Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi रचना कविता / नाटक / कहानी की रचना प्रक्रिया Questions and Answers, Notes Pdf.
The questions presented in the RBSE Solutions for Class 12 Hindi are solved in a detailed manner. Get the accurate RBSE Solutions for Class 12 all subjects will help students to have a deeper understanding of the concepts. Students can access the class 12 hindi chapter 4 question answer and deep explanations provided by our experts.
1. कैसे बनती है कविता
कविता क्या है?
कविता मनुष्य के भावों को अभिव्यक्त करने का एक सुन्दर प्रयास है। कविता को मानव-मात्र की मातृभाषा भी कहा जाता है। अत: कविता की आकर्षण शक्ति को देखते हुए कहा जा सकता है कि कविता को स्वयं पढ़ने अथवा किसी दूसरे को पढ़ाने में जो आनन्द आता है वह दूर से आते संगीत (चाहे वह अपरिचित ही हो) को सुनने के समान आनन्ददायक होता है।
कविता हमें अपनी ओर खींचती तो है ही. पर कभी-कभी जटिल और अबझ-सी भी लगती है जिसे समझ पाना भी कठिन हो जाता है। अतः उसे बार-बार सुनने पर उसकी अनुगूंज हमारे अन्तर्मन को सुंदर बनाकर जीने की कला सिखाती है।
कविता में अपने भावों और विचारों को छंद, लय, ताल, स्वर में बाँधकर तथा प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से प्रकट किया जाता है।
कविता मुक्त छंद में भी हो सकती है। उसे लय, ताल, स्वर की भी आवश्यकता नहीं होती। फिर भी वह कविता होती है।
कवि के हृदय की तीव्र अनुभूति से ही कविता की सृष्टि होती है। कविता कैसे बनी, यह बहुत पुरानी कहानी है। बचपन में सभी अपनी माता, दादी या नानी की लोरियाँ सुनकर ही आँखें मिचमिचाते हुए सोते हैं। कविता का जन्म उन लोरियों से ही होता है। इसी प्रकार खेतों-खलिहानों अथवा अन्य प्रकार का श्रम करते किसानों और मजदूरों द्वारा अनायास ही कुछ गुनगुनाने लग जाने से भी कविता का जन्म होता है। घर के मांगलिक कार्यों एवं धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों में भी कविता होती है। तुकबंदी से भी कविता बनती है। अतः कविता बनने के अनेक कारण होते हैं।
कविता के महत्वपर्ण घटक -
कविता लेखन के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इनको कविता का घटक कहते हैं। इनके बिना कविता की रचना करना संभव नहीं है। कविता के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं -
(अ) भाषा-कविता लेखन के लिए भाषा का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। भाषा ही वह माध्यम है जिसमें कवि अपनी संवेदनाओं और भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है। अतः कवि के लिए भाषा के वैज्ञानिक तत्त्वों का ज्ञाता होना आवश्यक है।
(ब) कविता के छंद-कविता में छंद का होना भी आवश्यक है। छंद का अर्थ एक अनुशासन से है, अतः कविता को सुगठित बनाने के लिए छंद का ज्ञान होना आवश्यक है।
(स) संकेतों का प्रयोग-कविता में संकेतों का बड़ा महत्त्व होता है.। कविता में प्रत्येक चिह्न का कुछ-न-कुछ अर्थ अवश्य होता है। अतः संकेतों के ज्ञान से कविता को समझने में सहायता मिलती है।
(द) समय का ज्ञान-कविता समय विशेष में लिखी जाती है। उसका स्वरूप समय के साथ बदलता रहता है। अतः कविता लेखन के लिए किसी समय विशेष में प्रचलित प्रवृत्तियों की पूरी जानकारी होना भी आवश्यक है।
(य) नवीन दृष्टि-कविता लिखने के लिए कवि में सभी चीजों को देखने की नवीन दृष्टि होनी चाहिए। इसके साथ ही उसे नए ढंग से अभिव्यक्त करने की कला से भी परिचित होना चाहिए।
(र) प्रतिभा-कवि की व्यक्तिगत प्रतिभा से ही श्रेष्ठ रचना रची जा सकती है।
(ल) संक्षिप्तता-कवि में कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बात कहने की क्षमता होनी चाहिए। कम-से-कम और चुने हुए शब्दों द्वारा सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुतीकरण में ही कवि की महानता है।
कविता में बिंब विधान -
किसी शब्द को पढ़कर या सुनकर जब हमारे मन में कोई चित्र उभर आता है, तो उसे काव्य की भाषा में बिंब कहा जाता है। अतः कविता में बिंबों का बड़ा महत्त्व है। कविता में चित्रमय शब्दों का प्रयोग करने से उसकी ग्राह्यता बढ़ जाती है। बिंब के माध्यम से किसी अनुभूति को सहज ही कविता में ढाला जा सकता है जो सहज ही समझ में आ सकती है। हमारी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ इसलिए ही हैं कि हम संसार को भलीभाँति समझ सकें। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से पाँच बिंब बनते हैं, जैसे- नेत्रों से दृश्य बिंब, कानों से श्रव्य बिंब, त्वचा से स्पृश्य बिंब, नासिका से घ्राण बिंब और जीभ से स्वाद्य बिंब। इन बिंबों से ही हम संसार को समझ सकते हैं। इन बिंबों के प्रयोग से ही कविता आसानी से समझ में आने योग्य बनती है। उदाहरणस्वरूप पंतजी की कविता 'संध्या के बाद' की ये पंक्तियाँ ली जा सकती हैं -
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ विधवाएँ जप-ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता जिनका अदृश्य गति अंतर-रोदन।
