Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sanskrit व्याकरणम् उपपद विभक्ति Questions and Answers, Notes Pdf.
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उपपद विभक्ति ज्ञान
कर्ता, कर्म, करण आदि कारकों से प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि विभक्तियों का निर्देश पहले बताया गया है। संस्कृत में कुछ ऐसे अव्यय एवं निपात हैं, जिनके योग से विशेष विभक्ति का प्रयोग होता है। भाव यह है कि उसमें साधारण विभक्ति न होकर विशेष विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। उन शब्दों को 'उपपद' कहते हैं और उसमें निर्दिष्ट होने वाली विभक्ति को 'उपपद विभक्ति' कहते हैं। जैसे 'रामः ग्रामे वसति' यहाँ गाँव में अधिकरण कारक होने से सप्तमी विभक्ति है, किन्तु यदि यहाँ वस्' धातु से पूर्व 'उप' का प्रयोग किया जाए, तो पद में सप्तमी विभक्ति न हो कर द्वितीया विभक्ति हो जाती है. रामः ग्रामम् उपवसति। यहां कुछ प्रमुख उप पद विभक्तियों का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्रथमा उपपद विभक्ति
'इति' शब्द के साथ प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे -
(क) 'संस्कृत भाषा देवभाषा' इति कथयन्ति।
(ख) दशरथस्य ज्येष्ठपुत्रः राम इति नामधेयः आसीत्।
(ग) अमुं नारदः इति अबोधि। (उनको नारद ऐसा जाना)।
द्वितीया उपपद विभक्ति
सूत्र (i) अधिशीस्थासां कर्म - अधि उपसर्ग से युक्त शीङ् स्था और आस् धातु का आधार कर्मकारक होता है। यथा -
हरिः वैकुण्ठम् अधिशेते (हरि वैकुण्ठ में सोते हैं)।
हरिः वैकुण्ठम् अधितिष्ठति (हरि वैकुण्ठ में रहते हैं)।
हरिः वैकुण्ठम् अध्यास्ते (हरि वैकुण्ठ में बैठते हैं)।
सूत्र (ii) अभिनिविशश्च-अभि + नि-पूर्वक विश् धातु का भी आधार कर्म होता है। यथा - स अभिनिविशते सन्मार्गम् (वह अच्छे मार्ग में प्रवेश करता है।)
सूत्र (iii) उपान्वध्याड्वसः - उप, अनु, अधि और आङ् उपसर्ग से युक्त वसु धातु का आधार कर्मकारक होता है। यथा -
हरि वैकुण्ठम् उपवसति (हरि वैकुण्ठ में रहते हैं)।
हरि वैकुण्ठम् उपवसति (अनुवसति हरि वैकुण्ठ में रहते हैं)।
हरि वैकुण्ठम् उपवसति (अधिवसति हरि वैकुण्ठ में रहते हैं) ।
हरि वैकुण्ठम् उपवसति (आवसति हरि वैकुण्ठ में रहते हैं)।
यदि 'उप + वस्' का उपवास करना अर्थ हो तो आधार कर्म नहीं अधिकरण होता है और अधिकरण में सप्तमी होती है। यथा-तपस्वी वने उपवसति (तपस्वी वन में उपवास करता है)। गाँधी कारायाम् उपावसत् (गाँधी जी ने जेल में उपवास किया था)।
सूत्र (iv) गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थशब्दकर्माकर्मकाणामणि कर्ता स णौ - निम्न धातुओं के अण्यन्त कर्ता ण्यन्त में कर्मकारक बन जाते हैं -
(i) गत्यर्थक धातु - माता पुत्रं गृहं गमयति (माता पुत्र को घर भेजती है)।
(ii) बुद्धयर्थक धातु - गुरुः शिष्यं धर्मं बोधयति (गुरु शिष्य को धर्म बतलाता है)।
(iii) प्रत्यवसानार्थक (भक्षणार्थक) धातु - माता पुत्रम् ओदनम् आशयति (माता पुत्र को भात खिलाती है)।
(iv) शब्दकर्मक धातु - गुरुः छात्रं वेदम् अध्यापयति (गुरु छात्र को वेद पढ़ाते हैं)।
(v) अकर्मक धातु - माता शिशुं शाययति (माता शिशु को सुलाती है)।
