Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi काव्यांग-परिचय काव्य-गुण, काव्य दोष Questions and Answers, Notes Pdf.
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काव्य क्या है?
काव्य का स्वरूप अत्यन्त व्यापक, जटिल और सूक्ष्म है। इसके सम्बन्ध में अनेक विद्वानों तथा विचारकों ने समय-समय पर विचार किया है। स्वदेशी-विदेशी विचारकों के इस विषय में जो मत हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -
उपर्युक्त विचारों में काव्य प्रकाश के रचयिता आचार्य मम्मट का विचार ही अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। आचार्य मम्मट मानते हैं कि वे शब्द और अर्थ काव्य कहे जाते हैं जो दोष मुक्त हों गुण युक्त हों और रसाभिव्यञ्जक हों, वह अलंकृत हों अथवा न हों। 'अलंकृती पुनः क्वापि' कहकर आचार्य मम्मट यह बताना चाहते हैं कि यथासम्भव-शब्दार्थ अलंकृत हों किन्तु यदि कहीं कोई स्पष्ट रूप से अलंकार न हो, तब भी रसपूर्ण होने से काव्यत्व का अभाव नहीं माना जायगा।
यह नहीं माना जा सकता कि यदि अलंकार नहीं होगा तो काव्य-सौन्दर्य का अनुभव ही नहीं होगा क्योंकि काव्य का सौन्दर्य तो रसादि की अभिव्यक्ति में निहित होता है। - आचार्य मम्मट द्वारा बताए उपर्युक्त काव्य-लक्षण पर विचार करें तो दो बातें सामने आती हैं। एक, अदोषों विशेषण द्वारा वह यह व्यक्त करना चाहते हैं कि संसार में कुछ भी तथा कोई भी पूर्णतः निर्दोष नहीं है किन्तु यदि काव्य में कोई भाग ऐसा हो, जिसमें कोई दोष हो किन्तु वह सौन्दर्यानुभूति में बाधक न हो तो उसको अकाव्य नहीं काव्यं ही मानना चाहिए।
आचार्य की उपर्युक्त परिभाषा में 'सगुणौ' शब्द यह प्रकट करता है कि 'गुण' युक्त शब्द और अर्थ ही काव्य के लिए उपयुक्त होते हैं। आचार्य ने रसस्याङ्गिनो धर्माः' कहकर गुणों को रस का धर्म माना है किन्तु यहाँ इन गुणों को शब्दों और अर्थों का गुण बताने का आशय यह है कि भले ही गुण रस का धर्म हो किन्तु रस की व्यजंना शब्दार्थ के द्वारा ही होने से वे शब्द और अर्थ के भी गुण हैं।
नागेश ने काव्य के लिए अलंकार, रस तथा भाव को भी आवश्यक माना है। उपर्युक्त परिभाषाओं में 'साहित्य दर्पण' में दी गई आचार्य विश्वनाथ की वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' में काव्य के लिए सरसता को आवश्यक माना गया है। उनकी यह परिभाषा मान्य होने के साथ लोकप्रिय भी है।
काव्य के स्वरूप पर आधुनिक हिन्दी साहित्य के विचारकों आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्याम सुन्दर दास, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द आदि ने भी विचार किया है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'कवि और ' कविता' नामक निबन्ध में लिखा है-"सादगी, असलियत और जोश आदि ये तीनों गुण कविता में हो तो कहना ही क्या"। उनके इस कथन पर अंग्रेजी भाषा के कवि मिल्टन का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है। उसी प्रकार हृदय की मुक्तावास्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।"
भारतीय ही नहीं पाश्चात्य विचारकों ने भी काव्य-कला पर विचार किया है। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'पोइटिक्स' में अरस्तू ने कला को अनुकृति कहा है। इसके लिए कल्पना को आवश्यक माना गया है। पाश्चात्य विद्वानों पर अरस्तू का प्रभाव है। इन विचारकों में मैथ्यू आरनाल्ड, वर्ड्सवर्थ, शैक्सपीयर, जॉन मिल्टन, कालरिज़, हडसन आदि का नाम लिया जा सकता है।
काव्य के स्वरूप का निर्माण पाँच तत्वों के सम्मिलन से होता है - 1. शब्द, 2. अर्थ, 3. भाव 4. कल्पना तथा 5. विचार। इनके संतुलित समन्वय से ही सुन्दर काव्य की रचना होती है। स्मरणीय शब्द तथा भावमय अर्थ से युक्त रचना ही काव्य कहलाती है।
(क) काव्य-गुण
गुण काव्य के प्रभाव को बढ़ाते हैं। जिस प्रकार शौर्य आदि आत्मा के धर्म हैं, शरीर के नहीं उसी प्रकार काव्य-गुण रस में अवस्थित रहते हैं, वर्गों में नहीं। आचार्य आनन्द वर्धन तथा आचार्य अभिनव गुप्त ने गुणों को रस से अपृथक् सिद्ध रूप में ही माना है। 'काव्य प्रकाश' के रचयिता आचार्य मम्मट ने गुणों को रस का धर्म माना है -
ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शोयोदयः इवात्मनः।
उत्कर्ष हेतवस्तस्यश्चल स्थितयो गणाः॥
गुणों की व्यंजना वर्णों अथवा अक्षरों से होती है। किन्तु इस कारण यह नहीं माना जा सकता कि गुण अक्षरों में विद्यमान रहते हैं। गुण रस में रहते हैं, वर्गों में नहीं। गुण नीरस नहीं सरस साधन होते हैं। नीरस शब्दार्थ को सगुण नहीं कहेंगे। उसी प्रकार दोषों के अभाव को गुण नहीं माना जायगा।
भारतीय काव्य-शास्त्र में भरतमुनि, वामन, मम्मट, अभिनव गुप्त, विश्वनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने गुणों के सम्बन्ध में विचार किया है। आचार्यों ने उनको रीति के अन्तर्गत माना है। आचार्य वामन के अनुसार विशेष प्रकार की पदरचना
