RBSE Class 12 Hindi Anivarya अपठित बोध अपठित गद्यांश

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi Anivarya अपठित बोध अपठित गद्यांश Questions and Answers, Notes Pdf.

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RBSE Class 12 Hindi Anivarya अपठित बोध अपठित गद्यांश

अपठित गद्यांश :

निम्नलिखित अपठित गद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए। 

1. देश की सर्वांगीण उन्नति एवं विकास के लिए देशवासियों में स्वदेश-प्रेम का होना परमावश्यक है। जिस देश के नागरिकों में देशहित एवं राष्ट्र-कल्याण की भावना रहती है, वह देश उन्नतिशील होता है। देश-प्रेम के पूत भाव से मण्डित व्यक्ति देशवासियों की हित-साधना में, देशोद्धार में तथा राष्ट्रीय प्रगति में अपना जीवन तक न्यौछावर कर देता है। 

हम अपने देश के इतिहास पर दृष्टिपात करें, तो ऐसे देश-भक्तों की लम्बी परम्परा मिलती है, जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण करके स्वदेश-प्रेम का अद्भुत परिचय दिया है। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, सरदार भगतसिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी आदि सहस्रों देश-भक्तों के नाम इस दृष्टि से लिए जाते हैं। हमें अपने देश के इतिहास से देश-प्रेम की एक गौरवपूर्ण परम्परा मिलती है और इससे हम देश हितार्थ सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।। 

प्रश्न : 
(अ) लेखक के अनुसार कौन-सा देश उन्नतिशील होता है? 
(ब) "हमें अपने देश के इतिहास से देश-प्रेम की एक गौरवपूर्ण परम्परा मिलती है और इससे हम देशहितार्थ सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।" यह किस प्रकार का वाक्य है, बताते हुए परिभाषा भी लिखें। 
(स) हमें अपने देश के इतिहास से क्या प्रेरणा मिलती है? 
(द) 'सर्वांगीण' का विलोम लिखिए। 
(य) 'स्वदेश' शब्द में मूल शब्द व उपसर्ग बताइए। 
(र) अपठित गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर :  
(अ) लेखक के अनुसार वह देश उन्नतिशील होता है, जिसके नागरिकों में देशप्रेम और देशहित की भावना रहती है। 
(ब) यह संयुक्त वाक्य है जिसमें एक से अधिक उपवाक्य किसी संयोजक शब्द से जुड़े हो, प्रत्येक उपवाक्य अपना पूर्ण अर्थ रखते हों, वह संयुक्त वाक्य है। 
(स) हमें अपने देश के इतिहास से देश-हितार्थ सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा मिलती है। 
(द) 'सर्वांगीण' का विलोम अपूर्ण है। 
(य) स्वदेश-स्व उपसर्ग + देश मूल शब्द। 
(र) शीर्षक-देशप्रेम का महत्त्व या स्वदेश-प्रेम। 

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2. गाँधीजी के अनुसार शिक्षा शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का विकास करने का माध्यम है। वे 'बुनियादी शिक्षा' के पक्षधर थे। उनके अनुसार प्रत्येक बच्चे को अपनी मातृभाषा की निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा मिलनी चाहिए जो उसके आस-पास की जिन्दगी पर आधारित हो; हस्तकला एवं काम के जरिए दी जाए; रोजगार दिलाने के लिए बच्चे को आत्मनिर्भर बनाए तथा नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करने वाली हो। 

गाँधीजी के उक्त विचारों से स्पष्ट है कि वे व्यक्ति और समाज के सम्पूर्ण जीवन पर अपनी मौलिक दृष्टि रखते थे तथा उन्होंने अपने जीवन में सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेकर भारतीय समाज एवं राजनीति में इन मूल्यों को स्थापित करने की कोशिश की। गाँधीजी की सारी सोच भारतीय परम्परा की सोच है तथा उनके दिखाए मार्ग को अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति और सम्पूर्ण राष्ट्र वास्तविक स्वतन्त्रता, सामाजिक सद्भाव एवं सामुदायिक विकास को प्राप्त कर सकता है। भारतीय समाज जब-जब भटकेगा तब-तब गाँधीजी उसका मार्गदर्शन करने में सक्षम रहेंगे। 

प्रश्न : 
(अ) गाँधीजी के अनुसार प्रत्येक बच्चे को किस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए? 
(ब) गाँधीजी के दिखाए मार्ग को अपनाकर व्यक्ति क्या प्राप्त कर सकता है? 
(स) बुनियादी शिक्षा क्या है? 
(द) 'गाँधीजी के उक्त विचारों से स्पष्ट है कि वे व्यक्ति और समाज के सम्पूर्ण जीवन पर अपनी मौलिक दृष्टि रखते थे...' यह किस प्रकार का वाक्य है। बताते हुए परिभाषा भी लिखें। 
(य)'सामाजिक' शब्द में मूल शब्द व प्रत्यय बताइए। 
(र) अपठित गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) गाँधीजी के अनुसार प्रत्येक बच्चे को अपनी मातृभाषा की निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा मिलनी चाहिए। जिससे उनके शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का विकास हो सकें। 
(ब) गाँधीजी के दिखाए मार्ग को अपनाकर प्रत्येक व्यक्ति और सम्पूर्ण राष्ट्र वास्तविक स्वतन्त्रता, सामाजिक सद्भाव एवं सामुदायिक विकास को प्राप्त कर सकता है। 
(स) बुनियादी शिक्षा उच्च शिक्षा को कहते हैं जिसमें किसी भी बालक को अपने जीवन यापन करने के लिए। जितनी न्यूनतम शिक्षा की आवश्यकता हो वह उसे दे दी जाए। 
(द) यह मिश्र वाक्य है। इसमें गाँधीजी के विचारों से स्पष्ट है' मुख्य उपवाक्य है तथा उस पर आश्रित 'वे व्यक्ति और समाज... रखते थे' संज्ञा उपवाक्य है, जो 'कि' अव्यय से जुड़ा हुआ है। 
(य) सामाजिक समाज (मूल शब्द) + इक (प्रत्यय)। 
(र) शीर्षक-गाँधीजी और बुनियादी शिक्षा अथवा - गाँधीजी के मौलिक विचार। 

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3. धर्म का वास्तविक गुण तब प्रकट होता है जब हम जीवन का सत्य जानने के लिए और इस दुनिया की दया और क्षमा योग्य वस्तुओं में वृद्धि के लिए निरन्तर खोज करते हैं और सतत अनुसंधान करते हैं। अनुसंधान या खोज की लगन और उन उद्देश्यों का विस्तार जिन्हें हम प्रेम अर्पण करते हैं, ये वास्तविक रूप में आध्यात्मिक मनुष्य के दो पक्ष होते हैं। हमें सत्य की खोज तब तक करते रहना चाहिए जब तक हम उसे पा न लें और उससे हमारा साक्षात्कार न हो। जो कुछ भी हो, हर मनुष्य में वही तत्त्व मौजूद है, अतः वह हमारे प्यार और हमारी सद्भावना का अधिकारी है। समाज और सारी सभ्यता केवल इस बात का प्रयास है कि मनुष्य आपस में सद्भाव के साथ रह सकें। हम इस प्रयास को तब तक बनाए रखते हैं। जब तक सारी दुनिया हमारा अपना परिवार न बन जाए। 

प्रश्न : 
(अ) धर्म का वास्तविक गुण कब प्रकट होता है? 
(ब) आध्यात्मिक मनुष्य के दो पक्ष कौन-से हैं? 
(स) हर मनुष्य में कौन सा तत्त्व मौजूद है? 
(द) मनुष्यों को आपस में सद्भाव का प्रयास कब तक करते रहना चाहिए? 
(य) गद्यांश का शीर्षक लिखिए। 
(र) सद्भावना का विलोम बताइए। 
उत्तर :  
(अ) जब हम जीवन-सत्य एवं विश्व की दया-क्षमा योग्य वस्तुओं की खोज करते हैं, इसमें स्वयं को सप्रेम लगा देते हैं, तब धर्म का वास्तविक गुण प्रकट होता है।
(ब) आध्यात्मिक मनुष्य के ये दो पक्ष होते हैं - जीवन-सत्य की खोज में निरन्तर लगे रहना और सृष्टि-प्रक्रिया के सत्यान्वेषण के उद्देश्यों के लिए स्वयं को अर्पित करना। 
(स) हर मनुष्य में धर्म का वास्तविक गुण तथा सत्य का साक्षात्कार होने तक अनुसन्धान करने का तत्त्व मौजूद रहता है। 
(द) मनुष्यों को आपस में सद्भाव रखने का प्रयास तब तक करते रहना चाहिए, जब तक सारा विश्व हमारा अपना परिवार न बन जाए। 
(य) शीर्षक 'धर्म की सार्थकता'। 
(र) 'सद्भावना' का विलोम दुर्भावना है। 

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4. आज देश स्वतन्त्र है। हमें अपनी शक्ति की वृद्धि करनी है, जिससे हमारी स्वतन्त्रता की रक्षा हो सके। आये दिन ऐसे संकट हमें चुनौती देते रहते हैं, जिनसे निपटने के लिए एक शक्तिशाली सेना की आवश्यकता है। यदि विद्यालयों में ही देश-सेवा की यह भावना दृढ़ हो जाये तो भविष्य के लिए बड़ी तैयारी हो सकेगी। प्राचीन काल में आश्रमों में वेद-शास्त्रों के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी जाती थी। सैनिक शिक्षा से शारीरिक-शक्ति के साथ मानवीय गुणों का भी विकास होता है। सेवा, तत्परता, परिश्रमशीलता एवं निर्भयता आदि गुण इस दशा में अपने आप आ जाते हैं। 

प्रश्न : 
(अ) हमें अपनी शक्ति की वृद्धि क्यों करनी चाहिए? 
(ब) सैनिक शिक्षा का क्या महत्त्व है? 
(स) प्राचीनकाल में आश्रमों में वेदशास्त्रों के साथ कौनसी शिक्षा दी जाती थी? 
(द) "आज देश स्वतन्त्र है"-यह किस प्रकार का वाक्य है? 
(य) 'शारीरिक' शब्द में मूल शब्द का प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) अपने देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए हमें अपनी शक्ति की वृद्धि करनी चाहिए। बाहरी एवं भीतरी शत्रुओं के दमन के लिए भी यह जरूरी है। 
(ब) सैनिक शिक्षा से शारीरिक-शक्ति के साथ मानवीय गुणों का भी विकास होता है। 
(स) प्राचीनकाल में आश्रमों में वेदशास्त्रों के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी जाती थी। 
(द) "आज देश स्वतन्त्र है"_यह साधारण वाक्य है। 
(य) शारीरिक-मूल शब्द शरीर + प्रत्यय इक। 
(र) शीर्षक-सैनिक शिक्षा का महत्त्व या सैनिक शिक्षा की आवश्यकता। 

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5. मानव जीवन का सर्वतोमुखी विकास ही शिक्षा का उद्देश्य है। मनुष्य के व्यक्तित्व में अनेक प्रकार की शक्तियाँ अन्तर्निहित रहती हैं, शिक्षा इन्हीं शक्तियों का उद्घाटन करती है। मानवीय व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करने का कार्य शिक्षा द्वारा ही सम्पन्न होता है। सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक मानव ने जो प्रगति की है, उसका सर्वाधिक श्रेय मनुष्य की ज्ञान-चेतना को ही दिया जा सकता है। मनुष्य में ज्ञान-चेतना का उदय शिक्षा द्वारा ही होता है। बिना शिक्षा के मनुष्य का जीवन पशु-तुल्य होता है। शिक्षा ही अज्ञान रूपी अंधकार से मुक्ति दिलाकर ज्ञान का दिव्य आलोक प्रदान करती है। विद्या मनुष्य को अज्ञान के बंधन से मुक्त करती है। 

प्रश्न : 
(अ) शिक्षा का उद्देश्य किसे बताया गया है और क्यों? 
(ब) "विद्या मनुष्य को अज्ञान के बंधन से मुक्त करती है।" यह किस प्रकार का वाक्य है? प्रकार बताते 
हुए परिभाषा भी लिखें। 
(स) मनुष्यं में ज्ञान-चेतना का उदय किसके द्वारा होता है? 
(द) 'अन्तर्निहित' शब्द में सन्धि विच्छेद कीजिए और सन्धि का नाम लिखिए। 
(य) 'मानवीय' शब्द में मूल शब्द व प्रत्यय बताइए। 
(र) अपठित गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :
(अ) शिक्षा का उद्देश्य मानव-जीवन का सर्वतोमुखी विकास बताया गया है, क्योंकि इससे मानवीय व्यक्तित्व में अनेक शक्तियों का उद्घाटन होकर उसे पूर्णता प्राप्त होती है। 
(ब) यह साधारण वाक्य है। जिस वाक्य में केवल एक ही उद्देश्य और एक ही विधेय होता है, वह साधारण वाक्य माना जाता है। 
(स) मनुष्य में ज्ञान चेतना का उदय शिक्षा द्वारा ही होता है। 
(द) शब्द-अन्तर्निहित। सन्धि विच्छेद = अन्तः + निहित। सन्धि का नाम-विसर्ग सन्धि । 
(य) मानवीय-मानव मूल शब्द + ईय प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-शिक्षा का उद्देश्य या शिक्षा का महत्त्व।

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6. मनुष्य का जीवन इतना विशाल है कि उसके आचरण को रूप देने के लिए नाना प्रकार के ऊँच-नीच और भले-बुरे विचार, अमीरी और गरीबी, उन्नति और अवनति इत्यादि सहायता पहुँचाते हैं। पवित्र-अपवित्रता उतनी ही बलवती है, जितनी कि पवित्र पवित्रता। जो कुछ जगत् में हो रहा है वह केवल आचरण के विकास के अर्थ हो रहा है। अन्तरात्मा वही काम करती है जो बाह्य पदार्थों के संयोग का प्रतिबिम्ब होता है। जिनको हम पवित्रात्मा कहते हैं, क्य पता है, किन-किन कूपों से निकलकर वे अब उदय को प्राप्त हुए है! जिनको हम धर्मात्मा कहते हैं, क्या पता है, किन-किन अधर्मों को करके वे धर्म-ज्ञान को पा सके हैं! जिनको हम सभ्य कहते हैं, क्या पता कि वे पहले कितना अपवित्र आचरण करते रहे हों। 

प्रश्न : 
(अ) जीवन को पवित्र आचरण में ढालने के लिए क्या करना पड़ता है? 
(ब)"जो कुछ जगत् में हो रहा है, वह आचरण के विकास के अर्थ हो रहा है।" यह किस प्रकार का वाक्य है? परिभाषा भी लिखिए। 
(स) पवित्रता' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइये। 
(द) गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) व्यक्ति को नाना प्रकार के ऊँच-नीच और अच्छे-बुरे कार्यों का अनुभव लेना पड़ता है तथा विविध प्रकार के लोगों के जीवन से शिक्षा लेनी पड़ती है
(ब) यह मिश्र वाक्य है। जिस वाक्य में एक मुख्य उपवाक्य और उसके आश्रित एक या एक से अधिक उपवाक्य होते हैं, वह मिश्र वाक्य कहलाता है। 
(स) पवित्रता-मूल शब्द पवित्र + ता प्रत्यय। 
(द) शीर्षक आचरण की पवित्रता या आचरण की सभ्यता। 

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7. नगरीकरण की प्रवृत्ति सारे विश्व में काम कर रही है। नगरीकरण की यह दिशा स्पष्टतः छोटे समुदायों की समाप्ति की दिशा है। भारत में भी शहरों की जनसंख्या अभी प्रतिवर्ष पैंतीस लाख के हिसाब से बढ़ रही है। भले ही मनुष्य के पास तर्क एवं बुद्धि है और वह अपने जीवन को अपनी इच्छा के अनुसार व्यवस्थित कर सकता है। विज्ञान में ऐसा कुछ निहित नहीं है जो मनुष्य को विशाल, विकटाकार बस्तियों में अव्यवस्थित रूप से रहने के लिए बाध्य करता हो। 

वर्तमान नगरोन्मुख प्रवृत्ति के कुछ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारण हैं। वे शाश्वत नहीं हैं और उन्हें प्रबुद्ध मानवीय प्रयत्न से परिवर्तित किया जा सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि गाँव आज जैसा है, वैसा ही यदि रहता है तो नगरीकरण की प्रवत्ति रोकी नहीं जा सकती। लेकिन यदि मानव समाज का निर्माण छोटे प्राथमिक समदायों के आधार पर आज के गाँवों को ऐसी बस्तियों के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है जो हर दृष्टि से आकर्षक होंगी और तब सामान्यतः कोई भी उन्हें छोड़ना नहीं चाहेगा। 

प्रश्न : 
(अ) वर्तमान में नगरीकरण की प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है? 
(ब) नगरीकरण की प्रवृत्ति को हम कैसे रोक सकते हैं? 
(स) प्रतिवर्ष शहरों में जनसंख्या बढ़ने का क्या कारण है?
(द) "भले ही मनुष्य के पास तर्क एवं बुद्धि है और वह अपने जीवन को अपनी इच्छा के अनुसार - व्यवस्थित कर सकता है।" यह किस प्रकार का वाक्य है? इसकी परिभाषा भी लिखिए। 
(य) 'मानवीय' शब्द में मल शब्द और प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) वर्तमान में नगरों में भौतिक सुख-सुविधा, रोजगार-व्यवसाय, शिक्षा-सुविधा प्राप्त होने तथा अन्य अनेक कारणों से नगरीकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है। 
(ब) नगरीकरण की प्रवृत्ति को हम गाँवों का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक विकास और हर दृष्टि से गाँवों को आकर्षक बनाकर रोक सकते हैं। 
(स) नगरीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्रतिवर्ष शहरों में जनसंख्या बढ़ रही है। 
(द) यह संयुक्त वाक्य है। जिस वाक्य में एक से अधिक साधारण या मिश्र वाक्य हों और वे किसी संयोजक अव्यय से जुड़े हों, वह संयुक्त वाक्य कहलाता है। 
(य) मानवीय मूल शब्द मानव + ईय प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-नगरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति। 

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8. जब हम भारतीय साहित्य की एकता की चर्चा करते हैं तब हमारा आशय भारतवर्ष की भिन्न-भिन्न भाषाओं की साहित्य समाश्रयता से होता है। यदि हम आज की हिन्दी, बंगला, मराठी, गुजराती अथवा दक्षिणी भाषाओं के साहित्य को देखें, तो उनमें थोड़ा-बहुत अन्तर भी दिखेगा। परन्तु सार रूप में प्रवृत्तियाँ प्रायः एक-सी ही पाई जाती हैं। विभिन्न प्रदेशों और जनपदों की सांस्कृतिक विशेषताओं की छाप इन साहित्यों में प्राप्त होती है, जो स्वाभाविक है। 