सूत्र (v) कर्मज्ञप्रवचनीयुक्ते द्वितीया - जो उपसर्ग कर्मप्रवचनीयसंज्ञक होते हैं, उनके योग में द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-जपम् अनु प्रावर्षत् मेघः (जप करने के बाद मेघ बरसा)। जप के कारण वर्षा हुई।
रामम् अनुगतः लक्ष्मणः वनम् (राम के पीछे लक्ष्मण वन गये)। राम के कारण लक्ष्मण वन गये।
सूत्र (vi) कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे (अत्यन्तसंयोगे द्वितीया) - अत्यन्त संयोग में काल और मार्ग के वाचक शब्दों में द्वितीया होती है। यथा - स मासम् अधीते वेदम् (वह महीना भर वेद पढ़ता है)। पुरा द्वादशवर्षाणि व्याकरणं पठन्ति स्म (पहले लगातार बारह साल तक व्याकरण पढ़ते थे)। क्रोशं कुटिला नदी वर्तते (लगातार कोस भर नदी टेढ़ी है)।
क्रिया की पूर्णता में तृतीया होती है (अपवर्गे तृतीया) - मासेन वेदम् अध्यैत (महीने भर में वेद पढ़ लिया)। क्रोशेन श्लोकान् अस्मरत् (कोस भर में श्लोकों को याद कर लिया)।
सूत्र (vii)
उभसर्वतसोः कार्या धिगुपर्यादिषु त्रिषु।
द्वितीयानेडितान्तेषु ततोऽन्यत्रापि दृश्यते।
निम्नलिखित शब्दों के योग में द्वितीया होती है -
(i) उभयत: - प्रयागम् उभयत: नद्यौ स्तः (प्रयाग के दोनों ओर दो नदियाँ हैं)।
(ii) सर्वतः - विद्यालयं सर्वतः वृक्षाः सन्ति (विद्यालय के सब ओर पेड़ हैं)।
(ii) धिक् - धिक् तं पापकारिणम् (उस पापकारी को धिक्कार है)।
(iv) उपर्यपरि - मेघम् उपर्युपरि विमानं गतम् (मेघ के ऊपर-ऊपर हवाई जहाज गया)
(v) अध्यधि - वनम् अध्यधि मार्ग: गतः (वन के बीचोबीच राह गयी है)
(vi) अधोऽधः - मेघम् अधोऽधः गच्छति विमानम् (मेघ के नीचे-नीचे हवाई जहाज जाता है।
सूत्र (viii) अभितः-परितः समया-निकषा-हा-प्रति-योगेऽपि-अभितः आदि के योग में भी द्वितीया होती है।
यथा -
(i) अभित: - विद्यालयम् अभितः वृक्षाः सन्ति (विद्यालय के सब ओर पेड़ हैं)।
(ii) परितः - विद्यालयं परितः वृक्षाः सन्ति (विद्यालय के चारों ओर पेड़ हैं)।
(iii) समया - नगरं समया पर्वतः वर्तते। (शहर के पास पहाड़ है।)
(iv) निकषा - नगरं निकषा पर्वतः वर्तते (शहर के पास पहाड़ है।)
(v) हा - हा नास्तिकम् (नास्तिक पर अफसोस है)।
(vi) प्रति - दीनं प्रति कुरु दयाम् (गरीब पर दया करो)।
सत्र (ix) अन्तरा अन्तरेण यक्त - अन्तरा और अन्तरेण के योग में द्वितीया होती है। यथा-त्वां मां च अन्तरा विष्णुः (तेरे और मेरे बीच में विष्णु है)। अन्तरेण ज्ञानं न सुखम् (बिना ज्ञान के सुख नहीं मिलता)।
सूत्र (x) क्रियाविशेषणे द्वितीया - क्रियाविशेषण में द्वितीया होती है। वैसे क्रिया विशेषण अव्यय होते हैं, किन्तु अन्य शब्द भी जब क्रियाविशेषण के समान प्रयुक्त होते हैं तो वे भी अव्यय कम बन जाते हैं किन्तु उनमें द्वितीया विभक्ति लगती है और शब्द नपुंसकलिङ्ग में होते हैं। ये सभी क्रियाविशेषण सदा एक ही रूप में रहते हैं। यथा -
मन्दधी: सुखं स्वपिति (मूर्ख मौज से सोता है)।
मधुरं गायति सा बाला (वह लड़की मधुर गाती है)।
अधिकं शब्दायतेऽ? घटः (आधा भरा घड़ा अधिक शोर करता है)।
तृतीया उपपद विभक्ति
कारक में तृतीया विभक्ति होती है।
