Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 10 Hindi Rachana निबन्ध-लेखन Questions and Answers, Notes Pdf.
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"निबन्ध' गद्य-साहित्य की प्रमुख विधा है। निबन्ध को 'गद्य की कसौटी' कहा गया है। अंग्रेजी में निबन्ध को एस्से (Essay) कहते हैं। नि + बन्ध = निबन्ध का शाब्दिक अर्थ है अच्छी प्रकार से बँधा हुआ अर्थात् वह गद्य-रचना जिसमें सीमित आकार के भीतर निजीपन, स्वच्छता, सौष्ठव, सजीवता और आवश्यक संगति से किसी विषय का वर्णन किया जाता है। शब्दों का चयन, वाक्यों की संरचना, अनुच्छेद का निर्माण, विचार एवं कल्पना की एकसूत्रता, भावों की क्रमबद्धता आदि सब कुछ निबंध का शरीर निर्मित करते हैं। भाषा की सरलता, स्पष्टता, कसावट और विषयानुकूलता निबंध के शरीर को सजाने में अपना योगदान देती हैं।
अच्छे निबन्ध की विशेषताएँ
निबंध के अंग-निबंध को लिखते समय इसी विषय-वस्तु को सामान्य रूप से निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है
1. भूमिका, प्रस्तावना या आरम्भ-निबंध का प्रारम्भ जितना आकर्षक और प्रभावशाली होगा निबंध उतना ही अच्छा माना जाता है। निबंध का प्रारम्भ किसी सूक्ति, काव्य-पंक्ति और विषय की प्रकृति को ध्यान में रखकर भूमिका के आधार पर किया जाना चाहिए।
2. मध्य भाग या प्रसार-इस भाग में निबंध के विषय को स्पष्ट किया जाता है। लेखक को भूमिका के आधार पर अपने विचारों और तथ्यों को रोचक ढंग से अनुच्छेदों में बाँट कर प्रस्तुत करते हुए चलना चाहिए या उप शीर्षकों में विभक्त कर मूल विषय-वस्तु का ही विवेचन करते हुए चलना चाहिए। ध्यान रहे सभी उप-शीर्षक निबंध विकास की दृष्टि से एक-दूसरे से जडे हों और विषय से सम्बद्ध हों।
3. उपसंहार न्या अंत-प्रारम्भ की भाँति निबंध का अन्त भी अत्यन्त प्रभावशाली होना चाहिए। अंत अर्थात् उपसंहार एक प्रकार से सारे निबंध का निचोड़ होता है। इसमें अपनी सम्मति भी दी जा सकती है।
राष्ट्रीय एवं सामाजिक समस्यात्मक निबन्ध
1. मेक इन इंडिया अथवा स्वदेशी उद्योग
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. मेक इन इंडिया प्रारम्भ एवं उद्देश्य 3. स्वदेशी उद्योग 4. योजना के लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-किसी भी देश की समृद्धि एवं विकास का मुख्य आधार उसकी आर्थिक एवं उत्पादन क्षमता होती है। जिस प्रकार भारत देश प्राचीन काल में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित था, उसी प्रकार बर्तमान में आर्थिक सम्पन्नता की दष्टि से भी भारत विश्व के प्रगतिशील देशों में अग्रणी बनता जा रहा है। इसके लिए स्वदेशी की भावना का निरन्तर प्रत्येक भारतीय के हृदय में विकसित होना आवश्यक है।
2. मेक इन इंडिया प्रारम्भ एवं उद्देश्य-भारत को सुख-सुविधा सम्पन्न और समृद्ध बनाने, अर्थव्यवस्था के विकास की गति बढ़ाने, औद्योगीकरण और उद्यमिता को बढ़ावा देने और रोजगार का सृजन करने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा 25 सितम्बर, 2014 को वस्तुओं और सेवाओं को देश में ही बनाने के लिए 'मेक इन इंडिया' यानी 'भारत में बनाओ' (स्वदेशी उद्योग) नीति की शुरुआत की थी। इसके माध्यम से सरकार भारत में अधिक पूँजी और तकनीकी निवेश पाना चाहती है। इसके लिए भारत सरकार का प्रयास है कि विदेशों में रहने वाले सम्पन्न भारतीय तथा अन्य उद्योगपति भारत में आकर अपनी पूँजी से उद्योग लगायें। वे अपने उत्पादन को भारतीय बाजार तथा विदेशी बाजारों में बेचकर मुनाफा कमा सकेंगे तथा भारत को भी इससे लाभ होगा।
3. स्वदेशी उद्योग-मेक इन इंडिया का ही स्वरूप स्वदेशी उद्योग है। अपने देश को सुख-सविधा सम्पन्न और देशी उद्योगों को बढावा देने के लिए ही उक्त नीति को प्रारम्भ किया गया है। वर्तमान में कोरोना महामारी के बाद तो इसके स्वरूप को और अधिक विस्तृत करते हुए इसे 'आत्मनिर्भर भारत' नाम दिया गया है, जिसका प्रमुख लक्ष्य अपने देश को पूर्णतया आत्मनिर्भर बनाते हुए विदेशी पूँजी को भी भारत में लाना तथा रोजगार के अवसर विकसित करना है।
4. योजना के लाभ-'मेक इन इंडिया' अथवा 'स्वदेशी उद्योग' अथवा 'आत्मनिर्भर भारत' की योजना के द्वारा सरकार विभिन्न देशों की कम्पनियों को भारत में कर छूट देकर अपना उद्योग भारत में ही लगाने के लिए प्रोत्साहित करती है, जिससे भारत का आयात बिल कम हो सके और देश में रोजगार का सृजन हो सके। इस योजना से निर्यात और विनिर्माण में वृद्धि होगी जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार होगा, साथ ही भारत में रोजगार सृजन भी होगा।
5. उपसंहार-आज भारत 'स्वदेशी उद्योग' अथवा 'मेक इन इंडिया' या 'आत्मनिर्भर भारत' की नीति के कारण रक्षा, इलेक्ट्रॉनिक, हार्डवेयर आदि क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनता हुआ विश्व का एक सम्पन्न और समृद्ध राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है।
2. आत्मनिर्भर भारत
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. आत्मनिर्भर भारत 3. आत्मनिर्भर भारत के पाँच स्तम्भ 4. आत्मनिर्भरता के उपाय एवं लाभ 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-शास्त्रों में कहा गया है कि 'सर्वं परवशं दुःखम्' 'सर्वमात्मवशं सुखम्' अर्थात् सब तरह से दूसरों पर निर्भर रहना ही 'दुःख' है एवं सब प्रकार से आत्मनिर्भर होना ही सुख है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव कोरोना वैश्विक महामारी के समय स्पष्ट रूप से सभी को हुआ है। इस महामारी के कारण देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ है। देश को समृद्ध व सुखी बनाने के लिए तथा कोरोना महामारी का मुकाबला करने के लिए भारत के प्रधानमन्त्री ने 12 मई, 2020 को 'आत्मनिर्भर भारत' अभियान शुरू करने की घोषणा की।
2. आत्मनिर्भर भारत-भारत के प्रधानमन्त्री ने कहा कि 21वीं सदी को भारत की सदी बनाने के सपने को पूरा करने के लिए यह सुनिश्चित करते हुए आगे बढ़ना है कि देश आत्मनिर्भर हो जाए। यहाँ आत्मनिर्भर भारत का तात्पर्य स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने के साथ-साथ विदेशी निवेश को भी बढ़ावा देना है, जिससे यहाँ रोजगार के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध हो सकें एवं भारत की आर्थिक समृद्धि के साथ ही विश्व का भी कल्याण हो सके।