साहित्य के विविध रूपों में से किसी भाषा में किसी रूप की विशिष्टता भी मिलती है। उदाहरण के लिए आज के मराठी साहित्य में नाटकों की स्थिति अपेक्षाकृत अधिक अच्छी है, वैयक्तिक निबन्ध भी उनके यहाँ अधिक परिणाम में लिखे जा रहे हैं। यह उनकी प्रासंगिक विशेषता है। इसी प्रकार वैभिन्य के भीतर एक मूलभूत एकता है, जिसे हम भारतीय साहित्य की एकता कह सकते हैं।

प्रश्न :
(अ) भारतीय साहित्य की एकता का विस्तृत आशय क्या है? 
(ब) मराठी साहित्य की क्या प्रासंगिकता है? 
(स) भारतीय साहित्य की क्या विशेषता है? 
(द) "यह उनकी प्रासंगिक विशेषता है।" यह किस प्रकार का वाक्य है? 
(य) 'समाश्रयता' शब्द में मूलं शब्द, उपसर्ग एवं प्रत्यय बताइए।
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। . 
उत्तर :
(अ) भारतीय साहित्य की एकता का आशय यहाँ की विभिन्न भाषाओं के साहित्य की एकता एवं उनमें प्रचलित समान प्रवृत्तियों से है। 
(ब) मराठी साहित्य में नाटक और वैयक्तिक निबन्ध की अधिकता ही प्रासंगिक विशेषता है।
(स) वैभिन्य के भीतर एक मूलभूत एकता का होना भारतीय साहित्य की विशेषता है। 
(द) "यह उनकी प्रासंगिक विशेषता है।" यह साधारण वाक्य है।
(य) समाश्रयता-सम् + आ उपसगे + श्रय शब्द + ता प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-भारतीय साहित्य की एकता। 

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9. उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है। परन्तु जब तक आनन्द का लगाव किसी क्रिया, व्यापार या उसकी भावना के साथ नहीं दिखाई पड़ता तब तक उसे 'उत्साह' की संज्ञा प्राप्त नहीं होती। यदि किसी प्रिय मित्र के आने का समाचार प्राप्त कर हम चुपचाप ज्यों-के-त्यों आनन्दित होकर बैठे रह जायें या थोड़ा हँस भी दें तो यह हमारा उत्साह नहीं कहा जायेगा। 

हमारा उत्साह तभी कहा जायेगा जब हम अपने मित्र का आगमन सुनते ही आते-जाते दिखाई देंगे। प्रयत्न और कर्म संकल्प उत्साह नामक आनन्द के नित्य लक्षण हैं। प्रत्येक कर्म में थोड़ा या बहुत बुद्धि का योग भी रहता है। कुछ कर्मों में तो बुद्धि की तत्परता और शरीर की तत्परता दोनों बराबर साथ-साथ चलती हैं। उत्साह की उमंग जिस प्रकार हाथ-पैर चलवाती है उसी प्रकार बुद्धि से भी काम कराती है। 

प्रश्न : 
(अ) उत्साह की संज्ञा किसे नहीं दी जाती है?  
(ब) उत्साह नामक आनन्द के नित्य लक्षण क्या है? 
(स) आगमन का विपरीतार्थक शब्द बताइए। 
(द) "उत्साह की उमंग जिस प्रकार हाथ-पैर चलवाती है, उसी प्रकार बुद्धि से भी काम कराती है।" इसे संयुक्त वाक्य में बदलिये। 
(य) आनन्दित' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :
(अ) जब तक आनन्द का लगाव किसी व्यापार, क्रिया या उसकी भावना के साथ नहीं दिखाई पड़ता है, तब तक उसे 'उत्साह' की संज्ञा नहीं दी जाती है। 
(ब) प्रयत्न और कर्म संकल्प उत्साह नामक आनन्द के नित्य लक्षण है। 
(स) आगमन का विपरीतार्थक शब्द 'प्रस्थान है। 
(द) उत्साह की उमंग हाथ-पैर चलवाती है तथा उसी प्रकार वह बुद्धि से भी काम कराती है। 
(य) आनन्दित - आनन्द का मूल शब्द + इत प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-उत्साह का स्वरूप। 

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10. भीष्म ने कभी बचपन में पिता की गलत आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए भीषण प्रतिज्ञा की थी - वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे। अर्थात् इस सम्भावना को ही नष्ट कर देंगे कि उनके पुत्र होगा और वह या उसकी सन्तान कुरुवंश के सिंहासन पर दावा करेगी। प्रतिज्ञा सचमुच भीषण थी। कहते हैं कि इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही वह देवव्रत से 'भीष्म' बने। यद्यपि चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य तक तो कौरव रक्त रह गया था तथापि बाद में वास्तविक कौरव रक्त समाप्त हो गया, केवल कानूनी कौरव वंश चलता रहा! जीवन के अन्तिम दिनों में इतिहास मर्मज्ञ भीष्म को यह बात क्या खली नहीं होगी? उन्हें अगर यह बात नहीं खली तो और भी बुरा हुआ। पर भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के शब्दों से चिपटे ही रहे। 

प्रश्न :
(अ) भीष्म ने विवाह न करने की प्रतिज्ञा क्यों की थी? 
(ब) भीष्म का देवव्रत से 'भीम' नाम क्यों पड़ा? 
(स) 'मर्मज्ञ' शब्द का मतलब क्या है? 
(द) "यद्यपि चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य तक तो कौरव रक्त रह गया था तथापि बाद में वास्तविक कौरव रक्त समाप्त हो गया।" इसे साधारण वाक्य में लिखिए। 
(य) 'वास्तविक' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) भीष्म ने अपने पिता महाराज शान्तनु की गलत आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए आजीवन विवाह न करने की प्रतिज्ञा की थी। 
(ब) आजीवन विवाह न करने की भीषण की प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम देवव्रत से 'भीष्म' पड़ा। 
(स) किसी बात का गूढ़ रहस्य जानने वाला अर्थात् किसी ग्रन्थ या सिद्धान्त का गूढ़ अर्थ जानने वाला मर्मज्ञ होता है। 
(द) चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य तक कौरव रक्त रहने के बाद वास्तविक कौरव रक्त समाप्त हो गया। 
(य) वास्तविक-वास्तव मूल शब्द + इक प्रत्यय।
(र) शीर्षक-भीष्म की भीषण प्रतिज्ञा। 

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11. भारतवर्ष बहुत बड़ा देश है। इसका इतिहास बहुत पुराना है। इस इतिहास का जितना अंश जाना जा सकता है, उसकी अपेक्षा जितना नहीं जाना जा सकता, वह और भी पुराना और महत्त्वपूर्ण है। न जाने किस अज्ञात काल से माना जातियाँ आ-आकर इस देश में बसती रही हैं और इसकी साधना को नाना भाव से मोड़ती रही हैं, नया रूप देती रही हैं और समृद्ध करती रही हैं। 

इस देश का सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य आर्यों का है। इन्हीं आर्यों के धर्म और विश्वास नाना अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में बनते-बदलते अब तक इस देश की अधिकांश जनता के निजी धर्म और विश्वास बने हुए हैं। परन्तु आर्यों का साहित्य कितना भी पुराना और विशाल क्यों न हो, भारतवर्ष के समूचे जन-समूह के विकास के अध्ययन के लिए न तो पर्याप्त ही है और न अतिसंवादी ही। 

प्रश्न : 
(अ) आर्यों का साहित्य किसके लिए पर्याप्त नहीं है? 
(ब) भारतवर्ष का सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य कौनसा है? 
(स) 'समृद्ध' शब्द का विपरीत शब्द क्या है? 
(द) "नाना जातियाँ आ-आकर इस देश में बसती रही हैं।" इस वाक्य को संयुक्त वाक्य में बदलिये। 
(य) 'अतिसंवादी' शब्द में मूल शब्द, प्रत्यय और उपसर्ग बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) आर्यों का साहित्य भारत के समूचे जन-समूह के विकास के अध्ययन के लिए पर्याप्त नहीं है। 
(ब) भारतवर्ष का सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य आर्यों का है। 
(स) 'समृद्ध' शब्द का विपरीत शब्द दीन है। 
(द) नाना जातियाँ आती रहीं और इस देश में बसती रही हैं। 
(य) अतिसंवादी-अति + सम् उपसर्ग + वाद मूल शब्द + ई प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-आर्यों के साहित्य की न्यूनता।

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12. भारत में विभिन्न जातियों के पारस्परिक सम्पर्क में आने से संस्कृति की समस्या कुछ जटिल हो गयी। पुराने जमाने में द्रविड़ और आर्य-संस्कृति का समन्वय बहुत उत्तम रीति से हो गया था। तत्पश्चात् मुस्लिम और अंग्रेजी संस्कृतियों का मेल हुआ। हम इन संस्कृतियों से अछूते नहीं रह सकते। इन संस्कृतियों में से हम कितना छोड़ें, यह हमारे सामने बड़ी समस्या है। अपनी भारतीय संस्कृति को तिलांजलि देकर इनको अपनाना आत्महत्या होगी। 

भारतीय संस्कृति की समन्वय-शीलता यहाँ भी अपेक्षित है किन्तु समन्वय में अपना न खो बैठना चाहिए। दूसरी संस्कृतियों के जो अंग हमारी संस्कृति में अविरोध रूप में अपनाये जा सकें उनके द्वारा अपनी संस्कृति को सम्पन्न बनाना आपत्तिजनक नहीं। अपनी संस्कृति चाहे अच्छी हो या बुरी, चाहे दूसरों की संस्कृति से मेल खाती हो या न खाती हो, उससे लजित होने की कोई बात नहीं। 