सूत्र (i) गम्यमानाऽपि क्रिया कारकविभक्तौ प्रयोजिका - क्रिया यदि स्पष्टतः न कही भी गई हो किन्तु उसका भाव प्रतीत होता हो तो भी कारकों की विभक्तियाँ हो जाया करती हैं। यथा-अलं महीपाल ! तव श्रमेण (हे राजन् ! बस कीजिए, आपके परिश्रम से कुछ होना-जाना नहीं है)। यहाँ तव श्रमेण' के बाद 'न किञ्चित् साध्यम्' यह बात बिना कहे भी समझ में आ जाती है, अत: 'साध्य' के साधन 'श्रम' में करण-कारक की तृतीया लगी है।
सूत्र (ii) प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम् - प्रकृति आदि शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। यथा -
प्रकृत्या चारु: अयं बालक: (यह लड़का स्वभाव से सुन्दर है)।
गोत्रेण गार्ग्य: अयं ब्राह्मणः (यह ब्राह्मण गोत्र से गार्य है)।
नाम्ना यज्ञदत्तः अयं छात्रः (यह छात्र नाम से यत्रदत्त है)।
अहं वर्णेन ब्राह्मणः (मैं वर्ण से ब्राह्मण हूँ)।
मम सुखेन याति कालः (सुख से मेरा समय बीतता है)।
सूत्र (ii) अपवर्गे तृतीया - अपवर्ग में - क्रिया की सिद्धि में कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में अत्यन्तसंयोग रहने पर तृतीया विभक्ति होती है। यथा -
स मासेन अधीतवान् (उसने महीने-भर में व्याकरण पढ़ लिया)। अयं चतुर्भि: वर्षेः गृहं निर्मितवान् (इसने
चार वर्षों में घर बना लिया)। योजनेन भवान् कथां समाप्तवान् (आपने योजन-भर में कथा समाप्त की)।
सूत्र (iv) सहयुक्तेऽप्रधाने (सहार्थे तृतीया)-'सह' के अर्थ वाले शब्दों के योग में अप्रधान में तृतीया विभक्ति होती है। यथा -
पुत्रेण सह आगतः पिता (पुत्र के साथ पिता आया)।
छात्रेण समं गतः गुरु: (छात्र के साथ गुरुजी गये)।
गुरुणा सार्धम् एकासने न आसीत् (गुरु के साथ एक आसन पर कोई न बैठे)। मया साकं तिष्ठ (मेरे साथ ठहरो)।
सूत्र (v) येनाङ्गविकार: - जिस अंग के विकृत होने से अंगी में विकार ज्ञात हो उस अंग के वाचक शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। यथा -
अक्ष्णा काणः सः (वह आँख से काना है)।
कर्णेन बधिरः त्वम् (तुम कान से बहरे हो)।
अयं पादेन खञ्जः (यह पैर से लंगड़ा है)।
सूत्र (vi) इत्थंभूतलक्षणे - जिस चिह्न के कारण कोई व्यक्ति किसी विशेष प्रकार का लगता हो, उस चिह्न के वाचक शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। यथा -
अयं जटाभिः तापसः प्रतीयते (यह जटाओं से तपस्वी लगता है।)
सः पुस्तकेन छात्रः (वह पुस्तक से छात्र है)।
सूत्र (vii) हेतौ (हेतो तृतीया) - हेतु में अर्थात् किसी भी कार्य के कारण या प्रयोजन तृतीया होती है। यथा -
दण्डेन घटः भवति (दण्ड से घड़ा होता है)।
श्रमेण धनं भवति (श्रम से धन होता है)।
पुण्येन सुखं मिलति (पुण्य से सुख मिलता है)।
विद्यया बुद्धिः वर्धते (विद्या से बुद्धि बढ़ती है)।
अध्ययनेन वसति (अध्ययन के निमित्त रहता है)।
सूत्र (viii) ऊन-वारण-प्रयोजनार्थश्च - ऊनार्थक, वारणार्थक और प्रयोजनार्थक शब्दों के योग में तृतीया होती है। यथा -
(क) ऊनार्थक-एकेन ऊनं शतम् (एक कम सौ)।
धनेन हीनः सः (वह धन से हीन है)।
गर्वेण शून्यः भव (गर्व से शून्य होओ)।
क्रोधेन रहितः सुखी भवति (क्रोध से रहित सुखी होता है)।
(ख) वारणार्थक - अलं विवादेन (विवाद न करो)।
अलं कलहेन (कलह मत करो)।
(ग) प्रयोजनार्थक - धनेन किं प्रयोजनम् (धन से क्या मतलब) ?
नास्ति मम सेवकेन प्रयोजनम् (मुझे सेवक से प्रयोजन नहीं है)।
कोऽर्थः पुत्रेण (पुत्र से क्या लाभ) ?
