Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi Anivarya Rachana निबंध लेखन Questions and Answers, Notes Pdf.
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'निबन्ध' गद्य - साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है। उपन्यास, कहानी, एकांकी, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रा - वृत्त आदि गद्य के विविध रूपों में निबन्ध को ही सर्वश्रेष्ठ और कलापूर्ण माना जाता है। आचार्य रामचन्द्र के शब्दों में, "निबन्ध गद्य की कसौटी है।" संस्कृत में भी सूक्त - कथन है, 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति।' निबन्ध - रचना में गद्य का उत्कृष्ट रूप व्यक्त होता है तथा यह भावों एवं विचारों की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है।
परिभाषा - 'निबन्ध' का शाब्दिक अर्थ है - निश्चित बन्ध। 'बन्ध' से अभिप्राय विचारों एवं भावों के गुम्फन से है। बाबू गुलाबराय ने निबन्ध का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि "निबन्ध उस गद्य - रचना को कहते हैं जिसमें एक .. सीमित आकार के भीतर किसी विषय का वर्णन या प्रतिपादन एक निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव, सजीवता तथा आवश्यक संगति एवं सम्बद्धता के साथ किया गया हो।" अंग्रेजी में निबन्ध को 'एस्से' कहते हैं, जिसका अर्थ है - प्रयत्न। इस तरह प्रयत्नपूर्वक लिखी जाने वाली गद्य रचना 'एस्से' कहलाती है।
निबन्ध - रचना के तत्त्व - निबन्ध - रचना के प्रमुख तीन तत्त्व माने जाते हैं -
निबन्ध में शैलियाँ - निबन्ध - रचना में शैली का विशेष महत्त्व है। शैली ही निबन्धकार के व्यक्तित्व और निजीपन को प्रकट करती है। शैली अपनी बात कहने की पद्धति होती है। विषय - प्रतिपाद। कहने की पद्धति होती है। विषय - प्रतिपादन के अनुरूप शैलियाँ कई प्रकार की होती हैं, उनमें प्रमुख इस प्रकार हैं -
निबन्ध के भेद -
स्थूल रूप से निबन्धों की दो कोटियाँ मानी जाती हैं - व्यक्ति - प्रधान तथा विषय - प्रधान। इनके साथ ही निबन्धों के कई प्रकार माने जाते हैं, जैसे - सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, साहित्यिक, दार्शनिक, ललित आदि। परन्तु रचना की दृष्टि से निबन्ध के पाँच प्रकार माने जाते हैं, जो इस प्रकार हैं -
निबन्ध - लेखन के प्रमुख अंग - निबन्ध - लेखन के लिए सतत अभ्यास की जरूरत होती है। इसके लिए निम्नलिखित तीन अंगों का ध्यान रखना पड़ता है -
(क) प्रस्तावना या भूमिका - इसमें निबन्ध की विषयवस्तु का परिचय दिया जाता है, जिससे पाठक को निबन्ध के अगले भागों को समझने में आसानी होती है। जैसे - विषय की परिभाषा, उसकी महत्ता, उससे सम्बन्धित सूक्त कथन, उद्धरण, विवरण आदि का सरस और प्रभावोत्पादक उपस्थापन होना चाहिए।
(ख) मध्य या प्रसार - मध्य भाग में विषय का बिन्दुवार विवेचन और उससे सम्बन्धित अपनी मान्यताओं का समावेश करना चाहिए। इसी भाग से निबन्ध लेखक की योग्यता, कल्पना - शक्ति एवं विचार - क्षमता का पता चलता है।
(ग) अन्त या उपसंहार - इसमें निबन्ध का सार या निष्कर्षात्मक निचोड़ आ जाना चाहिए। इसमें अपनी मौलिक मान्यताओं, उपलब्धियों तथा सम्भावनाओं का समावेश किया जाना चाहिए।
निबन्ध - लेखन में ध्यान देने योग्य बिन्दु छात्रों को निबन्ध लिखते समय निम्नलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए
1. कोरोना वायरस - 21वीं सदी की महामारी
अथवा
कोरोना वायरस महामारी के सामाजिक - आर्थिक प्रभाव
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना, 2. कोरोना वायरस - लक्षण एवं बचाव के तरीके, 3. कोरोना वायरस महामारी का सामाजिक प्रभाव, 4. आर्थिक प्रभाव, 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - संसार में समय - समय पर अनेक विपत्तियाँ आती रहती हैं। विश्व में अनेक बार भूकम्प, युद्ध, घातक महामारी आदि के कारण लाखों - करोड़ों लोग काल के ग्रास में समा गये, किन्तु सन् 2020 के प्रारम्भ से ही कोरोना वायरस के रूप में जो महामारी फैल रही है, उसने सम्पूर्ण विश्व को हिलाकर रख दिया है। इस महामारी के कारण विश्व के समृद्ध से समृद्ध देशों की स्थिति दयनीय हो गई है। वर्ष 2019 के अन्त में चीन के वुहान शहर में पहली बार प्रकाश में आए कोरोना वायरस संक्रमण ने विश्व के लगभग सभी देशों को अपनी चपेट में ले लिया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने घातक कोरोना वायरस का आधिकारिक नाम कोविड - 19 रखा है, जिसमें 'को' का अर्थ कोरोना, 'वि' का अर्थ वायरस तथा 'डी' का अर्थ डिसीज (बीमारी) है। चूँकि इस विषाणु की पहचान पहली बार 31 दिसम्बर, 2019 को चीन में हुई थी, अतः अन्त में वर्ष 2019 का 19 अंक लिया गया है।
2. कोरोना वायरस - लक्षण एवं बचाव के तरीके - लक्षण - इसके लक्षण फ्लू से मिलते - जुलते हैं, संक्रमण के फलस्वरूप बुखार, जुकाम, सांस लेने में तकलीफ, नाक बहना, सिर में तेज दर्द, सूखी खांसी, गले में खराश व दर्द आदि समस्या उत्पन्न होती है। यह वायरस एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है, इसलिए इसे लेकर बहुत सावधानी बरती जा रही है, कुछ मामलों में कोरोना वायरस घातक भी हो सकता है, खास तौर पर अधिक उम्र के लोग और जिन्हें पहले से अस्थमा, डायबिटीज, हार्ट आदि की बीमारी बचाव के तरीके - स्वास्थ्य मन्त्रालय ने कोरोना वायरस से बचने के लिए दिशानिर्देश जारी किए हैं।
इनके मुताबिक हाथों को बार - बार साबुन से धोना चाहिए, इसके लिए अल्कोहल आधारित हैंड वॉश का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। खाँसते व छींकते समय अपने मुँह और नाक को टिशू/रूमाल से ढककर रखें। अपने हाथों से बार - बार आँख, नाक या मुँह न छुएँ। भीड़ - भाड़ वाले स्थान पर न जाएँ। बाहर जाते समय या किसी से बात करते समय मास्क का प्रयोग करें। संक्रमण के कोई भी लक्षण दिखलाई देने, संक्रमित व्यक्ति या स्थान से सम्पर्क होने पर तुरन्त स्वास्थ्य की जाँच करायें तथा कुछ दिनों तक स्वयं को होम आइसोलेशन में रखें।
3. कोरोना वायरस महामारी का सामाजिक प्रभाव - इस वैश्विक महामारी से बचाव, रोकथाम, उपचार एवं पुनर्वास हेतु विश्व के लगभग सभी देशों में लॉक डाउन, आइसोलेशन, क्वरॅनटाइन की नीति अपनाई गई, . संक्रमण के भय से लगभग समस्त सामाजिक गतिविधियाँ, उत्सव आदि बन्द हो गए। आर्थिक गतिविधियों के बन्द हो जाने से लोगों के रोजगार एवं आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इससे न केवल निर्धनता के परिणाम और घातकता में भारी वृद्धि हुई है। इससे खाद्य असुरक्षा में वृद्धि, उत्पादन में कमी आदि से सामाजिक जीवन अत्यधिक प्रभावित हुआ है।
4. आर्थिक प्रभाव - कोरोना वायरस महामारी से निपटने के लिए सभी देशों, राज्यों द्वारा लगाए गए लॉकडाउन, संक्रमित व्यक्तियों के उपचार, सम्भाव्य रोगियों/कैरियर्स के आइसोलेशन, जाँच प्रक्रिया, दवा, क्वरेंनटाइन की व्यवस्था; . वंचित एवं अरक्षित समूहों को राहत पहुँचाने आदि के कारण सार्वजनिक व्यय में भारी वृद्धि तथा कर राजस्व में कमी होने . से, व्यापार, उद्योग आदि बन्द हो जाने से सभी क्षेत्रों में आर्थिक मन्दी दिखलाई देती है। वस्तुतः इस महामारी ने सारे विश्व में वैश्विक अर्थव्यवस्था को तोड़कर रख दिया है।
5. उपसंहार - कोरोना वायरस जो 21वीं सदी की भयंकर महामारी है, इसने सम्पूर्ण विश्व को घेर लिया है। इस महामारी से स्वयं को बचाते हुए प्रत्येक नागरिक दूसरों का भी हित चिन्तन करे तथा जान भी है जहान भी है' इस कथन को सिद्ध करते हुए देश व समाज की समृद्धि में सभी को योगदान देना चाहिए।
2. मेक इन इंडिया अथवा स्वदेशी उद्योग
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. मेक इन इंडिया प्रारम्भ एवं उद्देश्य 3. स्वदेशी उद्योग 4. योजना के लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - किसी भी देश की समृद्धि एवं विकास का मुख्य आधार उसकी आर्थिक एवं उत्पादन क्षमता होती है। जिस प्रकार भारत देश प्राचीन काल से ही ज्ञान - विज्ञान के क्षेत्र में विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित है, उसी प्रकार वर्तमान में आर्थिक सम्पन्नता की दृष्टि से भी भारत विश्व के प्रगतिशील देशों में अग्रणी बनता जा रहा है। इसके लिए स्वदेशी की भावना निरन्तर प्रत्येक भारतीय के हृदय में विकसित होना आवश्यक है।
2. मेक इन इंडिया प्रारम्भ एवं उद्देश्य - भारत को सुख - सुविधा सम्पन्न और समृद्ध बनाने, अर्थव्यवस्था के विकास की गति बढ़ाने, औद्योगीकरण और उद्यमिता को बढ़ावा देने और रोजगार का सृजन करने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा 25 सितम्बर, 2014 को वस्तुओं और सेवाओं को देश में ही बनाने के लिए 'मेक इन इंडिया' यानी 'भारत में बनाओ' (स्वदेशी उद्योग) नीति की शुरुआत की थी।
इसके माध्यम से सरकार भारत में अधिक पूँजी और तकनीकी निवेश पाना चाहती सरकार का प्रयास है कि विदेशों में रहने वाले सम्पन्न भारतीय तथा अन्य उद्योगपति भारत में आकर अपनी पँजी से उद्योग लगा वे अपने उत्पादन को भारतीय बाजार तथा विदेशी बाजारों में बेचकर मुनाफा कमा सकेंगे तथा भारत को भी इससे लाभ होगा।
3. स्वदेशी उद्योग - मेक इन इंडिया का ही स्वरूप स्वदेशी उद्योग है। अपने देश को सुख - सुविधा सम्पन्न और समृद्ध बनाने के लिए स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए ही उक्त नीति को प्रारम्भ किया गया है। वर्तमान में कोरोना महामारी के बाद तो इसके स्वरूप को और अधिक विस्तृत करते हुए इसे 'आत्मनिर्भर भारत' नाम दिया गया है, जिसका प्रमुख लक्ष्य अपने देश को पूर्णतया आत्मनिर्भर बनाते हुए विदेशी पूँजी को भी भारत में लाना तथा रोजगार के अवसर विकसित करना है।
4. योजना के लाभ - 'मेक इन इंडिया' अथवा 'स्वदेशी उद्योग' की योजना के द्वारा सरकार विभिन्न देशों की कम्पनियों को भारत में कर छूट देकर अपना उद्योग भारत में ही लगाने के लिए प्रोत्साहित करती है, जिससे भारत का आयात बिल कम हो सके और देश में रोजगार का सृजन हो सके। इस योजना से निर्यात और विनिर्माण में वृद्धि होगी जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार होगा, साथ ही भारत में रोजगार सृजन भी होगा।
5. उपसंहार - 'मेक इन इंडिया' की शुरुआत होने के बाद से और विशेषतः कोराना वैश्विक महामारी के कारण भारत देश निवेश के लिए न केवल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों अपितु विदेशों में रहने वाले भारतीय उद्योगपतियों की पहली पसन्द बन गया है। आज भारत 'स्वदेशी उद्योग' अथवा 'मेक इन इंडिया' नीति के कारण रक्षा, इलेक्ट्रॉनिक, हार्डवेयर आदि क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनता हआ विश्व का एक सम्पन्न और समृद्ध राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है।
3. आत्मनिर्भर भारत
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. आत्मनिर्भर भारत 3. आत्मनिर्भर भारत के पाँच स्तम्भ 4. आत्मनिर्भरता के उपाय एवं लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - शास्त्रों में कहा गया है कि 'सर्वं परवशंदुःखम्' 'सर्वमात्मवशं सुखम्' अर्थात् सब तरह से दूसरों पर निर्भर रहना ही 'दुःख' है एवं सब प्रकार से आत्मनिर्भर होना ही सुख है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव कोरोना वैश्विक महामारी के समय स्पष्ट रूप से सभी को हुआ है। इस महामारी के कारण देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ है। देश को समृद्ध व सुखी बनाने के लिए तथा कोरोना महामारी का मुकाबला करने के लिए भारत के प्रधानमन्त्री ने 12 मई, 2020 को 'आत्मनिर्भर भारत' अभियान शुरू करने की घोषणा की।
2. आत्मनिर्भर भारत - भारत के प्रधानमन्त्री ने कोरोना महामारी से पहले और बाद की दुनिया का उल्लेख करते हुए कहा कि 21वीं सदी को भारत की सदी बनाने के सपने को पूरा करने के लिए यह सुनिश्चित करते हुए आगे बढ़ना है कि देश आत्मनिर्भर हो जाए। आज भूमण्डलीकृत. दुनिया में आत्मनिर्भरता के मायने बदल गए हैं। जब भारत आत्मनिर्भरता की बात करता है तो वह आत्मकेन्द्रित व्यवस्था को प्रश्रय नहीं देता है।
भारत की संस्कृति सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में मानती है और भारत की प्रगति में हमेशा विश्व की प्रगति समाहित रही है। अतः आत्मनिर्भर भारत का तात्पर्य स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने के साथ - साथ विदेशी निवेश को भी बढ़ावा देना है, जिससे यहाँ रोजगार के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध हो सकें. एवं भारत की आर्थिक समृद्धि के साथ ही विश्व का भी कल्याण हो सके।
3. आत्मनिर्भर भारत के पाँच स्तम्भ - प्रधानमन्त्री महोदय के अनुसार आत्मनिर्भर भारत के पाँच स्तम्भ इस प्रकार हैं - 1. अर्थव्यवस्था, जो वृद्धिशील परिवर्तन नहीं, बल्कि लम्बी छलाँग सुनिश्चित करती है। 2. बुनियादी ढाँचा, जिसे भारत की पहचान बन जाना चाहिए। 3. प्रणाली (सिस्टम), जो 21वीं सदी की प्रौद्योगिकी संचालित व्यवस्थाओं पर आधारित हो। 4. उत्साहशील आबादी, जो आत्मनिर्भर भारत के लिए हमारी ऊर्जा का स्रोत है, तथा 5. माँग, जिसके तहत हमारी माँग एवं आपूर्ति श्रृंखला (सप्लाई चेन) की ताकत का उपयोग पूरी क्षमता से किया जाना चाहिए।
4. आत्मनिर्भरता के उपाय एवं लाभ - आत्मनिर्भरता के लिए भूमि, श्रम, तरलता और कानूनों पर फोकस करते हुए कुटीर उद्योग, एमएसएमई, मजदूरों, मध्यम वर्ग तथा उद्योगों सहित विभिन्न वर्गों की जरूरतों को पूरा करना आवश्यक है। इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए मनोबल के साथ - साथ आर्थिक सहायता के रूप में भारत सरकार ने विभिन्न चरणों में लगभग बीस लाख करोड रुपयों के एक विशेष आर्थिक पैकेज विभिन्न क्षेत्रों में दक्षता और गुणवत्ता बढ़ाने, गरीबों, मजदूरों, प्रवासियों इत्यादि को सशक्त बनाने में सहायक होगा। आत्मनिर्भरता भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में कड़ी प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करेगी। इसके लिए लोकल (स्थानीय या विदेशी) उत्पादों का गर्व से प्रचार करने और इन लोकल उत्पादों को वैश्विक बनाने में मदद करने की आवश्यकता है। इन उपायों को करने से भारत न केवल आर्थिक दृष्टि से सशक्त होगा, अपितु विश्व में विकासशील देशों में अग्रणी बन सकेगा।
5. उपसंहार - वर्तमान संकट ने सम्पूर्ण विश्व को आत्मनिर्भरता के महत्त्व को पूर्णतया समझा दिया है। आत्मनिर्भरता ही सभी तरह के संकटों का सामना करने का सशक्त हथियार है, जिसके बल से हम आर्थिक संकट रूपी युद्ध को जीत सकते हैं। अतः विश्व में भारत की महत्ता एवं सम्पन्नता को बनाये रखने के लिए आत्मनिर्भर भारत की अति आवश्यकता है।
4. स्वास्थ्य रक्षा : आयुष्मान योजना
अथवा
स्वास्थ्य ही श्रेष्ठ धन है
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. स्वास्थ्य रक्षा के उपाय 3. अटल आयुष्मान योजना से स्वास्थ्य - रक्षा 4. आयुष्मान योजना से लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - आयुर्वेद में कथन है - 'शरीरं व्याधिमन्दिरम्' अर्थात् शरीर अनेक रोगों का घर है। शरीर के कलपों की सही चाल होने पर ही स्वास्थ्य ठीक रहता है। स्वस्थ व्यक्ति निर्धन होने पर : अस्वस्थ व्यक्ति कुबेर होने पर भी कष्टमय जीवन भोगता हुआ परलोक सिधार जाता है। पहला सुख नीरोगी काया', इसलिए सुखमय जीवन के लिए स्वास्थ्य - रक्षा का सभी को सर्वदा ध्यान रखना अपेक्षित है।
2. स्वास्थ्य रक्षा के उपाय - स्वास्थ्य - रक्षा अनेक प्रकार से हो सकती है। नियमित जीवनचर्या अपनाने से, योगाभ्यास करने से, संतुलित एवं शुद्ध भोजन करने से, परिशुद्ध पर्यावरण में रहने से तथा समस्त दुर्व्यसनों से मुक्त रहने से स्वास्थ्य की रक्षा स्वतः हो जाती है। फिर भी ईश्वर की इस हाड़ - मांस की रचना में अर्थात् मानव - शरीर में रोग आ ही जाते हैं, स्वास्थ्य कुछ गड़बड़ा ही जाता है। स्वास्थ्य सदा एक - सा नहीं रहता है, इसके उपचार की जरूरत पड़ती है। इसी दृष्टि से भारत सरकार ने अटल आयुष्मान योजना प्रारम्भ की है।
3. अटल आयुष्मान योजना से स्वास्थ्य - रक्षा - इस योजना का लक्ष्य सभी नागरिकों को स्वास्थ्य - रक्षा हेतु समस्त चिकित्सकीय सुविधाएँ उपलब्ध कराना है। विशेष रूप से गरीब, दलित - शोषित, बेसहारा एवं छोटे बालकों का रोगोपचार कम खर्चे पर हो, यथासम्भव निःशुल्क चिकित्सा - सुविधा मिले, इस दृष्टि से केन्द्र सरकार ने पाँच लाख रुपये तक का रोगोपचार प्रत्येक व्यक्ति को निःशुल्क कराना निश्चित किया है और समस्त देश में पचास करोड़ लोगों को मुफ्त इलाज का लक्ष्य रखा है।
4. आयुष्मान योजना से लाभ - कुपोषण, अस्वच्छता, निर्धनता आदि कारणों से अनेक असाध्य रोग फैल रहे हैं तथा लोगों को रोगोपचार पर असीमित व्यय करना पड़ता है। अटल आयुष्मान योजना के द्वारा सभी सरकारी एवं प्रमुख निजी अस्पतालों में निःशुल्क स्वास्थ्य सेवा मिलने लगी है। इस निमित्त गोल्डन कार्ड बनाये जा रहे हैं। रोगोपचार हेतु पाँच लाख रुपये तक सरकारी सहयोग दिया जा रहा है। इससे अल्प अवधि में ही साठ लाख बच्चों को मृत्यु - मुख में जाने से बचाया गया है। अशक्त एवं निम्नवर्ग की जनता इससे लाभान्वित हो रही है।
5. उपसंहार - स्वास्थ्य ऐसा धन है जिससे जीवन सुख - चैन से बीत जाता हैं। लम्बी आयु का यही रहस्य है। परन्तु स्वास्थ्य रूपी धन की रक्षा कैसे हो, इस दृष्टि से अटल आयुष्मान योजना चल रही है। यह योजना सफल रहे यही आम नागरिक की कामना है।
5. कैशलेस अर्थव्यवस्था : चुनौतीपूर्ण सकारात्मक कदम
संकेत बिन्दु - 1. कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर कदम 2. कैशलेस अर्थव्यवस्था के लाभ 3. कैशलेस अर्थव्यवस्था की चुनौतियाँ 4. उपसंहार।
1. कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर कदम - भारतीय अर्थव्यवस्था में कैशलेस' शब्द उस समय अचानक पूरे देश में चर्चा में आ गया जब 8 नवम्बर 2016 को भारत सरकार ने 500 रुपये व 1000 रुपये के नोटों की वैधता को निरस्त करने की घोषणा की। अचानक हुए नोटबन्दी से अर्थव्यवस्था की लगभग 86 प्रतिशत मुद्रा अवैध घोषित हो गई जिससे नकदी का संकट उत्पन्न होना स्वाभाविक था। ऐसे में कैशलेस अर्थव्यवस्था की अवधारणा एक महत्त्वपूर्ण विकल्प बनकर सामने आया। कैशलेस अर्थव्यवस्था का तात्पर्य लेन - देन हेतु नकद के स्थान पर उसके विकल्प 'डिजिटल अर्थात् डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड, पेटीएम या अन्य माध्यमों का प्रयोग करने से है।
2. कैशलेस अर्थव्यवस्था के लाभ - कैशलेस अर्थव्यवस्था बनाने के कई लाभ है जिसका अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ये लाभ निम्न हैं -
3. कैशलेस अर्थव्यवस्था की चुनौतियाँ - कैशलेस अर्थव्यवस्था के अनेक लाभ हैं, किन्तु भारत जैसे विकासशील देश में अर्थव्यवस्था को कैशलेस करना अत्यन्त चुनौतीपूर्ण कार्य है। यहाँ प्रमुख चुनौतियाँ निम्न हैं
4. उपसंहार - भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ अभी तक आधारभूत सुविधाएँ भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण है तथा लगभग एक - चौथाई जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे है वहाँ कैशलेस अर्थव्यवस्था की कल्पना करना इतनी जल्दी सम्भव नहीं। हमें पहले आधार बनाना होगा तथा फिर लोगों को इसके लिए तैयार करना होगा।
6. स्वच्छता का महत्त्व
संकेत बिन्दु - 1. स्वच्छता क्या है? 2. स्वच्छता के प्रकार 3. स्वच्छता के लाभ 4. स्वच्छता : हमारा योगदान 5. उपसंहार।
1. स्वच्छता क्या है? - 'स्वच्छ' शब्द का अर्थ है - अत्यन्त साफ, विशुद्ध, उज्ज्वल एवं स्वस्थ। 'ता' प्रत्यय जोड़ने पर भाववाचक 'स्वच्छता' का आशय सब प्रकार से साफ - सफाई, निर्मलता एवं पवित्रता है। मन - हृदय की, शरीर एवं वस्त्रों की, घर - बाहर, पानी - वायु - भूमि आदि की निर्मलता या सफाई रखना ही स्वच्छता है। स्वच्छता अच्छे स्वास्थ्य, अच्छे संस्कार एवं सुसभ्यता की निशानी है। इससे मानव के उत्तम आचार - विचार का पता चलता है। गन्दगी न रखना या गन्दगी से घृणा रखकर उसे दूर करना ही स्वच्छता है। स्वच्छता से मनुष्य में ताजगी और स्फूर्ति रहती है।
2. स्वच्छता के प्रकार - स्वच्छता के अनेक प्रकार हैं, जैसे मन और शरीर की स्वच्छता, घर - आँगन की स्वच्छता, पेयजल एवं भूमि की स्वच्छता, वायुमण्डल एवं पर्यावरण की स्वच्छता, ये सब स्वच्छता के भेद हैं। महात्मा गाँधी ने अपने पत्रों के माध्यम से स्वच्छता के महत्त्व पर सुन्दर विचार व्यक्त किये थे। हमारे देश में स्वच्छता के प्रति उतनी जागरूकता नहीं है, इस कारण देश के अनेक क्षेत्रों में गन्दगी का फैलाव दिखाई देता है और पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। इसी आशय से हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रव्यापी स्वच्छता अभियान का शुभारम्भ किया है।
3. स्वच्छता के लाभ - स्वच्छता का सीधा सम्बन्ध हमारी सभ्यता एवं स्वास्थ्य से है। खान - पान में स्वच्छता रहने से शरीर स्वस्थ रहता है। घरों के आसपास, सड़कों, नालियों, पोखरों, नदियों आदि में गन्दगी न फैलने से सारा वातावरण स्वच्छ रहता है। इससे रोगाणु नहीं पनपते हैं, अनेक तरह के रोग नहीं फैलते हैं, जल एवं वायु में शुद्धता रहती है। फलस्वरूप मानव तथा अन्य प्राणियों की आयु एवं स्वास्थ्य का स्तर बढ़ जाता है। हमारे देश में गन्दगी न रहे तो विदेशी पर्यटक अधिक आ सकते हैं। इससे अनेक तरह के लाभ हो सकते हैं।
4. स्वच्छता : हमारा योगदान - हमें अपने देश को स्वच्छ बनाये रखने के लिए घर से लेकर सार्वजनिक स्थानों तक सर्वत्र स्वच्छ रखना चाहिए। खुले में शौच नहीं करना चाहिए, गन्दगी नहीं फैलानी चाहिए; नदियों, पोखरों, कुओं तथा पेयजल के स्रोतों को स्वच्छ रखना चाहिए। प्रायः लोग कूड़ा - कचरा इधर - उधर बिखेर देते हैं, खुले में मल - मूत्र का त्याग करते हैं तथा पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, परन्तु हमें स्वयं ऐसा नहीं करना चाहिए और दूसरों को भी ऐसा करने से रोकना चाहिए। इसमें परस्पर सहयोग एवं सहभागिता का प्रयास जरूरी है।।
5. उपसंहार - स्वच्छता मानव - सभ्यता का एक श्रेष्ठ संस्कार है। स्वच्छता से समस्त पर्यावरण को स्वच्छ रखने की चेतना बढ़ती है। भारत में स्वच्छता अभियान एक अच्छी योजना है। सुनागरिक होने के नाते हमें स्वच्छता के प्रचार प्रसार में योगदान करना चाहिए।
7. खुला - शौचमुक्त गाँव
संकेत बिन्दु - 1. खुला - शौचमुक्त से आशय 2. सरकारी प्रयास 3. जन - जागरण 4. हमारा योगदान 5. महत्त्व/उपसंहार।
1. खुला - शौचमुक्त से आशय - गाँवों, ढाणियों एवं कच्ची बस्तियों में लोग खुले स्थान पर शौच करते हैं। इस बुरी आदत से गाँवों में गन्दगी रहती है। पेयजल, भूमि एवं वायु में गन्दगी बढ़ जाती है। इससे उन क्षेत्रों में भयानक संक्रामक बीमारियाँ फैल जाती हैं। अतः खुला - शौचमुक्त का आशय लोगों को इस बुरी आदत से छुटकारा दिलाना और खुले में मल - मूत्र त्याग न करना है।
2. सरकारी प्रयास - देश में स्वच्छता की कमी को देखकर प्रधानमन्त्री मोदीजी ने 2 अक्टूबर, 2014 को गाँधी जयन्ती के अवसर पर 'स्वच्छता अभियान' प्रारम्भ किया। इसी के अन्तर्गत 'ग्रामीण स्वच्छता मिशन' के माध्यम से गाँवों को खुला शौचमुक्त करने का नारा दिया गया। केन्द्र सरकार ने गाँवों के बी.पी.एल., लक्षित, लघु सीमान्त किसान एवं भूमिहीन श्रमिक आदि को घर में शौचालय बनाने के लिए प्रति परिवार बारह हजार रुपये देना प्रारम्भ किया है। ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों एवं आँगनबाड़ी केन्द्रों में शौचालय - निर्माण हेतु आर्थिक सहायता दी जा रही है। सरकार के इस प्रयास से अनेक गाँवों में शत - प्रतिशत शौचालय बन गये हैं। सारे भारत में अब तक ग्यारह करोड़ शौचालय बनाये जा चुके हैं तथा सन् 2022 तक गाँवों को पूरी तरह खुला - शौचमुक्त करने का लक्ष्य रखा गया है।
3. जन - जागरण - गाँवों में खुले में मल - मूत्र - त्याग के निवारण हेतु जन - जागरण जरूरी है। 'स्वच्छ ग्रामीण मिशन' एवं ग्राम - पंचायतों के माध्यम से प्रयास किये जा रहे हैं। ग्रामीण स्त्रियों को स्वच्छता का महत्त्व बताकर प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस कारण अब नव - युवतियाँ उसी घर से विवाह का रिश्ता स्वीकार करती हैं जहाँ शौचालय बने हैं। इस कार्य में सभी प्रदेश सरकारें, समाज के प्रतिष्ठित लोग सहयोग - सहायता दे रहे हैं। प्रधानमन्त्रीजी की सक्रियता से ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता के प्रति उत्साह दिखाई दे रहा है।
4. हमारा योगदान - देश के नागरिक होने के नाते हम सभी का कर्तव्य है कि हम स्वयं खुले में मल - मूत्र का त्याग न करें। हम गाँवों में जाकर लोगों को समझावें और उन्हें सरकारी आर्थिक सहायता दिलाकर शौचालय - निर्माण के लिए प्रेरित करें। इसके साथ ही श्रमदान द्वारा गाँवों की नालियों एवं पेयजल के स्थानों की सफाई करें। लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागृत करें तथा खुला - शौचमुक्त होने के लाभ बतावें। स्वास्थ्य - रक्षा की दृष्टि से इसका महत्त्व समझावें।
5. महत्त्व/उपसंहार - आम जनता के स्वास्थ्य, रहन - सहन, स्वच्छता आदि की दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्रों में खुला चमक्त होने का सर्वाधिक महत्त्व है। इससे पर्यावरण प्रदषण भी कम होगा और गाँधीजी का 'क्लीन इण्डिया' का सपना साकार होगा। इस अभियान से जनता सब तरह से लाभान्वित रहेगी तथा देश से गन्दगी का कलंक मिट जायेगा।
8. राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान
अथवा
स्वच्छ भारत मिशन/अभियान
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. स्वच्छता अभियान का उद्देश्य 3. स्वच्छता अभियान का व्यापक क्षेत्र 4. स्वच्छता अभियान से लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने देश को गुलामी से मुक्त कराया, परन्तु 'क्लीन इण्डिया' का उनका सपना पूरा नहीं हुआ। विश्व स्वास्थ्य संगठन की दृष्टि में भी भारत में स्वच्छता की कमी है। इन्हीं बातों का चिन्तन कर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान का औपचारिक शुभारम्भ 2 अक्टूबर, 2014 को गाँधी जयन्ती के भियान से सारे देश में सफाई एवं स्वच्छता के प्रति जागरूकता लाने, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों को गन्दगी से मुक्त करने का सन्देश दिया गया है
2. स्वच्छता अभियान का उद्देश्य - हमारे देश में नगरों के आसपास की कच्ची बस्तियों में, गाँवों एवं ढाणियों में शौचालय नहीं हैं। विद्यालयों में भी पेयजल एवं शौचालयों का अभाव है। इससे खुले में शौच करने से गन्दगी बढ़ती है तथा पेयजल के साथ ही वातावरण भी दूषित होता है। गन्दगी के कारण स्वास्थ्य खराब रहता है और अनेक बीमारियाँ फैलती रहती हैं। अतः स्वच्छता अभियान का पहला उद्देश्य शौचालयों का निर्माण करना तथा स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था करना है।
3. स्वच्छता अभियान का व्यापक क्षेत्र - केन्द्र सरकार ने इस अभियान को आर्थिक स्थिति से जोड़ा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में गन्दगी के कारण प्रत्येक नागरिक को बीमारियों पर औसतन सालाना बारह - तेरह हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। यदि स्वच्छता रहेगी तो बीमारियाँ नहीं होंगी और गरीब लोगों को अनावश्यक व्यय - भार नहीं झेलना पड़ेगा। इस दृष्टि से सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय निर्माण के लिए पंचायत स्तर पर अनुदान देना प्रारम्भ किया है। इससे गाँवों को खुला शौच - मुक्त करने में काफी सफलता मिली है। अब पेयजल - स्रोतों तथा गंगा - यमना नदियों की स्वच्छता का अभियान चलाया जा रहा है।
4. स्वच्छता अभियान से लाभ - राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान से सबसे बड़ा लाभ स्वास्थ्य के क्षेत्र में रहेगा। आमजनों को बीमारियों से मुक्ति मिलेगी, दवाओं पर व्यर्थ - व्यय नहीं करना पड़ेगा। इससे प्रदूषण का स्तर एकदम घट जायेगा और जल - मल के उचित निस्तारण से पेयजल भी शुद्ध बना रहेगा। गंगा - यमुना का जल अमृत - जैसा पवित्र बन जायेगा और सिंचित कृषि - उपजों में भी स्वच्छता बनी रहेगी। स्वच्छता अभियान से देश का पर्यावरण हर दिशा में स्वच्छ एवं प्रदूषण मुक्त हो जायेगा।
5. उपसंहार - राष्टीय स्वच्छता अभियान का लक्ष्य गाँधीजी की 150वीं जयन्ती तक देश को स्वच्छ रूप में प्रस्तत करना है। सरकार के इस अभियान में जनता का सक्रिय सहयोग नितान्त अपेक्षित है। अभी तक इसके प्रारम्भिक परिणाम अच्छे दिखाई दे रहे हैं, आगे भी सफलता - प्राप्ति को लेकर सभी आशान्वित हैं।
9. भारतीय संस्कृति का अनुपम उपहार : योग
अथवा
योग की उपादेयता
अथवा
योग : स्वास्थ्य की कुंजी
अथवा.