प्रश्न : 
(अ) भारतीय संस्कृति की समन्वयशीलता कहाँ दिखाई देती है? 
(ब) भारतीय संस्कृति के समन्वय में किस बात का ध्यान रखना चाहिए?  
(स) भारतीय संस्कृति की समस्या कब जटिल हो गयी? 
(द) "इन संस्कृतियों में से हम कितना छोड़ें, यह हमारे सामने बड़ी समस्या है।" यह किस प्रकार का वाक्य है? 
(य) 'पारस्परिक' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) भारत में प्राचीन काल में द्रविड़ और आर्य संस्कृति का समन्वय हुआ, फिर मुस्लिम और अंग्रेज संस्कृतियों से भारतीय संस्कृति ने आदान-प्रदान किया।
(ब) भारतीय संस्कृति में समन्वयशीलता अपेक्षित है किन्तु समन्वय में अपना न खो बैठना चाहिए, इस बात का ध्यान रखना चाहिए।
(स) भारत में विभिन्न जातियों के पारस्परिक सम्पर्क में आने से भारतीय संस्कृति की समस्या जटिल हो गयी। 
(द) यह (संज्ञा उपवाक्य पर आश्रित) मिश्र वाक्य है। 
(य) पारस्परिक-परस्पर मूल शब्द + इक प्रत्यय 
(र) शीर्षक-भारतीय संस्कृति का महत्त्व या 'भारतीय संस्कृति का समन्वय'। 

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13. तुलसी हमारे जातीय जन-जागरण के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी कविता की आधारशिला जनता की एकता है। मिथिला से लेकर अवध और ब्रज तक चार सौ साल से तुलसी की सरस वाणी नगरों और गाँवों में गूंजती है। साम्राज्यवादी, सामन्ती अवशेष और बड़े पूँजीपतियों के शोषण से हिन्दी-भाषी जनता को मुक्त करके उसकी जातीय संस्कृति को विकसित करना है। 

हमारे जातीय संगठन के मार्ग में साम्प्रदायिकता, ऊँच-नीच के भेद-भाव, नारी के प्रति सामन्ती शासक का रुख आदि अनेक बाधाएँ हैं। तुलसी का साहित्य हमें इनसे संघर्ष करना सिखाता है। तुलसी का मूल सन्देश है, मानव-प्रेम। मानव-प्रेम को सक्रिय रूप देना, सहानुभूति को व्यवहार में परिणत करके जनता के मुक्ति-संघर्ष में योग देना हमारा कर्त्तव्य है। 

प्रश्न : 
(अ) तुलसी-साहित्य से हमें क्या शिक्षा लेनी चाहिए? 
(ब) तुलसीदास जी के अनुसार जातीय संगठन के मार्ग में कौनसी बाधाएँ हैं? 
(स) तुलसी ने मनुष्य का क्या कर्त्तव्य बताया है? 
(द) "तुलसी का साहित्य हमें इनसे संघर्ष करना सिखाता है।" यह किस प्रकार का वाक्य है? 
(य) 'साम्प्रदायिकता' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) तुलसी-साहित्य से हमें जन-जागरण और मानव-प्रेम की शिक्षा लेनी चाहिए। साथ ही उससे हमें गम्भीर मानव-सहानुभूति और उच्च विचारों की प्रेरणा लेनी चाहिए। 
(ब) तुलसीदास जी के अनुसार हमारे जातीय संगठन के मार्ग में साम्प्रदायिकता, ऊँच-नीच के भेदभाव, नारी के प्रति सामन्ती शासक का रूख आदि अनेक बाधाएँ हैं। 
(स) मानव प्रेम को सक्रिय रूप देना, सहानुभूति को व्यवहार में परिणत करके जनता के मुक्ति-संघर्ष में योग देना हमारा कर्तव्य है। 
(द) यह साधारण वाक्य है। 
(य) साम्प्रदायिकता - सम्प्रदाय मूल शब्द + इक व ता प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-तुलसी-साहित्य का महत्त्व। 

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14. जातीय जीवन, उसकी संस्कृति तथा भूमिगत सीमाबद्ध परिवेश ये सब सम्मिलित रूप से राष्ट्रीयता के उपकरण होते हैं। ये समष्टि रूप से ही आवश्यक उपकरण हैं, व्यष्टि रूप से नहीं। राष्ट्रीयता ही राष्ट्रीय भावना की पोषक होती है। हिन्दी-साहित्य-कोश में राष्ट्रीयता के सम्बन्ध में लिखा है "राष्ट्रीय साहित्य के अन्तर्गत वह समस्त साहित्य लिया जा सकता है जो किसी देश की जातीय विशेषताओं का परिचायक है।" 

वैसे भूमि (देश), उस भूमि पर बसने वाले जन और उनकी संस्कृति, ये तीनों ही सम्मिलित भावना रूप में राष्ट्रीयता के परिचायक हैं। राष्ट्रीयता 'राष्ट्र' शब्द से निर्मित है। इस राष्ट्रीयता शब्द का सामान्य अर्थ है, राष्ट्र के प्रति निष्ठा रखने की भावना। राष्ट्रीयता नेशनेलिटी का हिन्दी रूप है। एनसाइक्लोपीडिया में 'नेशनेलिटी' के बारे में लिखा है कि "राष्ट्रीयता मन की वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति की सर्वोपरि कर्तव्यनिष्ठा राष्ट्र के प्रति अनुभव की जाती है।" 

प्रश्न : 
(अ) राष्ट्रीयता से क्या आशय लिया जाता है? 
(ब) एनसाइक्लोपीडिया के अनुसार राष्ट्रीयता क्या है? 
(स) राष्ट्रीयता के उपकरण क्या है? 
(द) "ये समष्टि रूप से ही आवश्यक उपकरण हैं, व्यष्टि रूप से नहीं।" इस वाक्य को संयुक्त वाक्य में बदलिए। 
(य) 'राष्ट्रीयता' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) राष्ट्रीयता से प्रायः राष्ट्र के प्रति निष्ठा एवं प्रेम रखने की भावना का आशय लिया जाता है। 
(ब) एनसाइक्लोपीडिया के अनुसार राष्ट्रीयता मन की वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति की सर्वोपरि कर्तव्यनिष्ठा राष्ट्र के प्रति अनुभव की जाती है। 
(स) जातीय जीवन, उसकी संस्कृति तथा भूमिगत सीमाबद्ध परिवेश ये सब राष्ट्रीयता के उपकरण हैं। 
(द) ये समष्टि रूप से ही आवश्यक उपकरण हैं, परन्तु व्यष्टि रूप से नहीं। 
(य) राष्ट्रीयता-मूल शब्द राष्ट्र + ईय व ता प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-राष्ट्रीयता का महत्त्व। 

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15. सृष्टि के आदि काल से नर-नारी का पारस्परिक सम्बन्ध रहा है। नारी के द्वारा ही सृष्टि का क्रम चलता है, वह पुरुष की प्रेरणा है। भारतीय संस्कृति की पावन परम्परा में नारी को सदैव सम्माननीय स्थान प्राप्त हुआ है। यज्ञादि धार्मिक आयोजनों एवं सामाजिक मांगलिक पुनीत अवसरों पर नारी की उपस्थिति अनिवार्य घोषित की गई है। हिन्दू धर्मशास्त्र के प्रणेता महर्षि मनु का कथन है-"जहाँ नारियों को पूजा जाता है, वहाँ देवतागण निवास करते हैं।" 

मानव-जाति के विकास में नारी का पद परुष के पद से कहीं अधिक श्रेष्ठ है। नारी प्रेम, दया, त्याग व श्रद्धा की प्रतिमूर्ति है और ये आदर्श मानव-जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी का हर रूप वन्दनीय है चाहे वह माँ का हो, बहिन का हो या पत्नी का नारी की महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

प्रश्न : 
(अ) भारतीय संस्कृति में नारी की महत्ता बताइये। 
(ब) महर्षि मनु ने नारी के बारे में क्या बताया है? 
(स) 'महर्षि' शब्द का सन्धि विच्छेद करते हुए सन्धि का नाम बताइए।
(द) "नारी के द्वारा ही सृष्टि का क्रम चलता है, वह पुरुष की प्रेरणा है।" इसे संयुक्त वाक्य में बदलिए। 
(य) 'सम्माननीय' शब्द में मूल शब्द, उपसर्ग और प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) भारतीय संस्कृति में नारी को प्रेम, दया, त्याग व श्रद्धा की प्रतिमूर्ति माना गया है। धर्मशास्त्र में कहा गया 
है कि जहाँ नारियों को पूजा जाता है, वहाँ देवता निवास करते हैं।
(ब) महर्षि मनु ने बताया कि "जहाँ नारियों को पूजा जाता है, वहाँ देवतागण निवास करते हैं।" 
(स) महर्षि में सन्धि विच्छेद–महा + ऋषि, सन्धि का नाम-गुण सन्धि। 
(द) नारी के द्वारा ही सृष्टि का क्रम चलता है और वह पुरुष की प्रेरणा है।
(य) सम्माननीय-सम् उपसर्ग + मान मूल शब्द + अनीय प्रत्यय 
(र) शीर्षक-भारतीय संस्कृति में नारी या नारी की भूमिका। 

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16. किसी देश-भक्त कवि का उद्घोष है, "हृदय नहीं वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।" स्पष्ट है कि स्वदेश-प्रेम ऐसा पवित्र भाव है जिसकी व्यंजना देश-भक्तों के चरित्र में उत्कट रूप में होती है। देखा जाये तो स्वदेश-प्रेम मनुष्य का न केवल स्वाभाविक गुण है, अपितु वह एक प्राथमिक कर्त्तव्य भी है। 