चतुर्थी उपपद विभक्ति
सूत्र (i) दाने चतुर्थी - जिसे कोई वस्तु दी जाए, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा-विप्राय गां ददाति।
सूत्र (ii) अशिष्टव्यवहारे दाणः प्रयोगे चतुर्थ्यर्थे तृतीया-अशिष्ट-व्यवहार के लिए दाण् धातु के प्रयोग में चतुर्थी के अर्थ में तृतीया होती है। यथा -
दास्या संयच्छते कामुकः (कामी पुरुष दासी को देता है)। शिष्ट-व्यवहार में-भार्यायै संयच्छति (पत्नी को देता है)।
सूत्र (ii) रुच्यर्थानां प्रीयमाण:-'रुचना' अर्थ वाले धातुओं के योग में जिसे कोई वस्तु रुचती है वह सम्प्रदानकारक होता है। उस सम्प्रदान में चतुर्थी होती है। यथा -
हरये रोचते भक्तिः (हरि को भक्ति अच्छी लगती है)।
मह्यं रोचते संस्कृतम् (मुझे संस्कृत अच्छी लगती है)।
सूत्र (iv) धारेरुत्तमर्ण:-धारि धातु के योग में उत्तमर्ण (साहूकार) में सम्प्रदानकारक होता है। उसमें चतुर्थी होती है। यथा - देवदत्ताय शतं धारयति सः (वह देवदत्त के लिए सौ रुपए धारता है)।
सूत्र (v) स्पृहेरीप्सतः-स्पृह धातु के योग में ईप्सित (अभीष्ट वस्तु) सम्प्रदान होता है। यथा पुष्पेभ्य स्पृह्यति मालाकारः (माली फूलों को चाहता है)। अहं संस्कृतस्य प्रचाराय स्पृह्यामि (मैं संस्कृत का प्रचार चाहता हूँ)।
सूत्र (vi) क्रुद्रुहेासूयार्थानां यं प्रति कोप:-क्रुध्, द्रुह, ईर्ष्या और असूया अर्थ वाले धातुओं के योग में जिसके प्रति क्रोध आदि भाव होते हैं वह सम्प्रदानकारक होता है। यथा -
कृष्णाय क्रुध्यति कंसः (कंस कृष्ण पर क्रोध करता है)। कृष्णाय द्रुह्यति कंसः (कंस कृष्ण से द्रोह करता है)। कृष्णाय ईय॑ति कंसः (कंस कृष्ण से ईर्ष्या करता है)। कृष्णाय असूयति कंसः (कंस कृष्ण से असूया करता है)।
सूत्र (vii) क्रुधद्रुहोरुपसृष्टयोः कर्म-क्रुध और द्रुह्य धातु यदि उपसर्ग से युक्त हों, उसके प्रति क्रोध हो वह कर्मकारक होता है। कर्म में द्वितीया होती है। यथा -
कृष्णम् अभिक्रुध्यति कंसः (कंस कृष्ण पर क्रोध करता है)। कृष्णम् अभिद्रुह्यति कंसः (कंस कृष्ण से विद्रोह करता है)।
सूत्र (vii) तादर्थ्य चतुर्थी वाच्या-जिस प्रयोजन के लिए कोई क्रिया की जाती है, कोई वस्तु होती है उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा -
मुक्तये हरि भजति (मुक्ति के लिए हरि को भजता है)। भवति काव्यं यशसे (काव्यं यश के लिए होता है)। कुण्डलाय सुवर्णम् (कुण्डल के लिए सोना है)। मोदकाय क्रन्दति बाल: (बच्चा लड्डू के लिए रोता है)।
सूत्र (ix) नमः स्वस्ति-स्वाहा-स्वधालं-वषड्योगाच्च-नमः, स्वस्ति आदि शब्दों के चतुर्थी होती है। यथा नमः-तस्मै श्रीगुरवे नमः (उस श्रीगुरु को नमः है)। स्वस्ति-अस्तु स्वस्ति प्रजाभ्यः (प्रजा का कल्याण हो।) स्वाहा-अग्नये स्वाहा (अग्नि को स्वाहा है)। स्वधा-पितृभ्यः स्वधा (पितरों को समर्पित है)। अलम्-अलं मल्लो मल्लाय (यह पहलवान उस पहलवान के लिए काफी) निषेध में तृतीया-अलं विवादेन। वषड्-वषड् इन्द्राय (इन्द्र को अर्पित है)।
सूत्र (x) उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिर्बलीयसी - उपपदविभक्ति से कारक विभक्ति बलवती होती है। इसलिए कारक विभक्ति उपपदविभक्ति को रोकती है।
नमस्करोति देवान् भक्तः (भक्त देवों को नमस्कार करता है)। इस वाक्य में कर्मणि द्वितीया से कर्मकारक में होने वाली द्वितीया विभक्ति नमः, स्वस्ति से होने वाली उपपदविभक्ति चतुर्थी को रोक देती है।
सूत्र (xi) निम्नलिखित शब्दों के योग में भी चतुर्थी विभक्ति होती है -
(i) हितम्-भवतु लोकाय हितम् (लोक के लिए कल्याण हो)।
(ii) सुखम्-अस्तु लोकाय हितम् (लोक के लिए सुख हो)।
(iii) स्वागतम्-स्वागतं रामाय (राम के लिए स्वागत है)।
(iv) कुशलम्-तुभ्यं भूयात् कुशलम् (तेरा कुशल हो)। आदि।