योग भगाए रोग
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. योग से आशय 3. योग का महत्त्व 4. वर्तमान में योग की स्थिति 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - भारत प्राचीन काल से ही ऋषियों, मुनियों और मनीषियों की धरा रही है। इसीलिए भारतीय संस्कृति विश्व के आँगन में अपनी श्रेष्ठता और महानता के लिए प्रसिद्ध रही है। इसके मूल में 'सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों' की भावना ही निहित रही है। इसी निमित्त भारत में योग को सनातन काल से अपनाया जाता रहा। वस्तुतः योग भारतीय संस्कृति का अनुपम उपहार है।
2. योग से आशय - 'योग' शब्द संस्कृत के 'युज्' धातु से बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ है - जोड़ना। किसी वस्तु को अपने से जोड़ना अर्थात् किसी अच्छे कार्य में अपने आपको लगाना। अतः तन से मन को जोड़ने को ही योग कहते हैं। महर्षि पतंजलि द्वारा रचित 'योगसूत्र' योग दर्शन का मूलग्रन्थ है। उन्होंने योग के आठ अंग बताते हुए कहा है कि चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग है। अतः हमें शारीरिक, मानसिक, धार्मिक व आध्यात्मिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए योग की कोई न कोई क्रिया पन्द्रह - बीस मिनट नियमित रूप से करनी चाहिए, क्योंकि योग स्वस्थ जीवन जीने की एक कला है। .
3. योग का महत्त्व - योग से मनुष्य को शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक दृष्टि से अनेक लाभ हैं। इससे सबसे को नियमित करने से व्यक्ति निरोगी रहता है और दीर्घजीवी होता है। उसके शरीर और मस्तिष्क में वृद्धि के साथ - साथ सोच में भी शुचिता आती है। योगाभ्यासी जन परार्थ चिन्तन से पूरित होकर आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होता रहता है।
4. वर्तमान में योग की स्थिति - वर्तमान में 'योग' शब्द अब अनजाना नहीं रहा है, क्योंकि जहाँ देखो वहीं योग का प्रचार - प्रसार है। टी.वी., पत्रिकाएँ, सी.डी., डी.वी.डी., पुस्तकें आदि इसके प्रचार के जहाँ प्रमुख साधन हैं वहीं बहुत सारी संस्थाएँ हैं जो योग की कक्षाएँ चलाती हैं, प्रशिक्षण देती हैं। चारों तरफ आज के जमाने में योग ही योग है। असाध्य रोगों की प्राकृतिक दवा योग है इसीलिए कहा गया है कि योग भगाए रोग'। योग के क्षेत्र में स्वामी रामदेव का योगदान वर्तमान में अतुलनीय है।
उन्होंने देश और विदेशों में सैकड़ों योग - शिविर लगाकर लोगों को स्वस्थ और दीर्घजीवी रहने का सहज उपाय सिखाया है और सिखा रहे हैं। उन्होंने हरिद्वार में 'पतंजलि योगपीठ' की स्थापना करके योग द्वारा रोगों की चिकित्सा का भी प्रबन्ध किया है। वर्तमान में योग की उपादेयता को समझते हुए इसे शिक्षा पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से जोड़ा जा रहा है।
5. उपसंहार - योग भारतीय संस्कृति का एक अनुपम उपहार है। जो आज के मनुष्य के व्यस्ततम और तनावग्रस्त जीवन की एक अमूल्य औषधि है। योग स्वास्थ्य की कुंजी है। इसके नियमित अभ्यास से मनुष्य सौ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा पूरी कर लेता है। इसीलिए आज सभी के लिए योग लाभदायक सिद्ध हो रहा है और इसका प्रचार - प्रसार दिनों - दिन बढ़ता चला जा रहा है।
10. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ.
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. वर्तमान में समाज की बदली मानसिकता 3. लिंगानुपात में बढ़ता अन्तर 4. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ - अभियान एवं उद्देश्य 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - विधाता की इस अनोखी सृष्टि में नर और नारी जीवन रथ के दो ऐसे पहिए हैं, जो दाम्पत्य बंधन में बँधकर सृष्टि - प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। परन्तु वर्तमान काल में अनेक कारणों से लिंग - भेद का अन्तर सामने आ रहा है जो कि कन्या भ्रूण हत्या का पर्याय बनकर बालक - बालिका के समान अनपात को बिगाड रहा है। इस कारण आज बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी समस्या का नारा देना हमारे लिए शोचनीय है।
2. वर्तमान में समाज की बदली मानसिकता - वर्तमान में मध्यमवर्गीय समाज अपनी रूढ़िवादी सोच के कारण जहाँ बेटी को पराया धन मानता है वहीं पुत्र को कुल परम्परा को बढ़ाने वाला तथा वृद्धावस्था का सहारा मानता है। इसलिए बेटी को पालना - पोसना, पढ़ाना - लिखाना, उसकी शादी में दहेज देना आदि को बेवजह का भार ही मानता है। इस दृष्टि से कुछ स्वार्थी सोच वाले कन्या - जन्म को ही नहीं चाहते। इसलिए वे चिकित्सिकी साधनों के द्वारा गर्भावस्था में ही लिंग - परीक्षण करवाकर कन्या - जन्म को रोक देते हैं। परिणामस्वरूप जनसंख्या में बालक - बालिकाओं के अनुपात में अत्यधिक अन्तर दिखाई दे रहा है।
3. लिंगानुपात में बढ़ता अन्तर - वर्तमान में स्त्री - पुरुष का लिंगानुपात गड़बड़ा गया है। विभिन्न दशकों में हुई जनगणना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। सन् 2011 की जनगणना के आधार पर बालक और बालिकाओं का अनुपात एक हजार में लगभग 918 तक पहुँच गया है। इस लिंगानुपात के बढ़ते अन्तर को देखकर भविष्य में वैवाहिक जीवन में आने वाली कठिनाइयों के प्रति समाज की ही नहीं सरकार की भी चिन्ता बढ़ गयी है। इस चिन्ता से ही मुक्त होने की दिशा में सरकार ने 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा दिया है। क्योंकि बालिका को शिक्षा देने से उनमें जाग्रति और चेतना का संचार होगा, जिससे वह आत्मसम्मान करने में सक्षम होगी।
4. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ - अभियान एवं उद्देश्य - 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' अभियान की घोषणा जून, को लोकसभा के संयुक्त अधिवेशन में हमारे राष्ट्रपति द्वारा की गई। तब सरकार ने निर्णय लिया कि परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मन्त्रालय साथ मिलकर इस कार्य को आगे बढ़ायेंगे। इस अभियान के अन्तर्गत लिंग - परीक्षण पर प्रतिबन्ध लगाकर बालिका भ्रूण - हत्याओं को रोककर बालिकाओं को पूर्ण संरक्षण तथा उनके विकास के लिए शिक्षा से सम्बन्धित सभी गतिविधियों में पूर्ण भागीदारी रहेगी। संविधान के माध्यम से लिंगाधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा। साथ ही लिंग परीक्षण प्रतिबन्धित होगा।
5. उपसंहार - 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' जैसा अभियान आज हमारे देश के सामने एक बहुत बड़ी सामाजिक समस्या के रूप में आकर खड़ा हो गया है। इस समस्या के निदान के लिए सरकार को ही नहीं हम सबको सामाजिक दृष्टि से जागरूक होना होगा। इसके लिए हमें रूढ़िवादी सोच का परित्याग करना चाहिए। बेटे की तरह बेटी को भी पढ़ा - लिखाकर जीवन जीने का अधिकार देना चाहिए।
11. आजादी के 70 वर्ष : क्या खोया, क्या पाया
अथवा
स्वतन्त्र भारत की समस्याएँ एवं उपलब्धियाँ
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. स्वतन्त्र भारत की प्रमुख समस्याएँ 3. प्रगतिशील भारत ने क्या खोया 4. स्वतन्त्र भारत की प्रमुख उपलब्धियाँ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - हमारे देश को स्वतन्त्रता - प्राप्त हुए काफी समय हो चुका है, लेकिन अनेक कारणों से आज भी भारत में वांछित प्रगति नहीं दिखाई दे रही है। इस कारण प्रायः हमारे नेता एवं बद्धिजीवी यह स्वतन्त्रता - प्राप्ति के बाद हमारे देश ने क्या खोया और क्या पाया? हमारी उपलब्धि क्या रही, हम कितनी प्रगति कर सके? कुछ निराशावादी लोग उपलब्धियों को कमतर आँकते हैं, तो कुछ लोग देश की प्रगति को देखकर गर्व की अनुभूति करते हैं।
2. स्वतन्त्र भारत की प्रमुख समस्याएँ - स्वतन्त्रता - प्राप्ति के बाद देश की प्रगति में बाधा डालने वाली अनेक समस्याएँ मानी जाती हैं। सर्वप्रथम शरणार्थी समस्या एवं साम्प्रदायिकता की समस्या उभरी, फिर बेरोजगारी, जनसंख्या वृद्धि और औद्योगिक विकास के साथ ही भाषावाद, प्रान्तवाद, शिक्षा - व्यवस्था एवं आर्थिक विकास आदि के उठीं। आवास - समस्या, परिवहन समस्या, वर्गभेद समस्या भी साथ में उभरती रही। वर्तमान में सबसे भयानक समस्या आतंकवाद, अलगाववाद एवं शत्रु - राष्ट्रों की छद्म - युद्ध की कूटनीति है। इन सभी समस्याओं के कारण सरकार विकास योजनाओं का अच्छी तरह संचालन नहीं कर सकी। फलतः स्वतन्त्रता - प्राप्ति का लाभ अधूरा ही मिल सका। यह अतीव विचारणीय पक्ष है।
3. प्रगतिशील भारत ने क्या खोया - स्वतन्त्रता - प्राप्ति के बाद गांधीजी के सपनों का खुशहाल देश बनाने का लक्ष्य लेकर हमारे नेतागण आगे अवश्य बढ़े, परन्तु स्वार्थी राजनीति, लालफीताशाही, भाई - भतीजावाद, भ्रष्टाचार और भेदभाव की नीति ने देश को जो हानि पहुँचायी अथवा शासन - तन्त्र को जितना कमजोर बनाया, वह स्वतन्त्र - देश का सर्वस्व खोने से कम नहीं है। देश का आत्मबल, रामराज्य का सपना एवं योजनाबद्ध प्रगति का मूल - मन्त्र खोजने से आज हमारा देश उसी पुराने मार्ग पर खड़ा दिखाई दे रहा है। यह स्थिति काफी अखरने वाली है।
4. स्वतन्त्र भारत की प्रमुख उपलब्धियाँ - प्रायः हम अपनी उपलब्धियों को लेकर मुखर नहीं रहते हैं, परन्तु समग्र रूप से देखा जाये, तो स्वतन्त्रता - प्राप्ति के बाद भारत में सैन्य - शक्ति की पर्याप्त वृद्धि हुई है। आज हमारी सेना नये आयुधों, मिसाइलों एवं अणु - आयुधों से सज्जित है। देश में अनेक बड़े - बड़े कारखाने स्थापित हो गये हैं, काफी सामान निर्यात किया जाता है। जहाज, कारें, बसें आदि सब यहाँ बनने लगे हैं। रेलवे, डाक - विभाग, दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी, फिल्म उद्योग, खेलकूद, अन्तरिक्ष अभियान तथा तकनीकी शिक्षा आदि अनेक क्षेत्रों में काफी प्रगति हुई है। अनेक क्षेत्रों में आशा से अधिक उपलब्धियों के कारण अब भारत प्रगतिशील देशों में आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है।
5. उपसंहार - स्वतन्त्रता - प्राप्ति के बाद भ्रष्ट राजनीति एवं कमजोर शासन - तन्त्र के कारण जैसी प्रगति वांछित थी, वह नहीं हो सकी। फिर भी भारत ने काफी प्रगति की है। यदि देश को उचित नेतृत्व मिले, तो यह अग्रणी शक्तिशाली देश बन सकता है। गाँधीजी के सपनों की पूर्ति अपरिमित उपलब्धियों से ही हो सकती है।
12. शिक्षा का अधिकार
अथवा
अनिवार्य बाल - शिक्षा का अधिकार
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. शिक्षा का संवैधानिक अधिकार 3. अनिवार्य बाल - शिक्षा के अधिकार का स्वरूप 4. शिक्षा के अधिकार अधिनियम से लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावनां - किसी भी देश के विकास में हमेशा से शिक्षा का विशेष महत्त्व रहा है। शिक्षा का उद्देश्य शिक्षार्थी की समझ को बढ़ाना तथा मानवीय मूल्यों का विकास करना है। सभ्य नागरिक बनाना, समाजोपयोगी और सोद्देश्य जीवन निर्वाह की क्षमता पैदा करना तथा व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना इस तरह एक मनुष्य को सामाजिक बनाने की प्रक्रिया का नाम शिक्षा है। लोकतन्त्र में सुनागरिकों का निर्माण शिक्षा से हो सके, एतदर्थ हमारे संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार माना गया है।
2. शिक्षा का संवैधानिक अधिकार - भारत के संविधान के नीति - निर्देशों में यह निश्चय किया गया कि आगामी दस वर्षों में अर्थात् 26 जनवरी, 1960 तक छः से चौदह आयु - वर्ग के बच्चों को अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था होगी। परन्तु यह व्यवस्था दस वर्षों में पूरी नहीं हो सकी और इसे लागू करने में पूरे साठ साल लग गये। इस तरह संविधान के छियासीवें संशोधन से निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम अप्रैल, 2010 से लागू हो पाया। इससे सभी बालकों को, विशेषकर वंचित व अल्पसंख्यक वर्ग के बालकों को जीवन जीने की शिक्षा प्राप्त करने का बुनियादी अधिकार दिया गया है।
3. अनिवार्य बाल - शिक्षा के अधिकार का स्वरूप - भारत सरकार द्वारा जारी निःशुल्क और अनिवार्य बाल - शिक्षा का अधिकार अधिनियम में यह व्यवस्था है कि प्रारम्भिक कक्षा से आठवीं कक्षा तक अर्थात् चौदह वर्ष तक के प्रत्येक बालक को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्ति का अधिकार होगा। सरकार ऐसे तन्त्र को विकसित करेगी, जिससे सभी के लिए उत्साहित हों। बालिकाओं, अल्पसंख्यकों तथा वंचित वर्ग के बालकों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जायेगी। केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारें समस्त व्यय वहन करेंगी। राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग के अधिनियमों के अनुसार बालकों के समस्त अधिकारों को संरक्षण दिया जायेगा।
4. शिक्षा के अधिकार अधिनियम से लाभ - निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा के अधिकार अधिनियम से समाज को अनेक लाभ हैं। इससे प्रत्येक बालक को प्रारम्भिक शिक्षा निःशुल्क मिलेगी। अल्पसंख्यकों एवं वंचित वर्ग के बालकों को पूरा प्रोत्साहन मिलेगा। समाज में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ेगा। शिक्षा परीक्षोन्मुखी न होकर बुनियादी हो जायेगी तथा शिक्षा का व्यवसायीकरण रुक जायेगा। सभी बालकों के व्यक्तित्व का उचित विकास होगा तथा सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों का जीवन - स्तर सुधर सकेगा। इस प्रकार शिक्षा के अधिकार अधिनियम के द्वारा सामाजिक उत्तरदायित्व का समुचित निर्वाह हो सकेगा।
5. उपसंहार - शिक्षा के अधिकार अधिनियम से शिक्षित एवं संस्कारशील समाज का निर्माण हो सकेगा और देश में साक्षरता का प्रतिशत भी बढ़ेगा। वस्तुतः उक्त अधिनियम के द्वारा सभी बालकों के लिए ज्ञान - मन्दिर के द्वार खोल दिये गये हैं। किसी भी देश का भविष्य शिक्षित नागरिकों पर ही निर्भर होता है। शिक्षा द्वारा ही राष्ट्र की शक्ति व समृद्धि का विकास होता है।
13. रोजगार गारंटी योजना : मनरेगा
अथवा
मनरेगा : गाँवों में रोजगार योजना
अथवा
गाँवों के विकास की योजना : मनरेगा
संकेत बिन्द - 1. प्रस्तावना 2. मनरेगा कार्यक्रम का स्वरूप 3. मनरेगा से रोजगार सविधा 4. मनरेगा से सामाजिक सुरक्षा एवं प्रगति 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - भारत सरकार ने ग्रामीण विकास एवं सामुदायिक कल्याण की दृष्टि से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम, फरवरी, 2006 में लागू किया। इस योजना का संक्षिप्त नाम 'नरेगा' रखा गया, जिसमें अक्टूबर, 2009 से महात्मा गाँधी का नाम जोड़ा गया और इसका संक्षिप्त नाम 'मनरेगा' पड़ा। इस रोजगार गारंटी योजना में ग्रामीण क्षेत्र के अकुशल वयस्क स्त्री या पुरुष को श्रमयुक्त रोजगार दिया जाता है, परन्तु रोजगार न देने पर बेरोजगारी भत्ता देने का प्रावधान है।
2. मनरेगा कार्यक्रम का स्वरूप - मनरेगा योजना के अन्तर्गत विविध कार्यक्रम चलाये जाते हैं, जैसे - (1) जल . संरक्षण एवं जल - शस्य संचय, (2) वनरोपण एवं वृक्षारोपण, (3) इन्दिरा आवास योजना एवं अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए भूमि सुधार, (4) लघु सिंचाई कार्यक्रम, (5) तालाब, कुएँ आदि का नवीनीकरण, (6) बाढ़ नियन्त्रण एवं जल - निकास, (7) ग्रामीण मार्ग - सड़क निर्माण तथा (8) अनुसूचित अन्य विविध कार्य। मनरेगा योजना के संचालन के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के निर्देशन में पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से एक प्रशासनिक संगठनात्मक ढाँचा बनाया गया है, जिसमें जिला पंचायत, विकास खण्ड तथा ग्राम पंचायत को योजना के क्रियान्वयन का भार दिया गया है। इसमें ग्राम पंचायत की मुख्य भूमिका रहती है।
3. मनरेगा से रोजगार सुविधा - इस योजना में रोजगार माँगने वाले वयस्क व्यक्ति को ग्राम पंचायत से एक कार्ड दिया जाता है। आवेदन - पत्र देने की तिथि से ही उस आवेदक को पन्द्रह दिन के अन्तर्गत रोजगार उपलब्ध कराना पड़ता है। रोजगार न दिये जाने पर उसे बेरोजगारी भत्ता देना पड़ता है। वयस्क व्यक्ति को गाँव के पाँच किलोमीटर की सीमा में रोजगार दिया जाता है तथा कार्यस्थल पर प्राथमिक चिकित्सा सुविधा और महिला मजदूरों के छोटे बच्चों के देखभाल की सुविधा उपलब्ध करायी जाती है। मनरेगा रोजगार योजना से ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब लोगों का हित हो रहा है।
4. मनरेगा से सामाजिक सुरक्षा एवं प्रगति - मनरेगा कार्यक्रम में आमजन की भागीदारी होने से सामाजिक सुरक्षा एवं लोकहित का विस्तार हो रहा है। मनरेगा के लाभार्थियों की सक्रिय भागीदारी से गाँवों क है। इससे महिलाओं तथा अनुसूचित जाति - अनुसूचित जनजाति के लोगों में से वंचितों को रोजगार मिलने लगा है। इससे , महिला सशक्तीकरण पर भी बल दिया गया है। इस तरह मनरेगा से सामाजिक एवं आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को गति मिल रही है और ग्रामीण स्तर पर अशक्त लोगों की प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।
5. उपसंहार - मनरेगा कार्यक्रम ग्रामीण क्षेत्र के विकास तथा बेरोजगार लोगों को रोजगार देने का लोक कल्याणकारी प्रयास है। ग्राम पंचायतों के सक्रिय सहभाग से इसका उत्तरोत्तर प्रसार हो रहा है तथा सरकार इस योजना को प्रभावी ढंग से चला रही है।
14. आतंकवाद : वैश्विक क्षितिज पर
अथवा
आतंकवाद : एक वैश्विक समस्या
अथवा
विश्व चुनौती : बढ़ता आतंकवाद
अथवा
आतंकवाद : समस्या एवं समाधान
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. आतंकवाद के कारण 3. आतंकवादी घटनाएँ एवं दुष्परिणाम 4. आतंकवादी चुनौती का समाधान 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - आतंक का अर्थ है, लोगों में भय, त्रास या अनिष्ट की आशंका फैलाना। आम जनता के जान - माल को नुकसान पहुँचाने तथा हिंसक कार्यवाहियों से जनता में असुरक्षा की भावना फैलाने की कुप्रवृत्ति को आतंकवाद कहते हैं। दूसरे शब्दों में स्वार्थसिद्धि एवं राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित तीव्र हिंसा का प्रयोग आतंकवाद है। आतंकवाद हिंसा एवं अशान्ति पर आधारित होता है। आज आतंकवाद विश्व के समक्ष एक भयानक चुनौतीपूर्ण समस्या बन गया है।
2. आतंकवाद के कारण - आतंकवाद सर्वप्रथम सन् 1920 में इजरायल में हानागाह संगठन द्वारा धार्मिक अलगाव के रूप में उभरा। प्रारम्भ में राष्ट्रों की रंगभेद, कट्टर जातीयता एवं नस्लवादी दमन नीति से कट्टरवादी विषैले चरित्र का विकास हुआ, जो बाद में कहीं पर व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण, कहीं पर क्षेत्रीय वर्चस्व के कारण पनपा। . गरीबी, बेरोजगारी, धार्मिक कट्टरता, धार्मिक एवं जातीय भेदभाव भी आतंकवाद के प्रमुख कारण हैं। सम्प्रदाय, धर्म तथा नस्ल के नाम पर पृथक् राष्ट्र की माँग करने से विभिन्न देशों में अलग - अलग नामों से आतंकवाद का प्रसार हुआ।
3. आतंकवादी घटनाएँ एवं दुष्परिणाम - आतंकवाद को कुछ राष्ट्रों का अप्रत्यक्ष सहयोग मिल रहा है। इस कारण आतंकवादियों के पास अत्याधुनिक घातक हथियार मौजूद हैं। वे भौतिक, रासायनिक, जैविक एवं मानव बमों का प्रयोग कर रहे हैं। वे अपने गुप्त संचार - तन्त्र से कहीं भी पहुँच जाते हैं। पूरे विश्व में अब तक अनेक आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया गया है।
अमेरिका में 9/11 का वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला, इराक में यजीदी समुदाय पर हमला, रूस का बेसलान स्कूल हत्याकाण्ड, 2015 का पेरिस हमला, ब्रिटेन की संसद के बाहर हमला, भारत में 26/11 को मुंबई पर हमला, 2006 में मुंबई में ट्रेन ब्लास्ट, भारतीय संसद पर हमला आदि मुख्य आतंकी घटनाएँ हैं। इन हमलों में हजारों लोगों की मृत्यु हुई। अनेक परिवार खत्म हो गये। जन हानि के साथ - साथ अरबों रुपयों की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचा। काफी समय के लिए प्रभावित क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प पड़ गईं।
4. आतंकवादी चुनौती का समाधान - आतंकवाद के बढ़ते खतरे का समाधान कठोर कानून व्यवस्था एवं . नियन्त्रण से ही हो सकता है। इसके लिए अवैध संगठनों पर प्रतिबन्ध, हवाला द्वारा धन संचय पर रोक, प्रशासनिक सुधार के साथ ही काउण्टर टेरेरिज्म एक्ट अध्यादेश तथा संघीय जाँच एजेन्सी आदि को अति प्रभावी बनाना अपेक्षित है। अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया द्वारा जो कठोर कानून बनाया गया है तथा सेना एवं पुलिस को इस सम्बन्ध में जो अधि रखे हैं, उनका अनुसरण करने से भी इस चुनौती का मुकाबला किया जा सकता है।
5. उपसंहार - निर्विवाद कहा जा सकता है कि आतंकवाद किसी देश विशेष के विरुद्ध की गई विध्वंसात्मक कार्यवाही है। आतंकवाद के कारण विश्व मानव - सभ्यता पर संकट आ रहा है। यह अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन गई है। इसके समाधानार्थ एक विश्व - व्यवस्था की जरूरत है, सभी राष्ट्रों में समन्वय तथा एकजुटता की आवश्यकता है। आतंकवाद को मिटा कर ही विश्व - शान्ति स्थापित हो सकती है।
15. खाद्य - पदार्थों में मिलावट और भारतीय समाज
अथवा
मिलावटी माल का बढ़ता कारोबार
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. खाद्य - पदार्थों में मिलावट : एक समस्या 3. मिलावटी माल पर नियन्त्रण 4. मिलावटी कारोबार का दुष्प्रभाव 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - वर्तमान काल में धनार्जन की होड़ एवं नैतिकता का पतन - इन दोनों कारणों से मिलावटी माल बनाने - बेचने का कारोबार असीमित बढ़ रहा है। खाद्य - पदार्थों में मिलाक्ट के नये - नये तरीके अपनाये जा रहे हैं और इससे जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड किया जा रहा है। यद्यपि मिलावट करना और ऐसे माल की आपति - विक्रय करना कानूनी दृष्टि से अपराध है, समाज की नैतिकता एवं जीवन - मूल्यों का पतन है, फिर भी चोरी - छिपे यह कुकृत्य खूब चल रहा है।
2. खाद्य - पदार्थों में मिलावट : एक समस्या - खाद्य पदार्थों में मिलावट करना अब आम बात हो गई है। दूध, पनीर, मावा, घी, तेल आदि में मिलावट या नकली माल बनाने का धन्धा जगह - जगह चोरी - छिपे चल रहा है। दाल, चावल, गेहूँ में पत्थर - कंकड़ मिलाये जाते हैं। पिसी हुई मिर्च, हल्दी, धनिया तथा मसालों में खूब मिलावट की जाती है।
चाय की पत्तियाँ, बेसन, तरल पेय - पदार्थों तथा डिब्बा - बन्द रसदार चीजों और मिठाइयों में कितनी मिलावट हो रही है, इसका पता नहीं चल. पाता है। परन्तु अब बड़ी नामी कम्पनियों की दवाइयों में तथा अन्य उत्पादों में भी मिलावट होने की शिकायतें आ रही हैं। इस तरह मिलावटखोरी का धन्धा एक समस्या बन गया है।
3. मिलावटी माल पर नियन्त्रण - सरकार ने खाद्य - पदार्थों तथा अन्य सभी चीजों में मिलावट करना कानूनी अपराध घोषित कर रखा है। इसके नियन्त्रण के लिए भी प्रभावी व्यवस्था कर रखी है। खाद्य - पदार्थों में मिलावट रोकने के लिए खाद्य - निरीक्षक, स्वास्थ्य निरीक्षक तथा अन्य बड़े प्रशासनिक अधिकारियों को पूर्ण अधिकार दे रखे हैं।
ये सभी अधिकारी प्रायः तीज - त्योहारों पर जाँच - पड़ताल करते हैं, छापे मारते हैं तथा मिलावटी खाद्य - पदार्थों के नमूने लेकर प्रयोगशाला में भेजते हैं अथवा न्यायालय में मुकदमा या चालान कर देते हैं। किन्तु इसमें भी लालफीताशाही और भ्रष्टाचार व्याप्त है। फलस्वरूप इस मिलावटी कारोबार पर कठोरता से और पूरी तरह नियन्त्रण नहीं हो रहा है।
4. मिलावटी कारोबार का दुष्प्रभाव - मिलावटी खाद्य - पदार्थों को प्रयोगशालाओं में जाँचने - परखने पर जो तथ्य सामने आये हैं, वे रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं। नकली घी, नकली पनीर व मावा में यूरिया - शेम्पो आदि मिलाया जाता है। नकली शहद, पिसे हुए. मसाले, मिर्च आदि में रंग देने के लिए हानिकारक केमिकल मिलाये जाते हैं। फलों को पकाने के लिए रांगा, नौसादर जैसे खतरनाक पदार्थ अपनाये जाते हैं। खाद्य - पदार्थों एवं मिठाइयों को चमकदार बनाने के लिए खतरनाक केमिकलों का प्रयोग किया जाता है। इस तरह मिलावटी कारोबार से जनता का स्वास्थ्य भी बिगड़ रहा है, धन - हानि भी हो रही है और नैतिक आदशों का पतन भी हो रहा है।
5. उपसंहार - मिलावटी चीजों का कारोबार जघन्य अपराध है। खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वाले समाज के दुश्मन हैं। तुच्छ स्वार्थ की खातिर ऐसे अपराधी कामों में प्रवृत्त लोगों को कठोर - से - कठोर सजा मिलनी चाहिए। साथ ही भारतीय समाज को भी नैतिक - मूल्यों का पालन करना चाहिए। मिलावटखोरी पर नियन्त्रण रखना स्वस्थ परम्परा के लिए जरूरी है।
16. प्लास्टिक थैली : पर्यावरण की दुश्मन
अथवा
प्लास्टिक थैली : अल्प लाभ - दीर्घकालीन हानि
अथवा
प्लास्टिक कैरी बैग्स : असाध्य रोगवर्धक
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. प्लास्टिक कचरे का प्रसार 3. प्लास्टिक थैलियों से पर्यावरण प्रदूषण 4. प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबन्ध 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - मानव द्वारा निर्मित चीजों में प्लास्टिक थैली ही ऐसी है जो वर्तमान में माउंट एवरेस्ट से लेकर सागर की तलहटी तक सब जगह मिल जाती है। पर्यटन स्थलों, समुद्री तटों, नदी - नाले - नालियों, खेत - खलिहानों, भूमि के अन्दर - बाहर सब जगहों पर आज प्लास्टिक कैरी बैग्स के कचरे के ढेर अटे पड़े हैं। प्रत्येक उत्पाद प्लास्टिक की थैलियों में मिलता है और घर आते - आते ये थैलियाँ कचरे में तब्दील होकर पर्यावरण को हानि पहुँचा रही हैं।
2. प्लास्टिक कचरे का प्रसार - प्लास्टिक थैलियों या कैरी बैग्स का इस्तेमाल इतनी अधिक मात्रा में हो रहा है कि सारे विश्व में एक साल में दस खरब प्लास्टिक थैलियाँ काम में लेकर फेंक दी जाती हैं। अकेले जयपुर में रोजाना पैंतीस लाख लोग प्लास्टिक का कचरा बिखेरते हैं और सत्तर टन प्लास्टिक का कचरा सड़कों, नालियों एवं खुले वातावरण में फैलता है।
केन्द्रीय पर्यावरण नियन्त्रण बोर्ड के एक अध्ययन के अनुसार एक व्यक्ति प्रतिवर्ष छह से सात किलो प्लास्टिक कचरा फेंकता है। प्लास्टिक का उत्पादन अनेक तरह से हो रहा है। पूरे राजस्थान में प्लास्टिक उत्पाद - निर्माण की तेरह सौ इकाइयाँ हैं, तो इस हिसाब से पूरे देश में कितनी होगी, यह सहज अनुमान का विषय है। इस तरह प्लास्टिक कचरे का प्रसार लगातार हो रहा है।
3. प्लास्टिक थैलियों से पर्यावरण प्रदूषण - पर्यावरण विज्ञानियों ने प्लास्टिक के बीस माइक्रोन या इससे पतले उत्पाद को पर्यावरण के लिए बहुत घातक बताया है। ये थैलियाँ मिट्टी में दबने से फसलों के लिए उपयोगी कीटाणुओं को मार देती हैं। इन थैलियों के प्लास्टिक में पॉलि विनाइल क्लोराइड होता है, जो मिट्टी में दबे रहने पर भूजल को जहरीला बना देता है और धरती की उर्वरा - शक्ति नष्ट कर देता है। बारिश में प्लास्टिक के कचरे से दुर्गन्ध आती है, हवा में प्रदूषण फैलने से अनेक असाध्य रोग फैल जाते हैं, कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। प्लास्टिक कचरा खाने से गाय आदि पशुओं की अकाल मौत हो जाती है। इस तरह प्लास्टिक थैलियों से पर्यावरण को अत्यधिकं हानि पहुँचती है।
