These comprehensive RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 6 भूमंडलीकरण और सामाजिक परिवर्तन will give a brief overview of all the concepts.
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→ भूमण्डलीकरण शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न विषयों में भिन्न-भिन्न पक्षों के संदर्भ में किया जाता है। उदाहरण, अर्थशास्त्र में आर्थिक आयाम, राजनीतिशास्त्र में सरकारों की बदलती हुई भूमिका पर, समाजशास्त्र में व्यक्ति और समाज, सूक्ष्म और स्थूल, व्यष्टि एवं समष्टि (माइक्रो एवं मैक्रो), स्थानीय एवं भूमण्डलीय के बीच के सम्बन्धों के भाव को समझने के लिए किया जाता है।
भूमण्डलीकरण के तहत सरकार सार्वजनिक हित में विभिन्न नीतियाँ अपनाती है जिसके कारण दुनिया के विभिन्न भागों में उत्पादित वस्तुएँ बाजारों में मिलने लगी हैं। एक टेलीविजन चैनल की बजाय विभिन्न चैनल दिखाई देते हैं। गाँव व समाज बाहरी दुनिया से जुड़ गया है। भूमण्डलीकरण का प्रभाव अलग-अलग समाज/ व्यक्ति/व्यवसाय पर अलग-अलग पड़ा है। भूमण्डलीकरण से कुछ लोगों को रोजगार के नए-नए अवसर उपलब्ध हो गए हैं तो कुछ को आजीविका की हानि हो गई है।
→ क्या भूमण्डलीकरण के अन्तःसम्बन्ध विश्व और भारत के लिए नए हैं ?
→ भूमण्डलीकरण की समझ
भूमण्डलीकरण का अर्थ समूचे विश्व के सामाजिक एवं आर्थिक सम्बन्धों के विस्तार के कारण विश्व में विभिन्न भागों, क्षेत्रों एवं देशों के मध्य अन्तःनिर्भरता की वृद्धि से है । यद्यपि आर्थिक शक्तियाँ भूमण्डलीकरण का अभिन्न अंग हैं, लेकिन अकेली वे शक्तियाँ ही भूमण्डलीकरण को उत्पन्न नहीं करती हैं। भूमण्डलीकरण सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों के विकास के द्वारा ही सबसे आगे बढ़ा है। इन प्रौद्योगिकियों ने विश्वभर में लोगों के बीच अन्तःक्रिया की गति एवं क्षेत्र को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है। राजनीतिक संदर्भ में भी इसका विस्तार हुआ है। इस प्रकार भूमण्डलीकरण में
→ भूमण्डलीकरण के विभिन्न आयाम
आर्थिक आयाम: भारत में राज्य (सरकार) ने 1991 में अपनी आर्थिक नीति में जो परिवर्तन किया उन परिवर्तनों को उदारीकरण की नीतियाँ कहा जाता है।
(अ) उदारीकरण की आर्थिक नीति-'उदारीकरण' शब्द का तात्पर्य ऐसे अनेक नीतिगत निर्णयों से है जो भारत राज्य द्वारा 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व-बाजार के लिए खोल देने के उद्देश्य से किए गए थे। भारत में उदारीकरण की आर्थिक नीति की प्रमुख विशेषताएँ हैं
(ब) पारराष्ट्रीय निगम-भूमण्डलीकरण को प्रेरित एवं संचालित करने वाले अनेक आर्थिक कारकों में से पारराष्ट्रीय निगमों की भूमिका विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण रहती है। पारराष्ट्रीय निगम ऐसी कम्पनियाँ होती हैं, जो एक से अधिक देशों में अपने माल का उत्पादन करती हैं या बाजार में सेवाएँ प्रदान करती हैं। ये छोटी फर्मे भी हो सकती हैं जिनके एक या दो कारखाने उस देश से बाहर होते हैं, जहाँ वे मूलरूप में स्थित हुआ करती हैं। ये बड़े विशाल अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान भी हो सकते हैं जिनका कारोबार सम्पूर्ण भूमण्डल में फैला हुआ हो, जैसे-कॉलगेट-पामोलिव, कोडेक आदि। ये भूमण्डलीय बाजारों तथा भूमण्डलीय लाभों की ओर उन्मुख रहते हैं।
(स) इलेक्ट्रॉनिक अर्थव्यवस्था-एक अन्य कारक, इलेक्ट्रॉनिक अर्थव्यवस्था भी आर्थिक भूमण्डलीकरण को सहारा देती है। कम्प्यूटर के माउस को दबाने मात्र से बैंक, निगम, निधि, प्रबंधक और निवेशकर्ता अपनी निधि को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इधर से उधर भेज सकते हैं।
(द) भाररहित अर्थव्यवस्था या ज्ञानात्मक अर्थव्यवस्था-भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था अब प्राथमिक रूप से भाररहित या ज्ञानात्मक अर्थव्यवस्था पर आधारित होती है, जिसके उत्पाद सूचना पर आधारित होते हैं, जैसेकम्प्यूटर सॉफ्टवेयर मीडिया इन्टरनेट आधारित सेवाएँ। ज्ञानात्मक अर्थव्यवस्था वह होती है जिसमें अधिकांश कार्य-बल वस्तुओं के डिजाइन, विकास, प्रौद्योगिकी विपणन बिक्री और सर्विस आदि में लगा रहता है।
(य) वित्त का भूमण्डलीकरण-सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के कारण पहली बार वित्त का भूमण्डलीकरण हुआ है। भूमण्डलीय आधार पर एकीकृत वित्तीय बाजार इलेक्ट्रॉनिक परिपथों में, कुछ ही क्षणों में अरबों-खरबों डॉलर के लेन-देन कर डालते हैं। पूँजी और प्रतिभूति बाजारों में चौबीसों घंटे व्यापार चलता रहता है। न्यूयार्क, टोकियो, लंदन, मुम्बई वित्तीय व्यापार के केन्द्र हैं।
→ भूमण्डलीय संचार: विश्व में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र और दूरसंचार के आधारभूत ढाँचे में हुई महत्त्वपूर्ण उन्नति के कारण भूमण्डलीय संचार व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, अब कुछ घरों और बहुत-से कार्यालयों में बाहरी दुनिया के साथ सम्बन्ध बनाए रखने के अनेक साधन मौजूद हैं; जैसे-टेलीफोन, फैक्स मशीनें, डिजिटल और केबल टेलीविजन, इलेक्ट्रॉनिक मेल और इंटरनेट इत्यादि।
→ भूमण्डलीकरण और श्रम: भूमण्डलीकरण से एक नया अन्तर्राष्ट्रीय श्रम-विभाजन उभर आया है जिसमें तीसरी दुनिया के शहरों में अधिकाधिक नियमित निर्माण-उत्पादन और रोजगार किया जाता है। इसमें उत्पादन बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक प्रबंधन का सहारा लिया जाता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से कुछ निश्चित फसलें उगाने की संविदा की जाती है जिन्हें ये कम्पनियाँ उनसे निर्यात हेतु खरीद लेती हैं। इसी तरह कम्पनियाँ सस्ते श्रम का उपयोग करने हेतु 'बाह्य स्रोतों का उपयोग' करती हैं। जैसे नाइके कम्पनी ने सस्ते श्रम का उपयोग करने के लिए जूतों के उत्पादन के विश्व के विभिन्न देशों में परिवर्तन किया।