तथा यह गुणों पर आश्रित होती है। आचार्य विश्वनाथ ने दोनों के संयोजन को रीति कहा है। उन्होंने माना है कि रस के उत्कर्ष में वृद्धि करने वाले वर्ण-विन्यास और पद-विन्यास काव्यगुण हैं।
प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नगेन्द्र का कहना है कि आचार्य दण्डी काव्य के समस्त अवयवों को अलंकार मानते हैं, इस प्रकार गुण भी अलंकार ही हैं।
परिभाषा - गुण, रस के सहायक धर्म हैं। जिस प्रकार शौर्य आदि आत्मा के धर्म हैं, उसी प्रकार गुण, रस के धर्म हैं। गुण काव्य की सरस शब्दावली तथा पदावली में स्थित होकर काव्य की श्रीवृद्धि किया करते हैं। गुणों की संख्या-गुणों की संख्या के सम्बन्ध में आचार्य एकमत नहीं हैं। भरत मुनि से पण्डितराज जगन्नाथ तक में मतभेद हैं। भरतमुनि ने गुणों की संख्या दस मानी है
1. श्लेष, 2. प्रसाद, 3. समता, 4. समाधि, 5. माधुर्य, 6. ओज, 7. सौकुमार्य, 8. अर्थ-व्यक्ति, 9. उदारता तथा, 10. कान्ति।
आचार्य दण्डी ने भी गुणों की संख्या दस ही मानी है। ये दस गुण हैं - 1. श्लेष, 2. प्रसाद, 3. समता, 4. माधुर्य, 5. सौकुमार्य, 6. अर्थ व्यक्ति, 7: उदारता, 8. ओज, 9. कान्ति तथा 10. समाधि।
रीतिवादी आचार्य वामन भट्ट ने इसी प्रकार निम्नलिखित दस गुण माने हैं -
1. ओज, 2. प्रसाद, 3. श्लेष, 4. समता, 5. समाधि, 6. माधुर्य, 7. सौकुमार्य, 8. सदारता, 9. अर्थ व्यक्ति तथा, 10. कान्ति।
आचार्य मम्मट ने उपर्युक्त दस गुणों का अन्तर्भाव माधुर्य, ओज तथा प्रसाद में किया है तथा कहा है कि गुण केवल तीन ही होते हैं।
"माधुर्योजः प्रसादाख्यास्त्रयस्ते-न-पुनर्दश।'
माधुर्य, ओज तथा प्रसाद का सम्बन्ध मनुष्य की चिंत्तवृत्तियों से है। माधुर्य का चित्त के द्रवित होने से, प्रसाद का चित्त को प्रफुल्लित होने से तथा ओज का चित्त के उद्दीप्त होने से है। प्रसाद गुण सभी रसों से भी सम्बन्धित है तथा माधुर्य और ओज गुणों का सम्बन्ध तीन-तीन रसों से है।
गुणों का सम्बन्ध चित्त की वृत्तियों से है। ओज गुण मनुष्य की कठोर वृत्तियों से तथा अन्य कोमल वृत्तियों से सम्बन्धित है। रीतिवादी आचार्य गुणों को रीति से जोड़कर देखते हैं। आचार्य मम्मट दोनों को एक मानते हैं। रीतियों का वर्गीकरण स्थान अथवा देश के आधार पर है। वरयों का आधार रचना के गुण होते हैं। काव्य गुणों से सम्बन्धित वृत्तियाँ तथा रीतियाँ इस प्रकार मानी जाती हैं -
गुण त्रय
1. माधुर्य गुण - माधुर्य शब्द का अर्थ है- मधुरता। जिस गुण के कारण रचना में मधुरता उत्पन्न होती है उसको माधुर्य गुण कहते हैं। माधुर्य गण वाली रचना के पठन-श्रवण से पाठक तथा श्रोता का मन द्रवित हो उठता है तथा वह आनन्दमय हो उठता है। आह्लाद माधुर्य गुण का प्रमुख भाव है।
माधुर्य गुण में समास रहित, मधुर तथा कोमल शब्दावली का प्रयोग होता है। इसमें कोमल वर्ण, क वर्ग, च वर्ग, प वर्ग, त वर्ग तथा य, ल, व का प्रयोग अधिक होता है। ट वर्ग तथा लम्बे सामासिक पदों का प्रयोग नहीं किया जाता।
माधुर्य गुण वैदर्भी रीति से सम्बन्धित है। यह विदर्भ देश के कवियों की रीति है। दण्डी ने इसको सभी गुणों के लिए उपयुक्त माना है। यह उपनागरिका वृत्ति से सम्बन्धित है।
आचार्य विश्वनाथ ने अपने 'साहित्य दर्पण' में माधुर्य गुण की परिभाषा देते हुए लिखा है -
"चित्त द्रवी भावमयोल्हादो माधुर्यमुच्यते"।
(जिससे चित्त आह्वालाद से द्रवित हो जाय, वह गुण माधुर्य कहा जाता है।)
भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र' में माधुर्य का अर्थ श्रुतिमधुरता माना है। आचार्य दण्डी माधुर्य का अर्थ रसपूर्णता मानते हैं। आचार्य वामन मानते हैं कि माधुर्य गुण के लिए रचना को सामासिक पदावली से रहित होना चाहिए। आचार्य मम्मट आह्लाद तथा श्रृंगार रस में द्रवित करने को माधुर्य गुण की विशेषता मानते हैं।
माधुर्य गुण शृंगार, शान्त और करुण रसों में प्रयुक्त होता है। श्रुति मधुरता, समासादि हीनता, आह्लादकता, चित्त की द्रवणशीलता, आर्द्रता आदि माधुर्य के लिए आवश्यक हैं।
भिखारीदास ने माधुर्य गुण के लक्षण बताते हुए लिखा है, यह अनुस्वार तथा कोमल वर्णों से युक्त किन्तु ट वर्ग के वर्णों से रहित होता है।
अनुस्वार औ वर्गजुत, सबै बरन अट वर्ग
अच्छर जामें मदु परै सौ माधुर्य निसर्ग।
उदाहरण -
सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर।
मन वै जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर।।
2. पाकर अहा! उमंग उर्मिला अंग भरे थे।
आली ने हँस कहा-"कहाँ ये रंग भरे थे।।
सुप्रभात है आज स्वप्न की सच्ची माया।
किन्तु कहाँ वे गीत? यहाँ जब श्रोता आया।।
3. नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते।
पर इनसे जब आँसू बहते।
सदय हृदय वह कैसे सहते।
गये तरस ही खाते ।
सखि वे मुझसे कहकर जाते।
2. प्रसाद गुण-प्रसाद शब्द का अर्थ है- प्रसन्नता किन्तु प्रसाद गुण का होना वहाँ माना जाता है जहाँ स्वयं में सुबोधता हो तथा उसका अर्थ सुनते ही समझ में आ जाय। दण्डी के मतानुसार जिस रचना का अर्थ सुनते ही सुनने वाले की समझ में आ जाय, वहाँ प्रसाद गुण होता है। आचार्य मम्मट का कथन है
चित्तं व्याप्नोति यः क्षिप्रं शुष्कन्धनामिवानलः।
