These comprehensive RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरन्तरता एवं परिवर्तन will give a brief overview of all the concepts.
Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sociology in Hindi Medium & English Medium are part of RBSE Solutions for Class 12. Students can also read RBSE Class 12 Sociology Important Questions for exam preparation. Students can also go through RBSE Class 12 Sociology Notes to understand and remember the concepts easily. The bhartiya samaj ka parichay is curated with the aim of boosting confidence among students.
→ जाति एवं जाति व्यवस्था-जाति एक प्राचीन संस्था है जो कि हजारों वर्षों से भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का एक हिस्सा है। जाति केवल अतीत ही नहीं बल्कि आज भी हमारे समाज का एक अभिन्न अंग है।
1. जाति भारतीय उपमहाद्वीप से जुड़ी अनूठी संस्था है। यद्यपि यह हिन्दू समाज की संस्थात्मक विशेषता है तथापि भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य धार्मिक समुदायों-मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों में भी यह विद्यमान है।
2. जाति को आंग्ल भाषा में कास्ट (Caste) कहा गया है जिसका अर्थ है-विशुद्ध नस्ल । इसे भारतीय भाषाओं में 'वर्ण और जाति' के अर्थ में उपयोग किया जाता है।
3. वर्ण-वर्ण का शाब्दिक तात्पर्य है-रंग। समाज के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार श्रेणियों के विभाजन को वर्ण कहा जाता है। चार वर्गों के अतिरिक्त जनसंख्या का शेष भाग-जाति बहिष्कृत, विदेशियों, दासों तथा युद्धों में पराजित लोगों का भी था, जिसे पंचम वर्ण या पांचवीं श्रेणी भी कहा जाता था।
4. जाति और वर्ण में अन्तर
5. जाति की सामान्य विशेषताएँ
जाति एक बहुत असमान संस्था थी। जहाँ कुछ जातियों को तो इस व्यवस्था से बहुत लाभ रहा, वहीं अन्य जातियों को इसकी वजह से अधीनता एवं कभी भी समाप्त न होने वाले श्रम का जीवन जीने का दंड भुगतना पड़ा।
→ जाति-व्यवस्था का सैद्धान्तिक विश्लेषण सिद्धान्ततः जाति व्यवस्था को दो समुच्चय के मिश्रण के रूप में समझा जा सकता है
(1) भिन्नता और अलगाव के आधार पर: प्रत्येक जाति अन्य जातियों से कठोरता से अलग होती है। शादी, खान-पान एवं सामाजिक अन्तःक्रिया तथा व्यवसाय सम्बन्धी सभी जातियों के नियम अलग-अलग थे।
(2) सामूहिकता तथा अधिक्रमित व्यवस्था के आधार पर:
→ उपनिवेशवाद और जाति व्यवस्था में परिवर्तन: एक सामाजिक संस्था के रूप में जाति के वर्तमान स्वरूप को औपनिवेशिक काल और साथ ही स्वतंत्र भारत में तीव्र गति से हुए परिवर्तनों द्वारा मजबूती से आकार प्रदान किया गया
→ जाति का समकालीन रूप: राष्ट्रवादी आन्दोलन के आरम्भ होने से पूर्व ही दलित वर्ग विशेष रूप से अस्पृश्यों को संगठित करने के प्रयास प्रारम्भ हो गये थे। ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, इयोतीदास, पेरियार, बाबा साहेब अम्बेडकर तथा गाँधीजी ने इस कार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अम्बेडकर और गाँधीजी दोनों ने अस्पृश्यता के विरुद्ध व्यापक आन्दोलन किये। कांग्रेस की कार्यसूची में भी अस्पृश्यता विरोधी कार्यक्रमों को शामिल किया गया।
→ नगरीकरण, औद्योगिकीकरण, आधुनिक शिक्षा प्रणाली, पश्चिमीकरण, संस्कृतिकरण तथा आधुनिक जीवनमूल्यों के कारण जाति के बन्धन कमजोर पड़ने लगे। धीरे-धीरे खानपान और वैवाहिक सम्बन्धों के नियमों में शिथिलता आने लगी। यद्यपि विवाह जातीय परिसीमाओं में होते थे परन्तु अब अन्तर्जातीय विवाह पहले की अपेक्षा अधिक होने लगे। वैवाहिक सम्बन्धों में सामाजिक और आर्थिक प्रस्थिति की समानता का ध्यान रखा जाता था। उच्च जातियों के मध्य अन्तर्जातीय विवाह होने लगे थे परन्तु उच्च और निम्न जातियों के बीच विवाह सम्बन्ध नगण्य रहे।
