These comprehensive RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन will give a brief overview of all the concepts.
RBSE Class 12 Sociology Chapter 4 Notes ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन
→ 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की 67 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में ही रहती है। अतः उनका जीवन कृषि अथवा उससे सम्बन्धित व्यवसायों से चलता है। हमारी बहुत सी सांस्कृतिक रस्में और उनके प्रकार भी कृषि की पृष्ठभूमि से जुड़े होते हैं । अतः ग्रामीण भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना दोनों कृषि और कृषिक जीवन पद्धति से बहुत निकटता से जुड़ी हैं। कृषि के साथ-साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था के जीविका के अन्य स्रोत कारीगर या दस्तकार जैसे कुम्हार, खाती, जुलाहा, लुहार व सुनार, पुजारी, भिश्ती, तेली, धोबी, कुम्हार, सुनार इत्यादि भी हैं। ग्रामीण भारत में व्यवसायों की भिन्नता यहाँ की जाति व्यवस्था को प्रतिबिम्बित करती है । ग्रामीण-नगरीय आर्थिकी के पारस्परिक अन्तःसम्बन्ध से कई अकृषि व्यवसाय गाँवों में भी आ रहे हैं । जैसे-शिक्षक, डाकपाल, डाकिया, सेना की नौकरी आदि इनकी जीविका अकृषि क्रियाकलापों से चलती है।
→ कृषिक संरचना : ग्रामीण भारत में जाति एवं वर्ग
- ग्रामीण समाज में भूमि का विभाजन असमान रूप से होता है। अतः जिसके पास भूमि होती है वो अच्छी अवस्था में होता है और जिसके पास भूमि नहीं होती वे गरीबी रेखा के ऊपर या नीचे होते हैं।
- उत्तराधिकार के नियम और पितृवंशीय नातेदारी व्यवस्था के कारण भारत के अधिकांश भागों में महिलाएँ जमीन की मालिक नहीं होती हैं।
- भूमि स्वामित्व के विभाजन में मध्यम और बड़ी जमीनों के मालिक साधारणतः कृषि से अच्छी आमदनी कर लेते हैं। लेकिन कृषि मजदूरों को निम्नतम मूल्य दिया जाता है, साथ ही उनको रोजगार भी साथ में कुछ महीने ही मिल पाता है।
- कृषक समाज की पहचान उसकी वर्ग संरचना से होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में जाति और वर्ग के सम्बन्ध बड़े जटिल होते हैं। यह जरूरी नहीं कि भूमि उच्च जाति वाले के पास हो। भारत के अधिकांश क्षेत्रों में भूस्वामित्व वाले समूह के लोग शूद्र या क्षत्रिय वर्ग के हैं जिसे एम.एन. श्रीनिवास ने प्रबल जाति का नाम दिया है।
- सामान्यतः प्रबल भूस्वामियों के समूहों के मध्य और ऊँची जातीय समूहों के लोग आते हैं । अतः इनके पास शक्ति एवं विशेषाधिकार होते हैं । सीमान्त किसान और भूमिहीन लोग निम्न जाति समूह जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग आते हैं, जो भूस्वामियों के यहाँ मजदूरी करते हैं। इनके पास कोई शक्ति व अधिकार नहीं होते हैं।
→ भूमि सुधार के परिणाम
औपनिवेशिक काल
- पूर्व औपनिवेशिक काल में कृषिक संरचना: इस काल में कृषिक जाति प्रत्यक्ष रूप से जमीन की मालिक नहीं थी। स्थानीय राजा या जमींदार भूमि पर नियंत्रण रखते थे। किसान अथवा कृषक जो कि उस भूमि पर कार्य करते थे, फसल का एक पर्याप्त भाग इन जमींदारों को देते थे।