स प्रसादः समस्तेषु रसेषु रचनासु च।
उनका कहना है कि जिस प्रकार सूखे ईंधन में अग्नि तुरन्त व्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार चित्त में शीघ्र ही व्याप्त हो जाने वाला काव्य गुण प्रसाद है।
प्रसाद गुण पांचाली रीति से सम्बन्धित है। प्रसाद गुण यद्यपि सभी रसों में मिलता है। किन्तु करुण रस, शान्त रस, वात्सल्य रस और हास्य रस में प्रसाद गुण अधिक पाया जाता है। इसमें कोमलकान्त पदावली, वर्गों के पाँचवें वर्णों, क वर्ग, त वर्ग का प्रयोग अधिक होता है। नीति, भक्ति आदि के वर्णन में प्रसाद गुण की प्रधानता रहती है।
उदाहरण -
1. मुनिवर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होंहि बिरागी।
सोइ कोसलाधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया।
जो पिय मानतु मोर सिखावन। सुजसु होई तिहूँ पुर अति पावन।
अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात।।
2. भारत माता
ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल।
धूल भरा मैला-सा आँचल
गंगा यमुना में आँसू जल
मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी।।
3. चारु चन्द्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है
अवनि और अम्बर तल में॥
3. ओज गुण-'ओज' शब्द का अर्थ तेज, दीप्ति, उत्तेजना आदि होता है। जिस रचना के पढ़ने अथवा सुनने से पाठक अथवा श्रोता के मन में आवेग और उत्साह पैदा हो, उसमें ओज गुण का होना माना जाता है।
इसमें द्वित्व. संयक्त तथा परुष वर्णों, रेफ. लम्बे समस्त पदों आदि का प्रयोग होता है। इसमें मर्धन्य ध्वनियों का प्रयोग होता है। इसका सम्बन्ध गौड़ी रीति तथा परुष वृत्ति से है। इस रीति में ओज गुण, अलंकारों तथा समासों की प्रधानता रहती है। 'ढ' तथा 'ण' का प्रयोग अधिक होता है। वीर, रौद्र, वीभत्स तथा भयानक रसों में ओज गुण रहता है।
ओज गुण के बारे में विभिन्न आचार्यों ने विचार किया है। भरत मुनि समस्त गम्भीर अर्थ पूर्ण और श्रवण-सुखद पदावली को ओज गुण के उपयुक्त मानते हैं। दण्डी समस्त पदावली की बहुलता को ओज गुण के लिए आवश्यक मानते हैं। वामन के मतानुसार, संयुक्ताक्षरों और संश्लेषण पदों के वीररस की अपेक्षा वीभत्स रस में तथा वीभत्स रस की अपेक्षा रौद्र रस में ओज गुण अधिक उद्दीप्त होता है। आचार्य विश्वनाथ कठोर वर्गों और संयुक्ताक्षरों के प्रयोग को ओज गुण के लिए जरूरी मानते हैं।
उदाहरण :
1. धंसती धरा धधकती ज्वाला, ज्वालामुखियों के विश्वास।
और संकुचित क्रमशः उसके अवयव का होता था झस॥
घनीभूत हो चुके पवन, फिर श्वासों की गति होती रुद्ध।
और चेतना थी, बिलखती दृष्टि विकल होती थी क्रुद्ध ॥
2. हयरुण्ड गिरे, गज झुण्ड गिरे,
कटकट अवनी पर शुण्ड गिरे।
भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे,
लड़ते-लड़ते अरि झुण्ड गिरे।
3. किसने कहा पाप है समुचित
स्वत्व प्राप्ति हित लड़ना।
उठा न्याय का खड्ग समर में
अभय मारना-मरंना?
महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर :
प्रश्न 1.
काव्य गुण कितने प्रकार के होते हैं? नाम लिखिए।
उत्तर :
काव्य गुण तीन प्रकार के होते हैं :
प्रश्न 2.
"होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन"-में काव्य-गुण कौन-सा है?
उत्तर :
"होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन में" ओज काव्य-गुण है।
प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से वह पंक्ति छाँटकर लिखिए जिसमें ओज नामक काव्य-गुण है -
(क) अरावली-श्रृंग-सा समुन्नत सिर किसका?
बोलो, कोई बोलो-अरे, क्या तुम सब मृत हो।
(ख) स्वर्ण शस्य पर पदतल लुण्ठित।
धरती सा सहिष्णु मन कुण्ठित।
(ग) हम जैसा बोयेंगे, वैसा ही पायेंगे।
उत्तर :
ओज-गुण युक्त काव्य-पंक्ति है
अरावली-शृंग-सा समुन्नत सिर किसका?
बोलो, कोई बोलो-अरे, क्या तुम सब मृत हो?
प्रश्न 4.
काव्य-गुण किसको कहते हैं? काव्य-गुण कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर :
काव्य की सरस पदावली में स्थित रहकर काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्म को काव्यगुण कहते हैं। ये माधुर्य, प्रसाद तथा ओज नामक तीन प्रकार के होते हैं।
प्रश्न 5.
माधुर्य गुण का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर :
माधुर्य गुण का उदाहरण -
नील परिधान बीच सुकुमार।
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल।
मेघ बन बीच गुलाबी रंग।
प्रश्न 6.
ओज गुण का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर :
ओज गुण का उदाहरण -
जब तक हैं लक्ष्मण महावाहिनी के नायक
मध्य मार्ग में अंगद, दक्षिण श्वेत सहायक।
मैं, भल्ल सैन्य है वाम पार्श्व में हनुमान।
नल नील और छोटे कपिगण उनके प्रधान।
प्रश्न 7.
प्रसाद गुण का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर :
प्रसाद गुण का उदाहरण -
प्रजा मूल अन्न सब अन्नन को मूल मेघ,
मेघन को मूल एक जज्ञ अनुसरिवौ।
जज्ञन को मूल धन, धन मूल धर्म अरु
धर्म मूल गंगाजल बिन्दु पान करिबौ।
प्रश्न 8.
