Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश Questions and Answers, Notes Pdf.
The questions presented in the RBSE Solutions for Class 11 Hindi are solved in a detailed manner. Get the accurate RBSE Solutions for Class 11 all subjects will help students to have a deeper understanding of the concepts.
प्रश्न : निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसके नीचे लिखे हुए प्रश्नों के उचित उत्तर दीजिए -
1. धर्मराज! यह भूमि किसी की, नहीं क्रीत है दासी।
है जन्मना समान परस्पर, इसके सभी निवासी।
है सबको अधिकार मृत्तिका पोषक-रस पीने का।
विविध अभावों से अशंक होकर जग में जीने का।
सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीरण
बाधा रहित विकास, मुक्त आशंकाओं से जीवन।
उद्भिज नभ चाहते सभी नर, मुक्त गगन में
अपना चरम विकास ढूँढ़ना, किसी प्रकार भुवन में।
न्यायोचित सुख सुलभ नहीं, जब तक मानव-मानव को
चैन कहाँ धरत . तब तक, शांति कहाँ इस भव को
जब तक मनुज-मनुज का यह, सुख भाग नहीं सम होगा।
शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा।
ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में, मनुज नहीं लाया है।
अपना सुख उसने अपने, भुज-बल से ही पाया है।
ब्रह्मा का अभिलेख पढ़ा करते निरुद्यमी प्राणी
धोते वीर कुअंक भाल का, बहा भ्रुवों का पानी।
भाग्यवाद आवरण पाप का, और शस्त्र शोषण का
जिससे रखता दबा एक जन, भाग दूसरे जन का।
एक मनुज संचित करता है, अर्थ पाप के बल से
और भोगता उसे दूसरा, भाग्यवाद के छल से।
प्रश्न :
1. संसार में संघर्ष की स्थिति कब तक बनी रहेगी?
2. कवि का भाग्यवाद के बारे में क्या मत है?
3. वीर भाग्य के दोषों को किस प्रकार धो डालते हैं?
4. कवि ने भाग्यवाद को किसका आवरण और किसका शस्त्र कहा है?
5. प्रस्तुत पद्यांश की भाषा-शैली की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
1. जब तक संसार में मानवों के मध्य समानता की स्थापना नहीं होगी, उनको बिना भेदभाव के अपने अधिकार प्राप्त नहीं होंगे, तब तक संसार में युद्ध, संघर्ष और अशांति बनी रहेगी।
2. भाग्य का लेख विधाता नहीं लिखता। मनुष्य अपने हाथों से कठोर परिश्रम करके ही अपने भाग्य का निर्माण करता है। जो पराक्रमी नहीं होते, आलस्य में पड़े रहते हैं वे ही भाग्यवादी होते हैं। जीवन में सफलता न मिलने का दोष वे ही भाग्य
को देते हैं।
3. वीर पुरुष अपने पराक्रम से भाग्य का दोष मिटा देते हैं। वे पसीना बहाकर अर्थात परिश्रम करके अपने जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं। वे भाग्यहीनता का दोष अपने कठोर श्रम से दूर करते हैं।
4. कवि ने भाग्यवाद को पाप का आवरण तथा शोषण का शस्त्र कहा है। आलसी लोग अपनी असफलता, पाप को भाग्य का पर्दा डालकर छिपाते हैं। शोषक लोग भाग्य का भय दिखाकर उनका शोषण करते हैं। भाग्य में विश्वास करने के कारण ही उनका शोषण संभव हो पाता है। दूसरे को भाग्यहीन बताकर उसका शोषण करना, उसका अधिकार छीन लेना ही भाग्यवाद का छल है। तुम भाग्यहीन हो, तुम्हें इस कारण कोई वस्तु नहीं मिलेगी, कहकर किसी की वस्तु छीनना भाग्य के नाम पर धोखा देना है।
5. प्रस्तुत पद्यांश की भाषा तत्सम शब्दावली युक्त साहित्यिक खड़ी बोली हिन्दी है। इसकी शैली उपदेशात्मक है।
2. मैं सहज मानिनी रही, सरल क्षत्राणी,
इस कारण सीखी नहीं दैन्य यह वाणी।
पर महा दीन हो गया आज मन मेरा,
भावज्ञ, सहेजा तुम्ही भाव-धन मेरा।
समुचित ही मुझको विश्व-घृणा ने घेरा,
समझाता कौन सशान्ति मुझे भ्रम मेरा?
यों ही तुम वन को गये, देव सुरपुर को,
मैं बैठी ही रह गई लिये इस उर को।
बुझ गई पिता की चिता भरत-भुजधारी;
पितृभूमि आज भी तप्त तथापि तुम्हारी।
भय और शोक सब दूर उड़ाओ उसका,
चलकर सुचरित, फिर हृदय जुड़ाओ उसका।
हो तुम्हीं भरत के राज्य, स्वराज्य सम्भालो,
मैं पाल सकी न स्वधर्म, उसे तुम पालो।
स्वामी को जीते जी न दे सकी सुख मैं
मरकर तो उनको दिखा सकूँ यह मुख मैं।
मर मिटना भी है एक हमारी क्रीड़ा,
पर भरत-वाक्य है- सहूँ विश्व की वीड़ा।
जीवन-नाटक का अन्त कठिन है मेरा,
प्रस्ताव मात्र में जहाँ, अधैर्य अँधेरा।
अनुशासन ही था मुझे अभी तक आता,
करती है तुमसे विनय आज यह माता।
प्रश्न :
1. भरत की माता कैकेयी की राम से क्या शिकायत है?
2. भावार्थ स्पष्ट कीजिए- मैं पाल सकी न स्वधर्म उसे तुम पालो।
3. मर-मिटने को खेल समझने वाली कैकेयी जीवित क्यों है?
4. उपर्युक्त पद्यांश में कैकेयी के व्यक्तित्व का कौन-सा स्वरूप व्यक्त हुआ है?
5. प्रस्तुत काव्यांश में किस शैली का प्रयोग हुआ है?
उत्तर :
1. भरत की माता कैकेयी की राम से शिकायत है दि. “चुपचाप वन में चले गए और कैकेयी को उसकी भूल और भ्रम के बारे में नहीं समझाया।
2. कैकेयी माता है। उसने माता के संतान के प्रति वात्सल्य और स्नेह प्रदर्शन के कर्तव्य का पालन नहीं किया है। राम अयोध्या के राजा और शासक हैं। अपने राज्य तथा प्रजा की रक्षा करना उनका कर्तव्य है। उनको कैकेयी के समान अपने कर्तव्य को भूलने की गलती नहीं करनी चाहिए।
3. भरत का कहना है कि कैकेयी को अपने अनुचित कार्य का दण्ड भोगना चाहिए। आज प्रजा उससे घृणा करती है। उसे प्रजा की घृणा के इस दण्ड को भोगने के लिए जीवित रहना चाहिए।
4. उपर्युक्त पद्यांश में कैकेयी के व्यक्तित्व की दीनता व्यक्त हुई है। भरत से अपने कार्य का समर्थन न पाकर वह अत्यन्त दीन हो गई है।
5. प्रस्तुत काव्यांश में संवाद शैली तथा सम्बोधन शैली का प्रयोग हुआ है।
3. मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ।
जानता हूँ, इस जगत में,
फूल की है आयु कितनी
और यौवन की उभरती,
साँस में है वायु कितनी।
इसलिए आकाश का विस्तार,
सारा चाहता हूँ।
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ।
प्रश्न-चिह्नों में उठी हैं,
भाग्य सागर की हिलोरें,
एक तारा चाहता हूँ।
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ।
यह उठा कैसा प्रभंजन
जुड़ गईं जैसे दिशाएँ।
आँसुओं से रहित होंगी
क्या नयन की नमित कोरें?
