These comprehensive RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 8 सामाजिक आंदोलन will give a brief overview of all the concepts.
RBSE Class 12 Sociology Chapter 8 Notes सामाजिक आंदोलन
→ सामाजिक आन्दोलन ने उस विश्व को एक आकार दिया है जिसमें हम रहते हैं और ये निरन्तर ऐसा कर रहे हैं। सामाजिक आन्दोलनों ने हमें बहुत से अधिकार दिलाए हैं। जैसे-सप्ताहांत में एक दिन के विश्राम का अधिकार, कार्य दिवस का आठ घंटे से अधिक का न होना, समान कार्य के लिए समान मजदूरी, मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा और पेंशन के अधिकार, वयस्क मताधिकार आदि। इन अधिकारों के दिलाने में इंग्लैण्ड का चार्टरवादी आन्दोलन, सामाजिक सुधार आन्दोलन, राष्ट्रवादी आन्दोलन और समाजवादी आन्दोलनों की प्रमुख भूमिका रही है। सामाजिक आन्दोलन न केवल समाजों को बदलते हैं बल्कि अन्य सामाजिक आन्दोलनों को प्रेरणा भी देते हैं।
→ सामाजिक आन्दोलन के लक्षण
- सामाजिक आन्दोलन में एक लम्बे समय तक निरन्तर सामूहिक गतिविधियों की आवश्यकता होती है।
- ऐसी गतिविधियाँ प्रायः राज्य के विरुद्ध होती हैं तथा राज्य की नीति तथा व्यवहार में परिवर्तन की माँग करती हैं।
- सामूहिक गतिविधियों में कुछ हद तक संगठन होना आवश्यक है।
- सामाजिक आंदोलन में भाग लेने वाले लोगों के उद्देश्य तथा विचारधाराओं में समानता होनी चाहिए।
- चूँकि यह सामाजिक आंदोलन संरक्षित हितों तथा मूल्यों दोनों के विरुद्ध होते हैं इसलिए इनका विरोध तथा प्रतिकार होना स्वाभाविक है, लेकिन कुछ समय के बाद परिवर्तन होते हैं।
- सामाजिक आन्दोलनों की प्रमुख गतिविधियाँ हैं
- सामूहिक रूप से विरोध करना,
- सभाएँ करना,
- प्रचार योजनाएँ बनाना। इसके विरोध प्रकट करने के साधन हैं-मोमबत्ती या मशाल जुलूस, काले कपड़े का प्रयोग, नुक्कड़ नाटक, गीत, कविताएँ, सत्याग्रह, धरना आदि।
→ समाजशास्त्र तथा सामाजिक आन्दोलन-सामाजिक आन्दोलनों का अध्ययन समाजशास्त्र के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
- सामाजिक आन्दोलनों को अव्यवस्था फैलाने वाली शक्तियों के रूप में देखा जाता है। चूंकि अधिकांश सामाजिक आन्दोलन समाज में पहले अव्यवस्था फैलाते हैं, बाद में परिवर्तन लाते हैं । अतः समाजशास्त्र सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए इन सामाजिक आन्दोलनों का अध्ययन करते हैं।
- ई.पी. थॉमसन आदि का मत है कि सामाजिक आंदोलनों में नैतिक अर्थव्यवस्था होती है। उनमें उनकी गतिविधियों के विषय में सही और गलत की साझी समझ होती है।
→ सामाजिक आंदोलनों के उदय के सिद्धान्त-सामाजिक आन्दोलनों के उदय के प्रमुख सिद्धान्त ये हैं
- सापेक्षिक वंचन का सिद्धान्त: सापेक्षिक वंचन के सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक संघर्ष तब उत्पन्न होता है जब एक सामाजिक समूह यह महसूस करता है कि वह अपने आस-पास के अन्य लोगों से खराब स्थिति में है।