3. आत्मनिर्भर भारत के पाँच स्तम्भ-प्रधानमन्त्री महोदय के अनुसार आत्मनिर्भर भारत के पाँच स्तम्भ इस प्रकार हैं - 1. अर्थव्यवस्था, जो वृद्धिशील परिवर्तन नहीं, बल्कि लम्बी छलाँग सुनिश्चित करती है। 2. बुनियादी ढाँचा, जिसे भारत की पहचान बन जाना चाहिए। 3. प्रणाली (सिस्टम), जो 21वीं सदी की प्रौद्योगिकी संचालित व्यवस्थाओं पर हो। 4. उत्साहशील आबादी, जो आत्मनिर्भर भारत के लिए हमारी ऊर्जा का स्रोत है, तथा 5. माँग, जिसके तहत हमारी माँग एवं आपूर्ति श्रृंखला (सप्लाई चेन) की ताकत का उपयोग पूरी क्षमता से किया जाना चाहिए।
4. आत्मनिर्भरता के उपाय एवं लाभ-आत्मनिर्भरता के लिए भूमि, श्रम, तरलता और कानूनों पर फोकस करते हुए कुटीर उद्योग, एमएसएमई, मजदूरों, मध्यम वर्ग तथा उद्योगों सहित विभिन्न वर्गों की जरूरतों को पूरा करना आवश्यक है। इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए मनोबल के साथ-साथ आर्थिक सहायता के रूप में भारत सरकार ने विभिन्न चरणों में लगभग बीस लाख करोड़ रुपयों के एक विशेष आर्थिक पैकेज की घोषणा की है। आत्मनिर्भरता भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में कड़ी प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करेगी। इसके लिए स्थानीय उत्पादों का गर्व से प्रचार करने और इन उत्पादों को वैश्विक बनाने में मदद करने की आवश्यकता है। इन उपायों को करने से भारत न केवल आर्थिक दृष्टि से सशक्त होगा, अपितु विश्व में विकासशील देशों में अग्रणी बन सकेगा।
5. उपसंहार-आत्मनिर्भरता सभी तरह के संकटों का सामना करने का सशक्त हथियार है, जिसके बल से हम आर्थिक संकट रूपी युद्ध को जीत सकते हैं। अतः विश्व में भारत की महत्ता एवं सम्पन्नता को बनाये रखने के लिए आत्मनिर्भर भारत की अति आवश्यकता है।
3. कोरोना वायरस-21वीं सदी की महामारी
अथवा
कोरोना वायरस महामारी के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव
संकेत बिन्दु- 1. प्रस्तावना 2. कोरोना वायरस-लक्षण 3. बचाव के तरीके 4. कोरोना वायरस महामारी का सामाजिक प्रभाव 5. आर्थिक प्रभाव 6. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-वर्ष 2019 के अन्त में चीन के वुहान शहर में पहली बार प्रकाश में आए कोरोना वायरस संक्रमण ने वर्ष 2020 में विश्व के लगभग सभी देशों को अपनी चपेट में ले लिया है। इस महामारी के कारण विश्व के सभी समृद्ध देशों की स्थिति भी दयनीय हो गई है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने घातक कोरोना वायरस का आधिकारिक नाम कोविड-19 रखा है, जिसमें 'को' का अर्थ कोरोना. 'वि' का अर्थ वायरस तथा 'डी' का अर्थ डिसीज (बीमारी) है। चूँकि इस
की पहचान पहली बार 31 दिसम्बर, 2019 को चीन में हई थी, अतः अन्त में वर्ष 2019 का 19 अंक लिया गया है।
2. कोरोना वायरस-लक्षण-इसके लक्षण फ्लू से मिलते-जुलते हैं। कोरोना वायरस के संक्रमण के फलस्वरूप बुखार, जुकाम, सांस लेने में तकलीफ, नाक बहना, सिर में तेज दर्द, सूखी खांसी, गले में खराश व दर्द आदि समस्या उत्पन्न होती है। यह वायरस एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है, इसलिए इसे लेकर बहुत सावधानी बरती जा रही है, कुछ मामलों में कोरोना वायरस घातक भी हो सकता है, खास तौर पर अधिक उम्र के लोग और जिन्हें पहले से अस्थमा, डायबिटीज, हृदय-रोग आदि की बीमारी है।
3. बचाव के तरीके-स्वास्थ्य मन्त्रालय ने कोरोना वायरस से बचने के लिए दिशानिर्देश जारी किए हैं। इनके मुताबिक हाथों को बार-बार साबुन से धोना चाहिए, इसके लिए अल्कोहल आधारित हैंड वॉश का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। खाँसते व छींकते समय अपने मुँह और नाक को मास्क, टिशू/रूमाल से ढककर रखें। अपने हाथों से बार बार आँख, नाक या मुँह न छुएँ। भीड़-भाड़ वाले स्थान पर न जाएँ। बाहर जाते समय या किसी से बात करते समय मास्क का प्रयोग करें। संक्रमण के कोई भी लक्षण दिखलाई देने, संक्रमित व्यक्ति या स्थान से सम्पर्क होने पर तुरन्त स्वास्थ्य की जाँच करायें तथा कुछ दिनों तक स्वयं को होम आइसोलेशन में रखें।
4. कोरोना वायरस महामारी का सामाजिक प्रभाव-इस वैश्विक महामारी से बचाव, रोकथाम, उपचार एवं पुनर्वास हेतु विश्व के लगभग सभी देशों में लॉक डाउन, आइसोलेशन, क्वरेंनटाइन की नीति अपनाई गई, संक्रमण के भय से लगभग समस्त सामाजिक गतिविधियाँ, उत्सव आदि बन्द हो गए। सार्वजनिक यातायात एवं आर्थिक गतिविधियों के बन्द हो जाने से लोगों के रोजगार एवं आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इससे खाद्य असुरक्षा में वृद्धि, उत्पादन में कमी आदि से सामाजिक जीवन अत्यधिक प्रभावित हुआ है।
5. आर्थिक प्रभाव-कोरोना वायरस महामारी से निपटने के लिए सभी देशों, राज्यों द्वारा लगाए गए लॉकडाउन, संक्रमित व्यक्तियों के उपचार, सम्भाव्य रोगियों/कैरियर्स के आइसोलेशन, जाँच प्रक्रिया, दवा, क्वरेनटाइन की व्यवस्था; वंचित एवं अरक्षित समूहों को राहत पहुँचाने आदि के कारण सार्वजनिक व्यय में भारी वृद्धि तथा कर राजस्व में कमी होने से, व्यापार, उद्योग आदि बन्द हो जाने से सभी क्षेत्रों में आर्थिक मन्दी दिखलाई देती है।
6. उपसंहार-इस महामारी से निजात पाने हेतु विश्व के सभी देश व वैज्ञानिक इसका टीका विकसित करने की दिशा में संलग्न हैं। जब तक इसका टीका नहीं आ पाता है, तब तक इससे बचाव ही इसकी दवा है।
4. भारतीय नारी तब और अब
अथवा
राष्ट्र के उत्थान में नारी की भूमिका
संकेत बिन्दु - 1. भारतीय नारी का स्वरूप 2. वर्तमान युग में नारी 3. वर्तमान में नारी की समस्यायें 4. ग्रामीण क्षेत्र में वांछित परिवर्तन नहीं 5. उपसंहार।
1. भारतीय नारी का स्वरूप-मातृत्व की गरिमा से मंडित, पत्नी के सौभाग्य से ऐश्वर्यशालिनी, धार्मिक अनुष्ठानों की सहधर्मिणी, गृह की व्यवस्थापिका तथा गृहलक्ष्मी, शिशु की प्रथम शिक्षिका आदि अनेक गुणों से गौरवान्वित नारी के महत्त्व को भारत में आदिकाल से ही स्वीकारा गया है। प्राचीन भारत में गार्गी, अनुसूया, मैत्रेयी, सावित्री जैसी विदुषी महिलाएँ इस बात का ज्वलन्त उदाहरण हैं कि वैदिक काल में भारतीय नारियाँ सम्माननीय एवं प्रतिष्ठा के पद पर आसीन थीं।