जो तुम्हें कर दे द्रवित
वह अश्रुधारा चाहता हूँ।
मै तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ।
जोड़कर कण-कण कृपण
आकाश के तारे सजाए।
जो कि उज्ज्वल है सही,
पर क्या किसी के काम आए?
प्राण! मैं तो मार्गदर्शक
एक तरणी, एक नाविक
और कितनी आपदाएँ?
क्या कहूँ मैंझधार में भी
मैं किनारा चाहता हूँ।
प्रश्न :
1. कवि किससे तथा क्या चाहता है?
2. कवि को जीवन की किस वास्तविकता का ज्ञान है?
3. भावी जीवन के सम्बन्ध में कवि के मन में क्या आशंका है?
4. कवि ईश्वर की कृपा पाने के लिए क्या करना चाहता है?
5. 'जोड़कर कण-कण कृपण' में अलंकार बताइए।
उत्तर :
1. कवि ईश्वर की दयां चाहता है। कवि ईश्वर से याचना करता है कि वह उसे अपनी दया का वरदान मौन रूप में देता रहे।
2. कवि को जीवन का यथार्थ पता है। वह जानता है कि जीवन फूल के समान कोमल और क्षणभंगुर है। जीवन में यौवन की अवस्था भी लम्बी नहीं है। वह जल्दी ही समाप्त हो जाता है।
3. कवि के मन में आशंका है कि उसका भविष्य निरापद नहीं होगा। जीवन के सागर में संकटों की अनेक लहरें उठ रही होंगी। कठिनाइयाँ उसे व्याकुल कर देंगी और उसके नेत्र आँसुओं से भीग जाएँगे।
4. कवि चाहता है कि उसके नेत्रों से ऐसी अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हो जो ईश्वर के हृदय को द्रवित कर दे और वह अपनी मौन करुणा की वर्षा उसके ऊपर कर दे।
5. 'जोड़कर कण-कण कृपण'- में 'क' वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार है तथा 'कण-कण' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
4. विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी
मरो, परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यो सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
क्षुधात रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया।
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
प्रश्न :
1. कवि ने पाठकों को क्या सोचकर मृत्यु से न डरने की सलाह दी है?
2. 'सुमृत्यु' का तात्पर्य क्या है?
3. कवि ने पशु-प्रवृत्ति किसको बताया है?
4. उदार मनुष्य की क्या विशेषता होती है? इसका क्या परिणाम होता है?
5. इस काव्यांश में पंक्तियों के अन्त में बखानती, मानती, कूजती तथा पूजती शब्दों के आने से छन्द की क्या विशेषता प्रकट होती है?
उत्तर :
1. कवि ने बताया है कि शरीर नाशवान है। मनुष्य यह विचार कर ले कि वह अमर नहीं है अतः मृत्यु अवश्यंभावी है तो उससे डरना कैसा ?
2. 'सुमृत्यु' का अर्थ है- अच्छी या प्रशंसनीय मृत्यु। मृत्यु तो मृत्यु है वह अच्छी बुरी नहीं होती। सुमृत्यु का तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवन में परहित के कार्य करता हुआ मरे तो उसकी मृत्यु को सुमृत्यु कहा जा सकता है।
3. पशु केवल अपना हित देखता है, वह स्वार्थ जानता है। अपना भाग छोड़कर दूसरे को देना वह नहीं जानता। इसी को पशुता कहते हैं। यही पशु-प्रवृत्ति है। जो मनुष्य स्वार्थी होता है उसमें मानव-वृत्ति नहीं पशु-प्रवृत्ति ही प्रधान होती है।
4. उदारता मनुष्य का सद्गुण है। उदार मनुष्य दूसरों के हित का ध्यान रखता है वह केवल अपनी ही चिन्ता नहीं करता। उदार मनुष्य की कथा सरस्वती सुनाती हैं। पृथ्वी उसे पाकर कृतार्थ होती है, उसकी सदैव प्रशंसा होती है। समस्त संसार में उसकी पूजा होती है।
5. इस काव्यांश की पंक्तियों के अन्त में बखानती, मानती, कूजती, तथा पूजती शब्द आए हैं। इनके आने से यह छंद तुकान्त हो गया है।
5. सोने चाँदी से नहीं किन्तु
तुमने मिट्टी से किया प्यार।
हे ग्राम-देवता! नमस्कार।
जन-कोलाहल से दूर
कहीं एकाकी सिमटा-सा निवास,
रवि-शशि का उतना नहीं
कि जितना प्रा का होता प्रकाश,
श्रम-वैभव के बल पर करते हो
जड़ में चेतन का विकास,
दानों-दानों से फूट रहे
सौ-सौ दानों के हरे हास,
यह है न पसीने की धारा
यह गंगा की है धवल धार,
हे ग्राम-देवता! नमस्कार!
तुम जन-मन के अधिनायक हो
तुम हँसो कि फूले-फले देश
आओ, सिंहासन पर बैठो
यह राज्य तुम्हारा है अशेष।
उर्वरा भूमि के नये खेत के
नये धान्य से सजे देश,
तुम भू पर रहकर भूमि-भार
धारण करते हो मनुज-शेष
अपनी कविता से आज तुम्हारी
विमल आरती लें उतार!
हे ग्राम-देवता ! नमस्कार!
प्रश्न
1. किसान के पसीने को कवि ने किसके समान बताया है?
2. देश की उन्नति तथा विकास किस प्रकार हो सकता है?
3. कवि किसान से क्या चाहता है?
4. 'तुम भू पर रहकर भूमि-भार धारण करते हो मनुज-शेष' पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। 'मनुज-शेष' में कौन-सा अलंकार है।
5. प्रस्तुत काव्यांश की भाषा और छंद की एक-एक विशेषता लिखिए?
उत्तर :
1. कवि ने किसान के पसीने को गंगा के समान बताया है। किसान के पसीने की धार उसे गंगा नदी की
धारा से अधिक पावन और जीवनदायिनी प्रतीत होती है।
2. जब खेतों की उपजाऊ भूमि से नए पौधे उत्पन्न होंगे, नई उपज से खेत लहलहा उठेंगे तभी यह देश समृद्ध होगा तथा इसकी उन्नति और विकास होगा।
3. कवि किसान को जनता के मन का शासक मानता है। उसकी सम्पन्नता से ही देश को सच्ची सम्पन्नता मिलेगी। किसान प्रसन्न होगा तभी देश प्रसन्न होगा। कवि चाहता है कि किसान इस देश के सिंहासन पर बैठे और इसको सुखी और समृद्ध बनाए।
4. 'तुम भू पर रहकर भूमि-भार धारण करते हो मनुज-शेष' इस पंक्ति में कवि ने शेषनाग द्वारा अपने फण पर पृथ्वी को उठाने की पौराणिक मान्यता की ओर संकेत किया है। जिस प्रकार शेषनाग अपने फण पर भूमि का भार धारण किए हुए है। उसी प्रकार किसान पृथ्वी पर रहकर भी उसका भार धारण करता है। 'मनुज-शेष' में रूपक अलंकार है।
5. प्रस्तुत काव्यांश की भाषा सरल-सहज, प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है। इस काव्यांश की रचना में प्रयुक्त छंद तुकान्त है।
6. फूल से बोली कली "क्यों व्यस्त मुरझाने में है,
फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा,
फायदा क्या गंध औ' मकरंद बिखराने में है?
फिर स्वयं को देखकर भोली कली से ये कहा
तूने अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी,
जिन्दगी सिद्धांत की सीमाओं में बँटती नहीं,
मनमोहक मकरंद की पंखुड़ियाँ क्यों खोल दी।
ये वो पूँजी है जो व्यय से बढ़ती है, घटती नहीं।
तू स्वयं को बाँटता है जिस घड़ी से है खिला,
चार दिन की जिन्दगी खुद को जिए तो क्या जिए?
किन्तु इस उपकार के बदले में तुझको क्या मिला?
बात तो तब है कि जब मर जाएँ औरों के लिए,
मुझे देखो मेरी सब खुशबू मुझी में बंद है,
प्यार के व्यापार का क्रम अन्यथा होता नहीं,
मेरी सुन्दरता है अक्षय, अनछुआ मकरंद है।
वह कभी पाता नहीं है जो कभी खोता नहीं।
प्रश्न :
1. 'तूने अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी'-का आशय प्रकट कीजिए।
2. फूल की सुन्दरता नष्ट होने, उसके मुरझाने तथा कली के सुन्दर बने रहने की पीछे कौन-सा कारण है?
3. कवि के अनुसार आदर्श जीवन कैसा होता है?
4. "वह कभी पाता नहीं है जो कभी खोता नहीं'- इस पंक्ति के आधार पर बताइए कि जीवन का सच्चा आनंद किस बात में है?
5. प्रस्तुत काव्यांश की भाषा की विशेषता लिखिए।
उत्तर :
1. 'तूने अपनी उम्र को वातावरण में घोल दी'-का आशय यह है कि फूल ने अपना पूरा जीवन अपनी सुगंध से लोगों को आनंदित करने में बिता दिया है। अपना पूरा जीवन उसने दूसरों की भलाई में बिता दिया है।
2. फूल की सुन्दरता नष्ट होने और मुरझाने के पीछे कारण यह है कि उसने अपनी सुगंध और मकरंद दूसरों को दे दिया है। उसने अपना हित नहीं दूसरों का हित करने में जीवन नष्ट कर लिया है। कली अभी तक सुन्दर है। वह मुरझाई नहीं है क्योंकि उसकी गंध और मकरंद को कोई छू भी नहीं पाया है।
3. कवि के अनुसार आदर्श जीवन परोपकार से परिपूर्ण होता है। दू के हित और खुशी के लिए जीना ही आदर्श जीवन है। स्वार्थ के लिए जीना कोई अच्छा जीवन नहीं होता।
4. 'वह कभी पाता नहीं जो कभी खोता नहीं'- का आशय यह है कि जो व्यक्ति दूसरों के हित के लिए अपना हित
और लाभ नहीं छोड़ता उसको जीवन का सच्चा सुख नहीं मिलता है।
5. इस काव्यांश की भाषा भावानुकूल सरल है। उसमें फायदा जिन्दगी, नादान आदि उर्दू के प्रचलित शब्द भी हैं।
7. काँधे धरी यह पालकी
काँधे धरा किसका महल?
है किस कन्हैयालाल की?
हम नींव पर किस की डटे?
इस गाँव से उस गाँव तक
यह माल ढोते थक गई तकदीर खच्चर हाल की।
नंगे बदन, फेंटा कसे,
काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की?
बारात किस की ढो रहे?
फिर एक दिन आँधी चली किसकी कहारी में फंसे?
ऐसी कि पर्दा उड़ गया।
यह कर्ज पुश्तैनी अभी किस्तें हजारों साल की।
अंदर न दुलहन थी न दूल्हा
काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की?
एक कौवा उड़ गया...
इस पाँव से उस पाँव पर,
तब भेद आकर यह खुला हमसे किसी ने चाल की
ये पाँव बेवाई फटेः
काँधे धरी यह पालकी लाला अशर्फीलाल की।
प्रश्न :
1. कवि ने कहारों की निर्धनता तथा दीनता का चित्रण कैसे किया है?
2. 'यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हजारों साल की'- पंक्ति में कवि ने किस सामाजिक कुरीति का वर्णन किया है?
3. 'काँधे धरा किसका महल? हम नींव पर किसकी डटे'- पंक्ति का प्रत कार्थ क्या है?
4. 'यह माल ढोते थक गई तकदीर खच्चर हाल की'- का आशय क्या है?
5. 'काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की' में अलंकार बताइए।।
उत्तर :
1. कवि ने कहारों की निर्धनता और दीनता का चित्रण किया है। एक गाँव से दूसरे गाँव तक पालकी उठाकर लोंगों को पहुँचाने वाले कहार नंगे शरीर हैं। उन्होंने कमर में कसकर फेंटा बाँध रखा है। वे नंगे पैर हैं तथा उनके पैरों में बिवाइयाँ फटी हुई हैं। वे वर्षों से निर्धनता की जंजीर में जकड़े हुए हैं।
2. "यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हजारों साल की"-इस पंक्ति कवि ने कहारों की ऋणग्रस्तता की दशा का वर्णन किया है। उनके पूर्वज भी कर्जदार थे और वे भी कर्ज में डूबे हैं। उनका पूरा जीवन कर्ज चुकाने में ही बीत जाता है। इस पंक्ति सूदखोरों द्वारा किए गए शोषण की कुरीति का चित्रण है।
3. कहार अपने कंधों पर धनपतियों को उठाए हैं। धनवान लोगों की सम्पन्नता और समृद्धि उनके कंधों पर सवार होकर, उनका शोषण करके ही पनप रही है। शोषण के इस मजबूत महल की नींव इन पीड़ित कहारों के ऊपर ही टिकी है।
4. 'यह माल ढोते थक गई तकदीर खच्चर हाल की'- पंक्ति में कहारों की दीनदशा का वर्णन है। उनकी तुलना बोझ ढोने वाले पशु खच्चर से की गई है। पालकी में लोगों को बैठाकर वे जीवन भर उनको एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाते हैं परन्तु उनको अपने श्रम का लाभ नहीं मिलता। मेहनत करने पर भी उनकी तकदीर नहीं बदलती।
5. 'काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की' में 'क' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है।
8. चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।
खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे कदम रख करके आए
लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी।
धीरे-धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे सभी निहत्थे।
सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी।
निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौलकर चाकू मारा
छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?