माधुर्य गुण की उदाहरण सहित परिभाषा लिखिए।
अथवा
माधुर्य गुण की परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
परिभाषा-जिससे चित्त आह्लाद से द्रवित हो जाय, उस काव्य गुण को माधुर्य कहते हैं। उदाहरण -
प्रीतम छवि नैनन बसी, परछबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि आपु पथिक फिरि जाय।
प्रश्न 9.
प्रसाद गुण की परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
परिभाषा-जिस रचना का अर्थ सुनते ही सुनने वाले की समझ में आ जाय वहाँ प्रसाद गुण होता है। जिस प्रकार सूखे ईंधन में अग्नि तुरन्त व्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार चित्त में प्रसाद गुण शीघ्र व्याप्त हो जाता है।
प्रश्न 10.
ओज गुण की परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
परिभाषा-जिस काव्य-रचना के पढ़ने अथवा सुनने से पाठक अथवा श्रोता का मन उत्साह से भर उठे, उसमें ओज नामक काव्य-गुण होता है।
प्रश्न 11.
प्रसाद गुण किन-किन रसों में प्रयुक्त होता है?
उत्तर :
प्रसाद गुण सभी रसों में प्रयुक्त होता है किन्तु करुण रस, हास्य रस, शान्त रस तथा,वात्सल्य रस में अधिक - प्रयुक्त होता है।
प्रश्न 12.
ओज गुण किन रसों में प्रयुक्त होता है? ओज रस का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
ओज गुण वीर रस, वीभत्स रस तथा रौद्र रस में पाया जाता है।
उदाहरण -
सांस चलती है किसकी
कहता है कौन ऊँची छाती कर ... मैं हूँ -
मेवाड़ मैं। ............
प्रश्न 13.
माधुर्य गुण किन-किन रसों से सम्बन्धित है?
उत्तर :
माधुर्य गुण शृंगार रस, शान्त रस तथा करुण रसों से सम्बन्धित है। वैसे आचार्यों ने माधुर्य को सभी रसों के लिए उपयुक्त माना है।
प्रश्न 14.
काव्य गुणों का रसों से क्या सम्बन्ध है?
उत्तर :
काव्य-गुणों को रस की आत्मा कहा गया है। काव्य गुण वर्णी, पदों तथा अर्थ के माध्यम से काव्य की सरसता की वृद्धि किया करते हैं।
प्रश्न 15.
निम्नलिखित में से प्रसाद, ओज तथा माधुर्य काव्य-गुणों से सम्बन्धित पंक्तियाँ छाँटकर उनके सामने सम्बन्धित गुण का नाम लिखिए-
(क) सच पूछो तो शर ही में बसती है दीप्ति विनय की।
(ख) किरण-धेनुओं का समूह यह आया अंधकार चरता।
(ग) संतो, भाई आई ज्ञान की आँधी रे।
उत्तर :
(क) सच पूछो तो शर ही में बसती है दीप्ति विनय की - ओजगुण।
(ख) किरण धेनुओं का समूह यह आया अंधकार चरता - माधुर्य, गुण।
(ग) संतो, भाई आई ज्ञान की आँधी रे - प्रसाद गुण।
प्रश्न 16.
काव्य-गुण कितने हैं ? किसी एक का उदाहरण तथा नाम लिखिए।
उत्तर :
काव्य-गुण तीन हैं।
उदाहरण - भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे।
लड़ते-लड़ते अरि-झुंड गिरे।
इसमें ओज गुण है।
प्रश्न 17.
आचार्य विश्वनाथ ने काव्य की क्या परिभाषा दी है ?
उत्तर :
आचार्य विश्वनाथ ने काव्यं की निम्नलिखित परिभाषा दी है -
वाक्यं रसात्मकं काव्यं।
प्रश्न 18.
सघन कंज छाया सखद शीतलमंद समीर।
मन वै जात अजों बही वह जमुना के तीर॥
उपर्युक्त में काव्य-गुण का नाम लिखिकर उसकी परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
उपर्युक्त में माधुर्य नामक काव्य गुण है। जिससे सहृदय का चित्त आह्लाद से द्रवित हो जाय उसे माधुर्य गुण कहते हैं।
प्रश्न 19.
प्रसाद गुण की उदाहरण सहित परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
जिस रचना का अर्थ सुनते ही समझ में आ जाय वहाँ प्रसाद गुण होता है। जैसे - 'चारु चन्द्र की चंचल किरणे खेल रही हैं जल थल में।'
प्रश्न 20.
'उठी अधीर धधक पौरूष की आग राम के शर से' में कौन-सा काव्य-गुण है ? नाम तथा लक्षण लिखिए।
उत्तर :
उक्त पंक्ति में ओज नामक काव्य-गुण है। जिस रचना के पढ़ते ही पाठक का मन आवेग और उत्साह से भर उठे, उसमें ओज गुण होता है।
प्रश्न 21.
'जो पिय मानत मोर सिखावन।'
सुजसु होइ तिहूँ और अति पावन॥
उपर्यक्त चौपाई में कौन-सा काव्य-गण है?
उत्तर :
उपर्युक्त चौपाई में प्रसाद नामक काव्य-गुण है।
प्रश्न 22.
काव्य-गण का रस से क्या सम्बन्ध होता है ?
उत्तर :
काव्य-गुण काव्य के रस के उत्कर्ष में वृद्धि करने वाले नित्य धर्म हैं। गुण रसहीन काव्य में नहीं रहते तथा गुणों के कारण काव्य की सरसता में श्रीवृद्धि होती है।
प्रश्न 23.
काव्य-गुण कितने हैं ? विभिन्न आचार्यों का इस विषय में क्या मत है ?
उत्तर :
आचार्य दण्डी ने दस काव्य-गुण बताये हैं। आचार्य वामन ने इनकी संख्या बीस मानी है किन्तु आचार्य मम्मट ने कुल तीन ही ओज, प्रसाद तथा माधुर्य नामक काव्य-गुण माने हैं।
प्रश्न 24.
प्रसाद-गुण के व्यंजक रसों के नाम लिखिए।
उत्तर :
प्रसाद गुण सभी रसों में मिलता है किन्तु करुण, शांत, वात्सल्य तथा हास्य रस में विशेषतः पाया जाता है।
प्रश्न 25.