मध्यकाल में नारी की वह गौरवूपर्ण स्थिति नहीं रह सकी। यवनों के आक्रमण के बाद अनेक प्रकार के राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के कारण नारी को अपनी मान-मर्यादा और सतीत्व की रक्षा हेतु घर की चहारदीवारी तक ही सीमित हो जाना पड़ा। उसकी स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि उसे पुरुष की दासी बनकर अपमान तथा यातनापूर्ण जीवन जीने को विवश हो जाना पड़ा।
2. वर्तमान युग में नारी-हमारे देश की परिस्थितियाँ बदलीं, धीरे-धीरे नारी को पुनः प्रतिष्ठित एवं सम्माननीय पद पर आसीन करने के प्रयास हुए। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे अनेक समाज सुधारकों के सत्प्रयासों से नारी की स्थिति में परिवर्तन आया। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक भारतीय नारी पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में पदार्पण करने लगी। आज वह शिक्षा, चिकित्सा, सेना, पुलिस, उद्योग-धन्धे, प्रशासन जैसे अनेक क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा व योग्यता का परिचय दे रही है।
3. वर्तमान में नारी की समस्यायें-आज की नारी को अपने अधिकारों का भली-भाँति ज्ञान है। वह सबल, समर्थ तथा स्वावलंबी बन रही है। लेकिन दोहरी भूमिका - (गृहस्थी संचालन व घरेलू कार्य करना तथा नौकरी करने) के कारण उसके समक्ष अनेक समस्यायें भी उठ खड़ी हुई हैं। महिलाओं द्वारा नौकरी करने तथा स्वावलंबी बन जाने के कारण पुरुष के अहं को कहीं न कहीं चोट अवश्य पहुँचती है, जिसके कारण उसके दाम्पत्य जीवन में कटुता आ जाती है। दूसरे, काम के दोहरे बोझ के कारण उसे अनेक शारीरिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ रहा है।
4. ग्रामीण क्षेत्र में वांछित परिवर्तन नहीं-स्वतंत्रता के 73 वर्ष के बाद भी आज भी भारतीय गाँवों में नारी की स्थिति में वांछित परिवर्तन नहीं आया है। वह आज भी अंधविश्वासों, रूढियों, अशिक्षा, गरीबी, पराश्रितता तथा अज्ञानता के जाल में फँसी हुई है। समाज के संतुलित विकास हेतु देश के ग्रामीण क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता देकर वहाँ की नारी को शिक्षित, स्वावलंबी, जागरूक तथा सबला बनाना आवश्यक है।
5. उपसंहार-स्वतन्त्र भारत में नारी पुनः अपने गौरव एवं आदर्शों की प्रतिष्ठा करने लग गई है। हमारे राष्ट्रीय उत्थान में नारी की भूमिका सर्वमान्य है । लेकिन आधुनिक नारी को अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के प्रति इतना मदांध नहीं हो आना चाहिए कि वह ममता, सहिष्णुता, त्याग, करुणा व कर्त्तव्य परायणता के गुणों को भूलकर पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में अपनी गरिमा को ही विस्तृत कर दे।
5. राष्ट्र-निर्माण में युवकों का योगदान
अथवा
राष्ट्रीय उत्थान में युवा-वर्ग का योगदान
अथवा
राष्ट्र-निर्माण में युवाओं की भूमिका
संकेत बिन्दु-1. प्रस्तावना-समाज की वर्तमान स्थिति 2. युवा-पीढ़ी का वर्तमान रूप 3. युवकों का दायित्व 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-युवक देश के कर्णधार होते हैं। देश और समाज का भविष्य उन्हीं पर निर्भर होता है। परन्तु आज हमारे देश की दशा अत्यन्त शोचनीय है। समाज में एकता, जागरूकता, राष्ट्रीय चेतना, कर्त्तव्य-बोध, नैतिकता आदि की कमी है। शिक्षा प्रणाली भी दोषपूर्ण है। राजनीतिक कुचक्र एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है। स्वार्थ भावना की वृद्धि, कर्तव्यबोध की कमी, कोरा दिखावा एवं अन्धविश्वास आदि समाज को जकड़े हुए हैं । ऐसी स्थिति में युवकों का दायित्व निश्चय ही बढ़ जाता है।
2. युवा पीढ़ी का वर्तमान रूप-आज की युवा पीढ़ी दिशाहीन है। इसलिए उसमें कुण्ठा, निराशा, तोड़-फोड़ की प्रवृत्ति, दायित्वहीनता आदि अधिक व्याप्त हैं । पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण करने के कारण उनके मन में भारतीय संस्कृति की परम्परागत मान्यताओं के प्रति रुचि नहीं है। अश्लील चलचित्र, अशिष्ट व्यवहार और फैशनपरस्ती के प्रति उनकी रुचि अधिक है। अधिकतर नवयुवक पढ़ाई में मन नहीं लगाते हैं, मेहनत से भागते हैं तथा सफेदपोश साहब बनने के सपने देखते हैं।
3. युवकों का दायित्व-अतः युवा पीढ़ी के जहाँ समाज के प्रति दायित्व हैं, वहीं अपने जीवन-निर्माण के प्रति भी उसे कुछ सावधानी बरतनी अपेक्षित है। पहले युवक-युवती स्वयं को सुधारें, स्वयं को शिक्षित करें, स्वयं जिम्मेदार नागरिक बनें और स्वयं को चरित्रवान् बनायें, तभी वे समाज की प्रगति में सहायक हो सकते हैं । साथ ही समाज में शांन्ति और व्यवस्था बनाये रखना, समाज विरोधी कार्य की रोकथाम करना, उनका दायित्व है। धर्म व नीति की मर्यादाओं को बनाये रखना भी उनका कत्र्तव्य है। समाज में ऊँच-नीच की भावना का विरोध करना, अन्याय और अनीतियों का विरोध करना, सामाजिक सौहार्द्र बनाये रखना भी उनका कर्त्तव्य है। इसके साथ ही भौतिकता के प्रभाव से बचे रहना भी उनका कर्तव्य है।
4. उपसंहार-उक्त सभी पक्षों को व्यावहारिक रूप देकर ही युवा पीढ़ी समाज के प्रति अपने दायित्वों को पूरा कर सकती है। इसी दशा में समाज सुखमय बन सकता है। नवयुवक भारत की भावी आशाएँ हैं, उन्हें यथासम्भव समाज की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिए।
6. बढ़ते हुए फैशन का दुष्प्रभाव
अथवा
युवा वर्ग और फैशन
अथवा
फैशन की व्यापकता और उसका दुष्प्रभाव
संकेत बिन्दु- 1. प्रस्तावना 2. फैशनपरस्ती का प्रचलन 3. फैशन के विविध रूप 4. फैशन का दुष्प्रभाव एवं हानि 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-अपने आपको आकर्षक बनाने की चाह मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। नित नए परिधानों से सजना अर्थात् दिखावा और आकर्षण फैशन के अनिवार्य लक्षण हैं। फैशन किया ही इसलिए जाता है कि लोग उसे देखें और चमत्कृत हों। इसी चाह का विस्तार कलात्मक वेशभूषा, केश-सज्जा तथा आभूषण प्रियता में देखने को मिलता है। ये सभी फैशन के अंग हैं।
फैशन मर्यादा में रहे, व्यर्थ उत्तेजना पैदा न करे तो वह सराहनीय है, तब वह कलाकारों, कवियों और चित्रकारों के कला बोध और समाज के सौंदर्य का प्रभावी अंग होता है; किन्तु यदि फैशन केवल प्रदर्शन बन जाए और देशकाल के अनुरूप न हो तो वह अमंगलकारी हो जाता है।
