RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

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RBSE Class 12 Sociology Chapter 5 Notes सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

→ सामाजिक विषमता और बहिष्कार हमारे जीवन की वास्तविकता है जो कि हमें समाज में सर्वत्र दिखाई देती हैं। सफाईकर्मी, घरेलू नौकर अथवा विद्यालयों के छात्र हों, हमें यह विषमता और बहिष्कार देखने को मिल जाते हैं। इनके साथ जातिगत भेदभाव होता है तथा महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा को भी देखा जा सकता है।

→ सामाजिक. विषमता और बहिष्कार सामाजिक कैसे हैं

  • सामाजिक बहिष्कार और विषमता सामाजिक इसलिए हैं क्योंकि ये व्यक्ति से नहीं अपितु समूह से सम्बन्धित हैं।
  • ये सामाजिक हैं क्योंकि ये आर्थिक नहीं हैं।
  • ये व्यवस्थित एवं संरचनात्मक हैं। अर्थात् इसका एक निश्चित स्वरूप है।

RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

→ सामाजिक विषमता: प्रत्येक समाज में कुछ लोगों के पास धन-संपदा, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं शक्ति जैसेमूल्यवान संसाधन का दूसरों की अपेक्षा ज्यादा हिस्सा होता है । सामाजिक संसाधन पूँजी के तीन रूपों में विभाजित किये गये हैं

  • भौतिक सम्पत्ति और आय के रूप में आर्थिक पूँजी
  • प्रतिष्ठा एवं शैक्षणिक योग्यताओं के रूप में सांस्कृतिक पूँजी
  • सामाजिक संगतियों एवं सम्पर्क के जाल के रूप में सामाजिक पूँजी। ये सभी परस्पर सम्बन्धित हैं।

सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति ही सामान्य रूप से सामाजिक विषमता कहलाती है। कुछ सामाजिक विषमताओं को व्यक्तियों के बीच स्वाभाविक भिन्नताओं के रूप में देखा जा सकता है। सामाजिक विषमता उस समाज के द्वारा उत्पन्न की जाती है जिसमें हम रहते हैं।

→ सामाजिक स्तरीकरण: सामाजिक विषमता की व्यवस्था समाज के लोगों का वर्गीकरण करते हुए लोगों को अधिक्रमित संरचना में श्रेणीबद्ध करती है, जिसे सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है। इसके तीन सिद्धान्त इसकी व्याख्या करते हैं

  • सामाजिक स्तरीकरण व्यक्तियों के बीच की विभिन्नता का प्रकार्य ही नहीं अपितु समाज की एक विशिष्टता है। जो सामाजिक संसाधनों को, लोगों को विभिन्न श्रेणियों में असमान रूप से बाँटती है।
  • सामाजिक स्तरीकरण पीढ़ी दर पीढ़ी बना रहता है, जिसमें बच्चे को अपने माता-पिता से प्रस्थिति प्राप्त होती है। जाति व्यवस्था इसी का एक रूप है।
  • सामाजिक स्तरीकरण को विश्वास और विचारधारा के द्वारा समर्थन प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए, जाति व्यवस्था को धार्मिक और कर्मकाण्डीय दृष्टिकोण से शुद्धता और अशुद्धता के आधार पर न्यायोचित ठहराया जाता है।

→ लोग बहिष्कार के शिकार क्यों-अधिकांशतः लोग अपने लिंग, वर्ग, नृजातीयता, भाषा, जाति और विकलांगता के कारण ही भेदभाव और बहिष्कार के शिकार होते हैं। अभिजात्य वर्ग की महिलायें भी सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न का शिकार हो सकती हैं। पूर्वाग्रह भी सामाजिक बहिष्कार के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं। भेदभाव के अन्तर्गत एक समूह के लिए उन अवसरों का निषेध कर दिया जाता है जो कि दूसरे समूहों के लिए खुले होते हैं।

→ सामाजिक अपवर्जन और बहिष्कार:
सामाजिक बहिष्कार वे तौर-तरीके हैं जिनके द्वारा किसी व्यक्ति अथवा समूह को समाज में पूरी तरह से घुलने-मिलने से रोका जाता है और उसे समाज से पृथक् रखा जाता है। यह भेदभाव आकस्मिक न होकर व्यवस्थित तरीके से होता है। सामाजिक बहिष्कार अनैच्छिक होता है जो कि बहिष्कृत लोगों की इच्छाओं के विरुद्ध क्रियान्वित किया जाता है। इसमें बहिष्कृत व्यक्तियों को समाज की मुख्य धारा से मिलने से रोक दिया जाता है, जैसे भारत में ये भेदभाव अपने चरम रूप में पाया जाता है।
इतिहास की विभिन्न अवधियों में जाति, लिंग और धार्मिक भेदभावों के विरुद्ध आन्दोलन भी हुए हैं, फिर भी पूर्वाग्रह बने हुए हैं। अकेले कानून के द्वारा इसे समाप्त करके सामाजिक परिवर्तन नहीं लाये जा सकते हैं। इन्हें समाप्त करने के लिए शिक्षा, जागरूकता और संवेदनशीलता के साथ-साथ सामाजिक अभियान की आवश्यकता है। जाति और जनजाति सामाजिक विषमता को कायम रखती है।।