4. प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबन्ध - प्लास्टिक थैलियों के उत्पादकों को कुछ लाभ हो रहा हो तथा उपभोक्ताओं को भी सामान ले जाने में सुविधा मिल रही हो, परन्तु यह क्षणिक लाभ पर्यावरण को दीर्घकालीन हानि पहुँचा रहा है। कुछ लोग बीस माइक्रोन से पतले प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगाने की वकालत कर उससे अधिक मोटे प्लास्टिक को रिसाइक्लड करने का समर्थन करते हैं, परन्तु वह रिसाइक्लड प्लास्टिक भी त्वचा रोग एवं पैकिंग किये गये खाद्य पदार्थों को दूषित करता है। अतएव हर तरह की प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबन्ध लगाना जरूरी है। राजस्थान सरकार ने इस पर प्रतिबन्ध लगाने का निर्णय लिया है, जो कि स्वागत - योग्य कदम है।
5. उपसंहार - प्लास्टिक थैलियों का उपयोग पर्यावरण की दृष्टि से सर्वथा घातक है। यह असाध्य रोगों को बढ़ाता है। इससे अनेक हानियाँ होने से इसे पर्यावरण का शत्रु भी कहा जाता है। अतएव प्लास्टिक थैलियों पर पूर्णतया प्रतिबन्ध लगाया जाना जनहित में जरूरी है।
17. बढ़ते वाहन : घटता जीवन - धन
अथवा
वाहन - वृद्धि से स्वास्थ्य - हानि।
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. वाहन - वृद्धि के कारण 3. वाहन - वृद्धि से लाभ 4. बढ़ते वाहनों का कुप्रभाव 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - मानव - सभ्यता का प्रगति - रथ पहले बैलगाड़ी, रथ, इक्का - ताँगा, बग्घी से आगे बढ़ा, तो फिर पालकी, रिक्शा आदि के रूप में चला। लेकिन यान्त्रिक युग के आते ही नये - नये द्रुतगामी वाहनों का निर्माण हुआ। आज तो स्कूटर, मोटर - साइकिल, कार, बस आदि अनेक तरह के द्रुतगामी यान्त्रिक वाहनों का निर्माण मानव - प्रगति की कथा बता रहे हैं। अब ऐसे लाखों वाहनों की रेल - पेल से सड़कों पर पैदल चलने की जगह नहीं रह गयी है।
2. वाहन - वृद्धि के कारण - जनता के आवागमन एवं परिवहन को. सुविधायुक्त तथा द्रुतगामी बनाने के लिए यान्त्रिक वाहनों का आविष्कार हुआ। पहले स्कूटर के साथ कार और मोटर - वाहनों का निर्माण हुआ, फिर आवश्यकतानुसार ऑटोरिक्शा, मध्यम एवं भारी मालवाहक वाहनों का निर्माण हुआ। वस्तुतः जनसंख्या की वृद्धि एवं माँग के अनुपात से यान्त्रिक वाहनों का उत्पादन बढ़ा। इस तरह यान्त्रिक युग के विकास से तथा मानव की सुख सुविधाओं की दृष्टि से यान्त्रिक वाहनों की असीमित वृद्धि हो रही है।
3. वाहन - वृद्धि से लाभ - वाहन - वृद्धि से आवागमन की सुविधा बढ़ी है। जो मार्ग पहले आठ - दस दिनों में चलने पर तय होता था, वह अब कुछ घण्टों में पार हो जाता है। माल ढोने के वाहनों की वृद्धि से अनाज या अन्य उत्पादन शीघ्रता से ढोया जाता है। अब दूर - दूर के स्थानों की यात्रा सुगम और सुविधाजनक हो गयी है। लोगों के पास छोटे - बड़े निजी वाहन होने से उन्हें दूसरों का मुँह नहीं ताकना पड़ता है। इससे जनता के समय, धन और श्रम की बचत हो रही है तथा वाहन निर्माण करने वाले उद्योगों में हजारों - लाखों लोगों को रोजगार मिल रह विकास में वाहन - वृद्धि से अनेक लाभ हैं।
4. बढ़ते वाहनों का कुप्रभाव - यान्त्रिक वाहनों के संचालन में पेट्रोल - डीजल का उपयोग होता है। इससे वाहनों द्वारा विषैली कार्बन - गैस छोड़ी जाती है, जिससे हृदय रोग, मस्तिष्क एवं चर्मरोग, श्वास - दमा रोग, तपैदिक, कैंसर आदि घातक रोग फैल रहे हैं। इनसे आम जनता की स्वास्थ्य - हानि हो रही है, उनका जीवन - काल घट रहा है। वाहनों की वृद्धि से सड़कों पर भीड़भाड़ रहती है, अनेक भयानक दुर्घटनाएँ घटित होती हैं और जिन्दगी अशान्त लगती है। पेट्रोल - डीजल की अधिक खपत से महंगाई बढ़ रही है, जिसका असर सभी पर पड़ता है। अब ऋण लेकर वाहन खरीदने की होड़ बढ़ रही है, जिससे ऋणग्रस्तता एवं मुद्रास्फीति देखने को मिल रही है। इस तरह बढ़ते वाहनों से लाभ के साथ ही हानि भी हो रही है।
5. उपसंहार - यान्त्रिक वाहनों का विकास भले ही मानव - सभ्यता की प्रगति अथवा देशों के औद्योगिक विकास का परिचायक है, तथापि इनकी असीमित वृद्धि से मानव - जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। जयपुर जैसे महानगरों में तो कई मार्ग ऐसे हैं जिन पर चलने से जीवन - हानि का भय बना रहता है। अतएव वाहनों की वृद्धि उसी अनुपात में अपेक्षित है, जिससे मानव - स्वास्थ्य पर बुरा असर न पड़े तथा यान्त्रिक प्रगति भी बाधित न हो।
18. बालिका शिक्षा
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. बालिका शिक्षा की स्थिति व कारण 3. बालिका शिक्षा की आवश्यकता 4. बालिका शिक्षा के लिए सरकार का प्रयास 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - शिक्षा हर मनुष्य के लिए अत्यन्त अनिवार्य घटक है। बिना शिक्षा के मनुष्य का विकास नहीं हो सकता है। शिक्षा की जब बात आती है तो आज भी ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे, जिससे शिक्षा में असमानता मिल जाएगी। प्राचीन काल में नारी शिक्षा अथवा बालिका शिक्षा का विशेष प्रबन्ध था, लेकिन कुछ वर्ष पूर्व तक बालिका की स्थिति अत्यन्त सोचनीय थी।
2. बालिका शिक्षा की स्थिति व कारण - जिस रफ्तार से भारत में आर्थिक प्रगति हो रही है, उस अनुपात में शिक्षा के मामले में देश अपेक्षित तरक्की नहीं कर पाया है। खासतौर पर बालिका शिक्षा की स्थिति चिन्ताजनक है। लड़कों की तुलना में लड़कियों का जल्दी विवाह, घरेलू कामकाज में हाथ बँटाना, सुरक्षा का अभाव, छोटे भाई - बहनों की देखभाल आदि कारणों से बालिकाओं की पढ़ाई में बाधा आती है। आर्थिक स्थिति अच्छी न होना.और अभिभावकों का अशिक्षित होने पर भी बालिकाओं की शिक्षा बाधित होती है।
3. बालिका शिक्षा की आवश्यकता - आज बालिका शिक्षा को राष्ट्रीय आवश्यकता समझकर जोर दिया जा रहा है। बालिकाओं पर किसी भी देश का भविष्य निर्भर करता है, क्योंकि बालिकाएँ आगे चलकर माँ की भूमिका निभाती हैं और माँ किसी भी परिवार की केन्द्रीय इकाई होती है, यदि माँ को शिक्षा प्राप्त नहीं है, तो वह एक स्वस्थ शिक्षित परिवार व उन्नत समाज के निर्माण में विफल रहेगी। अतः बालिका के लिए शिक्षा नितान्त आवश्यक है, जिससे उनका नैतिक, सामाजिक, व्यावहारिक और कौशल विकास हो सके और वह आत्मनिर्भर बन सके।
4. बालिका शिक्षा के लिए सरकार का प्रयास - आज सरकार द्वारा ऐसी अनेक योजनाएँ चलायी जा रही हैं जिससे बालिकाओं की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था हो रही है। लोगों में जागरूकता फैलाने का काम स्वयंसेवी संस्थाएँ कर रही हैं। आम चुनावों में महिलाओं को आरक्षण दिया जा रहा है। इन सब ने आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोगों का रुझान पढ़ाई की ओर कर दिया है। सरकार द्वारा बालिका कल्याण हेतु अनेक योजनाएँ चलायी जा रही हैं। गार्गी पुरस्कार वितरण, गरीब बालिकाओं को छात्रवृत्ति, साइकिल वितरण आदि सुविधाएँ दी जा रही हैं। ये सब सरकार की सुनियोजित योजनाओं का फल है कि आज समाज में बालिकाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण बदला है।
5. उपसंहार - अतः दो दशक पूर्व और आज की बालिकाओं की स्थिति की तुलना करें तो हमें क्रांतिकारी . परिवर्तन दिखाई पड़ेंगे। बालिका शिक्षा से आज देश प्रगति की ओर बढ़ रहा है। बाल विवाह, दहेज प्रथा, महिला उत्पीड़न जैसी घटनाओं में कमी और जागरूकता आयी है। लोगों को बालिका शिक्षा का महत्त्व समझना होगा तभी सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
19. मानवता के लिए चुनौती - कन्या - भ्रूण - हत्या
अथवा
कन्या - भ्रूण हत्या : मानवता पर एक कलंक
अथवा
कन्या - भ्रूण हत्या : लिंगभेद का अपराध।
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. कन्या - भ्रूण हत्या के कारण 3. कन्या - भ्रूण हत्या की विद्रूपता 4. कन्या - भ्रूण हत्या पर प्रतिबन्धार्थ उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - वर्तमान काल में अनेक कारणों से लिंगभेद का घृणित रूप सामने आ रहा है, जो कि पुरुष सत्तात्मक समाज में कन्या - भ्रूण हत्या का पर्याय बनकर नर - नारी के समान - अनुपात को बिगाड़ रहा है। हमारे देश में कन्या - भ्रूण हत्या आज मानवता पर एक कलंक एवं अपराधी कृत्य बन गया है।
2. कन्या - भ्रूण हत्या के कारण - भारतीय रूढ़िग्रस्त समाज में कन्या का जन्म अमंगलकारी माना जाता है, क्योंकि कन्या को पाल - पोषकर, शिक्षित - सयोग्य बनाकर उसका विवाह करना पड़ता है। इस निमित्त काफी धन व्यय : हो जाता है। विशेषकर विवाह में दहेज आदि के कारण मुसीबतें आ जाती हैं। समाज में कन्या को परायां धन और भार स्वरूप माना जाता है, उसके जरा - से गलत आचरण से कलंक लगने या बदनामी का भय बना रहता है। इन्हीं कारणों से पहले कुछ क्षेत्रों अथवा जातियों में कन्या के जन्मते ही उसे मारा जाता था। आज के मशीनी युग में अब भ्रूण - हत्या के द्वारा कन्या - जन्म को पहले ही रोक दिया जाता है।
3. कन्या - भ्रूण हत्या की विद्रूपता - वर्तमान में अल्ट्रासाउण्ड मशीन वस्तुतः कन्या - संहार का हथियार बन गयी है। लोग इस मशीन की सहायता से जन्म - पूर्व लिंग का पता कर लेते हैं। यदि गर्भ में कन्या हो, तो उसे इस दुनिया में आने से पहले ही मार देते हैं - गर्भ गिरा देते हैं। कन्या - भ्रूण हत्या के कारण लिंगानुपात का सन्तुलन बिगड़ गया है। कई राज्यों में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की संख्या पन्द्रह से पच्चीस प्रतिशत तक कम है। एक सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश में प्रतिदिन लगभग ढाई हजार कन्या - भ्रूणों की हत्या की जाती है। अब यह कुकृत्य मानसिक विकृति के रूप में पनप रहा है, जो कि मानवता पर एक कलंक है।
4. कन्या - भ्रूण हत्या के प्रतिबन्धार्थ उपाय - सरकार ने कन्या भ्रूण हत्या को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए अल्ट्रासाउण्ड मशीनों से लिंग - ज्ञान पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया है। इसके लिए प्रसवपूर्व निदान तकनीकी अधिनियम (पी.एन.डी.टी.), 1994' के रूप में कठोर दण्ड - विधान किया गया है और कन्या भ्रूण हत्या को जघन्य अपराध माना गया है। साथ ही नारी सशक्तीकरण, बालिका निःशुल्क शिक्षा, पैतृक उत्तराधिकार, समानता का अधिकार आदि अनेक उपाय अपनाये गये हैं। यदि भारतीय समाज में पुत्री एवं पुत्र में अन्तर नहीं माना जावे, कन्या - जन्म को परिवार के लिए मंगलकारी समझा जावे, कन्या को घर की लक्ष्मी एवं सरस्वती मानकर उसका लालन - पालन किया जावे, तो कन्या - भ्रूण .. हत्या पर स्वतः ही प्रतिबन्ध लग जायेगा।
5. उपसंहार - इस वैज्ञानिक युग में लिंग - चयन एवं लिंगानुपात विषय पर काफी चिन्तन किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ में कन्या - संरक्षण के लिए घोषणा की गई है। भारत सरकार ने भी कन्या भ्रूण हत्या को जघन्य अपराध मानते हुए इस पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया है।
20. मेरा प्रिय कवि
अथवा
मेरा प्रिय साहित्यकार : गोस्वामी तुलसीदास
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना : जीवनी 2. साहित्यिक प्रतिभा 3. समाज सुधारक व लोकनायक 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना : जीवनी - हिन्दी साहित्याकाश के प्रभावशाली सूर्य, लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास का हमारे हिन्दी साहित्य में एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस महाकवि का जन्म वि. संवत् 1554 में हुआ था। इनके पिता श्री आत्माराम व माता हुलसी थीं। जन्म लेते ही माता का देहान्त हो गया। पहले मुनिया सेविका, फिर एक महात्मा की कृपा - दृष्टि से उनकी छत्रछाया में इनका लालन - पालन हुआ। शिक्षा - दीक्षा सम्पन्न होने पर इनका विवाह रत्नावली के साथ सम्पन्न हुआ। फिर गृहस्थ जीवन त्यागकर रामभक्त बने और श्रेष्ठ साहित्य रचकर हिन्दी भाषी जनता के समक्ष लोकनायक रूप में उभरे।
2. साहित्यिक प्रतिभा - गोस्वामी तुलसीदास भावुकता के साथ ही मर्यादा के भक्त कवि थे। गोस्वामीजी मध्ययुगीन काव्य के जादुई उपवन के विशाल वृक्ष थे। समस्त संसार के किसी भी कवि ने अपनी कविता में सन्त तुलसीदास जैसी प्रखर प्रतिभा का परिचय नहीं दिया है। भाषा का माधुर्य और ओज तुलसी के काव्य में खूब मिलता है। इनकी शैली अपूर्व, अनुपम व मादकता का सागर है। 'रामचरितमानस' इनकी अनुपम कृति है जिसमें केवल राम की ही . कथा आदि से अन्त तक अखण्डतः नहीं है अपितु अनेक आदर्शों की स्थापना की गई है।
तुलसीदास एक अप्रतिम, अनुपम प्रतिभा के धनी थे। इनकी सभी रचनाओं में भावों की मधुर अभिव्यक्ति हुई है। इन्होंने प्रसंगानुसार हास्य, करुण, वीर, भयानक आदि सभी रसों का सुन्दर चित्रण किया है। इनकी रचनाएँ व्यंग्य - विनोद एवं उपदेशात्मकता से युक्त और सामाजिक आदर्शों से मण्डित हैं।
3. समाज - सुधारक व लोकनायक - गोस्वामी तुलसीदास का प्रादुर्भाव ऐसी परिस्थितियों में हुआ, जब भारत अत्यन्त विषम संकटापन्न स्थिति से गुजर रहा था। ऐसे समय गोस्वामी तुलसीदास ने विषम परिस्थितियों में कष्ट सहकर अपने साहित्य सृजन द्वारा हमारे पथभ्रष्ट समाज को उंगली पकड़कर सही रास्ता दिखाया, उसे पतन के गर्त से निकालने की चेष्टा की। तुलसी का सामाजिक समन्वय वस्तुतः कर्त्तव्य भावना, आत्मसंयम और त्याग की त्रिवेणी में अवगाहन करता दिखाई दिया।
4. उपसंहार - यों तो और भी कवि तथा साहित्यकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपनी असाधारण योग्यता तथा काव्य कुशलता से साहित्य - रचना की है, परन्तु उनका व्यक्तित्व गोस्वामी तुलसीदास की तरह पावन नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास की प्रतिभा लोकमंगल और विविध आदर्शों के समन्वय से मण्डित थी। वे सच्चे लोकनायक थे। यही कारण है कि उनकी अनूठी कलात्मक योग्यता का बखान असम्भव - सा प्रतीत होता है।
21. सर्व शिक्षा अभियान
अथवा
शिक्षा का प्रसार : उन्नति का द्वार
अथवा
साक्षरता अभियान : विद्यार्थियों का योगदान
अथवा
साक्षरता : सामूहिक दायित्व
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. शिक्षा का प्रसार 3. प्रौढ़ शिक्षा एवं साक्षरता अभियान 4. समस्याएँ एवं . सुझाव 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - किसी भी राष्ट्र की सामाजिक एवं सांस्कृतिक उन्नति वहाँ की शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर करती है। हमारा देश लम्बे समय तक पराधीन रहा, इससे हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण विकास नहीं हो सका। स्वतन्त्रता - प्राप्ति के बाद हमारी सरकार ने शिक्षा के प्रसार के लिए काफी प्रयास किये, फिर भी जन - मानस में साक्षरता का प्रतिशत अधिक नहीं बढ़ सका। अब प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के अन्तर्गत साक्षरता अभियान और सर्वशिक्षा अभियान चलाया जा रहा है।
2. शिक्षा का प्रसार - शिक्षा के प्रसार के लिए सरकार विद्यालय, महाविद्यालय एवं तकनीकी शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर अपने दायित्व का निर्वहन कर रही है। लेकिन शिक्षा का प्रसार गाँवों और निर्धनों के बीच जितना होना चाहिए, उतना नहीं हो सका। अतः सरकार ने प्रारम्भ में सामाजिक शिक्षा, ग्रामीण शिक्षा योजना और किसानों के लिए . कार्योपयोगी साक्षरता - ये तीन कार्यक्रम चलाये। ग्राम विकास विभाग के अन्तर्गत कुछ ऐसे तरीके अपनाये गये जिनसे स्त्रियों, जनजातियों एवं दलितों में साक्षरता का प्रसार हो। इस लक्ष्य को लेकर सरकार ने शिक्षा प्रसार हेतु प्रौढ़ शिक्षा और साक्षरता एवं सर्वशिक्षा अभियान का संचालन किया।
3. प्रौढ़ शिक्षा एवं साक्षरता अभियान - सरकार ने छठी पंचवर्षीय योजना प्रारम्भ होने पर प्रौढ़ शिक्षा के लिए राष्ट्रीय नीति की घोषणा की और 1978 में गांधी जयन्ती के दिन इस कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। इसमें पन्द्रह से चालीस वर्ष के दस करोड़ निरक्षर लोगों को साक्षर करने का लक्ष्य रखा गया। इसके लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित करना, पठन - पाठन की सामग्री तैयार करना, जन जागरण आदि लक्ष्य निर्धारित किये गए। केन्द्र सरकार ने शिक्षा प्रसार का दायित्व राज्य सरकारों को सौंपा और राज्य सरकारों ने शिक्षा विभाग और समाज कल्याण विभाग के माध्यम से इस शिक्षा प्रसार के कार्य को बढ़ाने का प्रयास किया। इस प्रकारः सारे राष्ट्र में प्रौढ़ शिक्षा का साक्षरता अभियान अब सर्वशिक्षा अभियान के रूप में चलाया जा रहा है।
4. समस्याएँ एवं सुझाव - शिक्षा के प्रसार की दृष्टि से प्रौढ़ शिक्षा एवं सतत साक्षरता अभियान को प्रारम्भ किये . हुए काफी समय हो गया है, परन्तु अभी तक इसके वांछित परिणाम नहीं मिल पाये हैं। इस कार्यक्रम के सामने सबसे बड़ी समस्या धनाभाव है। एक ओर जहाँ शिक्षकों को उचित पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है वहीं जन - जागरण के अभाव से श्रमिक एवं कृषक इसमें रुचि नहीं लेते हैं। इसके लिए हमें चाहिए कि शिक्षा प्रसार का आधार ग्रामीण व्यवसाय एवं ग्रामोद्योग के अनुरूप होना चाहिए। शिक्षार्थियों का इसमें विशेष योगदान होना चाहिए। इसके साथ ही सारे राष्ट्र में माध्यमिक शिक्षा को अनिवार्य कर देना चाहिए। तभी इन कार्यक्रमों के माध्यम से शिक्षा का प्रसार सम्भव है और सामाजिक उन्नति का द्वार खुल सकता है।
5. उपसंहार - सरकार द्वारा शिक्षा प्रसार के लिए किये जा रहे प्रयास वास्तव में ही सराहनीय हैं, क्योंकि जब तक जन - जन शिक्षित नहीं होगा, तब तक वह अपनी उन्नति नहीं कर पायेगा और न सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकेगा।
22. इन्टरनेट - सूचना क्रान्ति
अथवा
सूचना एवं संचार महाक्रान्ति : इन्टरनेट
अथवा
इन्टरनेट क्रान्ति : वरदान और अभिशाप
अथवा इन्टरनेट की उपयोगिता
अथवा
इन्टरनेट : सूचना एवं ज्ञान का भण्डार
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. इण्टरनेट 3. इण्टरनेट की रचना एवं कार्यविधि 4. उपयोग एवं दुरुपयोग 5. उपसंहार
1. प्रस्तावना - वर्तमान वैज्ञानिक युग में कम्प्यूटर के आविष्कार के साथ टेलीफोन, मोबाइल, टेलीविजन, टेलेक्स, ई - मेल, ई - कॉमर्स, फैक्स, इन्टरनेट आदि संचार - साधनों का विस्तार हुआ है। जन - संचार - साधनों का असीमित विस्तार होने से जहाँ सूचना प्रौद्योगिकी का प्रसार हुआ है, वहाँ संचार - सुविधाओं में आश्चर्यजनक क्रान्ति आने से सूचना आदान प्रदान अत्यन्त सहज हो गया है।
2. इण्टरनेट - संचार नेटवर्क कुछ कम्प्यूटरों का समूह होता है, जिन्हें आपस में सूचनाओं तथा संसाधनों के सुगम आदान - प्रदान के लिए जोड़ा जाता है। इसी प्रकार से पूरे विश्व में फैले हुए अलग - अलग नेटवर्कों को आपस में जोड़ दिया जाता है जिसे हम 'इण्टरनेट' के नाम से जानते हैं। अतः इण्टरनेट कई नेटवर्कों का एक नेटवर्क या अन्तरजाल है। अतः इण्टरनेट संसार में व्याप्त सूचना - भण्डारों को आपस में सम्बद्ध किए जाने तथा उन्हें किसी भी स्थान पर उपलब्ध कराये जाने का आधुनिक वैज्ञानिक संचार माध्यम है।
3. इण्टरनेट की रचना एवं कार्यविधि - हालांकि इण्टरनेट विश्वभर में फैला एक नेटवर्क है, फिर भी कई . कारणों से यह एक छोटे शहर की अनुभूति देता है। इसमें भी वही सेवाएँ होती हैं जो किसी शहर में मिलती हैं। यदि आपको अपनी 'मेल' प्रेषित या प्राप्त करनी है तो इस कार्य को करने के लिए इण्टरनेट में 'इलेक्ट्रोनिक पोस्ट - ऑफिस' होते हैं। इसमें ऑनलाइन लाइब्रेरी' मिल जाती है जिसमें हजारों - लाखों पुस्तकों को सुविधानुसार पढ़ा जा सकता है। इण्टरनेट में शामिल होने के लिए अपनी वेबसाइट स्थापित करनी पड़ती है। फिर रुचि के अनुसार सम्बन्धित वेबसाइट से सम्बन्ध स्थापित करके जानकारी प्राप्त होती है।
4. उपयोग एवं दुरुपयोग - 'इण्टरनेट' आज की संचार - सेवाओं में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इंटरनेट सार्थक समाज में शिक्षा, संगठन और भागीदारी की दिशा में एक बहुत ही सकारात्मक कदम है। घर बैठे बटन दबाते ही वांछित सूचनाओं का आदान - प्रदान बड़ी सरलता से किया जा सकता है। इसके द्वारा उन सभी विषयों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है जिन्हें व्यक्ति के द्वारा केवल सोचा जा सकता है।
अध्यापक, विद्यार्थी, डॉक्टर, व्यापारी तथा अन्य शिक्षित समुदाय अपने विचारों एवं समस्याओं के हल हेतु आदान - प्रदान तेजी से लम्बी दूरियों के बीच कर सकता है। अतः इण्टरनेट हमारे लिए आज की व्यस्तता भरी जिन्दगी के लिए अति उपयोगी है, परन्तु कुछ शरारती तत्त्व इस नेटवर्क में वायरस प्रवेश कराने का प्रयास कर महत्त्वपूर्ण सूचनाओं का दुरुपयोग करने में नहीं चूकते हैं। इण्टरनेट ने अपराध जगत् में 'साइबर अपराधी की एक नयी फौज खड़ी कर दी है। अब इस अपराध को रोकने के लिए कानून बनाया गया
5. उपसंहार - विज्ञान के इस युग में इंटरनेट यदि ज्ञान का सागर है, तो इसमें कूड़े - कचरे' की भी कमी नहीं। यदि इसका इस्तेमाल करना आ जाए, तो इस सागर से ज्ञान व प्रगति के मोती हासिल होंगे और यदि गलत इस्तेमाल किया जाए, तो कूड़े - कचरे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलेगा। सार यह है कि इण्टरनेट हमारे लिए उपयोगी है और सभी इसका सदुपयोग कर लाभान्वित होवें।
23. राजस्थान के पर्यटन - स्थल
अथवा
राजस्थान और पर्यटन
अथवा
राजस्थान में पर्यटन की सम्भावनाएँ
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. प्रमुख दर्शनीय स्थल 3. पर्यटन - सुविधाएँ 4. पर्यटकों से लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - राजस्थान अपने इतिहास, परम्परा, लोक - जीवन, संस्कृति आदि की दृष्टि से इतना समृद्ध है कि यह पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र रहा है। इसी कारण यहाँ सरकार ने पर्यटन को व्यवसाय का दर्जा देकर पर्यटन स्थलों को अधिक सुविधाएँ प्रदान की हैं। वैसे भी राजस्थान के पर्यटन स्थल देश - विदेश के पर्यटकों को आकर्षित करने में किसी भी दृष्टि से पीछे नहीं हैं। यही कारण है कि देश - विदेश के हजारों - लाखों पर्यटक प्रतिवर्ष राजस्थान में खिंचे चले आते हैं।
2. प्रमुख दर्शनीय स्थल - राजस्थान के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में जयपुर का संग्रहालय, हवामहल, सिटी पैलेस, जन्तर - मन्तर, आमेर का किला, बिड़ला मन्दिर आदि प्रमुख रूप से प्रसिद्ध हैं। वहीं उदयपुर में लेक पैलेस, पिछोला, फतेहसागर झीलें, सहेलियों की बाड़ी, कुम्भलगढ़ दुर्ग आदि दर्शनीय स्थलों की दृष्टि से अपना महत्त्व रखते हैं। माउण्ट आबू में दिलवाड़ा के जैन मन्दिर, टॉड रॉक, अचलगढ़ आदि; जैसलमेर के मोती महल, विलास महल, पटवों की हवेली, सुनहरी बालू के स्तूप; अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह, ढाई दिन का झोंपड़ा, तीर्थराज पुष्कर; जोधपुर का सूर्य मन्दिर; बीकानेर का शीशमहल; चित्तौड़ के प्रसिद्ध दुर्ग, जौहर कुण्ड, मीरा मन्दिर; भरतपुर का घना पक्षी विहार एवं सवाईमाधोपुर का अभयारण्य आदि प्रसिद्ध प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। इन सभी स्थानों का पर्यटन करने के लिए देशी - विदेशी पर्यटकों में काफी उत्साह रहता है।
3. पर्यटन - सुविधाएँ - राजस्थान सरकार द्वारा पर्यटन को व्यवसाय का दर्जा दिया गया है। यहाँ पर्यटकों के लिए प्रायः सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हैं। जगह - जगह पर्यटकों की सुविधा के लिए पर्यटक विश्रामगृह और टूरिस्ट कॉम्पलेक्स आदि बने हुए हैं। देशी - विदेशी पर्यटकों के लिए एक विशेष रेल 'पैलेस ऑन हील' भी चलायी जाती है। यहाँ पर्यटन व्यवसाय को बढ़ावा देने हेतु निगम में एकल सुविधा केन्द्र स्थापित है। राज्य में हैरीटेज होटलों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। पर्यटन की इन सुविधाओं के कारण ही यहाँ पर्यटकों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
4. पर्यटकों से लाभ - पर्यटन एक प्रकार से सुगठित व्यवसाय बन चुका है। पर्यटकों के आने से विदेशी मुद्रा की जहाँ प्राप्ति होती है, वहीं देशी कलात्मक वस्तुओं के व्यवसाय में भी वृद्धि होती है। इसके साथ ही पर्यटन के माध्यम से विभिन्न देशवासियों से विचारों के आदान - प्रदान के साथ ही सांस्कृतिक और व्यावसायिक सम्बन्धों में भी वृद्धि होती है।
5. उपसंहार - राजस्थान पर्यटन की दृष्टि से भारत का अग्रणी राज्य है। यहाँ पर्यटकों की सुख - सुविधा और सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। यही कारण है कि यहाँ विदेशी सैलानी सर्वत्र घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं।
24. मेरे प्रिय पर्वोत्सव
अथवा
राजस्थान के प्रसिद्ध मेंले
अथवा
राजस्थान के प्रमुख पर्वोत्सव
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. प्रमुख पर्व - त्योहार 3. प्रमुख उत्सव - मेले 4. प्रमुख पर्वोत्सवों से लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - भारत के विभिन्न प्रदेशों में राजस्थान का विशिष्ट स्थान है। राजस्थान जन्मभूमि की खातिर प्राणोत्सर्ग करने वाले वीरों के लिये प्रसिद्ध रहा है। यहाँ के ग्रामीण जीवन में भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम स्वरूप का साक्षात्कार किया जा सकता है। ये प्राचीनतम स्वरूप यहाँ के पौं, त्योहारों, मेलों एवं जातीय समारोहों में देखे जा सकते हैं।
2. प्रमुख पर्व - त्योहार - 'गणगौर' राजस्थान का प्रमुख त्योहार है। यह त्योहार चैत्र कृष्णपक्ष के पहले दिन से चैत्र ता है। कँवारी कन्याएँ अच्छा वर पाने के लिए तथा विवाहिता स्त्रियाँ अखण्ड सौभाग्य के लिए गणगौर की पूजा करती हैं। इसमें ईसर, गणगौर अर्थात् शिव - पार्वती की पूजा की जाती है। पूजा के अन्तिम दो दिन अर्थात् चैत्र सुदी तीज तथा चौथ को जगह - जगह गणगौर की सवारी पूरे लवाजमे के साथ निकाली जाती है। इस त्योहार पर जनजीवन में उल्लासमय वातावरण रहता है। इसी प्रकार श्रावणी तीज़ का भी त्योहार बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है। राजस्थान में श्रावणी तीज से त्योहारों और पर्यों का सिलसिला शुरू हो जाता है जो कि साल भर चलता रहता है।
3. प्रमुख उत्सव - मेले - राजस्थान में पर्यों एवं त्योहारों के अतिरिक्त विशेष धार्मिक पर्यों पर मेले भी भरते हैं। प्रायः ये मेले तीर्थस्थानों पर भरते हैं। इन मेलों में पष्कर. तिलवाडा. परबतसर: अलवर. भरतपर, धौलप के मेले प्रसिद्ध हैं। पुष्कर का मेला कार्तिक में, चारभुजा (मेवाड़) का मेला भादों में, केसरियानाथ (धुलैव - मेवाड़) का मेला चैत्र में, रामदेवरा (पोकरण - जोधपुर) का मेला भादों में, श्री महावीरजी का मेला चैत्र में, राणी सती (झुंझुनूं) का मेला भादों में, बेणेश्वर (डूंगरपुर) का मेला माघ में, श्यामजी (खाटूश्याम) का मेला फाल्गुन में, बाणगंगा (बैराठ - जयपुर) का मेला बैसाख में, गोगामेड़ी (बीकानेर) का मेला भादों में, केलवाड़ा (कोटा) का मेला बैसाख में भरता है।
4. प्रमुख पर्वोत्सवों से लाभ - राजस्थान में मनाये जाने वाले विभिन्न पर्वो और मेलों से हमें अनेक लाभ हैं। इनसे लोगों में धार्मिक आस्थाओं के प्रति विश्वास बढ़ता है। समाज में परस्पर मेल - मिलाप. भाई आदान - प्रदान की दृष्टि से यहाँ के मेलों एवं त्योहारों का अत्यधिक महत्व है। इनसे अपनी गौरवपूर्ण सांस्कृतिक परम्परा का परिचय तो मिलता ही है, साथ ही लोकमंगल की भावना का भी प्रसार होता है। ऐसे पौं पर कुटीर उद्योग की बनी हुई कलात्मक वस्तुओं और पालतू पशुओं का भी व्यापार होता है।