→ स्वतंत्र भारत में संविधान में जाति व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। जातीय विशेषाधिकारों को समाप्त करने के उद्देश्य से सरकारी नौकरियों में भेदभावों को समाप्त कर दिया गया। यद्यपि अनुसूचित जाति तथा जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान आरक्षित किये गये। औद्योगिक विकास तथा आर्थिक परिवर्तनों के कारण भी जाति के बन्धन कमजोर हुए। आश्चर्य की बात थी कि जाति भारत में सांस्कृतिक तथा घरेलू क्षेत्रों में सबसे सुदृढ़ संस्था सिद्ध हुई। विवाह प्रायः अपनी ही जातियों में किये गये। यद्यपि पहले की अपेक्षा अन्तर्जातीय विवाह अधिक होने लगे। यद्यपि जातीय परिसीमाओं में कुछ शिथिलता अवश्य आई। सामाजिक तथा आर्थिक प्रस्थिति के जातीय समूहों के बीच के विभाजन को बनाये रखने की आज भी कोशिश की जा रही थी । यद्यपि उच्च जातियों में अन्तर्जातीय विवाह हो रहे हैं परन्तु निम्न जातियों में आज भी ऐसे विवाह नगय हैं।
→ राजनीतिक व्यवस्था में जाति की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण रही। स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक राजनीति जाति पर आधारित रही है। आज राजनीतिक दलों के गठन, सरकार के निर्माण, मंत्रिमण्डल के गठन, चुनाव व्यवहार सभी में जाति के प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
→ संस्कृतिकरण और प्रबल जाति की अवधारणायें: ये दोनों ही अवधारणायें एम. एन. श्रीनिवास की हैं।
→ जनजातीय समुदाय: जनजाति शब्द का प्रयोग प्रायः ऐसे समूहों के लिए किया जाता है जो बहुत पुराने हैं तथा उप-महाद्वीप में सबसे पुराने रहने वाले हैं। भारतीय सन्दर्भ में जनजाति की परिभाषा नकारात्मक परिभाषा के रूप में की गई है। जनजातियाँ वे हैं जो कि किसी निश्चित धर्मग्रंथ के आधार पर निश्चित धर्म का पालन नहीं करती हैं। इनका न तो कोई राजनीतिक संगठन है और न ही यह कठोर वर्गों में बंधी हैं। जाति जैसी कोई व्यवस्था भी इनमें नहीं पाई जाती है। ब्रिटिश शासन काल में जनजाति शब्द का प्रयोग प्रशासनिक सुविधा के लिए किया गया।
जनजातीय समाजों का वर्गीकरण: सकारात्मक विशेषताओं के आधार पर जनजातीय समाजों को दो भागों में विभाजित किया गया है
(1) स्थायी विशेषक: स्थायी विशेषकों अथवा लक्षणों में क्षेत्र, भाषा तथा शारीरिक विशेषताओं को सम्मिलित किया जाता है। भारत में जनजातीय जनसंख्या बिखरी हुई है। ये जनजातियाँ पहाड़ियों, गाँवों, जंगलों तथा नगरीय औद्योगिक क्षेत्रों में निवास करती हैं।
(2) अर्जित विशेषक-इस वर्गीकरण के दो आधार हैं-
1. आजीविका के आधार पर-इस आधार पर जनजातियों को मछुआरे, खाद्य संग्राहक आखेटक, झुमिंग कृषि करने वाले कृषक, बागानों में काम करने वाले और उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों के रूप में विभाजित किया जा सकता है।
2. हिन्दू समाज में समावेश की सीमा के आधार पर-हिन्दू समाज में किन-किन जनजातियों ने और कितनी सीमा तक समावेश हुआ है, इस आत्मसात्करण को जनजातीय दृष्टिकोण से अथवा प्रबल हिन्दू मुख्य धारा के दृष्टिकोण से देखा जा सकता है।
→ जनजाति-एक संकल्पना: 1960 के दशक में विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद रहा। एक समूह का मानना था कि जनजातियाँ जाति आधारित कृषक समुदाय से मौलिक रूप से पृथक् नहीं हैं परन्तु उनमें स्तरीकरण नगण्य रहा है। जबकि दूसरे समूह का मानना था कि जनजातियाँ जातियों से पूर्ण रूप से पृथक् होती हैं क्योंकि उनमें धार्मिक और कर्मकाण्डीय दृष्टिकोण से शुद्धता और अशुद्धता की भावना नहीं पाई जाती है।
1970 के दशक में यह माना जाने लगा कि जनजाति और कृषक समुदाय के मध्य किया गया अन्तर दोषपूर्ण है क्योंकि यह आकार, पृथक्करण, आजीविका और धर्म की कसौटियों पर खरा नहीं उतरता है। एक ओर गोंड, भील और संथाल जैसी जातियाँ हैं, जो विस्तृत भू-भाग में फैली हुई हैं जबकि दूसरी ओर कुछ जनजातियाँ एक ही क्षेत्र में रहकर कृषि कार्यों में लगी हुई हैं।