प्रश्न :
1. कविता की प्रथम दो पंक्तियों में किसका वर्णन है? कविता का प्रारम्भ इनके वर्णन से क्यों किया गया
2. उस दिन रामदास उदास क्यों था?
3. रामदास घर से किसके साथ चला?
4. "लोग सिमट कर.....हत्या होगी।"-से सड़क पर खड़े लोगों की किस मनोदशा की पता चलता है?
5. इस कविता को किस साहित्यिक वाद से सम्बन्धित रचना मान सकते हैं?
उत्तर :
1. कविता की प्रथम दो पंक्तियों में स्थान (चौड़ी सड़क, पतली गली) तथा समय (घने बादल छाए दिन) का वर्णन है। कविता का प्रारम्भ इनसे होने का कारण है घटना के स्थल तथा समय के बारे में बताना।
2. उस दिन रामदास उदास था। उसे पता था कि उसका अन्तिम समय आ चुका है। उस दिन उसकी हत्या कर दी जायेगी।
3. रामदास घर से अकेला ही चला था। उसने सोचा कि वह किसी को अपने साथ ले ले परन्तु उसने इस विचार को छोड़ दिया। कुछ सोचकर वह अकेले ही चल पड़ा।
4. 'लोग सिमट कर आँख गड़ाए। लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी'- इस पंक्ति से पता चलता है कि लोग संतुलित कदमों से आगे बढ़े। वे एकत्रित होकर ध्यान से रामदास को देखने लगे, जिसकी हत्या होगी यह बात तय थी। इससे पता चलता है कि वहाँ एकत्रित लोग भय-भीत और अचम्भित थे। रामदास की हत्या होने की बात जानते हुए भी वे उसको बचाने का प्रयास नहीं कर रहे थे।
5. रामदास के शरीर से खून का फुहारा निकलने की बात से हम इस कविता को यथार्थवाद से सम्बन्धित काव्य रचना मान सकते हैं।
9. भई सूरज जरा इस आदमी को जगाओ
नहीं तो जब बेवक्त जागेगा यह
भई पवन जरा इस आदमी को हिलाओ
तो जो आगे निकल गए हैं
यह आदमी जो सोया पड़ा.है
उन्हें पाने, घबरा के भागेगा यह!
जो सच से बेखबर
भागना अलग है
सपनों में खोया पड़ा है।
क्षिप्र गति अलग है
भई पंछी
क्षिप्र तो वह है
इसके कानों पर चिल्लाओ।
जो सही क्षण में सजग है
भई सूरज! जरा इस आदमी को जगाओ!
सरज इसे जगाओ, पवन इसे हिलाओ
वक्त पर जगाओ
पंछी इसके कानों पर चिल्लाओ।
प्रश्न :
1. कवि आदमी को जगाने के लिए किनसे कह रहा है?
2. बेवक्त जागने पर आदमी क्या करेगा?
3. सच से बेखबर और सपनों में खोया रहने का क्या तात्पर्य है?
4. भामने और क्षिप्रगति में कवि ने क्या अन्तर बताया है?
5. 'भई सूरज जरा इस आदमी को जगाओ, भई पवन जरा इस आदमी को हिलाओ' में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर :
1. कवि सोते हुए आदमी को जगाने के लिए सूरज, पवन और पक्षी से कह रहा है। पवन उसे हिलाकर और पक्षी उसके कान पर चिल्लाकर उसे जगा सकते हैं।
2. आदमी बेवक्त जागेगा और अपने आपको औरों से पीछे देखेगा तो वह तेज दौड़गा। अपने से आगे निकल गए लोगों को पकड़ने अर्थात उनके बराबर पहुँचने के लिए वह तेजी के साथ दौड़ेगा।
3. आदमी सो रहा है। उसे जीवन के सत्य का पता नहीं है। वह सपनों की दुनिया में खोया हुआ है। आशय यह है कि जीवन के संघर्षों और समस्याओं के प्रति सजग न रहने और अपने कल्पित संसार में रहने वाला व्यक्ति प्रगति की दौड़ में पिछड़ जाता है।
4. भागना तेज चलना तो है किन्तु उसमें सोच-समझ कर चलने का अभाव है। क्षिप्र गति का अर्थ तेज चाल है। क्षिप्र गति बिना सोचे-विचारे निरुद्देश्य भागना नहीं है। वह एक निश्चित लक्ष्य की ओर सोच-समझ कर तेजी से बढ़ना है।
5. 'भई सूरज जरा इस आदमी को जगाओ। भई पवन जरा इस आदमी को हिलाओ'- इन पंक्तियों में सूरज तथा पवन को सजीव मानकर उनका मानवीकरण किया गया है। इसमें मानवीकरण अलंकार है।
10. कहे परिवेश-मैं धन्या, कहे यह देश-मैं धन्या,
कलेजा क्लेश से कंपित ये मैं हूँ देश की कन्या !
तुम्हारी चाकरी में नींद पूरी भी ना सोई मैं,
सवेरे द्वार तक आँगन बुहारा फिर रसोई में लगी,
बच्चे पठाए पाठशाला फिर टिफिन-सज्जा,
गई खुद काम पर आई नहीं तुमको तनिक लज्जा,
लौटी तो तम्हे फिर चाहिए सेवा व्रती दासी,
तुम्हे क्या बोध, जीवन शोध, भूखी है कि वो प्यासी!
कहा है आज मैंने जो बराबर भी कहूँगी मैं
बराबर थी बराबर हूँ, बराबर ही रहूँगी मैं।
प्रकृति ने इस युगल छवि को मनोहारी बनाया है,
बराबर शक्ति देकर शीश भी अपना नवाया है।
मैं रचना हूँ चराचर की, मैं नारी हूँ बराबर की
नहीं क्यों तुम मुझे मेरा प्रतीक्षित मान देते हो कि
कृपाएँ ही लुटाते हो फ़कत अनुदान देते हो।
ये मैं हूँ देश की कन्या, बहन, पत्नी, जननि, जन्या।
प्रश्न :
1. देश और परिवेश धन्या किसे कहा गया है ? उसकी यथार्थ स्थिति क्या है।
2. इन काव्य-पंक्तियों में भारतीय महिला के किन दैनिक कार्यों का उल्लेख किया गया है?
3. 'बराबर थी बराबर हूँ बराबर ही रहूँगी, मैं-इस पंक्ति में आधुनिक नारी का कौन-सा रूप व्यक्त हुआ है ? इस पर हिन्दी की किस काव्यधारा का प्रभाव है?
4. नारी को समाज में सम्मान न मिलकर क्या मिलता है?
5. इस काव्यांश में कौन-सा काव्य-गुण है?
