These comprehensive RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 3 भारतीय लोकतंत्र की कहानियाँ will give a brief overview of all the concepts.
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→ लोकतंत्र का अर्थ-लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन है।
→ लोकतंत्र के प्रकार-लोकतंत्र दो प्रकार का होता है
(1) प्रत्यक्ष लोकतंत्र: प्रत्यक्ष लोकतंत्र में सभी नागरिक बिना किसी चयनित या मनोनीत पदाधिकारी की मध्यस्थता के, सार्वजनिक निर्णयों में स्वयं भाग लेते हैं।
(2) प्रतिनिधिक या परोक्ष लोकतंत्र: विशाल और जटिल आधुनिक समाज में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की संभावनाएँ बहुत कम हैं। आजकल हर जगह सामान्यतः प्रतिनिधिक लोकतंत्र ही पाया जाता है। हमारे देश में भी प्रतिनिधिक लोकतंत्र है। प्रतिनिधिक लोकतंत्र में सहभागी लोकतंत्र तथा विकेन्द्रीकृत तथा जमीनी लोकतंत्र की अवधारणाएँ अत्यन्त लोकप्रिय हैं।
→ भारत में लोकतंत्र के विकास के विषय में दृष्टिकोण और सामग्री-भारत में लोकतंत्र के विकास के विषय में दृष्टिकोण और सामग्री को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
→ भारतीय लोकतंत्र का मूलाधार-भारतीय संविधान: इसके अन्तर्गत भारतीय लोकतंत्र के केन्द्रीय मूल्य और मान्यताओं को दर्शित किया गया है तथा संविधान निर्माण के समय होने वाले विवादों से सम्बन्धित विभिन्न दृष्टिकोणों को देखा जा सकता है। यथा
(अ) भारतीय लोकतंत्र के केन्द्रीय मूल्य-भारतीय लोकतांत्रिक मूल्य और लोकतांत्रिक संस्थाएँ विशुद्ध रूप से पश्चिम की देन नहीं हैं वरन् इसमें भारतीय प्राचीन महाकाव्य कृतियों व विविध संवादों, पहेलियों, लोकगीतों तथा लोककथाओं का भी कुछ योगदान है।
(ब) संविधान-सभा का वाद-विवाद : एक इतिहास-भारतीय संविधान का दृष्टिकोण भारतीय लोकतंत्र का मूलाधार है। संविधान सभा के मुक्त विचार-विमर्श और मत से संविधान उत्पन्न हुआ। इसका दृष्टिकोण और इसकी वैचारिक अन्तर्वस्तु इसके निर्माण की प्रक्रिया पूर्णतः लोकतांत्रिक है।
संविधान सभा के वाद-विवाद में इसके सभी दृष्टिकोण उभरकर सामने आते हैं। संविधान में सामाजिक न्याय के प्रश्न पर एक जोरदार बहस चली। इसमें रोजगार का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, भूमिसुधार व सम्पत्ति के अधिकार पर बहस हुई। बहस के कुछ अंश यहाँ दिए गए हैं
संविधान सभा की बहस के उपर्युक्त अंश को पढ़ने से ज्ञात होता है कि संविधान सभा के विभिन्न नेताओं के विभिन्न विचार थे। अंत में अगस्त 1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की विशेषज्ञ सभा ने संविधान सभा में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसमें यह घोषणा की गई कि भारत एक गणतंत्र होगा जहाँ सभी के लिए सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित होगा।
(स) हित प्रतिस्पर्धी संविधान और सामाजिक परिवर्तन-भारत एक विभिन्न संस्कृतियों वाला देश है। अतः संविधान में कुछ मूल उद्देश्य सम्मिलित किए गए हैं, जो भारतीय राजनीतिक संसार में सामान्यतः न्यायोचित मानकर स्वीकृत कर लिए गए हैं। ये हैं-निर्धन और हाशिए के लोगों को सक्षम बनाना, निर्धनता उन्मूलन, जातिवाद समाप्त करना तथा सभी समूहों के प्रति समानता का व्यवहार करना आदि।