5. उपसंहार - पौं, त्योहारों एवं मेलों की दृष्टि से राजस्थान का विशिष्ट स्थान है। यहाँ प्रमुख राष्ट्रीय त्योहारों एवं पर्यों के अलावा गणगौर, तीज, शीतलाष्टमी आदि कुछ ऐसे पर्व हैं जो विशेष उल्लास से मनाये जाते हैं। इन पर्वो के अवसर पर यहाँ के जातीय जीवन की झाँकी देखने को मिलती है।
25. रंग - बिरंगा राजस्थान
अथवा
रंगीला राजस्थान
अथवा
नखरालो राजस्थान
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. राजस्थान का रंगीला रूप 3. राजस्थान की सुरंगी संस्कृति 4. राजस्थान की निराली छटा 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - राजस्थान में ऐसे अनेक ऐतिहासिक स्थान हैं जो राजपूत रणबांकुरों के मरण - महोत्सव के साक्षी रहे हैं। वस्तुतः राजस्थान नाम से इस भूभाग की रंग - बिरंगी परम्पराओं, रीति - रिवाजों एवं आंचलिक विशेषताओं का स्मरण हो जाता है। इसी कारण इसे जीवन्त संस्कृति वाला और रंगीला प्रदेश कहा जाता है।
2. राजस्थान का रंगीला रूप - प्राकृतिक दृष्टि से राजस्थान अरावली पर्वतमाला से दो भागों में विभक्त है। यहाँ का पश्चिमोत्तर भाग रेतीली धरती के कारण सुनहरा दिखाई देता है, तो दक्षिण - पूर्वी भाग सुन्दर हरी - भरी भौगोलिक छटा से युक्त रहता है। यहाँ पर अनेक गढ़, किले, ऐतिहासिक भवन या महल, मन्दिर एवं तीर्थ - स्थल हैं। यहाँ पद्मिनी, पन्ना, तारा, महामाया आदि वीर - क्षत्राणियों ने तथा भक्तिमती मीराँ, सहजो बाई आदि ने नारीत्व का गौरव बढ़ाया। शौर्य, पराक्रम तथा श्रेष्ठ सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण राजस्थान का प्रत्येक भूभाग सुन्दर रंगीला दिखाई देता है।
3. राजस्थान की सुरंगी संस्कृति - राजस्थान की संस्कृति अपना विशिष्ट स्थान रखती है। यहाँ पर अतिथि सत्कार दिल खोलकर किया जाता है। धार्मिक व्रत - त्योहारों का यहाँ पर आधिक्य है। रक्षाबन्धन, होली, तीज, गणगौर, शीतलाष्टमी आदि के अलावा यहाँ पर कई क्षेत्रीय पर्व मनाये जाते हैं। यहाँ पर पाबूजी, गोगाजी, तेजाजी, रामदेवजी, जम्भेश्वरजी आदि लोकदेवताओं का जनजीवन पर गहरा प्रभाव दिखाई देता है, तो करणीमाता, जीणमाता, चौथ माता के थान भी जनता की श्रद्धा से पूज्य रहे हैं।
तीर्थराज पुष्कर, नाथद्वारा, श्रीमहावीरजी, मेंहदीपुर बालाजी, अजमेर दरगाह आदि तीर्थस्थल जहाँ इसकी धार्मिक आस्था के परिचायक हैं, वहीं नानारंगी हुड़दंगों, गैरों, गींदड़ों, ख्यालों, सांग - तमाशों, बारूद - भाटों के खेल के बड़े अद्भुत और कड़क नजारे देखने को मिलते हैं। इससे यहाँ की संस्कृति रंगीली लगती है।
4. राजस्थान की निराली छटा - राजस्थान निर्जल डूंगरों, ढाणियों और रेतीले धोरों का प्रदेश है, फिर भी यहाँ की धरती खनिज सम्पदा से समृद्ध है। संगमरमर तथा अन्य इमारती पत्थरों की यहाँ पर अनेक खाने हैं। इसी प्रकार ताँबा, सीसा, अभ्रक, जस्ता आदि कीमती धातुओं के साथ चूना - सीमेण्ट का पत्थर बहुतायत में मिलता है।
कलापूर्ण भित्ति चित्रों, सुरम्य बावड़ियों एवं छतरियों के साथ यहाँ पर मीनाकारी, नक्काशी की वस्तुओं और साक्षात् बोलती पत्थर की मूर्तियों के दर्शन हर कहीं हो जाते हैं। रंगाई - छपाई एवं कशीदाकारी आदि अनेक कलाओं के साथ यहाँ पर संगीत, नृत्य, लोकगीत आदि की अनोखी छटा दिखाई देती है। वस्तुतः ये सभी विशेषताएँ राजस्थान के रंगीलेपन की प्रतिमान हैं।
5. उपसंहार - राजस्थान की धरा शौर्य - गाथाओं, धार्मिक पर्वो, लोक - आस्थाओं तथा सांस्कृतिक - ऐतिहासिक परम्पराओं के कारण समृद्ध दिखाई देती है, वहीं यहाँ पर शिल्प - कला, स्थापत्य एवं चित्रकला के साथ अन्य विविध विशेषताओं से जन - जीवन की जीवन्तता एवं रंगीलापन दिखाई देता है। वेश - भूषा एवं पहनावे में, आचार - विचार, आस्था - विश्वास और आंचलिकता की छाप आदि में भी राजस्थान रंगीला दिखाई देता है।
26. घटती सामाजिकता : बढ़ते संचार साधन
अथवा
बढ़ते संचार साधन : सिमटता संसार
अथवा
दैनिक जीवन एवं संचार साधन
अथवा
संचार - क्रान्ति और समाज
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. भारत में संचार - क्रान्ति 3. संचार - क्रान्ति का प्रसार 4. संचार - क्रान्ति से लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - वर्तमान काल नवीनतम वैज्ञानिक आविष्कारों का युग है। पहले दूर - संचार के सीमित साधन थे। परन्तु अब कम्प्यूटर के आविष्कार के साथ टेलीफोन, मोबाइल, टेलीविजन आदि अनेक इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के आविष्कारों से इस क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति हुई है। वस्तुतः कम्प्यूटर क्रान्ति के कारण दूर - संचार के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है तथा इससे समाज का हर वर्ग लाभान्वित हो रहा है।
2. भारत में संचार - क्रांति - हमारे देश में सन् 1984 में केन्द्र सरकार द्वारा कम्प्यूटर नीति की घोषणा होते ही संचार क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। दिल्ली में सूचना केन्द्र स्थापित कर सभी राज्यों की राजधानियों से उसका कम्प्यूटर से सम्पर्क स्थापित किया गया। संचार सुविधा की दृष्टि से जगह - जगह माइक्रोवेव टावर एवं दूरदर्शन टावर स्थापित किये गये। निजी कम्पनियों ने भी अपने टावर स्थापित कर सारे देश में संचार के नेटवर्क को गति प्रदान की। इसके फलस्वरूप दूरदर्शन के चैनलों तथा मोबाइल सेवाओं का विस्तार हुआ। साथ ही टेलेक्स, ई - मेल, ई - कामर्स, फैक्स, इण्टरनेट आदि संचार - साधनों का असीमित विस्तार होने से सूचना प्रौद्योगिकी में आश्चर्यजनक क्रान्ति आयी है।
3. संचार - क्रांति का प्रसार - वर्तमान काल में संचार - सुविधाओं में जो क्रान्ति आयी है, उससे रेल एवं वायुयान आदि के टिकटों का आरक्षण, वेबसाइट पर विभिन्न सूचनाओं एवं परीक्षा परिणामों का प्रसारण, रोजगार समाचार एवं व्यापार - जगत् के उतार - चढ़ाव आदि का तत्क्षण पता चल जाता है। साइबर कैफों का विस्तार होने से वेबसाइट, इण्टरनेट आदि पर तुरन्त जानकारी मिल जाती है। फैक्स एवं टेलीप्रिन्टर से संचार - सुविधाओं का तीव्र गति से प्रसार हुआ है। अब संचार - क्रांति के प्रसार से विभिन्न देशों की दूरस्थता सिमट - सी गई है।
4. संचार - क्रांति से लाभ - संचार - क्रांति से समाज एवं देश को अनेक लाभ हुए हैं। शिक्षा - क्षेत्र में साइबर शिक्षा, दूरदर्शन चैनल से शिक्षा एवं ज्ञान - गंगा चैनल द्वारा ऑनलाइन एजुकेशन का प्रसार हुआ है। रोजगार के नये अवसर मिल रहे हैं। सर्वाधिक लाभ समाचार - पत्रों को हुआ है, जिससे जनता भी लाभान्वित हो रही है। संचार - क्रान्ति से जीवन में अत्यधिक गतिशीलता आ गई है, परन्तु इससे लोगों में सामाजिकता की भावना कम होने लगी है। क्योंकि अब लोग एक - दूसरे के घर जाकर मेल - मिलाप करने की बजाय मोबाइल - इन्टरनेट से सन्देश भेज देते हैं। इससे समाज में व्यक्तिगत सम्पर्क रखने की भावना भी घटती जा रही है।
5. उपसंहार - वर्तमान में सूचना प्रौद्योगिकी से संचार - क्षेत्र में जो क्रान्ति आयी है, उससे व्यक्ति के दैनिक जीवन तथा सामाजिक जीवन को अनेक लाभ मिल रहे हैं। इससे रोजगार, ज्ञान - विज्ञान एवं व्यवसाय आदि में अनेक सुविधाएँ बढ़ी हैं। निस्सन्देह संचार - क्रांति की आश्चर्यजनक प्रगति सभी के लिए लाभकारी रहेगी।
27. समाज - निर्माण में नारी की भूमिका
अथवा
समाज में नारी के बढ़ते कदम
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. समाज में नारी के विविध क्षेत्र 3. समाज - निर्माण में नारी की भूमिका 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - सृष्टि के आदिकाल से ही नर - नारी का अटूट सम्बन्ध रहा है। नारी के द्वारा ही सन्तानोत्पत्ति का क्रम चलता है, वही पुरुष की प्रेरणा है। भारतीय संस्कृति की आदर्श परम्परा में नारी को सदैव सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ है। पूजा - यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों एवं सामाजिक मांगलिक अवसरों पर नारी की उपस्थिति अनिवार्य घोषित की गई है। वस्तुतः नारी माँ, बहिन, पत्नी, पुत्री आदि विविध रूपों में प्रेम, दया, ममता, प्रेम, त्याग आदि की प्रतिमूर्ति है। नारी का जीवन त्याग एवं तपस्या से वन्दनीय है। किसी देश तथा समाज की उन्नति अथवा अवनति वहाँ के नारी - समाज पर अवलम्बित है
2. समाज में नारी के विविध क्षेत्र - प्राचीनकाल में नारी का सामाजिक जीवन में सीमित कार्य - क्षेत्र था, परन्तु मानव - सभ्यता के विकास के साथ ही नारी की स्थिति अधिक व्यापक बनती गई। आधुनिक युग में नारी एक कुशल प्रशासनिक अधिकारी, मंत्री, शिक्षिका, डॉक्टर, व्यवसायी, वकील, नर्स, पुलिसकर्मी आदि रूपों में अपने कार्य - क्षेत्र का विस्तार कर रही है। वह अब उद्योग - व्यवसाय से लेकर हवाई जहाज का संचालन करने तक अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। आज नारी एक ओर अपनी सन्तान को सुसंस्कारित करने में विशेष ध्यान रखती है, तो दूसरी ओर अपने परिवार के आर्थिक विकास तथा भौतिक समुन्नति में पति का पूरा साथ देती है। इस तरह आधुनिक काल में समाज - निर्माण की दृष्टि से नारी का योगदान विशिष्ट मान्य है।
3. समाज - निर्माण में नारी की भूमिका - नारी को पुरुष का आधा अंग माना जाता है, परन्तु समाज में उसे पुरुष के समान सभी अधिकार प्राप्त नहीं हैं। हमारे देश में अब नारी - समाज के उन्नयन का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। अब समानता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और साक्षरता या सर्वशिक्षा अभियान आदि के प्रचलन से ग्रामीण नारी - समाज में भी जागृति आ रही है। इस तरह अब नारी अपने व्यवहार तथा परम्परागत संस्कारों से समाज को नयी दिशा देने में सक्षम है।
वह अपने अधिकारों का स्वतंत्रता से उपयोग कर सकती है तथा पुरुष वर्ग की प्रेरणा बनकर मंगलमय सामाजिक जीवन का निर्माण कर सकती है। समाज का रहन - सहन, आचरण, संस्कार, धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक आदर्श आदि सभी का प्रसार कर नारी सामाजिक जीवन के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
4. उपसंहार - नारी सुख - सम्पन्न घर की लक्ष्मी, पति की प्रेरणा - शक्ति दुर्गा और सन्तान को सुशिक्षा देने वाली सरस्वती स्वरूपा है। इसी विशेषता को लक्ष्य कर छायावादी कवि 'प्रसाद' ने कहा है, "नारी तुम केवल श्रद्धा हो" इत्यादि। अपने परिवार के साथ समाज के निर्माण और विकास में नारी का विशिष्ट योगदान माना जाता है।
28. अतिवृष्टि का वह दिन
अथवा
जब गाँव में भीषण वर्षा हुई
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. गाँव का परिवेश 3. मूसलाधार वर्षा 4. अतिवृष्टि से विनाश - लीला 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - हमारा राजस्थान शुष्क मरुस्थलीय प्रदेश है। यहाँ पर वर्षा ऋतु का विशेष महत्त्व है। समय पर वर्षा होने से यहाँ की प्रकृति उल्लसित एवं हरी - भरी हो जाती है। वैसे राजस्थान में वर्षा कम ही होती है, परन्तु कभी कभी अतिवृष्टि भी देखने को मिलती है जिससे लोगों को हानि झेलनी पड़ती है।
2. गाँव का परिवेश - हमारा गाँव पूर्वी राजस्थान में बनास नदी के समीप बसा हुआ है। वर्षा काल में कभी कभी नदी में बाढ़ आ जाती है, तो निचले इलाके के लोग सुरक्षित स्थानों पर चले जाते हैं। कुछ नुकसान भी होता है, परन्तु बाढ़ का पानी उतरते ही गाँव में अमन - चैन रहता है। लोग उपजाऊ भूमि का पूरा लाभ उठाते हैं। इसलिए नदी का किनारा अच्छा लगता है।
3. मूसलाधार वर्षा - दो साल पहले की बात है, वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो गई थी। दिन भर काम - धन्धे से थके - हारे लोग रात्रि में अपने घरों में सुखद नींद ले रहे थे। उसी समय बादलों की गड़गड़ाहट होने लगी और तेजी से वर्षा होने लगी। सुबह तक यही स्थिति रही। इससे बनास नदी का कुछ जल - स्तर जरूर बढ़ा, परन्तु तब तक कोई हानि नहीं हुई। लेकिन दिन का पहला पहर बीतते ही मूसलाधार वर्षा होने लगी और एक घण्टे की अतिवृष्टि से चारों ओर जल प्रवाह बढ़ने लगा। बादल निरन्तर बरसते रहे, तो लोगों को कुछ आशंका भी होने लगी और वे इन्द्रदेव की प्रार्थना करने लगे।
4. अतिवष्टि से विनाश - लीला - निरन्तर मसलाधार वर्षा से बनास नदी का जल - प्रवाह उफान लेता हआ गाँव के निचले भागों में विनाश - लीला करने लगा। कुछ मकान और कच्चे झोंपड़े उसमें बह गये। लोग ऊँचे स्थानों पर और मकानों की छतों में आश्रय लेने लगे। कुछ लोग पंचायत भवन और स्कूल भवन में चले गये। गाँव में हाहाकार मचने लगा। कुछ मवेशी भी अतिवृष्टि में बह गये। सारे दिन रुक - रुक कर तेज वर्षा होती रही। शाम को जब वर्षा का वेग रुका और नदी का पानी उतरने लगा तो पता चला कि गाँव के तीन वृद्धजन अतिवृष्टि के शिकार हो गये। कई घरों का अनाज भीग गया और काफी नुकसान हुआ। इससे गाँव में मातम छा गया और लोग ईश्वर से अमन - चैन की प्रार्थना करने लगे।
5. उपसंहार - गाँव में अतिवृष्टि से हुए नुकसान को देखकर सभी को दुःख हो रहा था। पंचायत समिति के सदस्य राहत - कार्य में लग गये। भीषण वर्षा थम जाने से लोग अपने नुकसान को लेकर चिन्ता करने लगे। उस दिन की अतिवृष्टि का भयानक दृश्य जब याद आता है तो सारा शरीर काँपने लगता है। वर्षा तो हो, परन्तु विनाशकारी अतिवृष्टि न हो, यही भगवान से प्रार्थना करते हैं।
29. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सैनिक शिक्षा
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सैनिक शिक्षा की आवश्यकता 3. सैनिक शिक्षा का प्रसार 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - वर्णाश्रम व्यवस्था भारतीय संस्कृति की एक उदात्त परम्परा थी। उसमें सामाजिक व्यवस्था जाति, वर्ण एवं कर्म के अनुसार थी। सैनिक शिक्षा केवल राजकुमारों और क्षत्रियों तक ही सीमित थी। यही समझा जाता था कि देश की सुरक्षा का भार केवल उन्हीं के कन्धों पर है। सैनिक प्रशिक्षण के लिए सभी छोटे - छोटे राज्यों में सैनिक य और आचार्य सुनिश्चित थे, प्रशिक्षण का समय नियत रहता था और उसके बाद एक युवा सक्षम सैनिक योद्धा बन जाता था।
2. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सैनिक शिक्षा की आवश्यकता - सैनिक शिक्षा कई दृष्टियों से उपयोगी और जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण होती है। इससे लोगों में अनुशासन आता है। इससे सेवा, त्याग, बलिदान और निष्ठा जैसे महान गुणों को बढ़ावा मिलता है और साथ ही आवश्यकता पड़ने पर देश को विदेशी हमलों से बचाने के लिए प्रशिक्षित सैनिक उपलब्ध हो जाते हैं। वर्तमान आणविक युग में व्यक्ति एवं राष्ट्र दोनों के लिए सैनिक शिक्षा अत्यावश्यक है।
(क) राष्ट्र - स्वतन्त्र प्रभुसत्ता - सम्पन्न राष्ट्र की दृष्टि से भारतवर्ष में सैनिक शिक्षा की अनिवार्यता आवश्यक है। यदि हम चाहते हैं कि कॉलेज और विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त नगरों और ग्रामों में भी सैनिक प्रशिक्षण केन्द्र खोल दिए जायें, ताकि आवश्यकता होने पर प्रशिक्षित युवा सेना की पूरी सहायता कर सकें।
(ख) व्यक्ति - व्यक्ति की दृष्टि से भी अनिवार्य सैनिक शिक्षा की योजना एक महत्त्वपूर्ण योजना है। इससे नागरिकों का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और वे देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व का भली - भाँति निर्वाह कर सकेंगे।
3. सैनिक शिक्षा का प्रसार - स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने इस दिशा में विशेष ध्यान दिया है। स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में छात्रों को सैनिक प्रशिक्षण दिया जाता है। उच्च माध्यमिक कक्षाओं के लिए ए.सी.सी. तथा स्नातक स्तर कक्षाओं के लिए सीनियर एन.सी.सी. के कोर्स सुनिश्चित कर दिये गये हैं। परन्तु यह विषय अनिवार्य होना चाहिए, ताकि इससे सभी छात्र लाभान्वित हो सकें। इसलिए देश के प्रत्येक नगर और प्रत्येक ग्राम में सैनिक प्रशिक्षण केन्द्र होने चाहिए। इससे युवाओं में राष्ट्र की रक्षा के लिए त्याग और बलिदान की भावना प्रखर बन जायेगी।
4. उपसंहार - राष्ट्र की आन्तरिक और बाह्य आक्रमणों से रक्षा के साथ ही नागरिकों की व्यक्तिगत शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक उन्नति के लिए सैनिक शिक्षा आवश्यक है। यह शिक्षा साहसी, कर्तव्यनिष्ठ, पराक्रमी, उद्यमी, परिश्रमी तथा स्वावलम्बी बनने में भी उपयोगी रहती है। सीमाओं की सुरक्षा के साथ ही आतंकवादियों के दमन हेतु अनिवार्य सैनिक शिक्षा का प्रसार अपेक्षित है।
30. आतंकवाद : भारत के लिए चुनौती
अथवा
राष्ट्र की आत्मा को चुनौती
अथवा
आतंकवाद : भारत की विकट समस्या
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. भारत में आतंकवाद 3. आतंकवादी घटनाएँ 4. आतंकवाद के दुष्परिणाम 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - जनता में भय, सन्त्रास या अनिष्ट की आशंका फैलाना आतंकवाद कहलाता है। इसमें हिंसा, असहनशीलता, उग्रता एवं क्रूरता की मात्रा अधिक रहने से इसे उग्रवाद भी कहा जाता है। भारत में आतंकवाद एवं सा दश पाकिस्तान द्वारा पोषित तथा कुछ कट्टरपंथियों द्वारा छद्म रूप से संचालित है। वर्तमान में भारत में आतंकवाद एक विकट समस्या बन गया है।
2. भारत में आतंकवाद - भारत - पाक विभाजन के समय से ही पाकिस्तानी नेताओं की तुच्छ स्वार्थपरता से जम्मू - कश्मीर में उग्रवाद चलने लगा। सन् 1989 में जम्मू - कश्मीर में अलगाववादी आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। उसके साथ ही कुछ अन्य आतंकवादी संगठन भी उभरे जिन्होंने आतंकवाद को बढ़ावा दिया। पाकिस्तान द्वारा इन आतंकवादियों को प्रशिक्षण, आर्थिक सहायता, आधुनिक हथियार और विस्फोटक सामग्री उपलब्ध करवायी जाती है। इससे हमारे देश में आतंकवाद एक भयानक समस्या बन गया है।
3. आतंकवादी घटनाएँ - पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी समय - समय पर भारत के विभिन्न भागों में अमानवीय आतंकी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। दिल्ली के लाल किले पर, कश्मीर विधानसभा भवन पर, संसद् भवन पर, गांधीनगर अक्षरधाम पर, हैदराबाद एवं मुम्बई में, पुलवामा में आतंकवादियों ने हमले किये। इसी प्रकार विभिन्न स्थानों पर विस्फोटकों से जान - माल की जो हानि पहुँचाई और भयानक क्रूरता का परिचय दिया, वह राष्ट्र की आत्मा के लिए एक चुनौती है।
4. आतंकवाद के दुष्परिणाम - वर्तमान में आतंकवाद छद्म - युद्ध का रूप धारण करने लगा है। आतंकवादी अनेक स्थानों पर हमले कर रहे हैं तथा कई निर्दोष लोग इनके शिकार हो रहे हैं, सैनिक शहीद हो रहे हैं तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया जा रहा है। कितनी माँगें उजड़ गईं, घर का दीपक बुझ गया, पिता का सहारा छिन गया। आतंकी हमलों से जन - धन की हानि के साथ - साथ सामाजिक सौहार्द्र को भी हानि पहुँचती है। आतंकवादियों के आत्मघाती हमले एवं दुस्साहसी कारनामे स्वतन्त्र भारत की प्रभुसत्ता के लिए विकट चुनौती बन गये हैं। इस समस्या का समाधान कठोर कानून - व्यवस्था एवं कमाण्डो ऑपरेशन से ही हो सकता है।
5. उपसंहार - आतंकवाद की समाप्ति के लिए भारत सरकार गम्भीरता से प्रयास कर रही है। सेनाएँ एवं विशेष पुलिस बल आतंकवादियों की चुनौतियों का उचित जवाब दे रहे हैं। मानवता के हित में इसका नामोनिशान मिटाना परमावश्यक कर्तव्य है।
31. आधुनिक सूचना - प्रौद्योगिकी
अथवा
सूचना - क्रान्ति के युग में भारत
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. भारत में सूचना - प्रौद्योगिकी 3. सूचना - प्रौद्योगिकी का विकास 4. सूचना प्रौद्योगिकी से लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - आधुनिक युग में कम्प्यूटर क्रान्ति के कारण सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रगति हुई है। अब पूरे विश्व में आर्थिक दृष्टि से विकसित समाज ऐसे सूचना आदान - प्रदान करने वाले समाज का सदस्य बनता जा रहा है, जिससे वह कम्प्यूटर के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता है। इस तरह वर्तमान में सूचना प्रौद्योगिकी का हर क्षेत्र में उपयोग हो रहा है।
2. भारत में सूचना - प्रौद्योगिकी - हमारे देश में सन् 1984 में कम्प्यूटर नीति की घोषणा से कम्प्यूटर क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। सर्वप्रथम दिल्ली में राष्ट्रीय सूचना केन्द्र स्थापित किया गया। इसी प्रकार रेल - डाक विभागों, राष्ट्रीयकृत बैंकों, विविध शिक्षण - संस्थाओं एवं तकनीकी संस्थानों में दूर - संचार उपग्रह सेवा के द्वारा सूचना - तन्त्र का विकास किया गया। इसके साथ ही शिक्षण - संस्थाओं में कम्प्यूटर - शिक्षा को ज्ञान - गंगा चैनल द्वारा अनिवार्य रूप से प्रारम्भ किया गया। इन सब प्रयासों से आज भारत में सूचना प्रौद्योगिकी का तीव्रगति से प्रसार हो रहा है।
3. सूचना - प्रौद्योगिकी का विकास - सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पिछले तीन दशक में जो क्रान्ति आयी, उसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगा है। अब सूचना प्रौद्योगिकी दैनिक कार्य - प्रणाली से लेकर चिकित्सा - स्वास्थ्य, कृषि, बैंकिंग, बीमा के साथ - साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी व्यापक परिवर्तन का आधार बनती जा रही है। अब रोजगार समाचार, परीक्षा परिणाम, रेल - टिकट आरक्षण आदि के साथ किसी डिपार्टमेण्टल स्टोर से खरीददारी करना आसान हो गया है। जिनके पास अपना मोबाइल, टेलीफोन, कम्प्यूटर या प्रिन्टर आदि नहीं हैं, वे इण्टरनेट साइबर कैफे पर जाकर बहुत ही कम खर्च पर सारी जानकारी हासिल कर सकते हैं।
4. सूचना - प्रौद्योगिकी से लाभ - सूचना प्रौद्योगिकी के आविष्कार से अनेक लाभ हैं। सबसे अधिक लाभ शिक्षा क्षेत्र में हुआ है। शिक्षा - क्षेत्र में इस पद्धति को साइबर शिक्षा या ऑन लाइन एजूकेशन कहा जाता है। इसमें हर तरह से शिक्षा ग्रहण की जा सकती है।
सूचना आदान - प्रदान के क्षेत्र में सर्वाधिक लाभ समाचार - पत्रों को हुआ है। नवीन वैज्ञानिक अनुसन्धानों, नवीनतम यन्त्रों एवं बड़े औद्योगिक परिसरों के संचालन एवं विकास में सूचना - प्रौद्योगिकी का विशेष महत्त्व दिखाई दे रहा है। इससे विशालतम दूर - संचार नेटवर्क स्थापित करने से हमारे देश को अत्यधिक लाभ हो रहा है।
5. उपसंहार - संक्षेप में कहा जा सकता है कि कम्प्यूटर के आविष्कार से सूचना - प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रान्ति आयी है। भारत सहित पूरे विश्व में सूचना - प्रौद्योगिकी को इस तरह अपनाया जा रहा है, जिससे सम्पूर्ण विश्व छोटा पड़ता जा रहा है। इस तरह दूर - संचार के क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति हो रही है।
32. कम्प्यूटर : अभिशाप या वरदान
अथवा
कम्प्यूटर के चमत्कार
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना - परिचय 2. कम्प्यूटर का आविष्कार 3. कम्प्यूटर की आवश्यकता एवं महत्त्व 4. कम्प्यूटर के चमत्कारी उपयोग 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - वर्तमान काल में विज्ञान ने आश्चर्यजनक प्रगति की है। एक ओर विज्ञान ने मनोरंजन के साधनों का विस्तार किया है तो वहाँ दूसरी ओर ऐसे यन्त्रों एवं मशीनों का आविष्कार किया है, जिससे मानव की बौद्धिक - शक्ति असीमित बढ़ गई है। इस तरह के आविष्कार रूप में कम्प्यूटर' का विशेष महत्त्व है। आज के युग में इसका प्रत्येक क्षेत्र में उपयोग होने लगा है।
2. कम्प्यूटर का आविष्कार - सन् 1926 में सर्वप्रथम दूरदर्शन (टेलीविजन) का प्रयोग किये जाने पर वैज्ञानिकों ने इसके परिष्कृत रूप पर अनुसंधान प्रारम्भ किया। लगभग डेढ़ दशक के अन्तराल में अमेरिका तथा इंग्लैंड के वैज्ञानिकों ने मानव के नये मस्तिष्क के रूप में कम्प्यूटर का आविष्कार कर वैज्ञानिक प्रगति का नया अध्याय प्रारम्भ किया। भारत में कम्प्यूटर सन् 1965 में आया था।
कम्प्यूटर एक प्रकार से इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस है जो सूचनाओं का संग्रह करता है, उनका अन्वेषण और गणना करता है। यह अत्यधिक तीव्र गति की प्रोसेसिंग मशीन है। इसकी गति का परिचालन विद्युत - इलेक्ट्रोन द्वारा होता है। इसकी गति की माप माइक्रोसेकण्ड में की जाती है। गणित - सांख्यिकी के क्षेत्र में कम्प्यूटर का आविष्कार आश्चर्यजनक है और यह हजारों मानव - मस्तिष्कों का कार्य एक साथ कुछ ही सेकण्डों में कर लेता है।
3. कम्प्यूटर की आवश्यकता एवं महत्त्व - कम्प्यूटर का आविष्कार सूचना प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान का आधुनिकतम चमत्कार है। इसके द्वारा खगोल के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों एवं सौरमण्डल की गतिविधियों पर नजर रखी जा रही है। कम्प्यूटर मानव - बुद्धि का विशाल कोषागार है और इसे सूचनाओं का स्टोरेज भी कह सकते हैं। मानव असाध्य सांख्यिकीय प्रश्नों का हल पूर्णतया शुद्ध रूप में नहीं कर पाता है, परन्तु कम्प्यूटर के द्वारा प्रत्येक प्रश्न का नितान्त शुद्ध उत्तर कुछ सेकण्डों में ही कर दिया जाता है। इससे दूर - संचार क्षेत्र में, औद्योगिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों के संचालन में जो क्रांति आयी है, वह इसके महत्त्व की परिचायक है।
4. कम्प्यूटर के चमत्कारी उपयोग - कम्प्यूटर दूर - संचार, इन्टरनेट आदि में विशेष उपयोगी है। वायुयानों का संचालन, कृत्रिम उपग्रहों की गति पर नियंत्रण तथा राकेटों के प्रक्षेपण में, परमाणु आयुधों के निर्माण व विस्फोट में, दूर तक मार करने वाले प्रक्षेपास्त्रों के प्रक्षेपण में, विविध जटिल यांत्रिक इकाइयों के पर्यवेक्षण और संचालन में, बैंकों रेलवे कार्यालयों में, औद्योगिक इकाइयों के तथा आर्थिक प्रबन्धन के क्षेत्र में, सभी कार्यालयों में और विभिन्न परीक्षाओं के परिणाम प्रदर्शन में कम्प्यूटर का प्रयोग आम बात हो गई है। कम्प्यूटर का चमत्कार चिकित्सा क्षेत्र में भी विशेष रूप से दिखाई देता है।
5. उपसंहार - आधुनिक काल में कम्प्यूटर विज्ञान का क्रान्तिकारी आविष्कार है। यह मानव का परिष्कृत एवं शक्तिशाली मस्तिष्क जैसा है। इसमें लाखों शब्दों व गणनाओं को स्मरण रखने की क्षमता है। कम्प्यूटर के चमत्कार से अब मानव - जीवन का प्रत्येक कार्य सरलता से सम्पन्न होने लगा है।
33. राष्ट्र के प्रति हमारा नैतिक दायित्व
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. वर्तमान राष्ट्रीय स्वरूप 3. राष्ट्र के प्रति हमारा नैतिक दायित्व 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - प्रत्येक समाज और राष्ट्र का भविष्य उसके सुनागरिकों पर निर्भर रहता है। राष्ट्रीय उत्थान के लिए केवल भौतिक समृद्धि ही पर्याप्त नहीं रहती है, इसके लिए तो वैचारिक, शैक्षिक, बौद्धिक एवं नैतिक चिन्तन की। आवश्यक है। वर्तमान काल में लोकतन्त्रात्मक शासन - व्यवस्था के अन्तर्गत अधिकारों की रक्षा और राजनीतिक सत्ता को प्राप्त करने की बात हर कोई करता है, परन्तु कर्त्तव्य - बोध और नैतिक दायित्व की भावना लोगों में वैसी नहीं दिखाई देती है। हमारे सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में नैतिकता की कमी आ गई है। इस कारण हम राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को भूलते जा रहे हैं।
2. वर्तमान राष्ट्रीय स्वरूप - स्वतन्त्रता प्राप्ति के अनन्तर देश के कर्णधारों ने संविधान का निर्माण कर संघीय शासन - व्यवस्था का प्रवर्तन किया और इसे धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र का स्वरूप दिया। आज विश्व में भारतीय लोकतन्त्र को सबसे बड़ा माना जाता है और इसमें सामाजिक विकास की प्रक्रिया भी निरन्तर चल रही है। परन्तु आज सारे देश में नवयुवकों में बेरोजगारी, महँगाई तथा भ्रष्टाचार के कारण उद्दण्डता, अनुशासनहीनता और तोड़ - फोड़ की प्रवृत्ति बढ़ रही है। सरकारी कर्मचारियों में भ्रष्टाचार एवं अनुत्तरदायित्व की भावना फैल रही है। राजनीति में भाई - भतीजावाद, स्वार्थ - लोलुपता, चरित्रहीनता और छल - कपट अत्यधिक बढ़ रहा है। इससे हमारा राष्ट्रीय चरित्र दूषित हो रहा है।
3. राष्ट्र के प्रति हमारा नैतिक दायित्व - अपने राष्ट्र के नागरिक होने से हमें जहाँ संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार प्राप्त हैं, वहाँ हमारे कुछ कर्त्तव्य भी हैं। इसलिए हमें अपने नैतिक दायित्व का निर्वाह करने में पूर्णतया सावधान रहना चाहिए। हमें ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे संविधान का उल्लंघन हो, राष्ट्रीय विकास और सामाजिक सद्भाव अवरुद्ध हो हमें अपने परिवार, अपने गाँव या नगर तथा प्रदेश आदि के साथ सम्पूर्ण राष्ट्र का हित - चिन्तन करना चाहिए।
राष्ट्र की सुरक्षा, चहुँमुखी प्रगति, जन - कल्याण, सामाजिक उन्नति और सुव्यवस्था के प्रति हमें अपने दायित्वों का निर्वाह करना चाहिए। अपने राष्ट्र में सच्चरित्र का निर्माण करना हमारा प्रथम दायित्व है, क्योंकि सच्चरित्र से ही समाज को मंगलमय बनाया जा सकता है। अतः हमारा राष्ट्र के प्रति यह नैतिक दायित्व है कि हम त्याग - भावना, सच्चरित्रता. देश - भक्ति, समाज - सेवा आदि श्रेष्ठ गुणों को अपनाकर पूरे समाज को भी इसी तरह निष्ठावान् बनावें।
4. उपसंहार - राष्ट्र - निर्माण का कार्य जन - जागृति एवं कर्त्तव्य - बोध से ही सम्पन्न हो सकता है। उक्त सभी बातों का चिन्तन करते हुए दायित्व का निर्वाह करते रहें, तभी हम राष्ट्रीय कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। इसलिए हमारा यह नैतिक दायित्व है कि हम सुनागरिक बनें, अपनी चारित्रिक एवं नैतिक उन्नति का प्रयास करें।
34. मानव के लिए विज्ञान : वरदान या अभिशाप
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. विज्ञान का अभूतपूर्व विकास 3. विज्ञान मानव के लिए वरदान 4. विज्ञान मानव के लिए अभिशाप 5. समाधान एवं उपसंहार।
1. प्रस्तावना-आधुनिक युग विज्ञान की आश्चर्यजनक प्रगति का युग है। विज्ञान आज मानव-जीवन में घुल मिलकर इसका अनिवार्य अंग बन गया है। ऐसी स्थिति में यह विचारणीय प्रश्न उत्पन्न हो गया है कि क्या विज्ञान मानव-समाज को लाभान्वित कर रहा है अथवा पतन के गर्त की ओर ले जा रहा है? आधुनिक युग के समाजशास्त्री, दार्शनिक तथा साहित्यकार इन विशिष्ट प्रश्नों के सही उत्तर ढूँढ़ने में संलग्न हैं। कई बुद्धिजीवियों की राय है कि विज्ञान मानव की मानवता को नष्ट कर रहा है, जबकि अन्य विद्वान् चिन्तक विज्ञान की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं।
2. विज्ञान का अभूतपूर्व विकास-बीसवीं शताब्दी में विज्ञान ने अभूतपूर्व उन्नति की है। जहाँ आज से सौ वर्ष पहले मनुष्य बैल-गाड़ियों और घोड़ों पर बैठकर यात्रा करता था और सौ मील की यात्रा करने में उसके कई दिन निकल जाते थे तथा परिश्रम और थकान के मारे उसका कचूमर निकल जाता था, वहाँ आज सैकड़ों मील की यात्रा वह चुटकियों ता है। विज्ञान के द्वारा प्रदत्त सुविधाओं से वह सैकड़ों मील दूर के दृश्य देख लेता है तथा मीलों दर बैठे व्यक्ति से वार्तालाप कर सकता है। यातायात के साधनों, दैनिक सुख-सुविधा की वस्तुओं, यान्त्रिक साधनों, तथा अनेक स्वचालित मशीनों आदि के आविष्कार से विज्ञान का आश्चर्यजनक विकास हुआ है।
3. विज्ञान मानव के लिए वरदान-विज्ञान से मानव को जितना लाभ हुआ है उतना उसे प्राचीन युग में ईश्वर आराधना या धर्माचरण से नहीं हुआ था। विज्ञान से समाज और व्यक्ति दोनों समान रूप से उपकृत हुए हैं। व्यक्ति का जीवन पग-पग में सरल और उच्चस्तरीय बन गया है। आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान ने इतने साधन उपलब्ध करा दिये हैं कि अब कोई काम असम्भव नहीं रह गया है। इसलिए विज्ञान अब मानव के लिए वरदान ही है।
4. विज्ञान मानव के लिए अभिशाप-वर्तमान में विज्ञान ने मनुष्य के महत्त्व और कार्यक्षेत्र का अमित विस्तार करके उसे बहुत ज्यादा व्यस्त बना दिया है। आज आदमी का जीवन एकदम नीरस और यन्त्र जैसा बन गया है। भौतिकता बढ़ रही है, पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है तथा विनाशकारी परमाणु हथियारों के आविष्कार से मानव-जाति के समूल विनाश का भय उपस्थित हो गया है। अतः विज्ञान का अतिभौतिकवादी प्रयोग मानवता के लिए अभिशाप बन गया है।
5. समाधान एवं उपसंहार-इस सांसारिक जीवन में मानव-हित का स्थान सर्वोपरि है। विज्ञान हमारी सुविधा के लिए है, हम विज्ञान की सुविधा के लिए नहीं हैं। अतः विज्ञान के द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का महत्त्व तभी है, जब मनुष्य की मनुष्यता सुरक्षित रहे, वह अमानवीय न बन जाये तथा उसकी आत्मा सूखे नाले की तरह नीरस न हो जाये। विज्ञान को अभिशाप से वरदान बनाने का उत्तरदायित्व बुद्धिमान् और विवेकशील लोगों पर है। अतः विज्ञान मानव-जाति के लिए वरदान सिद्ध हो, हमें इस दिशा में सचेत रहना चाहिए।
35. वर्तमान की महती आवश्यकता : राष्ट्रीय एकता
अथवा
राष्ट्रीय और भावात्मक एकता
अथवा
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता
संकेत बिन्दु-1. प्रस्तावना 2. स्वतन्त्र भारत में राष्ट्रीय एकता 3. राष्ट्रीय एकता की समस्या 4. वर्तमान में राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता 5. उपसंहार।।
1. प्रस्तावना-वर्तमान काल में कौमी एकता अथवा राष्ट्रीय एकता को लेकर काफी विवाद चल रहा है। प्राचीन काल में भारत में अनेक गणराज्य थे और पारस्परिक सहयोग एवं भावात्मक एकता के कारण वे गणराज्य अजेय थे। लेकिन वर्तमान काल में सम्प्रदायवाद, जातिवाद एवं क्षेत्रवाद आदि का राजनीतिक कुचक्र चलने से राष्ट्रीय एकता की स्थिति काफी कमजोर दिखाई देती है।
2. स्वतन्त्र भारत में राष्ट्रीय एकता-स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हमारे देश में लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा हुई। शासन व्यवस्था में किसी जाति-विशेष या धर्म-विशेष को प्रमुखता न देकर सभी देशवासियों को समानता का अधिकार दिया गया एवं राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया गया। भारत की इस स्थिति को देखकर कुछ शत्रु-राष्ट्र ईर्ष्या रखते हैं और वे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भारत की एकता को कमजोर करना चाहते हैं। यह सत्य है कि जब भी भारत पर आक्रमण हुआ है, सभी भारतीयों ने एकता तथा राष्ट्रीयता का परिचय दिया। संकटकाल में यहाँ के हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई आदि सभी ने भावात्मक एकता का परिचय दिया। इससे हमारी राष्ट्रीय एकता मजबूत हुई है।
3. राष्ट्रीय एकता की समस्या - इतना सब कुछ होने पर भी आज हमारे देश में राष्ट्रीय एकता का प्रश्न उतना ही प्रबल बना हुआ है, क्योंकि आज भी देश की सीमाओं पर शत्रुओं की छल - कपटमयी कुचालें दिखाई दे रही हैं। शत्रु देशों की खुफिया एजेन्सियाँ आतंकवाद को बढ़ावा दे रही हैं और कुछ देश धर्म के नाम पर गुप्त तरीके से भारत की एकता को खण्डित करने का प्रयास कर रहे हैं। कहीं साम्प्रदायिक दंगे करवाये जाते हैं, तो कहीं जातिगत विद्वेष भड़काया जाता है। कुछ राष्ट्र - विरोधी संगठन पूर्वोत्तर एवं पश्चिमोत्तर भाग में आतंक फैला रहे हैं। इन सभी कार आज हमारी राष्ट्रीय एकता समस्याग्रस्त बन गयी है।
4. वर्तमान में राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता - प्रायः देखा गया है कि जब भारत पर विदेशी या बाहरी शत्रुओं का आक्रमण हुआ तो सारे देश में एकता की लहरें - सी उठ गई थीं। जनता ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में सब कुछ दान कर दिया था, लेकिन इसके बाद आंतरिक - विभेद, सम्प्रदायवाद आदि विभिन्न कारणों से देश की एकता को हानि पहुँचाई गई। अतएव हमें लोकतन्त्र की रक्षा और राष्ट्र के सर्वतोन्मुखी विकास के लिए राष्ट्रीय एकता की महती आवश्यकता है।
5. उपसंहार - संक्षेपतः भारत में जब - जब राष्ट्रीय एकता की न्यूनता रही, तब - तब विदेशी शक्तियों ने यहाँ अपने पैर जमाने की चेष्टा की और हमारी आपसी फूट का उन्होंने पूरा फायदा उठाया। अब स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में अनेकता में एकता का स्वर गूंजने लगा है। उसकी रक्षा के लिए आज राष्ट्रीय एकता की महती आवश्यकता है।
36. वर्तमान शिक्षा और सदाचार
अथवा
वर्तमान शिक्षा - प्रणाली : गुण और दोष
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. वर्तमान शिक्षा का स्वरूप 3. वर्तमान शिक्षा प्रणाली के गुण 4. वर्तमान शिक्षा प्रणाली के दोष 5. वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सुधार के उपाय 6. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - शिक्षा सभ्य जीवन की आधारशिला है। इससे मानव की शारीरिक, मानसिक एवं चारित्रिक क्षमता का विकास होता है। शिक्षक या गुरु द्वारा विद्यार्थी को व्यवस्थित रूप से विशेष पद्धति अपनाकर जो शिक्षा दी जाती है, उसे 'शिक्षा पद्धति' अथवा 'शिक्षा प्रणाली' कहते हैं। शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य देश के नागरिकों का बौद्धिक विकास कर उनमें सांस्कृतिक एवं नैतिक आदर्शों का समावेश करना तथा उन्हें स्वावलम्बी बनाना रहता है। इसका जीवन के सर्वांगीण विकास में विशेष महत्त्व रहता है।
2. वर्तमान शिक्षा का स्वरूप - यद्यपि प्राचीनकाल में श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति के कारण भारत को 'विश्व - गुरु' कहा जाता था और अन्य देशों के शिक्षार्थी यहाँ ज्ञान प्राप्त करने आते थे। परन्तु वर्तमान में हमारी शिक्षा राष्ट्रीय लक्ष्य के अनुरूप न रहकर मूल्यहीन, विचारहीन तथा आचरणहीन रह गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद आर्थिक कमजोरी के कारण शिक्षा - क्रम में एकाएक परिवर्तन करना सरकार के लिए सम्भव न था, फिर भी शिक्षा आयोगों के सुझावों पर समय समय पर शिक्षा में जो परिवर्तन किये गये, उनसे वर्तमान शिक्षा के स्वरूप का संख्यात्मक विकास अवश्य हुआ है।
3. वर्तमान शिक्षा प्रणाली के गुण - वर्तमान शिक्षा प्रणाली अत्यधिक दूषित है, फिर भी इसमें कुछ गुण विद्यमान हैं। जैसे
4. वर्तमान शिक्षा प्रणाली के दोष - हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यद्यपि काफी परिवर्तन हो गये हैं, फिर भी यह दूषित है। इसमें निम्न दोष हैं -
5. वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सुधार के उपाय - वर्तमान शिक्षा - प्रणाली में सुधार की परम आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में ये उपाय उचित हैं -
6. उपसंहार - लोकतन्त्रात्मक राष्ट्र में प्रत्येक नागरिक को अनिवार्य रूप से शिक्षित होना चाहिए, जिससे वह सुनागरिक बनकर अपने कर्तव्यों का पालन करे और राष्ट्रीय चेतना के अनुरूप चलकर समाजोन्नयन का मार्गदर्शक बने। परन्तु यह तभी सम्भव है, जबकि वहाँ प्रचलित शिक्षा - प्रणाली जीवनोपयोगी हो और देश की आवश्यकताओं के अनुरूप हो।
37. विद्यार्थी और वर्तमान राजनीति
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. राजनीति का स्वरूप 3. विद्यार्थियों के लिए राजनीति का औचित्य 4. विद्यार्थियों के कर्त्तव्य 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे नेताओं ने भारत में लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया है। इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत राजनैतिक चेतना का संचार करने और सामान्य नागरिक के मौलिक अधिकारों तथा कर्तव्यों का . ज्ञान कराने के लिए हमारे यहाँ विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में छात्र - संघों का गठन किया जाता है। छात्र - संघ के . माध्यम से उन्हें लोकतान्त्रिक प्रक्रिया व संसदीय प्रणाली का ज्ञान करवाया जाता है।
2. राजनीति का स्वरूप - वर्तमान समय में राजनीति का वास्तविक स्वरूप सक्रिय राजनीति से है। इसके अनुसार किसी राजनीतिक दल का गठन करना या किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर लोक - प्रतिनिधि के लिए चुनाव लड़ना सक्रिय राजनीति मानी जाती है। परन्तु विद्यार्थी जीवन में जिस राजनीति का ज्ञान दिया जाता है उसका उद्देश्य छात्रों को जनतान्त्रिक शासन व्यवस्था का ज्ञान कराना है, उनमें संविधान में प्रदत्त अधिकारों के उपयोग की चेतना उत्पन्न करना है। इस प्रकार विद्यार्थी जीवन में राजनीति का आशय लोकतन्त्र की शिक्षा देना है।
3. विद्यार्थियों के लिए राजनीति का औचित्य - जहाँ तक जनतान्त्रिक शासन - व्यवस्था के प्रति राजनीतिक चेतना जागृत करना तथा संसदीय प्रणाली का ज्ञान प्राप्त करना है, वहाँ तक विद्यार्थियों के लिए राजनीति उचित है, क्योंकि उस क उनके लिए वह पाठय - विषय ही है। लेकिन जब विद्यार्थी दलगत राजनीति की गतिविधियों में भाग लेने लग जाते हैं, तो वे नियमित अध्ययन से विमुख होने लगते हैं। तब वे विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़कर स्वार्थ साधने में प्रवृत्त हो जाते हैं। उस दशा में वे कुचक्री नेताओं के चक्कर में आकर हड़ताल, तोड़फोड़ आदि कार्यों में भाग लेते हैं। इस दृष्टि से विद्यार्थियों के लिए सक्रिय राजनीति उचित नहीं है।
4. विद्यार्थियों के कर्त्तव्य - विद्यार्थी जीवन मानव के विकास की आधारशिला है। इसलिए जब विद्यार्थी अपने सामने उच्च आदर्शों और लक्ष्यों को निर्धारित कर तदनरूप शिक्षा ग्रहण करेंगे, तब निःसन्देह उनका भावी जीवन प्रशस्त होगा। इसलिए उनका प्रमुख कर्त्तव्य यह है कि वे अपने विद्या मंन्दिरों को भ्रष्ट राजनीति से बचाकर रखें और छात्र संघों के गठन को मात्र राजनैतिक चेतना की शिक्षा मानें। वे अपना जीवन सफल बनाने तथा सच्चरित्रों को अपनाने में ही विशेष रुचि रखें।
5. उपसंहार - अतएव संक्षेप में कहा जा सकता है कि जहाँ तक विद्यार्थियों में राजनैतिक चेतना और जनतान्त्रिक शासन - व्यवस्था के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने का प्रश्न है, वहाँ तक उन्हें छात्र - संघों के द्वारा अपने विचारों को परिपक्व बनाना चाहिए। परन्तु उन्हें सक्रिय राजनीति से सदा दूर ही रहना चाहिए।
38. शिक्षा - सुधार में विद्यार्थियों की भूमिका
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. वर्तमान में शिक्षा का स्तर 3. विद्यार्थियों के द्वारा सुधार के उपाय 4. शिक्षा सुधार से लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र अपनी चहुँमुखी प्रगति तभी कर पाता है, जब उसके नागरिक अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वाह करें और सदैव जागरूक रहें। हमारे देश में यद्यपि शिक्षा पद्धति में नागरिक कर्तव्यों का समावेश किया गया है, तथापि विद्यार्थियों को उनका सम्यक् ज्ञान नहीं है। यदि आज के विद्यार्थी ज्ञानार्जन की भावना रखकर शिक्षा - क्षेत्र की कमियों को दूर करना चाहें तो निश्चय ही हमारे शिक्षा - स्तर में सुधार हो सकता है।
2. वर्तमान में शिक्षा का स्तर - हमारे देश में वर्तमान में शिक्षा - प्रणाली का स्वरूप कोरे किताबी ज्ञान पर आधारित है। अंग्रेजों के शासनकाल में जो शिक्षा प्रणाली प्रचलित हुई थी, आज भी लगभग वही है। हमारा शिक्षा का स्तर एकदम गिरा हुआ, अनुपयुक्त एवं व्यय - साध्य है। व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं स्वरोजगारोन्मुखता का अभाव होने से विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त करने पर भी बेकारी - बेरोजगारी के शिकार बन रहे हैं। शिक्षा का स्वरूप बहुस्तरीय होने पर भी विद्यार्थियों को उसका पूरा लाभ नहीं मिल रहा है और वे परमुखापेक्षी बन रहे हैं। यह स्थिति अतीव चिन्तनीय है।
3. विद्यार्थियों के द्वारा सुधार के उपाय - वर्तमान शिक्षा - प्रणाली के स्वरूप एवं स्तर में सुधार लाने के लिए युवा - शक्ति का समुचित उपयोग नितान्त अपेक्षित है। विद्यार्थियों की युवा - चेतना एवं बौद्धिक ऊर्जा में समन्वय बनाये रखने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं -
4. शिक्षा - सुधार से लाभ - समय - समय पर शिक्षा - स्तर में सुधारात्मक उपाय करने से विद्यार्थियों को यह लाभ मिलेगा कि उनमें स्वावलम्बन की भावना पनपेगी, वे अपना सम्यक् चारित्रिक - बौद्धिक विकास कर सकेंगे और सामाजिक दायित्व का बोध बढ़ने से अपने कर्तव्यों का सही ढंग से सम्पादन कर सकेंगे। शिक्षा - सुधार से बेरोजगारी बेकारी नहीं रहेगी, युवा - शक्ति को तथा राष्ट्र के चहुंमुखी विकास को उचित गति मिल सकेगी। वे अच्छे नागरिकों की भूमिका निभा सकेंगे।
5. उपसंहार - शिक्षा - क्षेत्र से साक्षात् सम्बन्ध रखने से विद्यार्थी शिक्षा के स्तर एवं स्वरूप में सुधार लाने हेतु श्रेष्ठ भूमिका निभा सकते हैं। विद्यार्थियों के प्रयासों से ही शिक्षा का उचित परिणाम सामने आ सकता है। अतएव पहले विद्यार्थी स्वयं जागृत होवें, फिर शिक्षा - सुधार में संलग्न रहें, तो निस्सन्देह हमारी शिक्षा का स्तर उच्च कोटि का बन सकता है।
39. युवा छात्रों में बढ़ता असन्तोष
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना - देशव्यापी असन्तोष 2. असन्तोष के कारण 3. असन्तोष के परिणाम 4. असन्तोष को दूर करने के उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - हमारा देश वर्तमान में संक्रमण काल से गुजर रहा है। इस समय राष्ट्र के हर क्षेत्र में असंतोष फैला हुआ है। गरीबी के कारण आर्थिक असंतोष बढ़ता जा रहा है। समाज की दो पीढ़ियों में सामंजस्य न होने के कारण सामाजिक असन्तोष पनप रहा है। बेरोजगार युवाओं में असंतोष के दृश्य आये दिन सामने आते रहते हैं। आज नवयुवकों और छात्रों में ऐसा असंतोष अधिक दिखाई देता है।
2. असन्तोष के कारण - छात्रों और नवयुवकों में व्याप्त असंतोष के कई कारण हैं -
3. असन्तोष के परिणाम - छात्रों एवं युवाओं में व्याप्त इस असन्तोष के कारण ही हड़ताल, आगजनी व तोड़ - फोड़ की घटनाएं होती रहती हैं। विद्यालयों में अनुशासन बिगड़ता है। समाज में अशान्ति फैलती रहती है। असन्तोष से मनुष्य अपना मानसिक सन्तुलन खोने लगता है। अपराधों के पनपने में भी यही कारण है। राष्ट्र को युवाशक्ति का पूरा सहयोग नहीं मिलता है, जिससे राष्ट्रीय प्रगति अवरुद्ध होती है। अतः असन्तुष्ट युवागण किसी भी जिम्मेदारी का सम्यक् पालन नहीं करते हैं।
4. असन्तोष को दूर करने के उपाय - नवयुवकों में व्याप्त असन्तोष को दूर करना जरूरी है। इसके लिए असन्तोष के कारणों को दूर करना आवश्यक है। युवकों को यथासम्भव रोजगार उपलब्ध कराया जाए। शिक्षा प्रणाली में सुधार किया जाए। शिक्षा को व्यावसायिक एवं स्वरोजगारोन्मुख बनाया जाये। इसी भांति शासन व्यवस्था में सुधार करके भ्रष्टाचार व स्वार्थपरता की रोकथाम भी आवश्यक है। बुजुर्गों को भी चाहिए कि वे समय के अनुसार स्वयं को थोड़ा बदलें और युवकों को नयी हवा के अनुरूप तथा उचित मार्ग - दर्शन प्रदान करें।
5. उपसंहार - इन सुधारों के आधार पर नवयुवकों के अच्छे भविष्य की आशा की जा सकती है अन्यथा यह असन्तोष युवा पीढ़ी का पतन कर देगा। वैसे भी युवा - शक्ति का समुचित उपयोग जरूरी है। नवयुवक ही हमारे राष्ट्र के भावी सुनागरिक हैं। अतः उसका असंतोष हर सम्भव तरीके से दूर किया जाना चाहिए।
40. नये भारत की आशा - युवावर्ग
अथवा
राष्ट्र - निर्माण में युवा पीढ़ी की भूमिका
अथवा
विद्यार्थियों का राष्ट्र - निर्माण में योगदान
अथवा
युवा शक्ति और सामाजिक पुनर्निर्माण
अथवा
देश के सामने चुनौतियाँ और युवाशक्ति
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना : समाज की वर्तमान स्थिति 2. युवा पीढ़ी का वर्तमान रूप 3. युवा - वर्ग का दायित्व : आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, नैतिक 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - युवक देश के कर्णधार होते हैं। देश और समाज का भविष्य उन्हीं पर निर्भर होता है, परन्तु आज हमारे देश की दशा अत्यन्त शोचनीय है। समाज में राष्ट्रीय चेतना, कर्त्तव्यबोध, नैतिकता आदि की कमी है। स्वार्थ बढ़ा - चढ़ा है। अनुत्तरदायित्व फैलता जा रहा है। दिखावा एवं अन्धविश्वास अभी भी समाज को जकड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में युवकों का दायित्व निश्चित ही बढ़ जाता है।
2. युवा पीढ़ी का वर्तमान रूप - वर्तमान में हमारा सामाजिक ढाँचा अस्त - व्यस्त हो रहा है। इसे अच्छी तरह से व्यवस्थित करने का दायित्व युवकों पर ही है, किन्तु आज की युवा पीढ़ी की दशा भी शोचनीय है। युवा पीढ़ी में कुण्ठा, निराशा, दायित्वहीनता आदि अधिक व्याप्त है। समाज की परम्परागत मान्यताएँ उन्हें स्वीकार नहीं हैं, पाश्चात्य भौतिकतावाद का प्रभाव उन पर अधिक है। इसलिए वे भारतीय भूमि पर पाश्चात्य सभ्यता का ढाँचा खड़ा करना चाहते हैं। शिक्षा का अर्थ उनकी निगाह में केवल डिग्री लेकर नौकरी प्राप्त करना रह गया है।
3. युवा - वर्ग का दायित्व - अतः युवा पीढ़ी का जहाँ समाज के प्रति दायित्व है, वहीं अपने प्रति भी उसे कुछ सावधानी बरतनी है। पहले युवक - युवती स्वयं को सुधारें, स्वयं को शिक्षित करें, स्वयं जिम्मेदार बनें, स्वयं को चरित्रवान् बनायें, तभी वे देश की प्रगति एवं समाज के पुनर्निर्माण में सहयोगी बन सकते हैं। समाज में शान्ति और सुव्यवस्था बनाए रखना युवाशक्ति का प्रमुख दायित्व है। विनाशकारी तत्त्वों की रोकथाम युवकों के सहयोग से ही सम्भव है। वे हड़ताल, आगजनी, तोड़ - फोड़ आदि को रोकें, ताकि सामाजिक वातावरण नहीं बिगड़े।
समाज में मानवीय मूल्यों, सांस्कृतिक आदर्शों एवं नैतिकता की मर्यादाओं को बनाये रखना भी उनका कर्तव्य है। वे निष्ठापूर्वक अध्ययन करें। गलत साहित्य न पढ़ें। समाज में बेईमानी करने वालों का विरोध करें। इसी भाँति युवकों को चाहिए कि वे थोड़े - से स्वार्थ के लिए राजनीति के कुचक्रों में न फँसें। वे भ्रष्ट राजनीति का विरोध करें, साथ ही शासन - तन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, स्वार्थपरता आदि बुराइयों के निवारण के लिए भी सचे पीढ़ी चरित्रहीनता और पश्चिमी भौतिकतावाद के प्रभाव से स्वयं को बचाकर रखे।
4. उपसंहार - अतः सभी बुराइयों से मुक्त रहकर युवा पीढ़ी समाज और राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को पूरा कर सकती है। इसी दशा में हमारा समाज सुखमय बन सकत युवा - शक्ति. का समुचित उपयोग हो सकता है। वस्तुतः युवाशक्ति से ही राष्ट्र का सर्वतोमुखी विकास हो सकता है। सामाजिकता एवं देशभक्ति की भावना रखकर युवक अपने राष्ट्र के नव - निर्माण में प्रभावी योगदान कर सकते हैं।
41. भारत में लोकतन्त्र - मेरी दृष्टि में
अथवा
भारत में जनतन्त्र का भविष्य
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. भारत की वर्तमान दशा 3. जनतन्त्र के रूप में कमियों 4. सुधार की आवश्यकता 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - जनतन्त्र का अर्थ है - जनता का शासन। इसका तात्पर्य ऐसी शासन प्रणाली से है जिसमें शासन चलाने वाले प्रतिनिधि जनता द्वारा ही चुने जाते हैं, साथ ही इसमें आम जनता का सर्वांगीण हित प्रमुख होता है। भारत में इसी तरह की जनतन्त्रात्मक शासन प्रणाली प्रचलित है। आज भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतन्त्रात्मक देश है, लेकिन जनतन्त्र की स्थिति यहाँ काफी चिन्तनीय है।
2. भारत की वर्तमान दशा - वर्तमान समय में हमारे देश की दशा अत्यन्त शोचनीय है। हमारे देश की राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दशा लड़खड़ा रही है। राजनीतिक उथल - पुथल और चुनौतियाँ आये दिन उठती रहती हैं। पंचवर्षीय योजनाओं का सही संयोजन न होने से भी यहाँ का अर्थतन्त्र बिखरा हुआ है। बेरोजगारी, महँगाई और आर्थिक शोषण से आज लोग परेशान हैं। सर्वत्र स्वार्थपरता एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला है। मानवीय मूल्य लुप्त हो रहे हैं। आतंकवादी हिंसा से भय का वातावरण बन रहा है। राजनीति में भाई - भतीजावाद, परिवारवाद एवं वंशवाद बढ़ रहा है। इस तरह कुल मिलाकर देश में लोकतंत्र खतरे में है।
3. जनतन्त्र के रूप में कमियाँ - हमारे देश में जनतन्त्र समृद्धि नहीं कर पा रहा है। मेरी दृष्टि में इसके कई कारण
हैं
4. सुधार की आवश्यकता - ऐसी दशा में यह जरूरी है कि हमारे जनतन्त्र के सर्वमान्य स्वरूप को सुधारा जाये। इसके लिए हमें पूर्वोक्त सभी कमियों को दूर करना होगा। आर्थिक सुधार - कार्यक्रमों को दृढ़ता से लागू कर बेरोजगारी दूर करना प्रथम लक्ष्य होना चाहिए। तभी देश की आर्थिक स्थिति सुधरेगी और यहां की मानव - शक्ति का पूरा उपयोग हो सकेगा। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का प्रसार भी जरूरी है।
5. उपसंहार - अतः यह स्पष्ट है कि हमारे देश में जनतन्त्र का भविष्य कुछ धूमिल है। जिन परिस्थितियों में आज हमारा देश जकड़ा हुआ है, उनको यदि नियन्त्रित नहीं किया गया, तो यहाँ जनतन्त्र की सफलता असम्भव है। अतः हम पहले देश की आर्थिक विषमता तथा अशिक्षा को दूर करने का प्रयास करें, जनतन्त्र अपने आप पनपता जायेगा।
42. इक्कीसवीं सदी की कल्पनाएँ व सम्भावनाएँ
अथवा
इक्कीसवीं सदी : सम्भावनाएँ
अथवा
इक्कीसवीं सदी का भारत
अथवा
मेरे सपनों का भारत
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. नव - स्वतन्त्र भारत के प्रति मेरी भावना 3. इक्कीसवीं सदी का भारत 4. प्रगतिशील भारत की कामना 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - मानव विचारशील प्राणी है। वह एकान्त में हो या सामाजिक जीवन में हो, कुछ - न - कुछ सोचता विचारता रहता है। उसके विचार कभी अपने तक ही सीमित रहते हैं तथा कभी समाज व राष्ट्र तक फैल जाते हैं। मैं कभी - कभी घर - गृहस्थी, रोजगार - व्यवसाय तथा आत्मीयजनों के विषय में विचार न करके राष्ट्रीय तत्त्वों पर विचार करने लगता हूँ कि इक्कीसवीं सदी में हमारा देश भारत कैसा बनेगा तथा कितना समृद्ध रहेगा? यदि मेरे सपनों और कल्पनाओं का भारत बन जाये तो कितना ही अच्छा रहे।
2. नव - स्वतन्त्र भारत के प्रति मेरी भावना - नव विकासशील लोकतन्त्रात्मक भारत को लेकर मेरे मन में अनेक विचार उठते रहते हैं, अनेक कामनाएँ एवं सपने सजते रहते हैं। मैं कभी - कभी अपनी कल्पनाओं के पंख फैलाने लगता हूँ और अपने सपनों के भारत का निर्माण करने की ठान लेता हूँ। इस कारण मैं सोचता हूँ कि यदि इक्कीसवीं सदी में मेरे सपनों एवं कल्पनाओं का भारत हो जाएं, तो कितना सुखद भविष्य हो जाए, कितनी सुख - समृद्धि इसके प्राकृतिक सौंदर्य की अभिवृद्धि करे और जन - जीवन खुशहाल बने।
3. इक्कीसवीं सदी का भारत - इक्कीसवीं सदी में मेरे सपनों का भारत कैसा होगा, इसमें किन बातों की वृद्धि होगी, इसे यहाँ इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है। मेरे सपनों के भारत में चारों ओर समता, भ्रातृत्व, स्नेह एवं सदाचार का बोलबाला होगा। इसमें आर्थिक विषमता नहीं रहेगी; परस्पर मानवीय सम्बन्ध रहेंगे; जातिवाद, भ्रष्टाचार, स्वार्थलोलुपता एवं धार्मिक कट्टरता नहीं रहेगी और सभी भारतीयों में प्रेम - भाव रहेगा।