उत्तर :
1. देश और परिवेश धन्या महिलाओं को कहा गया है। यथार्थ स्थिति यह है कि महिलाओं को सम्मान और समानता प्राप्त नहीं है। वे क्लेश के कारण काँपती रहती हैं।
2. महिलाएँ दिनभर अनेक काम करती हैं। वे सबेरे उठकर घर की सफाई करती हैं, रसोई तैयार करती हैं, बच्चों को पाठशाला भेजती हैं, टिफिन तैयार करती हैं और स्वयं भी घर के बाहर काम पर जाती हैं। वे रात में पूरी नींद भी नहीं सो पाती।
3. 'बराबर थी, बराबर हूँ, बराबर ही रहूँगी मैं- इस पंक्ति में नारी का जागरूक रूप व्यक्त हुआ है। आधुनिक नारी जाग गई है और समाज में पुरुषों के समान होने के अपने अधिकार को पाने के लिए तत्पर है। इन पंक्तियों पर हिन्दी की प्रगतिवादी काव्यधारा प्रभाव है।
4. नारी समाज में समानता और सम्मान पाने की इच्छुक है। उसे मान पाने की प्रतीक्षा है किन्तु उसे सम्मान के स्थान पर केवल पुरुषों की अनुकम्पा और अनुदान ही प्राप्त होता है।
5. इस काव्यांश का काव्य-गुण 'ओज' है।
11. अरे! चाटते जूठे पत्ते जिस दिन देखा मैंने नर को।
ओ भिखमंगे, अरे पराजित, ओ मजलूम, अरे चिर दोहित,
उस दिन सोचाः क्यों न लगा दूँ आज आग इस दुनिया भर को?
तू अखण्ड भंडार शक्ति का, जाग अरे निद्रा-सम्मोहित,
यह भी सोचाः क्यों न टेंटुआ घोटा जाय स्वयं जगपति का?
प्राणों को तड़पाने वाली हुंकारों से जल-थल भर दे,
जिसने अपने ही स्वरूप को रूप दिया इस घृणित विकृति का।
अनाचार के अम्बारों में अपना ज्वलित पलीता भर दे।
जगपति कहाँ? अरे, सदियों से वह तो हुआ राख की ढेरी:
भूखा देख तुझे गर उमड़े आँसू नयनों में जग-जन के
वरना समता-संस्थापन में लग जाती क्या इतनी देरी?
तो तू कह देः नहीं चाहिए हमको रोने वाले जनखे;
छोड़ आसरा अलखशक्ति का, रे नर, स्वयं जगत्पति तू है;
तेरी भूख, असंस्कृति तेरी, यदि न उभाड़ सके क्रोधानल,
तू यदि जूठे पत्ते चाटे, तो मुझे पर लानत है, थू है।
तो फिर समझूगा कि हो गई सारी दुनिया कायर, निर्बल।
प्रश्न :
1. कवि संसार में आग लगाने की बात क्यों सोचता है?
2. कवि ईश्वर से किस बात को लेकर नाराज है?
3. संसार में मानव-मानव में समानता की स्थापना न हो पाने का दोषी कवि ने किसको माना है?
4. संसार में समानता की स्थापना कौन कर सकता है?
5. प्रस्तुत कविता हिन्दी के किस 'वाद' के अन्तर्गत आती है?
उत्तर :
1. कवि ने मनुष्य को दूसरों के झूठे पत्ते चाटते देखा तो उसे संसार की व्यवस्था के प्रति आक्रोश हो गया और उसने संसार में आग लगा देने का विचार किया।
2. कवि का मानना है कि मनुष्य ईश्वर की ही प्रतिकृति है। वह ईश्वर के ही समान है। अपने रूप को ऐसा भद्दा रूप प्रदान करने के कारण कवि ईश्वर से नाराज है।
3. कवि संसार में मानव-समानता की स्थापना न होने का दोषी ईश्वर के न होने को मानता है। यदि ईश्वर होता तो संसार में ऐसी असमानता हो ही नहीं सकती थी।
4. संसार में समानता की स्थापना करना ईश्वर के बस की बात नहीं है। इस कार्य को करने की शक्ति मनुष्य के ही पास है। मनुष्य को उसे स्वयं ही जगत्पति बनना होगा।
5. प्रस्तुत कविता हिन्दी काव्य के प्रगतिवाद के अन्तर्गत आती है।
12. जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उस पर नित्य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया,
मधुवन की छाती को देखो
सूखी इसकी कितनी कलियाँ,
मुरझाई कितनी वल्लरियाँ,
जो मुरझाई फिर कहाँ खिली,
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है?
जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में मधु का प्याला था,
तुमने तन-मन दे डाला था।
वह टूट गया तो टूट गया,
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं,
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं?
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है?
जो बीत गई सो बात गई।
प्रश्न :
1. 'जीवन में था एक कुसुम' में कवि ने कुसुम शब्द का प्रयोग किसके लिए किया है?
2. मधुवन किस बात पर शोर नहीं मचाता?
3. 'जो बीत गई सो बात गई'- कहकर कवि ने क्या संदेश दिया है?
4. मदिरालय का उदाहरण कवि ने क्यों दिया है?
5. इस काव्यांश में किस शैली का प्रयोग हुआ है?
उत्तर :
1. यह कविता व्यक्तिगत तत्वों पर आधारित है। जीवन में था एक कुसुम' में कुसुम शब्द का प्रयोग कवि की दिवंगत पत्नी के लिए किया गया है।
2. मधुवन अर्थात् बाग में अनेक पादप तथा लताएँ होती हैं। अनेक लताएँ सूख जाती हैं, फूल मुरझा जाते हैं, परन्तु बाग इस पर रोता-धोता नहीं है।
3. 'जो बीत गई सो बात गई'- कहकर कवि ने पुरानी और बीती बातों पर दु:खी होना छोड़कर व वर्तमान स्थितियों में जीवित रहने का संदेश दिया है। इसमें संदेश है-बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
4. कवि ने मदिरालय का उदाहरण संसार की नश्वरता को प्रकट करने के लिए दिया है। मधुशाला में अनेक प्याले होते हैं, जो गिरकर टूट जाते हैं परन्तु इससे मधुशाला बंद नहीं होती। उन प्यालों का स्थान, नए प्याले ले लेते हैं। इसी प्रकार संसार में मृत्यु और जन्म का क्रम चलता रहता है।
5. इस काव्यांश में कवि ने गीत-शैली का प्रयोग किया है।
13. यह हार एक विराम है।
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटँगा पर दया की भीख मैं लँगा नहीं
वरदान माँगूगा नहीं।
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो कि मैं विश्व की संपत्ति चाहूँगा नहीं .
वरदान माँगूगा नहीं।
क्या हार में, क्या जीत में
भयभीत मैं
संघर्ष-पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही
वरदान माँगूंगा नहीं।
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदनां मैं व्यर्थ त्यागँगा नहीं
वरदान माँगूगा नहीं।
चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्यपथ से किन्तु भागूंगा नहीं किंचित् नहीं
वरदान मागूंगा नहीं।
प्रश्न :
1. कवि ने जीवन को महासंग्राम क्यों माना है। इस संग्राम में हुई हार के बारे में उसका क्या मत है?
2. कवि अपना जीवन किस प्रकार व्यतीत करना चाहता है?
3. हार और जीत की दशा में कवि क्या करना चाहता है?
4. "संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही"-से कवि की किस मनोदशा का पता चलता है? बाधाओं से संघर्षा करते हुए बीतता है! कवि ने इस कारण
5. प्रस्तुत कविता का संदेश क्या है?
उत्तर :
1. मनुष्य का जीवन अनेक संकटों तथा विघ्न-बाधाओं से संघर्ष करते हुए बीतता है। कवि ने इस कारण जीवन को एक महासंग्राम माना है। इस संग्राम में हुई हार को कवि ने हार नहीं माना। जीवन के संघर्ष में यह हार एक अल्पकाल के विराम के समान है।
2. कवि अपना जीवन निरन्तर बाधाओं और समस्याओं के साथ संघर्ष करते हुए व्यतीत करना चाहता है। वह हार मानना नहीं चाहता तथा किसी से सहायता की भीख भी माँगना नहीं चाहता।
3. हार और जीत में कवि तटस्थ तथा अविचलित रहना चाहता है। वह हारने से नहीं डरता। वह हार या जीत-जो मिले उसे स्वीकार करने को तैयार है।
4. "संघर्ष पथ पर जो मिले-यह भी सही वह भी सही"-इस कवि कथन से पता चलता है कि कवि हार-जीत को तटस्थ भाव से अपनाना चाहता है। उसे जीवन में जो भी प्राप्त हो वह स्वीकार है। वह हार से दुःखी और जीत से प्रसन्न नहीं होता। वह स्थित प्रज्ञ है।
5. प्रस्तुत कविता में कवि ने जीवन को समग्र रूप में ग्रहण करने का संदेश दिया है। मनुष्य को जीवन के सुख-दुःख, हार-जीत आदि को तटस्थ भाव से समान मानकर स्वीकार करना चाहिए। उसे दृढ़ता तथा अविचलित भाव से ग्रहण करना चाहिए। उसे दूसरों की आलोचना-निंदा से विचलित नहीं होना चाहिए तथा अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए।
14. आज बचपन का कोमल गात
जरा का पीला पात!
चार दिन सुखद चाँदनी रात
और फिर अंधकार, अज्ञात!
शिशिर-सा झर नयनों का नीर
झुलस देता गालों के फूल!
प्रणय का चुम्बन छोड़ अधीर
अधर जाते अधरों को भूल!
मृदुल होंठों का हिमजल हास
उड़ा जाता नि:श्वास समीर,
सरल भौंहों का शरदाकाश
घेर लेते घन, घिर गम्भीर!
शून्य साँसों का विधुर वियोग
छुड़ाता अधर मधुर संयोग,
मिलन के पल केवल दो चार,
विरह के कल्प अपार !
अरे वे अपलक चार नयन
आठ आँसू रोते निरुपाय,
उठे रोंओं के आलिंगन
कसक उठते काँटों से हाय!
प्रश्न :
1. कोमल होठों की हँसी किसमें बदल जाती है?
2. मिलन के समय को 'पल' तथा विरह के समय को 'कल्प' क्यों कहा गया है?
3. चार नयन किनके हैं? उनके अपलक होने का क्या तात्पर्य है?
4. प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने प्रकृति के किस स्वरूप का वर्णन किया है?
5. उपर्युक्त पद्यांश की भाषा-शैली कैसी है?
उत्तर :
1. कोमल होठों की हँसी निराशाभरी गहरी साँसों में बदल जाती है। अर्थात् हँसते हुए मनुष्य के जीवन में भी निराशा आकर उसे उदास कर देती है।
2. पल' समय की एक लघुतम माप है तथा 'कल्प' एक बहुत बड़ी माप है। मिलन के पल दो-चार हैं अर्थात् जीवन में मिलन का समय बहुत छोटा है। विरह के कल्प अपार हैं अर्थात् विरह का समय बहुत लम्बा है।
3. चार नयन हैं-अर्थात् दो नेत्र नायक के हैं तथा दो नायिका के। अपलक का अर्थ है-टकटकी लगाकर देखना, बिना पलक झपकाये देखना नायक-नायिका संयोग के समय एक-दूसरों के नेत्रों में टकटकी लगाकर देख रहे हैं।
4. प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने प्रकृति के कठोर एवं रौद्र स्वरूप का दर्शन किया है।
5. उपर्युक्त पद्यांश की भाषा संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली युक्त है। इसमें चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात' तथा बादल घिरना, आठ आँसू रोना इत्यादि मुहावरों का साहित्यिक भाषा में प्रयोग किया गया है। शैली लाक्षणिक तथा संकेतात्मक है।
15. देखकर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के, दुःख भोग पछताते नहीं।
काम कितना ही कठिन हो, किन्तु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।
हो गए इक आन में, उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले-फले।
पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे।
सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे।
गर्भ में जलराशि के बेड़ा चला देते हैं वे।
जंगलों में भी महा मंगल रचा देते हैं वे।
भेद नभ-तल का उन्होंने है बहुत बतला दिया।
है उन्होंने ही निकाली तार की सारी क्रिया।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर।
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लहर।
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों प्रहर।
ये कँपा सकते कभी, जिनके कलेजे को नहीं।
गर्जती जलराशि की उठती हुई ऊँची लहर।
भूलकर भी वे कभी, नाकाम रहते हैं नहीं।
प्रश्न :
1. जीवन में आने वाली विघ्न-बाधाओं से न घबराने का क्या परिणाम होता है?
2. कौन लोग अपने जीवन में कभी भी असफल नहीं होते?
3. 'सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले-फले'-से क्या आशय है?
4. उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
5. प्रस्तुत पद्यांश की भाषा कैसी है?
उत्तर :
1. जीवन में आने वाली विघ्न-बाधाओं से न घबराने का परिणाम होता है- निश्चित सफलता। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में कभी असफल नहीं होता।
2. जो मनुष्य कार्य में सदा लगे रहते हैं तथा अपनी धुन के पक्के होते हैं, वे जीवन में कभी असफल नहीं होते।
3. सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले-फले। इस पंक्ति का आशय है कि कर्मठ परिश्रमी लोग कहीं भी हों तथा उनका सम्बन्ध किसी भी काल से हो वे हमेशा फलते-फूलते देखे जाते हैं। वे देशकाल से अप्रभावित रहते हैं।
4. उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक-'कर्मठ पुरुष' है।
5. प्रस्तुत पद्यांश की भाषा सरल बोलचाल के शब्दों से युक्त तथा प्रवाहपूर्ण है। वह भावानुकूल तथा सुबोध है। भाषा मुहावरेदार है।
16. है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत धार,
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार।
भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम,
बह रहीं असहाय नर की भावना निष्काम।
भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर, या कि हों भगवान,
बुद्ध हों कि अशोक, गांधी हो कि ईसु महान,
सिर झुका सबको सभी को श्रेष्ठ निज से मान,
मात्र वाचिक ही उन्हें देता हुआ सम्मान,
दग्ध कर पर को, स्वयं भी भोगता दुख-दाह,
जा रहा मानव चला अब भी पुरानी राह।
आज की दुनिया विचित्र, नवीन,
प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन।
हैं बंधे नर के करों में वारि, विद्युत भाप,
हुक्म पर चढ़ता-उतरता है पवन का ताप।
हैं नहीं बाकी कहीं व्यवधान,
लाँघ सकता नर सरित, गिरि सिन्धु एक समान।
शीश पर आदेश कर अवधार्य,
प्रकृति के सब तत्व करते हैं मनुज के कार्य।
मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,
और करता शब्दगुण अम्बर वहन संदेश।
प्रश्न :
1. धरती पर अमृत की धारा बरसने से क्या आशय है?