2. फैशनपरस्ती का प्रचलन-बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से समाज में खुलेपन की नींव पड़ी, फिर फिल्मों द्वारा फैशनपरस्ती को बढ़ावा दिया गया। इससे युवा वर्ग इतना प्रभावित हुआ कि वह अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की पहनावे में ही उनकी स्टाइल की भी नकल करने लगा। इतना ही नहीं विभिन्न कम्पनियों द्वारा महानगरों में जो फैशन शो आयोजित किए जाने लगे उनसे प्रभावित होकर पूरा युवा वर्ग के साथ ही प्रौढ वर्ग भी फैशनपरस्ती की चपेट में आ गया।
3. फैशन के विविध रूप-वर्तमानकाल में फैशन के विविध रूप देखने को मिल रहे हैं। विशेषतः युवतियाँ एवं प्रौढ़ाएँ नये-नये फैशनों की विज्ञापनबाजी करती प्रतीत होती हैं। जैसे टॉप-जीन्स पहनना या पारदर्शी बिकनी पहनकर घूमना, नाभि तक नग्न-शरीर का प्रदर्शन करना, सौन्दर्य प्रसाधनों के द्वारा चेहरे को जरूरत से अधिक आकर्षक बनाना आदि के फैशन के रूप उनमें प्रचलित हो गये हैं। उनकी देखा-देखी कहें अथवा बड़ी कम्पनियों की विज्ञापनबाजी का प्रभाव युवा व प्रौढ़ व्यक्ति भी अब फैशनपरस्त हो गये हैं। फैशन का एक पक्ष यह भी है कि आधुनिकता के नाम पर हर पुरानी चीज को नकारना, चाहे वह कितनी ही उपयोगी क्यों न हो, भले ही इसमें जग-हँसाई की नौबत क्यों न आ जाए।
4. फैशन का दुष्प्रभाव एवं हानि-आज फैशनपरस्ती के कारण अनेक दुष्प्रभाव दिखाई दे रहे हैं । अब धार्मिक क्रियाओं तथा अनुष्ठानों को उपहास का आचरण माना जाता है। युवक-युवतियों की वेशभूषा काम-वासना को जाग्रत कराने वाली बन गई है। तड़क-भड़के तथा आकर्षक वस्त्रों पर हैसियत से अधिक धन खर्च किया जाने लगा। परिणामस्वरूप युवा इस कारण धनार्जन का नाजायज तरीका अपनाते हैं । यह एक प्रकार का मीठा जहर है, जो नई पीढ़ी के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है।
5. उपसंहार-समय के अनुरूप स्वयं को ढालना उचित है, परन्तु कोरे फैशन के मोह में पड़कर स्वयं को अध:पतन की ओर धकेलना उचित नहीं है। फैशन करो, किन्तु उसके शिकार न बनो, उसे भूत की तरह सिर पर न चढ़ाओ। आज की युवा पीढ़ी अपने संस्कार, सभ्यता एवं संस्कृति को भूलकर फैशन की जिस अंधी दौड़ में बिना किसी लक्ष्य व मंजिल के दौड़ रही है, उसके अन्त में निराशा ही हाथ लगेगी।
7. प्लास्टिक थैली : पर्यावरण की दुश्मन
अथवा
प्लास्टिक थैली : क्षणिक लाभ-दीर्घकालीन हानि
अथवा
प्लास्टिक थैली को न, पर्यावरण को हाँ
अथवा
प्लास्टिक कैरी बैग्स : असाध्य रोगवर्धक
संकेत बिन्दु-1. प्रस्तावना 2. प्लास्टिक कचरे का प्रसार 3. प्लास्टिक थैलियों से पर्यावरण प्रदूषण 4. प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबन्ध 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-मानव द्वारा निर्मित चीजों में प्लास्टिक थैली ही ऐसी है जो माउंट एवरेस्ट से लेकर सागर की तलहटी तक सब जगह बिखरी मिल जाती है ! लगभग तीन दशक पहले किये गये इस आविष्कार ने ऐसा प्रभाव जमा दिया है कि आज प्रत्येक उत्पाद प्लास्टिक की थैलियों में मिलता है और घर आते-आते ये थैलियाँ कचरे में तब्दील होकर पर्यावरण को हानि पहुँचा रही हैं।
2. प्लास्टिक कचरे का प्रसार-प्लास्टिक थैलियों या कैरी बैग्स का इस्तेमाल इतनी अधिक मात्रा में हो रहा है कि सारे विश्व में एक साल में दस खरब प्लास्टिक थैलियाँ काम में लेकर फेंक दी जाती हैं। अकेले जंयपुर में रोजाना पैंतीस लाख लोग प्लास्टिक का कचरा बिखेरते हैं और सत्तर टन प्लास्टिक का कचरा सड़कों, नालियों एवं खुले वातावरण में फैलता है। केन्द्रीय पर्यावरण नियन्त्रण बोर्ड के एक अध्ययन के अनुसार एक व्यक्ति प्रतिवर्ष छह से सात किलो प्लास्टिक कचरा फेंकता है। केवल राजस्थान में ही प्लास्टिक उत्पाद-निर्माण की तेरह सौ इकाइयाँ हैं।
3. प्लास्टिक थैलियों से पर्यावरण प्रदूषण-इस प्लास्टिक कचरे से नालियाँ अवरुद्ध हो जाती हैं, भूगर्भिक जल प्रदूषित हो जाता है, पृथ्वी की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है। इससे कैंसर जैसे असाध्य रोग हो जाते हैं। पर्यावरण विज्ञानियों ने प्लास्टिक के बीस माइक्रोन या इससे पतले उत्पाद को पर्यावरण के लिए बहुत घातक बताया है। ये थैलियाँ मिट्टी में दबने से फसलों के लिए उपयोगी कीटाणुओं को मार देती हैं । इनसे हवा में प्रदूषण फैलने से अनेक असाध्य रोग फैल जाते हैं। इस तरह प्लास्टिक थैलियों से पर्यावरण को हानि पहुँचती है।
4. प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबन्ध-प्लास्टिक थैलियों के उत्पादनकर्ताओं को कुछ लाभ हो रहा हो तथा उपभोक्ताओं को भी सामान ले जाने में सुविधा मिल रही हो, परन्तु यह क्षणिक लाभ पर्यावरण को दीर्घकालीन हानि पहुँचा रहा है। कुछ लोग बीस माइक्रोन से पतलें प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगाने की वकालत कर उससे अधिक मोटे प्लास्टिक को रिसाइक्लड करने का समर्थन करते हैं, परन्तु वह रिसाइक्लड प्लास्टिक भी एलर्जी, त्वचा रोग एवं पैकिंग किये गये खाद्य पदार्थों को दूषित कर देता है। इसीलिए राजस्थान सहित अन्य दूसरे राज्यों ने प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।
5. उपसंहार-प्लास्टिक थैलियों का उपयोग पर्यावरण की दृष्टि से सर्वथा घातक है। यह असाध्य रोगों को बढ़ाता है। इससे अनेक हानियाँ होने से इसे पर्यावरण का शत्रु भी कहा जाता है।
8. कन्या-भ्रूण हत्या : लिंगानुपात की समस्या
अथवा
कन्या-भ्रूण हत्या पाप है : इसके जिम्मेदार आप हैं
अथवा
कन्या-भ्रूण हत्या : एक चिन्तनीय विषय
अथवा
कन्या-भ्रूण हत्या : एक जघन्य अपराध
संकेत बिन्दु-1. प्रस्तावना 2. कन्या-भ्रूण हत्या के कारण 3. कन्या-भ्रूण हत्या की विद्रूपता 4. कन्या-भ्रूण हत्या के निषेधार्थ उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-परमात्मा की सृष्टि में मानव का विशेष महत्त्व है, उसमें नर के समान नारी का समानुपात नितान्त वांछित है। नर और नारी दोनों के संसर्ग से भावी सन्तान का जन्म होता है तथा सृष्टि-प्रक्रिया आगे बढ़ती है। परन्तु काल में अनेक कारणों से नर-नारी के मध्य लिंग-भेद का वीभत्स रूप सामने आ रहा है, जो कि पुरुष-सत्तात्मक समाज में कन्या-भ्रूण हत्या का पर्याय बनकर असमानता बढ़ा रहा है। हमारे देश में कन्या भ्रूण हत्या आज अमानवीय कृत्य बन गया है जो कि चिन्तनीय विषय है।
2. कन्या-भ्रूण हत्या के कारण-हमारे यहाँ मध्यमवर्गीय समाज में कन्या-जन्म अमंगलकारी माना जाता है, क्योंकि कन्या को पाल-पोष कर, शिक्षित कर उसका विवाह करना पड़ता है। इस निमित्त और विवाह में दहेज के कारण बहुत सारा धन खर्च करना पड़ता है। इसीलिए कन्या को पराया धन मानकर उपेक्षा की जाती है और पुत्र को वंश-वृद्धि का कारक, वृद्धावस्था का सहारा मानकर उसकी चाहना की जाती है।