वर्तमान समय में हमारे भारत में लोकतन्त्रात्मक शासन चल रहा है। लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के छह दशक बीत जाने पर भी शासन - तन्त्र में कोई परिवर्तन नहीं आया है। हमारे राजनीतिक दल एवं भ्रष्ट राजनीतिज्ञ जनता को धोखे में रखकर अपना घर भरने में लगे हुए हैं। भ्रष्टाचार, महँगाई, कालाबाजारी एवं बेईमानी बढ़ रही है। मैं कामना करता हूँ कि इक्कीसवीं सदी के भारत में ये बुराइयाँ पूरी तरह समाप्त हो जायेंगी और सामाजिक कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा।
4. प्रगतिशील भारत की कामना - आज का युग विज्ञान का युग है। भारत भी वैज्ञानिक प्रगति करे, परन्तु उससे मानवता का कल्याण होवे, परमाणु - शक्ति का उपयोग शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए होवे। हमारे देश में सैन्य - शक्ति की निरन्तर वृद्धि होवे, सामाजिक एकता मजबूत रहे और आतंकवादी और अपराधी प्रवृत्तियों का नामोनिशान मिट जावे। इक्कीसवीं सदी में भारत आर्थिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में अद्वितीय प्रगति करे, ऐसी मेरी कामना है।
5. उपसंहार - मैं अपने देश भारत को समुन्नत एवं वैभवशाली देखना चाहता हूँ, परन्तु केवल मेरे सोचने से तो यह हो ही नहीं सकता। इसलिए सारे भारतीय भी इसी प्रकार सोचने लगें और सभी एकजुट होकर राष्ट्रोन्नति के कार्य में परिश्रम करें, तो वह सुदिन अवश्य आ सकता है।
43. विद्यार्थी - जीवन एवं अनुशासन
अथवा
अनुशासनपूर्ण जीवन ही श्रेष्ठ जीवन
अथवा
अनुशासन का महत्त्व
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना : अनुशासन क्या है? 2. जीवन में अनुशासन का महत्त्व 3. विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारण 4. अनुशासनहीनता के निराकरण के उपाय 5. अनुशासनप्रियता छात्र - जीवन की सफलता का रहस्य 6. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - वर्तमान काल की निरुददेश्य शिक्षा प्रणाली व गिरते हए परीक्षा परिणामों का जब हम चिन्तन करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में एक शब्द कुलबुलाता है - अनुशासन! अनुशासन को हम दूसरे शब्दों में संयम की संज्ञा दे सकते हैं। अनुशासन शब्द 'अनु' व 'शासन' इन दो शब्दों के मेल से बना है। अनु का अर्थ है - पीछे या अनुकरण तथा शासन का अर्थ है - व्यवस्था, नियन्त्रण अथवा संयम। इस प्रकार अनुशासन का आशय संयमित एवं नियमित जीवन जीना है।
2. जीवन में अनुशासन का महत्त्व - विद्यार्थी अवस्था जीवन की वह अवधि है जिसमें नये संस्कार और आचरण का मन पर स्थायी प्रभाव पड़ता है तथा वह उसके भावी जीवन का अंग बन जाता है। दूसरा यह कि विद्यार्थी का मस्तिष्क चूंकि पूर्ण परिपक्व नहीं होता, इस कारण उसके सुकोमल मस्तिष्क पर अनुशासनहीनता या अनुशासनप्रियता का अधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिए विद्यार्थी - जीवन में अनुशासन का विशेष महत्त्व है। केवल विद्यार्थी - जीवन के लिए ही नहीं, अपितु सारे सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन के लिए भी अनुशासन का विशेष महत्त्व है।
3. विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारण - वर्तमान दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली, शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच मधुर एवं घनिष्ठ सम्बन्धों का अभाव, संरक्षकों अथवा अभिभावकों की उदासीनता, भ्रष्ट राजनीति का कुप्रभाव, पाश्चात्यानुकरण की दुष्प्रवृत्ति और समाज का दूषित वातावरण आदि अनेक बातें विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारण हैं। यह अनुशासनहीनता अब एक विकट समस्या बन गयी है।
4. अनुशासनहीनता के निराकरण के उपाय - इस समस्या के समाधान के लिए प्रथम तो वर्तमान शिक्षा प्रणाली में क्रान्तिकारी परिवर्तन व सुधारों की आवश्यकता है। शिक्षा इस प्रकार की हो कि विद्यार्थियों में आत्मनिर्भरता व सद्भावनाओं का विकास हो; छात्रों एवं शिक्षकों के बीच सहृदय एवं घनिष्ठ सम्बन्ध हों। समाज का भी यह कर्तव्य है कि विद्यार्थियों के समक्ष उच्च आदर्श प्रस्तुत करें। इस प्रकार इस समस्या का समाधान सरलता से हो सकता है।
5. अनुशासनप्रियता छात्र - जीवन की सफलता का रहस्य - आज का विद्यार्थी भावी नागरिक है। देश के विकास में, उसकी उन्नति में वह एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है। अतएव विद्यार्थी को अपने अलावा समाज, देश व विश्व के कल्याणार्थ अनुशासनप्रिय बनना चाहिए। अनुशासनप्रिय छात्र ही परिश्रमी व कर्तव्यपरायण और विनयशील हो सकता है तथा प्रगति के चमकते हुए मार्ग पर अग्रसर हो सकता है।
6. उपसंहार - अनुशासन एक ऐसी प्रवृत्ति या संस्कार है, जिसे अपनाकर विद्यार्थी अपना जीवन सफल बना सकता है। अनुशासनप्रिय होने से विद्यार्थी में अनेक श्रेष्ठ गुणों का स्वतः विकास होता है। इससे वह अपने तथा समाज की प्रगति में सहायक होता है। अतः विद्यार्थी को अनुशासनप्रिय होना चाहिए।
44. बेरोजगारी की समस्या
अथवा
बेरोजगारी की समस्या : कारण और निराकरण के उपाय
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. बेरोजगारी : एक जटिल समस्या 3. बेरोजगारी के कारण 4. समस्या के समाधान के उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - वर्षों तक पराधीनता का कष्ट झेलकर जब भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई, तो तब अनेक समस्याएँ सामने आयीं। प्रारम्भ में शरणार्थी समस्या, औद्योगिक विकास की समस्या और रियासतों के एकीकरण की समस्या प्रधान थी। लेकिन अप्रत्याशित जनसंख्या - वृद्धि होने से बेरोजगारी की समस्या इतनी व्यापक रूप से उभरी कि इसका समाधान अभी तक नहीं हो पाया है। वर्तमान में नगरों में शिक्षितों तथा ग्रामों में अशिक्षितों की बेकारी का भयंकर रूप देखा जा सकता है।
2.बेरोजगारी : एक जटिल समस्या बेरोजगारी की समस्या व्यक्ति. समाज और राष्ट को भयंकर रूप से प्रभावित कर रही है। देश के नवयुवक निराश होते जा रहे हैं। सामाजिक जीवन में रहन - सहन के स्तर में गिरावट होती जा रही है, भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है, रिश्वतखोरी और दुराचार को प्रोत्साहन मिल रहा है, बेरोजगारी से युवा वर्ग में भयंकर असन्तोष पनप रहा है, जिससे देश में आन्दोलन की प्रवृत्तियों, अशान्ति और अराजकता का प्रसार होता जा रहा है।
3. बेरोजगारी के कारण इस समस्या के समाधान के लिए इसके कारणों और निराकरण के उपायों पर विचार करना सार्थक सिद्ध हो सकता है। इस समस्या के मुख्यतया ये कारण हैं - जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि, गलत आरक्षण नीति, रोजगारोन्मुख शिक्षा का अभाव आदि। इसके अलावा लघु - कुटीर उद्योगों का ह्रास तथा मशीनीकरण का अत्यधिक प्रसार भी बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण है।
4. समस्या के समाधान के उपाय - बेरोजगारी की इस भयानक समस्या के समाधान हेत उक्त कारणों का निवारण करना जरूरी है। इस दिशा में हमारा सर्वप्रथम कार्य बढ़ती हुई जनसंख्या को नियन्त्रित करना व रोकना होगा। परिवार नियोजन और विवाह की आयु सीमा में वृद्धि कर हम इस समस्या का कुछ निराकरण करने में सफल हो सकते हैं।
लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास करना होगा। कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए भी प्रयत्न करना होगा। मशीनीकरण के विकास को तीव्र गति से प्रसारित करना होगा। शिक्षा प्रणाली में भी क्रान्तिकारी परिवर्तनों के द्वारा उसे . व्यवसायोन्मुखी बनाकर स्वावलम्बन तथा स्वरोजगार का प्रसार करना जरूरी है। देश में ऐसे आर्थिक कार्यक्रम लागू किये जायें, जिनमें अधिक से अधिक रोजगार उपलब्ध हो सके।
5. उपसंहार - इस प्रकार इस समस्या के समाधान के लिए सरकारी एवं गैर - सरकारी सभी स्तरों पर प्रयत्न किये जाने की आवश्यकता है। इस समस्या के समाधान के लिए जनता का सहयोग सबसे अधिक वांछनीय है। इसे राष्ट्रव्यापी समस्या मानकर दृढ़ संकल्प से सभी बेरोजगारी मिटाने में जुट जाएँ, तो कोई शक्ति इसमें बाधक नहीं हो सकती।
45. समाचार - पत्र
अथवा
समाचार - पत्रों का महत्त्व
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2: समाचार - पत्रों का इतिहास एवं विकास ३. समाचार - पत्रों से लाभ 4.समाचार - पत्रों से हानियाँ इ. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - संसार में नित्य नवीन घटने वाली घटनाओं की जानकारी पाने का सबसे मुख्य साधन समाचार - पत्र ही हैं। कोई भी देश इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में समाचार - पत्र शासक और जनता में माध्यम का अर्थात् दुभाषिये का काम करते हैं। इसकी वाणी जनता जनार्दन की वाणी होती है। विभिन्न राष्ट्रों तथा जातियों के उत्थान एवं पतन में समाचार - पत्रों का बहुत बड़ा हाथ रहा है।
2. समाचार - पत्रों का इतिहास एवं विकास - समाचार - पत्र का प्रचलन इटली के वेनिस नगर में 16वीं शताब्दी में हुआ और इसका प्रचार उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। भारत में सन् 1780 में कलकत्ता से सबसे पहला समाचार - पत्र प्रकाशित किया गया जिसका नाम था 'दी बंगाल गैजेट' जिसका सम्पादन जेम्स हिक्की ने किया था। इसके साथ ही यहाँ पर 'समाचार - दर्पण', 'कौमुदी', 'प्रभात', 'उदन्त मार्तण्ड' आदि समाचार - पत्र प्रकाशित हुए। फिर जनता में समाचार - पत्रों की लोकप्रियता बढ़ने लगी और देश के विभिन्न अंचलों से भिन्न - भिन्न भाषाओं में अनेक समाचार - पत्र निकलने लगे।
भारतवर्ष में जैसे - जैसे मुद्रण - कला का विस्तार हुआ, उसी गति से समाचार - पत्र भी बढ़ते गये। आज यह व्यवसाय अपनी पूर्ण समृद्धि पर है। बड़े और छोटे सभी प्रकार के समाचार - पत्र देश में निकल रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक एवं परिवहन के साधनों के विकास से भी समाचार - पत्रों का तीव्रता से प्रसार होने लगा है।
3. समाचार - पत्रों से लाभ - देशवासियों की व्यापारिक उन्नति में समाचार - पत्र एक बहुत बड़ा सहायक साधन है। अपनी व्यावसायिक उन्नति के लिए हम किसी भी पत्र में अपना विज्ञापन प्रकाशित करा सकते हैं। पढ़े - लिखे परन्तु बेरोजगार लोग समाचार - पत्रों में अपनी आजीविका ढूँढ़ते हैं। सरकारी तथा गैर - सरकारी नौकरियों के विज्ञापन के लिए चार - पत्रों में आता है। समाचार - पत्रों में वैवाहिक विज्ञापन, खेलकद तथा विभिन्न शैक्षणिक गतिविधियों की सूचनाएँ भी प्रकाशित होती हैं। वर्तमान में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार करने में समाचार - पत्रों का अत्यधिक योगदान रहा है। अतः समाचार - पत्र सभी के लिए लाभदायक हैं।
4. समाचार - पत्रों से हानियाँ - समाचार - पत्र हमारी पूर्णतया सहायता करते हैं, परन्तु कभी - कभी स्वार्थी और बुरी प्रकृति के प्राणी अपनी दूषित और विषैली विचारधाराओं को समाचार - पत्रों में प्रकाशित करके जनता में घृणा की भावना फैला देते हैं, जिससे राष्ट्र में अराजकता बढ़ जाती है, साम्प्रदायिक उपद्रव होने लगते हैं और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को शत्रु की दृष्टि से देखने लगता है। अनेक बार भ्रामक विज्ञापन तथा भ्रामक सूचनाएँ भी प्रकाशित हो जाती हैं। इससे सर्वाधिक हानि होती है।
5. उपसंहार - आज स्वतंत्रता का युग है। समाचार - पत्र को स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम माना जाता है। अतः समाचार - पत्रों की निष्पक्षता एवं स्वतंत्रता जरूरी है। सामाजिक चेतना के परिष्कार की दृष्टि से समाचार - पत्रों का अत्यधिक महत्त्व है।
46. दहेज - दानव
अथवा
समाज का कलंक : दहेज प्रथा
अथवा
समाज का अभिशाप : दहेज प्रथा
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. दहेज - प्रथा का अभिशाप 3. दहेज - प्रथा के दुष्परिणाम 4. दहेज - प्रथा में अपेक्षित सुधार 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - दहेज शब्द अरबी भाषा 'जहेज' शब्द का हिन्दी रूपान्तरण है, जिसका अर्थ होता है - 2 या सौगात। धर्मशास्त्र में इसे 'दाय' कहा गया है, जिसका आशय वैवाहिक उपहार है। भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से अनेक शिष्टाचारों का प्रचलन रहा है। उस काल में विवाह - संस्कार को मंगल - भावनाओं का प्रतीक मानकर प्रेमपूर्वक दायाद, दाय या दहेज का प्रचलन था परन्तु कालान्तर में यह शिष्टाचार रूढ़ियों एवं प्रथाओं के रूप में सामाजिक ढाँचे में फैलने लगा। जो वर्तमान सामाजिक जीवन में एक अभिशाप - सी बन गया है।
2. दहेज प्रथा का अभिशाप - प्राचीनकाल में कन्या - विवाह के अवसर पर पिता स्वेच्छा से अपनी सम्पत्ति का कुछ अंश उपहार रूप में देता था। उस समय यही शुभ - कामना रहती थी कि नव - वर - वधू.अपना नया घर अच्छी तरह बसा सकें तथा उन्हें कोई असुविधा न रहे। परन्तु परवर्ती काल में कुछ लोग अपना बड़प्पन जताने के लिए अधिक रहेज देने लगे।
ऐसी गलत परम्परा चलने से समाज में कन्या को भारस्वरूप माना जाने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी में दहेर प्रथा के कारण समाज में अनेक गलत परम्पराएँ चलीं, यथा - बहुविवाह, बालविवाह, कन्या को मन्दिर में चढ़ाना या देवदासी बनाना आदि। कुछ जातियों के लोग इसी कारण कन्या - जन्म को अशुभं मानते हैं।
3. दहेज - प्रथा के दुष्परिणाम - वर्तमान समय में हमारे देश में दहेज - प्रथा अत्यन्त विकृत हो गई है। आजकल वर पक्ष वाले अधिक से अधिक दहेज माँगते हैं। वे लड़के के जन्म से लेकर पूरी पढ़ाई - लिखाई व विवाह का खर्चा माँगते हैं, साथ ही बहुमूल्य आभूषण एवं साज - सामान की माँग करते हैं। मनचाहा दहेज न मिलने से नववधू को तंग किया जाता है, उसे जलाकर मार दिया जाता है। कई नव - वधुएँ आत्महत्या कर लेती हैं या दहेज के लोभी उसे घर से निकाल देते हैं। इन बुराइयों के कारण आज दहेज - प्रथा समाज के लिए कलंक है।
4. दहेज - प्रथा में अपेक्षित सुधार - दहेज - प्रथा की बुराइयों को देखकर समय - समय पर समाज सुधारकों ने इस ओर ध्यान दिया है। भारत सरकार ने दहेज प्रथा में सुधार लाने के लिए दहेज प्रथा उन्मूलन का कानून बनाकर उसे सख्ती से लागू कर दिया है। अब दहेज देना व लेना कानूनन दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है। इस प्रकार दहेज प्रथा में सुधार लाने के लिए भारत सरकार ने जो कदम उठाये हैं, वे प्रशंसनीय हैं। परन्तु नवयुवकों एवं नवयुवतियों में जागृति पैदा करने से इस कानून का सरलता से पालन हो सकता है। शिक्षा एवं संचार - प्रचार माध्यमों से जन - जागरण किया जा रहा है।
5. उपसंहार - हमारे समाज में प्रारम्भिक काल में दहेज का स्वरूप अत्यन्त उदात्त था, परन्तु कालान्तर में रूढ़ियों एवं लोभ - लालच के कारण यह सामाजिक अभिशाप बन गया। यद्यपि 'दहेज - प्रथा उन्मूलन' कानून बनाकर सरकार ने इस कुप्रथा को समाप्त करने के प्रयास किये (इसे जन - जागरण से ही समाप्त किया जा सकता है।
47. महँगाई : समस्या और समाधान
अथवा
बढ़ती महँगाई : घटता जीवन स्तर
अथवा
मूल्यवृद्धि की समस्या
अथवा
बढ़ती महँगाई में प्रदर्शन की होड़
अथवा
महँगाई के कारण और निदान
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. महँगाई के कारण 3. महँगाई का कुप्रभाव 4. समस्या का समाधान 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - वर्तमान काल में हमारे देश में महँगाई एक विकराल समस्या की तरह निरन्तर बढ़ती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में इसका रूप और भी भयानक हो गया है। मूल्य - वृद्धि ने जनता की कमर तोड़ दी है। वस्तुओं के भाध आसमान छूने लगे हैं। गेहूँ, शक्कर, तेल, घी आदि आम जरूरत की सभी वस्तुओं के मूल्य काफी बढ़ गये हैं। इस कारण आम जनता आर्थिक तंगी से परेशान है।
2. महँगाई के कारण - यह महँगाई कई कारणों से बढ़ी है - (i) गलत अर्थनीति व प्रशासन की कमजोरी के कारण व्यापारियों ने मनमाने भाव बढ़ा दिये हैं। (ii) मुनाफे के लोभ में व्यापारी कालाबाजारी करने लगते हैं। (iii) उत्पादन की कमी होने से भी वस्तओं के भाव बढ़ जाते हैं। (iv) माल के वितरण की व्यवस्था ठीक न होने से या मांग की भी व्यापारी मूल्य बढ़ा देते हैं। (v) जनसंख्या की तीव्र वृद्धि भी एक कारण है। (vi) पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि से मालभाड़े में वृद्धि होने से भी महँगाई बढ़ जाती है। (vii) कर्मचारियों की वे न वृद्धि का भी मूल्यों पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। (vii) रुपये की क्रय - शक्ति कम होना भी एक प्रमुख कारण है।
3. महँगाई का कप्रभाव - महँगाई बढ़ने से समाज में असन्तोष ल रहा है। अपराधों को बढावा मिल रहा है। जीवन में सामान्य उपयोगी वस्तुओं के भाव आसमान छू जाने से सामान्य व्यक्ति लाचार रहता है, फलस्वरूप आर्थिक विषमता के कारण समाज में ईर्ष्या - द्वेष, कुण्ठा आदि विकार अशान्ति बढ़ा रहे हैं। वर्तमान समय में मानव - जीवन में नैतिक मूल्यों का जो ह्रास हो रहा है, उसमें महँगाई की उत्तरोत्तर वृद्धि भी एक प्रमुख कारण है। रोटी, कपड़ा और मकान से सब परेशान हैं। सरकारी - तन्त्र महँगाई पर कारगर नियन्त्रण नहीं रख पा रहा है।
सामान्य रूप से निम्न - मध्यम वर्ग:को महँगाई के कारण अनेक परेशानियाँ झेलनी पड़ रही हैं। गरीब जनता का जीवन - स्तर गिर रहा है, सन्तुलित आहार न मिलने से अनेक रोग फैल रहे हैं और जीवनी - शक्ति क्षीण हो रही है।
4. समस्या का समाधान - मूल्यवृद्धि की समस्या के समाधान का प्रथम उपाय यह है कि व्यापारियों, उद्योगपतियों तथा भ्रष्ट कर्मचारियों का नैतिक उत्थान किया जाए। कालाबाजारी और मुनाफाखोरी पर पूर्णतः अंकुश लगाया जाये। सरकार आवश्यक वस्तुओं के उचित मूल्य पर वितरण की व्यवस्था स्वयं करे। साथ ही जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगाकर उत्पादन दर बढ़ाई जाये। आवश्यक वस्तुओं के स्टॉक बनाये जायें तथा महँगाई को रोकने के लिए कठोर कानून बनाया जाये।
5. उपसंहार - महँगाई पर नियंत्रण पाना जरूरी है। बढ़ती हुई महँगाई से निम्न वर्ग की क्रय - शक्ति नष्ट हो गई है तथा आर्थिक विषमता की खाई और भी चौड़ी हो रही है। अतः गरीब जनता का सामाजिक, आर्थिक विकास तथा देश का समुन्नत भविष्य महँगाई पर नियन्त्रण रखने पर ही हो सकता है।
48. राजस्थान का अकाल
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. राजस्थान में अकाल की समस्या 3. अकाल के दुष्परिणाम 4. अकाल रोकने के उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - भारत एक ऐसा कृषि - प्रधान देश है जहाँ मानसून एवं मौसम की कृपा पर रहना पड़ता है। यहाँ कई ऐसे इलाके हैं जहाँ वर्षा ऋतु में एक बूंद भी नहीं पड़ती है और कड़कड़ाती सर्दी के दिनों में खूब वर्षा होती है। बिहार, असम, बंगाल आदि ऐसे प्रदेश हैं जहाँ अत्यधिक वर्षा होने से प्रतिवर्ष बाढ़ की समस्या बनी रहती है। परन्तु राजस्थान का अधिकांश पश्चिमोत्तर इलाका मौसम पर वर्षा न होने से पानी के लिए तरसता रहता है। अवर्षण के कारण यहाँ अकाल या सूखा पड़ जाता है।
2. राजस्थान में अकाल की समस्या - राजस्थान का अधिकतर भू - भाग शुष्क मरुस्थलीय हैं। इसके पश्चिमोत्तर भाग में मानसून की वर्षा प्रायः कम होती है और यहाँ पेयजल एवं सिंचाई सुविधाओं का नितान्त अभाव है। अवर्षण के कारण यहाँ पर अकाल की काली छाया हर साल मँडराती रहती है और हजारों गाँव प्रतिवर्ष अकाल से ग्रस्त रहते हैं।
3. अकाल के दुष्परिणाम - राजस्थान में निरन्तर अकाल पड़ने से अनेक दुष्परिणाम देखने - सुनने में आते हैं। अकालग्रस्त क्षेत्रों के लोग अपने घरों का सारा सामान बेचकर या छोड़कर पलायन कर जाते हैं। जो लोग वहाँ रह जाते हैं, उन्हें कई बार भूखे ही सोना पड़ता है। जो लोग काम - धन्धे की खोज में दूसरे शहरों में चले जाते हैं, उन्हें वहाँ उचित काम नहीं मिलता है और वे सदा ही आर्थिक संकट से घिरे रहते हैं। अकाल - ग्रस्त क्षेत्रों में पेयजल के अभाव से लोग अपने मवेशियों को लेकर अन्यत्र चले जाते हैं और घुमक्कड़ जातियों की तरह इधर - उधर भटकते रहते हैं।
अकाल के कारण राजस्थान सरकार को राहत कार्यों पर प्रतिवर्ष अत्यधिक धन व्यय करना पड़ता है। इससे राज्य के विकास की गति धीमी पड़ जाती है। अकालग्रस्त क्षेत्रों में आर्थिक - शोषण का चक्र भी चलता है। पेट की खातिर सामान्य जनता बड़ा से बड़ा अत्याचार भी सह लेती है। फिर भी अकाल से मुक्ति नहीं मिलती है।
4. अकाल रोकने के उपाय - राजस्थान में सरकारी स्तर पर अकालग्रस्त लोगों को राह पहुँचाने के लिए समय - समय पर अनेक उपाय किये गये, परन्तु अकाल की विभीषिका का स्थायी समाधान नहीं हो पाया। सरकार समय - समय पर अनेक जिलों को अकालग्रस्त घोषित कर सहायता कार्यक्रम चलाती रहती है। इसके लिए राज्य सरकार समय - समय पर केन्द्र सरकार से सहायता लेकर तथा मनरेगा योजना के अन्तर्गत अकाल राहत के उपाय करती रहती है, परन्तु इतना सब कुछ करने पर भी राजस्थान में अकाल की समस्या का कारगर समाधान नहीं हो पाता है।
5. उपसंहार - राजस्थान की जनता को निरन्तर कई वर्षों से अकाल का सामना करना पड़ रहा है। हर बार राज्य सरकार केन्द्रीय सरकार से आर्थिक सहायता की याचना करती रहती है। अकालग्रस्त लोगों की सहायता के लिए दानी मानी लोगों और स्वयंसेवी संगठनों का सहयोग अपेक्षित है। इस तरह सभी के समन्वित प्रयासों से ही राजस्थान को अकाल की विभीषिका से बचाया जा सकता है।
49. भ्रष्टाचार का महादानव .
अथवा
बढ़ता भ्रष्टाचार : गिरती नैतिकता
अथवा
भ्रष्टाचार : कारण व निवारण
अथवा
भ्रष्टाचार : एक विकराल समस्या
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. भ्रष्टाचार के कारण 3. भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव 4. समाधान या निराकरण के उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - भ्रष्टाचार दो शब्दों 'भ्रष्ट' और 'आचार' के मेल से बना है। 'भ्रष्ट' शब्द का अर्थ बुरे आचरण वाला तथा 'आचार' का अर्थ है - 'व्यवहार', इस प्रकार भ्रष्टाचार का अर्थ हुआ, अनुचित व्यवहार एवं बुरा चाल - चलन। वर्तमान में हमारा देश भ्रष्टाचार की समस्या से आक्रान्त है। यह समस्या समाज के हर वर्ग, हर क्षेत्र और हर स्तर पर बढ़ रही है। जब देश के राजनेता ही भ्रष्ट हों, राजनीतिक - व्यवस्था और शासन - तंत्र में ऊपर से नीचे तक सर्वत्र भ्रष्टाचार हो, तो फिर इसका निवारण भी कौन कर सकता है? भ्रष्टाचार विकट समस्या बन गया है।
2. भ्रष्टाचार के कारण - वर्तमान में हमारे देश में भ्रष्टाचार स्वार्थ - साधने तथा अपना घर भरने का सरल तरीका बन गया है। हर कार्य में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। इसके कुछ कारण ये हैं -
3. भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव - भ्रष्टाचार के कारण आज हमारे देश में राष्ट्रीय चरित्र तथा सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। इससे सामाजिक जीवन में नैतिकता और ईमानदारी का लोप होने लगा है। सबसे अधिक भ्रष्टाचार राजनीति में पनप रहा है। जब राजनेता ही भ्रष्ट आचरण पर उतर आते हैं और भ्रष्ट तरीके अपनाकर हर काम में दलाली, कमीशन व रिश्वत लेकर सफेदपोश बनने की चेष्टा करते हैं, तो अन्य लोग भी इससे भ्रष्ट हो रहे हैं। इस दुष्प्रवृत्ति से हमारा व्यक्तिगत, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चरित्र कलंकित हो रहा है।
4. समाधान या निराकरण के उपाय - भ्रष्टाचार निवारण के लिए यद्यपि सरकार ने पृथक् से भ्रष्टाचार उन्मूलन विभाग बना रखा है और इसे व्यापक अधिकार दे रखे हैं, समय - समय पर अनेक कानून बनाये जा रहे हैं और इसे अपराध मानकर कठोर दण्ड - व्यवस्था का भी विधान है, तथापि देश में भ्रष्टाचार बढ़ ही रहा है। इसके निवारण के लिए राजनीति में पवित्र आचरण की जरूरत है, राजनेताओं को स्वयं भ्रष्टाचार से दूर रहना चाहिए। भाई - भतीजावाद को रोका जाना चाहिए, व्यापारी वर्ग पर शासन का उचित नियंत्रण होना चाहिए। इस तरह के उपाय करने पर हमारे देश से भ्रष्टाचार का निवारण किया जा सकता है।
5. उपसंहार - भारत जैसे विकासशील लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का होना एक विडम्बना है। इससे आज हमारे सांस्कृतिक मूल्य गिर रहे हैं और राष्ट्रीय चरित्र पर कीचड़ उछाला जा रहा है। अतएव इसके निवारणार्थ सुशासन एवं पवित्राचरण अत्यावश्यक है।
50. राजस्थान के लोकगीत
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. लोकगीत का स्वरूप और विशेषताएँ 3. प्रमुख लोकगीतों का परिचय 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - प्रत्येक देश एवं समाज में लोक - भावों की अभिव्यंजना के लिए अलग - अलग अवसर पर कई प्रकार के गीत प्रचलित रहते हैं। लोक में गीत गाने वाला व्यक्ति अपने भावों की अभिव्यक्ति कर आनन्द का अनुभव करता है, पर साथ ही उसके द्वारा गाये गये अच्छे गीत से श्रोता भी भाव - विभोर हो जाता है। इस तरह लं आत्मिक सुख का ही नहीं, अपितु सामाजिक जीवन में उल्लास एवं सुखानुभूति का भी प्रसार करते हैं।
2. लोकगीत का स्वरूप और विशेषताएँ - साहित्यिक गीतों और लोकगीतों में अन्तर होता है। साहित्यिक मुक्तक एवं गीति - काव्य की समस्त विशेषताएँ रहती हैं, वहाँ लोकगीतों में लोक - जीवन के हार्दिक भावों की ही प्रखरता रहती है। लोकगीतों की भाषा साहित्यिक गीतों की भाँति अधिक व्यवस्थित, अधिक परिष्कृत नहीं होती है। लोकगीत पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक चलते रहते हैं। उनमें कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है।
उनके रचयिता का पता लगाना कठिन और प्रायः असम्भव होता है। राजस्थानी लोकगीतों में ढोला मारू रा दूहा, बीसलदे रास, माधवानल कामकन्दला आदि प्रसिद्ध हैं। 'हरजी - रो ब्यावलो' और 'नरसी जी - रो माहेरो' राजस्थानी जनता में बहुत लोकप्रिय हैं। लोक - साहित्य में 'हेड़ाऊ मेरो का ख्याल' भी प्रसिद्ध है। 'जीण - माता' का गीत करुण रस की रचना है। 'डूंगजी जवारजी' का गीत वीर रस का उदाहरण है। पाबूजी, रामदेवजी, गोगाजी, जांभोजी, तेजाजी से सम्बन्धित गीत काफी प्रसिद्ध हैं।
3. प्रमुख लोकगीतों का परिचय - राजस्थान में विवाह, नामकरण, धार्मिक आस्था आदि अनेक विषयों से सम्बन्धित गीतों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है परिवार सम्बन्धी गीत - परिवार के मांगलिक कार्यों के अवसर पर, विवाह आदि में भावपूर्ण लोकगीत गाये जाते धार्मिक गीत - देवी - देवताओं की पूजा, गृह - पूजन, जागरण, उपवास आदि के अवसरों पर धार्मिक आस्था के गीत गाये जाते हैं। प्रकृति सम्बन्धी गीत - अलग - अलग ऋतुओं पर लोकगीत गाये जाते हैं।
विशेषकर वर्षा एवं वसन्त ऋतु पर राजस्थान में अनेक लोकगीत प्रचलित हैं। त्योहार - पर्व से सम्बन्धी गीत - गणगौर, शीतलाष्टमी, गोपाष्टमी, होली, दीपावली आदि पर त्योहार - पर्व की महिमा से सम्बन्धित लोकगीत गाये जाते हैं। अन्य गीत - राजस्थान में और भी अनेक प्रकार के गीत प्रचलित हैं। अमरसिंह राठौड़, गोरबन्द, रतनराणा, लाखा, मूमल, घुड़लो, नींदड़ली, घूमर, भैंरू आदि से सम्बन्धित बहुत प्रकार के लोकगीत प्रदेश के विभिन्न भागों में प्रचलित.