भिन्न-भिन्न कालों में जनजातीय लोगों का हिन्दू समाज व्यवस्था में आत्मसात्मीकरण होता रहा। इस कार्य में संस्कृतिकरण, परसंस्कृतिकरण, सवर्ण हिन्दुओं के द्वारा विजितों को शूद्र वर्ण में सम्मिलित किया जाना तथा कुछ अन्य प्रक्रियाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। प्रारम्भिक मानवशास्त्रियों ने हिन्दू समाज की मुख्य धारा में जनजातियों के समावेश के लिए सांस्कृतिक पक्ष को महत्त्वपूर्ण माना जबकि परवर्ती विचारकों ने इसके लिए शोषणात्मक और राजनीतिक पक्ष को महत्त्वपूर्ण माना। कुछ विद्वानों का मानना है कि वास्तव में जनजातियों को ऐसी द्वितीयक प्रघटना के रूप में देखा जाना चाहिये, जो पहले से विद्यमान जनजातीय समूहों के बीच शोषणात्मक और औपनिवेशिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आयीं।
→ मुख्यधारा के समुदायों का जनजातियों के प्रति व्यवहार: 1940 में पृथक्करणवादी विचारधारा के समर्थकों का मानना था कि जनजातीय लोगों को साहूकारों, व्यापारियों, हिन्दू तथा ईसाई धर्मप्रचारकों से बचाना आवश्यक है क्योंकि ये सभी लोग जनजातियों के मूल अस्तित्व को मिटाकर उन्हें भूमिहीन श्रमिक बनाना चाहते हैं। वास्तव में जनजातीय लोगों की समस्याओं का निराकरण उनकी सीमा-रेखाओं के अन्तर्गत ही खोजा जा सकता है। दूसरी ओर एकीकरण विचारधारा के समर्थकों का मानना था कि वास्तव में जनजातीय लोग पिछड़े हुए हिन्दू ही हैं। अतः उनकी समस्याओं का निराकरण उसी परिधि में किया जाये, जो कि पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए सुनिश्चित की गई हैं। बाद में समझौते के रूप में जनजातीय कल्याण के लिए योजनायें बनाई गईं, जैसे-पंचवर्षीय योजनायें, जनजातीय उप-योजनायें, जनजातीय कल्याण खण्ड, विशेष बहुप्रयोजनी क्षेत्र योजनायें इत्यादि।
→ राष्ट्रीय विकास बनाम जनजातीय विकास: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विकास के नाम पर देश में नये कारखाने लगाये गये और खानों की खुदाई की जाने लगी। वनों को सरकारी आधिपत्य में ले लिया गया। इससे देश की मुख्य धारा के लोगों को लाभ पहुंचा, जबकि जनजातीय लोगों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। जनजातीय लोगों की घनी आबादी तथा राज्यों के विकास के नाम पर गैर-जनजातीय लोगों का आप्रवास होने लगा। परिणामस्वरूप जनजातीय लोगों के अलग-थलग पड़ जाने और जनजातीय संस्कृति पर अन्य संस्कृतियों के हावी होने की समस्या उत्पन्न होती चली गई। देश की कई जनजातियाँ आज भी इस समस्या से जूझ रही हैं।
→ समकालीन जनजातीय पहचान: गैर-जनजातीय लोगों के बढ़ते आप्रवास और गैर-जनजातीय लोगों की दमनपूर्ण नीति के कारण कई जनजातियाँ विद्रोह पर उतर आई हैं। आज लम्बे संघर्ष के बाद झारखण्ड और छत्तीसगढ़ को राज्य का दर्जा मिल चुका है। पूर्वोत्तर भारत के कई राज्यों में विशेष कानून हैं, जिनके कारण यहाँ के लोगों की नागरिक स्वतंत्रतायें सीमित हो गई हैं। मणिपुर तथा नागालैण्ड उपद्रवग्रस्त क्षेत्र हैं । जनजातियों में एक वर्ग आज शिक्षित हो रहा है, जिसके कारण जनजातीय लोगों में स्पष्ट रूप से अन्तर दिखाई दे रहा है। इससे जनजातियों में वर्ग-भेद बढ़ जाने का खतरा बढ़ गया है।
→ परिवार और नातेदारी: परिवार पारस्परिक प्रेम, सहयोग, समाजीकरण, आवश्यकताओं तथा बच्चों के जन्म तथा उचित देखभाल करने वाली मौलिक संस्था है तो दूसरी ओर परिवार में संघर्ष, तनाव, अन्याय, हिंसा, पारस्परिक झगड़ों को भी देखा जा सकता है।
परिवार का अध्ययन सामाजिक संस्था तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ इसके सम्बन्धों के सन्दर्भ में | किया जा सकता है। परिवार को मूल परिवार तथा विस्तारित परिवार के रूप में विभाजित किया जा सकता है। परिवार का मुखिया स्त्री अथवा पुरुष हो सकता है।
→ मूल एवं विस्तारित परिवार
→ परिवार के विविध रूप: परिवार के विविध रूप पाये जाते हैं