These comprehensive RBSE Class 9 Social Science Notes History Chapter 4 वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद will give a brief overview of all the concepts.
RBSE Class 9 Social Science Notes History Chapter 4 वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद
→ औद्योगीकरण के कारण सन् 1700 से 1995 के बीच 139 लाख वर्ग कि.मी. जंगल यानी दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 93 प्रतिशत भाग को औद्योगिक इस्तेमाल, खेती-बाड़ी, चरागाहों व जलाऊ लकड़ी के लिए साफ कर दिया गया।
→ वनों का विनाश क्यों -
वनों के लुप्त होने को सामान्यतः वन विनाश कहते हैं। औपनिवेशिक भारत में वन विनाश के कुछ कारण ये है।
→ जमीन की बेहतरी
- 1600 ई. के बाद भारत की जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई, खाद्य पदार्थों की माँग में वृद्धि हुई, वैसे-वैसे जंगलों को साफ कर खेती की सीमाओं का विस्तार किया गया।
- ब्रिटिश काल में भारत में 1880 से 1920 के बीच व्यावसायिक फसलों के उत्पादन को जमकर प्रोत्साहन देने तथा जंगलों को अनुत्पादक समझने के कारण खेती योग्य जमीन के क्षेत्रफल में 67 लाख हैक्टेयर की बढ़त हुई।
→ पटरी पर स्लीपर
- 1820 के दशक में शाही नौसेना के लिए जहाजों के निर्माण हेतु हिन्दुस्तान से बड़े पैमाने पर पेड़ काट कर लकड़ी निर्यात की गई।
- 1850 के दशक में शाही सेना के आवागमन और औपनिवेशक व्यापार हेतु रेल लाइनों को बिछाने के लिए स्लीपरों तथा इंजन को चलाने हेतु ईंधन के तौर पर लकड़ी की भारी जरूरत थी। भारत में रेल लाइनों का जाल 1860 के दशक में तेजी से फैला। सरकार ने आवश्यक मात्रा की लकड़ी की पूर्ति हेतु निजी ठेके दिए। इन ठेकेदारों ने बिना सोचे-समझे पेड़ काटे और रेल लाइनों के इर्द-गिर्द जंगल तेजी से गायब हुए।
→ बागान-यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए इनके बागान बने और बागानों के लिए भी प्राकृतिक वनों का भारी हिस्सा साफ किया गया।
→ व्यावसायिक वानिकी की शरुआत -
- स्थानीय लोगों द्वारा जंगलों के उपयोग तथा व्यापारियों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को रोकने हेतु अंग्रेजों ने बैंडिस नामक जर्मन विशेषज्ञ को बुलाकर देश का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया। चैंडिस ने 1864 में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और 1865 के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया।
- वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के पेड़ लगा दिए गए। इसे बागान कहा जाता है।
- 1865 के वन अधिनियम को दो बार संशोधन किया गया। पहले 1878 में और फिर 1927 में 1878 वाले अधिनियम में जंगलों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया
- आरक्षित
- सुरक्षित और
- ग्रामीण।
→ लोगों का जीवन कैसे प्रभावित हुआ?
- वन विभाग ने जहाजों और रेलवे के लिए इमारती लकड़ी हेतु सागौन और साल जैसी प्रजातियों को प्रोत्साहित किया गया और दूसरी किस्में काट डाली गईं।
- वन अधिनियम के बाद अब स्थानीय लोगों को घर के लिए लकड़ी काटना, पशुओं को चराना, कंद मूल फल इकट्ठा करना आदि रोजमर्रा की गतिविधियाँ गैर कानूनी बन गईं। पुलिस और जंगल के चौकीदार उन्हें तंग करने लगे।
→ वनों के नियमन से खेती कैसे प्रभावित हुई?
- यूरोपीय उपनिवेशवाद का सबसे गहरा प्रभाव झूम या घुमंतू खेती की प्रथा पर दिखाई दिया क्योंकि सरकार ने घुमन्तू खेती पर रोक लगाने का फैसला किया।
- इसके पीछे उसने तीन कारण बताए
- ऐसी खेती की जमीन पर इमारती लकड़ी के पेड़ नहीं लगाए जा सकते थे।
- जंगल जलाते समय बाकी बेशकीमती पेड़ों के जलने का खतरा रहता था तथा
- इसके कारण सरकार को लगान का हिसाब रखना मुश्किल था।
- इसके परिणामस्वरूप अनेक समुदायों को जंगलों से विस्थापित कर दिया गया।
→ शिकार की आजादी किसे थी?