इस कर्त्तव्य की पूर्ति देश के लिए अपना तन, मन, धन सभी समर्पित करने पर भी नहीं होती है। महान्-से-महान् त्याग करके भी व्यक्ति जननी और जन्मभूमि के ऋण से उऋण नहीं हो सकता; क्योंकि व्यक्ति को जो सर्वस्व प्राप्त होता हैं, जननी एवं जन्मभूमि द्वारा ही उसे प्रदत्त है। उसका प्रतिदान करके मनुष्य देश के प्रति समर्पित रहने की भावना व्यक्त करता है। देश-भक्ति के लिए वस्तुतः यह समपेण-भाव महत्त्वपूर्ण है। 

प्रश्न : 
(अ) स्वदेश-प्रेम की उत्कट व्यंजना किनके द्वारा होती है? 
(ब) मनुष्य का प्राथमिक कर्त्तव्य क्या है? 
(स) मनुष्य किसके ऋण से उऋण नहीं हो सकता है। 
(द) किसी देश-भक्त कवि का उद्घोष है, "हृदय नहीं वह पत्थर है"-इसे मिश्र वाक्य में बदलिए। 
(य) 'समर्पित' शब्द में उपसर्ग, मूल शब्द और प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) देश-प्रेम की उत्कट व्यंजना देश-भक्तों के चरित्र से, उनके त्यागपूर्ण कार्यों से होती है। 
(ब) मनुष्य का प्राथमिक कर्तव्य है-स्वदेश प्रेम। 
(स) मनुष्य महान से महान त्याग करके भी जननी और जन्मभूमि के ऋण से उऋण नहीं हो सकता। 
(द) किसी देश-भक्त कवि का उद्घोष है कि "वह हृदय नहीं पत्थर है।" 
(य) समर्पित-सम् उपसर्ग + अर्पण मूल शब्द + इत प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-स्वदेश-प्रेम का महत्त्व।

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17. मनुष्य यन्त्र मात्र नहीं है कि जिसके सब कलपुर्जे खोलकर ठीक कर लिए जायेंगे और तेल या ग्रीस लगाकर पुनः चालू कर लिया जायेगा। प्रत्येक मनुष्य विशेष परिस्थितियों में विशेष संस्कारों के साथ उत्पन्न होता है। इन परिस्थितियों और संस्कारों में कुछ अनुकूल हो सकते हैं और कुछ प्रतिकूल शिक्षालय ऐसे कारखाने हैं जहाँ विषय और प्रभावों का परिमार्जन, सामंजस्य और मानव का विस्तार होता है। दूसरे शब्दों में, यहाँ मनुष्य की बुद्धि और हृदय खराद पर चढ़ते हैं और तब नये-नये रूप में समाज के सम्मुख आते हैं। किसी सुन्दर स्वप्न, आदर्श या अनुभूति को दूसरे को देना आसान नहीं होता। यह आदान-प्रदान देने और पाने वाले दोनों को धन्य कर देता है। हमारी शिक्षा चाहे वह प्राथमिक हो, चाहे उच्च, उसने मनुष्य की सम्भावनाओं की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। 

प्रश्न : 
(अ) मनुष्य के संस्कारों एवं प्रभावों का परिमार्जन किससे होता है? 
(ब) "मनुष्य यन्त्र मात्र नहीं है" इसका आशय समझाइए। 
(स)'खराद' शब्द का मतलब क्या है?
(द) "इन परिस्थितियों और संस्कारों में कुछ अनुकूल होते हैं और कुछ प्रतिकूल।" यह किस प्रकार का वाक्य है? स्पष्ट कीजिए। 
(य) अनुभूति' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) मनुष्य में कुछ जन्मजात संस्कार तथा प्रभाव होते हैं, उनका अनुकूल परिस्थितियों में ढालने के लिए परिमार्जन करना पड़ता है। यह कार्य शिक्षा से होता है। 
(ब) मनुष्य निर्जीव वस्तु नहीं है वह बुद्धि, हृदय और संस्कारों से युक्त होता है। 
(स) 'खराद' फ़ारसी शब्द है। यह एक प्रकार का यन्त्र है जो लकड़ी अथवा धातु की बनी हुई वस्तुओं के बेडौल अंग छीलकर उन्हें सुडौल और चिकना बनाता है। 
(द) यह संयुक्त वाक्य है। इसमें 'और' संयोजक अव्यय का प्रयोग किया गया है। 
(य) अनुभूति - अनु उपसर्ग + भूत शब्द + इ प्रत्यय। 
(र) शीर्षक - शिक्षा का महत्त्व। 

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18. 'देश की उन्नति का बहुत बड़ा दायित्व सच्चे देश-भक्तों पर निर्भर करता है। देश का गौरव सच्चे देश-भक्त ही होते हैं। उसी देश का अभ्युत्थान हो सकता है, जहाँ के निवासियों में देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा हो, जिनकी शिरा-शिरा, धमनी-धमनी में देश-प्रेम से सिक्त रक्त प्रवाहित हो रहा हो। जिस देश में ऐसे स्त्री-पुरुष का आधिक्य होता है, उसकी अवनति स्वप्न में भी नहीं हो सकती, जिस देश में जितने ही देश-भक्त सच्चे नागरिक होंगे, वह देश उतना ही समृद्धि के शिखर पर चढ़ सकता है। 

भारत की स्वतन्त्रता के पीछे कौनसी शक्ति काम कर रही है? क्या अंग्रेजों ने प्रसन्न होकर स्वतन्त्रता दान कर दी थी? कदापि नहीं। वास्तव में इस स्वतन्त्रता के पीछे भी बलिदान हो जाने वाले सहस्रों देश-भक्तों की शक्ति छिपी थी। उनके रक्त की लहरें परतन्त्रता की चट्टान से बार-बार टकरा रही थीं, जिससे वह एक दिन चूर-चूर हो गई। 

प्रश्न : 
(अ) देश-भक्तों की क्या विशेषताएँ होती हैं? 
(ब) देश की उन्नति किस पर निर्भर करती है? 
(स) 'अवनति' शब्द का विलोम शब्द क्या है? 
(द) "क्या अंग्रेजों ने प्रसन्न होकर स्वतन्त्रता दान कर दी थी?" इस वाक्य को निषेधार्थक में बदलिये। 
(य) 'स्वतन्त्रता' शब्दों में मूल शब्द एवं उपसर्ग-प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) सच्चे देश-भक्तों की ये विशेषताएँ होती हैं कि वे देश-प्रेम की खातिर बड़ा-से-बड़ा त्याग और बलिदान 
करने को उद्यत रहते हैं। 
(ब) देश की उन्नति सच्चे देशभक्त नागरिकों पर निर्भर करती है। 
(स) 'अवनति' शब्द का विलोम 'उन्नति' होता है।
(द) अंग्रेजों ने प्रसन्न होकर स्वतन्त्रता दान नहीं कर दी थी।
(य) स्वतन्त्रता - स्व उपसर्ग + तन्त्र मूल शब्द + ता प्रत्यय। 
(र) शीर्षक - देशभक्तों की महिमा। 

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19. हमारे यहाँ शिक्षा तो वास्तव में ज्ञान के सम्प्रेषण की विधि है। विधि का अर्थ है-सिखलाना। लेकिन हम सिखलायेंगे क्या? इसके लिए हमारे यहाँ शब्द है-विद्या। विद्या को शिक्षा के माध्यम से प्रेषणीय करते हैं। विद्या वह ज्ञातव्य विषय है; जो हम आप तक पहुँचाना चाहते हैं। हमारे यहाँ मनीषियों ने इस विद्या को अर्थकरी और परमार्थकरी दो भागों में बाँटा है। अर्थकरी वह विद्या है जो समाज में आपको उपयोगी बनाती है, जो आपको जीवन की आजीविका की सुविधाएँ देती है और परमार्थकरी विद्या वह विद्या है जिससे आप समष्टि से जुड़ते हैं। उसमें मानवीय मूल्य है, जिससे आपका हृदय बनता है, आपकी बुद्धि बनती है, आप उदार बनते हैं, स्नेहशील बनते हैं, सद्भाव एवं सम्पन्नता से पूर्ण मानव बनते हैं, जिससे आपकी बुद्धि और हृदय का परिष्कार होता है। 

प्रश्न : 
(अ) समाज के लिए कौन-सी विद्या अधिक उपयोगी रहती है? 
(ब) विद्या क्या है? यह कितने प्रकार की होती है? 
(स) परमार्थकरी विद्या क्या है? 
(द) "विद्या वह ज्ञातव्य विषय है; जो हम आप तक पहुँचाना चाहते हैं।" यह किस प्रकार का वाक्य है?
(य) परमार्थकरी' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) समाज के लिए अर्थकरी विद्या अधिक उपयोगी रहती है, क्योंकि यह समाज को आजीविका चलाने की सुविधाएँ देती है। 
(ब) विद्या वह ज्ञातव्य विषय है, जो हम आपको सिखाना चाहते हैं। यह दो प्रकार की होती है - (1) अर्थकरी, (2) परमार्थकरी। 
(स) परमार्थकरी विद्या में मनुष्य मानवीय मूल्यों से युक्त होता है। इसमें मनुष्य की बुद्धि, हृदय बनते हैं और इनका परिष्कार होता है। 
(द) 'विद्या वह ज्ञातव्य विषय है, जो..........हैं।" यह संयुक्त वाक्य है। 
(य) परमार्थकरी - परम + अर्थकर मूल शब्द + ई प्रत्यय। 
(र) शीर्षक - विद्या का महत्त्व। 