→ जाति : एक भेदभावपूर्ण व्यवस्था-जाति व्यवस्था एक विशिष्ट भारतीय संस्था है जो कि विशेष जातियों में पैदा हए व्यक्तियों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण व्यवहार को लागू करती है और उसे न्यायसंगत ठहराती है। जाति व्यवस्था में प्रत्येक जाति एक निश्चित व्यवसाय के साथ जुड़ी होती है। प्रत्येक जाति का सामाजिक अधिक्रम में एक निश्चित स्थान होता है। धर्मग्रंथों के अनुसार प्रत्येक जाति को सामाजिक और आर्थिक प्रस्थिति से अलग रखा जाता है। जाति अधिक्रम के अनुसार ही प्रत्येक व्यक्ति का समाज व्यवस्था में स्थान होता है।

  • जाति के अनुरूप ही लोगों की प्रस्थितियों का समाज में निर्धारण होता था। आर्थिक स्थिति भी इससे जुड़ी होती थी। उच्च जातियाँ निश्चित रूप से उच्च आर्थिक स्थिति वाली होती थीं जबकि निम्न जातियाँ निम्न आर्थिक स्थिति वाली होती थीं।
  • 19वीं सदी में जाति और व्यवसाय के बीच सम्बन्ध काफी ढीले हुए हैं। धार्मिक प्रतिबन्ध भी पहले की अपेक्षा कमजोर पड़े हैं। आज काफी सीमा तक व्यवसायों को परिवर्तित करना आसान हो गया है। जाति और व्यवसाय के सम्बन्ध चाहे ढीले पड़ गये हों फिर भी यह आज भी बने हुए हैं। उच्च और निम्न समूहों के बीच चाहे आर्थिक फासले कमजोर हो गये हों परन्तु विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के बीच जाति के आधार पर आज भी अन्तर बना हुआ है।
  • यद्यपि यह सही है कि समाज में निश्चित रूप से बदलाव आये हैं परन्तु ये परिवर्तन व्यापक रूप से नहीं हुए हैं। आज भी साधन-सम्पन्न और उच्च पदों पर आसीन बैठे लोगों में उच्च जातियों के लोग ही अधिक हैं, जबकि आर्थिक दृष्टि से वंचित लोगों में निम्न जातियों के लोगों की प्रधानता है। सम्पन्न तथा निर्धन वर्गों के बीच में भी काफी अन्तर पाया जाता है।

RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

→ अस्पृश्यता-अस्पृश्यता अथवा छुआछूत जाति व्यवस्था का एक दूषित और घृणित पक्ष है जो कि धार्मिक और कर्मकाण्डीय दृष्टि से शुद्धता और अशुद्धता के पैमाने पर दलितों के विरुद्ध कठोर अनुशास्तियों का प्रावधान करता है। सही अर्थों में दलित जातियों के लोगों के लिए जाति अधिक्रम में कोई स्थान ही नहीं होता था। ये लोग अशुद्ध माने जाते थे, जिनकी परछाईं मात्र से ब्राह्मण अपवित्र हो जाते थे।

→ अस्पृश्यता के तीन प्रमुख आयाम हैं

  • अपवर्जन और बहिष्कार
  • अनादर और अधीनता
  • शोषण। दलित अथवा अस्पृश्य लोगों को सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता था।

सार्वजनिक स्थल, कुएँ, तालाब, मन्दिर, पाठशाला सभी का इन लोगों के लिए निषेध होता था। इन लोगों को बेगार देनी पड़ती और काम के बदले मजदूरी भी कम दी जाती थी। वास्तव में अस्पृश्यता एक अखिल भारतीय प्रघटना है। दलित जातियों के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाता था। आज कानून के द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग करना अपराध घोषित कर दिया गया है। 1930 में गाँधीजी के द्वारा अस्पृश्यों के लिए हरिजन शब्द दिया गया। बाद में अस्पृश्य और उनके नेताओं के द्वारा दलित शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। दलित शब्द उत्पीड़न का प्रतीक है।

→ जातियों और जनजातियों के प्रति भेदभाव मिटाने के लिए राज्य और अन्य संगठनों द्वारा उठाये गये कदम: 1935 में ब्रिटिश भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सूची तैयार की गई थी जिनमें उन जातियों के नाम दिये गये जिनके साथ भेदभाव बरता जाता था और जो विशेष बर्ताव की पात्र थीं। इसे लागू रखा गया। इसी क्रम में 1990 में अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में कई जातियों के नाम जोड़े गये।

अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है, जो कि संसद, राज्य विधान मण्डल, सरकारी नौकरियों और सभी शिक्षण संस्थाओं में प्रावधान किये गये हैं। सरकार के द्वारा विभिन्न विकास कार्यक्रमों में भी यही प्रावधान किये हैं। कई कानून भी इन जातियों के संरक्षण के उद्देश्य से बनाये गये हैं-1850 का जातीय निर्योग्यता अधिनियम, 2005 में 93वां संविधान संशोधन अधिनियम। 93वें संशोधन के द्वारा उच्च शिक्षण संस्थाओं में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण के प्रावधान किये गये हैं। संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है। 1989 में अत्याचार निवारण अधिनियम बनाया गया जिसके अन्तर्गत इन पर अत्याचार करना गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है। दलित जातियों की स्थिति को सुधारने के लिए कई आन्दोलन हुए। समाज सुधारकों के द्वारा इस कार्य में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई गई। इनमें से प्रमुख हैं-ज्योतिबा फुले, इयोतीदास, पेरियार और अम्बेडकर। आज भी दलितों को अधिकार दिलाने के लिए आन्दोलन चलाये जा रहे हैं।

→ अन्य पिछड़ा वर्ग: अन्य पिछड़ा वर्ग को नकारात्मक रूप से परिभाषित किया गया है। इस वर्ग के लोग न तो उच्च कही जाने वाली जातियों के हिस्से हैं और न ही यह निम्नतर सोपान में स्थित दलित जातियों के अन्दर ही आते हैं। इसमें केवल हिन्दू जातियाँ ही शामिल नहीं हैं अपितु अन्य जातियों के लोग भी आ गये हैं। इनकी भी समान व्यावसायिक पहचान होती है और इनकी सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति भी वैसी ही अथवा उनसे बदतर है।

अन्य पिछडे वर्ग के लिए कई आयोग बने। काका कालेलकर आयोग ने 1953 में अपनी रिपोर्ट पेश की। लेकिन इसकी सिफारिशों को लागू नहीं किया गया। जनता पार्टी सरकार के द्वारा 1970 में मण्डल आयोग को बनाया गया। 1990 में मण्डल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया। आज देश की कुल जनसंख्या में 41 प्रतिशत लोग अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में आते हैं। आज यह वर्ग विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक बन गया है।

→ आदिवासी संघर्ष: आदिवासी लोग देश के विभिन्न भागों में निवास करते आये हैं। आदिवासी संघर्ष के लिए औपनिवेशिक शासन की नीतियाँ उत्तरदायी रहीं। आदिवासी क्षेत्रों में जंगल और खनिजों पर औपनिवेशिक सरकार का अधिकार हो गया। आदिवासी अपनी परम्परागत भूमि और संसाधनों से वंचित हो गये। इनके द्वारा झूमिंग कृषि को बन्द कर दिया गया। जनजातीय लोगों को सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया। इनके लिए आजीविका के सभी स्रोत बन्द हो गये। स्वतंत्र भारत में सरकारी नीतियों के कारण भी जनजातियों में असन्तोष बढ़ा।

राष्ट्रीय विकास तथा संवृद्धि के नाम पर आदिवासी लोगों को बेदखल किया गया परन्तु इनका पुनर्वास नहीं किया गया। रेल लाइनें बिछाने, बाँध बनाने अथवा विद्युत परियोजनाओं के निर्माण, खनन अथवा विकास कार्यों के नाम पर आदिवासी लोगों का हर प्रकार से शोषण किया गया। सेठ और साहूकार, प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के द्वारा आदिवासी लोगों का शोषण किया गया। इन सभी कारणों से आदिवासी लोगों के द्वारा संघर्ष किये जाते रहे हैं। झारखण्ड और छत्तीसगढ़ राज्यों का अस्तित्व इसी आदिवासी आन्दोलनों का परिणाम है।

RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 5 सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