पञ्चमी उपपद विभक्ति
सूत्र (i) जुगुप्सा - विराम-प्रमादार्थानामुपसंख्यानम्-जुगुप्सा (घृणा), विराम और प्रमाद (लापरवाही) अर्थ वाले धातुओं के योग,में पञ्चमी विभक्ति होती है जैसे -
पापात् जुगुप्सते (पाप से घृणा करता है)।
अधर्मात् विरमति (अधर्म से विरत होता है)।
धर्मात् प्रमाद्यति (धर्म से प्रमाद करता है)।
सूत्र (ii) भीत्रार्थानां भयहेतुः - भय और त्राण अर्थ वाले धातुओं के योग में अपादान कारक होता है यथा-व्याघ्रात् बिभेति (बाघ से डरता है) सात् त्रायते (साँप से बचता है)।
सूत्र (iii) पराजेरसोढः - परा उपसर्गपूर्वक जि धातु के योग में असोढ (जो सहने योग्य न हो, जेता) अपादानकारक होता है। यथा-रामात् रावणः पराजयते (राम से रावण हारता है)।
सूत्र (vi) आख्यातोपयोगे - उपयोग (नियमपूर्वक साथ रहकर विद्या पढ़ने) से आख्याता राम पढ़ाने वाला) अपादानकारक होता है। यथा-आचार्यात् अधीते रामः (आचार्य से राम पढ़ता है)।
सूत्र (v) जनिकर्तुः प्रकृतिः - जन् धातु के कर्ताकारक की प्रकृति अपादान कारक होती है। यथा-ब्राह्मणः प्रजाः प्रजायन्ते (ब्रह्मा से प्रजा उत्पन्न होती है)। क्रोधाद् भवति संमोहः (क्रोध से मोह उत्पन्न होता है)।
सूत्र (vi) भुवः प्रभवः - भू धातु ने कर्ता का प्रभव (उत्पत्ति-स्थान) अपादानकारक होता है। यथा-हिमवतः गङ्गा प्रभवति। (हिमवान् से गङ्गा प्रकट होती है।) लोभात् क्रोधः प्रभवति (लोभ से क्रोध प्रकट होता है)।
सूत्र (vii) पञ्चमी विभक्तेः - विभाग करने में, किसी को अच्छा-बुरा धनी-गरीब आदि बताने में इससे भेद बताया जाये उसमें पंचमी होती है। यथा -
माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्यः आढ्यतराः (मथुरा के लोग पटनावालों से अधिक धनी हैं)। रामः श्यामात् सुन्दरतरः (राम श्याम से अधिक सुन्दर है)। मौनात् सत्यं विशिष्यते (चुप रहने से सत्य बोलना अच्छा है)। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी (माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बड़ी है)। धनाद् विद्या गरीयसी (धन से विद्या बड़ी है)।
सूत्र (viii) अन्यारादितरर्तेदिक्शब्दाञ्चूत्तपदाजाहि युक्त - अन्य आदि शब्दों के योग में पंचमी होती है।
यथा -
(i) अन्य: - रामचन्द्रात् अन्य: बलरामः आसीत् (रामचन्द्र से दूसरे (भिन्न) थे बलराम)।
(ii) आरात् - आरात् वनाद् ग्रामः (वन से गाँव निकट है)। देहली आरात् पाटलिपुत्रात् (दिल्ली पटना से निकट है)।
(iii) इतर, भिन्न, अतिरिक्त आदि -
श्रीहर्षात् इतरः (भिन्नः, अतिरिक्तः वा) आसीत् श्रीहर्षवर्धनः(श्रीहर्ष से भिन्न था श्रीहर्षवर्धन)।
(iv) ऋते - ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः (ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती)।
(v) दिक्शब्द - बिहारात् पूर्वः असमः (बिहार से पूरब है आसाम)। चैत्रात् पूर्वः फाल्गुनः (चैत से पहले फाल्गुन पड़ता है)।
(vi) अञ्चुत्तरपद - प्राक् सोमः भौमात् (मंगल से पहले है सोमवार)।
(vii) आच् (प्रत्यय) - दक्षिणा ग्रामात् पाठशाला (गाँव से दक्षिण ओर पाठशाला है)।
(viii) आहि (,,) - दक्षिणाहि भारतात् समुद्रः (समुद्र भारत के दक्षिण ओर है)।
सूत्र (ix) प्रभृत्यादियोगे पंचमी - प्रभृति आदि शब्दों के योग में पंचमी होती विभक्ति है। यथा -
(i) प्रभृति - शैशवात् प्रभृति (वचपन से आज तक)।
(ii) आरभ्य - ज्येष्ठात् आरभ्य (बड़े से लेकर)।
(iii) बहिः - सः ग्रामाद् बहिष्कार्यः (वह गाँव से बाहर करने योग्य है)।
(iv) अनन्तरम् - अध्ययनात् अनन्तरं ग्रामं गतः (पढ़ने के बाद गाँव चला गया)।
(v) परम् - अस्मात् परं किं जातम् (इसके बाद क्या हुआ)।
(vi) ऊर्ध्वम् - को जानीते क्षणाद् ऊर्ध्व किं भावि (कौन जानता है कि क्षणभर के बाद क्या होगा?