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20. नारी त्याग और तपस्या की अद्भुत विभूति है। इन्हीं दोनों तत्त्वों के समन्वय से हमारी भारतीय नारी का . स्वरूप संगठित हुआ है। नारी जीवन का मूलमन्त्र है-त्याग। और इस मन्त्र को सिद्ध करने की क्षमता उसे प्रदान की है तपस्या ने। हम ठीक-ठीक नहीं कह सकते हैं कि उसके जीवन के किस अंश में इन महनीय तत्त्वों के विलास का दर्शन हमें नहीं मिलता, परन्तु यदि हम उसके पूर्व जीवन को तपस्या का काल तथा उत्तर जीवन को त्याग' का काल मानें तो कथमपि अनुचित न होगा। नारी के तीन रूप हमें दिखाई पड़ते हैं-कन्या रूप, भार्या रूप तथा मातृ रूप। कौमार काल नारी जीवन की साधनावस्था है और उत्तर काल उस जीवन की सिद्धावस्था है। हमारी संस्कृति के उपासक संस्कृत कवियों ने नारी की तीन अवस्थाओं का चित्रण बड़ी सुन्दरता के साथ किया है। 

प्रश्न : 
(अ) भारतीय नारी का व्यक्तित्व किन तत्त्वों से निर्मित होता है? 
(ब) नारी जीवन का मूलमन्त्र क्या है? 
(स) नारी के मुख्य तीन रूप कौन-कौन से हैं? 
(द) "हम ठीक-ठीक नहीं कह सकते हैं कि उसके जीवन के किस अंश में ........।" यह किस प्रकार का वाक्य हैं? 
(य) 'महनीय' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर : 
(अ) भारतीय नारी का व्यक्तित्व त्याग और तपस्या - इन दोनों तत्त्वों से निर्मित होता है। 
(ब) नारी जीवन का मूलमन्त्र त्याग है। इस मन्त्र को सिद्ध करने की क्षमता तपस्या से मिलती है। 
(स) नारी के मुख्य तीन रूप-कन्या रूप, भार्या रूप, मातृ रूप है। 
(द) "हम ठीक - ठीक नहीं कह सकते हैं कि..........." यह मिश्र वाक्य है। 
(य) महनीय - मह (धातु) मूल शब्द + अनीयः प्रत्यय।
(र) शीर्षक - भारतीय नारी का जीवन। 

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21. स्वतन्त्रता का मर्म समता है। विषमता से स्वतन्त्रता भंग हो जाती हैं। बाह्यरूपों की समता चाहे सम्भव न हो, किन्तु आन्तरिक भाव की समता स्वतन्त्रता का आधार है। सभ्यता और संस्कृति के वृक्ष और लताएँ भी समता के मार्ग में ही शोभित होती हैं। समता का मूल तत्त्व यही है कि बाह्य विषमता होते हुए भी मनुष्य की दृष्टि में सब समान हैं। मनुष्यता के भावों का सम्बन्ध बाह्य-विषमताओं से संकुचित नहीं होता। मनुष्यता की दृष्टि से कोई भी मनुष्य दसरे मनष्य से श्रेष्ठ नहीं है। मानवीय और नैतिक गणों का उत्कर्ष भी इस मानवीय समता को खण्डित नहीं कर सकता। नवीनता, सक्रियता, स्वतन्त्रता आदि के अतिरिक्त समता मानवीय उल्लास का मूल स्रोत है। 

प्रश्न : 
(अ) समता का मूल तत्त्व क्या माना जाता है? 
(ब) आन्तरिक भाव की क्षमता किसका आधार है? 
(स) सभ्यता और संस्कृति किससे शोभित होती है? 
(द) "समता का मूल तत्त्व यही है कि बाह्य विषमता होते हुए भी मनुष्य की दृष्टि में सब समान हैं।" यह वाक्य किस प्रकार का है? 
(य)'उल्लास' शब्द में मूल शब्द और उपसर्ग-प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) समता का मूल तत्त्व है बाहरी विषमता होते हुए भी भावनात्मक स्तर पर सभी मनुष्यों को समान समझना, अर्थात् आन्तरिक भावों की समता रखना। 
(ब) आन्तरिक भाव की क्षमता स्वतन्त्रता का आधार है। 
(स) सभ्यता और संस्कृति के वृक्ष और लताएँ भी समता के मार्ग में ही शोभित होती है। 
(द) यह मिश्र वाक्य है। 
(य) उल्लास-उत् उपसर्ग + लस् धातु + अ (घञ्) प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-समता का महत्त्व या मानवीय समता। 

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22. समय वह सम्पत्ति है जो प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है। जो लोग इस धन को संचित रीति से बरतते हैं वे शारीरिक सुख तथा आत्मिक आनन्द प्राप्त करते हैं। इसी समय-सम्पत्ति के सदुपयोग से एक जंगली मनुष्य देवता स्वरूप बन जाता है। इसी के द्वारा मूर्ख विद्वान्, निर्धन धनवान और अनुभवी बन सकता है। संतोष, हर्ष या सुख तब तक मनुष्य को प्राप्त नहीं होता जब तक कि वह उचित तरीके से अथवा रीति के समय का सदुपयोग नहीं करता है।

समय निस्सन्देह एक रन-राशि है। जो कोई उसे अपरिमित और अगणित रूप से अन्धाधुन्ध व्यय करता है वह दिन-दिन अंकिचन, रिक्त हस्त और दरिद्र होता है। वह आजीवन खिन्न और समय को कोसता रहता है। सच तो यह है कि समय का सदुपयोग करना आत्मोन्नति तथा उसे नष्ट करना एक प्रकार की आत्महत्या है। 

प्रश्न : 
(अ) समय का सदुपयोग करने से क्या लाभ रहता है? बताइए। 
(ब) मनुष्य आजीवन खिन्न कब रहता है? 
(स) समय का दुरुपयोग करने से मनुष्य को क्या हानि होती है?
(द) “समय वह सम्पत्ति है, जो प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है।" इस वाक्य को साधारण वाक्य में बदलिए। 
(य) अगणित' शब्द में मूल शब्द और उपसर्ग-प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :
(अ) समय ऐसी सम्पत्ति है. जिसका सदुपयोग करने से मूर्ख, निर्धन एवं कमजोर व्यक्ति को भी विद्या, धन, आत्म-बल और आनन्द मिलता है। 
(ब) मनुष्य जब समय का सदुपयोग नहीं करता तब आजीवन खिन्न रहता है। 
(स) समय का दुरुपयोग करने से मनुष्य शारीरिक सुख और आत्मिक आनन्द प्राप्त करने से वंचित हो जाएगा। 
(द) समय-सम्पत्ति प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है। 
(य) अगणित-अ उपसर्ग + गणना (गण) मूल शब्द + इत प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-समय का सदुपयोग। 

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23. सूचना का अधिकार दिये जाने से अधिक महत्त्व का कार्य इस अधिकार को प्राप्त करने एवं उपयोग करके जन जागृति फैलाने का है जिसकी आज सबसे अधिक आवश्यकता है। लोकतंत्र लोक-सहभागिता से मजबूत होता है, लोक- सहभागिता सूचना के अधिकार का सवाल खड़ा करने और उसको प्राप्त करने तथा प्रसारित करने से बढ़ती है। यदि हम सचना के अधिकार का समचित उपयोग कर सकें तो न केवल सरकारी स्तर की योजनाओं का समुचित उपयोग हो सकेगा बल्कि प्रशासन में पारदर्शिता भी आ सकेगी जिससे भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण होगा। वस्तुतः सूचना का अधिकार लोकतांत्रिक विकास प्रक्रिया को समृद्ध और स्वच्छ करने का कारगर हथियार है। यह संवैधानिक कर्तव्यों के पालन हेतु महत्त्वपूर्ण निर्देशक तत्त्व है। 

प्रश्न : 
(अ) सूचना के अधिकार का उपयोग करने से क्या लाभ है? 
(ब) संवैधानिक कर्तव्यों के पालन हेतु महत्त्वपूर्ण निर्देशक तत्त्व क्या है? 
(स) सूचना के अधिकार का महत्त्वपूर्ण कार्य क्या है? 
(द) "प्रशासन में पारदर्शिता भी आ सकेगी, जिससे भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण होगा।" यह किस प्रकार का वाक्य है?
(य) 'सहभागिता' शब्द में मूल शब्द एवं उपसर्ग-प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :
(अ) सूचना के अधिकार से जन-जागृति फैलेगी, लोकतन्त्र में जनता का विश्वास बढ़ेगा, भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रहेगा और प्रशासन में पारदर्शिता आयेगी। 
(ब) संवैधानिक कर्तव्यों के पालन हेतु महत्त्वपूर्ण निर्देशक तत्त्व सूचना का अधिकार है।
(स) सूचना के अधिकार का महत्त्वपूर्ण कार्य लोकतान्त्रिक विकास प्रक्रिया को समृद्ध और स्वच्छ करना है।
(द) यह मिश्र वाक्य है अर्थात् विशेषण उपवाक्य पर आश्रित मिश्र वाक्य है।
(य) सहभागिता - सह उपसर्ग + भाग मूल शब्द + इत-आ प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-सूचना अधिकार का महत्त्व। 