कविता की इन पंक्तियों को पढ़ते ही बगुलों-सी वृद्धाओं और विधवाओं का बगुलों जैसा सफेद रंग, उनका घुटे हुए सिर के कारण गर्दन का आकार और सफेद वस्त्रों का एक चित्र उभर आता है। इस प्रकार बिंबों के माध्यम से कविता को समझना आसान हो जाता है।
कविता में परिवेश/चित्रण -
कविता का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व देशकाल और वातावरण अर्थात् परिवेश होता है। उसी के अनुरूप कविता के सारे घटक परिचालित होते हैं और भाषा, संरचना, बिंब, छंद आदि का चुनाव किया जाता है। प्राकृतिक परिवेश को चित्रित करने के लिए उसी के अनुरूप भाषा, बिंब आदि का चुनाव करना आवश्यक होता है। उदाहरणस्वरूप प्रसाद जी की कविता 'बीती विभावरी' को लिया जा सकता है।।
'बीती विभावरी जाग री।
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट. उषा नागरी।'
इसी प्रकार कविवर नागार्जुन ने 'अकाल और उसके बाद' कविता में ग्रामीण परिवेश की शब्दावली और बिंबों का प्रयोग करके अकाल के गहरे प्रभाव का वर्णन किया है, जैसे -
कई दिनों तक चूल्हा : रोया, चक्की रही उदास।
कई दिनों तक कानी-कुतिया सोई उनके पास ॥
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त।
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ॥
इस कविता में चूल्हा, चक्की, कुतिया, भीत, छिपकलियाँ, चूहे आदि इस तथ्य को उजागर कर देते हैं कि भीषण अकाल का प्रभाव सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों पर पड़ता है, जो जीवन की कम-से-कम आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी सक्षम नहीं हैं। कवि नागार्जुन शब्दों के खिलाड़ी हैं, अतः यहाँ शब्दों के इस खेल को स्पष्ट देखा जा सकता है।
इससे यह सिद्ध होता है कि परिवेश की जीवंतता के लिए सही शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। उसी के अनुरूप भाषा, छंद, लय आदि होने चाहिए।
2. नाटक लिखने का व्याकरण
नाटक किसे कहते हैं -
भारतीय काव्यशास्त्र में दो तरह के काव्य माने गए हैं- एक दृश्य काव्य और दूसरा श्रव्य काव्य। इनमें से नाटक को दृश्य काव्य माना जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि नाटक पढ़ने के साथ-साथ देखा भी जा सकता है। एक सफल नाटक वही होगा जो अभिनय के साथ-साथ पठनीय भी हो।
नाटक की सफलता तो उसकी पाठ्य-सामग्री है पर उसकी संपूर्णता मंच पर सफल मंचन के साथ ही होती है। इसलिए कहा जाता है कि नाटक साहित्य की वह विधा है जिसे पढ़ा, सुना और देखा जा सकता है। नाटक को अभिनेताओं द्वारा अपने सहरंगकर्मियों के साथ निदेशक की देखरेख में रंगमंच पर प्रस्तुत किया जा सकता है।
नाटक और साहित्य की अन्य विधाओं में अन्तर : साहित्य की अन्य विधाएँ हैं- कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि। स्वयं नाटक भी इनमें से ही. एक विधा है किन्तु नाटक की अपनी कुछ अन्य विशेषताएँ भी हैं, जैसे नाटक दृश्य-काव्य होता है। नाटक का यह.सबसे बड़ा गुण है। अन्य विधाओं का रसास्वादन उनके लिखित रूप को पढ़ने और सुनने से प्राप्त होता है किन्तु नाटक को सरसता उसको रंगमंच पर घटित होता हुआ देखने में है।
नाटक की भाषा-शैली -
रंगमंच पर प्रस्तुति हेतु नाटक की रचना की जाती है। इसलिए इसकी भाषा सहज, सरल तथा प्रसंगानुकूल होनी चाहिए। जैसे- पौराणिक प्रसंगों से युक्त नाटक की भाषा तत्सम प्रधान होती है। मुगलकालीन नाटक की भाषा उर्दू शब्दों से युक्त होगी। आधुनिक काल के नाटकों की भाषा खड़ी-बोली के साथ प्रचलित अंग्रेजी, उर्दू, अरबी-फारसी शब्दों से युक्त होगी।
नाटक के तत्त्व-नाटक में निम्नलिखित तत्त्व होते हैं :
(i) समय का बंधन नाटककार को समय का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। उसे एक निश्चित समय-सीमा में ही नाटक पूरा करना पड़ता है। दर्शकों के धैर्य को देखकर ही नाटक की समयावधि निर्धारित की जाती है।
(ii) शब्द-नाटक का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व 'शब्द' है। 'शब्द' नाटक का शरीर होता है। अतः नाटककार को सांकेतिक भाषा का प्रयोग करना चाहिए। व्यंजनापरक शब्दों का प्रयोग नाटक की रोचकता में वृद्धि करता है।
(iii) कथ्य-नाटककार को यह ध्यान रखना चाहिए कि नाटक मंच पर अभिनीत होगा। इसलिए सभी घटनाओं को क्रम से रखना चाहिए जिससे नाटक शून्य से शिखर की ओर विकास करे। इस प्रकार कथ्य को सही ढंग से प्रस्तुत करने में नाटक की सफलता निहित है।
(iv) संवाद-नाटक का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व संवाद है। संवादों के बिना नाटकों की गतिशीलता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। संवादों से ही नाटक के चरित्रों का विकास होता है। संवाद ही कथ्य को गतिशील बनाते हैं।.ये जितने सहज होंगे उतना ही दर्शकों के मर्म को छएँगे। अत: नाटक के संवादों को परिवेश के अनुकूल ही सहज-स्वाभाविक होना चाहिए तभी वे दर्शकों को बाँधने में सफल होते हैं और नाटक की सार्थकता भी तभी सिद्ध होती है।
नाटक में स्वीकार और अस्वीकार की अवधारणा -
नाटक में स्वीकार के स्थान पर अस्वीकार का अधिक महत्त्व होता है। नाटक में अस्वीकार तत्त्व के आ जाने से नाटक सशक्त हो पाता है। कोई भी दो चरित्र जब आपस में मिलते हैं तो विचारों के आदान-प्रदान में टकराहट होती है।