सूत्र (x) पृथग-विना-नानाभिस्तृतीयान्यतरस्याम्-पृथक, विना और नाना शब्दों के योग में द्वितीया, तृतीया और पंचमी विभक्तियाँ होती हैं। यथा -
(i) पृथक्-आत्मानम् पृथक् (आत्मना पृथक् अथवा आत्मनः पृथक्) नास्ति परमात्मा (आत्मा से अलग परमात्मा नहीं है)।
(ii) विना-धर्म विना (धर्मेण विना अथवा धर्मात् विना) सुखं न मिलति (धर्म के बिना सुख नहीं मिलता)।
(iii) नाना-नाना नारी निष्फला लोकयात्रा (नारी के बिना लोक-जीवन व्यर्थ है)।
नाना फलैः फलति कल्पलतेव विद्या (विद्या कल्पलता के समान अनेक फल देती है)।
षष्ठी उपपद विभक्ति
(सम्बन्ध)
सूत्र (i) षष्ठी शेषे - प्रथमा से सप्तमी तक ही कही गई सभी विभक्तियों से शेष अर्थ में अर्थात् सम्बन्ध में (क्योंकि सम्बन्ध में कोई विभक्ति नहीं बताई गई है)। षष्ठी विभक्ति होती है। यथा-राज्ञः पुरुषः (राजा का पुरुष)। पितुः पुत्रः (पिता का पुत्र) । स्वामिनः भृत्यः (मालिक का नौकर)। वसिष्ठस्य पत्नी (वसिष्ठ की पत्नी)।
कूपस्य जलम् (कुएँ का पानी)। तस्य धनम् (उसका धन)।
सूत्र (ii) षष्ठी हेतु-प्रयोगे हेतु शब्द के प्रयोग में कारण या प्रयोजन और हेतु, दोनों में षष्ठी होती है। यथा -
कस्य हेतोः वसति (किसलिए रहता है)?
अध्ययनस्य हेतोः वसति (पढ़ने के लिए रहता है)।
अल्पस्य हेतोः बहु न त्यज (थोड़े के लिए बहुत मत छोड़ो)।
सूत्र (iii) अधीगर्थदयेशां कर्मणि-अधीगर्त (अधि + इक् + अर्थ, अधिपूर्वक, 'इक्' धातु के अर्थ वाले अर्थात् स्मरण अर्थ वाले) धातु, दय, और ईश् धातु के कर्मकारक में षष्ठी विभक्ति होती है। यथा -
मातुः स्मरति कृष्णः (माता को कृष्णजी याद करते हैं)।
दीनानां दयते रामः (राम गरीबों पर दया करते हैं)।
गात्राणामनीशोऽस्मि संवृत्तः (मैं अङ्गों से असमर्थ हो गया हूँ-अंग मेरे वश में नहीं हैं)।
सूत्र (iv) कर्तृकर्मणोः कृति-कृदन्त शब्दों के योग में अनुक्त कर्ता और कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। यथा ईश्वरः जगतः कर्ता (ईश्वर जगत् का कर्ता है)। शाकुन्तलम् कालिदासस्य कृतिः (शाकुन्तल कालिदास की कृति है)। अहम् पुस्तकस्य पाठकः (मैं पुस्तक को पढ़ने वाला हूँ)।
सूत्र (v) तुल्यार्थरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम् (तुल्यार्थे तृतीया षष्ठी च)-तुला और उपमा शब्दों को छोड़कर सभी तुल्यार्थक शब्दों के योग में तृतीया और षष्ठी विभक्तियाँ होती हैं। यथा -
आसीद् भरतः रामेण समः (भरत राम के समान थे)।
आसीद् भरतः रामस्य समः (भरत राम के समान थे)।
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः (धर्म से हीन लोग पशुओं के जैसे हैं)।
धर्मेण हीनाः पशूनां समानाः (धर्म से हीन लोग पशुओं के जैसे हैं)।
सूत्र (vi) यतश्च निर्धारणम् (निर्धारणे षष्ठी सप्तमी च)-समुदाय से किसी की पृथक् विशिष्टता आने में जिससे वह विशिष्ट हो उसमें षष्ठी और सप्तमी विभक्तियाँ होती हैं। यथा -
नृणां विप्रः श्रेष्ठः (नरों में विप्र श्रेष्ठ है)।
नृषु विप्रः श्रेष्ठः (नरों में विप्र श्रेष्ठ है)।
गवां कृष्णा बहुक्षीरा (गायों में काली गाय विशेष दूधवाली है)।
गोषु कृष्णा बहुक्षीरा (गायों में काली गाय विशेष दूधवाली है)।
कवीनां कालिदासः श्रेष्ठः (कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है)।
कविषु कालिदासः श्रेष्ठः। (कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है)
सप्तमी उपपद विभक्ति
(अधिकरणकारक)
सूत्र (i) सप्तम्यधिकरणे च - अधिकरणकारक में और दूर तथा अन्तिक अर्थवाले शब्दों में सप्तमी विभक्ति होती है। यथा -
(i) अधिकरण-वने वसति सिंहः (शेर वन में रहता है)।
(ii) दूरार्थक-ग्रामस्य दूरे नदी (गाँव से दूर है नदी)।
(iii) अन्तिकार्थक-ग्रामस्य अन्तिके विपणिः (गाँव के पास बाज़ार है)।
सूत्र (ii) अधिकरणे सप्तमी - अधिकरणकारक में सप्तमी होती है। यथा-सिंह: वने वसति (सिंह वन में रहता है)।
सूत्र (iii) आधारोऽधिकरणम् - कर्ता या कर्म कारक के द्वारा क्रिया का आधार अधिकरणकारक होता है। उस अधिकरण में सप्तमी होती है। आधार तीन प्रकार का होता है।
(क) औपश्लेपिक (ऊपर से आधार), यथा-कटे आस्ते मुनिः (मुनि चटाई पर बैठता है)।
(ख) अभिव्यापक (भीतर से आधार), यथा-पात्रे वर्तते जलम् (जल पात्र में है)।
(ग) वैषयिक (विषय के आधार, , यथा-मोक्षं इच्छास्ति (मोक्ष में मेरी चाह है)।
सूत्र (iv) साध्वसाधुप्रयोगे च-साधु और असाधु शब्दों के प्रयोग में सप्तमी होती है। यथा -
साधुः कृष्णो मातरि (कृष्णजी माता के लिए अच्छे थे)।
असाधुः कृष्णो मातुले (कृष्णजी मामा (कंस) के लिए बुरे थे)।
सूत्र (v) निमित्तात् कर्मयोगे - जिस निमित्त के लिए कर्मकारक से युक्त क्रिया की जाती है, उसमें सप्तमी होती है। यथा -
चर्मणि द्वीपिनं हन्ति (चाम के लिए चीते को मारता है)।
दन्तयोः हन्ति कुञ्जरम् (दाँतो के लिए हाथी को मारता है)।
केशेषु चमरी हन्ति (केशों के लिए चमरी (चँवरी गाय) को मारता है।
सीम्नि पुष्कलक: हतः (अण्डकोष के लिए कस्तूरीमृग मारा गया)।
सूत्र (vi) यस्य च भावे भावलक्षणम् (भावे सप्तमी) - जिसकी क्रिया से दूसरी क्रिया जाती जाय, उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। यथा -
गोषु दुह्यमानासु गतः (वह गौवों को दुहते समय गया)।
अस्तंगते सूर्ये छात्राः गताः (सूर्य के डूब जाने पर छात्र गए)।
रामे वनं गते-मृतो दशरथ: (राम के वन जाने पर दशरथ मर गए)।
सूत्र (vii) षष्ठी चानादरे (अनादरे षष्ठी-सप्तम्यौ) - जिसकी क्रिया से दूसरी क्रिया जानी जाय और वहाँ अनादर का भाव हो तो उसमें षष्ठी और सप्तमी विभक्तियाँ होती हैं। यथा-रुदतः पुत्रस्य पिता वनं गतः (रोते पुत्र का अनादर कर पिता वन चला गया)। अथवा-रुदति पुत्रे पिता वनं गतः।
पितरि निवारयति अपि पुत्रः त्यक्तवान् अध्ययनम्, पितुः निवारयतः अपि पुत्रः त्यक्तवान् अध्ययनम् (पिता के मना करते रहने पर भी पुत्र ने पढ़ना छोड़ दिया)।
सूत्र (viii) आयुक्त कुशलाभ्यां चासेवायाम् आयुक्त (काम में संलग्न) तथा कुशल शब्द के योग में षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे -
(i) छात्रः पठने आयुक्तः (संलग्नः)
(ii) भक्तः हरिपूजने आसक्तः।
(iii) छात्रः अध्ययने कुशलः।
अभ्यासार्थम् :
निर्देश: - अधोलिखितेषु वाक्येषु कोष्ठकान्तर्गतेषु शब्देषु उपपदविभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत -
1. उपार्जितानां वित्तं ..... ..... बिना सफलं न भवति। (दानभोग)
2. तस्मै ................. व्ययार्थं रत्नचतुष्टयं दास्यामि। (राजन्)
3. त्वम् एतेषां रत्नानां मध्ये यत् .................. रोचते तद् गृहाण। (युष्मद्)
4. दृढसङ्कल्पोऽयम् अश्वारोही ................. न विरमति। (स्वकार्य)
5. श्रीनायारः स्वराज्यं .................. प्रति गमनाय इच्छां न प्रकटितवान्। (केरल)
6. तस्य ................ सह कश्चित् सम्पर्कः अस्ति। (राज्य)
7. न स्वल्पमपि ................ बिभ्यति। (पापाचार)
8. ............... मुखेन कथमेतत् कथयितुं शक्नुमः। (अस्मद्)
उत्तराणि :
1. दानभोगैः
2. राजे
3. तुभ्यं
4. स्वकार्यात्
5. केरलं
6. राज्येन
7. पापाचारेभ्यः
8. वयं।
बोर्ड की परीक्षा में पूछे गए प्रश्न -
प्रश्न I.