- विवेकी अधिकतम उपयोगिता का सिद्धान्त: सामाजिक आन्दोलन में स्वहित चाहने वाले विवेकी व्यक्तिगत अभिनेताओं का पूर्ण योग है। यह सिद्धान्त विवेकी, अधिकतम उपयोगिताकारी व्यक्ति के अभिप्राय पर आधारित है।
- संसाधन गतिशीलता का सिद्धान्त: इस सिद्धान्त के अनुसार आन्दोलन की सफलता संसाधन अथवा विभिन्न प्रकार की योग्यता को गतिशील करने की क्षमता पर निर्भर होती है।
→ सामाजिक आन्दोलनों के प्रकार
- प्रतिदानात्मक सामाजिक आन्दोलन-इसका लक्ष्य अपने व्यक्तिगत सदस्यों की व्यक्तिगत चेतना | तथा गतिविधियों में परिवर्तन लाना होता है।
- सुधारवादी सामाजिक आन्दोलन–वर्तमान सामाजिक तथा राजनीतिक विन्यास को धीमे प्रगतिशील चरणों द्वारा बदलने का प्रयास करता है।
- क्रांतिकारी सामाजिक आन्दोलन-सामाजिक सम्बन्धों के आमूल रूपान्तरण का प्रयास करते हैं।
बहुत से आन्दोलनों में उपर्युक्त तीनों तत्त्व पाये जाते हैं। यह भी हो सकता है कि कोई आन्दोलन पहले क्रांतिकारी हो और फिर सुधारवादी बन जाये। कोई आन्दोलन प्रारम्भ में विरोध की अवस्था से शुरू होकर संस्थात्मक भी बन सकता है।।
→ वर्गीकरण का एक अन्य प्रकार–पुराना तथा नया-पिछली सदी के सर्वाधिक दूरगामी आन्दोलन वर्ग आधारित अथवा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष पर आधारित थे। नए सामाजिक आन्दोलनों के सदस्यों को एक वर्ग और एक राष्ट्र से सम्बन्ध रखने वालों के रूप में वर्गीकृत करना कठिन था।
→ नए सामाजिक आन्दोलनों की पुराने सामाजिक आन्दोलनों से भिन्नता
- पुराने सामाजिक आन्दोलन राजनीतिक दलों के दायरे में काम करते थे। नए सामाजिक आन्दोलन समाज में सत्ता के वितरण को बदलने के बारे में न होकर जीवन की गुणवत्ता जैसे स्वच्छ पर्यावरण के बारे में थे।
- पुराने सामाजिक आन्दोलनों में राजनीतिक दलों की केन्द्रीय भूमिका थी। वे केवल राष्ट्रीय स्तर के होते थे। नए सामाजिक आन्दोलन राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय दोनों स्तर के होते हैं।
क्या हम पुराने तथा नए सामाजिक आन्दोलनों की भिन्नता भारतीय संदर्भ में लागू कर सकते हैं? भारत में महिलाओं, कृषकों, दलितों, आदिवासियों तथा अन्य सभी प्रकार के सामाजिक आन्दोलन हुए हैं। सामाजिक असमानता तथा संसाधनों के असामान्य वितरण के बारे में चिन्ताएँ इन आन्दोलनों में भी आवश्यक तत्त्व बने हुए हैं। साथ ही साथ ये नए सामाजिक आन्दोलन आर्थिक असमानता के पुराने मुद्दों के बारे में नहीं हैं न ही ये वर्गीय आधार पर संगठित हैं। पहचान की राजनीति, सांस्कृतिक चिंताएँ तथा अभिलाषाएँ सामाजिक आन्दोलनों की रचना करने के आवश्यक तत्त्व हैं तथा इनकी उत्पत्ति वर्ग आधारित असमानता में ढूँढ़ना कठिन है। प्रायः ये सामाजिक आन्दोलन वर्ग की सीमाओं के आर-पार से भागीदारों को एकजुट करते हैं । अतः इन आन्दोलनों को नए सामाजिक आन्दोलन ही कहा जा सकता है।