संविधान निर्माण के समय हमारी संविधान सभा भारत की बहुलता व जटिलता से परिचित थी लेकिन सामाजिक न्याय की सुनिश्चितता की गारंटी उसने दी।
(द) संवैधानिक मानदंड और सामाजिक न्याय
→ लोकतंत्र के जमीनी प्रकार्यात्मक के स्तर : पंचायती राज व्यवस्था-भारत में लोकतंत्र के विकास से सम्बन्धित दृष्टिकोण और सामग्री का दूसरा कारक है-विकेन्द्रीकृत और जमीनी लोकतंत्र : जैसे पंचायती राज व्यवस्था। यथा
(अ) पंचायती राज के आदर्श:
(ब) पंचायतों की शक्तियाँ और उत्तरदायित्व-संविधान के अनुसार पंचायतों को स्वशासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने हेतु शक्तियाँ व अधिकार दिए गए हैं। उनमें से कुछ शक्तियाँ व उत्तरदायित्व निम्न हैं
(स) जनजाति क्षेत्रों में पंचायती राज-कुछ आदिवासी जातियों की सैकड़ों साल पुरानी अपनी राजनीतिक संस्थाएँ रही हैं। ये राजनीतिक संस्थाएँ इतनी सुविकसित थीं कि ग्राम, वंश और राज्य के स्तर पर ये बड़ी कुशलता से कार्य करती थीं। लेकिन आदिवासी क्षेत्रों का एक बड़ा खंड संविधान के 73वें संशोधन के प्रावधान से बाहर है। शायद नीतियाँ बनाने वाले पारम्परिक राजनीतिक क्षेत्रों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे।
(द) लोकतंत्रीकरण और असमानता: बहुत से गाँवों के कुछ विशेष समूह, समुदाय जाति से सम्बन्धित लोग गाँव की समितियों में शामिल नहीं किए जाते। ग्राम सभा के सदस्य प्रायः ऐसे छोटे से गुट द्वारा नियंत्रित व संचालित किए जाते हैं जो अमीर किसान या उच्च जाति के जमींदार होते हैं। बहुसंख्यक लोग देखते भर रह जाते हैं और ये लोग बहुमत को अनदेखा करके विकासात्मक कार्यों का और सहायता राशि आपस में बाँट लेते हैं। कुछ मामलों में ही पंचायती राज संस्थाएँ आमूल परिवर्तन लाती हैं। कभी-कभी लोकतांत्रिक पैमाने काम नहीं कर पाते क्योंकि हित समूह परिवर्तनों का विरोध करते हैं, उनके लिए केवल पैसा महत्त्वपूर्ण है।
→ प्रकार्यात्मक लोकतंत्र के अनिवार्य अंग : राजनीतिक दल और दबाव समूह। यथा
(अ) हित समूह: हितं समूह ऐसे समूह हैं जो अपनी आवाज सुनाना चाहते हैं और सरकार का ध्यान अपनी परेशानियों की ओर आकृष्ट करते हैं।
(ब) राजनीतिक दल: एक राजनीतिक दल को निर्वाचन प्रक्रिया द्वारा सरकार पर न्यायपूर्ण नियंत्रण स्थापित करने की ओर उन्मुख संगठन के रूप में होता है जो सत्ता हथियाने और सत्ता का उपयोग कुछ विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के उद्देश्य से स्थापित होता है।
लोकतांत्रिक प्रणाली में विभिन्न समूहों के हित राजनीतिक दलों द्वारा ही प्रतिनिधित्व प्राप्त करते हैं जो समूह की समस्याओं के विभिन्न मुद्दों को उठाते हैं। विभिन्न हित समूह राजनीतिक दलों को प्रभावित करने के लिए कार्य करते हैं। जब किसी समूह को लगता है कि उसके हित की रक्षा नहीं की जा रही है तो वह एक अलग दल बना लेता है या फिर ये दबाव समूह बना लेते हैं जो सरकार से अपनी बात मनवाने की कोशिश करते हैं।