.
बालगोबिन भगत अपनी पतोहू को रोने के बदले उत्सव मनाने को क्यों कह रहे थे?
उत्तर:
भगतजी का मानना था कि व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसकी आत्मा अपने प्रियतम परमात्मा के पास चली जाती है। विरहिणी आत्मा का परमात्मा प्रियतम से मिलन आनन्दोत्सव की घटना होती है। इसलिए वे अपनी पतोहू को रोने के बदले उत्सव मनाने को कह रहे थे।
प्रश्न 15.
बालगोबिन भगत अपनी पतोह को उसके भाई के साथ क्यों भेजना चाहते थे?
उत्तर:
बालगोबिन भगत समाज में प्रचलित परम्पराओं और लोक-निंदा की परवाह नहीं करते थे। वे विधवा विवाह के समर्थक थे, इसीलिए वे अपनी पतोहू को दूसरी शादी करने के लिए उसके भाई के साथ भेजना चाहते थे।
प्रश्न 16.
'बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई।' कैसे?
उत्तर:
बालगोबिन भगत प्रभु-भक्त थे। उनका जीवन भक्ति में ही बीता। वे जीवन की अन्तिम साँस तक भक्ति के पद गाते रहे। इनके साथ ही वे स्नान-ध्यान, व्रत-नियम की निश्चित क्रियाएँ अन्त तक निभाते रहे। इस प्रकार उनकी मृत्यु उन्हीं के अनुरूप हुई।
प्रश्न 17.
बालगोबिन भगत के गीत सबको क्यों चौंका देते थे?
उत्तर:
कबीरपंथी भगत के गीत सबको जगाने और चौंकाने की अपार क्षमता थे। रात में जब लोग अकेले होते थे तब वे उनके गीत-स्वरों पर अवश्य ध्यान देते थे। वे गीतों में पियवा' सुनकर अवश्य चौंक पडते थे। परमात्मा हर मनुष्य के पास है। जिससे उन्हें अपनी अज्ञानता और अबोधता पर आश्चर्य होता था।
प्रश्न 18.
भगतजी के गायन का कौन-सा गुण आपको प्रभावित करता है?
उत्तर:
भगतजी का गायन मस्ती और तल्लीनता से भरा होता था। इसलिए जब वे गाने बैठते तो वे गाते-गाते स्वयं को भी भूल जाते। उन्हें सर्दी और कुहरे की भी याद नहीं रहती और वे स्वयं गीतमय हो जाते थे। वे गाते-गाते इतने उत्साहित और मस्त हो जाते थे कि भीषण सर्दी में भी उनके मस्तक से पसीना झलकने लगता था।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
रामवृक्ष बेनीपुरी के रेखाचित्र 'बालगोबिन भगत' के आधार पर भगत का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर:
'बालगोबिन भगत' रेखाचित्र के लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी ने भगत अर्थात् बालगोबिन के माध्यम से उनके संत चरित्र पर प्रकाश डाला है। लेखक बचपन से ही बालगोबिन भगत को आदरणीय व्यक्ति मानते आये थे। लेखक ने इस पाठ में भगत' के वास्तविक साधुत्व का परिचय दिया है। गृहस्थ जीवन जीते हुए भी व्यक्ति अपने कर्मों द्वारा साधु बना रह सकता है। बालगोबिन, संत कबीर की भाँति भगवान के निराकार स्वरूप को मानते थे। उनके अनुसार जो भी है वह सब ईश्वर का दिया हुआ है इसलिए अपने खेतों की पैदावार को वे पहले कबीर मठ पहुंचाते, बाद में प्रसादस्वरूप जो मिलला, वो ग्रहण करते थे।
उन्होंने अपने पुत्र की मृत्यु पर सभी क्रिया-कर्म पुत्रवधू से करवाएं क्योंकि समाज में प्रचलित मान्यताओं को वे नहीं मानते थे। पुत्रवधू को पुनर्विवाह के लिए उसे उसके मायके भेज दिया। वे निजी स्वार्थ हेतु कुछ नहीं करते थे। कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते, किसी से सीधे कहने में संकोच नहीं करते। ना किसी से झगड़ा करते और ना ही किसी से बिना पूछे उसकी चीज को हाथ लगाते। साधु की सभी परिभाषाओं में खरे उतरते, ऐसे थे बालगोबिन भगत।
प्रश्न 2.
लेखक 'बालगोबिन भगत' के आधार पर क्या सन्देश देते हैं?