→ पारिस्थितिकीय आन्दोलन: आधुनिक काल के अधिकतर भाग में सर्वाधिक जोर विकास पर दिया गया है। दशकों से प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित उपयोग तथा विकास के ऐसे प्रतिरूप के निर्माण में, जिससे पहले से घटते प्राकृतिक संसाधनों के अधिक शोषण की माँग बढ़ती है, के विषय में बहुत चिंता प्रकट की जाती रही है। साथ ही विकास में बड़े बाँध लोगों को उनके घरों और जीवनयापन के स्रोतों से अलग कर देते हैं। औद्योगिक प्रदूषण फैलता है। इसके विरोध में भारत में चिपको आन्दोलन हुआ है।
→ चिपको आन्दोलन: चिपको आन्दोलन ने पारिस्थितिकीय सुरक्षा के मुद्दों को उठाया। इन आन्दोलनकारियों के अनुसार प्राकृतिक जंगलों को काटा जाना पर्यावरणीय विनाश का एक रूप था जिसके परिणामस्वरूप विनाशकारी बाढ़ तथा भूस्खलन होते हैं। इस आंदोलन ने पर्वतीय गाँववासियों के रोष के सम्मुख प्रदर्शित किया। अर्थव्यवस्था, पारिस्थितिकीय तथा राजनैतिक प्रतिनिधित्व की चिन्ताएँ चिपको आंदोलन का आधार थीं।
→ वर्ग आधारित आन्दोलन A. किसान आन्दोलन
- औपनिवेशिक काल से पहले प्रारम्भ ।
- किसान आन्दोलन का मुख्य कारण नील की खेती के विरुद्ध, साहूकारों के विरोध में, लगान विरोध अभियान, भूमिकर न देने इत्यादि थे। उदाहरण दक्कन विद्रोह, बारदोली सत्याग्रह, चंपारण सत्याग्रह।
- 1936 में किसान सभा ने किसानों, कामगारों तथा अन्य सभी वर्गों की आर्थिक शोषण से मुक्ति की माँग की।
→ स्वतंत्रता के समय हमें दो मुख्य किसान आन्दोलन देखने को मिले हैं
- तिभागा आन्दोलन और
- तेलंगाना आन्दोलन।
B. किसान आन्दोलन स्वतंत्रता के पश्चात्
- किसान आन्दोलन का मुख्य कारण मूल्य और सम्बन्धित मुद्दे थे जैसे कीमत वसूली, लाभप्रद कीमतें, कृति निवेश की कीमतें, टैक्स उधार की वापसी इत्यादि।
- उदाहरण गुरिल्ला आन्दोलन, नक्सलवादी आन्दोलन ।
- विरोध के तरीके-हिंसा, उपद्रव के नए तरीके सड़कों व रेलमार्गों को बंद करना, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों के लिए गाँव में मनाही।
→ कामगारों का आन्दोलन
- औपनिवेशिक काल में आरम्भ: इस समय कामगारों ने वेतन तथा कार्य की दशाएँ सुधारने के लिए आन्दोलन किए। इन आन्दोलनों की कार्यवाही संपोषित के स्थान पर स्वतःस्फूर्त ज्यादा थी।
- उदाहरण कलकत्ता के पटसन कामगारों ने काम रोका। मद्रास की बकिंघम की मिल के कामगारों ने | वेतन वृद्धि के बढ़ाने की माँग को लेकर काम बंद किया।
- सर्वप्रथम 1918 में मजदूर संघ टी.एल.ए. की स्थापना की। 1920 में एटक की स्थापना हुई। एटक की स्थापना से मजदूर के कार्य घण्टों का निर्धारण हुआ।
- स्वतंत्रता के बाद एक अन्य मजदूर संघ-भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन की स्थापना हुई।
- इसके बाद राष्ट्रीय स्तर के मजदूर संघों का विघटन हुआ तथा क्षेत्रीय दलों ने स्वयं के संघों की स्थापना की।
- वर्तमान में भूमण्डलीकरण के समकालीन संदर्भ में मजदूर संघों के सामने नई चुनौतियाँ आई हैं।
→ जाति-आधारित आन्दोलन
दलित आन्दोलन-
- दलितों के सामाजिक आन्दोलन एक विशिष्ट चरित्र दर्शाते हैं क्योंकि आर्थिक शोषण और राजनैतिक दबाव के पहलुओं के साथ-साथ इसके अन्य प्रमुख पहलू हैं-क्योंकि यह
- मानव के रूप में पहचान प्राप्त करने का संघर्ष
- आत्मविश्वास व आत्मनिर्णय का स्थान पाने का संघर्ष तथा