माधुर्य गुण किन रसों में पाया जाता है ?
उत्तर :
माधुर्य गुण शृंगार, शांत तथा करुण रसों में विशेष रूप से प्रयुक्त होता है। वैसे यह सभी रसों के उपयुक्त है।
प्रश्न 26.
ओज गुण से सम्बन्धित रसों के नाम लिखिए।
उत्तर :
ओज गुण वीर रस, वीभत्स रस तथा रौद्र रस में होता है। वीभत्स रस की अपेक्षा रौद्र रस में ओज गुण अधिक उद्दीप्त होता है।
प्रश्न 27.
काव्य-गुण की परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
काव्य की सरस पदावली में स्थित होकर काव्य की श्रीवृद्धि करने वाले धर्मों को काव्य-गुण कहते हैं।
प्रश्न 28.
काव्य-गुण किसके धर्म कहे जाते हैं तथा क्यों ?
उत्तर :
काव्य-गुण रस के धर्म कहे जाते हैं। ये सरस काव्य में रहकर काव्य. की श्रीवृद्धि करते हैं। गुणों के कारण काव्य की सरसता बढ़ती है तथा पाठक आह्लादित हो उठता है।
प्रश्न 29.
काव्य-गुणों से सम्बन्धित रीतियों तथा वृत्तियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
माधुर्य गुण वैदर्भी रीति तथा उपनागरिका वृत्ति से, प्रसाद गुण पांचाली रीति तथा कोमल वृत्ति से और ओज गुण गौड़ी रीति तथा परुष वृत्ति से सम्बन्धित होते हैं।
प्रश्न 30.
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने काव्य के कौन-से तीन गुण माने हैं ?
उत्तर :
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सादगी, असलियत तथा जोश नामक तीन गुण काव्य के बताये हैं।
(ख) काव्य-दोष :
काव्य का जितना गुण युक्त होना आवश्यक है, उतना ही दोष मुक्त होना भी। कविता के बाह्य तथा अन्तरंग दोनों ही रूपों को प्रभावशाली होना चाहिए। बाह्य रूप से तात्पर्य कविता के वर्णों, पदों, शैली आदि विशेषताओं से है तथा अन्तरंग रूप उसमें व्यंजित भाव और कल्पना को माना जायगा। जब ये दोनों ही रूप सब प्रकार दोष रहित होते हैं, तभी काव्यकार अपनी बात सहृदयों तक सफलतापूर्वक पहुँचा पाता है तथा सहृदय भी उसको आत्मसात करने में सफल होते हैं।
अच्छी कवितां वह है जिसमें व्यक्त भावों को पाठक या श्रोता बिना विशेष प्रयास के सरलतापूर्वक ग्रहण करने में समर्थ हो। सरसता कविता का प्राण है। काव्य की सरसता में जिन तत्वों के कारण बाधा उत्पन्न होती है तथा सहृदय को उसकी रसानभूति से वंचित होना पड़ता है, उन तत्वों को काव्य-दोष कहा जाता है। जिस प्रकार सुस्वादु भोजन से शरीर तृप्त होता है, उसी प्रकार रसपूर्ण काव्य से चित्त अनुरंजित होता है। काव्य दोष मीठी खीर में मिल जाने वाले लवण के समान होते हैं, जो काव्यानन्द को कम या नष्ट कर देते हैं।
काव्य के मुख्यार्थ में बाधा उत्पन्न करने वाले तत्वों को आचार्यों ने काव्य-दोष कहा है-'मुख्यार्थ-हति दोषः। भामह, वामन, मम्मट आदि सभी आचार्यों ने काव्य-दोष पर विचार किया है। वामन के अनुसार काव्य-सौन्दर्य को क्षति पहुँचाने वाले तत्व काव्य-दोष होते हैं। 'काव्य-प्रकाश' के रचयिता आचार्य मम्मट कहते हैं कि मुख्यार्थ का अपकर्ष करने वाले तत्व काव्य-दोष हैं। काव्य का उद्देश्य रसानुभूति है। इसमें बाधा आने से मुख्यार्थ का अपकर्ष होता है। रस में बाधा तीन प्रकार की होती है। देर से रस की अनुभूति होना, रसानुभूति में बाधा होना तथा रस की अनुभूति होना ही नहीं। रसानुभूति के बाधक यही तत्व काव्य-दोष कहे जाते हैं।
परिभाषा-जिस तत्व के कारण कविता के अर्थ को समझने में बाधा उत्पन्न होती है और काव्य-सौन्दर्य का अपकर्ष होता है, उसको काव्य-दोष कहते हैं। काव्य की रसानुभूति में बाधक तत्वों को काव्य-दोष कहा जाता है।
काव्य-दोषों के प्रकार :
काव्य-दोषों की कोई निश्चित संख्या नहीं है।
काव्य के अर्थ को समझने में सामान्यतः चार प्रकार की बाधाएँ होती हैं। काव्यार्थ को व्यक्त करने में शब्द, वाक्य, रस और अर्थ महत्वपूर्ण तत्व होते हैं। काव्यार्थ की व्यंजना में आने वाली बाधाएँ इनसे ही सम्बन्धित होती हैं। इनको शब्द दोष, वाक्य दोष, रस दोष तथा अर्थ दोष कह सकते हैं।
1. शब्द दोष
वर्णों अथवा शब्दों के प्रयोग में असावधानी होने पर जब अर्थ का बोध होने से पहले ही दोष जान पड़े, वहाँ शब्द-दोष होता है। शब्द-दोष निम्नलिखित होते हैं -
श्रुति कटुत्व दोष
जब किसी कविता के पढ़ने अथवा सुनने मात्र से कानों में कटुता अथवा कड़वापन उत्पन्न हो जाय तो वहाँ श्रुति कटुत्व दोष होता है। कोमल रसों के वर्णन में कठोर वर्गों के प्रयोग से श्रुति कटुत्व दोष उत्पन्न होता है।
उदाहरण - देखत कबु कौतुक इतै, देखौ नेकु विचारि।
कब की इकटक डटि रही, टटिया अँगुरिन डारि।।
उपर्युक्त दोहे में नायिका टटिया को अँगुलियों से हटाकर नायक को देख रही है। शृंगार रस के इस वर्णन में ट वर्ग के वर्गों के प्रयोग के कारण श्रुति कटुत्व दोष है।
च्युत संस्कृति दोष
जब किसी शब्द के प्रयोग में व्याकरण सम्बन्धी दोष होता है तब भाषा के संस्कार से गिरने के कारण वहाँ च्युत संस्कृति दोष होता है।
उदाहरण - मरम बचन सीता जब बोला।
हरि प्रेरित लछमन मन, डोला।