उत्तर:
लेखक ने इस पाठ के आधार पर यह बताया है कि साधुत्व का पालन गृहस्थ जीवन में भी निभाया जा सकता है। व्यक्ति का अपने नियमों पर दृढ़ रहना, निजी आवश्यकताओं को सीमित करना, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील होना तथा मोह-माया के जाल से दूर रहने वाला व्यक्ति ही साधु हो सकता है। साधु की पहचान उसका पहनावा नहीं बल्कि उसका व्यवहार है। साधु निजी स्वार्थ के लिए कुछ नहीं करते हैं, उनके सभी कार्य परहित में होते हैं। बालगोबिन भगत भी इसी प्रवृत्ति एवं नियमों को विश्वासपूर्वक जीवन भर निभाते रहे थे।
उन्होंने आत्मा की वास्तविक क्रिया को पहचान लिया था कि मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है। इसलिए जीवन के प्रति मोह-माया व्यर्थ है। इंसान को अपनी मुक्ति हेतु परमात्मा से प्रेम करना चाहिए। लेखक इस पाठ के माध्यम से एक और बात भी समझाना चाहते हैं कि हमें पाखंडी साधुओं से दूर रहना चाहिए तथा जो समाज को सड़ी-गली मान्यताओं से मुक्त कराएं, समाज के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करें उन्हीं को सच्चा साधु मानना चाहिए।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न -
प्रश्न 1.
लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा
रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी के जीवन एवं कर्म-साधना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में सन् 1899 में हुआ। बचपन में माता-पिता का निधन हो जाने से प्रारम्भिक जीवन कठिनाइयों में व्यतीत हुआ। मैट्रिक तक की परीक्षा पास कर स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय रूप से जुड़ गये। 15 वर्ष की अवस्था में उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी। उन्होंने अनेक समाचार-पत्रों का सम्पादन किया।
गद्य की विविध विधाओं पर उन्होंने लेखनी चलाई 'पतितों के देश में' (उपन्यास), 'चिता के फूल' (कहानी), 'अंबपाली' (नाटक); 'माटी की मूरते' (रेखाचित्र); 'पैरों में पंख बाँधकर' (यात्रा-वृत्तांत) आदि हैं। उनकी रचनाओं में स्वाधीनता की चेतना तथा मनुष्यता की चिंता है। विशिष्ट शैलीकार होने के कारण उन्हें 'कलम का जादूगर' कहा जाता है। उनका देहावसान सन् 1968 में हुआ।
रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में सन् 1899 में हुआ। इनके माता-पिता का देहान्त बचपन में ही हो जाने के कारण इनका प्रारम्भिक जीवन कठिनाइयों में बीता। दसवीं तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सन् 1920 में राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गये। परिणामस्वरूप वे कई बार जेल भी गये। उनका देहावसान सन् 1968 में हुआ। पन्द्रह वर्ष की अवस्था में ही इनकी रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं।
उन्होंने अनेक दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाओं का सम्पादन किया, जिनमें 'तरुण भारत', 'किसान मित्र', 'बालक', 'युवक', 'योगी', 'जनता', 'जनवाणी' और 'नयी धारा' उल्लेखनीय हैं। उनका पूरा साहित्य 'बेनीपुरी रचनावली' में प्रकाशित है। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं - 'पतितों के देश में' (उपन्यास), "चिता के फूल' (कहानी), 'अंबपाली' (नाटक), 'माटी की मूरतें' (रेखाचित्र), 'पैरों में पंख बाँधकर' (यात्रा वृत्तांत), 'जंजीरें और दीवारें' (संस्मरण) आदि।
'बालगोबिन भगत' एक सजीव रेखाचित्र है। इस रेखाचित्र के माध्यम से लेखक ने एक ऐसे रित्र का उद्घाटन किया है जो मनुष्यता, लोक-संस्कृति और सामहिक चेतना का प्रतीक है। बालगोबिन खेती करते हुए भी कबीरपंथी साधु थे। वे वर्षा की रिमझिम में धान रोपते हुए जहाँ गीत गाते थे, वहीं सर्दियों में प्रभातफेरियाँ और गर्मियों में घर पर भक्तों के बीच पद गाते थे। वे सामाजिक परम्पराओं और रीति-रिवाजों को पाखण्ड भर मानते थे।
इसीलिए पुत्र की मृत्यु होने पर भी वे तल्लीन होकर गा रहे थे। उन्होंने बेटे को आग न देकर पतोहू से ही दिलवायी थी और बिना क्रियाकर्म की रस्में निभाये पतोहू को मायके भेज दिया था और कहा था कि इसका दूसरा विवाह कर देना। इस प्रकार यह रेखाचित्र सामाजिक रूढ़ियों पर जहाँ प्रहार करता है, वहीं ग्रामीण जीवन की सजीव झाँकी भी प्रस्तुत करता है।