रंगमंच में कभी भी यथास्थिति को स्वीकार नहीं किया जाता। वर्तमान में स्थिति के प्रति असंतोष का भाव, छटपटाहट, प्रतिरोध और अस्वीकार जैसे नकारात्मक तत्त्वों के समावेश से ही नाटक सशक्त बनता है। अतः हम देखते हैं कि हमारे देश के नाटकों में राम की अपेक्षा रावण, प्रह्लाद के स्थान पर हिरण्यकश्यप का चरित्र अधिक आकर्षित करता है। यद्यपि विचार, व्यवस्था अथवा तात्कालिक समस्या को भी नाटक में सहज स्वीकार किया गया है तथापि इस प्रकार के लिखे गए नाटक लम्बे समय तक लोकप्रिय नहीं हो पाए।
3. कैसे लिखें कहानी
कहानी क्या है -
कहानी साहित्य की एक ऐसी विधा है जो अपने ही सीमित क्षेत्र में पूर्ण, स्वतंत्र एवं प्रभावशाली है। कहानी की यही विशेषता है कि इसमें एक मानव के जीवन की किसी प्रमुख घटना का वर्णन होता है।
समय-समय पर अलग-अलग विद्वानों ने कहानी की अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं। प्रेमचन्द ने कहा है कि "कहानी एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी अंग, किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है। उसका चरित्र, उसकी शैली तथा कथा विन्यास सब उसी भाव की पुष्टि करते हैं।"
अर्थात् किसी घटना, पात्र या समस्या की क्रमबद्ध जानकारी प्रस्तुत करना जिसमें परिवेश, द्वन्द्वात्मकता का भी समावेश हो तथा चरम उत्कर्ष का बिन्दु हो, उसे कहानी कहा जा सकता है।
हमारे जीवन से संबंध : सदैव से कहानी मानव जीवन का प्रमुख हिस्सा रही है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में कहानी सुनना-सुनाना पसंद करता है। प्रत्येक मनुष्य में अपने अनुभव बाँटने और दूसरों के अनुभवों को जानने की प्राकृतिक इच्छा होती है।
अतः कहा जा सकता है कि कहानी कहने की प्रवृत्ति मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति हैं। इसका विकास होने पर ही कहानी कला का विकास हुआ है जो आधुनिक कहानी के रूप में विकसित हुई है।
कहानी का इतिहास -
कहानी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव का इतिहास क्योंकि कहानी मानव स्वभाव या प्रकृति का हिस्सा है।
(i) कथा-वाचक कहानियाँ सुते थे।
(ii) कहानी में घटना, युद्ध, प्रेम, प्रतिशोध के किस्से सुनाए जाते थे।
(iii) मानव स्वभाव का एक गुण कल्पना भी है। अतः सच्ची घटनाओं पर आधारित कथा-कहानी सुनाते-सुनाते उसमें कल्पना को जोड़ा जाने लगा क्योंकि प्रायः मनुष्य वही सुनना चाहता है जो उसे पसन्द है।
(iv) हम कहानी के नायक की हार पसन्द नहीं करते। अतः सुनाने वाला अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर नायक के गुणों का बखान करता है।
(v) हमारे देश में मौखिक कहानी की परंपरा बहुत पुरानी है और आज तक प्रचलित है। खासतौर से। राजस्थान में आज भी यह परंपरा जीवित है।
(vi) प्राचीनकाल से ही कहानी संचार का लोकप्रिय माध्यम रहा है। इसलिए मौखिक परंपरा चलती रही। धर्म प्रचारकों ने भी कहानी को ही अपना माध्यम बनाया। शिक्षा का माध्यम भी कहानी ही थी। जैसे- पंचतंत्र की कहानियाँ बहुत शिक्षाप्रद हैं। 'उद्देश्य' का समावेश शुरू से ही हो गया, जो आगे चलकर और विकसित हुआ। कहानी के तत्व व क्लाइमेक्स कहानी के निम्न तत्व होते हैं -
(i) कथानक-कहानी का केन्द्रबिन्दु कथानक होता है। इस प्रकार कथानक कहानी का वह संक्षिप्त रूप है जिसमें प्रारम्भ से अन्त तक कहानी की सभी घटनाओं और पात्रों का उल्लेख किया गया हो। कथामक में तीन स्थितियाँ होती हैं. प्रारंभ, मध्य और अन्त। कथानक आगे बढ़ता है तो उसमें द्वन्द्व तत्त्व भी होता है। द्वन्द्व का अर्थ है बाधा। द्वन्द्व कहानी को रोचकता प्रदान करता है।
(ii) देशकाल कथानक का स्वरूप बन जाने के बाद कहानीकार कथानक के देशकाल को पूरी तरह समझ लेता है क्योंकि कहानी की प्रामाणिकता और रोचकता के लिए यह बहुत आवश्यक तत्त्व है। देश का अर्थ है स्थान तथा काल का अर्थ है समय। कथानक के घटित होने का स्थान और समय ही देशकाल है।
(iii) पात्र कहानीकार के मन में अपने पात्रों के स्वरूप की स्पष्ट छवि होनी चाहिए तभी वह अपने पात्रों का चरित्र-चित्रण करने में तथा संवाद लिखने में सफल हो सकता है। कहानीकार को चाहिए कि वह पात्रों के गुणों का स्वयं बखान न करके पात्र के क्रियाकलापों अथवा अन्य लोगों के कथन द्वारा उसके गुणों को प्रकट करे।
(iv) संवाद-संवाद के बिना पात्रों की कल्पना मुश्किल है। संवाद ही कहानी को, पात्र को स्थापित करते हैं, विकसित करते हैं और कहानी को गति प्रदान करते हैं। अतः कहानी में पात्रों द्वारा बोले गए संवादों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। संवाद विश्वासों, आदर्शों और स्थितियों के अनुकूल हों। संवाद संक्षिप्त हों, लम्बे-लम्बे संवाद उबाऊ हो जाते हैं।
(v) चरमोत्कर्ष (क्लाइमेक्स) कहानी को धीरे-धीरे चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ाना चाहिए। इसे कहानी का .. क्लाइमेक्स भी कहते हैं। चरमोत्कर्ष पाठक को स्वयं सोचने और लेखक के उद्देश्य को समझने की प्रक्रिया के द्वाराः। प्राप्त होना चाहिए। लेखक को ऐसे प्रयत्न करने चाहिए जिससे पाठक को लगे कि वह चरमोत्कर्ष पर पहुँचने के लिए स्वतन्त्र है। उसे लगे कि उसने जो भी निर्णय निकाला है वह स्वयं उसी का है।
महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर -
प्रश्न 1.
कविता से आप क्या समझते हैं? लिखिए। .