→ स्त्रियों की समानता और अधिकारों के लिए संघर्ष: समाजशास्त्रियों के अनुसार स्त्रियों और पुरुषों के बीच असमानता प्राकतिक न होकर सामाजिक है। अधिकांश समाजों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की स्थिति कमजोर पाई जाती है। यद्यपि कुछ जनजातीय समाजों में मातृवंशीय परिवार भी पाये जाते हैं तथा स्त्रियों को उत्तराधिकार भी दिया जाता है।

→ आधुनिक भारत में महिलाओं की स्थिति और आन्दोलन: उन्नीसवीं सदी में पाश्चात्य शिक्षा तथा लोकतांत्रिक मूल्यों से प्रभावित लोगों के द्वारा महिलाओं के अधिकारों के लिए आन्दोलन आरम्भ किये गये। बंगाल में राजा राममोहन राय के द्वारा सती प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन का नेतृत्व किया गया। रानाडे के द्वारा विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए आन्दोलन चलाया गया। ज्योतिबा फुले के द्वारा लैंगिक असमानता और जातीय अत्याचारों के विरुद्ध आन्दोलन चलाया गया। राजा राममोहन राय के द्वारा 'ब्रह्म समाज' के माध्यम से एक ओर जहाँ सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों का विरोध किया गया तो दूसरी ओर नारी अधिकारों का समर्थन भी किया गया। रानाडे और राममोहन राय तो 19वीं सदी के ऐसे समाज सुधारक थे जो कि तथाकथित उच्च जातियों और मध्य वर्ग के थे। ज्योतिबा फुले जो कि दलित जाति से सम्बन्धित थे, उन्होंने 'सत्य शोधक समाज' के माध्यम से समाज सुधार आन्दोलन का नेतृत्व किया था।

सर सैयद अहमद खान के द्वारा पाश्चात्य विचारधारा और धर्मग्रंथों का सहारा लेकर मुस्लिम समाज में सुधार करने का प्रयास किया गया। विशेष रूप से उन्होंने महिला शिक्षा पर बल दिया। महाराष्ट्र की गृहिणी ताराबाई शिन्दे के द्वारा पुरुष प्रधान समाज के दोहरे मानदण्डों का विरोध किया गया। बेगम रोकेया के द्वारा 'सुल्तानाज ड्रीम' पुस्तक लिखी गई। 1931 ई. के कांग्रेस के अधिवेशन में स्त्रियों के अधिकारों के बारे में प्रतिबद्धता को स्पष्ट किया गया। 19वीं सदी के सुधार आन्दोलनों में सती, बाल विवाह जैसी कुरीतियों का विरोध तथा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया गया। जबकि 1990 के दशक में पुलिस अभिरक्षा में महिलाओं के साथ बलात्कार, दहेज हत्याओं तथा लैंगिक असमानताओं के विरुद्ध आन्दोलन चलाये गये।

→ अन्यथा सक्षम व्यक्तियों का संघर्ष:

  • अन्यथा सक्षम व्यक्ति केवल इसलिए अक्षम नहीं होता कि वह शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम है, अपितु इसलिए भी अक्षम होता है कि समाज कुछ इस रीति से बना है कि वह उसकी जरूरतों को पूरा नहीं करता है। दलितों तथा आदिवासी और महिलाओं के अधिकारों को पहले ही मान्यता मिल चुकी है परन्तु अभी हाल में ही अन्यथा सक्षम व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता मिली है। अन्यथा सक्षम व्यक्तियों का समाज में सर्वथा अनादर होता है। उन्हें अपमानजनक विशेषणों के द्वारा पुकारा जाता है।
  • अक्षमता सम्बन्धी सामाजिक विचारधारा का एक पहलू और भी है। अक्षमता और गरीबी के बीच अटूट सम्बन्ध पाया जाता है। कुपोषण, बार-बार बच्चों को जन्म देने से कमजोर महिलायें, रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी और भीड़-भरे माहौल लोगों को गरीबी की स्थिति में ला देते हैं । जो कि सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा काफी गम्भीर होती हैं। यही अक्षमता व्यक्ति के लिए ही नहीं अपितु पूरे परिवार के लिए आर्थिक दबाव और पृथक्करण को बढ़ाते हुए गरीबी की स्थिति को पैदा करके उसे और गम्भीर बना देती है।
  • विकलांगों की स्थिति को सुधारने की दिशा में स्वयं विकलांगों के द्वारा ही प्रयत्न नहीं किये गये, अपितु सरकार के द्वारा भी इस दिशा में पहल की गई। सरकार के द्वारा इस सम्बन्ध में घोषणायें की गईं तथा कानूनों का निर्माण भी किया गया।
Prasanna
Last Updated on June 7, 2022, 2:39 p.m.
Published June 7, 2022