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24. कुछ लोग धर्म और संस्कृति के नाम पर समाजवाद का विरोध करते हैं। यदि सच कहा जाये तो ऐसे लोग धर्म और संस्कृति को एक संकीर्ण अर्थ में लेते हैं। हमारी प्राचीन संस्कृति में दोनों तरह की बातें थीं। एक ओर जनता जनार्दन की सेवा का नारा था, तो दूसरी ओर राजाओं और बड़े लोगों को दैवी अंश से उत्पन्न माना जाता था, पर सच बात तो यह है कि सभी लोग दैवी अंश से उत्पन्न हैं। सबको जीवित रहने और जीवन-विकास करने का समान अधिकार है। हमारी प्राचीन संस्कृति की सभी बातें न अच्छी हैं और न सब बुरी ही। इसी प्रकार हमारे लिए आजकल की भी सभी बातें न अच्छी हैं और न सब बुरी। अतः प्राचीनता और आधुनिकता का समन्वित रूप ही समाज के लिए श्रेयस्कर है। हमारी संस्कृति बड़ी विशाल और उदार है। उसमें विश्व-कल्याण की उच्च भावना निहित है। 

प्रश्न : 
(अ) समाजवाद का विरोध कौन करते हैं? 
(ब) समाज के विकास के लिए क्या उचित है? 
(स) हमारी संस्कृति की मुख्य विशेषता क्या है? 
(द) "सच बात तो यह है कि सभी लोग दैवी अंश से उत्पन्न हैं।" यह वाक्य किस प्रकार का है? 
(य) 'दैवी' शब्द में मूल शब्द और उपसर्ग-प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) जो धर्म और संस्कृति का संकुचित अर्थ लेते हैं, वे लोग समाजवाद का विरोध करते हैं। 
(ब) प्राचीनता और आधुनिकता का समन्वित रूप ही समाज के विकास के लिए उचित है। 
(स) हमारी संस्कृति की मुख्य विशेषता उसमें विश्व-कल्याण की उच्च भावना निहित होना है। 
(द) यह मिश्र वाक्य है। 
(य) दैवी-देव मूल शब्द + अण्-ई प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-प्राचीनता एवं आधुनिकता में समन्वय। 

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25. आज हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता राष्ट्रीय चरित्र का पुनर्मूल्यांकन है। भारत नारों और बिल्लों पर नहीं रह सकता, उसे जीने के लिए ठोस आधार चाहिए। यह ठोस आधार युवा पीढ़ी को अनुप्राणित किये बिना, राष्ट्र की आत्मा को जगाये बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। विदेशी मुद्रा, विदेशी मशीन या विदेशी पूँजी के आयात से त्याग, परिश्रम और अनुशासन के भाव की पूर्ति नहीं की जा सकती, आत्म-विश्वास और राष्ट्रीय चरित्र नहीं गढ़ा जा सकता स्वतन्त्रता के पश्चात् हम जिस तेजी से आसानी की ओर भागे उसी कारण आज हमारी कठिनाइयों में वृद्धि हुई है। समस्याओं की चुनौती स्वीकार न करके हम उनका विकल्प खोजने में लगे रहे हैं। आज आवश्यकता एक मनस्वी, राष्ट्रप्रेमी, स्वावलम्बी और अनुशासित राष्ट्रीय-चरित्र के विकास की है।

प्रश्न :
(अ) राष्ट्रीय जागरण के लिए क्या करना जरूरी है? 
(ब) स्वतन्त्रता के पश्चात् हम जिस तेजी से आसानी की ओर भागे उसी कारण आज हमारी कठिनाइयों में वृद्धि हुई है। इस वाक्य को सरल वाक्य में बदलिए। 
(स) राष्ट्रीय चरित्र के विकास के लिए किसकी आवश्यकता है? 
(द) गद्यांश में से दो संयुक्ताक्षर शब्द चुनकर लिखिए। 
(य) 'स्वावलम्बी' शब्द में मूल शब्द और उपसर्ग-प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :  
(अ) युवा पीढ़ी की आत्मा को जगाना और उनमें त्याग, बलिदान, अनुशासन, परिश्रम के साथ आत्मविश्वास की भावना का प्रसार जरूरी है। 
(ब) स्वतन्त्रता के पश्चात् तेजी से आसानी की ओर भागने से हमारी कठिनाइयों की वृद्धि हुई है। 
(स) राष्ट्रीय चरित्र के विकास के लिए मनुष्यों में राष्ट्रप्रेम, स्वावलम्बी और अनुशासन का होना आवश्यक है। 
(द) संयुक्ताक्षर शब्द - (1) मनस्वी (2) परिश्रम। (य) स्वावलम्बी-स्व + अव उपसर्ग + लम्ब शब्द + ई प्रत्यय।
(र) शीर्षक-राष्ट्रीय चरित्र का विकास। 

RBSE Class 12 Hindi Anivarya अपठित बोध अपठित गद्यांश

26. आधुनिक युग विज्ञान-युग के नाम से जाना जाता है। आज विज्ञान की विजय-पताका धरती से लेकर आकाश तक फहरा रही है। सर्वत्र विज्ञान की महिमा का प्रचार-प्रसार है। मनुष्य ने विज्ञान के द्वारा प्रकृति को जीत लिया है। आज मनुष्य ने विज्ञान के द्वारा विद्युत, वाष्प, गैस, ईथर को खोजकर दिग्दिगन्तरों में अपनी विजय पताका फहराकर सारे संसार में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है। किन्तु विज्ञान के कारण आधुनिक युग की युयुत्सा ने भी प्रबल रूप धारण कर लिया है। विज्ञान-वेत्ताओं ने जहाँ मनुष्य को अनेक भौतिक सुविधाएँ प्रदान की हैं वहीं दूसरी ओर उसके लिए विध्वंस के पर्याप्त साधन भी एकत्रित कर दिये हैं। एटम बम, हाइड्रोजन बम आदि के निर्माण से हम भयभीत होकर विधाता से विश्व-शान्ति के लिए प्रार्थना करने लगे हैं। 

प्रश्न : 
(अ) विज्ञान से मनुष्य को भय क्यों लगने लगा है? 
(ब) विज्ञान के द्वारा संसार में क्या क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है? 
(स) युयुत्सा शब्द का क्या मतलब है?
(द) “सर्वत्र विज्ञान की महिमा का प्रचार-प्रसार है।" यह किस प्रकार का वाक्य है? 
(य) 'आधुनिक' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) विज्ञान से मनुष्य को इसलिए भय लगने लगा है कि उसने विध्वंस के अनेक साधनों को एकत्र कर लिया 
है, जिससे अशान्ति फैल रही है। 
(ब) विज्ञान के द्वारा विद्युत, वाष्प, गैस, ईथर की खोज होने से संसार में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। 
(स) युयुत्सा शब्द का मतलब है युद्ध की प्रबल अभिलाषा। 
(द) यह साधारण वाक्य है।
(य) आधुनिक–अधुना मूल शब्द + इक प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-विज्ञान से लाभ-हानि। 

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27. वर्तमान काल में ज्ञान-विज्ञान और स्त्री-शिक्षा का प्रसार होने से नारियाँ शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध जागृत हो गई हैं। अब पढ़ी-लिखी नारियाँ अपने पैरों पर खड़ी होकर पुरुष के समान सभी कार्यों में दक्षता दिखा रही हैं। अब समान अधिकारों की परम्परा चलने लगी है। शहरी क्षेत्रों में नारी पर्दा-प्रथा तथा विकृत-रूढ़ियों से मुक्त हो गई हैं, परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी सामाजिक कुरीतियाँ प्रचलित हैं। 

संविधान में प्रदत्त अधिकारों के अनुसार जन-जागरण हो रहा है तथा नारी-समाज की सुरक्षा एवं सशक्तीकरण को बढ़ावा मिल रहा है। फिर भी इस दिशा में अभी तक कुछ कमियाँ दूर नहीं हुई हैं, क्योंकि आज भी दहेज के कारण नव वधुओं के द्वारा आत्महत्या करने के समाचार सुनने में आते हैं। नारियों के साथ मार-पीट एवं शोषण अभी भी चल रहा है। यह समाज के लिए चिन्तनीय विषय है। 

प्रश्न : 
(अ) समाज के लिए चिन्तनीय विषय क्या है? 
(ब) नारी की स्थिति में सुधार लाने के लिए क्या अपेक्षित है? 
(स) ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी नारी की क्या स्थिति है? 
(द) 'नारियाँ अपने पैरों पर खड़ी होकर पुरुष के समान सभी कार्यों में दक्षता दिखा रही हैं।' इसे संयुक्त वाक्य में बदलिये। 
(य) 'प्रचलित' शब्द में मूल शब्द और प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) नारियों के साथ मारपीट, शोषण-उत्पीड़न एवं असमानता का व्यवहार चिन्तनीय विषय है। 
(ब) नारी की स्थिति में सुधार लाने के लिए संवैधानिक अधिकार का अनुसरण तथा सशक्तीकरण अपेक्षित है। 
(स) ग्रामीण क्षेत्रों, में आज भी नारी पर्दा-प्रथा तथा विकृत-रूढ़ियों से ग्रस्त है। 
(द) नारियाँ अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं और पुरुष के समान सभी कार्यों में दक्षता दिखा रही हैं। 
(य) प्रचलित - प्र उपसर्ग + चल (धातु) शब्द + इत प्रत्यय। 
(र) शीर्षक - नारी-सुरक्षा एवं सशक्तीकरण। 

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28. संसार की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है।क्षण घंटों में, घण्टे दिनों में, दिन सप्ताह में, सप्ताह मास में और मास वर्षों में परिवर्तित होते रहते हैं। इस प्रकार संसार सागर की लहरें मानवता के बेड़े को निरन्तर आगे बढ़ाती रहती हैं और कालान्तर में एक प्राचीन और नवीन सभ्यता और संस्कृति का अवसान और आरम्भ होता हुआ दिखलाई देता है। कुछ वस्तुओं में परिवर्तन इतना जल्दी होता है कि हमें प्रत्यक्ष जान पड़ता है, कुछ में अन्तर इतना धीरे कि हमें प्रत्यक्ष रूप में दिखाई नहीं देता है। 