- औपनिवेशिक काल में कृषिक संरचना: भारत के बहुत से जिलों का प्रशासन जमींदारी व्यवस्था के द्वारा चलता था। जमींदारी व्यवस्था में ब्रिटिश काल के दौरान कृषकों के शोषण के कारण कृषि उत्पादन कम होने लगा। अन्य क्षेत्रों में यह सीधा ब्रिटिश शासन के अधीन था। इस व्यवस्था में जमींदार के स्थान पर वास्तविक कृषक ही टैक्स चुकाने के लिए जिम्मेदार होता था। इसे रैयतवाड़ी व्यवस्था कहा गया। इसमें टैक्स भार भी कम होता था। अतः इन क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन हुआ और कृषक सम्पन्न हुए।
- स्वतंत्र भारत में कृषिक संरचना: भारत के स्वतंत्र होने के बाद भारत की निराशाजनक कृषि स्थिति को सुधारने के लिए कृषिक संरचना में महत्त्वपूर्ण सुधार किए गए। सन् 1950 से 1970 की अवधि में भूमि सुधार की एक श्रृंखला को शुरू किया गया, जिसमें निम्न सुधार अपनाए गए
- जमींदार व्यवस्था को समाप्त किया गया। इससे कृषक और राज्य के बीच बिचौलियों की फौज समाप्त हो गई।
- पट्टेदारी का उन्मूलन और नियंत्रण अधिनियम द्वारा पट्टेदार को भूमि के अधिकार दे दिए गए।
- भूमि की हदबंदी अधिनियम लागू किए गए, लेकिन ये अप्रभावी रहे।
- इस प्रकार अधिकतर क्षेत्रों में भूमि सुधार का ग्रामीण समाज एवं कृषि सम्बन्ध पर एक सीमित प्रभाव ही पड़ा।
→ हरित क्रांति और इसके सामाजिक परिणाम
(अ) हरित क्रांति का प्रथम चरण (1960-70 का दशक)-1960-70 के दशकों में हरित क्रांति कृषि के आधुनिकीकरण का एक सरकारी कार्यक्रम था। इसके लिए आर्थिक सहायता अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा दी गई। यह कार्यक्रम प्रथम चरण में पंजाब, पश्चिमी यू.पी., तटीय आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु अर्थात् जहाँ सिंचाई के समुचित प्रबन्ध थे, वहाँ चलाया गया था।
(ब) हरित क्रांति के परिणाम-हरित क्रांति के अनेक सकारात्मक व नकारात्मक परिणाम हुए। यथा
- इस नई तकनीक द्वारा कृषि उत्पादकता में अत्यधिक वृद्धि हुई।
- इसका लाभ बड़े किसान ही उठा सके।
- हरित क्रांति के फलस्वरूप ग्रामीण समाज में असमानताएँ बढ़ने लगीं।
- इससे पट्टेदार कृषक बेदखल हो गए।
- कृषि उपकरण के प्रयोग से सेवा प्रदान करने वाली जातियाँ बेरोजगार हो गईं।
- हरित क्रांति की विभेदीकरण की प्रक्रिया में धनी और अधिक धनी हो गए और निर्धन किसान और निर्धन हो गए।
(स) हरित क्रांति का द्वितीय चरण-हरित क्रांति का दूसरा चरण वर्तमान में भारत में सूखे तथा आंशिक सिंचित क्षेत्रों में लागू किया गया।
- इससे फसल के प्रतिमानों एवं प्रकारों में भी परिवर्तन आया।
- बढ़ते हुए व्यापारीकरण तथा बाजार पर निर्भरता ने इन क्षेत्रों में जीवन व्यापार की असुरक्षा को बढ़ाया है, क्योंकि इसमें एकल कृषि व्यवस्था को अपनाया गया है।
- इससे क्षेत्रीय असमानताओं में वृद्धि हुई है तथा
- इसने विभिन्न प्रकार की हिंसा को बढ़ावा दिया है।
- बीजों की पारम्परिक किस्में लुप्त होती जा रही हैं।
→ स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण समाज में परिवर्तन:
स्वातंत्र्योत्तर काल में ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ हरित क्रांति लागू हुई सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति में अनेक प्रभावशाली परिवर्तन हुए। वे निम्न हैं
- गहन कृषि के कारण कृषि मजदूरों की बढ़ोतरी;
