Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sanskrit व्याकरणम् प्रत्ययाः Questions and Answers, Notes Pdf.
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तद्धित प्रत्यय, प्रातिपदिकों के अन्त में जोड़े जाते हैं। तद्धित प्रत्यय लग जाने से ये शब्द संज्ञा या विशेषण बन जाते हैं।
I. मतुप् प्रत्यय
मतुप् प्रत्यय 'अस्य अस्ति' (इसका है), 'अस्मिन् अस्ति' (इसमें है) इन दो अर्थों में प्रयोग किया जाता है। इन्हीं अर्थों में कुछ और भी प्रत्यय विशेषण बनाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं।
मतुप् प्रत्यय का वत् शेष रहता है। अकारान्त शब्दों को छोड़कर शेष शब्दों में वत् का मत् बन जाता है। मतुप् - प्रत्ययान्त शब्दों के रूप तीनों लिङ्गों में रहते हैं। इनके शब्द रूप पुंल्लिङ्ग में बलवत्' शब्द की तरह नपुंसकलिङ्ग में 'जगत्' शब्द की तरह तथा स्त्रीलिङ्ग में 'नदी' शब्द की तरह बनते हैं।
II. 'इन्' प्रत्यय
'णिनि' प्रत्यय का 'इन्' शेष रहता है। इन्' प्रत्यय स्वार्थ (वाला अर्थ) में जोड़कर विशेषण शब्द बनाए जाते हैं। णिनि
(इन्) प्रत्यय के कुछ प्रमुख उदाहरण -
इनके रूप पुंल्लिग में 'शशिन्' की तरह, स्त्रीलिंग में 'नदी' की तरह तथा नपुंसकलिंग में वारि' शब्द की तरह
चलते हैं।
III. तल, त्व प्रत्यय
ये प्रत्यय संज्ञा, विशेषण या अव्यय निर्माण करने के लिए लगाए जाते हैं। त्व प्रत्ययान्त शब्द सदैव नपुंसकलिङ्ग और भाववाचक होता है।
'तल' प्रत्यय भी भाव अर्थ में लगाया जाता है। 'तल' प्रत्यय लगाने से शब्द के साथ 'ता' लग जाता है। तल् प्रत्ययान्त शब्द सदैव स्त्रीलिङ्ग होता है।
"त्व' तथा 'तल्' (ता) प्रत्ययान्त शब्दों के कुछ प्रमुख उदाहरण -
IV. इक (ठ) प्रत्यय
'ठक्' तथा 'ठब्' प्रत्यय को 'इक' आदेश हो जाता है। 'इक' प्रत्यय लगाकर 'वाला अर्थ' में निम्न प्रकार से कुछ विशेषण शब्द बनाए जाते हैं -
कृदन्त प्रत्यय
परिभाषा - कृदन्त प्रत्यय धातुओं के अन्त में जुड़ते हैं। इन प्रत्ययों को जोड़ने से नाम और अव्यय बनते हैं।
सूचना-प्रायः सभी धातुरूपों के अन्त में उन धातुओं के कृदन्त रूप भी दिए गए हैं, वहाँ देख सकते हैं।
शत-शानच् प्रत्ययान्तशब्द
शतृ-प्रत्ययान्त शब्द बनाने के लिए धातुओं से परे 'अत्', लगाया जाता है-शतृ > अत्। 'शानच्' प्रत्यय का 'आन' या 'मान' बन जाता है। परस्मैपदी धातुओं के परे 'अत्' लगाया जाता है। आत्मनेपदी धातुओं के परे भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण और चुरादिगण में 'मान' तथा शेष गणों में आन' लगता है।
कुछ धातुओं के शत-शानच्-प्रत्ययान्त रूप नीचे दिए जाते हैं -
क्त तथा क्तवतु प्रत्ययों के नियम
नियम 1. क्त प्रत्यय किसी भी धातु से लगाया जा सकता है। इस प्रत्यय के (क) का लोप हो जाता है और फिर धातु के (इ), (उ) और (ऋ) गुण नहीं होता है, जैसे -
जितः, भूतः, कृतः, श्रुतः, स्मृतः आदि।
नियम 2. क्तवतु प्रत्यय कर्तवाच्य में प्रयुक्त होता है और कर्ता में प्रथमा विभक्ति और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। क्तवतु प्रत्ययान्त शब्द में वचन तथा विभक्ति आदि कर्ता के अनुसार होंगे, जैसे -
रामः ग्रामं गतवान्।
नियम 3. गत्यर्थक, अकर्मक और किसी उपसर्ग से युक्त स्था, जन्, वस, आस्, सह तथा जृ धातुओं से कर्ता के अर्थ में क्त प्रत्यय होता है, जैसे -
(i) गङ्गां गतः।
(ii) राममनुजातः।
नियम 4. सेट् धातुओं में क्त प्रत्यय करने पर धातु तथा प्रत्यय के बीच में 'इ' आ जाता है। जैसे -
ईक्ष् + इ + त = ईक्षितः। पठ् + इ + त = पठितः।
सेव् + इ + त = सेवितः। कुप् + इ + त = कुपितः।
नियम 5. यज्, प्रच्छ, सृज, इन धातुओं से त प्रत्यय परे होने पर इनके अन्तिम वर्ण कोष तथा यज् एवं प्रच्छ को सम्प्रसारण हो जाता है, अर्थात् 'व' को 'इ' तथा 'र' को 'ऋ' हो जाता है। फिर 'त् ' को 'ट्' होता है, जैसे -
यज् + तः = इष्टः।
प्रच्छ् + तः = पृष्टः।
सृज् + तः = सृष्टः।
नियम 6. शुष धातु से परे 'त' को 'क' हो जाता है, जैसे -
शुष् + त = शुष्कः।
नियम 7. पच् धातु से परे क्त = 'त' प्रत्यय होने पर 'त' का 'व' हो जाता है, जैसे -
पच् + क्त = पक्वः।
नियम 8. दा (देने) धातु को क्त प्रत्यय परे होने पर 'दत्' हो जाता है, जैसे -
दा + त = दत्तः।
नियम 9. धातु के अन्तिम श् को 'ष्' हो जाता है और 'ष्' से परे (त्) को (ट्) हो जाता है, जैसे -
नश् + त = नष्टः।
दृश् + त = दृष्टः।
स्पृश् + त = स्पृष्टः।
नियम 10. जिन अनिट् धातुओं के अन्त में 'द्' होता है उनसे आगे आने वाले क्त प्रत्यय के 'त्' को 'न्' तथा
धातु के 'द्' को भी न् हो जाता है, जैसे -
छिद् = तः = छिन्नः।
खिद् + तः = खिन्नः।
भिद् + तः = भिन्नः। .
तुद् + तः = तुन्नः।
नियम 11. धातु के अन्त के न् को म् तथा धातु के बीच में आने वाले अनुस्वार आदि का लोप हो जाता है, जैसे
गम् + तः = गतः।
रम् + तः = रतः।
हन् + तः = हतः।
तन् + तः = ततः।
मन् + तः = मतः।
नम् + तः = नतः।
अपवाद-जन् धातु के 'न्' को 'अ' हो जाता ह-जन् + क्त = जातः। श्रम, भ्रम, क्षम, दम्, वम्, शम्, क्रम, कम् धातुओं की उपधा को दीर्घ हो जाता है, जैसे-श्रान्तः, भ्रान्तः, दान्तः, वान्तः, शान्तः, क्रान्तः इत्यादि।
नियम 12. चुरादिगण की धातुओं से आगे (इत) लगाकर क्तान्त रूप बन जाता है, जैसे -
चुर् + इत = चोरितः।
कथ् + इत = कथितः।
गण् + इत = गणितः।
निन्द् + इत = निन्दितः।
नियम 13. निम्नलिखित धातुओं में सम्प्रसारण अर्थात् 'य' को 'इ' तथा 'र' को 'ऋ' होता है, जैसे -
वद् + त - उक्तः।
वस् + त = उषितम्।
वप् + त = उप्तः।
वद् + त = उदितः।
वह + न = ऊढः।
यज् + त = इष्टः।
हवे + त = हूतः।
प्रच्छ् + त = पृष्टः।
व्यध् + त = विद्धः।
ग्रह + त = गृहीतः।
स्वप् + त = सुप्तः।
ब्रू (वच्) + क्त = उक्तः।
मुख्य-मुख्य धातुओं के क्त तथा क्तवत् प्रत्ययों के रूप -
(पुंल्लिङ्ग प्रथमा विभक्ति एकवचन में)
क्त्वा-प्रत्ययान्त
वाक्य में दो क्रियाओं के होने पर जो क्रिया पहले समाप्त हो जाती है उसे बताने वाली धातु से क्त्वा प्रत्यय जोड़ा जाता है।
नियम - क्त्वा प्रत्यय के परे होने पर रूपसिद्धि के लिए वही नियम लागू होते हैं, जो क्त प्रत्यय के होने पर होते हैं। क्त्वा-प्रत्ययान्त शब्द अव्ययी होते हैं, जैसे -
विशेष - यदि धातु से पूर्व उपसर्ग हो तो क्त्वा के स्थान पर 'य' (ल्यप) लगता है, जैसे -
तुमुन्-प्रत्ययान्त
जब कोई कार्य अन्य (भविष्यत्) अर्थ के लिए किया जाए तो धातु से परे 'तुमुन्' प्रत्यय आता है। 'तुमुन्' का 'तुम्' शेष रह जाता है। जैसे -
पठ् + तुमुन् = पठितुम्-पढ़ने के लिए।
ध्यान रहे तुम् प्रत्यय के परे होने पर पूर्व इ, ई, उ, ऊ, ऋ तथा उपधा के इ, उ तथा ऋ को गुण हो जाता है, जैसे -
जि + तुम् = जेतुम्, कृ + तुम् = कर्तुम्
नी + तुम् = नेतुम्, वृध् + तुम् = वर्धितुम्
पठ् + तुमुन् = पठितुम्
भुज् + तुम् = भोक्तुम्
तव्यत्, अनीयर् तथा यत्
विधिकृदन्त शब्द धातु से परे तव्यत्, अनीयर् और यत् लगाने से बनते हैं। 'तव्यत्' का तव्य, 'अनीयर्' का अनीय तथा 'यत्' का य शेष रहता है।
नियम 1. तव्यत् तथा अनीयर् प्रत्यय के परे होने पर धातु के अन्तिम स्वर को गुण होता है; अर्थात् इ/ई, को 'ए', उ/ ऊ को 'ओ' और 'ऋ' को 'अर' हो जाता है ; जैसे -
जि + तव्यत् = जेतव्यः।
नी + तव्यत् = नेतव्यः।
स्तु + तव्यत् = स्तोतव्यः।
हु + तव्यत् = होतव्यः।
नियम 2. तव्यत् तथा अनीयर् प्रत्यय सकर्मक धातुओं से कर्म में होते हैं और वाक्य में अर्थ की उपेक्षा करने पर भाव में भी हो जाते हैं। अकर्मक धातुओं से भाव में ही यह प्रत्यय होता है।
नियम 3. अनीयर् (अनीय) प्रत्यय के परे होने पर 'इ' का आगम नहीं होता, प्रत्युत इ, उ को गुण करके क्रमशः, 'अय'. 'अव' आदेश कर देते हैं ; जैसे -
श्रि + अनीयर् = श्रे + अनीयर् = श्रयणीयः।
भू + अनीयर् = भो + अनीयर् = भवनीयः।
नियम 4. कर्म में प्रत्यय करने पर कर्ता में तृतीया और कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है और क्रिया कर्म के अनुसार होती है ; जैसे -
तेन ग्रामः गन्तव्यः।
नियम 5. भाव में प्रत्यय करने पर कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है और तव्य प्रत्ययान्त शब्द में नपुंसकलिङ्ग, प्रथमा विभक्ति एकवचन होता है ; जैसे -
तेन गन्तव्यम्। तेन कर्तव्यम्। तेन स्मरणीयम्।
नियम 6. अजन्त धातुओं से यत् 'य' प्रत्यय होता है। यत् प्रत्यय होने पर अजन्त धातुओं के (ई) तथा (उ) को गुण हो जाते हैं। जैसे -
चि + यत् = चेयम।
जि + यत् = जेयम्।
नी + यत् = नेयम्।
श्रु + यत् = श्रव्यम्।
नियम 7. यत् प्रत्यय के परे होने पर आकारान्त धातु के 'आ' को 'ए' हो जाता है ; जैसे -
पा + य = पेयम्।
स्था + य = स्थेयम्।
चि + य = चेयम्।
जि + य = जेयम्।
मुख्य-मुख्य धातुओं के तव्यत्, अनीयर् और यत् प्रत्ययान्त शब्द नीचे दिए गए हैं -
स्त्रीप्रत्यय
पुँल्लिग शब्दों के स्त्रीलिङ्ग शब्द बनाने के लिए जो प्रत्यय जोड़े जाते हैं, उन प्रत्ययों को स्त्री प्रत्यय' कहते हैं। संस्कृत व्याकरण के अनुसार इस प्रकार के चार प्रत्यय हैं -
(1) आ, (2) ई, (3) ऊ, (4) ति।
नियम 1. अकारान्त पुंल्लिग शब्दों के स्त्रीलिङ्ग शब्द बनाने के लिए प्रायः उनके आगे 'आ' लगाया जाता है; जैसे -
नियम 2. जिन अकारान्त पुंल्लिङ्ग शब्दों के अन्त में अक' होता है उनके स्त्रीलिङ्ग शब्द बनाने के लिए अन्त में 'इका' जोड़ा जाता है। जैसे -
नियम 3. कई पुंल्लिङ्ग शब्दों से स्त्रीलिङ्ग शब्द बनाने के लिए 'ई' प्रत्यय लगाया जाता है और शब्द के अन्त में 'अ' का लोप हो जाता है। जैसे -
नियम 4. ऋकारान्त, इन्नन्त तथा ईयस् एवं मत् वत् प्रत्ययान्त पुंल्लिङ्ग शब्दों से स्त्रीलिङ्ग शब्द बनाने के लिए उनके आगे 'ई' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। जैसे -
नियम 5. शतृ प्रत्ययान्त पुंल्लिङ्ग शब्दों से स्त्रीलिङ्ग शब्द बनाने के लिए भ्वादि, दिवादि और चुरादिगण की धातुओं से तथा णिजन्त धातुओं से शतृ प्रत्यय करने पर 'ई' प्रत्यय लगाकर 'त्' से पहले 'न्' जोड़ दिया जाता है; जैसे -
नियम 6. यदि तुदादिगण तथा अदादिगण की धातुओं से शतृप्रत्यय करने पर स्त्रीलिङ्ग बनाना हो तो 'ई' प्रत्यय करके 'त्' से पहले विकल्प से 'न्' लगाया जाता है ; जैसे -
नियम 7. जातिवाचक अकारान्त शब्दों से स्त्रीलिङ्ग बनाने के लिए 'ई' प्रत्यय जोड़ा जाता है; जैसे -
अपवाद - जिन अकारान्त जातिवाचक पुंल्लिङ्ग शब्दों के अन्त में 'य' होता है, उनके स्त्रीलिङ्ग शब्द बनाने के लिए 'आ' प्रत्यय जोड़ा जाता है; जैसे -
नियम 8. गुणवाचक उकारान्त शब्दों से स्त्रीलिङ्ग बनाने के लिए उनके अन्त में 'ई' प्रत्यय लगाया जाता है; जैसे -
नियम 9. इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, हिम, अरण्य, मृड, यव, यवन, मातुल, आचार्य-इन शब्दों से स्त्रीलिङ्ग शब्द बनाने के लिए इनके अन्त में 'आनी' प्रत्यय लगाया जाता है; जैसे -
सूचना - (क) हिम तथा अरण्य शब्दों से महत्त्व अर्थ में भी 'आनी' प्रत्यय जोड़ा जाता है। (ख) मातुल और उपाध्याय-इन शब्दों से 'ई' प्रत्यय करने पर विकल्प से आन् आगम हो जाता है। अत: इन शब्दों के दो-दो रूप बनते हैं। जैसे-मातुल = मातुलानी, मातुली। उपाध्याय = उपाध्यायानी, उपाध्यायी।
नियम 10. 'युवन्' शब्द से स्त्रीलिंग बनाने के लिए 'ति' प्रत्यय लगाया जाता है ; जैसे -
युवन् युवतिः
नियम 11. उकारान्त मनुष्यवाचक शब्दों में ऊ प्रत्ययं लगाया जाता है; जैसे -
कुछ प्रष्टव्य शब्दों के स्त्रीप्रत्ययान्त रूप
पाठ्यपुस्तक से उदाहरण -
पाठ्यपुस्तक से उदाहरण -
1. प्रकृति प्रत्ययं च योजयित्वा पदरचनां कुरुत -
त्यज् + क्तः; कृ + शत; तत् + तसिल
उत्तरम् :
(क) त्यज् + क्त = त्यक्तः
(ख) कृ + शतृ = बु
(ग) तत् + तसिल = ततः
2. प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम्
प्रेत्य, तीर्खा, धावतः, तिष्ठत्, जवीयः
उत्तरम् :
(क) प्रेत्य = प्र + √इ + ल्यप्
(ख) तीर्वा = √तु + क्त्वा
(ग) धावत: = √धाव् + शतृ (नपुंसकलिङ्गम्, षष्ठी-एकवचनम्)
(घ) तिष्ठत् = √स्था + शतृ (नपुंसकलिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
(ङ) जवीयः = जव + ईयसुन् > ईयस् (नपुंसकलिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
II. प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम् -
(क) अर्थी
(ख) मृण्मयम्
(ग) शासितुः
(घ) अवशिष्टः
(ङ) उक्त्वा
(च) प्रस्तुतम्
(छ) उक्तः
(ज) अवाप्य
(झ) लब्धम्
(ब) अवेक्ष्य।
उत्तरम् :
III. प्रकृति-प्रत्ययविभागः क्रियताम्
उत्तरसहितम् -
IV. अधोलिखितशब्देषु प्रकृतिप्रत्ययानां विभागः करणीयम् -
यथा - राजितम् = राज् + क्त
उत्तरसहितम् -
(क) दैष्टिकताम् = दैष्टिक + तल्
(ख) कुर्वाणः = √कृ + शानच् (आत्मनेपदे)
(ग) पटुता = पटु + तल्
(घ) सिद्धम् = √सिध् + क्त
(ङ) विमृश्य = वि √मृश् + ल्यप्
V. प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम् -
उपक्रान्तवान्, विधाय, गत्वा, गृहीत्वा, स्थितः, व्यतिक्रम्य, दातव्यम्।
उत्तरम् :
VI. अधोलिखितानां पदानां प्रकृतिप्रत्ययविभागं प्रदर्शयत -
प्रयुक्तः, उत्थितः, उत्प्लुत्य, रुतैः, उपत्यकातः, उत्थितः, ग्रस्यमानः।
उत्तरम् :
VII. अधोलिखितेषु पदेषु प्रकृतिप्रत्ययविभागं कुरुत -
समाप्य, जातम्, त्यक्त्वा, धृत्वा, पठन्, संपोष्य
उत्तरम् :
VIII. प्रकृति-प्रत्ययविभागः क्रियताम् -
निकृष्टतमा, उपगम्य, प्रवर्तमाना, अतिक्रान्तम्, व्याख्याय, कथयन्तु, उपघ्नन्ति, आक्रीडनम्।
उत्तरम् :
IX. प्रकृति-प्रत्ययविभागः क्रियताम् -
उत्तरसहितम् -
(क) निर्मुच्य = निर् + (मुच् + क्त्वा > ल्यप्
(ख) आदाय = आ + √दा + क्त्वा > ल्यप्
(ग) प्रविष्टः = प्र + √विश् + क्त (पुंल्लिङ्गम्, प्रथमा-एकवचनम्)
(घ) आगत्य = आ + √गम् + क्त्वा > ल्यप्
(ङ) परिज्ञातम् = परि + √ज्ञा + क्त (नपुंसकलिङ्गम् प्रथमा-एकवचनम्)