उत्तर :
कविता मनुष्य के भावों को अभिव्यक्त करने का एक सुन्दर प्रयास है। कविता को मानव-मात्र की मातृभाषा भी कहा जाता है। अतः कविता की आकर्षण शक्ति को देखते हुए कहा जा सकता है कि कविता को स्वयं पढ़ने अथवा किसी दूसरे को पढ़ाने में जो आनन्द आता है वह दूर से आते संगीत (चाहे वह अपरिचित ही हो) को सुनने के समान आनन्ददायक होता है।
प्रश्न 2.
कविता में वाक्य संरचना क्या है?
उत्तर :
कविता में वाक्य संरचना का ध्यान रखना भी अति आवश्यक है क्योंकि किसी पंक्ति की संरचना को बदल देने पर अर्थ भी बदल जायेगा। कविता में शब्दों के पर्याय नहीं होते हैं इस कारण किसी अन्य शब्द का उस स्थान पर प्रयोग किये जाने से कविता के भाव या अर्थ में परिवर्तन आ जायेगा। अतः एक कवि या लेखक को इनकी जानकारी होना चाहिये।
प्रश्न 3.
कविता हमें जीने की कला सिखाती है। स्पष्ट कीजिए। .
उत्तर :
कविता हमें अपनी ओर खींचती तो है ही, पर कभी-कभी जटिल और अबूझ-सी भी लगती है, जिसे समझ पाना भी कठिन हो जाता है। अतः उसे बार-बार सुनने पर उसकी अनुगूंज हमारे अन्तर्मन को सुंदर बनाकर जीने की कला सिखाती है।
प्रश्न 4.
सुंदर कविता की रचना किस प्रकार होती है?
उत्तर :
कविता की रचना के लिये आवश्यक है कवि की वैयक्तिक सोच, दृष्टि और दुनिया को देखने का उसका अपना नजरिया। ये कवि की भाव सम्पदा होती है। कवि की वैयक्तिकता में सामाजिकता का मिश्रण होता है, कुछ-कुछ कवि निराला की सरोज-स्मृति की तरह निजी और उतनी ही सामाजिक। इसे वह भाषा के रूप में प्रयोग करता है। भाषा के साथ कवि का यह व्यवहार ही कविता कहलाती है।
प्रश्न 5.
कविता की शैली विधा पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
कविता में अपने भावों और विचारों को छंद, लय, ताल, स्वर में बाँधकर तथा प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से प्रकट किया जाता है। कविता मुक्त छंद में भी हो सकती है। उसे लय, ताल, स्वर की भी आवश्यकता नहीं होती। फिर भी वह कविता होती है।
प्रश्न 6.
कविता में लय व ताल का क्या योगदान हैं?
उत्तर :
लय व ताल व लय के माध्यम से कविता में गेयता आती है, जिससे संगीतबद्ध कविता स्मरणीय होने के साथ आनन्द भी प्रदान करती है। अतः कविता में लय व ताल का होना आवश्यक है। इसके बिना कविता पढ़ने व सुनने में आनन्द की अनुभूति नहीं होती है।
प्रश्न 7.
कविता की सृष्टि कैसे होती है? लिखिए। .
उत्तर :
कविता का जन्म उन लोरियों से ही होता है। इसी प्रकार खेतों-खलिहानों अथवा अन्य प्रकार का श्रम करते किसानों और मजदूरों द्वारा अनायास ही कुछ गुनगुनाने लग जाने से भी कविता का जन्म होता है। घर के मांगलिक कार्यों एवं धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों में भी कविता होती है। तुकबंदी से भी कविता बनती है। अतः कविता बनने के अनेक कारण होते हैं।
प्रश्न 8.
छन्द-मुक्त कविता दो क्या आशय है?
उत्तर :
छन्द-मुक्त कविता के लिए अर्थ की लय का निर्वाह किया जाता है। इसके लिए कवि को भाषा की पहचान अनिवार्य है जिसमें मात्रात्मक तत्व को निर्देशित न करते हुए भी अर्थ की गेयता की लय होती है। कवि धूमिल की कविता मोचीराम में कोई छन्द नहीं है किन्तु आन्तरिक अर्थ, लय मौजूद है। अतः मात्रिक छन्द नहीं है किन्तु अर्थ निश्चित है।
प्रश्न 9.
कविता के प्रमुख घटक कितने होते हैं? किन्हीं दो घटकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
कविता के सात महत्वपूर्ण घटक- (अ) भाषा, (ब) कविता के छंद, (स) संकेतों का प्रयोग, (द) समय का ज्ञान, (य) नवीन दृष्टि, (र) प्रतिभा, (ल) संक्षिप्तता।
कविता के दो घंटक
(अ) भाषा-कविता लेखन के लिए भाषा का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। भाषा ही वह माध्यम है जिसमें कवि अपनी संवेदनाओं और भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है। अतः कवि के लिए भाषा के वैज्ञानिक तत्त्वों का ज्ञाता होना आवश्यक है।
(ब) कवित के छंद-कविता में छंद का होना भी आवश्यक है। छंद का अर्थ एक अनुशासन से है, अतः कविता को सुगठित बनाने के लिए छंद का ज्ञान होना आवश्यक है।
प्रश्न 10.
कविता लेखन के सन्दर्भ में कितने मत हैं?
उत्तर :
कविता लेखन के सन्दर्भ में दो मत, हैं
1. कविता लेखन सिखाया नहीं जा सकता क्योंकि यह भाव है तथा प्रत्येक व्यक्ति में भावों को अनुभूत करने की प्रक्रिया तथा उन्हें प्रस्तुत करने का स्तर अलग-अलग होता है।
2. दूसरा मत है कि कविता लेखन सिखाया जा सकता है। इसके लिए पहले शब्दों से खेलना का प्रशिक्षण देना चाहिए, उसके बाद कविता लेखन का।
प्रश्न 11.
कविता में बिंब विधान का महत्व बताइए।
उत्तर :
किसी शब्द को पढ़कर या सुनकर जब हमारे मन में कोई चित्र उभर आता है, तो उसे काव्य की भाषा में बिंब कहा जाता है। अतः कविता में बिंबों का बड़ा महत्त्व है। कविता में चित्रमय शब्दों का प्रयोग करने से उसकी ग्राह्यता बढ़ जाती है। बिंब के माध्यम से किसी अनुभूति को सहज ही कविता में ढाला जा सकता है जो सहज ही समझ में आ सकती है।
प्रश्न 12.
कविता में शब्दों के पर्याय की संभावना नहीं हैं क्यों?