3. कन्या-भ्रूण हत्या की विद्रूपता-वर्तमान में अल्ट्रासाउण्ड मशीन वस्तुतः कन्या-संहार का हथियार बन गया है। लोग इस मशीन की सहायता से लिंग-भेद ज्ञात कर कन्या-भ्रूण को गिराकर नष्ट कर देते हैं। जिसके कारण लिंगानुपात का संतुलन बिगड़ गया है। कई राज्यों में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की संख्या बीस से पच्चीस प्रतिशत कम है । इस कारण सुयोग्य युवकों की शादियाँ नहीं हो पा रही हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश में प्रतिदिन लगभग ढाई हजार कन्या-भ्रूणों की हत्या की जाती है। हरियाणा, पंजाब तथा दिल्ली में इसकी.विद्रूपता सर्वाधिक दिखाई देती है।
4. कन्या-भ्रूण हत्या के निषेधार्थ उपाय-भारत सरकार ने कन्या-भ्रूण हत्या को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए अल्ट्रासाउण्ड मशीनों से लिंग-ज्ञान पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया है। इसके लिए 'प्रसवपूर्व निदान तकनीकी अधिनियम (पी.एन.डी.टी.), 1994' के रूप में कठोर दण्ड-विधान किया गया है। आजकल तो लिंग जाँच पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। साथ ही नारी सशक्तीकरण, बालिका निःशुल्क शिक्षा, पैतृक उत्तराधिकार, समानता का अधिकार आदि अनेक उपाय अपनाये गये हैं। यदि भारतीय समाज में पत्र-पत्री जन्म में अन्तर न माना जाए और पत्री जन्म को घर की लक्ष्मी मानकर स्वागत किया जाए तो लोगों की मानसिकता बदलने से कन्या-भ्रूण हत्या पर स्वंतः प्रतिबन्ध लग जायेगा।
5. उपसंहार-वर्तमान में लिंग-चयन एवं लिंगानुपात विषय पर काफी चिन्तन किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्रसंघ में के लिए घोषणा की गई है। भारत सरकार ने भी लिंगानुपात को ध्यान में रखकर कन्या-भ्रूण हत्या पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया है। वस्तुतः कन्या भ्रूण हत्या का यह नृशंस कृत्य पूरी तरह समाप्त होना चाहिए।
9. आतंकवाद : एक विश्व समस्या
अथवा
आतंकवाद : एक विश्वव्यापी समस्या
अथवा
विश्व चुनौती : बढ़ता आतंकवाद
अथवा
आतंकवाद : समस्या एवं समाधान
संकेत बिन्दु-1. प्रस्तावना 2. आतंकवाद के कारण 3. वर्तमान में आतंकवाद की वैश्विक चुनौतियाँ 4. आतंकवादी चुनौती का समाधान 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-आज समूचा विश्व आतंकवाद की समस्या से जूझ रहा है। आतंकवाद का स्पष्ट इरादा होता है कि दूसरों को मजबूर किया जाए। राजनीतिक, धार्मिक या वैचारिक लक्ष्यों की खोज में सरकारों, समाजों, समूहों या व्यक्तियों को भयभीत किया जाये। हिंसा, भय और धमकी ये तीन तत्त्व आतंकवाद के आधार हैं।
2. आतंकवाद के कारण-आतंकवाद के राजनीतिक, धार्मिक, वैचारिक अनेक कारण हो सकते हैं। जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, धर्म तथा नस्ल के नाम पर तथा व्यक्तिगत सत्तासुख की लालसा से अलग राष्ट्र की माँग करने से विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से आतंकवाद का प्रसार हुआ।
3. वर्तमान में आतंकवाद की वैश्विक चुनौतियाँ-आज आतंकवाद पूरे विश्व में अपनी जड़ें जमा चुका है। इसके संत्रास से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में संसार के अधिकतर देश जूझ रहे हैं। आतंकियों की अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति बलवती होती जा रही है। यह सम्पूर्ण मानवता के लिए खतरा है। आतंकवाद को कुछ राष्ट्रों से अप्रत्यक्ष सहयोग मिल रहा है। इस कारण आतंकवादियों के पास अत्याधुनिक घातक हथियार मौजूद हैं । वे भौतिक, रासायनिक, जैविक एवं मानव बमों का प्रयोग कर रहे हैं। आतंकवादी स्थानीय जनता, सरकारों और दुनिया का ध्यान खींचने के लिए हिंसात्मक कार्यवाही करते हैं जिसमें विश्व के अनेक देश ग्रस्त हैं।
4. आतंकवादी चुनौती का समाधान-राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के बढ़ते खतरे का समाधान कठोर कानून व्यवस्था एवं नियन्त्रण से ही हो सकता है। इसके लिए अवैध संगठनों पर प्रतिबन्ध, प्रशासनिक सुधार के साथ ही काउन्टर टेरेरिज्म एक्ट अध्यादेश तथा संघीय जाँच एजेन्सी आदि को अति प्रभावी बनाना अपेक्षित है। अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया द्वारा जो कठोर कानून बनाया गया है तथा सेना व पुलिस को इस सम्बन्ध में जो अधिकार दे रखे हैं, उनका अनुसरण करने से भी इस चुनौती का मुकाबला किया जा सकता है। बातचीत के इच्छुक संगठनों के साथ मानवीय दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए बातचीत कर भी समस्या का समाधान किया जाना चाहिए।
5. उपसंहार-निर्विवाद कहा जा सकता है कि आतंकवाद के कारण विश्व मानव-सभ्यता पर संकट आ रहा है। यह एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन गई है। इसके समाधानार्थ एक विश्व-व्यवस्था की जरूरत है। अगर समय रहते सभी राष्ट्रों ने एकजुट होकर आतंकवाद के विरुद्ध दृढ़ इच्छा शक्ति नहीं दिखाई तो यह पूरी मानवता को निगल लेगा।
10. रोजगार गारंटी योजना : मनरेगा
अथवा
मनरेगा : गाँवों में रोजगार योजना
अथवा
गाँवों के विकास की योजना : मनरेगा
संकेत बिन्दु-1. प्रस्तावना 2. मनरेगा कार्यक्रम का स्वरूप 3. मनरेगा से रोजगार सुविधा 4. मनरेगा से सामाजिक सुरक्षा एवं प्रगति 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-भारत सरकार ने ग्रामीण विकास एवं सामुदायिक कल्याण की दृष्टि से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम फरवरी, 2006 में लागू किया। इस योजना का संक्षिप्त नाम 'नरेगा' रखा गया। अक्टूबर, 2009 से इसके साथ महात्मा गाँधी का नाम जोड़कर इसका संक्षिप्त नाम 'मनरेगा' पड़ा। इसके अन्तर्गत अकुशल ग्रामीण वयस्क स्त्री या पुरुष को ग्राम पंचायतों के माध्यम से रोजगार दिया जाता है। काम न देने पर बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है।