'बोला' क्रिया पुल्लिंग की है। उसका प्रयोग सीता के लिए होना व्याकरण का दोष है। यह च्युत संस्कृति दोष है। ग्राम्यत्व दोष जब कवि की भाषा में ग्रामीण भाषा अथवा बोलचाल की भाषा के शब्दों का प्रयोग होता है तो उसमें ग्राम्यत्व दोषं माना जाता है।
उदाहरण - खोपरी पै परति पन्हैयाँ ब्रज नारिन की।
इस पंक्ति में कवि ने 'खोपरी' और 'पन्हैयाँ' जैसे ग्राम्य शब्दों का प्रयोग किया है। अतः, यहाँ ग्राम्यत्व दोष है।
अश्लीलत्व दोष
जब कविता में अभद्रतासूचक, असाहित्यिक, लज्जाजनक शब्दों का प्रयोग होता है तो वहाँ कविता में भद्दापन उत्पन्न हो जाता है। उसके पढ़ने से घृणा का भाव उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति में वहाँ अश्लीलत्व दोष होता है।
उदाहरण - दस्त से खाना खिलाया।
मैंने अपने यार को॥
प्यास जब उसको लगी।
पेशाब मैंने कर दिया।
यहाँ दस्त (हाथ) तथा पेशाब (पानी पेश करना) अभद्रतापूर्ण प्रयोग होने के कारण घृणा पैदा कर रहे हैं। अतः अश्लीलत्व दोष है। क्लिष्टत्व दोष है।
जहाँ किसी शब्द का अर्थ आसानी से समझ में न आये वहाँ किलष्टत्व दोष होता है।
उदाहरण - कहत कत परदेशी की बात।
मन्दिर अरध अवधि बदि हमसौं हरि अहार चलि जात॥
वेद, नखत, ग्रह जोरि अरध करि सोई बनत अब खात।
यह सूरदास जी का कूट पद है। इसमें गोपियाँ की विरह दशा का वर्णन है। गोपियाँ कहती हैं उस परदेशी श्रीकृष्ण की बात मत पूछो। वह हमसे मन्दिर अरध अर्थात् एक पक्ष कां पन्द्रह दिन में लौटकर आने की बात कह कर गए थे। परन्तु अब . तो हरि अहार (सिंह का भोजन, मांस) अर्थात् एक महीना बीतने वाला है। अब तो वेद (4) नक्षत्र (27) तथा ग्रह (9) को जोड़कर, उसका आधा करके (4 + 27 + 9 = 40 का आधा 20) जो बनेगा वही हम खा लेंगी। बीस का अर्थ विष.लिया गया है। अर्थ ग्रहण में कठिनाई के कारण इस पद में क्लिष्टत्व दोष है।
2. वाक्य दोष
जहाँ किसी वाक्य अथवा वाक्यांश की रचना दोषपूर्ण होती है, तो वहाँ वाक्य दोष माना जाता है। उसके प्रमुख भेद निम्नलिखित हैं
न्यूनपदत्व दोष -
जहाँ वाक्य की रचना में किसी शब्द की कमी रह जाती है, वहाँ न्यूनपदत्व दोष होता है। न्यूनपदत्व का अर्थ है- पद या शब्द की कमी होना। इसमें अर्थ निकालने के लिए पाठक को कुछ शब्द अपनी ओर से जोड़ने पड़ते हैं।
उदाहरण - पानी, पावक, पवन, प्रभु ज्यों असाधु त्यों साधु।।
इस पंक्ति का अर्थ है पानी, अग्नि, वायु तथा ईश्वर सज्जन तथा असज्जन सभी के प्रति समता का व्यवहार करते हैं। किन्तु यह अर्थ प्राप्त करने के लिए पाठक को अपनी ओर से कुछ पद जोड़ना आवश्यक है। अतः यहाँ न्यूनपदत्व दोष है।
अधिक पदत्व दोष -
जब, काव्य में कवि कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है जिनको हटा देने पर भी काव्यार्थ ग्रहण में कोई बाधा नहीं होती, वहाँ अधिक पदत्व दोष होता है।
उदाहरण - पुष्प पराग से रंगकर भ्रमर गुंजारता है।
उपर्युक्त पंक्ति में 'पुष्प' शब्द को हटा देने पर भी अर्थ स्पष्ट हो जाता है। 'पुष्प' का प्रयोग अधिक होने के कारण अधिकपदत्व दोष है।
अक्रमत्व दोष -
जब वाक्य में शब्दों का क्रम ठीक नहीं होता वहाँ अक्रमत्व दोष होता है। यह दोष विभक्ति चिह्न, अव्यय, उपसर्ग आदि का क्रम भंग होने से होता है।
उदाहरण - ऐसे देना प्रकट दिखला नित्य आशंकिता हो।
इस पंक्ति में 'देना' शब्द 'दिखला' शब्द के पश्चात् आना चाहिए अतः इसमें अक्रमत्व दोष है।
पुनरुक्त दोष -
जहाँ एक ही अर्थ वाले शब्दों का पुनः अनावश्यक प्रयोग होता है, वहाँ पुनरुक्त दोष होता है।
उदाहरण-
कोमल वचन सभी को भाते।
अच्छे लगते मधुर वचन॥
उपर्युक्त में 'भाते' तथा 'अच्छे लगते' का एक ही अर्थ है। अतः पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्त दोष है।
3. अर्थ दोष
जब काव्य का अर्थ ग्रहण करने में बाधा हो तो वहाँ अर्थ दोष होता है। अर्थ दोष निम्नलिखित हैं दुष्क्रमत्व-दोष
जहाँ शास्त्रों अथवा परम्परा में प्रसिद्ध क्रम के विपरीत किसी बात का वर्णन होता है, वहाँ दुष्क्रमत्व दोष होता है। उदाहरण- मारुत नन्दन मारुत को, मन को, खगराज को वेग लजायौ।
उपर्युक्त पंक्ति में दुष्क्रमत्व दोष है क्योंकि मन को सही क्रम में नहीं रखा गया है। मन का वेग मारुत तथा खगराज के वेग से अधिक होने के कारण उसको सबसे अंत में रखा जाना चाहिए।
4. रस दोष
काव्य रचना का उद्देश्य रसास्वादन है। इसमें किसी तरह का व्यवधान होने पर रस दोष माना जाता है। भाव, विभाव और संचारी भावों का उचित विवेचन न होना अर्थात् उनका प्रतिकूल अवस्था में चित्रण होना भी रस दोष है। जैसे-श्रृंगार रस के वर्णन में करुण रस का होना भी रस दोष है।
उदाहरण -
खेलो आज होरी, गोरी करत निहोरी हम,
पल को पतौ न यहाँ कालि कहा होइगौ।।
प्रथम पंक्ति में श्रृंगार तथा द्वितीय पंक्ति में वैराग्य सूचक भाव है। इनको एक साथ नहीं रखा जाना चाहिए। अतः यहाँ रस दोष है।
महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर :
प्रश्न 1.