उत्तर :
कविता में शब्दों के पर्याय की संभावना इसलिए नहीं है क्योंकि कविता लिखने का कोई न कोई उद्देश्य होता है तथा शब्द अपने अर्थ विशेष के लिए प्रसिद्ध होता है। कविता में कवि का जो उद्देश्य है वह निश्चित अर्थ वाले शब्द के लिए है अतः शब्द बदलते ही कविता का भाव बदल जाता है। एक शब्द के कई अर्थ होते हैं। भाव के अनुसार शब्द का चयन आवश्यक होता है।
प्रश्न 13.
बिंब विधान से आप क्या समझते हैं? लिखिए।
उत्तर :
हमारी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ इसलिए ही हैं कि हम संसार को भलीभाँति समझ सकें। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से पाँच बिंब बनते हैं, जैसे- नेत्रों से दृश्य बिंब, कानों से श्रव्य बिंब, त्वचा से स्पृश्य बिंब, नासिका से घ्राण बिंब और जीभ से स्वाद्य बिंब। इन बिंबों से ही हम संसार को समझ सकते हैं। इन बिंबों के प्रयोग से ही कविता आसानी से समझ में आने योग्य बनती है।
प्रश्न 14.
कविता में बिंब प्रयोग का उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ विधवाएँ जप-ध्यान में मगन, मंथर धारा में बहता जिनका अदृश्य गति अंतर-रोदन। कविता की इन पंक्तियों को पढ़ते ही बगुलों-सी वृद्धाओं और विधवाओं का बगुलों जैसा सफेद रंग, उनका घुटे हुए सिर के कारण गर्दन का आकार और सफेद वस्त्रों का एक चित्र उभर आता है। इस प्रकार बिंबों के माध्यम से कविता को समझना आसान हो जाता है।
प्रश्न 15.
कविता में परिवेश का क्या महत्व है? बताइए।
उत्तर :
कविता का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व देशकाल और वातावरण अर्थात् परिवेश होता है। उसी के अनुरूप कविता के सारे घटक परिचालित होते हैं और भाषा, संरचना, बिंब, छंद आदि का चुनाव किया जाता है। प्राकृतिक परिवेश को चित्रित करने के लिए उसी के अनुरूप भाषा, बिंब आदि का चुनाव करना आवश्यक होता है।
प्रश्न 16.
'नाटक' विधा से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भारतीय काव्यशास्त्र में दो तरह के काव्य माने गए हैं- एक दृश्य काव्य और दूसरा श्रव्य काव्य। इनमें नाटक को दृश्य काव्य माना जाता है। नाटक साहित्य की वह विधा है जिसे पढ़ा, सुना और देखा जा सकता है। नाटक को अभिनेताओं द्वारा अपने सहरंगकर्मियों के साथ निदेशक की देखरेख में रंगमंच पर प्रस्तुत किया जा सकता है।
प्रश्न 17.
नाटक साहित्य की अन्य विधाओं से कैसे अलग है? स्पष्ट करें।
उत्तर :
नाटक साहित्य की अन्य विधाओं से भिन्न है क्योंकि जहाँ साहित्य की अन्य विधाएँ अपने लिखित रूप में एक निश्चित और अंतिम रूप को प्राप्त कर लेती हैं वहीं नाटक अपने लिखित रूप में सिर्फ एक पक्षीय ही होता है। जब उस नाटक का मंचन होता है तब वह पूर्ण रूप प्राप्त करता है। जहाँ साहित्य की दूसरी विधाएँ पढ़ने या सुनने तक सीमित होती हैं वहीं नाटक पढ़ने-सुनने के साथ-साथ देखा भी जाता है।
प्रश्न 18.
नाटक में चरित्र प्रस्तुत करते समय आवश्यक सावधानियाँ लिखिए।
उत्तर :
नाटक में जो चरित्रं प्रसुत्त किये जायें वे सपाट, सतही और टाइप्ड न हों। नाटक में चरित्रों के विकास में इस बात का भी ध्यान रखा जाये कि बे स्थिति के अनुसार क्रिया-प्रतिक्रिया को व्यक्त कर सकें। नाटककार कथानक के माध्यम से जो भी कुछ कहना चाहता है उसे अपने चरित्रों और उनके बीच होने वाले परस्पर संवादों से ही अभिव्यक्त करता है। अत: चरित्रों के संवाद भी सहज और स्वाभाविक होने चाहिए।
प्रश्न 19.
साहित्य की अन्य विधाओं और नाटक विधा में मूलभूत अंतर बताइए। ..
उत्तर :
साहित्य की अन्य विधाएँ हैं- कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि। स्वयं नाटक..भी इनमें से ही एक विधा है किन्तु नाटक की अपनी कुछ अन्य विशेषताएँ भी हैं, जैसे- नाटक दृश्य-काव्य होता है। नाटक का यह सबसे बड़ा गुण है। अन्य विधाओं का रसास्वादन उनके लिखित रूप को पढ़ने और सुनने से प्राप्त होता है किन्तु नाटक की सरसता उसको रंगमंच पर घटित होता हुआ देखने में है।
प्रश्न 20.
नाटककार एक सफल सम्पादक होना चाहिए? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
नाटककार को सम्पादक इसलिए होना चाहिए क्योंकि उसको जो कथ्य कहानी में निहित है उसके अनुरूप दृश्य तैयार करना आना चाहिए जिससे वह दर्शकों को छू सके तथा एक सहज तरीके से नाटक आगे बढ़ सके, साथ ही पूरा नाटक रोचक बन सके तथा नाटक का कुशल संचालन हो सके।
प्रश्न 21.
सफल नाटक की भाषा शैली कैसी होनी चाहिए?
उत्तर :
नाटक की भाषा सहज, सरल तथा प्रसंगानुकूल होनी चाहिए। जैसे- पौराणिक प्रसंगों से युक्त नाटक की भाषा तत्सम प्रधान होती है। मुगलकालीन नाटक की भाषा उर्दू शब्दों से युक्त होगी। आधुनिक काल के नाटकों की भाषा खड़ी-बोली के साथ प्रचलित अंग्रेजी, उर्दू, अरबी-फारसी शब्दों से युक्त होगी।
प्रश्न 22.
कहानी कहने या लिखते समय मनुष्य मूलं भाव क्या होता है?