2. मनरेगा कार्यक्रम का स्वरूप-मनरेगा योजना के अन्तर्गत विविध कार्यक्रम चलाये जाते हैं; जैसे (1) जल-संरक्षण एवं जल-शस्य संचय, (2) वनरोपण एवं वृक्षारोपण, (3) इन्दिरा आवास योजना एवं अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए भूमि सुधार, (4) लघु सिंचाई कार्यक्रम, (5) तालाब आदि का नवीनीकरण, (6) बाढ़-नियन्त्रण एवं जल-निकास, (7) ग्रामीण मार्ग-सड़क निर्माण तथा (8) अनुसूचित जन्य विविध कार्य इस योजना में चलाये जा रहे हैं। सरकार द्वारा जिला पंचायत, विकास खण्ड तथा ग्राम पंचायत को इस योजना के क्रियान्वयन का भार दिया गया है। इसमें ग्राम पंचायत की मुख्य भूमिका रहती है।
3. मनरेगा से रोजगार सुविधा-इस योजना में ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार माँगने वाले वयस्क व्यक्ति को ग्राम पंचायत से एक कार्ड दिया जाता है। पन्द्रह दिन के अन्तर्गत रोजगार उपलब्ध कराना पड़ता है। रोजगार न दिये जाने पर उसे बेरोजगारी भत्ता देना पड़ता है। वयस्क व्यक्ति को गाँव के पाँच किलोमीटर की सीमा में रोजगार दिया जाता है तथा कार्यस्थल पर प्राथमिक चिकित्सा सुविधा और महिला मजदूरों के छोटे बच्चों की देखभाल की सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।
4. मनरेगा से सामाजिक सुरक्षा एवं प्रगति-मनरेगा कार्यक्रम में आमजन की भागीदारी होने से गाँवों का विकास स्वतः होने लगा है। इससे महिलाओं तथा अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लोगों में से वंचितों को रोजगार मिलने लगा है। इससे महिला सशक्तीकरण पर भी बल दिया गया है। इस तरह मनरेगा से सामाजिक एवं आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को गति मिल रही है।
5. उपसंहार-मनरेगा कार्यक्रम ग्रामीण क्षेत्र के विकास तथा बेरोजगार लोगों को रोजगार देने का जनहितकारी प्रयास है। इसका उत्तरोत्तर प्रसार हो रहा है तथा भारत सरकार इस योजना के लिए काफी धन उपलब्ध करा रही है। इस योजना की सफलता ग्राम पंचायतों की सक्रियता पर निर्भर है।
11. राजस्थान में गहराता जल-संकट
अथवा
राजस्थान में बढ़ता जल-संकट
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. जल-संकट की स्थिति 3. जल-संकट के कारण 4. संकट के समाधान हेतु सुझाव 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-पंचभौतिक पदार्थों में पृथ्वी के बाद जल तत्त्व का महत्त्व सर्वाधिक माना गया है, क्योंकि जल.ही जीवन है। जल के अभाव में जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस धरती पर ऐसे कई भू भाग हैं, जहाँ जल के अभाव के कारण रेगिस्तान का प्रसार हो रहा है। राजस्थान प्रदेश का अधिकतर भू-भाग जल-संकट से हमेशा ही ग्रस्त रहता है। वर्षा न होने से यह संकट और भी बढ़ जाता है।
कट की स्थिति-राजस्थान में नदियों का अभाव है। जलाभाव के कारण जल-संकट की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। चम्बल एवं माही नदियाँ जो इसके दक्षिणी-पूर्वी भाग में बहती हैं वे इस भाग को ही हरा-भरा रखती हैं। इसकी पश्चिम-उत्तर की भूमि तो एकदम निर्जल है। इस कारण यहाँ रेगिस्तान की निरन्तर वृद्धि हो रही है। पंजाब से श्रीगंगानगर जिले में से होकर इन्दिरा गाँधी नहर के द्वारा जो जल राजस्थान के पश्चिमोत्तर भाग में पहुँचाया जा रहा है, उसकी स्थिति भी सन्तोषप्रद नहीं है। पूर्वोत्तर राजस्थान में हरियाणा से जो पानी मिलता है, वह भी जलापूर्ति नहीं कर पाता है। इस कारण राजस्थान में जल-संकट की स्थिति सदा ही बनी रहती है।
3. जल-संकट के कारण-राजस्थान में पहले ही शुष्क मरुस्थलीय भू-भाग होने से जलाभाव है, फिर उत्तरोत्तर आबादी बढ़ रही है और औद्योगिक गति भी बढ़ रही है। यहाँ के शहरों एवं बड़ी औद्योगिक इकाइयों में भूगर्भीय जल का दोहन बड़ी मात्रा में हो रहा है। खनिज सम्पदा यथा संगमरमर, ग्रेनाइट, इमारती पत्थर, चूना पत्थर आदि के विदोहन से भी धरती का जल स्तर गिरता जा रहा है। दूसरी ओर वर्षा काल में सारा पानी बाढ़ के रूप में बह जाता है। पिछले कई वर्षों से वर्षा कम मात्रा में होने के कारण बाँधों, झीलों, तालाबों आदि में भी पानी कम हो गया . है जिसके कारण जल-संकट गहराता जा रहा है।।
4. संकट के समाधान हेतु सुझाव-राजस्थान में बढ़ते हुए जल-संकट के समाधान के लिए ये उपाय किये जा सकते हैं- ) भूगर्भ के जल का असीमित विदोहन रोका जावे। (2) खनिज सम्पदा के विदोहन को नियन्त्रित किया जावे। (3). शहरों में वर्षा के जल को धरती के गर्भ में डालने की व्यवस्था की जावे। (4) बाँधों एवं एनीकटों का निर्माण, कुओं एवं बावड़ियों को अधिक गहरा और कच्चे तालाबों-पोखरों को अधिक गहरा-चौड़ा किया जावे। (5) पंजाब-हरियाणा-गुजरात में बहने वाली नदियों का जल राजस्थान में लाने के प्रयास किये जावें। ऐसे उपाय करने से निश्चय ही राजस्थान में जल-संकट का निवारण हो सकता है।
5. उपसंहार-"रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून" अर्थात् पानी के बिना जन-जीवन अनेक आशंकाओं से घिरा रहता है। सरकार को तथा समाज-सेवी संस्थाओं को विविध स्रोतों से सहायता लेकर राजस्थान में जल-संकट के निवारणार्थ प्रयास करने चाहिए। ऐसा करने से ही यहाँ की धरती मंगलमय बन सकती है।
12. बाल-विवाह : एक अभिशाप
संकेत बिन्दु- 1. प्रस्तावना 2. बाल-विवाह की कुप्रथा 3. बाल-विवाह का अभिशाप 4. समस्या के निवारणार्थ उपाय-5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कारों में विवाह-संस्कार का विशेष महत्त्व है। अन्य संस्कारों की अपेक्षा विवाह-संस्कार पर काफी धन व्यय किया जाता है। परन्तु इस पवित्र संस्कार में धीरे-धीरे अनेक विकृतियाँ आयीं, जिनके फलस्वरूप देश में बाल-विवाह का प्रचलन हुआ, जो अब हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के लिए घोर अभिशाप बन गया है।
2. बाल-विवाह की कुप्रथा-बाल-विवाह की कुप्रथा का प्रचलन हमारे देश में मध्यकाल में विधर्मी आक्रान्ताओं के आने के कारण हुआ। उन्होंने अपनी वासना पूर्ति के लिए कन्या अपहरण की कुचाल चली। जिसके कारण लोगों ने बालपन में ही अपनी कन्या का विवाह करना उचित समझा। फिर दहेज आदि से बचने के कारण बाल-विवाह का प्रचलन हआ। इस कारण यह कुप्रथा निम्न-मध्यम वर्ग में विशेष रूप से प्रचलित हुई।
3. बाल-विवाह का अभिशाप-विवाह-संस्कार में कन्यादान पवित्र मांगलिक कार्य माना जाता है। इस अवसर पर कन्या पक्ष की ओर से कुछ उपहार भी दिया जाता रहा है। लेकिन समय के प्रवाह में इस उपहार की देन में विकृति आ गयी। परिणामस्वरूप दहेज मांगने की समस्या खड़ी हो गयी और माता-पिता के लिए कन्या भार बन गयी। दहेज से मुक्ति पाने का कारण बाल विवाह प्रचलित हुआ जो एक समस्या तो थी ही, इससे और समस्याएँ उत्पन्न हो गयीं। जल्दी शादी होने से जनसंख्या में आशातीत वृद्धि होने लगी। जीवन-स्तर में गिरावट आने लगी। स्वास्थ्य की समस्या खड़ी हो गयी और बाल-विवाह एक अभिशाप बन गया।