काव्य-दोष की परिभाषा लिखिए।
अथवा
काव्य दोष किसे कहते हैं?
उत्तर :
मुख्यार्थ में बाधा पहुँचाने वाले कारकों को काव्य-दोष कहते हैं। काव्य-दोष रसानुभूति में बाधा उत्पन्न करने तथा काव्योद्देश्य में व्यवधान पैदा करने वाले तत्वों को कहते हैं।
प्रश्न 2.
ग्राम्यत्व काव्य-दोष किसे कहते हैं?
उत्तर :
जहाँ काव्य में असाहित्यिक, भदेस, लोक प्रचलित, गँवारू शब्दों का प्रयोग होता है, वहाँ ग्राम्यत्व काव्य दोष होता है।
प्रश्न 3.
ग्राम्यत्व काव्य-दोष का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर :
ग्राम्यत्व काव्य-दोष का उदाहरण-
वाह रे अकबरा, तेरे जे जे ठाठ।
नीचे दरी और ऊपर खाट॥
यहाँ बादशाह अकबर को 'अकबरा', राजसिंहासन को 'खाट' तथा कालीन को 'दरी' कहने से ग्राम्यत्व दोष है।
प्रश्न 4.
च्युत संस्कृति दोष किसको कहते हैं?
उत्तर :
जहाँ काव्य में व्याकरण के नियमों का उल्लंघन करके शब्दों का प्रयोग किया जाता है, वहाँ च्युत संस्कृति दोष होता है।
प्रश्न 5.
अश्लीलतत्व दोष की सोदाहरण परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
जहाँ किसी काव्य में घृणास्पद, अभद्र तथा असंस्कृत शब्दों का प्रयोग होता है जिनके कारण काव्य में भद्दापन आ जाता है। वहाँ अश्लीलत्व दोष होता है, जैसे -
रावण के दरबार में थिर अंग का पाद।
इस पंक्ति में 'पाद' शब्द का अर्थ पैर है किन्तु यह अपान वायु के लिए भी प्रयुक्त होता है। इसे पढ़ने से घृणा का भाव पैदा होता है।
प्रश्न 6.
क्लिष्टत्व दोष की परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
जहाँ किसी शब्द का अर्थ समझने में कठिनाई होती है और अर्थ-ग्रहण के लिए बौद्धिक व्यायाम करना होता है, वहाँ क्लिष्टत्व दोष होता है।
प्रश्न 7.
क्लिष्टत्व दोष का उदाहरण लिखिए।
उत्तर :
क्लिष्टत्व दोष का उदाहरण
एक अचम्भा देखा भाई।
ठाड़ौ सिंह चरावै गाई॥
चेले के गुरु लागे पाई।
पकड़ बिलाई मुर्गे खाई॥
प्रश्न 8.
दुष्क्रमत्व और अक्रमत्व दोषों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
अथवा
अक्रमत्व और दुष्क्रमत्व में अंतर लिखिए।
उत्तर :
लोक परम्परा. शास्त्रीय विधि के विरुद्ध कोई बात करने से दुष्क्रमत्व दोष होता है। इसमें शास्त्र विरुद्ध क्रम में किसी बात का वर्णन किया जाता है, जबकि अक्रमत्व दोष में वाक्य में शब्दों का क्रम ठीक नहीं होता उसमें विभक्ति चिह्न, अव्यय, उपसर्ग आदि का क्रम ठीक नहीं होता।
प्रश्न 9.
काव्य-दोष का काव्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
काव्य-दोष होने पर पाठक अथवा श्रोता को काव्य से रसानुभूति नहीं होती। वह काव्य का आनन्द भली प्रकार नहीं ले पाता। वह काव्य का अर्थ नहीं समझ पाता। मुख्यार्थ का अपकर्ष होता है।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित में दुष्क्रमत्व दोष किस पंक्ति में है -
(क) फूलों में लावण्यता देती है आनन्द।
(ख) कमल चन्द्रमा का उदय होने पर खिल उठा।
(ग) शिशिर सा झर नयनों का नीर, झुलस देता गालों के फूल।
(घ) वेद नखत ग्रह जोरि अरध करि, सोइ बनत अब खात।
उत्तर :
उपर्युक्त में दुष्क्रमत्व दोष वाली काव्य-पंक्ति है -
(क) कमल चन्द्रमा का उदय होने पर खिल उठा।
प्रश्न 11.
'च्युत संस्कृति दोष' का एक उदाहरण दीजिए तथा बताइए कि यहाँ यह दोष किस कारण है?
उत्तर :
'च्युत संस्कृति दोष" का उदाहरण - फूलों की लावण्यता देती है आनन्द।
यहाँ 'लावण्यता' शब्द का प्रयोग दोषपूर्ण है। 'लावण्य' कहना ही ठीक है। उसमें 'ता' प्रत्यय जोड़ना ठीक नहीं है।
प्रश्न 12.
'पुनरुक्त दोष' को उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
जल में उत्पत्ति जल में वास।
जल में नलिनी तोर निवास॥
यहाँ प्रथम पंक्ति में 'वास' तथा द्वितीय पंक्ति में 'निवास' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह पुनरुक्त दोष है। वास तथ निवास एकार्थक शब्द हैं।
प्रश्न 13.