उत्तर :
प्रत्येक मनुष्य में अपने अनुभव बाँटने और दूसरे के अनुभवों को जानने की प्राकृतिक इच्छा है अर्थात् हम सब अपनी बातें किसी को सुनाना और दूसरों की सुनना चाहते हैं। इसलिये यह कहा जा सकता है कि हर आदमी में कहानी लिखने का मूल भाव निहित है। यह और बात है कि कुछ लोगों में इस भाव का विकास हो जाता है और कुछ इसे विकसित नहीं करते हैं।
प्रश्न 23.
नाटक विधा में समय, शब्द और कथ्य का महत्व बताइए।
उत्तर :
समय-नाटककार को समय का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। उसे एक निश्चित समय-सीमा में ही नाटक पूरा करना पड़ता है। दर्शकों के धैर्य को देखकर ही. नाटक की समयावधि निर्धारित की जाती है।
शब्द-नाटक का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व 'शब्द' है। 'शब्द' नाटक का शरीर होता है। अतः नाटककार को सांकेतिक भाषा का प्रयोग करना चाहिए। व्यंजनापरक शब्दों का प्रयोग नाटक की रोचकता में वृद्धि करता है।
कथ्य-नाटककार को यह ध्यान रखना चाहिए कि नाटक मंच पर अभिनीत होगा। इसलिए सभी घटनाओं को क्रम से रखना चाहिए जिससे नाटक शून्य से शिखर की ओर विकास करे। इस प्रकार कथ्य को सही ढंग से प्रस्तुत
करने में नाटक की सफलता निहित है।
प्रश्न 24.
नाटक का वर्तमान काल, भूतकाल और भविष्यकाल से क्या सम्बन्ध है?
उत्तर :
नाटककार अपनी रचना की विषय वस्तु भूत अथवा भविष्य किसी भी काल से ले सकता है। नाटक का काल कोई भी हो परन्तु नाटक एक विशेष समय में एक विशेष स्थान पर वर्तमान काल में ही घटित होता है। जैसे-नाटक में कोई ऐतिहासिक या पौराणिक कहानी को हम वर्षों पश्चात् उसे पुन: मंच पर प्रत्यक्ष घटित होते हुए देख सकते हैं।
प्रश्न 25.
'संवाद नाटक के प्राण होते हैं?" सिद्ध कीजिए।
उत्तर :
नाटक का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व संवाद है। संवादों के बिना नाटकों की गतिशीलता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। संवादों, से ही नाटक के चरित्रों का विकास होता है। संवाद ही कथ्य को गतिशील बनाते हैं। ये जितने सहज होंगे उतना ही दर्शकों के मर्म को छुएँगे। अतः नाटक. के संवादों को परिवेश के अनुकूल ही सहज-स्वाभाविक होना चाहिए तभी वे दर्शकों को बाँधने में सफल होते हैं और नाटक की सार्थकता भी तभी सिद्ध होती है।
प्रश्न 26.
नाटक में स्वीकार और अस्वीकार की अवधारणा से आप क्या समझते हैं? लिखिए।
उत्तर :
नाटक में स्वीकार के स्थान पर अस्वीकार का अधिक महत्त्व होता है। नाटक में अस्वीकार तत्त्व के आ जाने से नाटक सशक्त हो पाता है। कोई भी, दो चरित्र जब आपस में मिलते हैं तो विचारों के आदान-प्रदान में टकरहट होती है। रंगमंच में कभी भी यथास्थिति को स्वीकार नहीं किया जाता। वर्तमान में स्थिति के प्रति असंतोष का शव, छटपटाहट, प्रतिरोध और अस्वीकार जैसे नकारात्मक तत्त्वों के समावेश से ही नाटक सशक्त बनता है।
प्रश्न 27.
नाटक में शब्द-चयन का महत्व बताइए।
उत्तर :
नाटक का महत्वपूर्ण अंग है-शब्द। वैसे तो यह सभी विधाओं के लिये आवश्यक है परन्तु नाटक में शब्द का विशेष महत्व है। नाटक की दुनिया में शब्द अपना अलग और विशेष रूप ग्रहण करता है, बोले जाने वाले शब् को नाटक का शरीर कहा गया है। एक अच्छे नाटककार को कम शब्दों में अपनी भावना और विचारों को व्यक्त कर की कला आनी चाहिये।
प्रश्न 28.
कहानी क्या है?
उत्तर :
कहानी साहित्य की एक ऐसी विधा है जो अपने ही सीमित क्षेत्र में पूर्ण, स्वतंत्र एवं प्रभावशाली है। कहमी की यही विशेषता है कि इसमें एक मानव के जीवन की किसी प्रमुख घटना का वर्णन होता है। समय-समय पर अलंग-अलग विद्वानों ने कहानी की अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं। प्रेमचन्द के अनुसार, "कहानी एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी अंग, किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देय होता है। उसका चरित्र, उसकी शैली तथा कथा विन्यास सब उसी भाव की पुष्टि करते हैं।"
प्रश्न 29.
कहानी-लेखन के विभिन्न विषय लिखिए।
उत्तर :
कहानियाँ लिखने के लिये अनेक विषय हैं जिन पर लेखक कहानी लिख सकता है। ये वास्तविक घनाएँ या किस्से भी हो सकते हैं और काल्पनिक घटनाएँ भी हो सकती हैं जिनका हमारे वास्तविक जीवन से कोई सबन्ध नहीं होता है। प्रायः कहानी किसी घटना, युद्ध, प्रतिशोध के किस्से अथवा पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाएँ भी हो सकती हैं।
प्रश्न 30.
कहानी की परिभाषा देते हुए बताइए कि कहानी का मानव जीवन से क्या संबंध है?
उत्तर :
परिभाषा - किसी घटना, पात्र या समस्या की क्रमबद्ध जानकारी प्रस्तुत करना जिसमें परिवेश, द्वन्द्वामकता का भी समावेश हो तथा चरम उत्कर्ष का बिन्दु हो, उसे कहानी कहा जा सकता है।
जीवन से संबंध - सदैव से कहानी मानव जीवन का प्रमुख हिस्सा रही है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में कहानी सुनना-सुनाना पसंद करता है। प्रत्येक मनुष्य में अपने अनुभव बाँटने और दूसरों के अनुभवों को जाने की प्राकृतिक इच्छा होती है।
प्रश्न 31.