4. समस्या के निवारणार्थ उपाय-बाल-विवाह की बुराइयों को देखकर समय-समय पर समाज-सुधारकों ने जन-जागरण के उपाय किये। भारत सरकार ने इस सम्बन्ध में कठोर कानून बनाया है और लड़कियों का अठारह वर्ष से कम तथा लड़कों का इक्कीस वर्ष से कम आयु में विवाह करना कानूनन निषिद्ध कर रखा है। फिर भी बाल-विवाह निरन्तर हो रहे हैं। अकेले राजस्थान के गाँवों में वैशाख मास में अक्षय तृतीया को हजारों बाल-विवाह होते हैं। इस समस्या का निवारण जन-जागरण से ही सम्भव है।
5. उपसंहार-बाल-विवाह ऐसी कुप्रथा है, जिससे वर-वधू का भविष्य अन्धकारमय बन जाता है। इससे समाज में कई विकृतियाँ आ जाती हैं, कभी-कभी यौनाचार भी हो जाता है। अतः इस कुप्रथा का निवारण अपेक्षित है, तभी समाज को इस अभिशाप से मुक्त कराया जा सकता है।
13. आतंकवाद : भारत के लिए चुनौती
अथवा
आतंकवाद : भारत की विकट समस्या
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. भारत में आतंकवाद 3. आतंकवादी घटनाएँ 4. आतंकवाद का दुष्परिणाम 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-'आतंक' का शाब्दिक अर्थ है - भय, त्रास या अनिष्ट बढ़ाना। नागरिकों पर हमले करना, सामूहिक नरसंहार करना, भय का वातावरण बनाना अथवा तुच्छ स्वार्थ की खातिर अमानवीय आचरण कर वर्चस्व बढ़ाना आतंकवाद कहलाता है। आतंकवाद कट्टर धार्मिकता, जातीयता एवं नस्लवादी उन्माद से उपजता है तथा शत्रु राष्ट्रों के द्वारा अप्रत्यक्ष पोषण करने से बढ़ता है। भारत में उग्रवाद एवं आतंकवाद पड़ोसी देश पाकिस्तान द्वारा पोषित तथा कुछ स्वार्थी देश विरोधी लोगों द्वारा छद्म रूप से संचालित है। वर्तमान में भारत में आतंकवाद एक विकट समस्या बन गया है।
2. भारत में आतंकवाद-आतंकवाद से प्रभावित देशों में भारत का प्रमुख स्थान है। इस बढ़ते आतंकवाद को बढ़ावा देने में हमारे पड़ोसी देश का प्रमुख स्थान है। हमारे पड़ोसी देश में 'जेहाद' के नाम पर आतंकवादियों को तैयार किया जाता है, उन्हें प्रशिक्षण देकर विस्फोटक सामग्री और अत्याधुनिक हथियार देकर हमारी सीमा में भेजा जाता है। इससे हमारे देश में आतंकवाद निरन्तर अपने पैर पसार रहा है और हम आतंकी हमलों के शिकार हो रहे हैं। आज भारत का प्रत्येक कोना आतंकवाद के साये में है।
3. आतंकवादी घटनाएँ-पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी समय-समय पर भारत के विभिन्न भागों में अमानवीय हिंसक घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। भारत के दो प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी और श्री राजीव गाँधी आतंक के शिकार हुए। भारत के संसद भवन पर आतंकियों ने आक्रमण कर देश की संप्रभुता को तहस-नहस करने का प्रयास किया।
इसके अतिरिक्त दिल्ली के लाल किले पर, कश्मीर विधानसभा भवन पर, गांधीनगर अक्षर धाम पर, अयोध्या एवं मुम्बई पर, पुलवामा में सैनिकों के काफिले पर आतंकवादियों ने जो हमले किये, अन्य स्थानों पर बम विस्फोट करके जान-माल की जो हानि पहुँचाई और भयानक क्रूरता का परिचय दिया, वह राष्ट्र की आत्मा के लिए एक चुनौती है। अब भी जम्मू-कश्मीर की सीमा पर प्रतिदिन भाड़े के आतंकवादियों के साथ हमारे सैनिकों की मुठभेड़ें होती रहती हैं। इन मुठभेड़ों में आतंकवादी मारे और पकड़े जाते हैं।
4. आतंकवाद का दुष्परिणाम-वर्तमान में आतंकवाद शत्रु-राष्ट्रों के कूटनीतिक इशारों पर छद्म-युद्ध का रूप धारण करने लगा है। भारत के अन्दर आतंकवादियों के 'गुप्त संगठन' पनप रहे हैं। जिसका दुष्परिणाम यह है कि एक तरफ जहाँ भारत को अपनी सम्पूर्ण पश्चिमी सीमा एवं पूर्वोत्तर सीमा पर सेना तैनात करनी पड़ रही है वहाँ दूसरी तरफ देश के छिपे हुए आतंकियों की खोज-बीन जारी है। आतंकवादियों का मुकाबला करने में काफी धन व्यय हो रहा है तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। इस समस्या का समाधान कठोर कानून-व्यवस्था एवं कमाण्डो आपरेशन से ही हो सकता है।
5. उपसंहार-आतंकवाद रोकने के लिए सरकार गम्भीरता से प्रयास कर रही है। सेनाएँ एवं विशेष पुलिस दस्ते आतंकवादियों की चुनौतियों का उचित जवाब दे रहे हैं। आतंकवाद अब विश्व-समस्या बन गया है।
14. दहेज-प्रथा
अथवा
समाज का कलंक : दहेज-प्रथा
अथवा
समाज का अभिशाप : दहेज-प्रथा
संकेत बिन्दु- 1. प्रस्तावना 2. दहेज-प्रथा में विकृति 3. दहेज-प्रथा एक कलंक 4. उन्मूलन हेतु उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-भारतीय संस्कृति में सभी संस्कारों में विवाह संस्कार को विशेष स्थान प्राप्त है। विवाह संस्कार में कन्यादान को अन्य दानों की अपेक्षा प्रमुख दान माना जाता है। इस संस्कार में माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार नयी गृहस्थी के संचालन हेतु वस्त्र, आभूषण तथा अन्य जरूरी सामान दहेज के रूप में देते हैं। इस प्रकार कन्या पक्ष की
ओर से वर-पक्ष को दान, उपहार तथा पुरस्कार स्वरूप जो दिया जाता है, उसे 'दहेज' कहते हैं।
2. दहेज-प्रथा में विकृति-पहले दहेज कन्या-पक्ष की इच्छा पर निर्भर करता था, लेकिन अब यह वर-पक्ष की विवाह से पूर्व की शर्तों के शिकंजे में फंसकर रह गया है। वर-पक्ष के लिए दहेज सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक बन गया है। सम्पन्न वर्ग तो विवाह की शर्ते आसानी से निभा लेता है, लेकिन मध्यम और निम्न वर्ग दहेज रूपी अजगर की कुंडली में फंसकर छटपटाता रहता है।
3. दहेज-प्रथा एक कलंक-वर्तमान काल में दहेज प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया है और इसके फलस्वरूप नारी समाज के साथ अमानवीय व्यवहार होता है। कन्या का विवाह एक जटिल समस्या बन गई है। माता-पिता अपनी योग्य पुत्री का विवाह करने के लिए वर-पक्ष को मुँह-माँगा दहेज देने हेतु कर्ज लेते हैं। फिर दहेज के चक्कर में वे आजीवन लिये गये कर्ज के भार को ढोते रहते हैं। मुँह-माँगा दहेज न दे पाने पर कन्या-पक्ष को तो अपमानित होना ही पड़ता है, कन्या का जीवन भी जोखिम में पड़ जाता है।