4. उपसंहार - अपनी सांस्कृतिक विशेषता के समान ही लोकगीतों की दृष्टि से राजस्थान का विशेष महत्त्व है। यहाँ के लोकगीतों में हृदयगत भावों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। इनमें जो भावुकता और जो वेदना रहती है।
51. बाल - विवाह : सामाजिक अभिशाप
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. बाल - विवाह की कुप्रथा 3. बाल - विवाह का अभिशाप 4. समस्या के निवारणार्थ उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कारों में विवाह - संस्कार का विशेष महत्त्व है। प्रारम्भ में यह संस्कार पवित्र भावनाओं का परिचायक था, परन्तु परवर्ती काल में इसमें अनेक विकृतियाँ एवं कुप्रथाएँ आ गईं। इन्हीं विकृतियों के फलस्वरूप हमारे देश में अनमेल विवाह तथा बाल - विवाह का प्रचलन हुआ, जो कि हमारे सामाजिक सांस्कृतिक जीवन के लिए एक अभिशाप है।
2. बाल - विवाह की कुप्रथा - इस कुप्रथा का प्रचलन मध्यकाल में हुआ। भारतीय समाज में कन्या का बालपन में ही विवाह रचाना उचित समझा जाने लगा। दहेज - प्रथा के कारण भी बाल - विवाह का प्रचलन हुआ। बालक - बालिका पूर्णतया नासमझ रहने से अपने विवाह - संस्कार का विरोध भी नहीं कर पाते और अधिक दहेज भी नहीं देना पड़ता, इसी कारण बाल - विवाह की कुप्रथा निम्न - मध्यम वर्ग में विशेष रूप से प्रचलित हुई।
3. बाल - विवाह का अभिशाप - बाल - विवाह की कुप्रथा से समाज में अनेक समस्याओं का जन्म हुआ। छोटी अवस्था में ही विवाह होने से स्त्रियों में अशिक्षा, अज्ञान, अन्धविश्वास आदि के साथ बाल - विधवा होना आदि समस्याएँ सामने आती हैं। अबोध अवस्था में विवाहित वर - वधू को भविष्य में आपसी कलह का शिकार होना पड़ता है, कभी तलाक हो जाता है तथा अवयस्क अवस्था में ही सन्तानोत्पत्ति होने लगती है। जनसंख्या की असीमित वृद्धि का एक कारण यह भी है। इन सब बुराइयों को देखने से बाल - विवाह हमारे समाज के लिए एक अभिशाप ही है।
4. समस्या के निवारणार्थ उपाय - बाल - विवाह की बुराइयों को देखकर समय - समय पर समाज - सुधारकों ने जन - जागरण के उपाय किये। भारत सरकार ने इस सम्बन्ध में कठोर कानून बनाया है और अठारह वर्ष से कम आयु की कन्या तथा इक्कीस वर्ष से कम आयु के युवक के विवाह को कानूनन सामाजिक अपराध घोषित किया गया है। फिर भी बाल - विवाह निरन्तर हो रहे हैं। अकेले राजस्थान के गाँवों में बैसाख मास की अक्षय तृतीया को हजारों बाल - विवाह होते हैं। इस समस्या का निवारण कठोर कानून तथा समाज - सुधारकों को भी इस दिशा में भरसक प्रयास करना चाहिए।
5. उपसंहार - बाल - विवाह ऐसी कुप्रथा है, जिससे वर - वधू का भविष्य अन्धकारमय बन जाता है। इससे समाज में कई विकृतियाँ आ जाती हैं। अतः इस कुप्रथा का निवारण अपेक्षित है, तभी समाज को इस अभिशाप से मुक्त कराया जा सकता है।
52. मोबाइल फोन : वरदान या अभिशाप
अथवा
मोबाइल फोन का प्रचलन एवं प्रभाव
अथवा
मोबाइल फोन : छात्र के लिए वरदान या अभिशाप
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. मोबाइल फोन का बढ़ता प्रभाव 3. मोबाइल फोन से लाभ : वरदान 4. मोबाइल फोन से हानि : अभिशाप 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - आधुनिक युग में विज्ञान द्वारा अनेक आश्चर्यकारी आविष्कार किये गये, जिनमें कम्प्यूटर एवं मोबाइल या सेलफोन का विशेष महत्त्व है। पहले टेलीफोन या दूरभाष का प्रचलन हुआ, फिर कॉर्डलेस फोन आया, तत्पश्चात् पेजर और सेल फोन का आविष्कार हुआ, जो कि संचार - साधन के क्षेत्र में चमत्कारी घटना है। अब तो मोबाइल संचार - सुविधा का विशिष्ट साधन बन गया है।
2. मोबाइल फोन का बढ़ता प्रभाव - प्रारम्भ में मोबाइल फोन कुछ सम्पन्न लोगों तक ही प्रचलित रहा, फिर व्यापार - व्यवसाय में तथा उच्च सेवा के लोगों में इसका प्रचलन बढ़ा। क्योंकि प्रारम्भ में मोबाइल फोन - सेट महँगे थे। सेवा प्रदाता कम्पनियाँ भी कम थीं और सेवा - शुल्क अधिक था। लेकिन अब अनेक सेवा प्रदाता कम्पनियाँ खड़ी हो गयी हैं, मोबाइल फोन भी सस्ते - से - सस्ते मिलने लगे हैं। इस कारण अब किसान, मजदूर, रिक्शा - कार - बस - चालक, ठेली वाला आदि से लेकर निम्न - मध्यम वर्ग के लोगों में मोबाइल फोन का उत्तरोत्तर प्रचलन बढ़ रहा है।
3. मोबाइल फोन से लाभ : वरदान - मोबाइल फोन अतीव छोटा यन्त्र है, जिसे व्यक्ति अपनी जेब में अथवा मुट्ठी में रखकर कहीं भी ले जा सकता है और कभी भी कहीं से दूसरों से बात कर सकता है। इससे समाचार का आदान - प्रदान सरलता से होता है और देश - विदेश में रहने वाले अपने लोगों के सम्पर्क में लगातार रहा जा सकता है। व्यापार - व्यवसाय में तो यह लाभदायक एवं सुविधाजनक है ही, अन्य क्षेत्रों में भी यह वरदान बन रहा है।
असाध्य रोगी की तुरन्त सूचना देने, अनेक प्रकार के खेलकूदों के समाचार जानने, मनचाहे गाने सुनने, केलकुलेटर का कार्य करने, फोटोग्राफी एवं वीडियोग्राफी करने, ई - मेल करने के साथ 3GP & MP4 फारमेट द्वारा मनचाही फिल्में देखने के कार्य इससे किये जा सकते हैं। सरकारी राहत एवं कल्याणकारी योजनाओं से लाभार्जन करने में यह काफी उपयोगी सिद्ध हो रहा है।
4. मोबाइल फोन से हानि : अभिशाप - मोबाइल फोन से लाभ के साथ हानियाँ भी हैं। वैज्ञानिक शोधों के अनुसार मोबाइल से बात करते समय रेडियो किरणें निकलती हैं, जो व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक होती हैं। इससे लगातार सुनने पर कान कमजोर हो जाते हैं, मस्तिष्क में चिढ़चिढ़ापन आ जाता है।
छात्रों को मोबाइल गेमिंग की बुरी लत पड़ने से उन पर दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ता है। अपराधी प्रवृत्ति के लोग इसका दुरुपयोग करते हैं, जिससे समाज में अपराध बढ़ रहे हैं। युवक - युवतियों में चेटिंग एवं क्लीपिंग का नया रोग भी फैल रहा है। इन सब कारणों से मोबाइल फोन हानिकारक एवं अभिशाप ही है।
5. उपसंहार - मोबाइल फोन दूरभाष की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण आविष्कार है तथा इसका उपयोग उचित ढंग से तथा आवश्यक कार्यों के सम्पादनार्थ किया जावे, तो यह वरदान ही है। लेकिन अपराधी लोगों और युवाओं में इसके दुरुपयोग की प्रवृत्ति बढ़ रही है। मोबाइल फोन का सन्तुलित उपयोग किया जाना ही लाभदायक है।
53. जल - संरक्षण : हमारा दायित्व
अथवा
जल - संरक्षण की आवश्यकता एवं उपाय
अथवा
जल संरक्षण : जीवन सुरक्षण
अथवा
जल है तो जीवन है
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. जल - चेतना हमारा दायित्व 3. जल - संकट के दुष्परिणाम 4. जल - संरक्षण के उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - सृष्टि के पंचभौतिक पदार्थों में जल का सर्वाधिक महत्त्व है और यही जीवन का मूल आधार भी है। इस धरती पर जल के कारण ही पेड़ - पौधों, वनस्पतियों, बाग - बगीचों आदि के साथ प्राणियों का जीवन सुरक्षित है।
जीवन - सुरक्षा का मूल - तत्त्व होने से कहा गया है - 'जल है तो जीवन है' या 'जल ही अमृत है।' वर्तमान में धरती पर जलाभाव की समस्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है। अतएव जल - संरक्षण का महत्त्व मानकर संयुक्त राष्ट्रसंघ ने सन् 1992 में विश्व जल - दिवस मनाने की घोषणा की, जो प्रतिवर्ष 22 मार्च को मनाया जाता है।
2. जल - चेतना हमारा दायित्व - हमारी प्राचीन संस्कृति में जल - वर्षण उचित समय पर चाहने के लिए वर्षा के देवता इन्द्र और जल के देवता वरुण का पूजन किया जाता था। इसी प्रकार हिमालय के साथ गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों का स्तवन किया जाता था। ऐतिहासिक साक्ष्यों से विदित होता है कि हमारे राजा एवं समाजसेवी श्रेष्ठिवर्ग पेयजल हेतु कुओं, तालाबों, पोखरों आदि के निर्माण पर पर्याप्त धन व्यय करते थे, वे जल - संचय का महत्त्व जानते थे।
किन्तु वर्तमान काल में मानव की स्वार्थी प्रवृत्ति और भौतिकवादी चिन्तन के कारण जल का ऐसा विदोहन किया जा रहा है, जिससे अनेक क्षेत्रों में अब पेयजल का संकट उत्पन्न हो गया है। अतः हमारा दायित्व है कि हम जल को जीवन रक्षक तत्त्व के रूप में संरक्षण प्रदान करें।
3. जल - संकट के दष्परिणाम - हमारे देश में औद्योगीकरण, खनिज - सम्पदा का बडी मात्रा में विदोहन, भजल का अतिशय दोहन तथा कारखानों के विषैले रासायनिक अपशिष्टों का उत्सर्जन होने से जल - संकट उत्तरोतर बढ़ रहा है। इससे न तो खेती - बाड़ी की सिंचाई हेतु पानी मिल रहा है और न पेयजल की उचित पूर्ति हो रही है। अब प्राचीन तालाब, सरोवर एवं कुएँ सूख रहे हैं, नदियों का जल - स्तर घट रहा है और भूगर्भ का जलस्तर भी लगातार कम होता जा रहा है। जल - संकट के कारण अनेक वन्य - जीवों का अस्तित्व मिट गया है और धरती का तापमान निरन्तर बढ़ रहा है।
4. जल - संरक्षण के उपाय - जिन कारणों से जल - संकट बढ़ रहा है, उनका निवारण करने से यह समस्या कुछ हल हो सकती है। इसके लिए भूगर्भीय जल का विदोहन रोका जावे और खानों - खदानों पर नियन्त्रण रखा जावे। वर्षा के जल का संचय कर भूगर्भ में डाला जावे, बरसाती नालों पर बाँध या एनीकट बनाये जावें, तालाबों - पोखरों व कुओं को अधिक गहरा - चौड़ा किया जावे और बड़ी नदियों को आपस में जोड़ने का प्रयास किया जावे। जल - संरक्षण के प्रति आम जनता को जागृत करने का प्रयास किया जाए है। इस तरह के उपायों से जल - संकट का समाधान हो सकता है।
5. उपसंहार - जल को जीवन का आधार मानकर 'अमृतं जलम्' जैसे जन - जागरण के कार्य किये जावें। जनता में जल - चेतना की जागृति लाने से जल - संचय एवं जल - संरक्षण की भावना का प्रसार होगा तथा इससे धरती का जीवन सुरक्षित रहेगा। जब तक जल है, तभी तक जीवन है।
54. दूरदर्शन : वरदान या अभिशाप
अथवा
युवावर्ग पर दूरदर्शन का प्रभाव
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. दूरदर्शन का महत्त्व 3. दूरदर्शन विज्ञान का वरदान 4. दूरदर्शन का दुष्प्रभाव 5. उपसंहार। .
1. प्रस्तावना - दूरदर्शन का शाब्दिक अर्थ है - दूर की वस्तु को देखना। आधुनिक वैज्ञानिक युग में टेलीविजन या दूरदर्शन मनोरंजन एवं ज्ञानवर्द्धन का सबसे लोकप्रिय साधन है। दूरदर्शन अर्थात् टेलीविजन का सर्वप्रथम प्रयोग 25 जनवरी, 1926 को इंग्लैण्ड के एक इंजीनियर जॉन बेयर्ड ने किया था। इसका उत्तरोत्तर विकास होता रहा और अनेक कार्यों में इसकी उपयोगिता भी बढ़ी। हमारे देश में सन् 1959 से दूरदर्शन का प्रसारण प्रारम्भ हुआ और आज यह सारे भारत में प्रसारित हो रहा है।
2. दूरदर्शन का महत्त्व - वर्तमान में समाचार - प्रसारण के लिए दूरदर्शन सबसे लोकप्रिय साधन है। दूरदर्शन पर समाचारों के अतिरिक्त अनेक कार्यक्रम दिखाये जाते हैं। कृषि - दर्शन, व्यापार समाचार, नाटक, सुगम संगीत, खेल - कूद प्रतियोगिताओं का सीधा प्रसारण, शिक्षा - कार्यक्रमों का विस्तार, ज्ञानदर्शन एवं फिल्मों का प्रसारण इत्यादि अनेक कार्यक्रम दूरदर्शन पर दिखाये जाते हैं, विविध उत्पादों के विज्ञापन एवं सूचनाएँ भी प्रसारित होती हैं। इन कार्यक्रमों से मनोरंजन के साथ ही शिक्षा एवं जन - जागरण का प्रसार तथा ज्ञान - वृद्धि भी होती है। इन सभी कारणों से दूरदर्शन का अत्यधिक महत्त्व है।
3. दूरदर्शन विज्ञान का वरदान - सामाजिक जीवन में दूरदर्शन की उपयोगिता को देखकर इसे विज्ञान का वरदान माना जाता है। दूरदर्शन पर विश्व में घटने वाली प्रमुख घटनाओं का प्रसारण, मौसम की जानकारी, बाढ़, भूकम्प, प्राकृतिक दुर्घटना आदि के समाचार तत्काल मिल जाते हैं। वर्तमान में दूरदर्शन के सैकड़ों चैनलों पर अनेक धारावाही कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है। इनसे सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं की सशक्त अभिव्यक्ति हो रही है। इसी प्रकार रोगों के निवारण, जनसंख्या नियन्त्रण तथा कुत्सित कुप्रवृत्तियों को रोकने में भी इसकी काफी उपयोगिता है। महिलाओं को दस्तकारी एवं गृह - उद्योग के सम्बन्ध में इससे जानकारी दी जाती है। शिक्षा के क्षेत्र में तो यह विज्ञान का श्रेष्ठ वरदान है।
4. दूरदर्शन का दुष्प्रभाव - दूरदर्शन से कुछ हानियाँ भी हैं। इससे बच्चे मनोरंजन में अधिक रुचि लेने से पढ़ाई से जी चुराते हैं। टेलीविजन पर धारावाही कार्यक्रमों एवं मारधाड़ वाली फिल्मों के प्रसारण से नवयुवकों पर गलत प्रभाव पड़ रहा है। चोरी, बलात्कार, हिंसा आदि दुष्प्रवृत्तियाँ भी इससे बढ़ रही हैं। इस पर अश्लील विज्ञापनों का प्रसारण होने से पारिवारिक संस्कृति पर बुरा असर पड़ रहा है तथा नवयुवक फैशनपरस्त हो रहे हैं।
इस तरह के दुष्प्रभावों के कारण दूरदर्शन को अभिशाप भी माना जा रहा है। . 5. उपसंहार - आज के युग में मनोरंजन की दृष्टि से दूरदर्शन की विशेष उपयोगिता है। इससे संसार की नवीनतम घटनाओं, समाचारों आदि की जानकारी मिलती है तथा लोगों के ज्ञान का विकास होता है। आर्थिक एवं सामाजिक विकास में इसका महत्त्व सर्वमान्य है, परन्तु इसके कुप्रभावों से युवाओं को मुक्त रखा जावे, यह भी अपेक्षित है।
55. मनोरंजन के आधुनिक साधन
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. मनोरंजन का जीवन में महत्त्व 3. मनोरंजन के साधनों का विकास 4. मनोरंजन के आधुनिक साधन 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - मनोरंजन का अर्थ है, मन को प्रसन्न रखना। जब व्यक्ति किसी काम से ऊब जाता है, अर्थात् उसका मन काम में नहीं लगता है, तब उसे मनोरंजन की आवश्यकता पड़ती है। मनोरंजन के बाद वह थका - हारा व्यक्ति नवीन उत्साह का अनभव करता है और फिर से अपने काम में दुगुने उत्साह से जुट जाता है।
2. मनोरंजन का जीवन में महत्त्व - आज वैज्ञानिक युग में यान्त्रिकता बढ़ गई है और मानव - जीवन अधिकाधिक जटिल, नीरस एवं संघर्षमय बनता जा रहा है। आज हम एक क्षण के लिए भी सन्तोष और विश्राम का अनुभव नहीं कर पाते हैं। इस कारण अब मानव स्वयं को भी एक यन्त्र और हर समय अत्यन्त व्यस्त मानने लगा है। इसलिए आज मानव - जीवन के लिए मनोरंजन का विशेष महत्त्व है। जिस प्रकार शरीर को पुष्ट बनाने के लिए उत्तम भोजन व स्वच्छ जल की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मन के लिए मनोरंजन परम विश्रान्तिदायक माना जाता है।
3. मनोरंजन के साधनों का विकास - प्राचीन काल में भी मनोरंजन की आवश्यकता अनुभव की जाती थी। उस समय लोगों के पास समय की कमी नहीं थी, इस कारण उनके मनोरंजन ऐसे होते थे कि अधिकाधिक समय कट सके। इसलिए उस समय नाटक, मेले - तमाशे एवं महोत्सव ऐसे होते थे, जिनसे कई दिनों और रातों तक मनोरंजन हो जाता था। परन्तु वर्तमान में सभ्यता के विकास और मानव - रुचि के परिवर्तन के साथ मनोरंजन के साधन भी बदल गये हैं।
4. मनोरंजन के आधनिक साधन - वर्तमान समय में मनोरंजन के साधनों के रूप में रेडियो, टेलीविजन, फोटोग्राफी, वीडियो गेम्स, टेपरिकार्डर एवं खेलों का अत्यधिक महत्त्व है। अब टेलीविजन पर विविध धारावाहिक, प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता, विज्ञान अभिरुचि के कार्यक्रम, कृषि - बागवानी से सम्बन्धित प्रसारण, क्रिकेट या हॉकी आदि के मैच, विशिष्ट समारोहों का आँखों देखा प्रसारण एवं समाचार - दर्शन आदि कार्यक्रम आने लगे हैं, जिनसे घर बैठे ही मनोरंजन हो जाता है।
ललित - कला से सम्बन्धित साधन; जैसे मुशायरा, कवि - सम्मेलन, संगीत - नृत्य के कार्यक्रम, हास्य - सम्मेलन आदि से भी आधुनिक समय में अच्छा मनोरंजन हो जाता है। वर्तमान समय में मेले - तमाशे, पर्यटन, साहसिक खेल आदि साधनों से भी मनोरंजन हो जाता है। इनसे व्यावहारिक ज्ञान भी बढ़ता है।
5. उपसंहार - जीवन में अन्य कार्यों की भाँति मनोरंजन का उपयोग भी उचित मात्रा में होना चाहिए। मनोरंजन सदैव स्वस्थ - प्रकृति का होना चाहिए। आधुनिक समय में मनोरंजन के साधनों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। इससे आज के अतिव्यस्त मानव को भी आनन्द मिल सकेगा और उसके जीवन की नीरसता और यान्त्रिकता समाप्त हो जाएगी।
56. कम्प्यूटर शिक्षा - आधुनिक समय की आवश्यकता
अथवा
कम्प्यूटर शिक्षा का महत्त्व
अथवा
कम्प्यूटर शिक्षा की उपयोगिता
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. कम्प्यूटर शिक्षा का प्रसार 3. कम्प्यूटर का विविध क्षेत्रों में उपयोग 4. कम्प्यूटर शिक्षा से लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - अंग्रेजी की 'कम्प्यूट' क्रिया से 'कम्प्यूटर' शब्द बनता है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है, संगणक। या गणनाकार। टेलीविजन के आविष्कार के बाद वैज्ञानिकों ने जटिलतम गणितीय कार्य को ध्यान में रखकर मानव मस्तिष्क रूप में 'कम्प्यूटर' का आविष्कार किया। अब तीव्र प्रोसेसिंग वाले सुपर कम्प्यूटर बन जाने से एक सेकण्ड में . एक करोड़ से अधिक की गणना की जा सकती है। इस कारण गणित - सांख्यिकी की दृष्टि से कम्प्यूटर का आविष्कार आश्चर्यजनक है।
2. कम्प्यूटर शिक्षा का प्रसार - कम्प्यूटर एक ऐसा यन्त्र है जो अत्यधिक तीव्र गति से विद्युत - इलेक्ट्रॉन द्वारा सांख्यिकीय प्रोसेसिंग करता है। इसकी गति की माप माइक्रो सेकण्ड में की जाती है और यह जटिल यांत्रिक संरचना सूक्ष्म तकनीकी सिद्धान्तों पर आधारित है। इसी कारण कम्प्यूटर का आविष्कार होते ही तकनीकी शिक्षा के रूप में कम्प्यूटर शिक्षा का स्वतन्त्र पाठ्यक्रम बनाया गया है तथा इससे विविध भाषाओं में मुद्रण, ध्वनि - सम्प्रेषण, शब्द भण्डारण एवं प्रत्यक्ष - चित्र संयोजन आदि जटिल कार्य भी होने लगे हैं।
3. कम्प्यूटर का विविध क्षेत्रों में उपयोग - कम्प्यूटर - शिक्षा आधुनिक समय की प्राथमिक आवश्यकता बन गयी है। कम्प्यूटर शिक्षा प्राप्त कर चुका व्यक्ति इसका अनेक प्रकारों से उपयोग कर लेता है। वह कम्प्यूटर से टेलीविजन चैनलों के पसन्दीदा प्रसारण देख सकता है, एफएम रेडियो सुन सकता है, एनालॉग वीडियो को डिजिटल वीडियो में बदल सकता है, पसन्दीदा फिल्म की रिकार्डिंग कर सकता है तथा साफ्टवेयर डालकर संगीत - वाद्य आदि का मिश्रण कर सकता है।
इसी प्रकार वीडियो कांफ्रेंसिंग, साक्षात्कार करना, मौसम की पूर्व सूचना देना, समुद्री भयानक ज्वारीय लहरों की भविष्यवाणी करना, दूरसंचार का प्रसार करना, इण्टरनेट, ई - मेल आदि का संचालन करना आदि अनेक क्षेत्रों में कुशलता से इसका उपयोग किया जा रहा है। रेल - हवाई जहाज के टिकटों का वितरण - आरक्षण, दूरसंवेदी उपग्रहों का संचालन, पानी - बिजली - टेलीफोन के लाखों बिलों और परीक्षा - परिणामों का संगठन - प्रतिफलन करने में कम्प्यूटर का उपयोग आज निर्बाध गति से हो रहा है। इस तरह कम्प्यूटर शिक्षा बहु - उपयोगी बन गई है।
4. कम्प्यूटर शिक्षा से लाभ - कम्प्यूटर - शिक्षा की आवश्यकता और उपयोगिता प्रायः सभी क्षेत्रों में दिखाई देती है। जटिलतम प्रश्नों एवं समस्याओं का हल आसानी से हो जाता है। अब व्यावसायिक क्षेत्र की सफलता के लिए कम्प्यूटर का ज्ञान अति आवश्यक बन गया है। इसी से वर्तमान में दूरस्थ शिक्षा तथा ऑन लाइन एजूकेशन के कार्यक्रम . . चल रहे हैं। फलस्वरूप इससे बौद्धिक - शारीरिक श्रम, समय तथा धन आदि की बचत हो रही है। इससे रोजगार के अवसर भी बढ़े हैं। अतः वर्तमान समय में कम्प्यूटर - शिक्षा सब तरह से लाभकारी है।
5. उपसंहार - कम्प्यूटर शिक्षा का वर्तमान में सर्वाधिक महत्त्व है। इसकी सभी क्षेत्रों में उपयोगिता बढ़ रही है। इससे अनेक समस्याओं को सुलझाने में अत्यल्प समय लगता है। वैज्ञानिक युग के इस अर्थ - प्रधान एवं व्यस्ततम जीवन में कम्प्यूटर से प्रत्येक सामान्य शिक्षित व्यक्ति लाभान्वित हो रहा है।
57. नदी जल स्वच्छता अभियान
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. नदी जल प्रदूषण के कारण 3. नदी प्रदूषण के प्रभाव 4. नदी स्वच्छता अभियान 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - जल के प्रमुख स्रोतों में नदियों का महत्त्व सर्वविदित है। परन्तु वर्तमान में नदियों में अनेक कारणों से प्रदूषण फैल रहा है। इसलिए भारत सरकार के जल - संसाधन मंत्रालय द्वारा गंगा तथा अन्य सहायक नदियों के स्वच्छता का अभियान 'नमामि गंगे' नाम से चलाया जा रहा है।
2. नदी जल प्रदूषण के कारण - नदी जल प्रदूषण वास्तव में कोई नई समस्या नहीं है। अनेक तरह के औद्योगिक अपशिष्टों से, नालियों एवं सीवरेज मल - जल से गंगा आदि नदियों का पानी प्रदूषित हो रहा है। पशुओं को नहलाने, कपड़े धोने, विषैले रसायन आदि से भी नदियों में जल दूषित हो रहा है। इसी प्रकार प्लास्टिक थैले और वस्तुएँ, ठोस अपशिष्ट और फूल - मालाओं का नदियों में नियमित अपवहन प्रदूषण का दूसरा कारण है। जलाशयों के पास खुले स्थानों पर कई प्रकार के धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन करने वाले लोग भी नदियों का प्रदूषण बढ़ाते हैं।
3. नदी प्रदूषण के प्रभाव - नदियों में होने वाला प्रदूषण पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के साथ मानव तथा अन्य जीवों के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है। यह मनुष्यों में स्वास्थ्य सम्बन्धी कई समस्याओं और विकारों को बढ़ावा देता है। नदी में होने वाला प्रदूषण जलीय जीवों के जीवन को भी प्रभावित करता है, इससे मछलियों की वृद्धि और विकास पर भी काफी बुरा प्रभाव पड़ता है और बड़े पैमाने पर इनकी मृत्यु हो जाती है। लम्बे समय तक लगातार चलने वाले नदी प्रदूषण से जैव विविधता को नुकसान हो सकता है और कुछ प्रजातियों को विलुप्त और पूरी तरह से पारिस्थितिक तन्त्र को बाधित कर सकता है।
4. नदी स्वच्छता अभियान - नदी प्रदूषण को रोकने के लिए जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए। यह कार्यक्रम उन लोगों के लिए होना चाहिए, जो प्रदूषण का कारण नहीं जानते हैं। नदी प्रदूषण की रोकथाम हेतु सबसे आवश्यक बात यह है कि हमें नदी प्रदूषण को बढ़ावा देने वाली प्रक्रियाओं पर ही रोक लगा देनी चाहिए। इसके तहत किसी भी प्रकार का अपशिष्ट पदार्थ नदियों में मिलने न दिया जाए। नदियों के आसपास गन्दगी करने, उनमें नहाने, कपड़े धोने आदि पर भी रोकथाम लगानी चाहिए। नदियों में पशुओं को नहलाने पर भी पाबन्दी होनी चाहिए। उद्योगों को सैद्धान्तिक रूप से नदियों के निकट स्थापित नहीं होने देना चाहिए।
5. उपसंहार - हमारे देश में लोग नदियों की पूजा देवी और देवताओं के रूप में करते हैं। लेकिन क्या विडम्बना है कि नदियों के प्रति हमारा गहन सम्मान और श्रद्धा होने के बावजूद हम उसकी पवित्रता, स्वच्छता और भौतिक कल्याण बनाए रखने में सक्षम नहीं हैं। अतः हमें नदी स्वच्छता अभियान का प्रचार कर इन्हें प्रदूषण से मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए।
58. राजस्थान में बढ़ता जल - संकट
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. जल - संकट की स्थिति 3. जल - संकट के कारण 4. संकट के समाधान हेतु सुझाव 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - इस दृष्टि में पृथ्वी के बाद जल तत्त्व का महत्त्व सर्वाधिक माना जाता है। मंगल आदि अन्य ग्रहों में जल के अभाव से ही जीवन एवं वनस्पतियों का विकास नहीं हो पाया है - ऐसा नवीनतम खोजों से स्पष्ट हो गया है। धरती पर ऐसे कई भू - भाग हैं जहां पर जलाभाव से रेगिस्तान का प्रसार हो रहा है तथा प्राणियों को कष्ट यापन करना पड़ता है। राजस्थान प्रदेश का अधिकतर भू - भाग जल - संकट से सदा ग्रस्त रहता है। मौसमी वर्षा न होने पर यह संकट और भी बढ़ जाता है।
2. जल - संकट की स्थिति - राजस्थान में प्राचीन काल में सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी, जो अब धरती के गर्भ में विलुप्त हो गई। यहाँ पर अन्य कोई ऐसी नदी नहीं बहती है, जिससे जल - संकट का निवारण हो सके। चम्बल एवं माही आदि नदियाँ राजस्थान के दक्षिणी - पूर्वी कुछ भाग को ही हरा - भरा रखती हैं। इसकी पश्चिमोत्तर भूमि तो एकदम निर्जल है।
इसी कारण यहाँ पर रेगिस्तान का उत्तरोत्तर विस्तार हो रहा है। भूगर्भ में जो जल है, वह भी काफी नीचे है। पंजाब से श्रीगंगानगर जिले में से होकर इन्दिरा गाँधी नहर के द्वारा जो जल राजस्थान के पश्चिमोत्तर भाग में पहुँचाया जा रहा है, उसकी स्थिति भी सन्तोषप्रद नहीं है। इस कारण यहाँ जल - संकट की स्थिति सदा ही बनी रहती है।
3. जल - संकट के कारण - राजस्थान में पहले ही शुष्क मरुस्थलीय भू - भाग होने से जलाभाव है, फिर उत्तरोत्तर आबादी बढ़ रही है। शहरों एवं बड़ी औद्योगिक इकाइयों में भूगर्भीय जल का दोहन बड़ी मात्रा में हो रहा है। खनिज सम्पदा यथा संगमरमर, ग्रेनाइट, इमारती पत्थर, चूना पत्थर आदि के विदोहन से भी धरती का जल स्तर गिरता जा रहा है। दूसरी ओर वर्षा काल में सारा पानी बाढ के रूप में बह जाता है।
शहरों में कंकरीट - डामर आदि के निर्माण कार्यों से धरती के अन्दर वर्षा का पानी नहीं जा पाता है। पिछले कुछ वर्षों से राजस्थान में वर्षा भी अत्यल्प मात्रा में हो रही है। इस कारण बाँधों, झीलों, कुओं, तालाबों - पोखरों में भी पानी समाप्त हो गया है। इन सब कारणों से यहाँ पर जल संकट गहराता जा रहा है।
4. संकट के समाधान हेतु सुझाव - राजस्थान में बढ़ते हुए जल - संकट के समाधान के लिए ये उपाय किये . . जा सकते हैं -
5. उपसंहार - "रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून" अर्थात् पानी के बिना जन - जीवन अनेक आशंकाओं से घिरा रहता है। सरकार को तथा समाज - सेवी संस्थाओं को विविध स्रोतों से सहायता लेकर राजस्थान में जल - संकट के निवारणार्थ प्रयास करने चाहिए। ऐसा करने से ही यहाँ की धरा मंगलमय बन सकती है।
59. पर्यावरण प्रदूषण
अथवा .
बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण : एक समस्या
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. पर्यावरण प्रदूषण का कुप्रभाव 3. प्रदूषण - निवारण के उपाय 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - आज भारत ही नहीं, सारा संसार पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से आक्रान्त है। वर्तमान में पानी, हवा, रेत - मिट्टी आदि के साथ - साथ पेड़ - पौधे, खेती एवं जीव - जन्तु आदि सभी पर्यावरण प्रदूषण से प्रभावित हैं। बड़े छोटे कारखानों से निकलने वाले अपशिष्टों, परमाणु संयंत्रों से बढ़ने वाली रेडियोधर्मिता, शहरों - कस्बों से मल - जल के निकास से तथा यातायात के यांत्रिक साधनों के कारण सारा वातावरण दूषित हो रहा है। गैस, धुआँ, धुंध, कर्णकटु ध्वनि आदि तरीकों से हर तरह का प्रदूषण देखने को मिल रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रतिवर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस भी मनाया जाता है, परन्तु पर्यावरण प्रदूषण कम नहीं हो रहा है।
2. पर्यावरण प्रदूषण का कुप्रभाव - जनसंख्या की अप्रत्याशित वृद्धि होने, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण के कारण हरे - भरे खेतों - वनों को उजाड़ देने, भूमिगत जलवायु को प्रदूषित करने तथा प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन होने से पर्यावरण में निरन्तर प्रदूषण बढ़ रहा है।
इससे मानव के साथ ही वन्य - जीवों के स्वास्थ्य है, जैविक विकास की क्रिया बाधित हो रही है, आनुवंशिक दुष्प्रभाव पड़ रहा है तथा बाढ़ व भू - स्खलन आदि की वृद्धि भी हो रही है। राजस्थान में इसी कारण रेगिस्तान बढ़ रहा है। पर्यावरण प्रदूषण का सबसे अधिक कुप्रभाव मानव सभ्यता पर पड़ रहा है जो कि आगे चलकर इसके विनाश का कारण हो सकता हैं। धरती के तापमान की वृद्धि तथा असमय ऋतु - परिवर्तन होने से प्राकृतिक वातावरण नष्ट होता जा रहा है।
3. प्रदूषण - निवारण के उपाय - विश्व स्वास्थ्य संगठन प्रदूषण रोकने के अनेक उपाय कर रहा है। भारत सरकार द्वारा प्रदूषण - निवारण के लिए ये प्रयास किये जा रहे हैं -
4. उपसंहार - हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए सरकार द्वारा अनेक कदम उठाये जा रहे हैं। देश में पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित पाठ्यक्रम भी प्रारम्भ किया गया है। बड़े उद्योगों को प्रदूषण रोकने के उपाय अपनाने के लिए कहा जा रहा है। सीवरेज ट्रीटमेन्ट प्लाण्ट लगाये जा रहे हैं। साथ ही वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। इन सब उपायों से पर्यावरण में सन्तुलन रखने का प्रयास किया जा रहा है।
60. पर्यावरण संरक्षण परमावश्यक.
अथवा
पर्यावरण संरक्षण में विद्यार्थियों का दायित्व
अथवा
पर्यावरण संरक्षण और युवा
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. पर्यावरण संरक्षण की समस्या 3. पर्यावरण संरक्षण का महत्त्व 4. पर्यावरण संरक्षण के उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - 'पर्यावरण' शब्द परि + आवरण के संयोग से बना है। 'परि' का आशय चारों ओर तथा 'आवरण' का आशय परिवेश है। वास्तव में पर्यावरण में वायु, जल, भूमि, पेड़ - पौधे, जीव - जन्तु, मानव और इनकी विविध गतिविधियों के परिणाम आदि सभी का समावेश होता है। भूमि, जल एवं वायु आदि तत्त्वों में जब कुछ विकृति आ जाती है अथवा इनका आपस में सन्तुलन गड़बड़ा जाता है, तब पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है।
2. पर्यावरण संरक्षण की समस्या - धरती पर जनसंख्या की निरन्तर वृद्धि, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण की तीव्र गति से जहाँ प्रकृति के हरे - भरे क्षेत्रों को समाप्त किया जा रहा है, वहाँ ईंधन - चालित यातायात वाहनों, प्राकृतिक संसाधनों के विदोहनों और आणविक ऊर्जा के प्रयोगों से सारा प्राकृतिक सन्तुलन डगमगाता जा रहा है। भूमि, जल, वायु, भूमण्डल तथा समस्त प्राणियों का जीवन पर्यावरण प्रदूषण से ग्रस्त हो रहा है। ऐसे में पर्यावरण का संरक्षण करना विकट समस्या बन गया है।
3. पर्यावरण संरक्षण का महत्त्व - पर्यावरण संरक्षण का समस्त प्राणियों के जीवन तथा इस धरती के समस्त प्राकृतिक परिवेश से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ब्राजील में विश्व के 174 देशों का 'पृथ्वी सम्मेलन' आयोजित किया गया। वस्तुतः पर्यावरण के संरक्षण से ही धरती पर जीवन सुरक्षित रह सकता है, अन्यथा मंगल आदि ग्रहों की तरह धरती का जीवन - चक्र भी एक दिन समाप्त हो जायेगा।
4. पर्यावरण संरक्षण के उपाय - पर्यावरण संरक्षण के लिए इसे प्रदूषित करने वाले कारणों पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। युवा - वर्ग, विशेष रूप से विद्यार्थी वृक्षारोपण करें, पर्यावरण की शुद्धता के लिए जन - जागरण के काम करें। विषैले अपशिष्ट छोड़ने वाले उद्योगों का और प्लास्टिक कचरे का विरोध करें। वे जल - स्रोतों की शुद्धता का अभियान चलावें। पर्यावरण संरक्षण के लिए हरीतिमा का विस्तार, नदियों आदि की स्वच्छता, गैसीय पदार्थों का उचित विसर्जन, गन्दे जल - मल का परिशोधन, कारखानों के अपशिष्टों का उचित निस्तारण और गलत खनन पर रोक आदि अनेक उपाय किये जा सकते हैं। ऐसें कारगर उपायों से ही पर्यावरण को प्रदषण से मक्त रखा जा सकता है।
5. उपसंहार - पर्यावरण संरक्षण किसी एक व्यक्ति या एक देश का काम न होकर समस्त विश्व के लोगों का कर्तव्य है। पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले सभी कारणों को अतिशीघ्र रोका जावे। युवा - वर्ग द्वारा वृक्षारोपण व जलवायु स्वच्छीकरण हेतु जन - जागरण का अभियान चलाया जावे, तभी पर्यावरण सुरक्षित रह सकता है।
61. निरक्षरता : एक अभिशाप।
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. निरक्षरता का दुष्प्रभाव 3. निरक्षरता निवारण अभियान 4. निरक्षरता निवारण के लिए सुझाव 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - मानव - समाज में जो व्यक्ति अक्षरज्ञान तथा बौद्धिक विकास से रहित होता है, उसे निरक्षर कहते हैं। इसका आशय यह है कि वह व्यक्ति पढ़ा - लिखा नहीं होता हैं और उसके लिए 'काला अक्षर भैंस बराबर' कहावत चरितार्थ होती है। ऐसे व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का उचित विकास नहीं कर पाते हैं। साथ ही वे सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास में भी उचित सहयोग नहीं दे पाते हैं। इसीलिए निरक्षरता को व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अभिशाप कहा गया है।
2. निरक्षरता का दुष्प्रभाव - हमारे देश में पराधीनता के काल में शिक्षण - सुविधाओं का नितान्त अभाव था। निरक्षरता के कारण उस समय बंधुआ - मजदूर, जमींदारी शोषण - उत्पीड़न, आर्थिक विषमता, अन्धविश्वास एवं रूढ़ियों .. की अधिकता थी। देश का गुलामी से जकड़े रहना भी इसी कारण था। वर्तमान में स्त्रियों, अनुसूचित जातियों, आदिवासियों आदि में निरक्षरता का प्रतिशत अधिक है। राजस्थान की जनसंख्या के हिसाब से यहाँ ए क - तिहाई लोग निरक्षर हैं तथा यहाँ निरक्षरता के अनेक दुष्प्रभाव दिखाई देते हैं।
3. निरक्षरता निवारण अभियान - स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकारी स्तर पर निरक्षरता दूर करने के प्रयास किये जाते रहे। इस दृष्टि से शिक्षण संस्थाओं का विस्तार किया गया तथा राष्ट्रीय स्तर पर प्रौढ़ शिक्षा की नीति घोषित की गई। इस नीति के अनुसार अनेक स्तरों पर साक्षरता कार्यक्रम चलाये जाने लगे। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक विद्यालय खोले गये तथा प्राथमिक शिक्षा का खूब प्रसार किया गया। गाँवों में बेरोजगार शिक्षित युवकों को पंचायत स्तर पर साक्षरता अभियान में लगाया गया और समाज कल्याण विभाग के सहयोग से साक्षरता अभियान को आगे बढ़ाया गया। अब सर्वशिक्षा अभियान के द्वारा साक्षरता का प्रतिशत बढ़ने लगा है। ..
4. निरक्षरता निवारण के लिए सुझाव - हमारे देश से निरक्षरता का कलंक तभी मिट सकता है, जब सारे देश में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी जावे और बालकों को अशिक्षित रखना कानूनी अपराध माना जावे। इसके लिए जगह जगह पर विद्यालय खोले जावें और गरीब जनता के बालकों को हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध करायी जावें। सरकार भी इस दिशा में अधिक से अधिक धन व्यय करने का प्रावधान रखे। वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित सर्वशिक्षा अभियान को अधिक प्रभावशाली बनाया जावे और इसके लिए प्रचार - साधनों का पूरा उपयोग किया जावे।
5. उपसंहार - निरक्षरता समाज में अज्ञान और अन्धकार का प्रतीक है। जो समाज और राष्ट्र निरक्षर नागरिकों से
राष्ट्र संब प्रकार से उन्नत माना जाता है। निरक्षरता मानव - समाज पर एक कलंक है, यह मानवता के लिए एक अभिशाप है। इस अभिशाप से मुक्ति आवश्यक है और यह कार्य साक्षरता के आलोक से ही हो सकता है।
62. कटते जंगल : घटता मंगल
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. पर्यावरण के रक्षक : वन 3. कटते जंगल : एक समस्या 4. कटते वनों की रोकथाम के प्रयास 5. समाधान एवं उपाय 6. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - मानव के जीवन को मंगलमय एवं स्वस्थ बनाये रखने के लिए केवल धन और भोजन ही पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिए शुद्ध वातावरण अर्थात् स्वास्थ्यवर्धक भौगोलिक परिवेश भी अपेक्षित है। परन्तु वर्तमान काल में मानव के कल्याण की बात तो हर कोई करता है, लेकिन उसके आधारभूत प्राकृतिक साधन वनों का विनाश रोकने का प्रयास कोई नहीं करता है। पेड़ - पौधों के महत्त्व को कभी भी कमतर नहीं आंका जा सकता, क्योंकि ये हमारे जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं।
2. पर्यावरण के रक्षक : वन - पर्यावरण की रक्षा करने वाले अर्थात् पर्यावरण को शुद्ध रखने वाले प्राकृतिक साधनों में हरियाली, वृक्षावली तथा वनों का विशेष महत्त्व है। वन विभिन्न प्राकृतिक क्रियाओं के द्वारा पर्यावरण की रक्षा करते हैं, अशुद्ध वायु को शुद्ध कर उसे स्वास्थ्य के अनुकूल बनाते हैं। वृक्षों की पत्तियाँ वातावरण में अशुद्ध वायु अर्थात् कार्बन डाइ - ऑक्साइड को ग्रहण कर ऑक्सीजन का उदवमन करती हैं। वनों के आकर्षण से बादल जल बरसाते हैं और धरती उपजाऊ बन जाती है। इस प्रकार वन तथा वृक्षावली पर्यावरण के रक्षक माने जाते हैं।
3. कटते जंगल : एक समस्या - वर्तमान में जनसंख्या वृद्धि के कारण जंगल तीव्र गति से कट रहे हैं। लोगों के आवास - योग्य मकानों के लिए, ईंधन, इमारती लकड़ी, फर्नीचर, उद्योग - धन्धों की जरूरतों के लिए वनों को काटा जा रहा है। उद्योगों की स्थापना तथा सड़कों के निर्माण में वनों की भूमि का विदोहन तीव्र गति से हुआ है। मकानों के लिए पत्थर, लकड़ी आदि की पूर्ति के लिए वन उजाड़े गये हैं। इन सभी कारणों से आज कटते जंगल पर्यावरण के लिए एक भारी समस्या बन गये हैं।
4. कटते वनों की रोकथाम के प्रयास - वर्तमान में कुछ सामाजिक संगठन, पर्यावरण प्रदूषण निवारक संस्था तथा कुछ सरकारी विभाग वनों की सुरक्षा एवं वृक्षारोपण का अभियान चला रहे हैं। उत्तराखण्ड में 'चिपको आन्दोलन', कर्नाटक में 'अप्पिको आन्दोलन के द्वारा वनों की कटाई का विरोध किया जा रहा है। राजस्थान में विश्नोई समाज ने वृक्षों की कटाई के विरोध में कई बलिदान दिये हैं। देश के अन्य राज्यों में भी 'वृक्ष - मित्र - सेना' द्वारा वनों की कटाई का विरोध हो रहा है। वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय द्वारा कठोर कानून बनाकर वनों की कटाई रोकी जा रही है।
5. समाधान एवं उपाय - कटते जंगलों की सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा अनेक कानूनी उपाय किये जा सकते हैं। सामाजिक संगठन 'चिपको आन्दोलन' की तरह अपने - अपने क्षेत्र में आन्दोलन चलाकर जन - जागरण के द्वारा वनों के . विनाश को रोक सकते हैं। सरकार इस सम्बन्ध में कठोर दण्ड - व्यवस्था प्रारम्भ करे और वृक्षारोपण को प्राथमिकता देकर पर्यावरण की स्वच्छता पर पूरा ध्यान दे। इस प्रकार के अन्य उपाय करने से धरती को वृक्षावलियों से हरा - भरा रखा जा सकता है।
6. उपसंहार - वर्तमान में वनों की अन्धाधुन्ध कटाई होने से पर्यावरण प्रदूषण का भयानक रूप उभर रहा है। इस दिशा में कुछ मानवतावादी चिन्तकों एवं पर्यावरणविद् वैज्ञानिकों का ध्यान गया है। उन्होंने कटते जंगल और घटते मंगल को एक ज्वलन्त समस्या मानकर इसके निवारण के सुझाव भी दिये हैं।
63. वर्तमान समस्याएँ एवं निराकरण में युवाओं का योगदान
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. वर्तमान समस्याएँ 3. समस्याओं से हानि 4. समस्याओं के निराकरण में युवाओं का योगदान 5. उपसंहार। ..
1. प्रस्तावना - प्रत्येक देश तथा समाज की अपनी - अपनी समस्याएँ होती हैं। कुछ समस्याएँ कुछ काल बाद स्वतः समाप्त हो जाती हैं, तो कुछ का निराकरण करने का प्रयास करने पर भी हल नहीं होती हैं। समस्याएँ जितनी
अधिक होती हैं, उनसे देश एवं समाज उतना ही अधिक दबा रहता है और प्रगति का मार्ग रुक - सा जाता है।
2. वर्तमान समस्याएँ - हमारे देश में स्वतन्त्रता - प्राप्ति के साथ ही अनेक समस्याएँ उभरीं। छुआछूत, अशिक्षा, दहेज - प्रथा, जनसंख्या वृद्धि, शोषण - उत्पीड़न, बेरोजगारी, अन्धविश्वास, आर्थिक विषमता आदि अनेक समस्याओं से हमारा देश आक्रान्त है, परन्तु वर्तमान में कुछ समस्याएँ अधिक विकराल रूप धारण कर रही हैं। ऐसी समस्याएँ हैं भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई - वृद्धि, जनसंख्या वृद्धि, आर्थिक विषमता, स्वार्थपरता आदि।
आज शासन - तन्त्र से लेकर सामान्य जन - जीवन में भ्रष्टाचार चरम सीमा पर फैल गया है। बेरोजगारी बढ़ने से युवा - शक्ति अपराधों में प्रवृत्त हो रही है। जनसंख्या - वृद्धि भी एक ज्वलन्त समस्या है, जिससे सुख - सुविधाओं की कमी पड़ रही है। कालाबाजारी, राहजनी, चोरी, धोखेबाजी आदि ऐसी बुरी प्रवृत्तियाँ लगातार बढ़ रही हैं जिनसे आज सारा सामाजिक परिवेश आक्रान्त है।।
3. समस्याओं से हानि - इन सभी समस्याओं से आज सारा वातावरण दूषित हो गया है। लोगों का आपस विश्वास उठने लगा है। हर कोई स्वार्थ साधने की खातिर दूसरों का अहित कर रहा है। मनुष्य अपना मनोरथ सिद्ध करने के लिए मानवीय मूल्यों को भी भूलता जा रहा है और भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि समस्याओं में लिप्त होकर संवेदना रहित हो रहा है। शोषण एवं उत्पीड़न बढ़ रहा है। नशाखोरी, फैशनपरस्ती एवं अनैतिकता का खूब प्रसार हो रहा है। इन सब बुराइयों से आज हमारा सामाजिक एवं राष्ट्रीय अस्तित्व खतरे में दिखाई दे रहा है।
4. समस्याओं के निराकरण में युवाओं का योगदान - वर्तमान काल की समस्याओं के समाधान में युवा - शक्ति अनेक प्रकार से योगदान कर सकती है। युवा - वर्ग बेरोजगारी दूर करने के लिए स्वावलम्बी कार्य कर सकते हैं। वे भ्रष्टाचार करने वालों का विरोध कर जनता का मनोबल उठा सकते हैं। महंगाई पर नियन्त्रण के लिए वे कालाबाजारी एवं कुशासन को समाप्त करने में आगे आ सकते हैं। आशय यह है कि युवा - वर्ग में यदि कुछ करने का जुनून पैदा हो जाये, तो सभी समस्याओं का निराकरण हो सकता है।
5. उपसंहार - वर्तमान में अनेक समस्याओं से सामाजिक जीवन में अशान्ति व्याप्त है। एक लोकतन्त्रात्मक राष्ट्र . में ऐसी समस्याओं का समाधान करने में युवाओं का विशेष योगदान रह सकता है। वे ही जन - जागरण के द्वारा युवा शक्ति को सामाजिक उन्नयन की चेतना से मण्डित कर सकते हैं।
64. शिक्षित नारी : सुख - समृद्धिकारी
अथवा
नारी - शिक्षा का महत्त्व
अथवा
नारी सशक्तीकरण
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. शिक्षित नारी का समाज में स्थान 3. शिक्षित नारी आदर्श गृहिणी 4. शिक्षा और स्त्री - सशक्तीकरण 5. उपसंहार।।
1. प्रस्तावना - हमारे समाज में पुरुष की अपेक्षा नारी को कम महत्त्व दिया जाता है, इस कारण पुरुष को शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर पर्याप्त मिलता है, परन्तु नारी परिवार की परिधि में कभी कन्या, कभी नववधू या पत्नी, कभी माता आदि रूपों में जकड़ी रहती है और उसकी शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है। प्राचीन काल एवं मध्य काल में नारी - शिक्षा की पर्याप्त सुविधाएँ नहीं थीं, परन्तु स्वतन्त्रता - प्राप्ति के बाद सरकार नारी - शिक्षा पर ध्यान दे रही है, फिर भी अभी शिक्षित नारियों का प्रतिशत बहुत ही कम है।
2. शिक्षित नारी का समाज में स्थान - शिक्षित नारी अपने बौद्धिक विकास और भौतिक व्यक्तित्व का निर्माण करने में सक्षम रहती है। गृहिणी के रूप में वह अपने घर - परिवार का संचालन कुशलता से कर सकती है। वह अपनी सन्तान को वीरता, त्याग, उदारता, कर्मठता, सदाचार, अनुशासन आदि के ढाँचे में आसानी से ढाल सकती है। सुशिक्षित नारी माँ के रूप में श्रेष्ठ गुरु, पत्नी के रूप में आदर्श गृहिणी, बहिन के रूप में स्नेही मित्र और मार्गदर्शिका होती है। यदि नारी शिक्षित है तो वह समाज - सेविका, वकील, डॉक्टर, प्रशासनिक अधिकारी, सलाहकार और उद्यमी आदि किसी भी रूप में सामाजिक दायित्व का निर्वाह कर सकती है तथा अपने समाज व देश का अभ्युदय करने में अतीव . कल्याणकारिणी और सहयोगिनी बन सकती है।
3. शिक्षित नारी आदर्श गृहिणी - प्रत्येक आदर्श गृहिणी के लिए सुशिक्षित होना परम आवश्यक है। शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति को कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य एवं अच्छे - बुरे का ज्ञान होता है। गुणों और अवगुणों की पहचान भी इसी से होती है। गृहस्थी का भार वहन करने के लिए सुशिक्षित गृहिणी अधिक सक्षम रहती है। वह परिवार की प्रतिष्ठा का ध्यान रखती है, अन्धविश्वासों और ढोंगों से मुक्त रहती है तथा हर प्रकार से और हर उपाय से अपनी गृहस्थी को सुख समृद्धशाली बनाने की चेष्टा करती है।
4. शिक्षा और स्त्री - सशक्तीकरण - शिक्षित नारियों से समाज और देश का गौरव बढ़ता है। परन्तु वर्तमान में नारियों के अधिकारों का हनन हो रहा है, उनके साथ समानता का व्यवहार नहीं किया जाता है तथा अनेक तरह से शोषण - उत्पीड़न किया जाता है। ऐसे में शिक्षित नारी अपने अधिकारों की रक्षा कर सकती है। समाज का हित भी स्त्री - सशक्तीकरण से ही हो सकता है। इसके लिए स्त्री - शिक्षा की तथा जन - जागरण की जरूरत है। वस्तुतः शिक्षित एवं सशक्त नारी ही घर - परिवार में सन्तुलन बनाये रख सकती है। देश की प्रगति के लिए नारी - सशक्तीकरण जरूरी
5. उपसंहार - शिक्षा प्राप्त करके नारी अपने व्यक्तित्व का निर्माण तथा घर - परिवार में सुख का संचार करती है। शिक्षित नारी आदर्श गृहिणी, आदर्श माता, आदर्श बहिन और आदर्श सेविका बनकर देश के कल्याण के लिए श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण करती है। इसी कारण 'शिक्षित नारी : सुख - समृद्धिकारी' कहा गया है।
65. विद्यार्थी जीवन में नैतिक शिक्षा की उपयोगिता
अथवा
नैतिक शिक्षा का महत्त्व
अथवा
नैतिक शिक्षा की महती आवश्यकता
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. नैतिक शिक्षा का स्वरूप 3. नैतिक शिक्षा का समायोजन 4. नैतिक शिक्षा की उपयोगिता 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - प्रत्येक राष्ट्र की सामाजिक एवं सांस्कृतिक उन्नति वहाँ की शिक्षा पद्धति पर निर्भर करती है। हमारे देश में स्वतन्त्रता के बाद शिक्षा - क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है और वर्तमान में शिक्षा का गुणात्मक एवं संख्यात्मक प्रसार हो रहा है। परन्तु यहाँ नैतिक शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है। इससे भारतीय युवा पीढ़ी संस्कारहीन
और कोरी भौतिकतावादी बन रही है।
2. नैतिक शिक्षा का स्वरूप - प्राचीन भारत में वर्णाश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत चारित्रिक उत्कर्ष के लिए नैतिक शिक्षा पर बल दिया जाता था। उस समय विद्यार्थियों में नैतिक आदर्शों को अपनाने की होड़ लगी रहती थी। लेकिन अब शिक्षा का स्वरूप चरित्र - निर्माण, नैतिक एवं मानवीय मूल्यों पर आधारित न होकर केवल धनार्जन बन गया है। विशेषतया नैतिक शिक्षा के ह्रास से अब ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, परोपकार, समाज - सेवा, उदारता, सद्भावना, मानवीय संवेदना तथा उदात्त आचरण आदि का लोप हो गया है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर अब प्रारम्भिक - माध्यमिक शिक्षा - स्तर पर नैतिक शिक्षा का समावेश किया जाने लगा है
3. नैतिक शिक्षा का समायोजन - भारतीय संस्कृति के उपासक लोगों ने वर्तमान शिक्षा पद्धति के गुण - दोषों का चिन्तन कर नैतिक शिक्षा के प्रसार का समर्थन किया। फलस्वरूप विद्यार्थियों के लिए नैतिक शिक्षा का स्तरानसार समायोजन किया जाने लगा है। प्राचीन नीति - शिक्षा से सम्बन्धित आख्यानों, कथाओं एवं ऐतिहासिक महापुरुषों के चरित्रों आदि को आधार बनाकर नैतिक शिक्षा की पाठ्य - सामग्री तैयार की गयी है। वस्तुतः विद्यार्थी जीवन आचरण की पाठशाला है। अतः विद्यर्थियों के चारित्रिक विकास को ध्यान में रखकर अब नैतिक शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है।
4. नैतिक शिक्षा की उपयोगिता - नैतिक शिक्षा की उपयोगिता व्यक्ति, समाज और राष्ट्र इन सभी के लिए है। विद्यार्थी जीवन में तो नैतिक शिक्षा का विशेष महत्त्व और उपयोगिता है। नैतिक शिक्षा के द्वारा ही विद्यार्थी अपने चरित्र एवं व्यक्तित्व का सुन्दर निर्माण कर अपना भविष्य उज्ज्वल, गरिमामय बना सकता है तथा देश में उच्च आदर्शों, श्रेष्ठ परम्पराओं एवं नैतिक मूल्यों की स्थापना कर सकता है। अतएव प्रशस्य जीवन - निर्माण के लिए नैतिक शिक्षा की विशेष उपयोगिता है।
5. उपसंहार - नैतिक शिक्षा मानव - व्यक्तित्व के उत्कर्ष का, संस्कारित जीवन तथा समस्त समाज - हित का प्रमुख साधन है। इससे भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, प्रमाद, लोलुपता, छल - कपट तथा असहिष्णुता आदि दोषों का निवारण होता है। ना. का विकास भी इसी से सम्भव है। जीवन का विकास उदात्त एवं उच्च आदर्शों से होता रहे. इसके लिए नैतिक शिक्षा का प्रसार अपेक्षित है। अतएव विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए।
66. मेरी प्रिय पुस्तक
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. प्रिय होने का आधार 3. पुस्तक का संदेश 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना - हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण मैंने अनेक कवियों के कालजयी ग्रंथ पढ़े हैं। किन्तु उन सबमें मुझे जो सर्वाधिक प्रभावित करता है, उस अमर ग्रंथ का नाम है - 'रामचरितमानस'। यह गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित एक श्रेष्ठतम महाकाव्य अवधी भाषा में दोहा - चौपाई छन्द में लिखा गया है। इस ग्रंथ में अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र श्रीराम का जीवन चरित वर्णित है।
2. प्रिय होने का आधार - रामचरितमानस में मार्मिक स्थलों का वर्णन तल्लीनता से हुआ है। राम - वनवास, दशरथ - मरण, सीता - हरण, लक्ष्मण - मूर्छा, भरत - मिलन आदि के प्रसंग दिल को छूने वाले हैं। रामचरितमानस जहाँ भारत के समस्त वाङ्गमय का सार है, वहाँ आदर्शों का भण्डार है। यह साहित्य और धर्म दोनों क्षेत्रों में अपना महत्त्व रखता है। इस कथा में आदर्श पिता दशरथ हैं तो राम - लक्ष्मण, भरत - शत्रुघ्न जैसे आदर्श पुत्र हैं।
यदि सीता जैसी आदर्श पत्नी है, तो राम जैसे एक पत्नीव्रत के पालक आदर्श पति हैं। राम - लक्ष्मण जैसे भाई हैं। भरत जैसा भाई तो अन्यत्र खोजने पर भी नहीं मिलेगा। हनुमान जैसा आदर्श सेवक, सुग्रीव व विभीषण जैसे मित्र और कहाँ मिलेंगे। रावण जैसा शत्रु भी यहाँ आदर्श से च्युत नहीं होता। वह श्रीराम से शत्रुता अवश्य करता है लेकिन वह सीता को अशोक वाटिका में ससम्मान रखता है। इसके साथ ही इस ग्रंथ में भारत की अखण्डता का प्रतिपादन किया गया है।
रामचरितमानस भाव व कला पक्ष की दृष्टि से भी अनुपम ग्रन्थ है। यह भक्ति का भी अनुपम ग्रंथ है। संभवतः संसार के किसी भी ग्रंथ का इतना पठन - पाठन नहीं होता जितना रामचरितमानस का होता है। इस कारण अनेक विशेषताओं के कारण यह ग्रन्थ मुझे सर्वाधिक प्रिय है।
3. पुस्तक का संदेश - यह पुस्तक केवल धार्मिक महत्त्व की नहीं है। इसमें मानव को प्रेरणा देने की असीम शक्ति है। इसमें राजा - प्रजा, स्वामी, दास, मित्र, पति - पत्नी, स्त्री - पुरुष सभी को अपना जीवन उज्ज्वल बनाने की शिक्षा दी गई है। इतना ही नहीं तुलसीदास ने प्रायः जीवन के सभी पन्नों पर सूक्तियाँ लिखी हैं। उनके इन अनमोल वचनों के कारण यह पुस्तक अमरता को प्राप्त हो गई है। .
4. उपसंहार - तुलसीदास द्वारा रचित अमर ग्रंथ 'रामचरितमानस' के महत्त्व को देश के ही नहीं विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। एक विद्वान के अनुसार - "रामचरितमानस उत्तरी भारत का सबसे लोकप्रिय ग्रंथ है और इसने जीवन के समस्त क्षेत्रों में उच्चाशयता लाने में सफलता पाई है।" इतना ही नहीं इसके महत्त्व के संबंध में माता प्रसाद गुप्त ने कहा है - "रामचरितमानस ने समस्त उत्तरी भारत पर सदियों से अपना प्रभाव डाल रखा है। और यहाँ के आध्यात्मिक जीवन का निर्माण किया है।"