- वन कानूनों से पहले जंगलों में या उनके आस-पास रहने वाले बहुत सारे लोग हिरन, तीतर जैसे छोटे-मोटे शिकार करके जीवनयापन करते थे।
- वन कानूनों ने लोगों को शिकार के परम्परागत अधिकार से वंचित कर दिया गया। अंग्रेज अफसरों के लिए अब बड़े जानवरों का आखेट एक खेल बन गया। औपनिवेशिक शासन के दौरान शिकार का चलन बढ़ा और कई प्रजातियाँ लगभग पूरी तरह लुप्त हो गईं। अकेले जार्ज यूल नामक अंग्रेज अफसर ने 400 बाघों को मारा था।
→ नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ
- जंगलों पर वन विभाग का नियंत्रण हो जाने से कई समुदाय अपने परंपरागत पेशे छोड़कर वन उत्पादों का व्यापार करने लगे।
- भारत में ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन-उत्पादों के व्यापार की इजारेदारी सौंप दी। अनेक चरवाहे और घुमन्तू समुदाय अब सरकार की निगरानी में फैक्ट्रियों, खदानों व बागानों में काम करने को मजबूर हो गए। यहाँ उनकी मजदूरी बहुत कम थी तथा परिस्थितियाँ अत्यधिक खराब थीं।
- वन विद्रोह हिन्दुस्तान और दुनियाभर में वन्य-समुदायों ने अपने ऊपर थोपे गए बदलावों के खिलाफ बगावत की।
→ बस्तर के लोग
- बस्तर छत्तीसगढ़ के सबसे दक्षिणी छोर पर आंध्रप्रदेश, उड़ीसा व महाराष्ट्र की सीमाओं से लगा हुआ क्षेत्र है।
- बस्तर में मारिया और मुरिया गौंड, धुरवा, भतरा, हलबा आदि अनेक आदिवासी समुदाय रहते हैं।
- ये लोग मानते हैं कि हरेक गाँव को उसकी जमीन 'धरती माँ' से मिली है । वे गाँव की सीमा के भीतर समस्त प्राकृतिक संपदाओं की देखभाल करते हैं।
- एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के जंगल से लकड़ी लेना चाहते हैं तो इसके बदले में उन्हें एक छोटा शुल्क अदा करना पड़ता है।
- हर वर्ष एक बड़ी सभा का आयोजन होता है जहाँ गाँवों के समूह के मुखिया जुटते हैं और जंगल सहित सभी मुद्दों पर चर्चा होती है।
→ लोगों के भय
- औपनिवेशिक सरकार ने 1905 में जब जंगलों के दो तिहाई हिस्से को आरक्षित करने, घुमन्तु खेती को रोकने और शिकार व अन्य उत्पादों के संग्रह पर पाबन्दी लगाने के प्रस्तावों पर बस्तर के लोग परेशान हो गए।
- कुछ गाँवों में लोगों को आरक्षित वनों में पेड़ों की मुफ्त कटाई-ढुलाई करने की शर्त पर रहने दिया गया। ये ग्राम 'वन ग्राम' कहे जाने लगे। बाकी गाँव के लोगों को वहाँ से हटा दिया गया।
- नेथानार गाँव के गुंडा धूर के नेतृत्व में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी और दमनकारी कानूनों से जुड़े राज्य के लोगों को लूटा, जलाया तथा अनाज का पुनर्वितरण किया।
- सरकार ने दमनचक्र चलाया, गाँव के लोग भाग कर जंगलों में चले गए तथा सरकार गुंडा धूर को नहीं पकड़ पायी।
- परिणामतः आरक्षण का काम कुछ समय के लिए रोक दिया गया तथा आरक्षित क्षेत्र को भी आधा कर दिया गया।
→ जावा के जंगलों में हुए बदलाव
इण्डोनेशिया में जावा वह क्षेत्र है जहाँ डचों ने वन प्रबन्धन की शुरुआत की थी। अंग्रेजों की तरह वे भी जहाज बनाने के लिए यहाँ से लकड़ी हासिल करना चाहते थे। यहाँ के पहाड़ों पर घुमन्तू खेती करने वाले अनेक समुदाय रहते थे।
→ जावा के लकड़हारे
- जावा में कलांग समुदाय के लोग कुशल लकड़हारे और घुमन्तू किसान थे।
- डचों ने जब 18वीं सदी में वनों पर नियंत्रण स्थापित करना प्रारंभ किया तो उन्होंने कोशिश की कि कलांग। उनके लिए काम करें।
- 1770 ई. में कलांगों ने एक डच किले पर हमला करके इसका प्रतिरोध किया।
→ डच वैज्ञानिक वानिकी
- डच उपनिवेशकों ने 19वीं सदी में जावा में वन कानून लागू कर ग्रामीणों को जंगल पर पहँच कर अनेक बंदिशें थोप दीं।
- जहाज और रेल लाइनों के निर्माण ने वन प्रबन्धन और वन सेवाओं को लागू किया गया तथा भारी मात्रा में जावा से स्लीपरों का निर्यात किया गया।
- पेड़ काटने और लकड़ी ढोने के लिए ब्लैन्डांगडिएन्स्टेन व्यवस्था लागू की गई।
→ सामिन की चुनौती
- सन् 1890 में जब रान्दुब्लातुंग गाँव के निवासी सामिन ने जंगलों में राजकीय मालिकाने पर चुनौती दी तो जल्दी ही एक व्यापक आंदोलन खड़ा हो गया।
- समिनवादियों ने जमीन पर लेट कर डचों के जमीन के सर्वेक्षण का विरोध किया तो दूसरे लोगों ने लगान या जुर्माना भरने या बेगार करने से इन्कार कर दिया।
→ युद्ध और वन विनाश
- पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जंगलों पर गहरा प्रभाव पड़ा।
- भारत में अंग्रेजों की जंगी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बेतहाशा पेड़ काटे गए।
- जावा में जापानियों ने वनवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य करके युद्ध उद्योग के लिए जंगलों का निर्मम दोहन किया।
→ वानिकी में नए बदलाव
- अस्सी के दशक में वनों से इमारती लकड़ी हासिल करने के बजाय जंगलों का संरक्षण ज्यादा महत्त्वपूर्ण लक्ष्य बन गया।
- इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वन प्रदेशों में रहने वाले लोगों की मदद ली जाने लगी।
- स्थानीय वन समुदाय और पर्यावरणविद अब वन-प्रबंधन के वैकल्पिक तरीकों के बारे में सोचने लगे हैं।