2. 'वाचिक ही उन्हें देता हुआ सम्मान' का क्या आशय है?
3. मनुष्य अपनी किस पुरानी राह पर चल रहा है?
4. आज की दुनिया को विचित्र और नवीन क्यों कहा गया है?
5. उपर्युक्त पद्यांश में किस रस का चित्रण है? 'वारि, विद्यत भाप' में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर :
1. धरती पर अमृत की धारा बरसने से आशय यह है कि अनेक महापुरुषों तथा देवताओं ने पृथ्वीवासियों को उत्तम आध्यात्मिक उपदेश दिए हैं तथा संयम सिखाया है।
2. वाचिक देता हुआ सम्मान का आशय यह है कि मनुष्य महापुरुषों, देवी-देवताओं तथा अवतारों का सम्मान मौखिक रूप से ही करता है, सच्चे मन से उनका सम्मान नहीं करता।
3. मनुष्य अपने कार्यों से दूसरों को कष्ट देता है तथा वह स्वयं भी दुःखी होता है। अपनी इसी कार्य पद्धति को वह पहले अपनाता था और इसी के अनुसार वह अब भी आचरण कर रहा है। यही उसकी पुरानी राह है।
4. आज संसार में विज्ञान के कारण मनुष्य बड़ा शक्तिशाली हो गया है, संसार में बहुत कुछ बदल गया है। इसी कारण दुनिया को विचित्र तथा नवीन कहा गया है।
5. उपर्युक्त पद्यांश में वीर रस का चित्रण है। 'वारि, विद्युत भाप' में अनुप्रास अलंकार है।
17. कविताओं में
संवेदनहीन लोग
पेड़ - चिड़िया - फूल - पौधे
जो धन के बल पर
और मौसम का अब जिक्र नहीं होता
सच-झूठ को नकारते हुए
कविताओं में होते हैं
जीवन जी रहे हैं।
कविताएँ सदा सच बोलती हैं
कृत्रिम आकृतियाँ
झूठ का भण्डा फोड़ती हैं।
कैलेंडर-पेन्टिंग्स के रूप में
और सच यह है कि आज का मानव
जिन्हें देखकर
छल से, बल से लूट रहा है,
बच्चे पूछते होंगे -
उसने काट डाले हैं
कैसे होते हैं
सारे के सारे वन-उपवन
विशालकाय पेड़?
धरती का चप्पा-चप्पा
चिड़िया कैसे चहचहाती है?
पट गया है भवनों से।
आकाश इतना खाली क्यों है?
और लोगों ने ड्राइंग रूम में लगा दी है
हवाएँ सहमी-सहमी हैं?
बौना साइज़ प्रजातियाँ पौधों की
बादल क्यों नहीं बरसते?
और सजा दी हैं असंख्य पक्षियों की
प्रश्न :
1. इस पद्यांश में आधुनिक कविता की किस विशेषता का उल्लेख है?
2. कविताओं में किनका वर्णन होता है? उनको संवेदनहीन क्यों कहा गया है?
3. बच्चे वृक्षों तथा चिड़ियों के बारे में क्या पूछते हैं तथा क्यों?
4. लोगों ने अपने ड्राइंग रूमों को किन चीजों से सजाया है?
5. इस काव्यांश में प्रयुक्त छंद की क्या विशेषता है?
उत्तर :
1. कवि के विचार से अब कविताओं में पेड़-पौधों, फूलों, चिड़ियों आदि सम्बन्धी प्राकृतिक सुन्दरता का वर्णन नहीं होता। इस काव्यांश में प्रकृति की उपेक्षा और संवेदनहीनता का वर्णन है।
2. कविता में सच-झूठ की परवाह न करके धन के पीछे पागल हुए मनुष्यों का वर्णन होता है। इन मनुष्यों को कवि ने मानवीय संवेदना से हीन बताया है।
3. विशाल वृक्षों तथा पक्षियों को मनुष्य ने नष्ट कर दिया है। बच्चों ने उनको देखा ही नहीं है। वे तो ड्राइंग रूम में सजे बौने पौधों तथा कृत्रिम पक्षियों से ही परिचित हैं। अत: वे पूछते हैं कि विशालकाय वृक्ष कैसे होते हैं तथा चिड़ियाँ कैसे चहचहाती हैं।
4. लोगों ने अपने ड्राइंग रूमों में छोटे आकार और लम्बाई वाले पौधे सजा लिए हैं तथा पक्षियों के चित्र वाले कलेंडर लटका लिए हैं।
5. इस काव्यांश में प्रयुक्त छंद मुक्त है किन्तु उसकी पंक्तियाँ तुकान्त हैं।
18. आज की शाम
दाना बनने से पहले
जो बाजार जा रहे हैं।
सुगंध की पीड़ा से छटपटा रहा हो
उनसे मेरा अनुरोध है
उचित यही होगा
एक छोटा-सा अनुरोध
कि हम शुरू में ही
क्यों न ऐसा हो कि आज शाम
आमने-सामने
हम अपने थैले और डोलचियाँ
बिना दुभाषिये के
रख दें एक तरफ
सीधे उस सुगंध से
और सीधे धान की मंजरियों तक चलें
बातचीत करें
चावल जरूरी है
यह रक्त के लिए अच्छा है
जरूरी है आटा दाल नमक पुदीना
अच्छा है भूख के लिए
पर क्यों न ऐसा हो कि आज शाम
नींद के लिए
हम सीधे वहीं पहुँचे
कैसा रहे
एक दम वहीं
बाजार न आए बीच में।
जहाँ चावल
प्रश्न :
1. कवि सीधे बाजार न जाने के लिए क्यों कह रहा है?
2. यहाँ दुभाषिए से क्या तात्पर्य है?
3. उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
4. सुगंध से बातचीत करने का क्या आशय है?