- भुगतान में सामान के स्थान पर नगद भुगतान;
- पारम्परिक बंधनों में शिथिलता;
- 'मुक्त दिहाड़ी' मजदूरों के वर्ग का उदय।
स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव की प्रक्रिया में तेजी आई, क्योंकि सरकार ने कृषि की आधुनिक पद्धतियों को प्रोत्साहित किया तथा अन्य रणनीतियों द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण का प्रयास किये। नई तकनीक अपनाने से बड़ी प्रबल जातियों के सम्पन्न किसानों ने कृषि से होने वाले लाभ को अन्य प्रकार के व्यापारों में निवेश किया। विविधता की इस प्रक्रिया से नए उद्यमी समूहों का उदय हुआ जिन्होंने बढ़ते हुए कस्बों की ओर पलायन किया जिससे नए क्षेत्रीय अभिजात वर्गों का उदय हुआ जो आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से प्रबल हो गए। इससे ग्रामीण तथा अर्द्धनगरीय क्षेत्रों में उच्च शिक्षा का विकास हुआ, तब अभिजात ग्रामीण वर्ग के बच्चों ने शिक्षित होकर श्वेत नस्ल व्यवसाय अथवा व्यापार अपनाये। इससे नगरीय मध्य वर्गों का विस्तार हुआ।
→ मजदूरों का संचार
- घुमक्कड़ मजदूर: कृषि के व्यापारीकरण तथा भू स्वामी एवं किसान के मध्य पुश्तैनी सम्बन्धों में कमी होने तथा पंजाब जैसे हरित क्रांति से सम्पन्न क्षेत्रों में कृषि मजदूरों की मांग बढ़ने से हजारों मजदूर अपने गाँवों से अधिक सम्पन्न क्षेत्रों में; जहाँ मजदूरों की अधिक माँग तथा मजदूरी थी, मजदूरी की खोज में पलायन कर जाते हैं। इन्हें घुमक्कड़ मजदूर कहा जाता है। इन्हें अक्सर बहुत कम मजदूरी दी जाती है, इनके कार्य तथा जीवन दशाएँ भी खराब होती हैं।
- कृषि मजदूरों का महिलाकरण: प्रवसन के कारण पुरुष सदस्य वर्ष का अधिकतर हिस्सा गाँवों के बाहर काम करके बिताते हैं, जिससे कृषि मूल रूप से महिलाओं का कार्य बन गया है। मौजूदा पितृवंशीय नातेदारी व्यवस्था तथा अन्य सांस्कृतिक व्यवहार जिनसे पुरुष के अधिकारों का हित होता है, महिलाओं को भूमि के स्वामित्व से पृथक् रखा जाता था अब इसमें परिवर्तन आया है।
→ भूमंडलीकरण, उदारीकरण तथा ग्रामीण समाज:
1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से भारत उदारीकरण की नीति का अनुसरण कर रहा है, जिसका कृषि तथा ग्रामीण समाज पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। इस नीति के अन्तर्गत विश्व व्यापार संगठन में भागीदारी होती है जिसका उद्देश्य अधिक मुक्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था है। इसी के तहत काफी समय बाद भारतीय किसान अन्तर्राष्ट्रीय बाजार से प्रतिस्पर्धा हेतु प्रस्तुत हैं।
ये कृषि के भूमंडलीकरण की प्रक्रिया कृषि को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में सम्मिलित किए जाने का संकेत है जिसका किसानों और ग्रामीण समाज पर निम्न प्रभाव पड़ा है
- संविदा खेती।
- बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कृषि मदों जैसे बीज, कीटनाशक तथा खाद विक्रेता के रूप में प्रवेश।
- महँगी खाद तथा कीटनाशकों पर निर्भरता से किसानों के लाभ में कमी।
- किसानों की ऋणग्रस्तता में वृद्धि।
- ग्रामीण क्षेत्रों में पर्यावरण संकट उत्पन्न होना।
- किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएँ।