RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 5 समाजशास्त्र-अनुसन्धान पद्धतियाँ

Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 5 समाजशास्त्र-अनुसन्धान पद्धतियाँ Important Questions and Answers. 

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RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 5 समाजशास्त्र-अनुसन्धान पद्धतियाँ

बहुविकल्पात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
सर्वेक्षण है
(अ).एक सिद्धान्त
(ब) एक पद्धति
(स) एक प्रविधि
(द) उपर्युक्त सभी। 
उत्तर:
(ब) एक पद्धति

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 5 समाजशास्त्र-अनुसन्धान पद्धतियाँ  

प्रश्न 2. 
जो सर्वेक्षण पहले से एकत्रित एवं उपलब्ध तथ्यों के आधार पर किया जाता है, वह कहलाता है
(अ) प्राथमिक सर्वेक्षण
(ब) द्वितीयक सर्वेक्षण 
(स) संख्यात्मक सर्वेक्षण
(द) गुणात्मक सर्वेक्षण 
उत्तर:
(ब) द्वितीयक सर्वेक्षण 

प्रश्न 3. 
मतदान कर निकल रहे मतदाताओं से सूचना प्राप्त करने की सबसे उपयुक्त प्रविधि है-
(अ) साक्षात्कार
(ब) अवलोकन 
(स) प्रश्नावली
(द) साक्षात्कार अनुसूची 
उत्तर:
(द) साक्षात्कार अनुसूची 

प्रश्न 4. 
पूर्ण सहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता
(अ) क्रियाओं में भाग लेता है किन्तु अपनी पहचान छिपाता है। 
(ब) क्रियाओं में भाग लेता है किन्तु अपनी पहचान छिपाता नहीं है। 
(स) क्रियाओं में भाग नहीं लेता किन्तु अपनी पहचान बताता है।
(द) न क्रियाओं में भाग लेता है और न ही अपनी पहचान बताता है। 
उत्तर:
(अ) क्रियाओं में भाग लेता है किन्तु अपनी पहचान छिपाता है। 

प्रश्न 5. 
जब अनुसंधानकर्ता स्वयं अध्ययन समूह का एक भाग बन जाता है तो इस पद्धति को कहा जाता है
(अ) अवलोकन
(ब) सहभागी अवलोकन 
(स) असहभागी अवलोकन 
(द) नियंत्रित अवलोकन 
उत्तर:
(ब) सहभागी अवलोकन 

प्रश्न 6. 
तथ्य संकलन की वह प्रविधि जिसमें व्यक्तिगत सम्पर्क नहीं होता, वह है
(अ) प्रश्नावली
(ब) साक्षात्कार 
(स) अनुसूची
(द) अवलोकन 
उत्तर:
(अ) प्रश्नावली

प्रश्न 7. 
निम्न में जो सहभागी अवलोकन का गुण है, वह है
(अ) अत्यधिक खचीली प्रणाली 
(ब) वस्तुनिष्ठता संभव नहीं 
(स) प्रत्यक्ष तथा सरल अध्ययन
(द) समूह के व्यवहार में परिवर्तन का अध्ययन 
उत्तर:
(स) प्रत्यक्ष तथा सरल अध्ययन

प्रश्न 8.
'द गोल्डन बॉग' पुस्तक के लेखक हैं
(अ) एमिल दुर्थीम
(ब) जेम्स फ्रेजर 
(स) ब्रोनिस्लाव मैलिनोवस्की
(द) इवांस प्रिचार्ड
उत्तर:
(ब) जेम्स फ्रेजर 

प्रश्न 9.
दक्षिणी प्रशांत के ट्रोब्रियांड द्वीपों पर क्षेत्रीय कार्य किया
(अ) रैडक्लिफ ब्राउन ने 
(ब) इवान्स प्रिचार्ड ने 
(स) ब्रोनिस्लाव मैलिनोवस्की ने
(द) फ्रांस बोआस ने। 
उत्तर:
(स) ब्रोनिस्लाव मैलिनोवस्की ने

प्रश्न 10. 
एस. सी. दुबे की पुस्तक का नाम है
(अ) इंडियन विलेज
(ब) रिमेम्बर्ड विलेज 
(स) रामपुरा गांव
(द) बिहाइंड मैड वॉलस
उत्तर:
(अ) इंडियन विलेज

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
1. पद्धतिशास्त्र शब्द का आशय .... .. से है। 
2. व्यक्तिपरक से तात्पर्य है, कुछ ऐसा जो .............. मूल्यों और मान्यताओं पर आधारित हो। 
3. समाजशास्त्री स्ववाचक होने का कितना भी प्रयास करे, ....... ... पूर्वाग्रह की संभावना सदा रहती है।
4. समाजशास्त्र की ........ .... पद्धतियों में गणना की जाती है या घटकों को नापा जाता है। 
5. समाजशास्त्र की ............. पद्धतियों में मनोवृत्तियों एवं भावनाओं आदि का अध्ययन किया जाता है। 
6. ... ... प्रेक्षण को प्रायः 'क्षेत्रीय कार्य' कहा जाता है। 
7. समाजशास्त्री अपना क्षेत्रीय कार्य .............. के समाजों के समुदायों में करते हैं। 

उत्तर:
1. अध्ययन पद्धति 
2. व्यक्तिगत 
3. अवचेतन 
4. मात्रात्मक 
5. गुणात्मक 
6. सहभागी 
7. सभी प्रकार 

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये

1. साक्षात्कार के असंरचित प्रारूप में सभी उत्तरदाताओं से विशेष प्रश्न पूछे जाते हैं। 
2. सर्वेक्षण के द्वारा जनसंख्या के केवल छोटे से भाग पर सर्वेक्षण करके इसके परिणामों को बड़ी जनसंख्या पर लागू 
3. सहभागी प्रेक्षण की मुख्य ताकत यह है कि यह 'अन्दर के' व्यक्ति के दृष्टिकोण से जीवन की महत्त्वपूर्ण और विस्तृत तस्वीर उपलब्ध कराता है। 
4. समाजशास्त्री के स्ववाचक होने के प्रयासों से अवचेतन पूर्वाग्रह की संभावना खत्म हो जाती है। 
5. समाज विज्ञान की तरह समाजशास्त्र भी एक 'बहु-निर्देशात्मक' विज्ञान है। 
6. समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता एक व्यर्थ संकल्पना है। 
7. साक्षात्कार पद्धति परंपरागत रूप में भू-लेखागारों में पाई जाने वाली द्वितीयक सामग्री पर निर्भर है। 
8. साक्षात्कार तथा सहभागी प्रेक्षण को व्यष्टि पद्धतियाँ माना जाता है। 
उत्तर:
1. असत्य 
2. सत्य 
3. सत्य 
4. असत्य 
5. सत्य 
6. असत्य 
7. असत्य 
8. सत्य 

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निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

(अ) मात्रात्मक पद्धति

(1) सर्वेक्षण अनुसंधान

(ब) गुणात्मक पद्धति

(2) सहभागी प्रेक्षण

(स) द्वितीयक आंकड़ों पर निर्भर

(3) प्रेक्षण किए जा सकने वाले व्यवहार का अध्ययन

(द) प्रारंभिक आंकड़ों की जानकारी

(4) प्रेक्षण न किए जा सकने वाले कार्यों, मूल्यों का अध्ययन

(य) व्यष्टि पद्धति

(5) ऐतिहासिक पद्धतियाँ

(र) समष्टि पद्धति

(6) साक्षात्कार

उत्तर:

(अ) मात्रात्मक पद्धति

(3) प्रेक्षण किए जा सकने वाले व्यवहार का अध्ययन

(ब) गुणात्मक पद्धति

(4) प्रेक्षण न किए जा सकने वाले कार्यों, मूल्यों का अध्ययन

(स) द्वितीयक आंकड़ों पर निर्भर

(5) ऐतिहासिक पद्धतियाँ

(द) प्रारंभिक आंकड़ों की जानकारी

(6) साक्षात्कार

(य) व्यष्टि पद्धति

(2) सहभागी प्रेक्षण

(र) समष्टि पद्धति

(1) सर्वेक्षण अनुसंधान


अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
वस्तुनिष्ठता से क्या आशय है? 
उत्तर:
वस्तुनिष्ठता से आशय पूर्वाग्रह रहित केवल तथ्यों पर आधारित अध्ययन से है। 

प्रश्न 2.
व्यक्तिपरक से क्या आशय है? 
उत्तर:
व्यक्तिपरक से तात्पर्य है-कुछ ऐसा जो व्यक्तिगत मूल्यों तथा मान्यताओं पर आधारित हो। 

प्रश्न 3. 
समाजशास्त्रीय अध्ययन में वस्तुनिष्ठता के मार्ग की दो समस्यायें लिखिये। 
उत्तर:

  1. पूर्वाग्रह की समस्या। 
  2. सामाजिक विश्व में सच्चाई की अनेक प्रतिस्पर्धी व्याख्याओं का होना। 

प्रश्न 4. 
समाजशास्त्र में पूर्वाग्रह की समस्या के समाधान हेतु समाजशास्त्री क्या प्रयास करते हैं?
उत्तर:
समाजशास्त्री पूर्वाग्रह से बचने के लिए प्रथमतः ‘स्ववाचक' होने का प्रयास करते हैं और फिर संभावित पूर्वाग्रह के प्रासंगिक स्रोतों का भी उल्लेख कर देते हैं। .

प्रश्न 5. 
क्या अधिकांश भारतीय परिवार अभी तक 'संयुक्त परिवार' हैं; इसे जानने के लिए कौनसी अध्ययन पद्धतियाँ श्रेष्ठ होंगी?
उत्तर:
जनगणना या सर्वेक्षण पद्धतियाँ।

प्रश्न 6. 
संयुक्त और मूल परिवारों में स्त्रियों की तुलना करने के लिए आप किन पद्धतियों का उपयोग करना चाहेंगे?
उत्तर:

  1. साक्षात्कार वैयक्तिक अध्ययन 
  2. सहभागी प्रेक्षण। 

प्रश्न 7. 
समाजशास्त्रीय अध्ययन हेतु व्यष्टि पद्धति से क्या आशय है?
उत्तर:
व्यष्टि पद्धति में सामान्यतः एक अकेला अनुसंधानकर्ता होता है, जो छोटे तथा घनिष्ठ परिवेश में कार्य करता है। साक्षात्कार तथा सहभागी प्रेक्षण व्यष्टि पद्धतियों के उदाहरण हैं।

प्रश्न 8. 
समष्टि पद्धतियाँ कौनसी होती हैं?
उत्तर:
समष्टि पद्धतियाँ वे हैं जो बड़े पैमाने वाले अनुसंधानों जिसमें अधिक संख्या में अन्वेषक तथा उत्तरदाता शामिल होते हैं, का समाधान कर सकती हैं; जैसे-सर्वेक्षण अनुसंधान।

प्रश्न 9. 
पद्धति का चयन किस आधार पर किया जाता है?
उत्तर:
सामान्यतया पद्धति का चयन अनुसंधान के प्रश्नों की प्रकृति, अनुसंधानकर्ता की प्राथमिकताओं तथा समय और/या संसाधनों के प्रतिबंधों के आधार पर किया जाता है।

प्रश्न 10. 
समाजशास्त्र की सुस्पष्ट पद्धतियाँ कौनसी होती हैं?
उत्तर:
समाजशास्त्र की सुस्पष्ट पद्धतियाँ वही होती हैं जिनसे 'प्रारंभिक' आँकड़े बनाने में सहायता मिलती है। जैसे-सर्वेक्षण, साक्षात्कार तथा सहभागी प्रेक्षण आदि।

प्रश्न 11. 
सहभागी प्रेक्षण क्या है? 
उत्तर:
समाजशास्त्र में सहभागी प्रेक्षण का आशय एक विशेष पद्धति से है जिसके द्वारा समाजशास्त्री उस समाज, संस्कृति तथा उन लोगों के बारे में सीखता है, जिनका वह अध्ययन कर रहा होता है।

प्रश्न 12. 
सामाजिक मानव विज्ञानी एक क्षेत्रीय कार्य करते समय क्या करता है?
उत्तर:
सामाजिक विज्ञानी एक क्षेत्रीय कार्य करते समय सबसे पहले जनगणना कार्य करता है, फिर उस समुदाय का भौतिक नक्शा बनाता है, फिर समुदाय की वंशावली बनाकर नातेदारी को समझता है और फिर वहाँ की भाषा को समझकर वहाँ की जीवन-शैली को अपनाकर, समुदाय का हिस्सा बनकर समुदाय का अध्ययन करता है।

RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 5 समाजशास्त्र-अनुसन्धान पद्धतियाँ

प्रश्न 13. 
किन्हीं चार क्षेत्रीय कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:

  1. दक्षिणी प्रशान्त के ट्रोब्रियांड द्वीपों पर मैलिनोवस्की का अध्ययन 
  2. अंडमान निकोबार द्वीपों पर रैडक्लिफ-ब्राउन का अध्ययन 
  3. सूडान में न्यूर मूर पर इवान्स प्रिचार्ड का अध्ययन 
  4. सं. रा. अमेरिका में मूल अमेरिकन जनजातियों पर फ्रांज ब्रोआस का अध्ययन। 

प्रश्न 14. 
भारतीय समाजशास्त्र में ग्रामीण अध्ययनों में क्षेत्रीय कार्य पद्धतियों का प्रयोग क्यों किया गया?
उत्तर:
भारतीय समाजशास्त्र में ग्रामीण अध्ययनों में क्षेत्रीय कार्य पद्धतियों का प्रयोग किया गया क्योंकि

  1. गांव एक सीमित समुदाय था तथा इतना छोटा था कि एक अकेले व्यक्ति द्वारा इसका अध्ययन किया जा सकता था।
  2. वे समाज के विकासात्मक या सकारात्मक पहलुओं तथा उसके आधुनिक पक्षों को भी उजागर करते थे। 

प्रश्न 15. 
सहभागी प्रेक्षण के कोई दो गुण लिखिये।
उत्तर:

  1. सहभागी प्रेक्षण 'अंदर के' व्यक्ति के दृष्टिकोण से जीवन की महत्त्वपूर्ण तथा विस्तृत तस्वीर उपलब्ध कराता है।
  2. इसमें प्रेक्षक क्षेत्र में पूरा समय व्यतीत करता है। इसलिए अनेक पूर्वाग्रहों से बच सकता है। 

प्रश्न 16.
सहभागी प्रेक्षण की कोई दो सीमाएँ लिखिये।।
उत्तर:

  1. सहभागी प्रेक्षण में एक छोटे क्षेत्र को ही शोध में शामिल किया जा सकता है।
  2. इसमें सदैव । पूर्वाग्रह की संभावना बनी रहती है।

प्रश्न 17. 
जनगणना सर्वेक्षण का एक उदाहरण दीजिये।
उत्तर:
भारत में प्रत्येक दस वर्ष में जनसंख्या का सर्वेक्षण, जनगाना सर्वेक्षण का प्रमुख उदाहरण है। इसमें भारत में रहने वाले प्रत्येक घर तथा प्रत्येक व्यक्ति का वास्तविक सर्वेक्षण होता है। .

प्रश्न 18. 
भारत में प्रतिदर्श सर्वेक्षण का एक उदाहरण दीजिये।
उत्तर:
भारत में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (एन. एस. एस. ओ.) गरीबी तथा बेरोजगारी के स्तर का हर वर्ष प्रतिदर्श सर्वेक्षण करता है।

प्रश्न 19. 
सामाजिक सर्वेक्षण पद्धति का मुख्य लाभ क्या है?
उत्तर:
सामाजिक सर्वेक्षण का मुख्य लाभ यह है कि इसके द्वारा जनसंख्या के केवल छोटे से भाग पर सर्वेक्षण करके इसके परिणामों को बड़ी जनसंख्या पर लागू किया जा सकता है।

प्रश्न 20. 
व्यापक रूप में प्रतिदर्श के चयन की प्रक्रिया के सिद्धान्तों के नाम लिखो।
उत्तर:

  1. जनसंख्या में सभी महत्त्वपूर्ण उपसमूहों को पहचाना जाये तथा प्रतिदर्श में उन्हें प्रतिनिधित्व दिया जाये।
  2. वास्तविक इकाई का चयन पूर्णतया अवसर आधारित हो। 

प्रश्न 21. 
गांवों के अध्ययन करने की दो शैलियों के नाम लिखिये। 
उत्तर:

  1. परम्परागत सामाजिक मानव विज्ञानी शैली में 'सीमित समुदाय' का क्षेत्रीय अध्ययन। 
  2. ग्रामीण समाज तथा संस्कृति का बहु-विषयक अध्ययन–अनेक गांवों का अध्ययन। 

प्रश्न 22. 
साक्षात्कार क्या है?
उत्तर:
साक्षात्कार मूलतः शोधकर्ता तथा उत्तरदाता के बीच निर्देशित बातचीत होता है।

प्रश्न 23.
साक्षात्कार लेने की शैलियों को बताइये।
उत्तर:
साक्षात्कार लेने की दो शैलियाँ हैं-

  1. असंरचित प्रारूप से साक्षात्कार तथा 
  2. संरचित प्रारूप से साक्षात्कार।

प्रश्न 24. 
यादृच्छिकीकरण क्या है?
उत्तर:
यादृच्छिकीकरण यह सुनिश्चित करना है कि कोई घटना विशुद्ध रूप से केवल अवसर पर ही निर्भर हो, न.. कि किसी अन्य पर, जैसे-किसी प्रतिदर्श में किसी वस्तु विशेष का चयन। 

प्रश्न 25. 
प्रतिबिंबता क्या है?
उत्तर:
प्रतिबिंबता एक अनुसंधानकर्ता की वह क्षमता है जिसमें वह स्वयं का प्रेक्षण और विश्लेषण करता है। 

प्रश्न 26. 
प्रतिदर्श क्या है?
उत्तर:
प्रतिदर्श एक बड़ी जनसंख्या से लिया गया उपभाग या चयनित हिस्सा है जो उस बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 27. 
सांख्यिकीय स्तरीकरण क्या है?
उत्तर:
सांख्यिकीय अर्थ के अनुसार स्तरीकरण जनसंख्या के संबंधित आधारों, जैसे-लिंग, स्थान, धर्म, आयु इत्यादि के आधार पर विभिन्न समूहों में उप-विभाजन है। 

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरण बताइये। उत्तर-वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं

  1. समस्या का निर्धारण-वैज्ञानिक पद्धति के अन्तर्गत सर्वप्रथम समस्या का निर्धारण किया जाता है।
  2. अनुसंधान की रूपरेखा का नियोजन-वैज्ञानिक पद्धति के दूसरे चरण के अन्तर्गत अनुसंधान की सम्पूर्ण रूपरेखा का नियोजन किया जाता है कि आंकड़ों का संकलन, विश्लेषण तथा मूल्यांकन किस प्रकार किया जाएगा।
  3. क्षेत्रीय कार्य-इस चरण में पूर्व निर्धारित योजना के अन्तर्गत आंकड़ों का संकलन किया जाता है।
  4. आंकड़ों का विश्लेषण-इस चरण में संकलित आंकड़ों का वर्गीकरण, सारणीयन तथा विश्लेषण कर निष्कर्ष निकाला जाता है।

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प्रश्न 2. 
निदर्शन सर्वेक्षण अथवा प्रतिदर्श का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
निदर्शन सर्वेक्षण अथवा प्रतिदर्श के अन्तर्गत जिन इकाइयों का अध्ययन किया जाना है, उनका चयन समग्र से सावधानीपूर्वक हो कि उसमें सम्मिलित समस्त व्यक्ति जनसमुदाय की विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करते हों तथा इन इकाइयों के चयन का आधार पूर्णतः संयोग पर आधारित हो।

प्रश्न 3. 
स्व-वाचक तकनीक किसे कहते हैं?
उत्तर:
प्रायः समाजशास्त्री अपने कार्य के लिए किसी बाहरी व्यक्ति के दृष्टिकोण को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं । वे अपने आपको तथा अपने अनुसंधान को दूसरे की आंखों से देखने का प्रयास करते हैं । इस तकनीक को "स्व-वाचक' कहते हैं।

प्रश्न 4. 
आत्मवाचकता का व्यावहारिक पहलू क्या है?
उत्तर:
आत्मवाचकता का व्यावहारिक पहलू है-किसी व्यक्ति द्वारा किए जा रहे कार्य का सावधानीपूर्वक दस्तावेजीकरण करना। इसमें अनुसंधानकर्ता द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि हमारे द्वारा किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने हेतु किए गए उपायों को अन्य अपना सकते हैं तथा वे स्वयं देख सकते हैं कि हम सही हैं या नहीं। इससे हमें अपनी सोच की दिशा को परखने में भी सहायता मिलती है।

प्रश्न 5. 
अवचेतन पूर्वाग्रह की संभावना से निपटने के लिए समाजशास्त्री क्या करते हैं? 
उत्तर:
अवचेतन पूर्वाग्रह की संभावना से निपटने के लिए समाजशास्त्री अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि के उन लक्षणों को स्पष्ट रूप से उल्लिखित करते हैं जो कि अनुसंधान के विषय पर संभावित पूर्वाग्रह के स्रोत के रूप में प्रासंगिक हो सकते हैं। यह पाठकों को पूर्वाग्रह की संभावना से सचेत करता है तथा अनुसंधान अध्ययन को पढ़ते समय यह उन्हें मानसिक रूप से इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए तैयार करता है।

प्रश्न 6. 
समाजशास्त्रीय पद्धतियों के वर्गीकरण या श्रेणीकरण के तरीकों (आधारों) को स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
समाजशास्त्रीय पद्धतियों का वर्गीकरण समाजशास्त्रीय पद्धतियों के वर्गीकरण या श्रेणीकरण करने के प्रमुख तरीके (आधार) निम्नलिखित हैं.
(1) परम्परागत आधार-परम्परागत आधार पर समाजशास्त्रीय पद्धतियों को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया । जाता है
(क) मात्रात्मक पद्धतियाँ और 
(ख) गुणात्मक पद्धतियाँ।
मात्रात्मक पद्धति में गणना की जाती है या घटकों को नापा जाता है। यह पद्धति प्रेक्षण किये जा सकने वाले व्यवहार का अध्ययन करती है, जबकि गुणात्मक पद्धति अत्यधिक अमूर्त तथा मुश्किल से नापी जाने वाली घटनाओं, जैसे--मनोवृत्तियों, भावनाओं आदि का अध्ययन करती है।

(2) आंकड़ों के प्रकार के आधार पर अन्तर-आंकड़ों के प्रकार के आधार पर समाजशास्त्रीय पद्धतियों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
(क) द्वितीयक पद्धति और 
(ख) प्राथमिक पद्धति।
जो पद्धति पहले से उपलब्ध आंकड़ों पर निर्भर है तथा उनके आधार पर अध्ययन करती है, जैसे-ऐतिहासिक पद्धतियाँ। लेकिन जो पद्धति नए या प्राथमिक आँकड़े बनाती है और उन्हीं के आधार पर अध्ययन करती है, उसे प्राथमिक पद्धति कहा जाता है-साक्षात्कार एक ऐसी ही पद्धति है। 

(3) व्यष्टि और समष्टि के आधार पर अन्तर-व्यष्टि पद्धति छोटे तथा घनिष्ठ परिवेश का अध्ययन करती है। प्रायः इसमें एक अकेला अनुसंधानकर्ता होता है। साक्षात्कार तथा सहभागी प्रेक्षण इसके उदाहरण हैं।
समष्टि पद्धतियाँ वे हैं जो बड़े पैमाने वाले अनुसंधानों का समाधान कर सकती हैं। इसमें अधिक संख्या में अन्वेषक व उत्तरदाता शामिल होते हैं, जैसे-सर्वेक्षण अनुसंधान।

प्रश्न 7. 
सहभागी प्रेक्षण ( अवलोकन) का अर्थ स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सहभागी अवलोकन (प्रेक्षण) का अर्थ-सहभागी प्रेक्षण वह प्रणाली है जिसके अन्तर्गत अवलोकनकर्ता स्वयं भी अन्य व्यक्तियों की भांति अध्ययन समूह अथवा समुदाय का एक अविच्छिन्न अंग बनकर, उनके सदस्यों के वास्तविक जीवन तथा दैनिक व्यवहार में सक्रिय भाग लेता है। सहभागी प्रेक्षण को प्रायः 'क्षेत्रीय कार्य' कहा जाता है। श्रीमती पी. वी. यंग के अनुसार, "सामान्यतः अनियंत्रित अवलोकन का प्रयोग करने वाला सहभागी अवलोकनकर्ता उस समूह के जीवन में ही रहता तथा भाग लेता है जिसका कि वह अध्ययन कर रहा है।"

प्रश्न 8. 
द्वितीय श्रेणी के विवरणों पर आधारित किन्हीं दो क्षेत्रीय कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
आरंभिक मानवविज्ञानियों ने दूरस्थ समुदायों के बारे में यात्रियों, उपदेशकों, उपनिवेशिक प्रशासकों, सिपाहियों तथा उस स्थान पर गए अन्य व्यक्तियों द्वारा लिखी गई रिपोर्टों तथा विवरणों से उपलब्ध सूचनाओं को इकट्ठा कर तथा सुव्यवस्थित कर अध्ययन किया। उदाहरण के लिए, जेम्स फ्रेजर की प्रसिद्ध पुस्तक 'द गोल्डन बॉग' पूरी तरह से ऐसे ही द्वितीय श्रेणी के विवरणों पर आधारित थी। इसी तरह एमिल दुखीम का आदिम धर्म पर किया गया कार्य भी द्वितीय श्रेणी के विवरणों पर आधारित था।

प्रश्न 9. 
ब्रोनिस्लाव मैलिनोवस्की तथा उनके क्षेत्रीय कार्य को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
ब्रोनिस्लाव मैलिनोवस्की पोलैंड के एक मानवविज्ञानी थे जो ब्रिटेन में बसे हुए थे। उन्होंने क्षेत्रीय कार्य को सामाजिक मानवविज्ञान की एक विशेष पद्धति के रूप में स्थापित किया। वे लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स के एक सम्मानित प्रोफेसर थे तथा ब्रिटिश तथा आस्ट्रेलिया के सत्ताधारियों के साथ उनके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। उन्होंने अपने मनोवैज्ञानिक अनुसंधान के लिए आस्ट्रेलिया की अनेक जगहों तथा दक्षिणी प्रशांत महासागर के द्वीपों की यात्रा करने के लिए सत्ताधारियों से अनुरोध किया।

आस्ट्रेलिया सरकार ने दक्षिणी प्रशांत के ट्रोब्रियांड द्वीपों में रहने की अनुमति प्रदान कर दी तथा उनकी यात्रा के लिए वित्त पोषण भी किया। मैलिनोवस्की ने ट्रोब्रियांड द्वीपों में 11/, वर्ष व्यतीत किये। वह वहाँ के मूल गाँवों में एक तंबू में रहे स्थानीय भाषा सीखी तथा उनकी संस्कृति के बारे में सीखने के लिए वहाँ के मूल निवासियों के साथ गहन अन्तःक्रिया की। उन्होंने अपने प्रेक्षण का सावधानीपूर्वक विस्तृत रिकार्ड रखा तथा दैनिक डायरी भी बनाई। बाद में उन्होंने इन क्षेत्रीय टिप्पणियों तथा डायरियों के आधार पर ट्रोब्रियांड संस्कृति पर किताबें लिखीं। ये पुस्तकें शीघ्र लोकप्रिय हो गईं तथा आज भी इन्हें क्लासिक्स माना जाता है।

प्रश्न 10. 
एक सामाजिक मानवविज्ञानी क्षेत्रीय कार्य करते समय क्या करता है? 
उत्तर:
एक सामाजिक मानवविज्ञानी क्षेत्रीय कार्य करते समय निम्नलिखित कार्य करता है
(1) जनगणना कार्य-सामान्यतः वह, उस समुदाय, जिसका वह अध्ययन करता है, की जनगणना कर कार्य प्रारंभ करता है। जनगणना कार्य के अन्तर्गत वह समुदाय में रह रहे सभी लोगों के बारे में विस्तृत सूची बनाता है, जिसमें उनके लिंग, आयु, वर्ग तथा परिवार जैसी सूचना भी शामिल है।

(2) गांव या समुदाय का भौतिक नक्शा बनाना-जनगणना कार्य के साथ- साथ वह गांव या रहने की जगह
का भौतिक रूप से नक्शा बनाने का प्रयास भी करता है। इसमें घरों तथा सामाजिक तौर पर संबंधित अन्य जगहों की स्थिति शामिल होती है।

(3) समुदाय की वंशावली बनाना-अपने क्षेत्रीय कार्य की प्रारंभिक अवस्था में मानव विज्ञानी समुदाय की वंशावली भी बनाता है। यह वंशावली जनगणना द्वारा प्राप्त सूचना पर आधारित हो सकती है, परन्तु इसका आगे विस्तार होता रहता है। उदाहरण के लिए, किसी भी परिवार या घर के मुखिया से उसके रिश्तेदारों-उसकी अपनी पीढ़ी में भाइयों, बहिनों तथा चचेरे भाई-बहिनों के बारे में, तत्पश्चात् उसके माता-पिता की पीढ़ी में उनके माता-पिता, उनके भाइयों-बहिनों आदि के बारे में. इसके बाद परदादा-दादी तथा उनके भाइयों, बहिनों के बारे में और आगे इसी तरह से पूछा जा सकता है। यह कार्य उतनी पीढ़ियों तक के लिए किया जा सकता है जितना व्यक्ति याद रख सकता है। किसी एक व्यक्ति से प्राप्त सूचना की जांच अन्य संबंधियों से वही प्रश्न पूछकर की जा सकती है तथा पुष्टि होने के बाद एक विस्तृत वंश वृक्ष बनाया जा सकता है।

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(4) समुदाय की भाषा सीखना-बाहरी अर्थात् वहां का निवासी न होने के कारण मानव विज्ञानी को अपने आपको मूल निवासियों की संस्कृति में उनकी भाषा सीखकर तथा उनके प्रतिदिन के जीवन में निकट से सहभागी बनकर उनमें ही मिलना पड़ता है ताकि समस्त स्पष्ट तथा अस्पष्ट ज्ञान तथा कौशल को प्राप्त किया जा सके जो कि 'अंदर के निवासियों के पास होता है।

(5) समुदाय के जीवन का प्रेक्षण तथा विस्तृत नोट तैयार करना-वह समुदाय के जीवन का प्रेक्षण करता है तथा विस्तृत नोट तैयार करता है जिसमें सामुदायिक जीवन के महत्त्वपूर्ण पक्षों का उल्लेख होता है। इसके साथ ही साथ वह एक दैनिक डायरी भी लिखता रहता है।

प्रश्न 11. 
सामाजिक मानवविज्ञानी क्षेत्रीय कार्य करते समय समुदाय की वंशावली क्यों बनाता है?
उत्तर:
समुदाय की वंशावली बनाने से सामाजिक मानवविज्ञानियों को क्षेत्रीय कार्य करने में निम्नलिखित लाभ मिलते हैं

  1. वंशावली बनाने से सामाजिक मानवविज्ञानियों को समुदाय की नातेदारी व्यवस्था को समझने में सहायता मिलती है।
  2. किसी व्यक्ति के जीवन में विभिन्न सम्बन्धी किस प्रकार की भूमिका निभाते हैं तथा इन सम्बन्धों को कैसे बनाए रखा जाता है, इसका वंशावली बनाने से पता चलता है।
  3. एक वंशावली मानव विज्ञानी को समुदाय की संरचना के बारे में जानने में सहायता करती है।
  4. वंशावली का ज्ञान व्यावहारिक दृष्टि से अनुसंधानकर्ता को वहाँ के लोगों से मिलने तथा समुदाय की जीवन-शैली में घुलने-मिलने में सहायक होती है।।

प्रश्न 12. 
समाजशास्त्र में क्षेत्रीय कार्य की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिये। 
उत्तर:
समाजशास्त्र में क्षेत्रीय कार्य की विशेषताएँ समाजशास्त्र में क्षेत्रीय कार्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) सामाजिक मानवशास्त्रीय तकनीकें-समाजशास्त्री जब क्षेत्रीय कार्य करते हैं तो सामान्यतः सामाजिक मानवविज्ञानियों द्वारा क्षेत्रीय कार्य के दौरान अपनायी जाने वाली तकनीकों को ही अपनाते हैं अर्थात् वे क्षेत्र की जनगणना करते हैं, क्षेत्र का भौतिक नक्शा बनाते हैं तथा वंशावली तैयार करते हैं तथा समुदाय के सदस्यों के साथ समय बिताते हैं । अर्थात् एक समाजशास्त्री भी एक समुदाय में रहता है तथा उसके अन्दर का निवासी' बनने का प्रयास करता है।

(2) सभी प्रकार के समाज इसके विषय-क्षेत्र-समाजशास्त्री अपना क्षेत्रीय कार्य सभी प्रकार के समाजों के समुदायों में करते हैं।

(3) क्षेत्र में रहना आवश्यक नहीं-समाजशास्त्रीय क्षेत्रीय कार्य में अनुसंधानकर्ता को 'क्षेत्र' में रहना आवश्यक नहीं है, यद्यपि उसे अपना अधिकांश समय समुदाय के सदस्यों के साथ बिताना पड़ता है।

(4) समाजशास्त्रीय क्षेत्रीय कार्य को अलग रूप में भी किया जा सकता है-समाजशास्त्रीय क्षेत्रीय कार्य को बाहर के व्यक्ति के द्वारा क्षेत्र में रहकर या क्षेत्र के निवासियों से सम्बद्ध रहकर मानवशास्त्रीय ढंग से तो किया ही जा सकता है, लेकिन इसे अलग रूप में भी किया जा सकता है। जैसे-अमेरिकन समाजशास्त्री मिशेल बुरावों ने शिकागो कारखाने में अनेक महीनों तक कारीगर के रूप में कार्य किया तथा कामगारों के दृष्टिकोण से कार्य के अनुभव के बारे में लिखा।

प्रश्न 13. 
भारतीय समाजशास्त्र में क्षेत्रीय कार्यपद्धतियों का प्रयोग ग्रामीण अध्ययनों के रूप में क्यों किया गया?
उत्तर:
भारतीय समाजशास्त्र में क्षेत्रीय कार्यपद्धतियों का प्रयोग ग्रामीण अध्ययनों के रूप में किया गया। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) गाँव भी एक सीमित समुदाय था तथा इतना छोटा था कि एक अकेले व्यक्ति द्वारा इसका अध्ययन किया जा सकता था। अर्थात् समाजशास्त्री गांव में लगभग प्रत्येक को जान सकता था तथा वहाँ के जीवन का पता लगा सकता था।

(2) मानव विज्ञान का सरोकार अधिकतर आदिम समुदायों से होने के कारण उपनिवेशवादी भारत में राष्ट्रवादियों में यह लोकप्रिय नहीं था। उनके मत में इसमें औपनिवेशिक पूर्वाग्रह शामिल हैं क्योंकि वे औपनिवेशिक समाजों के विकासात्मक या सकारात्मक पक्षों के स्थान पर उनके गैर-आधुनिक पक्षों को उजागर करते हैं। जबकि गाँवों के अध्ययन में विकासात्मक या सकारात्मक पक्षों का भी अध्ययन किया जा सकता है।

(3) गाँव पर किये गए अध्ययन इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण थे क्योंकि उन्होंने भारतीय समाजशास्त्र को एक ऐसा विषय उपलब्ध कराया जो नए स्वतंत्र भारत में अत्यन्त रुचिकर था। सरकार की रुचि विकासशील ग्रामीण भारत में थी। राष्ट्रीय आन्दोलन से महात्मा गाँधी 'ग्राम उत्थान' कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भाग ले रहे थे। यहाँ तक कि शहरी शिक्षित भारतीय भी ग्रामीण जीवन में अत्यधिक रुचि ले रहे थे क्योंकि इनमें से अधिकतर के कुछ पारिवारिक तथा वर्तमान ऐतिहासिक संबंध गाँवों से थे।

(4) गाँव ऐसी जगह है जहाँ अधिकांश भारतीय रहते हैं। इन्हीं कारणों से गाँवों के अध्ययन भारतीय समाजशास्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण हिस्सा बन गये थे तथा ग्रामीण समाज का अध्ययन करने के लिए क्षेत्रीय कार्य- पद्धतियाँ अत्यन्त अनुकूल थीं।

प्रश्न 14. 
गाँवों का अध्ययन करने की विभिन्न शैलियों का उल्लेख कीजिए। 
उत्तर:
गाँवों का अध्ययन करने की विभिन्न शैलियाँ सन् 1950 तथा 1960 के दशक के दौरान गाँवों का अध्ययन करना भारतीय समाजशास्त्र का मुख्य पेशा बन गया। गाँवों का अध्ययन करने की विभिन्न शैलियां निम्नलिखित रहीं-
(1) मिशनरी कार्य के एक उप-उत्पाद के रूप में-एक मिशनरी दंपति विलियम तथा चारलोटे वाइजर उत्तर प्रदेश के एक गाँव में पांच वर्ष तक मिशनरी कार्य हेतु रहें और एक प्रसिद्ध ग्रामीण अध्ययन 'बिहाइंड मॅड वॉल्स' सामने आया। वाइजर की यह पुस्तक उनके मिशनरी कार्य का एक उप-उत्पाद थी।

(2) परम्परागत सामाजिक मानव विज्ञानी शैली-1950 में किये गये विभिन्न ग्रामीण अध्ययनों की शैली क्लासिकी सामाजिक मानवविज्ञानी थी तथा जनजाति का स्थान 'गांव' ने ले लिया था। एम.एन. श्रीवास्तव की प्रसिद्ध पुस्तक 'रिमेम्बर्ड विलेज' तथा श्रीनिवास का 'रामपुरा गांव' का अध्ययन इसी शैली में किये गए हैं।

(3) सामूहिक परियोजना के एक अंग के रूप में-1950 में एस.सी. दुबे द्वारा लिखित 'इंडियन विलेज' में सिकंदराबाद के निकट समीरपेट नामक गांव का अध्ययन है। इस बड़ी सामूहिक योजना का उद्देश्य सिर्फ गांव का अध्ययन करना ही नहीं था बल्कि उसका विकास करना भी था। इसका उद्देश्य समीरपेट गाँव को एक ऐसी प्रयोगशाला बनाना था जहाँ ग्रामीण विकास कार्यक्रम बनाने हेतु प्रयोग किये जा सकते थे।

(4) ग्रामीण समाज तथा संस्कृति का बहुविषयक अध्ययन-ग्रामीण अध्ययन की एक अन्य शैली सन् 1950 में किए गए 'कोरनेल विलेज स्टडी प्रोजेक्ट' में दिखाई देती है। इस परियोजना में मानवविज्ञानियों, मनोवैज्ञानिकों तथा भाषाविदों के एक समूह ने पूर्वी उत्तरप्रदेश के अनेक गाँवों का अध्ययन किया। ग्रामीण समाज तथा संस्कृति का बहुविषयक अध्ययन करने की यह अति महत्वपूर्ण शैक्षिक परियोजना थी।

प्रश्न 15. 
सर्वेक्षण पद्धति की चार प्रमुख विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
सर्वेक्षण पद्धति की विशेषताएँ सर्वेक्षण क्षेत्रीय कार्य के लिए सबसे अच्छी समाजशास्त्रीय पद्धति है। यह अब आधुनिक सार्वजनिक जीवन का एक हिस्सा बन गई है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) संपूर्ण तथ्यों का पता लगाने का प्रयास-सर्वेक्षण में सम्पूर्ण तथ्यों का पता लगाने का प्रयास किया जाता

(2) प्रतिनिधित्वपूर्ण निदर्शन पर आधारित-सर्वेक्षण प्रायः किसी विषय पर सावधानीपूर्वक चयन किये गए लोगों के प्रतिनिधि समुच्चय से प्राप्त सूचना का व्यापक दृष्टिकोण होता है। ऐसे लोगों को प्रायः उत्तरदाता कहा जाता है। ये अनुसंधानकर्ता द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हैं।

(3) विस्तृत दल द्वारा सम्पन्न-सर्वेक्षण अनुसंधान सामान्यतया विस्तृत दल द्वारा किया जाता है जिसमें अध्ययन की योजना बनाने वाले तथा रूपरेखा तैयार करने वाले (अनुसंधानकर्ता) तथा उनके सहयोगी और सहायक (जिन्हें अन्वेषक या अनुसंधान सहायक कहा जाता है) शामिल होते हैं। 

(4) विभिन्न प्रकार के प्रश्न व उत्तर-सर्वेक्षण के प्रश्न विभिन्न प्रकार से पूछे जा सकते हैं तथा इनके उत्तर भी विभिन्न प्रकार से दिये जा सकते हैं। प्रायः प्रश्न व्यक्तिगत दौरे के दौरान मौखिक रूप से पूछे जाते हैं, कभी-कभी दूरभाष द्वारा भी पूछे जाते हैं। प्रश्न अनुसूचियों या प्रश्नावलियों के माध्यम से भी पूछे जा सकते हैं। वर्तमान में ई-मेल, इंटरनेट माध्यमों से भी प्रश्न पूछे जा रहे हैं तथा इनके द्वारा उत्तर भी प्राप्त किये जा रहे हैं।

प्रश्न 16. 
एक प्रतिदर्श सर्वेक्षण का चयन कैसे किया जाता है? इसे उदाहरण सहित स्पष्ट करें। 
उत्तर:
एक प्रतिदर्श सर्वेक्षण का चयन एक प्रतिदर्श सर्वेक्षण का चयन निम्नलिखित दो सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है
(1) जनसंख्या में सभी महत्वपूर्ण उपसमूहों को पहचाना जाए तथा प्रतिदर्श में उन्हें प्रतिनिधित्व दिया जाएमान लीजिये हम उस परिकल्पना की जाँच करना चाहते हैं जिसमें यह कहा गया है कि छोटे तथा आपस में अधिक घनिष्ठता वाले समुदाय, बड़े तथा अधिक अवैयक्तिक समुदायों की तुलना में ज्यादा अन्तः सामुदायिक समन्वय की उत्पत्ति करते हैं। सरलता से समझने के लिए मान लीजिए कि हम भारत के किसी एक राज्य के ग्रामीण क्षेत्र में रुचि रखते हैं।

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प्रतिदर्श चयन करने की सरलतम संभावित प्रक्रिया राज्य के सभी गांवों की उनकी जनसंख्या के साथ सूची बनाने से प्रारम्भ होगी, जो प्रायः जनगणना के आंकड़ों से प्राप्त की जा सकती है। इसके बाद हमें छोटे तथा बड़े गाँवों के मानदण्ड को परिभाषित कर गांवों की सूची से सभी मध्यम गाँवों को, जो न छोटे हैं और न बड़े, को हटाना होगा। अब हमारे पास गाँव के आकार के अनुसार एक संशोधित सूची होगी।

(2) प्रतिदर्श चयन का दूसरा सिद्धान्त है-वास्तविक इकाई का चयन पूर्णतया अवसर आधारित हो-हमारे प्रतिदर्श की वास्तविक इकाई छोटे या बड़े गाँव हैं। हम प्रत्येक स्तर के गाँव को समान महत्व देना चाहते हैं । अतः हमने प्रत्येक स्तर से 10 गाँवों को चुनने का निर्णय लिया। इसके लिए हम छोटे तथा बड़े गाँवों की सूची को क्रम प्रदान करेंगे तथा प्रत्येक सूची से लॉटरी द्वारा दस-दस गाँवों का चयन यादृच्छिक विधि द्वारा करेंगे। अब हमारे पास 10 छोटे तथा 10 बड़े गाँवों वाले प्रतिदर्श हैं तथा इन गाँवों का अध्ययन यह जानने के लिए प्रारम्भ कर सकते हैं कि हमारी प्रारंभिक परिकल्पना सही थी या नहीं। 

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
सामाजिक सर्वेक्षण क्या है? इसकी प्रकृति (विशेषताओं) का विवेचन कीजिए।
उत्तर;
सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ-सर्वेक्षण से अभिप्राय ऐसी अनुसंधान पद्धति से है जिसमें अनुसंधानकर्ता को घटना-स्थल पर जाकर किसी विशेष घटना का वैज्ञानिक की तरह से निरीक्षण करना होता है। चैपमैन के अनुसार, "सामाजिक सर्वेक्षण एक विशिष्ट भौगोलिक, सांस्कृतिक अथवा प्रशासनिक क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों से सम्बन्धित तथ्यों को एक व्यवस्थित रूप में संकालित किये जाने की विधि है।" सिन पाओ येंग के मतानुसार, "सामाजिक सर्वेक्षण प्रायः लोगों के एक समूह की रचना, क्रिया-कलापों तथा रहन-सहन की दशाओं के सम्बन्ध में एक जांच-पड़ताल है।"

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामाजिक सर्वेक्षण एक ऐसी अध्ययन पद्धति है जिसके अन्तर्गत सर्वेक्षणकर्ता एक विशिष्ट समस्या का विशिष्ट भू-भाग एवं जनसंख्या का चयन करके उसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म अध्ययन करके सामाजिक तथ्यों का संकलन, वर्गीकरण, सारणीयन तथा विश्लेषण कर निष्कर्ष निकालता है और उसका सामान्यीकरण कर उसे जनसंख्या के एक बड़े भाग पर कार्यान्वित करता है। सामाजिक सर्वेक्षण की प्रकृति अथवा विशेषताएँ सामाजिक सर्वेक्षण पद्धति की प्रमुख विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है

(1) सामाजिक समस्या का गहनतम अध्ययन-सामाजिक सर्वेक्षण के आधार पर सामाजिक समस्या के हर पहलू का विशालतम ढंग से अध्ययन न करके समस्या के विशिष्ट पहलुओं का सूक्ष्मातिसूक्ष्म ढंग से अध्ययन करने का प्रयास किया जाता है। दूसरे शब्दों में, जिस समाज में सामाजिक सर्वेक्षण की प्रणाली को स्वीकार किया जायेगा, वहाँ पर भू-भाग में से प्रतिनिध्यात्मक इकाइयों का चुनाव आवश्यक है। प्रतिनिध्यात्मक इकाइयों में भी ऐसे लोग आते हैं जो अनुसंधानकर्ता को अधिकाधिक मात्रा में सामाजिक तथ्यों को प्रदान करने में सहयोग प्रदान करते हैं।

(2) महत्वपूर्ण समस्याओं का अध्ययन-सामाजिक सर्वेक्षण में महत्वहीन एवं साधारण समस्या को अध्ययन का विषय नहीं बनाया जाता है। इसमें तो ऐसी समस्या को ही अध्ययन का विषय बनाया जाना जरूरी है जो गम्भीरतम हो, जो समाज की सामाजिक समस्याओं को बढ़ाने में योगदान देती हो। समाज में ऐसी समस्याओं से संघर्ष, प्रतियोगिता एवं विघटनकारी समस्याओं को प्रोत्साहन मिलने लगता है। इस तरह अपराधों एवं बाल अपराधों में भी वृद्धि होने लगती है। उन्हीं को लेकर वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने का प्रयास किया जाता है। हर सर्वेक्षण संस्था समस्या के चुनाव के समय इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखती है। उदाहरण के लिए, भारत में गरीबी, बेरोजगारी, बढ़ती हुई कीमतें, आपराधिक समस्या एवं बाल आपराधिक समस्यायें इतनी गम्भीर हैं जिनको यदि नियन्त्रित करने के प्रयास न किये गये, तो इनसे अन्य अनेक समस्याओं की उत्पत्ति हो सकती है।

(3) गुणात्मक एवं परिमाणात्मक तथ्यों का एकत्रीकरण-सामाजिक सर्वेक्षणों में विभिन्न प्रकृति के परिमाणात्मक तथा गुणात्मक तथ्य एकत्रित किये जाते हैं, लेकिन इनमें संस्थाओं से सम्बन्धित तथ्य ही बड़ी मात्रा में एकत्रित किये जाते हैं। ये तथ्य सामाजिक समस्याओं को प्रायः आँकड़ों के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

(4) जीवन व जीवन दशाओं से सम्बन्धित तथ्यों का अध्ययन-सामाजिक सर्वेक्षणों का समूह या समुदाय की संरचना तथा उसमें पायी जाने वाली दशाओं में गहरा सम्बन्ध होता है। इसके अन्तर्गत समूहों के सामान्य जीवन से सम्बन्धित क्रियाओं एवं सामूहिक व्यवहार को विशेष महत्व दिया जाता है। सामाजिक जीवन, सामुदायिक लक्षण, पारस्परिक सम्बन्धों, निवासियों की आवश्यकताओं एवं समस्याओं का अध्ययन सामाजिक सर्वेक्षणों का प्रमुख उद्देश्य माना जाता है।

(5) एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र-सामाजिक सर्वेक्षण की एक अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सम्पूर्ण ग्राम या शहर को न लेकर विशिष्ट भू-भागीय क्षेत्र का ही अध्ययन किया जाता है। नगर, ग्राम, कस्बा, मौहल्ला इत्यादि के आधार पर ही सामाजिक सर्वेक्षण आयोजित किया जाता है। उसमें रहने वाले समुदाय चाहे वे समुदाय नगरीय हों या ग्रामीण हों अथवा जनजातीय हों, सामाजिक सर्वेक्षण की अध्ययन सामग्री समझे जाते हैं।

(6) रचनात्मक आधार-सामाजिक सर्वेक्षण की एक अन्य विशेषता यह भी है कि इसमें सर्वेक्षणकर्ता न केवल समाज का बारीकी से अध्ययन करके समाज का यथार्थ एवं प्रभावोत्पादक चित्र ही प्रस्तुत करता है, बल्कि इसके आधार पर वह समस्या का समाधान करने हेतु एक सुधारात्मक या रचनात्मक योजना भी प्रस्तुत करता है जिसके आधार पर विश्व सरकारों ने अपने समाजों में वांछनीय परिवर्तनों को स्वीकार किया है।

(7) तथ्यों की वैषयिकता-हर सामाजिक सर्वेक्षण में सर्वेक्षणकर्ता पक्षों/पूर्वाग्रहों से स्वतन्त्र रहकर तथ्यों को एकत्रित करता है। वह तो तटस्थ निरीक्षक की भाँति सामाजिक घटनाओं, क्रियाओं-प्रक्रियाओं को समझने का प्रयास करता है तथा सूचनायें एकत्रित करता रहता है। उसे किसी भी सामाजिक घटना की अच्छाई या दोषों से सरोकार नहीं होता है। जो जैसा है, उसे उसी तरह प्रकट करना सर्वेक्षणकर्ता अपना कर्त्तव्य मानता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सर्वेक्षणकर्ता सर्वेक्षण को अपने व्यक्तिगत या निजी प्रभावों से बचाकर, उसमें वैषयिकता अथवा तटस्थता लाने पर अत्यधिक ध्यान देता है।

(8) वैज्ञानिक प्रक्रिया-सामाजिक सर्वेक्षण एक प्रक्रिया है, जो वैज्ञानिक विधियों पर आधारित है। सामाजिक सर्वेक्षणों में किसी समूह, समुदाय अथवा समस्या से सम्बन्धित तथ्यों को एक क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित रूप से एकत्रित किया जाता है तथा एक लम्बी प्रक्रिया होने के परिणामस्वरूप इसे विभिन्न चरणों में विभाजित करके सामान्य तथ्यों को एकत्रित किया जाता है, उन्हें वर्गीकृत किया जाता है तथा उनमें से विश्लेषण निकाले जाते हैं। इस तरह के विश्लेषण उपकल्पनाओं के निर्माण में ही सहायता प्रदान करते हैं। सामाजिक सर्वेक्षण के आधार पर ही इस बात का पता लगाया जाता है कि सामाजिक समस्या के होने के क्या-क्या कारण हैं तथा उनके क्या-क्या परिणाम निकल रहे हैं । एक तरह से विज्ञान की भाँति कारण एवं परिणामों के साथ सम्बन्ध जोड़े जाते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है।

(9) सहकारी प्रयास पर आधारित प्रक्रिया-सर्वेक्षण एक व्यक्ति का प्रयास न होकर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के सामूहिक कार्यों के प्रयासों का फल है। अकेले सर्वेक्षणकर्ता की अपेक्षा भिन्न-भिन्न सर्वेक्षणकर्ताओं के अध्ययन दल इन्हें पूरा करते हैं। एक साथ ही विभिन्न दृष्टिकोण मिले-जुले अथवा अन्तर विद्यालय के रूप में सामने आते हैं जिसमें विभिन्न अध्ययन यन्त्रों एवं साधनों को अपनाया जाता है।

प्रश्न 2. 
सामाजिक सर्वेक्षण से आप क्या समझते हैं? इसके अध्ययन-क्षेत्र को स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ-इसके लिए प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।
सामाजिक सर्वेक्षण का अध्ययन क्षेत्र (Subject Scope of Social Survey) 
सी. ए. मोजर के अनुसार, सामाजिक सर्वेक्षणों के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाने वाले क्षेत्रों को निम्नलिखित पांच भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) जनसंख्यात्मक क्षेत्र-सामाजिक सर्वेक्षणों के अन्तर्गत एक समूह की जनसंख्या से सम्बन्धित सभी पक्ष सम्मिलित किये जाते हैं। जैसे परिवार, उनकी रचना, उनमें रहने वाले सदस्य, उनके आयु समूहों तथा समुदायों में जनसंख्या का वितरण, पुरुष-स्त्रियों तथा बालकों की संख्या का अनुपात, जन्म-मृत्यु की दर, जीवित रहने की आयु, परिवार नियोजन, जनसंख्या की गतिशीलता इत्यादि। 

(2) सामाजिक क्षेत्र-इसके अन्तर्गत समुदायों तथा अध्ययन समूहों के सामाजिक संगठन तथा उनकी संस्थाओं से सम्बन्धित समस्याओं को सम्मिलित किया जाता है। सामाजिक व्याधिकी से सम्बन्धित समस्यायें, जैसे निरक्षरता, मद्यपान, वेश्यागमन, भ्रष्टाचार, अपराधी प्रवृत्ति तथा घटनायें इत्यादि भी इसी क्षेत्र में आती हैं। भिन्न-भिन्न तरह की सामाजिक संस्थाओं को भी इसके अध्ययन का विषय बनाया जाता है।

(3) आर्थिक क्षेत्र-इसके अन्तर्गत व्यक्तियों के निजी तथा सामूहिक रहन-सहन के स्तर एवं सामाजिक-आर्थिक दशाओं के सम्बन्ध में सामाजिक सर्वेक्षण आयोजित किये जाते हैं। इसके अन्तर्गत समूह के सदस्यों की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं (भोजन इत्यादि) तथा उनकी पूर्ति के लिए आर्थिक साधनों से सम्बन्धित पक्ष पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

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(4) सांस्कृतिक क्षेत्र-सामाजिक सर्वेक्षण के क्षेत्र में सांस्कृतिक क्षेत्र भी प्रमुख है। इसमें व्यक्तियों की दैनिक. जीवन क्रियाओं अथवा दिनचर्या; उनके सामान्य जीवन एवं व्यवहारों का सर्वेक्षण तथा उनके मनोरंजन के साधन, अभिरुचियों के बारे में जानकारी प्राप्त करना आदि सम्मिलित हैं।

(5) मनोवैज्ञानिक क्षेत्र-सामाजिक सर्वेक्षण आजकल सामाजिक मतों, मनोवृत्तियों को जानने के लिए भी किए जाते हैं । इस क्षेत्र में प्रायः गुणात्मक अध्ययन व्यक्तियों के दृष्टिकोण, उनकी मनोवृत्तियों तथा सामाजिक मूल्यों अर्थात् मानसिक स्थिति की जानकारी से सम्बन्धित होते हैं। जनमत संग्रह, रेडियो तथा बाजार सम्बन्धी मत, समाचार पत्र सम्बन्धी मत, श्रोता समूह के मत, चुनाव सम्बन्धी मत इत्यादि सामाजिक सर्वेक्षण के महत्वपूर्ण अध्ययन क्षेत्र हैं।

प्रश्न 3. 
सामाजिक सर्वेक्षण क्या है ? सामाजिक सर्वेक्षण के उद्देश्यों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ-
नोट-('सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ' के लिए कृपया प्रश्न संख्या 1 के उत्तर का अवलोकन करें।).
सामाजिक सर्वेक्षण के उद्देश्य ।(Aims of Social Survey).
सामाजिक सर्वेक्षण के उद्देश्य को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) सामाजिक तथ्यों का संकलन-सामाजिक सर्वेक्षण का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत अध्ययन करना ही नहीं होता है बल्कि इसके आधार पर उन सूचनाओं का संकलन करना भी होता है जो जीवन में वास्तव में दृष्टिगोचर हो रही हैं । इन्सान की जिन्दगी में दो प्रकार के व्यवहार पाये जाते हैं-एक सैद्धान्तिक व्यवहार, जो केवल प्रदर्शन हेतु ही होते हैं और दूसरी ओर वे व्यवहार जो वास्तविक होते हैं। सामाजिक सर्वेक्षणकर्ता का उद्देश्य इन्हीं वास्तविक व्यवहारों से सम्बन्धित तथ्यों को एकत्र करना है। इन तथ्यों के आधार पर सामाजिक जीवन को जानने का प्रयास किया जाता है।

(2) पुराने सामाजिक सिद्धान्तों तथा नियमों का सत्यापन करना-समाज प्रगतिशील आयामों को स्वीकार कर रहा है, प्रगति के पक्षों को चयन का विषय बना रहा है। वह निरन्तर परिवर्तन की ओर अग्रसर हो रहा है। इसी कारण वह विकास और पतन की ओर भी अग्रसर हो रहा है। इसलिए यह देखना आवश्यक है कि पुराने जमाने के सिद्धान्त सही भी हैं अथवा नहीं। वे वर्तमान-काल के लिए सत्य एवं उपयुक्त सिद्ध भी होंगे अथवा नहीं। इन सिद्धान्तों की परख सामाजिक सर्वेक्षण के समालोचनात्मक अध्ययनों के आधार पर हो सकती है। अतः यदि पुराने जमाने के रीति-रिवाजों, रूढ़ियों, प्रथाओं इत्यादि पुराने सिद्धान्तों की सत्यता एवं उपयुक्तता का पता लगाना हो, तो सामाजिक सर्वेक्षण के आधार पर आसानी से लगाया जा सकता है।

(3) कार्य-कारण सम्बन्धों की खोज-सामाजिक सर्वेक्षण का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य यह माना जाता है कि सामाजिक समस्या के कार्य-कारण सम्बन्धों की स्थापना करके निष्कर्षों की स्थापना की जाए। कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर निकाले गये निष्कर्ष सामाजिक समस्या के निदान में काफी सहायक होते हैं। सम्भवतः यह उद्देश्य सामाजिक सर्वेक्षण के महत्व को बढ़ा रहा है।

(4) उपकल्पनाओं का निर्माण एवं परीक्षण-अनेक सर्वेक्षणों का उद्देश्य विभिन्न प्रकार की उपकल्पनाओं की परीक्षा भी करना होता है। यद्यपि दैनिक जीवन की अनेक घटनाओं का अवलोकन या पुस्तकीय अध्ययन हमारे हृदय में विभिन्न उपकल्पनाओं को जन्म दे सकता है, तथापि उसकी सत्यता एवं व्यावहारिकताओं का पता सामाजिक सर्वेक्षण के द्वारा ही भली प्रकार से लगाया जा सकता है।

(5) व्यावहारिक उपयोगिता का उद्देश्य-अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार, सामाजिक सर्वेक्षण के आधार पर बनाये सिद्धान्तों को जीवन में लागू किया जा सकता है। ऐसा होने पर सामाजिक जीवन में शान्ति एवं सुव्यवस्था को प्रोत्साहन मिलेगा तथा सभ्यता और संस्कृति आगे की ओर अग्रसर हो सकेगी।

(6) विघटनकारी दशाओं को कम करने का उद्देश्य-सामाजिक सर्वेक्षण का एक अन्य उद्देश्य विघटनकारी प्रक्रियाओं को नियन्त्रित करना एवं संगठनकारी प्रक्रियाओं को प्रोत्साहन देना है। उदाहरण के लिए, बाल अपराध, व्यभिचार, मद्यपानता, छात्र अनुशासनहीनता इत्यादि जटिल समस्यायें, व्याधिशास्त्रीय एवं विघटनकारी समस्यायें हैं, जिन्हें नियन्त्रित करना बहुत ही आवश्यक है अन्यथा समाज में अराजकता व्याप्त हो जायेगी। सामाजिक सर्वेक्षणकर्ता का उद्देश्य इन सभी विघटनकारी समस्याओं को समाप्त करने हेतु सहज सुझाव प्रदान करना है। इन्हीं सुझावों का परिणाम है कि समाज की विघटनकारी प्रक्रियायें दिन-प्रतिदिन नियन्त्रण में हो रही हैं।

(7) सामाजिक समस्याओं का अध्ययन-सामाजिक सर्वेक्षण के प्रमुख उद्देश्यों में एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य है-समाज की सामाजिक समस्याओं, श्रमिक वर्गों एवं उनकी दशाओं का अध्ययन करना । समाज के साधारण लोगों की आवाज सामाजिक सर्वेक्षण की आवाज है। समाज की इन समस्याओं के अध्ययन एवं उनके समाधान से सामाजिक सर्वेक्षण का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। इसीलिए सामाजिक सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य निर्धन एवं श्रमिक वर्ग की समस्याओं एवं अवस्थाओं का अध्ययन करना है। इन समस्याओं के अध्ययन के साथ-साथ शेष पीछे रहने वाले उच्च वर्गों का भी अध्ययन हो सकेगा क्योंकि इन समस्याओं की उत्पत्ति के लिए केवल निम्न वर्ग के लोग ही उत्तरदायी नहीं हैं, बल्कि उच्च वर्ग के लोगों के जीवन के तौर-तरीके भी इसके लिए उत्तरदायी हैं।

(8) जीवन एवं कार्य-दशाओं का अध्ययन-सामाजिक सर्वेक्षण का उद्देश्य श्रमिक वर्ग, उनके पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन तथा कार्य की दशाओं की प्रकृति का बोध करना होता है। सामान्य जीवन की जानकारी प्रदान करना, इसका मूल उद्देश्य माना गया है। सामाजिक सर्वेक्षण के विकास आन्दोलन से ज्ञात होता है कि इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में किये गये अधिकांश सर्वेक्षण सामान्य समाज में जीवन की स्थिति, जनता को उपलब्ध सुविधाओं, व्यवसायों के अन्तर्गत कार्य की दशाओं इत्यादि की ओर संकेत करते हैं।

प्रश्न 4. 
तथ्य संकलन की जनगणना तथा निदर्शन विधि से क्या आशय है? निदर्शन निर्धारण के आधारों को स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
तथ्य-संकलन की पद्धतियाँ सामाजिक तथ्य-संकलन की पद्धतियों के मोटे रूप से दो प्रकार बताये जाते हैं। ये दो पद्धतियाँ हैं

  1. जनगणना पद्धति और 
  2. निदर्शन पद्धति।

(1) जनगणना विधि -
(Census Method)-जनगणना पद्धति में हम अपने अध्ययन-विषय के अन्तर्गत आने वाली समस्त जनसंख्या या इकाइयों का अध्ययन करके ही अपना निष्कर्ष निकालते हैं। लेकिन आधुनिक सामाजिक अनुसंधानों में इस पद्धति का प्रयोग बहुत कम किया जाता है। इसका कारण यह है कि आधुनिक अनुसंधानों के क्षेत्र प्रायः विस्तृत होते हैं और इस विशाल क्षेत्र की समस्त जनसंख्या व इकाइयों का अध्ययन करने के लिए अत्यधिक समय, पूँजी तथा प्रशिक्षित शोधकर्ताओं की आवश्यकता होती है जो साधारणतया उपलब्ध नहीं हो पाते। विशाल क्षेत्र, सीमित समय व पूँजी और अल्पसंख्यक कार्यकर्ताओं की स्थिति में यही निर्धारित किया जाता है कि शोध कार्य में निदर्शन पद्धति को उपयोग में लाया जाये।

(2) निदर्शन विधि-
(Sampling Method) सामाजिक अनुसंधान में अध्ययन का दूसरा तरीका समग्र में से कुछ इकाइयों के प्रतिनिधि रूप में चुन लिये जाने का है। इसे 'निदर्शन विधि' कहा जाता है।
निदर्शन के निर्धारण के आधार-सम्पूर्ण जनसंख्या में से केवल कुछ इकाइयों को चुनकर उसी को सम्पूर्ण प्रतिनिधि मान लेने के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं

(1) सम्पूर्ण जनसंख्या की एकरूपता-लुण्डबर्ग ने लिखा है कि यदि तथ्यों में अत्यधिक एकरूपता पायी जाती है अर्थात् सम्पूर्ण तथ्यों की विभिन्न इकाइयों में अन्तर बहुत कम है तो सम्पूर्ण में से कुछ या कोई इकाई समग्र का उचित प्रतिनिधित्व करेगी। ऐसी स्थिति में समग्र का कोई निदर्शन ले लेना प्रतिनिधित्वपूर्ण तथा उचित रहता है। इसमें हमारा निदर्शन यथार्थ रहेगा। निदर्शन-प्रविधि भी इस मान्यता पर आधारित है कि विविधताओं के बीच समानताओं को भी सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में खोजा जा सकता है।

(2) प्रतिनिधि चुनाव की संभावना-विशाल समग्र से यदि कुछ इकाइयों को चुनने से उसका उचित प्रतिनिधित्व संभव हो सकता हो तो निदर्शन का चुनाव किया जाना चाहिए।

(3) समय, पूँजी तथा अध्ययनकर्ताओं की सीमा-एकरूपता और प्रतिनिधि चुनाव की संभावना हो और समय, पूंजी तथा अध्ययनकर्ताओं की कमी हो और समग्र विस्तृत हो तो ऐसी स्थिति में निदर्शन का चुनना उचित रहता है।

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(4) अधिक गहन अध्ययन की संभावना-जनगणना पद्धति में शोधकर्ता का ध्यान असंख्य इकाइयों में बिखर जाता है और इसलिए उनका गहन अध्ययन संभव नहीं होता, केवल मोटी-मोटी बातों का पता लगाना ही संभव होता है। इसके विपरीत चूंकि निदर्शन प्रविधि में इकाइयों की संख्या पर्याप्त कम होती है, इसलिए अधिक समय तक तथा अधिक सूक्ष्म रूप में उनका अध्ययन तथा विवेचन किया जा सकता है। आधुनिक सामाजिक घटनाएँ अधिक जटिल हैं। अतः उन्हें समझाने के लिए उनका सूक्ष्म अध्ययन ही एकमात्र तरीका होता है। निदर्शन-प्रविधि इसी आवश्यकता की पूर्ति करती है।

(5) निष्कर्षों की परिशुद्धता-निदर्शन प्रविधि के अन्तर्गत शोधकर्ता का ध्यान कुछ निश्चित इकाइयों पर केन्द्रित होने के कारण वह उनके सम्बन्ध में गहन अध्ययन करके अधिक यथार्थ निष्कर्षों को निकाल सकता है।

(6) प्रशासनिक सुविधा-निदर्शन प्रविधि में शोध कार्य को संगठित करने में भी पर्याप्त सुविधा रहती है क्योंकि इसमें इकाइयों की संख्या कम होती है।

(7) अध्ययनकर्ता इकाइयों के पते की अज्ञानता-कभी-कभी ऐसा होता है कि जिनके बारे में हमें अध्ययन क़रना है उनमें से सबका पता हमें मालूम नहीं हो पाता, जैसे-किसी वस्तु के उपभोक्ताओं के नाम व पते। ऐसी स्थिति में निदर्शन प्रविधि द्वारा ही अध्ययन किया जा सकता है।

(8) विशाल क्षेत्र-कभी-कभी सामाजिक शोध में जनगणना पद्धति का प्रयोग इसलिए भी नहीं हो पाता कि अध्ययन का क्षेत्र बहुत विस्तृत है और भौगोलिक दृष्टि से लोग इतने बिखरे हैं कि प्रत्येक से सम्पर्क स्थापित नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में निदर्शन प्रविधि ही एकमात्र उपाय रह जाती है।

प्रश्न 5. 
निर्दशन का अर्थ स्पष्ट कीजिये। एक श्रेष्ठ निदर्शन के प्रमुख लक्षणों को स्पष्ट कीजिये। 
उत्तर:
निदर्शन का अर्थ व परिभाषाएँ
(Meaning and Definitions of Sampling) मोटे तौर पर हम समग्र में से चुने गये ऐसे 'कुछ' को, जो समग्र का उचित प्रतिनिधित्व करता है, निदर्शन कहते हैं। इस अर्थ में समग्र का उचित प्रतिनिधित्व करने वाली कुछ इकाइयों को निदर्शन कहा जाता है। विभिन्न विद्वानों ने निदर्शन की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं। कुछ प्रमुख परिभाषायें निम्नलिखित हैं

  1. गुडे तथा हाट्ट के अनुसार, "एक निदर्शन जैसा कि नाम स्पष्ट करता है, एक विशाल सम्पूर्ण समूह का एक लघुतर प्रतिनिधि है।"
  2. श्रीमती पी. वी. यंग के अनुसार, "निदर्शन उस सम्पूर्ण समूह अथवा योग का एक लघु चित्र है, जिसमें से निदर्शन लिया गया है।"
  3. बोगार्ड्स के अनुसार, "प्रतिदर्शग्रहण एक पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार इकाइयों के एक समूह में से एक निश्चित प्रतिशत का चुनाव है।"

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि निदर्शन प्रणाली वह अनुसन्धान प्रणाली है, जिसके अन्तर्गत समाज की सम्पूर्ण इकाइयों का चुनाव न करके विशिष्ट एवं प्रतिनिध्यात्मक इकाइयों का चुनाव किया जाता है। इसमें यह तरीका इस कारण अपनाया जाता है क्योंकि विशाल जनसंख्या का अध्ययन करना कोई सहज बात नहीं है। इसके अतिरिक्त हर अनुसन्धानिक संस्था की आर्थिक व्यवस्था सदैव अच्छी ही रहे, यह आवश्यक तो नहीं। यही कारण है कि आज विदेशी अनुसन्धानिक संस्थाओं में भी निदर्शन का उपयोग दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है।

एक श्रेष्ठ निदर्शन के लक्षण पी.वी. यंग ने एक श्रेष्ठ निदर्शन के निम्न लक्षणों का विवेचन किया है-
(1) कम से कम इकाइयों का चुनाव करना आवश्यक-निदर्शन प्रणाली के अन्तर्गत कम से कम लोगों का चयन होना आवश्यक है। यदि निदर्शन प्रणाली के अपनाने के पश्चात् भी ज्यादा से ज्यादा लोगों का चुनाव किया जाता है तो वह अनुसन्धान की आत्मा के विपरीत मानी जायेगी। अतः निदर्शन करते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि समाज के कम से कम लोगों का चुनाव करके उनके साथ साक्षात्कार करके, सामाजिक तथ्यों को एकत्रित करके सामाजिक एवं आदर्शात्मक चित्र प्रस्तुत किया जाए। यही कारण है कि आदर्शात्मक अनुसन्धानकर्ता 20% इकाइयों का चुनाव ही समग्र में से करना उचित समझते हैं। इससे अधिक चयन होने पर वे उसे आदर्शात्मक एवं व्यवस्थित निदर्शन प्रणाली नहीं मानते हैं।

(2) प्रतिनिध्यात्मक इकाइयों का चुनाव करना-निदर्शन में आने वाली इकाई ऐसी हो, जो अनुसन्धानकर्ता के साथ अधिक से अधिक मात्रा में सहयोग देती हो; अपने समाज एवं संस्कृति के बारे में अधिक से अधिक जानकारी देने का प्रयास करती हो। दूसरे शब्दों में, प्रतिनिध्यात्मक इकाई से अभिप्राय सम्बन्धित समाज के नेता के चुनने से नहीं है। प्रभावोत्पादक इकाई व्यक्ति के चयन का अभिप्राय ऐसे व्यक्ति के चुनाव से है, जो अनुसन्धानकर्ता को पूर्णतया सहयोग देती हो। यदि अनुसन्धानकर्ता को इकाई सहयोग प्रदान न करती हो तो उस इकाई को प्रतिनिध्यात्मक इकाई के नाम से सम्बोधित नहीं करेंगे।

(3) शोध में धन तथा समय कम लगना-निदर्शन प्रणाली के अन्तर्गत कम से कम लोगों का चयन होना आवश्यक है। यदि निदर्शन प्रणाली को अपनाने के पश्चात् भी ज्यादा से ज्यादा लोगों का चुनाव किया जाता है तो वह अनुसन्धान की आत्मा के विपरीत मानी जायेगी। अतः निदर्शन करते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि समाज में कम से कम लोगों का चुनाव करके, उनसे साक्षात्कार करके सामाजिक तथ्यों को एकत्रित करके सामाजिक एवं आदर्शात्मक चित्र प्रस्तुत किया जाए। यही कारण है कि आदर्शात्मक अनुसन्धानकर्ता 20% इकाइयों का ही चुनाव करते हैं। इसमें समय एवं धन की बचत सम्भव हो पाती है। यदि इस प्रणाली को अपनाने पर भी समय एवं धन अधिक लगता है तो इसका अभिप्राय यही हुआ कि निदर्शन के पूर्ण सिद्धान्तों की पालना ही नहीं की जा रही है।

(4) जनसंख्या की सजातीयता-जनसंख्या से आशय यह है कि उन्हीं इकाइयों का चुनाव किया जाये, जो समाज से सम्बन्धित हैं। इन इकाइयों में यदि समानतायें अधिक हैं और उनके अधिकतर गुण या लक्षण मिलते-जुलते हुए हैं तो इस गुण को जनसंख्या की सजातीयता के नाम से सम्बोधित करेंगे। दूसरे शब्दों में, यदि इकाइयों/लोगों की संस्कृतियों में बहुत ज्यादा भिन्नतायें हों तो निदर्शन करने में कई प्रकार की बाधायें उपस्थित हो जायेंगी। यद्यपि ऐसे अवसर पर वर्गीय निदर्शन प्रणाली को स्वीकार किया जा सकता है। फिर भी अत्यधिक भिन्नताओं में इस विधि से पूर्ण रूप से सफलतायें प्राप्त नहीं की जा सकती हैं। कोई न कोई महत्वपूर्ण अवधारणा अध्ययन से अलग ही बिखरी रहेगी और उस वर्ग के लोग सामाजिक चित्र की आलोचना करने में किसी भी तरह से कमी न रखेंगे।

(5) उचित परिशुद्धता-यदि समस्त जनसंख्या में इकाइयों की प्रकृति में विभिन्नतायें हैं, तो विभिन्न विभागों में से निकाले गये निदर्शनों में अवश्य ही परिशुद्धता अधिक मात्रा में होनी चाहिये।

(6) सीमित क्षेत्र में अध्ययन करना-निदर्शन पद्धति का यह आधार भी मुख्य आधार माना गया है कि यदि भौगोलिक क्षेत्र विशालतम होगा तो निश्चित रूप से इकाइयों के चयन में बाधायें उपस्थित होंगी। इसमें प्रतिनिध्यात्मक तथ्य भी सम्भव नहीं हो सकेंगे। जहाँ तक हो, प्रतिनिध्यात्मक भौगोलिक सिद्धान्त भी इसमें आवश्यक है। दूसरे शब्दों में इसमें एक बड़े समाज को लेकर तो अध्ययन किया जा सकता है, मगर सम्पूर्ण समाज पर अध्ययन सम्भव नहीं हो पाता है। उसमें बने मुख्य भू-भागों का चयन करके ही अध्ययन करना विवेकपूर्ण एवं अनुसन्धानिक प्रक्रिया मानी जायेगी। इन आर्थिक विसंगतियों के युग में इस तत्व को दृष्टिगत रख करके ही अध्ययन करना आवश्यक है।

(7) पूर्ण सूची का होना आवश्यक-निदर्शन के आधारों में से यह आधार भी प्रमुख है। जनसंख्या की सूची ऐसी हो, जिसमें सम्बन्धित समाज का हर व्यक्ति सम्मिलित हो। हर इकाई का चयन होने पर अपने वर्गों का प्रतिनिधित्व स्वतः ही मिल जाता है। 
प्रश्न 6. 
निदर्शन को परिभाषित कीजिए। इसके गुण व दोषों की विवेचना कीजिए।
अथवा 
निदर्शन प्रणाली क्या है ? इसके गुण एवं दोषों की व्याख्या कीजिये। 
उत्तर:
(नोट-'निदर्शन प्रणाली का अर्थ के लिए प्रश्न संख्या 5 के उत्तर का अवलोकन करें।)
निदर्शन प्रणाली के गुण (महत्व) [Merits (Importance) of Sampling Method]
अथवा 
समाजशास्त्रीय अध्ययनों में निदर्शन की आवश्यकता (Necessity of Sampling in Sociological Research) 
निदर्शन के गुणों के विषय में गुडे एवं हाट्ट लिखते हैं कि, "निदर्शन वैज्ञानिक कार्यकर्ता के समय की बचत करके कार्य को अधिक वैज्ञानिक रूप प्रदान करता है। किसी एक दृष्टिकोण से एकत्रित सामग्री के विश्लेषण पर अधिक घण्टे व्यय करने की अपेक्षा वह समय को विभिन्न दृष्टिकोणों से परीक्षा करने में प्रयोग कर सकता है। अर्थात् वह थोड़े से मामलों का गहन अध्ययन कर सकता है।" यहाँ पर निदर्शन पद्धति के गुणों को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया । गया है। यथा-

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  1. समय की बचत-निदर्शन प्रणाली में समग्र में से कुछ इकाइयों का चयन करके उनका अध्ययन किया जाता है। इसलिए इसमें समय की काफी बचत होती है। जैसे-साक्षरता, ऋणग्रस्तता, रहन-सहन का स्तर आदि।
  2. श्रम की बचत-चूंकि निदर्शन में कम इकाइयों का अध्ययन करना पड़ता है, इसलिए अधिक श्रम एवं कार्यकर्ताओं की आवश्यकता नहीं होती, अतः श्रम की बचत होती है।
  3. धन व्यय की बचत-बड़े अध्ययनों में विशेषकर गैर-सरकारी या अर्द्धसरकारी स्तर के अनुसंधानों में, जहाँ इकाइयों की संख्या भी अधिक होती है, निदर्शन द्वारा धन कम खर्च करके विश्वसनीय परिणाम मिल सकते हैं।
  4. गहन अध्ययन-इकाइयों की सीमित संख्या होने के कारण उनका गहन अध्ययन सम्भव होता है। अपेक्षाकृत कुछ अधिक धन तथा समय भी निदर्शन इकाइयों के गहन अध्ययन हेतु व्यय किया जा सकता है।
  5. परिणामों की शुद्धता-निदर्शन में अध्ययनकर्ता का ध्यान कुछ निश्चित इकाइयों पर ही केन्द्रित होता है। इसलिए उनसे प्राप्त निष्कर्ष अधिक यथार्थ एवं परिशुद्ध होते हैं।
  6. तथ्यों की पुनर्परीक्षा-किसी भी अनुसंधान में प्राप्त निष्कर्षों की विश्वसनीयता को ज्ञात करने के लिए उनकी पुनर्परीक्षा की जाती है।
  7. संगठन की सुविधा-निदर्शन कम होने के कारण, सैम्पल सर्वेक्षण का आयोजन एवं संगठन सरल होता है। अतः कार्यकर्ताओं की नियुक्ति, उन पर नियंत्रण तथा सूचनादाताओं से सम्पर्क अध्ययन की प्रशासनिक व्यवस्था में सुविधा होती है।
  8. निदर्शन की अनिवार्यता-जब भौगोलिक दृष्टि से क्षेत्र बहुत दूर-दूर तक फैला हो, क्षेत्र में इकाइयों की संख्या बहुत अधिक हो, प्रत्येक इकाई से सम्पर्क करना असम्भव हो तो ऐसी स्थिति में अध्ययन के लिए निदर्शन पद्धति ही अध्ययन को सफल बना सकती है।

निदर्शन प्रणाली के दोष (सीमाएँ) .
Demerits (Limitations) of Sampling Method] निदर्शन अधिक उपयोगी तथा प्रचलित हो जाने पर भी, उनमें कुछ न कुछ दोष अवश्य बने रहते हैं। सामान्यतः निदर्शनों के प्रयोग में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं
(1) विशेष ज्ञान की आवश्यकता-इस पद्धति को प्रत्येक अनुसंधानकर्ता प्रयोग नहीं कर सकता है। अध्ययनकर्ता में पर्याप्त सूझ-बूझ और अनुभव तथा इसके सिद्धान्तों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए।

(2) उचित प्रतिनिधित्व की कठिनाई-प्रतिनिधित्वपूर्ण निदर्शन का चुनाव एक समस्या है। जब निदर्शन सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पाता तो उसकी विश्वसनीयता तथा प्रामाणिकता कम हो जाती है। उचित प्रतिनिधित्व में प्रायः मानव का स्वभाव, व्यवहारों की भिन्नता तथा समस्या की गम्भीरता बाधक होते हैं।

(3) पक्षपात (अभिनति) की सम्भावना-निदर्शन विधि का सबसे प्रमुख दोष यह है कि इसमें पक्षपात की संभावना बनी रहती है। ऐसी स्थिति में निदर्शन प्रतिनिधित्वपूर्ण नहीं रह जाता। जब किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए निदर्शन चुना जाता है तो पक्षपात की भावना स्वाभाविक रूप से आ जाती है, अतः निकाले गये निष्कर्ष विश्वसनीय एवं प्रामाणिक नहीं रह जाते हैं। 

(4) निदर्शन पालन की कठिनाई-इकाइयों की संख्या कम होने, सम्पर्क की कठिनाई, भौगोलिक पृथकता तथा जनता के असहयोग आदि कारणों से निदर्शनों पर पूर्णतया टिके रहना कठिन होता है। इसमें अध्ययनकर्ता की सुविधा का कोई महत्व नहीं होता है।

(5) निदर्शन की असम्भावना-कहीं-कहीं पर तो जनसंख्या का आकार इतना छोटा होता है कि इकाइयों को निदर्शन के लिए चयन करना असम्भव एवं अव्यावहारिक अथवा कठिन हो जाता है। प्रत्येक इकाई अधिक महत्वपूर्ण होने पर संगणना ही अधिक उपयुक्त होती है। निष्कर्ष-इस प्रकार स्पष्ट है कि जहाँ इकाइयों में सजातीयता नहीं, उनमें परिवर्तनशीलता हो, संख्या घटती-बढ़ती हो तथा उनमें परस्पर स्थायी सम्बन्ध न हो या निदर्शन में पक्षपात संभव हो तो यह पद्धति उपयोगी नहीं होती है। किन्तु सावधानीपूर्वक चुना गया निदर्शन वास्तव में एक त्रुटिपूर्ण रूप से नियोजित तथा क्रियान्वित संगणना से अधिक श्रेष्ठ होता

प्रश्न 7. 
दैव निदर्शन पद्धति या सरल यादृच्छिक प्रतिदर्श विधि से आप क्या समझते हैं ? दैव निदर्शन चुनने की प्रणालियों को बताइये।
अथवा 
दैव निदर्शन की विधियों का वर्णन कीजिये। 
उत्तर:
सरल यादृच्छिक प्रतिदर्श या सम्भाविता निदर्शन प्रणाली का अर्थ (Meaning of Random or Probability Sampling) 
दैव निदर्शन प्रणाली को संभावना या यादृच्छिक या संयोग प्रणाली के नाम से भी सम्बोधित करते हैं। यह एक ऐसी प्रणाली है, जिसके अन्तर्गत अनुसन्धानकर्ता अपनी तरफ से इकाइयों का चुनाव न करके आकस्मिक ढंग से इकाइयों का चुनाव करता है। इस पद्धति में हर इकाई को समान रूप से चुने जाने की सम्भावनायें रहती हैं। इसमें इकाइयों का चुनाव मनुष्य के हाथ से निकल करके दैव योग द्वारा होता है। इसमें बिना किसी पक्षपात के इधर-उधर से इकाइयों का चुनाव होता है। अतः संयोग के आधार पर प्रतिनिध्यात्मक इकाइयों का चुनाव करना ही दैव निदर्शन प्रणाली कहलाती है। इसी कारण इसे कई बार अव्यवस्थित निदर्शन प्रणाली भी कहते हैं।

(1) डब्ल्यू. एम. हार्पर के अनुसार, "एक दैव निदर्शन वह निदर्शन है, जिसका चयन इस प्रकार हुआ हो कि समग्र की प्रत्येक इकाई को सम्मिलित होने का समान अवसार प्राप्त हुआ हो।"

(2) गुडे तथा हाट्ट के अनुसार, "एक दैव निदर्शन में समग्र इकाइयों को इस प्रकार क्रमबद्ध किया जाता है कि चयन प्रक्रिया उस समग्र की प्रत्येक इकाई को चुनाव की समान सम्भावना प्रदान करती है।"

(3) जहोदा एवं अन्य के अनुसार, "एक सरल दैव निदर्शन का चुनाव ऐसी प्रक्रिया से किया जाता है जो न केवल समग्र की प्रत्येक इकाई को निदर्शन में आने का समान अवसर देती है वरन् इच्छित मात्रा में तत्त्वों के प्रत्येक सम्भावित समन्वय का समान रूप से चुनाव करती है। 

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर दैव निदर्शन विधि की निम्नलिखित विशेषताओं का वर्णन किया जा सकता है
(1) इसमें निदर्शन का चुनाव इस विधि से किया जाता है कि समग्र की प्रत्येक इकाई को निदर्शन में आने का समान अवसर मिले। उदाहरणार्थ, यदि एक सिक्के को उछालें तो उसके दो संभावित परिणाम हो सकते हैं-एक चित और दूसरा पट। यानी जब भी उछालेंगे दोनों को समान अवसर मिलेगा।

(2) प्रत्येक इकाई का चुनाव दूसरे से स्वतंत्र होता है।

(3) चुने गये निदर्शन का गुण प्रतिनिध्यात्मक होता है। निदर्शित इकाइयों के गुण व लक्षण वही होते हैं जो समग्र . के होते हैं तथा निदर्शित इकाइयों के अध्ययन के आधार पर जो परिणाम प्राप्त होते हैं उसके परिणाम उन्हीं इकाइयों के लिए ही सही नहीं होते वरन् वह समग्र के लिए भी सही होते हैं।

(4) एक बार चुनी हुई इकाइयों को बदलना या हटाना नहीं चाहिए। 

(5) अध्ययनकर्ता की प्रत्येक इकाई तक पहुँच आसान एवं सुलभ होनी चाहिए। 

(6) निदर्शित इकाइयों का आकार एकसमान होना चाहिए। 

(7) समग्र की इकाइयों में स्पष्टता होनी चाहिए।

साधारण दैव निदर्शन के सिद्धान्त/आधार- 
पार्टेन के अनुसार, दैव निदर्शन के कुछ सिद्धान्त हैं । वे निम्नलिखित हैं-

  1. समग्र की इकाइयाँ स्पष्ट होनी चाहिए। 
  2. उनका आधार लगभग एकसमान होना चाहिए। 
  3. प्रत्येक इकाई एक-दूसरे से स्वतन्त्र होनी चाहिए। 
  4. प्रत्येक इकाई को समग्र में से चुनाव का समान अवसर मिलना चाहिए। 
  5. निदर्शन चयन की विधि भी स्वतन्त्र होनी चाहिए। 
  6. अध्ययनकर्ता की प्रत्येक इकाई तक पहुँच सुलभ होनी चाहिए। 
  7. एक बार चुनी गई इकाइयों को निदर्शन से हटाना या उन्हें बदलना नहीं चाहिए।

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साधारण दैव निदर्शन द्वारा चुनाव करने की प्रणालियाँ (Various Methods of Selection by Simple Random Sampling) 
दैव निदर्शन प्रणाली को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
1. एल. एच. सी. टिपेट की निदर्शन प्रणाली (L.H.C. Tippet's Random Sampling)-यह दैव निदर्शन प्रणाली के प्रकारों में से महत्वपूर्ण प्रणाली है। यह एल. एच. सी. टिपेट महोदय की देन है। टिपेट ने 10,404 आँकड़े चुने। उनका यह कथन था कि यदि संख्याओं को बिना किसी क्रम के कई पृष्ठों पर लिखा जाए तथा वहाँ के लोगों को नाम की अपेक्षा संख्याएँ प्रदान की जायें और पहली इकाई को छोड़कर सूची में से हर बीस व्यक्तियों के पीछे एक व्यक्ति को चुना जाए और इस सिद्धान्त को सम्पूर्ण जनसंख्या पर लागू किया जाए तो चुनी हुई इकाइयाँ प्रतिनिध्यात्मक होंगी। इस प्रणाली को इसी कारण एल. एच. सी. टिपेट प्रणाली कहते हैं । टिपेट प्रणाली के अन्तर्गत आने वाली प्रथम चालीस संख्याओं का नमूना नीचे दिया गया है

2952

6641

3992

9792

7979

5911

3150

5623

4167

9524

1545

1396

7203

5356

1300

2393

2370

7483

3408

2762

3563

1089

6913

7691

6560

5246

1012

6107

6008

8126

4433

8726

2754

9143

1405

9025

7002

6111

8816

6446

2. नियमित तथा अनियमित प्रणाली (Regular and Irregular Random Sampling)—नियमित अंकित प्रणाली को ग्रिड सेम्पलिंग कहते हैं। यदि समग्र की समस्त इकाइयाँ विशेष प्रकार के ढंग, काल, स्थान आदि के अनुसार व्यवस्थित हों तो उस स्थिति में नियमित अंकित प्रणाली द्वारा निदर्शन का चुनाव करते जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि 100 विद्यार्थियों की ऊँचाई का माप लेना चाहते हैं और वे व्यवस्थित रूप से अपनी ऊँचाई के अनुसार खड़े हों, जिनसे हमें निदर्शन लेना है, ऐसी स्थिति में हम प्रत्येक पाँचवाँ या प्रत्येक दसवाँ या कोई भी अंक के अनुसार हम निदर्शन चुनते जायेंगे। यदि हमें 20 विद्यार्थियों में से निदर्शन करना हो तो हम प्रत्येक पाँचवें विद्यार्थी को चुनेंगे।

3. अनियमित अंकित प्रणाली-इस विधि से निदर्शनों के चुनाव करने में भी समग्र की समस्त इकाइयों की सूची को उपयोग करना पड़ता है। इस विधि से चुनाव करते समय सूची में से प्रथम एवं अन्तिम अंक को छोड़ दिया जाता है। शेष इकाइयों में से अनुसंधानकर्ता आवश्यकतानुसार निदर्शन चुन लेता है। जितनी संख्या में से उसे निदर्शन चुनने होते हैं उतनी संख्या में वह सूची की शेष इकाइयों में से किसी के भी निशान लगा लेता है। इसमें यही सोचा जाता है कि अनुसंधानकर्ता पहले एवं अन्तिम अंक को छोड़कर बिना पक्षपात के इधर-उधर से चुनाव करेगा, लेकिन इसमें पक्षपात का समावेश हो ही जाता है।

4. लॉटरी प्रणाली (Lottery Method) यह प्रणाली दैव निदर्शन प्रणाली का ही एक स्वरूप है। इसके अन्तर्गत इसके समग्र की इकाइयों को कागज की चिटों और उसके नामों का वर्णन करके एक सन्दूक में डाल दिया जाता है और हर बार चार-पाँच चिटों को निकाल लिया जाता है। चिटों से सम्बन्धित व्यक्तियों के साथ साक्षात्कार करके तथ्यों को संगृहीत कर लिया जाता है। इसे चिर दैव निदर्शन प्रणाली कहते हैं।

5. कार्ड अथवा टिकट प्रणाली (Card or Ticket Random Sampling)-इस प्रणाली के अन्तर्गत निदर्शन का चुनाव करने के लिए विभिन्न कार्ड या टिकट बनाने पड़ते हैं, जिन पर समग्र की समस्त इकाइयों के नाम तथा नम्बर का कोई प्रतीक लगा दिया जाता है। तत्पश्चात् उन सभी कार्डों को सम्मिलित कर लिया जाता है। इन सम्मिलित कार्डों के समूह को भली प्रकार से मिला करके जितनी संख्या में निदर्शन चुनना होता है, उतनी ही मात्रा में कार्ड निकाल लिए जाते हैं। उन्हीं में उपलब्ध सम्बन्धित व्यक्तियों के साथ साक्षात्कार करके तथ्यों को एकत्रित कर लिया जाता है, मगर इस प्रणाली में इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि टिकट के रंग, मोटाई, आकार इत्यादि समान हों अन्यथा इससे पक्षपात उत्पन्न हो सकते हैं।

6. ग्रिड प्रणाली (Grid System)-इस पद्धति का उपयोग भौगोलिक क्षेत्र के चुनाव के लिए किया जाता है। यदि किसी नगर, प्रदेश या क्षेत्र में से कुछ इकाइयों का चयन करना है तो उस क्षेत्र का नक्शा तैयार किया जाता है। इसके पश्चात् नक्शे पर ग्रिड प्लेट जो पारदर्शक पदार्थ से बनी होती है, को रखा जाता है। इस प्लेट में वर्गाकार खाने बने होते हैं जिन पर नम्बर लिखे होते हैं। इसके बाद निदर्शनं में कितनी इकाइयों का चयन करना है, उतने ही वर्गों को काट लिया जाता है। ग्रिड को मानचित्र पर रखकर जितने कटे हुए भागों पर मानचित्र का क्षेत्र आता है उन पर निशान लगा दिया जाता है और उन्हें ही निदर्शन का क्षेत्र मानकर अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 8. 
निदर्शन से आपका क्या आशय है ? दैव निदर्शन के गणों एवं दोषों की विवेचना कीजिये। 
उत्तर:
दैव निदर्शन का अर्थ एवं परिभाषा-
(नोट-इसके लिए प्रश्न संख्या 7 का उत्तर देखें।)
दैव निदर्शन की प्रतिनिधिक विशेषता को प्रभावित करने वाले कारक-दैव निदर्शन की प्रतिनिधिक विशेषता को प्रभावित करने वाले कारक दोनों प्रकार के हैं-

  1. सकारात्मक कारक और 
  2. नकारात्मक कारक।

सकारात्मक कारकों के अन्तर्गत दैव निदर्शन प्रणाली के गुणों को सम्मिलित किया जा सकता है और नकारात्मक कारकों के अन्तर्गत उसकी सीमाओं को बताया जा सकता है। यथा

दैव निदर्शन प्रणाली के लाभ (Merits of Random Sampling) पी. वी. यंग के अनुसार दैव निदर्शन प्रणाली एक महत्वपूर्ण प्रणाली है। अलग-अलग विद्वानों ने भी निम्न बिन्दुओं के आधार पर इसके लाभों का वर्णन किया है-

(1) सभी इकाइयों को समान रूप से चुने जाने की सम्भावना का रहना-अनुसन्धानकर्ताओं के अनुसार दैव निदर्शन प्रणाली में सभी इकाइयों को समान रूप से चुने जाने की सम्भावनाएँ रहती हैं क्योंकि अनुसंधानकर्ता किसी भी इकाई के बारे में परिचय नहीं रखता है, जबकि दूसरी ओर उद्देश्यपूर्ण प्रणाली में इकाइयों के साथ परिचय रहने के कारण अधिकांशतः अनुसन्धानकर्ता उन्हीं लोगों को साक्षात्कार हेतु चुनता है जो या तो शिक्षित होते हैं अथवा समाज के नेता होते हैं। भले ही ऐसी इकाइयाँ अर्थात् सूचनादाता अधिकाधिक मात्रा में तथ्यों को प्रदान कर सकते हैं मगर इस प्रकार से तथ्यों को प्राप्त करना अनुसंधान की आत्मा के विपरीत होगा।

(2) गुडे तथा हाट्ट के अनुसार, "मानवीय पक्षपातों से बचने के लिए यह एक सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है।" अनुसंधानकर्ता गुडे तथा हाट्ट के अनुसार, दैव निदर्शन प्रणाली में अनुसन्धानकर्ता अपनी ओर से किसी भी व्यक्ति को इस कारण चुन नहीं पाता है क्योंकि उसकी समग्र के प्रति संचेतना बिल्कुल ही नहीं रहती है। वह इकाइयों के प्रति नाममात्र का भी परिचय का ज्ञान नहीं रखता है। इसी कारण यह श्रेष्ठ प्रणाली मानी जाती है। यह पक्षों से स्वतन्त्र प्रणाली है।

(3) सरल विधि-दैव निदर्शन प्रणाली में सूचनादाताओं के चुनाव में किसी भी प्रकार की विशेष प्रकार की वृद्धि नहीं करनी पड़ती है। नवीन से नवीन अनुसंधानकर्ता भी इसका प्रयोग कर लेता है।

(4) प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली-चुनी हुई इकाइयों के समग्र में अधिकांश गुण होने के कारण यह एक पूर्ण प्रतिनिधित्व प्रणाली मानी जाती है। उदाहरण के लिए, डॉक्टर बीमारी का अध्ययन करने हेतु दैव निदर्शन प्रणाली की तरह रोगी के शरीर में से कुछ रक्त की बूद लेकर इस बात का पता लगा लेते हैं कि शरीर में क्या अभाव है और क्या अभाव नहीं है। यदि अभाव है भी तो उसे कैसे पूरा किया जा सकता है इत्यादि। वे रक्त की बूंदें ही सम्पूर्ण शरीर का प्रतिनिधित्व करती हैं। ठीक इसी प्रकार से यदि विद्यार्थियों के अनुशासन के अध्ययन में इकाइयों के चुनाव में इस विधि का उपयोग किया जाता है तो इसमें चुनी गई इकाइयाँ सम्पूर्ण इकाइयों का प्रतिनिधित्व करेंगी।

(5) परिशुद्धता का अधिक होना-पी.वी. यंग के अनुसार, दैव निदर्शन प्रणाली के आधार पर सभी तथ्यों की फिर जाँच-पड़ताल करने पर उसी प्रकार के तथ्यों की सम्भावनाएँ अधिक मात्रा में रहती हैं, मगर अन्य प्रणालियों में इस प्रकार परिशुद्धताएँ नहीं पाई जाती हैं, क्योंकि यह प्रणाली निदर्शन त्रुटियों के संयोग नियमों (Law of Chance) पर आधारित रहती है।

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(6) समय की बचत सम्भव-यदि जनसंख्या बहुत ज्यादा हो और अनुसंधान शीघ्रातिशीघ्र करना हो तो इस प्रणाली के आधार पर इकाइयों को तुरन्त ही चुन करके समाज का चित्र प्रस्तुत किया जा सकता है। दूसरी ओर ऐसी परिस्थितियों में स्तरीय निदर्शन/वर्गीय निदर्शन प्रणाली का प्रयोग करते हैं तो परिणाम यह होता है कि उसमें समाज को कई उपसमूहों में बाँटना पड़ता है तथा अलग-अलग सूचियों का निर्माण करना पड़ता है। यह प्रक्रिया काफी लम्बी अवधि वाली प्रक्रिया है किन्तु दैव निदर्शन प्रणाली में इस प्रकार की कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता है।

(7) धन की बचत सम्भव-दैव निदर्शन प्रणाली में अधिक अनुसन्धानकर्ताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसी कारणवश इसमें धन की बचत होती है। केवल कुछ ही अनुसन्धानकर्ताओं का व्यय भार सहना पड़ता है, जबकि अन्य निदर्शन प्रणालियों में दैव निदर्शन प्रणाली की तुलना में अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है।

(8) लुण्डबर्ग के अनुसार यह एक नियन्त्रित प्रणाली है-लुण्डबर्ग जैसे अनुसन्धानकर्ता का यह कथन है कि इस प्रणाली में अनुसन्धानकर्ता हर क्षेत्र में चुनाव करते समय अपने आपको नियन्त्रित रखता है और नियन्त्रित करने का प्रयास करता रहता है। वह यही ध्यान रखता है कि कहीं वह अपनी बातों एवं व्यवहारों से पक्षों को उत्पन्न न कर दे।

(9) गुडे तथा हाट्ट के अनुसार, "यह एक ऐसी प्रणाली है, जो अपने आप में स्वतन्त्र है।" गुडे तथा हाट्ट के अनुसार, यह ऐसी प्रणाली है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अथवा इकाई के चुने जाने अथवा फेंके जाने की समान रूप से सम्भावनायें रहती हैं।

(10) यह प्रणाली विभिन्न प्रकार की चुनाव प्रणालियों हेतु अनुमान प्रदान करती है-थामस कारसन जैसे विद्वानों का यह कथन है कि यह एक ऐसी प्रणाली है, जिसके आधार पर अनुसन्धानकर्ताओं को इस बात का अनुमान हो जाता है कि किस प्रकार की समग्र इकाइयों के चुनाव में कौन-कौन सी विधियों को स्वीकार करना चाहिए और कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए, उनका कहना है कि इस प्रणाली के आधार पर चुनने के अन्दाजों का पता लग जाता है।

दैव निदर्शन प्रणाली की सीमायें/दोष (Limitations or Disadvantages of Random Sampling).
यद्यपि दैव निदर्शन प्रणाली एक महत्वपूर्ण प्रणाली है, इसमें धन तथा समय की बचत होती है तथा नवीन से नवीन अनुसन्धानकर्ता अनुभवहीन होने के पश्चात् भी इसका प्रयोग कर लेता है, तथापि इसमें निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं- 

(1) प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली-दैव निदर्शन प्रणाली एक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली इस कारण नहीं मानी जाती है क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि दैव निदर्शन पर चुनी हुई इकाइयों में से सभी इकाइयाँ समग्र के विभिन्न भागों की ही हों। हो सकता है कि चुनी हुई इकाइयों में केवल एक ही प्रकार के एक ही वर्ग के लोग, या कुछ ही वर्ग के लोग आ सकें और अन्य महत्वपूर्ण इकाइयाँ बिल्कुल ही छूट गई हों।

(2) बड़े पैमाने पर समग्र की इकाइयों का सूचीकरण कठिन होता है-अनुसन्धानकर्ताओं के अनुसार इस प्रणाली का प्रयोग बड़े समग्र में आसानी से नहीं किया जा सकता। इसका मुख्य कारण यह है कि समग्र की पूर्ण सूची नहीं मिल पाती है और न ही जनसंख्या की पूर्ण सूची मिल पाती है। पूर्ण सूची के अभाव में किये गये अनुसन्धान बिल्कुल ही गलत सिद्ध होते हैं।

(3) सभी से सम्पर्क नहीं-यदि समाज की जनसंख्या बहुत ज्यादा होती है तो वहाँ निदर्शन करने में कई व्यावहारिक एवं क्षेत्रीय बाधायें आती हैं। कई बार तो दूर-दूर तक लोग रहने के कारण अनुसन्धानकर्ता स्वयं भी उनके साथ सम्पर्क नहीं करते हैं और अपनी ओर से ही व्यक्तिगत पक्षों को जोड़कर समाज का चित्र प्रस्तुत कर देते हैं। अतः ऐसे चित्र वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर न तो प्रामाणिक ही माने जाते हैं और न ही विश्वसनीय।

(4) भिन्न संस्कृतियों पर अध्ययन सम्भव नहीं-यदि समग्र छोटा है लेकिन उसमें अलग-अलग प्रकार की संस्कृतियों के लोग रहते हैं और हम यदि उनमें दैव निदर्शन प्रणाली का प्रयोग करते हैं तो परिणाम यह होगा कि उसमें कुछेक प्रकार की संस्कृति के लोग ही आ सकते हैं अथवा एक ही प्रकार की संस्कृति के लोग भी आ सकते हैं। ऐसे आदर्शात्मक एवं विविध संस्कृतियों वाले लोगों के लिए या तो उद्देश्यपूर्ण प्रवरण को स्वीकारना चाहिए अथवा स्तरित निदर्शन प्रणाली को स्वीकारना चाहिए जिससे तथ्य प्रतिनिधित्वपूर्ण बन सकें।

(5) अनियन्त्रित प्रणाली-पी.वी. यंग के अनुसार, इस प्रकार की प्रणाली में अनुसन्धानकर्ता प्रायः स्वेच्छानुसार ही सूचनादाताओं का चुनाव करता है। वह किसी भी प्रकार से उपयुक्त एवं अनुपयुक्त सूचनादाताओं के बारे में कुछ भी नहीं सोचता है। इस कारण इसे अनियन्त्रित एवं अव्यवस्थित प्रणाली के नाम से भी पुकारा जाता है।
अतः स्पष्ट है कि दैव निदर्शन प्रणाली एक उपयोगी प्रणाली है, मगर इसमें दोष भी पाये जाते हैं। 

प्रश्न 9. 
साक्षात्कार को परिभाषित कीजिये तथा तथ्य संकलन में इसके महत्व को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
साक्षात्कार का अर्थ तथा परिभाषाएँ-साक्षात्कार मूलतः अनुसंधानकर्ता तथा उत्तरदाता के बीच निर्देशित बातचीत होती है, लेकिन इसके साथ कुछ तकनीकी पक्ष जुड़े होते हैं। पी.वी. यंग के अनुसार, "साक्षात्कार एक व्यवस्थित प्रणाली मानी जा सकती है, जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे के आन्तरिक जीवन में कम या अधिक कल्पनात्मक रूप से प्रवेश करता है, जो साधारणतया उसके लिए तुलनात्मक रूप से अपरिचित है।" गुड्डे तथा हाट्ट के अनुसार, "मूल रूप से साक्षात्कार सामाजिक अन्तःक्रिया की एक प्रक्रिया है।"

हेटर तथा लिडमेन के अनुसार-"दो व्यक्तियों के बीच वार्तालाप तथा उनके मौखिक उत्तरों की प्रक्रिया को ही साक्षात्कार कहते हैं।" सिन पाओ येंग (Hsin Pao Yang) ने अपनी पुस्तक 'Fact Finding with the Rural People' में साक्षात्कार की परिभाषा करते हुए लिखा है कि "साक्षात्कार क्षेत्रीय कार्य की एक ऐसी प्रविधि है जो कि एक व्यक्ति या व्यक्तियों के व्यवहार की निगरानी करने, कथनों को अंकित करने व सामाजिक या सामूहिक अन्तःक्रिया के वास्तविक परिणामों का निरीक्षण करने के लिए प्रयोग में ली जाती है।"

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत भिन्न-भिन्न साक्षात्कारकर्ता विषय से सम्बन्धित प्रश्न पूछते हैं और सूचनादाता अपने भावों एवं विचारों को एक कहानी के रूप में प्रकट करते हैं। सूचनादाता इतना भावुक बन जाता है कि वह भावुक होकर हर तरह के विचारों को स्वतः ही प्रकट करने लगता है। इसी कारण साक्षात्कार द्वारा प्रदत्त तथ्यों में यथार्थ सत्यों के उभरने की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं। इस प्रणाली के माध्यम से साक्षात्कारकर्ता अधिक सफलता प्राप्त कर सकता है।

साक्षात्कार के अनुसंधानिक महत्त्व-
साक्षात्कार के अनुसंधानिक महत्व को निम्न आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) आत्म-अभिव्यक्ति का एक सशक्त साधन-पी.वी. यंग के अनुसार, यह एक ऐसी प्रणाली है, जिसके अन्तर्गत साक्षात्कारकर्ता द्वारा कुछेक प्रश्न करने पर साक्षात्कारदाता की आत्माभिव्यक्ति अपने आप ही फूटने लगती है। अतः साक्षात्कार आत्म-अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है। व्यक्ति उद्वेगात्मक परिस्थितियों में बहकर के वास्तविकताओं को प्रकट करता है।

(2) मर्मस्पर्शी प्रणाली-पी.वी. यंग के कथनानुसार, साक्षात्कार से प्राप्त तथ्य इतने प्रभावोत्पादक होते हैं कि वे भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों को प्रेरणाएँ प्रदान करते हैं। साक्षात्कार से प्राप्त तथ्य जिन्दगी की यथार्थताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके तथ्यों में आम आदमी की जिन्दगी बोलती है।

(3) विचारों की क्रमबद्धता सम्भव-श्रीमती पी. वी. यंग के कथनानुसार, यह एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें साक्षात्कारदाता इतना भावुक हो जाता है कि वह आन्तरिक तथ्यों को प्रकट करने लगता है। विचारों की निरन्तरता से मूल उद्देश्य से सम्बन्धित अधिकाधिक तथ्य मिलने लगते हैं। साक्षात्कारकर्ताओं को सूचनाओं को एकत्रित करने में किसी तरह की बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता है।

(4) सामाजिक-मानवीय उद्वेगों, क्रियाओं-प्रक्रियाओं का अध्ययन सम्भव-पी.वी. यंग के कथनानुसार, साक्षात्कार एक ऐसी प्रणाली है, जिसके आधार पर मानवीय दुर्बलताओं, इच्छाओं, स्थायी एवं अस्थायी विचारधाराओं एवं भिन्न-भिन्न तरह की क्रियाओं और प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी बहुत ही आसानी से की जा सकती है।

(5) व्यक्तिगत अभिमतों की सम्भावनायें कम-पी.वी. यंग के कथनानुसार, साक्षात्कार में सूचनादाता द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं से सम्बन्धित पर्याप्त तथ्यों को प्रदान करने के कारण साक्षात्कारकर्ता/क्षेत्रीय कार्यकर्ता को व्यक्तिगत अभिमतों एवं कल्पनाओं का सहारा नहीं लेना पड़ता है।

(6) गहनतम अध्ययन सम्भव-साक्षात्कार एक ऐसी प्रणाली है, जिसके आधार पर कम भू-भाग एवं विशिष्ट उद्देश्यों को लेने के कारण अनुसंधान के सभी पहलुओं का अध्ययन सूक्ष्म दृष्टि से किया जाता है। ऐसा होने पर ही समाज की वास्तविक स्थितियाँ प्रकट होने लगती हैं, मगर इस तरह की अपेक्षाएँ अन्य साधनों से नहीं की जा सकती हैं।

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(7) उपकल्पनाओं का आधार स्तम्भ-पी.वी. यंग के अनुसार, इस प्रणाली की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें साक्षात्कारकर्ता के स्वयं क्षेत्र में उपस्थित होने के परिणामस्वरूप अनुसंधान की योजनाओं के निर्माण में सहायता मिलती है। अनुसंधान की योजनाओं को ही उपकल्पना कहते हैं।

(8) अमूर्त तथ्यों का अध्ययन सम्भव-साक्षात्कार वह विधि है, जिसके आधार पर अमूर्त तथा अदृश्य तथ्यों, जैसे- व्यक्ति की मानसिक स्थिति, विचार-भावनाएँ, संवेगों इत्यादि का अध्ययन करना सम्भव तथा सरल होता है। प्रभावित व्यक्तियों से भी साक्षात्कार के माध्यम से जानकारियाँ प्राप्त हो पाती हैं। इसके अतिरिक्त यह वह साधन है, जिसके आधार पर अप्रत्यक्ष एवं गोपनीय तथ्यों के बारे में अध्ययन संभव है; जैसे साक्षात्कारदाता भावुकता में बहने लगता है तो वह हृदय की हर बात को प्रकट करने लगता है, गुप्त रूप से बात करने पर भी वह अपने आप को प्रकट करने लगता है।

(9) बहुक्षेत्रीय सूचनायें सम्भव-इस विधि के आधार पर सभी प्रकार की सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। दूसरे शब्दों में, एक ही साक्षात्कार से अनेक प्रकार की सूचनायें प्रत्यक्ष रूप में एकत्रित की जा सकती हैं। सरकारी अधिकारियों, राजनीतिक नेताओं इत्यादि से साक्षात्कार विशेष रूप से आयोजित किये जा सकते हैं।

(10) भूतकालीन घटनाओं का अध्ययन-समाज परिवर्तनशील है। इस परिवर्तनशीलता के कारण समाज की अनेक घटनाएँ इतिहास की गोद में छिप जाती हैं। इन घटनाओं का अध्ययन अवलोकन के द्वारा संभव नहीं है। साक्षात्कार पद्धति के द्वारा हम ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में जानकारी कर लेते हैं।

(11) सभी स्तर के व्यक्तियों का अध्ययन-शोधकर्ता साक्षात्कार पद्धति के अन्तर्गत सूचनादाता के साथ आमने-सामने के सम्बन्धों द्वारा समस्या के बारे में विचार-विमर्श करते हैं। इसलिए इस प्रकार के अध्ययन में शिक्षित, अशिक्षित, ग्रामीण, नगरीय सभी स्तर के लोगों से सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं।

(12) नवीन विचारधारायें सम्भव-पी.वी. यंग के अनुसार, "साक्षात्कार एक ऐसी प्रणाली है, जिसके आधार पर व्यक्ति भावुक होकर नवीन विचारों को प्रकट करने लगता है। कई बार तो स्वयं साक्षात्कारकर्ता भी अपूर्व तथ्यों को प्राप्त करके आश्चर्यचकित हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि यदि आन्तरिक भावनाओं को प्रकट करवाना हो तो साक्षात्कार का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें सूचनादाता स्वतः ही नवीन एवं अपूर्व तथ्यों को प्रकट करने लगता है, जो कि मूल उद्देश्यों की पूर्ति हेतु बहुत ही वांछनीय हैं। इसी कारण इसका महत्व लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

(13) साक्षात्कार वर्तमान एवं भविष्य की योजनाओं का आधार-स्तम्भ-यह एक ऐसी प्रणाली है, जिसके आधार पर समस्याओं के अतीत के इतिहास की जानकारी करके वर्तमान स्थिति को भली प्रकार से समझा जा सकता है तथा भविष्य में उसमें सुधार भी किया जा सकता है क्योंकि इसमें साक्षात्कारदाता एक कहानी के रूप में आवश्यक तथ्यों को भी प्रकट करता ही चला जाता है। साक्षात्कार में पूर्व के इतिहास से लेकर समस्या की वर्तमान स्थिति तक के बारे में साक्षात्कारकर्ता को आवश्यक जानकारियाँ मिल जाती हैं।

(14) सूचनाओं की जाँच-पड़ताल सम्भव-अनुसन्धानकर्ता साक्षात्कार का प्रयोग प्राप्त तथ्यों की जाँच-पड़ताल के लिए भी कर सकता है। यहाँ तक कि साक्षात्कार प्रणाली के आधार पर भी प्राप्त तथ्यों की विश्वसनीयता की जाँचपड़ताल करने में भी इस साधन का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

(15) सरल साधन-एस. आर. वाजपेयी का मत है कि इस प्रणाली में न तो साक्षात्कारकर्ता को प्रश्न पूछने हेतु स्मरण-शक्ति पर जोर देना पड़ता है और न ही साक्षात्कारदाता को प्रत्युत्तर प्रदान करने हेतु किसी भी तरह से याद करने हेतु विशेष प्रयास ही करने पड़ते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि परिवेशों को देखते ही साक्षात्कारकर्ता/क्षेत्रीय कार्यकर्ता के मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न तरह के प्रश्न कौंधने लगते हैं और परिस्थितियाँ एवं क्षेत्रीय-जीवन सूचनादाताओं को भी प्रत्युत्तर प्रदान करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। साधारण से साधारण व्यक्ति भी हर प्रश्न का जवाब इस तरह से देता है, मानो उसने सोचने का प्रयास ही न किया हो।

(16) लचीली पद्धति-साक्षात्कार पद्धति एक लचीली पद्धति है, जिसमें आवश्यकतानुसार विषय-वस्तु एवं साक्षात्कार संचालन में परिवर्तन किया जा सकता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि साक्षात्कार अनुसन्धान के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रणाली है। 

प्रश्न 10. 
तथ्य संकलन की साक्षात्कार विधि के दोष या सीमाएँ बताइए। 
उत्तर:
साक्षात्कार की सीमायें/दोष (Limitations/Defects of Interview) 
साक्षात्कार के आधार पर पूर्ण अनुसन्धान सम्भव नहीं है। पी.वी. यंग ने इसकी सीमाओं या दोषों का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया है-
(1) विरोधात्मक विचारधारायें सम्भव-पी.वी. यंग ने लिखा है कि साक्षात्कार वह विधि है जिसके अन्तर्गत साक्षात्कारदाता द्वारा परस्पर विरोधी तथ्य प्रकट करने के कारण यह निश्चित करना बहुत ही कठिन होता है कि सूचनादाता की कौन-सी बात ठीक होगी और कौन-सी ठीक नहीं।

(2) अतिरिक्त साधन मात्र-यद्यपि साक्षात्कार की प्रणाली का उपयोग करके सामाजिक-सांस्कृतिक तथ्यों को एकत्रित किया जा सकता है, तथापि इस साधन का प्रयोग सदैव अन्य साधनों के साथ एक सहायक साधन के रूप में हुआ है। केवल इसी प्रणाली के आधार पर कोई सामाजिक शोध कार्य किया गया हो; इस तरह का दृष्टान्त सर्वेक्षण या अनुसन्धान के इतिहास में देखने को नहीं मिलता है।

(3) पक्षपात का साधन-यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके अन्तर्गत तथ्य प्राप्त होने के पश्चात् भी अनुसन्धानकर्ता अधिक तथ्यों के आधार पर इस बात का निर्णय नहीं ले पाता है कि कौन से तथ्यों को प्रकट करना है और कौन-कौन से तथ्यों को नहीं। ऐसी स्थिति में वह उन तथ्यों को छोड़कर अपनी स्वयं की मान्यताओं व मूल्यों के आधार पर तथ्यों को निर्धारित करने लगता है, जो कि अनुसन्धान की आत्मा के विपरीत है।

(4) स्मरण-शक्ति की सीमा-पी.वी. यंग के अनुसार, मानव की स्मरण-शक्ति अपने आप में सीमित है। जब बड़ी-बड़ी बौद्धिक प्रतिभायें भी साक्षात्कार की प्रक्रिया के समय गम्भीरतम प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाती हैं. उनकी स्मरणशक्ति धोखा दे जाती है तो जनसाधारण से इस तरह की अपेक्षायें नहीं की जा सकती हैं कि वे सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में स्पष्ट व सही तथ्यों को प्रकट कर सकेंगे।

(5) क्रमबद्ध रूप से विचारधारायें सम्भव नहीं-पी.वी. यंग के कथनानुसार, यह एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें साक्षात्कारदाता प्रश्नों का प्रत्युत्तर क्रमबद्ध रूप से नहीं दे पाता है। जब अच्छे-अच्छे वक्ताओं को भी विचारों को प्रकट करने में कई तरह के पूर्वाभ्यास करने पड़ते हैं तो फिर साधारण व्यक्तियों से ऐसी आशाएँ किस प्रकार की जा सकती हैं। इस तरह के अभाव प्रश्नावलियों एवं अनुसूचियों में नहीं पाये जाते हैं।

(6) गम्भीर मामलों की सूचनायें सम्भव नहीं-पी.वी. यंग के अनुसार, इस प्रणाली में गम्भीर मामलों में सूचनादाता अपनी भावनाओं को प्रकट करना उपयुक्त नहीं समझता है। उदाहरण के लिए, यदि लोगों को जन-रीतियों में खर्च होने वाले धन के बारे में पूछा जाता है तो वे अपने गोपनीय संस्कारों के बारे में कुछ भी प्रकट नहीं करना चाहते हैं। यह एक मानवीय प्रकृति है कि सूचनादाता साक्षात्कारकर्ता के सम्मुख अपनी गोपनीय बातों को प्रकट करने में हिचकिचाहट का एहसास करता है, जबकि साधारण बातों को प्रकट करने में वह हिचकिचाहट का एहसास नहीं करता है। इस तरह का दोष न तो प्रश्नावलियों में पाया जाता है और न ही अनुसूचियों में। .

(7) विचारों का प्रदर्शन दिखावा मात्र-साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता के स्वयं के उपस्थित होने के कारण साक्षात्कारदाता अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर ही उत्तर देना पसन्द करता है।

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(8) समय एवं धन अधिक लगना-अनुसंधानकर्ता के अनुसार साक्षात्कार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें समय एवं धन की अधिक आवश्यकता पड़ती है। चाहे कितने ही प्रयत्नों से प्रतिनिध्यात्मक इकाइयों का चुनाव किया गया हो, फिर भी हर चुने हुए व्यक्ति के साथ साक्षात्कार करने हेतु समय की आवश्यकता तो पड़ती ही है। साक्षात्कार की प्रक्रिया में साक्षात्कारकर्ता को शान्ति एवं धैर्य रखना जरूरी है। इस प्रणाली के आधार पर शोध कार्य करने हेतु अधिकाधिक अनुसन्धानकर्ता रखने पड़ते हैं। यदि अनुसन्धानिक संस्था हो तो उसे अनुसन्धानकर्ताओं को न केवल वेतन ही प्रदान करने पड़ते हैं बल्कि और भी अनेक सुविधाएँ प्रदान करनी पड़ती हैं। इससे खर्चा बढ़ता ही रहता है। दूसरी ओर प्रश्नावलियों के आधार पर अनुसन्धान करने पर अपेक्षाकृत कम धन लगता है।

(9) विशालतम अध्ययन सम्भव नहीं-यह एक ऐसी प्रणाली है, जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण भू-भाग पर एवं सम्पूर्ण जनसंख्या या जीवन के सम्पूर्ण पहलुओं को लेकर अध्ययन नहीं किये जा सकते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि साक्षात्कार के आधार पर अनुसन्धान करने हेतु एक विशिष्ट समिति का निर्माण करना पड़ता है, जिसके क्षेत्रीय खर्चे भी बढ़ते रहते हैं। इसी कारण इसमें एक छोटे क्षेत्र का गहनतम अध्ययन सम्भव हो पाता है। इस विधि से विशालतम क्षेत्र के अध्ययन सम्भव नहीं हो पाते हैं।

(10) क्षेत्रीय बाधाएँ उत्पन्न होना-साक्षात्कार में सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें कुशल साक्षात्कारकर्ता उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। साक्षात्कारकर्ता को साक्षात्कार सम्बन्धी उचित प्रशिक्षण भी नहीं मिल पा सकने के कारण वे क्षेत्र में ढंग से प्रश्न ही नहीं कर पाते हैं । इसके अतिरिक्त सामाजिक तथ्यों को एकत्रित करने में उनके समक्ष अन्य बाधाएँ भी. उपस्थित होने लगती हैं। नये साक्षात्कारकर्ता तो वैसे भी मनोविज्ञान तथा मानव व्यवहार से अनभिज्ञ होते हैं। उनका व्यक्तित्व सूचनादाताओं को वास्तविक तथ्य बताने हेतु प्रभावित ही नहीं कर पाता है। इसी कारण अप्रामाणिक तथा अविश्वसनीय तथ्य संकलित होने लगते हैं।

Prasanna
Last Updated on Oct. 17, 2022, 4:59 p.m.
Published Sept. 9, 2022