- अस्पृश्यता को समाप्त करने का संघर्ष है।
- इनके सतनामी आन्दोलन, पंजाब के धर्म आन्दोलन, महाराष्ट्र के महार आन्दोलनों में समानता, आत्मसम्मान तथा अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु समानता की खोज रही है।
- समसामयिक काल में दलित आन्दोलन ने जनमंडल में निर्विवाद रूप से स्थान प्राप्त कर लिया है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
- दलित साहित्य पूर्णरूपेण चतुर्वर्ण व्यवस्था तथा जाति संस्तरण के विरुद्ध है। पिछड़े वर्ग एवं जातियों के आन्दोलन
- पिछड़ी जातियों, वर्गों का राजनीतिक इकाइयों के रूप में उदय औपनिवेशिक तथा उपनिवेशोत्तर दोनों संदर्भो में हुआ।
- पिछड़े वर्गों की संज्ञा का प्रयोग देश के विभिन्न भागों में 19वीं सदी के अंत से किया जा रहा है।
- पिछड़ी जातियों, वर्गों का यह आन्दोलन अपनी सामाजिक दशा सुधारने, सामाजिक तथा राजनीतिक पहचान के लिए किया गया।
- पिछड़े वर्ग के आन्दोलन के उदाहरण हैं-हिन्दू पिछड़ा वर्ग लीग, अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग लीग । 1954 में पिछड़े वर्गों के लिए 88 संगठन काम कर रहे थे।
→ जनजातीय आन्दोलन
- जनजातीय आन्दोलनों में से कई अधिकांश रूप से मध्य भारत की तथाकथित 'जनजातीय बेल्ट' में स्थित रहे हैं, जैसे-छोटा नागपुर व संथाल, हो, ओरांव व मुंडा आदि।
- जनजातीय आन्दोलन के कारण हैं
- ऋणों, किराए तथा सहकारी कों का संग्रह, जिसका प्रतिकार किया गया।
- वन उत्पाद का राष्ट्रीयकरण, जिसका उन्होंने बहिष्कार किया।
- जनजातीय आन्दोलन के उदाहरण हैं-झारखंड आन्दोलन, उत्तराखंड आन्दोलन आदि।
- झारखंड आन्दोलन-अलग राज्य बनाने की माँग, सिंचाई परियोजनाओं तथा गोलीबारी क्षेत्र के लिए भूमि का अधिग्रहण, रुके हुए सर्वेक्षण तथा पुनर्वास की कार्यवाही, बन्द कर दिए कैंप इत्यादि मुद्दों के विरुद्ध था।
- पूर्वोत्तर के जनजातीय आंदोलन अपनी पृथक् पहचान और पारम्परिक स्वायत्तता को लेकर हुए।
- एक मुख्य मुद्दा जो देश के सभी जनजातीय आन्दोलनों को जोड़ता है, वह है-जनजातीय लोगों का वन भूमि से विस्थापन।
→ महिलाओं का आन्दोलन
- 19वीं सदी के समाज-सुधार आन्दोलनों ने महिलाओं से सम्बन्धित अनेक मुद्दे उठाये थे।
- 20वीं सदी के प्रारम्भ में राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर पर महिलाओं के संगठनों में वृद्धि हुई।
- भारत के महिला संगठनों में प्रमुख हैं-अखिल भारतीय महिला कॉन्फ्रेंस, भारत में महिलाओं की राष्ट्रीय काउंसिल इत्यादि।
- इन आन्दोलन की शुरुआत सीमित कार्यक्षेत्र से शुरू हुई। इनका कार्यक्षेत्र समय के साथ विस्तृत हुआ।
- 1970 के दशक के मध्य में भारत में स्वायत्त महिला आन्दोलन का नवीनीकरण हुआ। इसे भारतीय महिला आन्दोलन का दूसरा दौर भी कहते हैं।
- महिला आन्दोलन के मुख्य मुद्दे भू-स्वामित्व व रोजगार के मुद्दों की लड़ाई, यौन उत्पीड़न तथा दहेज के विरुद्ध अधिकारों की माँग के साथ लड़ी गई।
- इनमें संगठन, विचारधारा, नेतृत्व, एक साझी समझ तथा जन-मुद्दों पर परिवर्तन लाने का लक्ष्य था।