कर्ताकारकस्य परिभाषां सोदाहरणं लिखत।
उत्तरम् :
कर्ता कारक - क्रिया का प्रधानभूत कारक कर्ता कहलाता है अर्थात् जो क्रिया के सम्पादन में प्रधान होता है, उसे कर्ता कारक कहते हैं। कर्ता का अर्थ है-करने वाला। वाक्य में क्रिया को करने में जो स्वतन्त्र होता है, वह कर्ता होता है। कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है।
उदाहरण - देवदत्तः पठति। यहाँ पढ़ने की क्रिया का प्रधानभूत । स्वतन्त्र कारक देवदत्त है, अतः वह कर्ता है।
प्रश्न II.
करणकारकस्य परिभाषां सोदाहरणं हिन्दीभाषायां लिखत।
उत्तरम् :
करणकारक - वाक्य में कर्ता अपने कार्य की सिद्धि के लिए जिसकी सबसे अधिक सहायता लेता है, उसे करणकारक कहते हैं। करणकारक में तृतीया विभक्ति होती है।
उदाहरण - गौरवः कलमेन लिखति। यहाँ गौरव कर्ता है, कलम करण है और लिखति क्रिया है। गौरव लिखने के लिए कलम की सबसे अधिक सहायता लेता है, अतः कलम करणकारक है।
प्रश्न III.
अपादानकारकस्य परिभाषां सोदाहरणं हिन्दीभाषायां लिखत।
उत्तरम् :
अपादानकारक - अलग होने में स्थिर या अचल कारक को अपादान कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जब दो वस्तुओं का अलगाव हो, तब जो वस्तु अपने स्थान पर स्थिर रहती है, उसी को अपादान कहते हैं। अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है।
उदाहरण -
(i) गौरवः ग्रामात् आयाति (गौरवः गांव से आता है)-यहाँ गांव अपने स्थान पर स्थिर रहता है। अतः वह अपादान कारक है।
(ii) धावतः अश्वात् बालकः पतति (दौड़ते हुए घौड़े से बालक गिरता है)-यहाँ पतन क्रिया में अश्व स्थिर है, अतः अपादान कारक है।
प्रश्न IV.
सम्प्रदानकारकस्य परिभाषां सोदाहरणं हिन्दीभाषायां लिखत।
उत्तरम् :
सम्प्रदानकारक - दान के कर्म द्वारा कर्ता जिसे सन्तुष्ट करना चाहता है, वह पदार्थ सम्प्रदान कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि दान क्रिया जिसके लिए होती है, उसे सम्प्रदान कहते हैं। सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है।
उदाहरण - विप्राय गां ददाति (ब्राह्मण को गाय देता है)-यहाँ गोदान रूपी कर्म के द्वारा कर्ता विप्र से सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है अतः विप्र सम्प्रदान कारक है।
प्रश्न V.
कर्मकारकस्य परिभाषां सोदाहरणं लिखत।
उत्तरम् :
कर्मकारक - कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा जिसे विशेष रूप से प्राप्त करना चाहता है, उसे कर्म कारक कहते हैं। कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है।
उदाहरण -
दिनेश: ग्रामं गच्छति। (दिनेश गाँव जाता है) - यहाँ कर्ता दिनेश जाने की क्रिया द्वारा ग्राम को प्राप्त करना चाहता है इसीलिए वाक्य में ग्राम कर्म है।
हरीशः फलं खादति। (हरीश फल खाता है) - यहाँ कर्ता हरीश खाने की क्रिया द्वारा फल को प्राप्त करना चाहता है इसीलिए वाक्य में फल कर्म है।
प्रश्न VI.
अधिकरण-कारकस्य परिभाषां सोदाहरणं लिखत।
उत्तरम् :
अधिकरण-कारक- वाक्य में क्रिया या कर्म के आधार को अधिकरण कारक कहा जाता है। यह आधार तीन प्रकार का होता है - 1. औपश्लेषिक, 2. वैषयिक, 3. अभिव्यापक।
अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है।
उदाहरण -
आसने तिष्ठति। (आसन पर बैठता है) - यहाँ बैठने की क्रिया का आधार आसन है इसीलिए वाक्य में आसन अधिकरण है। यह औपश्लेषिक (भौतिक संयोग वाला) आधार है। मोक्षे इच्छा अस्ति। (मोक्ष में इच्छा है) - यहाँ क्रिया का आधार मोक्ष है इसीलिए वाक्य में मोक्ष अधिकरण है। यह वैषयिक (बौद्धिक संयोग वाला) आधार है।
तिलेषु तैलम्। (तिलों में तेल है।) - यहाँ तेल का आधार तिल है इसीलिए वाक्य में तिलअधिकरण है। तेल पूरे तिल में व्यापक है इसीलिए यह अभिव्यापक आधार है।