कहानी का इतिहास कितना पुराना है? लिखिए।
उत्तर :
कहानी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव का इतिहास क्योंकि कहानी मानव स्वभाव या प्रकृति का हिस्सा है। कथा-वाचक कहानियाँ सुनाते थे। कहानी में घटना, युद्ध, प्रेम, प्रतिशोध के किस्से सुनाए जते थे। मानव स्वभाव का एक गुण कल्पना भी है। अतः सच्ची घटनाओं पर आधारित कथा-कहानी सुनाते-सुनाते उसमें कल्पना को जोड़ा जाने लगा क्योंकि प्रायः मनुष्य वही सुनना चाहता है जो उसे पसन्द है। हम कहानी के नाक की हार पसन्द नहीं करते। अतः सुनाने वाला अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर नायक के गुणों का बखान करता है।
प्रश्न 32.
कहानी विधा शिक्षा देने का प्रबल माध्यम है। कैसे?
उत्तर :
इस कारण प्राचीनकाल से ही धर्म प्रचारकों ने अपने सिद्धान्त और विचार लोगों तक पहुँचाने के लिए कहानी का सहारा लिया। यही नहीं, शिक्षा देने के लिये भी कहानी विधा का प्रयोग किया जाने लगा। इसका सबसे अच्छा उदाहरण पंचतंत्र की कहानियाँ हैं। इस तरह प्राचीनकाल से ही कहानी के साथ 'उद्देश्य' का सम्मिश्रण हो गया। आगे चलकर इसका और विकास हुआ।
प्रश्न 33.
कहानी की मौखिक परंपरा पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
हमारे देश में मौखिक कहानी की परंपरा बहुत पुरानी है और आज तक प्रचलित है। खासतौर से राजस्थान में आज भी यह परंपरा जीवित है। प्राचीनकाल से ही कहानी संचार का लोकप्रिय माध्यम रहा है। इसलिए मौखिक पसरा चलती रही। धर्म प्रचारकों ने भी कहानी को ही अपना माध्यम बनाया। शिक्षा का माध्यम भी कहानी ही थी। जैसे- पंचतंत्र की कहानियाँ बहुत शिक्षाप्रद हैं। 'उद्देश्य' का समावेश शुरू से ही हो गया, जो आगे चलकर और विवसित हुआ।
प्रश्न 34.
कहानी में कथानक का महत्व बताइए।
उत्तर :
कथानक - कहानी का केन्द्रबिन्दु कथानक होता है। इस प्रकार कथानक कहानी का वह संक्षिप्त रूप है जिसमें प्रारम्भ से अन्त तक कहानी की सभी घटनाओं और पात्रों का उल्लेख किया गया हो। कथानक में तीन स्थितियाँ होती हैं, प्रारंभ, मध्य और अन्त। कथानक आगे बढ़ता है तो उसमें द्वन्द्व तत्त्व भी होता है। द्वन्द्व का अर्थ है गाधा। द्वन्द्व कहानी को रोचकता प्रदान करता है। |
प्रश्न 35.
कथानक की पूर्णता की आवश्यक शर्त क्या है?
उत्तर :
कथानक की पूर्णता की आवश्यक शर्त यही है कि एक बाधा के समाप्त होने या किसी निष्कर्ष पर पहुँच जने के कारण कथानक पूरा हो जाये। कहानी नाटकीय रूप से अपने उद्देश्य को पूरा करने के पश्चात् समाप्त हो जाये। कहानी में अंत तक रोचकता बनी रहनी चाहिए और कथानक में द्वन्द्व के कारण ही यह रोचकता बनी रहती है।
प्रश्न 36.
देशकाल और पात्र कहानी के विकास में क्या योगदान देते हैं? लिखिए।
उत्तर :
देशकाल - कथानक का स्वरूप बन जाने के बाद कहानीकार कथानक के देशकाल को पूरी तरह समझ लेत है क्योंकि कहानी की प्रामाणिकता और रोचकता के लिए यह बहुत आवश्यक तत्त्व है। देश का अर्थ है स्थान तथा कार का अर्थ है समय। कथानक के घटित होने का स्थान और समय ही देशकाल है।
पात्र - कहानीकार के मन में अपने पात्रों के स्वरूप की स्पष्ट छवि होनी चाहिए तभी वह अपने पात्रों का चरि-चित्रण करने में तथा संवाद लिखने में सफल हो सकता है।
प्रश्न 37.
संवाद और क्लाइमेक्स (चरमोत्कर्ष) कहानी के अनिवार्य तत्व हैं। कैसे?
उत्तर :
संवाद - संवाद के बिना पात्रों की कल्पना मुश्किल है। संवाद ही कहानी को, पात्र को स्थापित करते हैं, विकसित करते हैं और कहानी को गति प्रदान करते हैं। अतः कहानी में पात्रों द्वारा बोले गए संवादों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। संवाद विश्वासों, आदर्शों और स्थितियों के अनकल हों। संवाद संक्षिप्त हों. लम्बे लम्बे-लम्बे संवाद उबाऊ हो जाते है।
चरमोत्कर्ष (क्लाइमेक्स) - कहानी को धीरे-धीरे चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ाना चाहिए। इसे कहानी का क्लाइमेक्स भी कहते हैं। चरमोत्कर्ष पाठक को स्वयं सोचने और लेखक के उद्देश्य को समझने की प्रक्रिया के द्वारा प्राप्त होना चाहिए।
प्रश्न 38.
"नाटक दृश्य-शृव्य काव्य है।" स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
नाटक को दृश्य काव्य कहा गया है। उसे रंगमंच पर प्रस्तुत किया जाता है और दर्शक उसको देखकर उसका आनन्द लेते हैं। नाटक के प्रस्तुतीकरण में अभिनेता द्वारा बोले गये संवाद तथा संगीत की ध्वनियों का भी योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। इनको सुनकर इनका रस मिलता है। इस तरह नाटक दृश्य-श्रव्य काव्य है।
प्रश्न 39.