→ भूमण्डलीकरण और रोजगार: भूमण्डलीकरण का रोजगार पर असमान प्रभाव देखा गया है। यह नगरीय केन्द्रों के मध्यवर्गीय युवाओं के लिए भूमण्डलीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति ने रोजगार के नए-नए अवसर खोल दिए हैं। अब लोग पास-कोर्स की डिग्री लेने के बजाय, कम्प्यूटर भाषाएँ सीख रहे हैं या कॉल सेंटरों में या बी.पी.ओ. कम्पनियों की नौकरी कर रहे हैं। फिर भी रोजगार की प्रवृत्तियाँ मोटे तौर पर निराशाजनक ही हैं। क्योंकि वर्ष 2003-04 के बीच एशिया और प्रशान्त क्षेत्र में जनसंख्या में 7 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर थी, जबकि रोजगार के अवसरों की वृद्धि दर 1.6 प्रतिशत ही थी।
→ भूमण्डलीकरण और राजनीतिक परिवर्तन: 'भूतपूर्व समाजवादी विश्व का विघटन' अनेक दृष्टियों से एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन था, जिसने भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को और तेज कर दिया, फलस्वरूप भूमण्डलीकरण को सहारा देने वाली आर्थिक नीतियों के प्रति एक विशिष्ट आर्थिक और राजनीतिक दष्टिकोण उत्पन्न हो गया। इन परिवर्तनों को नव-उदारवादी आर्थिक उपाय कहा जाता है। इन नीतियों में मुक्त उद्यम सम्बन्धी राजनीतिक दूरदर्शिता प्रतिबिम्बित होती है जिसमें यह विश्वास किया जाता है कि बाजार की शक्तियों का निर्बाध शासन कुशल एवं न्याय-संगत होगा। इसमें राज्य की ओर से विनियमन और सब्सिडी दोनों की आलोचना की जाती है।
→ भूमण्डलीकरण और संस्कृति: भूमण्डलीकरण संस्कृति को कई प्रकार से प्रभावित करता है। भारत सांस्कृतिक प्रभावों के प्रति खुला दृष्टिकोण अपनाए हुए है और इसी के फलस्वरूप वह सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध होता जा रहा है। हमारे समाज में राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों के साथ कपड़ों, शैलियों, संगीत, फिल्म, भाषा, हाव-भाव में भी गरमागरम बहस होती है। यद्यपि 19वीं सदी में भी हमारे देश में सुधारक और राष्ट्रवादी नेता संस्कृति और परम्परा पर विचार करते थे। कुछ दृष्टियों में आज भी मुद्दे वैसे ही हैं और कुछ दृष्टियों में भिन्न भी हैं क्योंकि परिवर्तन की व्यापकता और गहनता भिन्न है।
→ सजातीयकरण बनाम संस्कृति का भूस्थानीकरण (ग्लोबलाइजेशन):
→ लिंग और संस्कृति: सांस्कृतिक पहचान के परम्परागत स्वरूप का समर्थन करने वाले लोग महिलाओं के विरुद्ध होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहारों और अलोकतांत्रिक प्रथाओं को सांस्कृतिक पहचान का नाम देकर बचाव करते हैं। इस प्रकार की अनेक प्रथाएँ प्रचलित रही हैं; जैसे सती प्रथा से लेकर महिलाओं की शिक्षा तथा उन्हें सार्वजनिक कार्यकलापों से दूर रखना। महिलाओं के प्रति अन्यायपूर्ण प्रथाओं का समर्थन करने के लिए भूमण्डलीकरण का हौवा भी खड़ा किया जा सकता है। भारत एक लोकतांत्रिक परम्परा और संस्कृति को अक्षुण्ण रखने एवं विकसित करने में सफल रहा है जिससे कि हम संस्कृति को अधिक समावेशात्मक एवं लोकतांत्रिक रूप में परिभाषित कर सकते हैं।
→ संस्कृति: संस्कृति के दो रूप हैं