5. 'सुगंध की पीड़ा से छटपटा रहा हो'-इस पंक्ति में निहित काव्य-सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
1. कवि लोगों से बाजार न जाने के लिए इसलिए कह रहा है कि बाजार उत्पादक तथा उपभोक्ता के मध्य बिचौलिए की भमिका निभाता है तथा उसका शोषण करता है।
2. दुभाषिया दो भिन्न भाषा-भाषियों के बीच रहकर एक-दूसरे की बात समझाता है। यहाँ दुभाषिया बाजार (व्यापारी) का प्रतीक है, जो किसान और उपभोक्ता के बीच में रहकर उन दोनों का शोषण करता है।
3. उपर्युक्त काव्यांश का शीर्षक है-बाजारवाद की भूमिका।
4. 'सुगन्ध' किसान का प्रतीक है। कवि चाहता है कि शोषण से बचने के लिए उपभोक्ता सीधे किसान से उसके उत्पाद खरीदें।
5. सुगंध की पीड़ा से छटपटाने में लक्षणा शब्द-शक्ति का प्रयोग हुआ है। यहाँ चावल के दानों के पकने पर उनसे उठने वाली सुगन्ध का वर्णन किया गया है।
19. तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत,
ईश का वह 'रहस्य वरदान
वेदना का यह कैसा वेग?
कभी मत इसको जाओ भूल।'
आह! तुम कितने अधिक हताश
लगे कहने मनु सहित विषादः
बताओ यह कैसा उद्वेग?
'मधुर मारुत से ये उच्छ्वास;
दुःख की पिछली रजनी बीच
अधिक उत्साह तरंग अबाध
विकसता सुख का नवल प्रभात,
उठाते मानस में सविलास।
एक परदा यह झीना नील
किंतु जीवन कितना निरुपाय!
छिपाये है जिसमें सुख गात।
लिया है देख नहीं संदेह;
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
निराशा है जिसका परिणाम
जगत की ज्वालाओं का मूलः
सफलता का वह कल्पित गेह।"
प्रश्न :
1. वह क्या बात है जिसे कभी भी न भूलने के लिए कहा गया है?
2. दुःख ईश्वर का रहस्यपूर्ण वरदान है, क्यों?
3. मनु ने जीवन को क्या बताया है?
4. उपर्युक्त पद्यांश में किस काव्य-गुण का प्रयोग हुआ है?
5. प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. जिसे मनुष्य शाप समझता है तथा समस्त सांसारिक कष्टों का कारण समझता है वह दु:ख कभी-कभी ईश्वर के गुप्त वरदान के समान होता है। इस सत्य को कभी नहीं भूलना चाहिए।
2. दुःख मनुष्य की शक्तियों को उत्तेजित करता है। उसे और अधिक प्रयत्नशील तथा सावधान बनाता है। इस तरह उसको सफलता तक पहुँचाता है।
3. मनु ने जीवन को सफलता का काल्पनिक घर कहा है। मनु के अनुसार सफलता जीवन में केवल कल्पना की वस्तु है। वास्तविक जीवन में तो निराशा ही हाथ लगती है।
4. उपर्युक्त पद्यांश में 'माधुर्य' नामक काव्य-गुण का प्रयोग है।
5. प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक है-विषादग्रस्त मनु।
20. उरके चरखे में कात सूक्ष्म
युग-युग का विषय-जनित विषाद,
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।
रंग-रँग खद्दर के सूत्रों में,
नव जीवन आशा, स्पृहाहलाद,
मानवी कला के सूत्रधार!
हर लिया यन्त्र कौशल प्रवाद!
साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी
मानवता, पशु-बलाक्रान्त,
श्रृंखला-दासता, प्रहरी बहु
निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त,
कारागृह में दे दिव्य जन्म
मानव आत्मा को मुक्त, कान्त,
जन-शोषण की बढ़ती यमुना
तुमने की नत, पद-प्रणत शान्त!
कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति
बहु धर्म-जाति-गति रूप-नाम,
बन्दी जग-जीवन, भू विभक्त
विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम,
आये तुम मुक्त पुरुष, कहने
मिथ्या जड़ बन्धन, सत्य राम,
नानृतं जयति सत्यं मा भै,
जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!
प्रश्न :
1. मानवी कला से यहाँ किस ओर संकेत है?
2. पद्यांश में कारागृह से क्या आशय है?
3. 'बन्दी जगजीवन भ विभक्त'-का आशय स्पष्ट कीजिए।
4. महात्मा गाँधी ने क्या उपदेश दिया था?
5. प्रस्तुत काव्यांश की भाषा कैसी है?
उत्तर :
1. खादी का ताना तथा उससे रंग-बिरं वस्त्र बनाना मानवी कला है। मनुष्य के हाथों से बुने होने के कारण खादी को मानवी कला कहा गया है।
2. पुरातन संस्कृति को कारागार तथा धर्म, जाति रंग, रूप तथ नाम को इसकी दीवारें कहा गया है। अर्थात् पुरानी संस्कृति में धर्म, जाति, रंग, रूप आदि को आधार बनाकर मनुष्यों को एक सीमित दायरे में कैद कर दिया गया है।
3. 'बन्दी जग जीवन भू विभक्त' का आशय यह है कि धरती एक है तथा इस पर रहने वाले लोग एक हैं परन्तु धर्म, जाति, वर्ण आदि के कारण उनको भिन्न-भिन्न वर्गों तथा देशों में बाँट दिया गया है।
4. महात्मा गाँधी का उपदेश था - 'नानृत जयति सत्यं मा भै'। इसका अर्थ है कि विजय सत्य की होती है असत्य की नहीं अत: डरो मत।
5. प्रस्तुत काव्यांश की भाषा तत्सम शब्दावली से युक्त तथा साहित्यिक है परन्तु वह भावानुकूल और सुबोध है।
21. विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद तो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृक्षा मरे वृथा जिये,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थभाव मानती,
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती,
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे।
मनुष्य है वही. कि जो मनुष्य के लिए मरे।
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही,
वशीकृता सदैव ही बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह से बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा वही उदार है परोपकार जो करे।
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।
मनुष्य मात्र बन्धु है, यही बड़ा विवेक है,
पुराण पुरुषं स्वयं पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं।
परन्तु अंतरैक्य में, प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे।
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।
प्रश्न :
1. सुमृत्यु का क्या तात्पर्य है?
2. पशु प्रवृत्ति क्या होती है?
3. 'विरुद्धवाद बुद्ध का' से क्या आशय है?
4. वेदों से क्या बात प्रमाणित होती है?
5. 'उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कुजती' में अलंकार लिखिए।
उत्तर :
1. किसी सत्कर्म को करते हुए मरने को सुमृत्यु कहा गया है। इस प्रकार मृत्यु का वरण करने वालों को लोग सदा आदर से याद करते हैं।
2. केवल अपनी ही चिन्ता करना अर्थात् स्वार्थी होना ही पशु प्रवृत्ति है। पशु केवल अपने ही चरने की चिन्ता करता है, दूसरों की नहीं।
3. गौतम बुद्ध ने वैदिक धर्म का विरोध किया था। उनके मत को नास्तिक दर्शन माना जाता है। विरोध की इस भावना को ही विरुद्धवाद कहा गया है।
4. वेदों से प्रमाणित होता है कि समस्त मानव जाति एक है तथा एक ही पिता (ईश्वर) की संतान है। भेद बाहरी तथा कृत्रिम हैं।
5. "उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती" में-'उ', 'स' तथा 'क' वर्गों की आवृत्ति होने से अनुप्रास अलंकार है।