कथानक में द्वन्द्व का अधिक महत्व है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कथानक के बनियादी तत्त्वों में द्वन्द्र का महत्व बहत अधिक है। द्वन्द्व ही कथानक को आगे बढ़ाता है। कहानी में द्वन्द्व दो विरोधी तत्त्वों का टकराव या किसी की खोज में आने वाली बाधाओं, अन्तर्द्वद्व आदि के कारण पैदा होता है। कहानीकार अपने कथानक में द्वन्द्व के बिन्दुओं को जितना उन्नत रखेगा, कहानी भी उतनी ही सफलता से आगे बढ़ेगी।
प्रश्न 40.
कहानी, कविता श्रव्य काव्य हैं। विवेचना कीजिए।
उत्तर :
कहानी, कविता श्रव्य काव्य हैं। इनका आनन्द पढ़कर तथा सुमकर लिया जा सकता है। श्रव्य माध्यम में किसी घटना को होते हुये दिखाया नहीं जा सकता है। वहाँ केवल उसका वर्णन किया जा सकता है। किसी व्यक्ति के सुख या दुःख को उसके हावभावों द्वारा प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है। श्रोता को उसकी आवाज से ही उसके सुख-दुःख का परिचय दिया जा सकता है। किसी घटना का चित्रण पात्रों के आपसी संवादों के सहारे ही किया जा सकता है।
प्रश्न 41.
रेडियो नाटक की अवधि और पात्र के बारे में लिखिए।
उत्तर :
रेडियो नाटक की अवधि आमतौर पर 15 मिनट से 30 मिनट की होती है। इससे अधिक नहीं क्योंकि श्रोता अधिक लम्बी अवधि तक स्वयं को एकाग्र नहीं रख पाता। यदि रेडियो नाटक लम्बा होता है तो उसे धारावाहिक के रूप में पेश किया जाता है। प्रत्येक धारावाहिक की अवधि भी 15 से 30 मिनट ही होती है। रेडियो नाटक की अवधि छोटी होने के कारण उसमें पात्रों की संख्या भी अधिक नहीं होती। पन्द्रह मिनट के नाटक में पात्र संख्या अधिकतम 5-6 हो सकती है। जरूरत के अनुसार यह संख्या 7-8 तक बढ़ भी सकती है।
प्रश्न 42.
कहानी के कथानक का महत्त्व बताइए।
उत्तर :
जिस प्रकार मकान बनाने से पहले घर का नक्शा बनवाया जाता है फिर उसका निर्माण कराया जाता है ठीक उसी प्रकार कहानी का कथानक आमतौर पर किसी घटना, जानकारी, अनुभव या कल्पना पर आधारित होता है। यह घटना, जानकारी या अनुभव कहानीकार के मन में कल्पना के आधार पर अंकित हो जाता है। कल्पना के विस्तार हेतु कहानीकार के पास जो सूत्र होता है उसी के माध्यम से कल्पना का विकास होता है।
प्रश्न 43.
कहानी में संवाद योजना कैसी होनी चाहिए?
उत्तर :
कहानी का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व संवाद योजना है क्योंकि कहानी में पात्र होते हैं तो निश्चित ही वे आपस में बातें भी करते हैं। अतः संवाद कहानी का स्वाभाविक तत्त्व है। संवाद कहानी के कथानक को गति प्रदान करता है। संवादों के माध्यम से घटनाओं का वर्णन किया जाता है। संवाद पात्रों का निर्माण करते हैं। संवाद के माध्यम से किसी भी पात्र के आदर्श, विश्वास, संस्कार और परिस्थितियों को दर्शाया जा सकता है। अतः संवाद छोटे, सटीक, स्वाभाविक एवं उद्देश्यपूर्ण होने चाहिए। संवाद का लम्बापन कहानी में अवरोध पैदा कर सकता है।
प्रश्न 44.
कहानी के चरित्र विकास में संवाद योजना का योगदान लिखिए।
उत्तर :
चरित्र विकास में संवाद का योगदान-कहानी के मूल में चरित्र ही होते हैं। बिना चरित्रों के कहानी की कल्पना नहीं की जा सकती। इन चरित्रों का विकास आपस के संवादों से ही संभव होता है। जो कार्य-कहानीकार लम्बे-लम्बे कथन से नहीं कर सकता वह कार्य उपयुक्त संवाद योजना से संभव हो जाता है। अतः चरित्रों के विकास में संवादों का बड़ा महत्त्व है।
प्रश्न 45.
कहानी और नाटक में क्या-क्या समानताएँ होती हैं ?
उत्तर :
समानताएँ-कहानी तथा नाटक दोनों का मूल तत्त्व कथानक है। दोनों में ही कोई-न-कोई कहानी होती है। दोनों में पात्र होते हैं। कहानीकार तथा नाटककार पात्रों का चरित्रांकन करते हैं। कहानी और नाटक दोनों में ही परिवेश होता है। दोनों में कथानक का क्रमशः विकास होता है। कहानी तथा नाटक दोनों में संवाद होते हैं। ये संवाद कथानक के विकास तथा पात्रों के चरित्रांकन में सहायक होते हैं। कहानी तथा नाटक दोनों में द्वन्द्व होता है तथा चरमोत्कर्ष की स्थिति आती है। इस प्रकार दोनों ही विधाओं के तत्त्व लगभग समान होते हैं।
प्रश्न 46.
नाटक और कहानी में क्या-क्या असमानताएँ होती हैं? लिखिए।
उत्तर :
असमानताएँ-कहानी और नाटक साहित्य की दो विधाएँ हैं। दोनों की रचना प्रक्रिया भिन्न है। दोनों के स्वरूप में अन्तर है। दोनों की भाषा का स्वरूप भी विधा के अनुसार बदला हुआ होता है। कहानी, लेखक तथा पाठक के बीच का मामला है किन्तु नाटक में लेखक, निर्देशक, पात्र, दर्शक, श्रोता एवं अन्य लोग भी जुड़ जाते हैं। नाटक दृश्य काव्य है उसकी पूर्णता उसके सफलतापूर्वक रंगमंच पर प्रस्तुत किये जाने में है। कहानी का रस पाठक उसे पढ़कर या सुनकर पा सकता है किन्तु नाटक का रसास्वादन उसे मंच पर अभिनीत होते हुए देखकर ही किया जा सकता है। मंच, मंच-सज्जा, संगीत, प्रकाश व्यवस्था, अभिनय और निर्देशन के बिना नाटक हो ही नहीं सकता। कहानी के लिए इन सबकी कोई जरूरत नहीं है।