उद्यान में विकसित कुछ पुष्प इतनी जल्दी प्रफुल्लित होते हैं, कुम्हला जाते हैं और अन्त में पंखुरियाँ गिरने लगती हैं कि इसका अनुभव कालान्तर में होता है। इस प्रकार प्रतिक्षण प्रत्येक ऐहिक वस्तु में परिवर्तन होता रहता है। यही भारतीय क्षणवाद का ध्रुव सिद्धान्त है। कवि की दृष्टि में यह परिवर्तन ही जीवन है। अस्थिरता और परिवर्तन ही जीवन का प्रतीक है। 

प्रश्न : 
(अ) संसार में परिवर्तनशीलता किस तरह प्रतीत होती है? 
(ब) "पुष्प इतनी जल्दी कुम्हला जाते हैं और अन्त में पंखुरियाँ गिरने लगती हैं।" यह किस प्रकार का वाक्य है? 
(स) भारतीय क्षणवाद का ध्रुव सिद्धान्त क्या है?
(द) जीवन का प्रतीक क्या है?
(य) 'अस्थिरता' शब्द में मूल शब्द और उपसर्ग-प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) संसार में परिवर्तनशीलता समय की गति तथा प्रकृति के विकास से प्रतीत होती है। 
(ब) यह संयुक्त वाक्य है। 
(स) प्रतिक्षण प्रत्येक ऐहिक वस्तु में परिवर्तन होना ही भारतीय क्षणवाद का ध्रुव सिद्धान्त है। 
(द) अस्थिरता और परिवर्तन ही जीवन का प्रतीक है। 
(य) अस्थिरता-अ उपसर्ग + स्थिर मूल शब्द + ता प्रत्यय।
(र) शीर्षक-परिवर्तनशील संसार। 

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29. स्वतन्त्रता के पश्चात् हमारे देश को अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं में से जनसंख्या की बेतहाशा वृद्धि भी एक प्रमुख समस्या है। यद्यपि आजादी मिलने के बाद देश की पर्याप्त औद्योगिक प्रगति हुई है तथा भविष्य में और भी अधिक होने की संभावना है परन्तु सामान्य जनमानस के जीवन-स्तर पर इसका कोई विशेष प्रभाव पड़ा है, कहना कठिन है। स्वास्थ्य रक्षा के साधनों की व्यापक उपलब्धता से मृत्यु-दर घट गयी है जबकि जन्म-दर पूर्ववत् बनी हुई है। 

इसी कारण जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इससे बेरोजगारी, आर्थिक विषमता, असमानता तथा संसाधनों की कमी आदि कुप्रभाव दिखाई दे रहे हैं। देश की पंचवर्षीय योजनाओं और विकास के विविध कार्यक्रमों की सफलता पर इसका बुरा असर पड़ रहा है। इसके कुपरिणामों का जनता के जीवन-स्तर पर अंकुश-सा लग रहा है। 

प्रश्न : 
(अ) देश की विकास-योजनाएँ असफल क्यों हैं? 
(ब) स्वतन्त्रता के पश्चात् हमारे देश की प्रमुख समस्या क्या है? 
(स) जनसंख्या वृद्धि से हमारे देश को किन कुप्रभावों का सामना करना पड़ रहा है? 
(द) "जीवन-स्तर पर इसका कोई विशेष प्रभाव पड़ा है, कहना कठिन है।" इसे मिश्र वाक्य में बदलिये। 
(य) 'उपलब्धता' शब्द में मूल शब्द और उपसर्ग-प्रत्यय बताइए।
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) स्वतन्त्रता के पश्चात् देश की जनसंख्या में वृद्धि होने के कारण विकास योजनाओं का सभी को लाभ नहीं मिल पाया। इस कारण विकास-योजनाएँ असफल हैं। 
(ब) स्वतन्त्रता के पश्चात् हमारे देश की प्रमुख समस्या जनसंख्या वृद्धि है। 
(स) जनसंख्या वृद्धि से हमारे देश को बेरोजगारी, आर्थिक विषमता, असमानता तथा संसाधनों की कमी आदि - कुप्रभावों का सामनाकरना पड़ रहा है
(द) यह कहना कठिन है कि जीवन-स्तर पर इसका कोई विशेष प्रभाव 
(य) उपलब्धता-उप उपसर्ग + लब्ध मूल शब्द + ता प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-जनसंख्या वृद्धि प्रमुख समस्या।

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30. स्वतन्त्र भारत में विद्यार्थियों के कंधों पर समाज का भारी बोझ है। आज जो विद्यार्थी है, कल वही देश का सुनागरिक और समाज का कर्णधार होगा। आज के समाज में चोरी, रिश्वतखोरी, कपट, विश्वासघात, भ्रष्टाचार, गबन, घोटाले आदि असंख्य बुराइयाँ फैली हुई हैं, उन्हें रोकने तथा स्वस्थ समाज के निर्माण में सभी का सहयोग अपेक्षित है। 

सामाजिक जीवन में व्याप्त दूषित तत्त्वों को निकाल फेंकना भी परमावश्यक है। इसलिए स्वतन्त्र देश के गौरव के अनुकूल ऐसे नागरिकों की आवश्यकता है जो ईमानदार, कर्तव्यपरायण और परिश्रमी हों। इस समय हमारे देश का जीवन परिवर्तन के संधि-स्थल पर है। आज के विद्यार्थियों को निरन्तर जागरूक रहकर सामाजिक जीवन के परिवर्तनों और प्रगति में योगदान करना चाहिए। 

प्रश्न : 
(अ) हमारे देश को आज कैसे नागरिकों की जरूरत है? 
(ब) देश की उन्नति के लिए आज के विद्यार्थियों को क्या करना चाहिए? 
(स) विद्यार्थी देश का सुनागरिक कैसे बन सकता है? बताइए। 
(द) "आज जो विद्यार्थी है, कल वही कर्णधार होगा।" यह किस प्रकार का वाक्य है? 
(य) 'सुनागरिक' शब्द में मूल शब्द और उपसर्ग-प्रत्यय बताइए। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) हमारे देश को आज ऐसे नागरिकों की जरूरत है जो ईमानदार, कर्त्तव्य-परायण और परिश्रमी हों, जो देश के गौरव के अनुकूल आचरण करने वाले हों। 
(ब) आज के विद्यार्थियों को निरन्तर जागरूक रहकर सामाजिक जीवन के परिवर्तनों और प्रगति में योगदान करना चाहिए।
(स) विद्यार्थी चोरी, रिश्वतखोरी, कपट, विश्वासघात, भ्रष्टाचार आदि दुर्गुणों से दूर रहकर ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता और परिश्रम आदि गुणों को अपनाकर सुनागरिक बन सकता है। 
(द) यह मिश्र वाक्य है। 
(य) सुनागरिक-सु उपसर्ग + नगर मूल शब्द + इक प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-सामाजिक प्रगति एवं विद्यार्थी।

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31. स्वावलम्बन का गुण सभी को सरलता से प्राप्त हो सकता है। यह किसी एक विशेष जाति, विशेष धर्म तथा विशेष देश के निवासी की सम्पत्ति नहीं है। स्वावलम्बन सभी के लिए चाहे वह पँजीपति हो या मजदर, परुष हो या स्त्री, वृद्ध हो या बालक, काला हो या गोरा, शिक्षित हो या अशिक्षित, प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थान पर सुलभ है। इतिहास साक्षी है कि अत्यन्त दीन तथा निर्धन व्यक्तियों ने स्वावलम्बन के अलौकिक गुण द्वारा महान् उन्नति की है। 

समाचार-पत्र बेचने वाला एडिसन एक दिन महान् उपन्यासकार हुआ। चन्द्रगुप्त नामक एक निर्धन और साधारण सैनिक भारत का चक्रवर्ती सम्राट् हुआ।हैदरअली प्रारम्भ में एक सिपाही था, स्वावलम्बन के कारण ही उसने दक्षिण भारत में अपना राज्य स्थापित किया। ईश्चरचन्द्र विद्यासागर हमारे भारत के ख्याति प्राप्त नररत थे। कहा जाता है कि उन्होंने अंग्रेजी अक्षरों का ज्ञान सड़क के किनारे गड़े हुए मील के पत्थरों से किया था। 

प्रश्न : 
(अ) स्वावलम्बन गुण का क्या महत्त्व है? बताइये। 
(ब) चन्द्रगुप्त साधारण सैनिक से सम्राट कैसे बना?
(स) 'स्वावलम्बन' का मतलब क्या है? 
(द) "समाचार-पत्र बेचने वाला एडिसन महान् उपन्यासकार हुआ।" यह किस प्रकार का वाक्य है? 
(य) अलौकिक' शब्द में मूल शब्द और उपसर्ग-प्रत्यय बताइये। 
(र) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) स्वावलम्बन का गुण सभी मनुष्यों की उन्नति के लिए परमावश्यक है। यह सभी तरह के व्यक्तियों के द्वारा अपनाया जा सकता है। 
(ब) चन्द्रगुप्त स्वावलम्बन गुण से साधारण सैनिक से चक्रवर्ती सम्राट बना। 
(स) स्वावलम्बन का मतलब है आत्मनिर्भर होकर काम करना। 
(द) यह साधारण वाक्य है। 
(य) अलौकिक-अ उपसर्ग + लोक शब्द + इक प्रत्यय। 
(र) शीर्षक-स्वावलम्बन का महत्त्व।

Prasanna
Last Updated on July 11, 2022, 3:55 p.m.
Published July 11, 2022