'न्यून पदत्व दोष' तथा 'अधिक पदत्व दोष' में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जहाँ वाक्य-रचना में किसी शब्द की कमी रह जाती है, वहाँ 'न्यूनपदत्व दोष' होता है। इसके विपरीत अधिक पदत्व दोष तब होता है जब कवि कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है जिनके हटा देने पर भी काव्यार्थ ग्रहण में कोई बाधा नहीं आती। ऐसे शब्दों को अधिक पद कहते हैं।
प्रश्न 14.
काव्य के अर्थ ग्रहण आने वाली बाधाएँ कौन-सी हैं?
उत्तर :
काव्य के अर्थ ग्रहण में चार प्रकार की बाधाएँ आती हैं -
1. शब्द सम्बन्धी बाधाएँ
2. वाक्य सम्बन्धी बाधाएँ
3. अर्थ सम्बन्धी बाधाएँ, तथा
4. रस सम्बन्धी बाधाएँ।
इनके कारण काव्य का अर्थ समझने में कठिनाई आती है।
प्रश्न 15.
रसानुभूति में कितने प्रकार की बाधाएँ होती हैं? इनका क्या परिणाम होता है?
उत्तर :
काव्य का उद्देश्य रस की अनुभूति कराना है। रस की अनुभूति में तीन प्रकार की बाधाएँ आती हैं -
1. रस की अनुभूति होने में देर लगना।
2. रस की अनुभूति होने में व्यवधान उत्पन्न होना।
3. रस की अनुभूति ही न होना। इसका परिणाम मुख्यार्थ का अपकर्ष होता है।
प्रश्न 16.
निम्नलिखित पंक्ति को पुनः लिखकर उनके सामने उनसे सम्बन्धित काव्य दोष का नाम भी लिखिए
करके आज याद इस जन को,
निश्चय वे मुसकाये।.
उत्तर :
करके याद आज इस जन को,
निश्चय वे मुसकाये॥
इस पंक्ति में 'जन' शब्द उर्मिला के लिए प्रयुक्त है, जिसमें व्याकरण सम्बन्धी लिंग दोष है। अतः यहाँ च्युत संस्कृति दोष है।
प्रश्न 17
निम्नलिखित में काव्य-दोष बताइये -
शरद इन्दिरा के मन्दिर की।
मानो कोई गैल रही।
उत्तर :
इस पंक्ति में 'गैल' शब्द ग्रामीण भाषा का होने से इसमें ग्राम्यत्व काव्य दोष है।
प्रश्न 18.
निम्नलिखित पंक्तियों में ग्राम्यत्व काव्य दोष किसमें है? उसे छाँटकर लिखिए।
(क) आये बैरी विपुल चढ़ के अब उठो सैनिको तुम।
(ख) मन्दिर अरध अवधि बदि हमसौ, हरि अहार चलि जात।
(ग) त्रिसना छानि परी घर ऊपर।
उत्तर :
'त्रिसना छानि परी घर ऊपर' पंक्ति में 'छानि' शब्द में ग्राम्यत्व दोष है।'
प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से वह काव्य-पंक्ति छाँटकर लिखिए जिसमें श्रुतिकटुत्व दोष है -
(क) मूंड पै पाग बिराजति श्याम के।
(ख) भोजन बनावै, भीको न लागे
पाव भर दाल में सवा सेर नुनवा
(ग) कवि के कठिन तर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता।
पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता।
उत्तर :
कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता। पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता। इन पंक्तियों में श्रुति कटुत्व दोष है। कृष्टता, विषयोत्कृष्टता तथा विचारोत्कृष्टता में कर्ण-कटुता है।
प्रश्न 20.
"देखौ चतुराई सेनापति कविताई की जु।
ग्रीष्म विषम बरसा की सम करौ है।"
उपर्युक्त पंक्ति में आपकी दृष्टि में कौन-सा काव्य-दोष है?
उत्तर :
उपर्युक्त पंक्ति में च्युत संस्कृति काव्य दोष है। द्वितीय पंक्ति में 'बरसा की सम' न होकर 'बरसा के सम' होना चाहिए।
प्रश्न 21.
'जिसने अपनाया था त्यागा
रहे स्मरण ही आते।'
उपर्युक्त काव्य पंक्ति में कौन-सा काव्य-दोष है?
उत्तर :
उपर्युक्त पंक्ति रहे स्मरण ही आते' में अक्रमत्व काव्य दोष है। 'रहे' शब्द 'आते' के पश्चात् प्रयुक्त होना चाहिए।
प्रश्न 22.
'कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है' में कौन-सा काव्य-दोष है ?
उत्तर :
उपर्युक्त पंक्ति में 'बासन' शब्द का प्रयोग होने से ग्राम्यत्व काव्य-दोष है।
प्रश्न 28.
'दिखा रहे पथ इस भूमा का' में कौन-सा काव्य-दोष है ?
उत्तर :
उपर्युक्त पंक्ति में 'भूमा' शब्द का प्रयोग होने के कारण च्युत संस्कृति काव्य दोष है।
प्रश्न 24.
"आका से मुख औंधा कुआँ, पाता ले पनिहार।
ताका पानी हंसा बिरला पीवै आदि विचार" में काव्य-दोष का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
उपर्यक्त पद्य में क्लिष्टत्व नामक काव्य-दोष है। इसका अर्थ ग्रहण सरलतापूर्वक होना सम्भव नहीं है।
प्रश्न 25.
"मुंड पै मुकट धरे सोहत हैं गोपाल" काव्य-पंक्ति में कौन-सा काव्य-दोष हैं ? नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर :
"मुंड पै मुकट धरे सोहत गोपाल हैं"-मुंड शब्द ग्रामीण कथा का है अतः इसमें ग्राम्यत्व काव्य-दोष है।
प्रश्न 26.
"कोमल वचन सभी को भाते.
अच्छे लगते मधुर वचन" काव्य-पंक्तियों में काव्य-दोष निर्देश कीजिए।
उत्तर :
उपर्युक्त पंक्तियों में पुनरुक्त काव्य-दोष है। इसमें प्रथम पंक्ति 'कोमल-भाते' में जो बात कही गई है वही बात दूसरी पंक्ति 'अच्छे-वचन' में दोहराई गई है।
प्रश्न 27.
दुष्क्रमत्व काव्य-दोष के लक्षण उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
शब्दों का क्रम लोक तथा शास्त्र के अनुकूल न होने पर दुष्क्रमत्व काव्य-दोष होता है, जैसे - मारुत नन्दन मरुत को, मन को, खगराज को लजायो।