उपभोग संस्कृति-भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया नगरों को एक रूप प्रदान करने की प्रक्रिया है। 1970 के दशक तक ये उत्पादन उद्योग नगरों की वृद्धि में प्रमुख भूमिका निभाते रहे हैं। लेकिन अब सांस्कृतिक उपभोग (कला, खाद्य, फैशन, संगीत, पर्यटन) अधिकतर नगरों की वृद्धि को एक आकार प्रदान करता है। भारत के सभी बड़े शहरों में शॉपिंग मॉल्स, बहुविध सिनेमाघरों, मनोरंजन उद्यानों और जलक्रीड़ा स्थलों के विकास में तेजी आई है। विज्ञापन और जनसम्पर्क के सभी माध्यम एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं जिसमें पैसा खर्च करना ही महत्त्वपूर्ण है। पैसे को संभालकर रखना अब कोई गुण नहीं रहा।। मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड जैसी प्रतियोगिताएँ सौन्दर्य प्रसाधन एवं स्वास्थ्य उत्पादों को बढ़ावा दे रही हैं।
→ निगम संस्कृति: निगम संस्कृति प्रबन्धन सिद्धान्त की एक ऐसी शाखा है जो किसी फर्म के सभी सदस्यों को साथ लेकर एक संगठनात्मक संस्कृति के निर्माण के माध्यम से उत्पादकता और प्रतियोगितात्मकता को बढ़ावा देने का प्रयत्न करती है। ऐसा माना जाता है कि एक गतिशील निगम संस्कृति, जिसमें कम्पनी के कार्यक्रम, रीतियाँ एवं परम्पराएँ शामिल होती हैं, कर्मचारियों में वफादारी की भावना को बढ़ाती है और समूह एकता को प्रोत्साहन देती है। वह यह भी बताती है कि काम करने का तरीका क्या है और उत्पादों को कैसे बढ़ावा दिया जाए और उनको कैसे पैक किया जाए।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रसार और सूचना प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप अवसरों की उपलब्धता में वृद्धि से प्रोफेशनलों का एक वर्ग बन गया है जो विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत है। इन महत्त्वाकांक्षी व्यावसायिकों की कार्य अनुसूची अत्यन्त तनावपूर्ण होती है और बाजार में तेजी से बढ़ते उपभोक्ता उद्योगों के उत्पादों के वे ही प्रमुख ग्राहक होते हैं।
→ अनेक स्वदेशी शिल्प, साहित्यिक परम्पराओं और ज्ञान व्यवस्थाओं को खतरा आधुनिक विकास ने भूमण्डलीकरण की अवस्था से पहले भी परम्परागत सांस्कृतिक रूपों और उन पर आधारित व्यवसायों में अपनी घुसपैठ बना ली थी। लेकिन अब परिवर्तन का अनुपात और उसकी गहनता पहले की तुलना में अत्यधिक तीव्र है। उदाहरण के लिए, आन्ध्र प्रदेश के करीमनगर जिले के सरसिला गाँव और उसी राज्य के मेढ़क जिले के डुबक्का गाँव के पारम्परिक बुनकरों द्वारा बड़ी संख्या में आत्महत्या की गई क्योंकि इन बुनकरों के पास बदलती हुई उपभोक्ता रुचियों के अनुरूप अपने आपको ढालने और विद्युतकों से मुकाबला करने के लिए प्रौद्योगिकी में निवेश के कोई साधन नहीं थे।
इसी प्रकार परम्परागत ज्ञान व्यवस्थाओं के विभिन्न रूप जो आयुर्विज्ञान और कृषि के क्षेत्रों से सम्बन्धित थे, सुरक्षित रखे गए हैं, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे जाते रहे हैं। तुलसी, रुद्राक्ष, हल्दी, बासमती चावल के प्रयोग को बहुराष्ट्रीय कम्पनी द्वारा पेटेंट कराने के प्रयत्न से स्वदेशी ज्ञान को धक्का लगा है। उनसे स्वदेशी ज्ञान व्यवस्थाओं के आधार को बचाने की आवश्यकता प्रकाश में आई है।