4. उन्मलन हेतु उपाय-यद्यपि देश में दहेज उन्मूलन कानुन बनाया जा चुका है: सरकार ने दहेज विरोधी के लिए एक संसदीय समिति का गठन किया है तथापि हमारे समाज में यह क-प्रथा अभी भी जारी है इस कु-प्रथा के उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि इसके विरुद्ध प्रभावी जनमत तैयार किया जाये और विवाह के लिए निर्धारित आयु सीमा की कठोरता से पालना कराई जाए तथा महिलाओं को उचित शिक्षा दी जाए।
5. उपसंहार-समाज में अभिशाप बनी इस प्रथा से नारी को मुक्ति मिले, यह मानवीय दृष्टिकोण नितान्त अपेक्षित है।
15. मूल्यवृद्धि : एक ज्वलन्त समस्या
अथवा
बढ़ती महँगाई की मार
अथवा
बढ़ती महँगाई : एक विकराल समस्या
संकेत बिन्दु- 1. प्रस्तावना 2. महँगाई के कारण 3. महँगाई का दुष्प्रभाव 4. मूल्यवृद्धि समस्या का समाधान 5. उपसंहारं।
1. प्रस्तावना-स्वतंत्रता के बाद भारत ने लगभग प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की है, फिर भी महँगाई दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। बढ़ती महँगाई एक तरफ स्वतंत्र भारत की सभी सरकारों के प्रबंध कौशल एवं शासन कौशल पर प्रश्न चिह्न खड़ा करती है, तो दूसरी तरफ यह उपभोक्ताओं की कमर तोड़ रही है।
2. महँगाई के कारण-महँगाई बढ़ने का प्रमुख कारण है - माँग और पूर्ति के बीच असंतुलन होना। जब किसी वस्तु की आपूर्ति कम होती है और माँग बढ़ती है तो उस वस्तु का मूल्य स्वयमेव बढ़ जाता है। दूसरे, प्राकृतिक प्रकोप महँगाई बढ़ाने में सहायक होते हैं। इनसे खेती की उपज घट जाती है और खाद्यान्न व अन्य वस्तुएँ बाहर से मँगानी पड़ती हैं। ऐसे में जमाखोरी, कालाबाजारी आदि मानवनिर्मित कारणों का उदय होता है। इसके अतिरिक्त दोषपूर्ण वितरण प्रणाली, असफल सरकारी नियंत्रण और मनुष्य की स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति भी इसके लिए उत्तरदायी हैं।
3. महँगाई का दुष्प्रभाव-महँगाई के निरन्तर बढ़ते रहने से सामाजिक जीवन में आपाधापी मच रही है। सम्पन्न लोग अधिक सम्पन्न होते जा रहे हैं और गरीबों में भुखमरी फैल रही है। महँगाई के कारण जब पेटपूर्ति नहीं हो रही है, तो लूटपाट, हत्या, डकैती, राहजनी, चोरी तथा तोड़फोड़ आदि अनेक दुष्प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं। अनेक अपराधों का मूल कारण यही महँगाई की मार है।
4. मूल्यवृद्धि समस्या का समाधान-महँगाई रोकने के लिए सरकार और व्यापारी वर्ग दोनों को आगे आना होगा। सरकार को वितरण प्रणाली व्यवस्थित और सुचारु बनानी होगी। जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों पर कड़ा जुर्माना लगाते हुए कठोर दंड का प्रावधान होना चाहिए। इसके अतिरिक्त सरकार को भी अपने खर्चों में कटौती करनी चाहिए।
5. उपसंहार-हम आशा करते हैं कि सरकार और व्यापारी वर्ग समाज कल्याण को ध्यान में रखते हुए ईमानदारी से कार्य करते हुए महँगाई को कम करने का प्रयास करेंगे।
16. पर्यावरण प्रदूषण
अथवा
बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण : एक समस्या
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. पर्यावरण प्रदूषण का कुप्रभाव 3. प्रदूषण-निवारण के उपाय 4. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-प्रदूषण का अर्थ है-वायुमण्डल या वातावरण का दूषित होना । प्रकृति ने हमें शुद्ध जल, शुद्ध वायु, हरी-भरी धरती और शुद्ध पर्यावरण प्रदान किया उसे हमने अपने भौतिक सुख-साधनों की प्राप्ति के लिए अनेक कल कारखाने लगाकर दूषित कर दिया। सड़कों पर चलने वाले स्वचालित वाहनों की बढ़ती संख्या, बढ़ती जनसंख्या के आवासों की सुविधा हेतु वृक्षों और वनों की अंधाधुंध कटाई तथा रासायनिक खादों, कीटनाशकों आदि के प्रयोग से प्रदूषण दिन-पर दिन बढ़ता जा रहा है। प्रदूषण की समस्या ने आज सारे विश्व के सामने विकराल रूप धारण कर लिया है।
2. पर्यावरण प्रदूषण का कुप्रभाव-निरन्तर बढ़ते प्रदूषण से मानव के साथ ही वन्य-जीवों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। बढ़ते हुए पर्यावरण प्रदूषण का सबसे अधिक कुप्रभाव मानव-सभ्यता पर पड़ रहा है जो कि आगे चलकर इसके विनाश का कारण हो सकता है। धरती के तापमान की वृद्धि तथा असमय ऋतु-परिवर्तन होने से प्राकृतिक वातावरण नष्ट होता जा रहा है तथा संसार के समस्त प्राणियों के स्वास्थ्य के समक्ष एक प्रश्न चिह्न लग रहा है।
3. प्रदूषण-निवारण के उपाय-पर्यावरण की सुरक्षा से ही प्रदूषण की समस्या को सुलझाया जा सकता है। इस हेतु हरियाली को बढ़ावा देना, वृक्ष उगाना, शोर पर नियंत्रण करना तथा पर्यावरण प्रदूषण के प्रति जनचेतना को जाग्रत करना जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश, परमाणु परीक्षणों पर रोक, रासायनिक पदार्थों के उपयोग में कमी आदि उपाय करने होंगे। भारत सरकार द्वारा इस हेतु खुले में शौच करने, नालियों का गन्दा जल फैलने तथा कारखानों से निकलने वाले विषैले अपशिष्टों से पर्यावरण को बचाने के अनेक उपाय किये जा रहे हैं। सीवरेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट लगाये जा रहे हैं, घर-घर में शौचालय बनाये जा रहे हैं। नदियों की स्वच्छता का अभियान चलाया जा रहा है।
उपसंहार-देश में पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित पाठयक्रम भी प्रारम्भ किया गया है। बडे उद्योगों को प्रदूषण रोकने के उपाय अपनाने के लिए कहा जा रहा है। इन सब उपायों से पर्यावरण में सन्तुलन रखने का प्रयास किया जा रहा है।
17. भ्रष्टाचार : एक विकराल समस्या
अथवा
भ्रष्टाचार और गिरते सांस्कृतिक मूल्य
अथवा
देश में व्याप्त भ्रष्टाचार
संकेत बिन्दु- 1. प्रस्तावना 2. भ्रष्टाचार के कारण 3. भ्रष्टाचार का कुप्रभाव 4. समाधान या निराकरण के उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-भ्रष्टाचार वह आचरण है जो भ्रष्ट है। यह सदाचार की विकृति है। हर समाज यही चाहते हैं कि उसके सदस्य सदाचारी हों अर्थात् वे समाज सम्मत आचरण का अनुगमन करें तथा इस लोकसम्मत आचरण से च्युत होना ही भ्रष्टाचार है। .
2. भ्रष्टाचार के कारण-जब मानव मन पर उसकी स्वार्थ एवं लालच से भरी प्रवृत्तियाँ हावी हो जाती हैं, तब वह मर्यादित आचरण को भूलकर स्वेच्छाचारी हो जाता है और इसी स्वेच्छाचार से जन्म लेता है - भ्रष्टाचार। जब व्यक्ति अपनी आकांक्षाओं तथा स्वार्थों व लालसाओं को आवश्यकता से अधिक फैला लेता है तो उनको पूरा करने के लिए अनैतिक और अवैध रास्तों को अपनाता है, तभी समाज में भ्रष्टाचार पनपता है। वर्तमान में बढ़ती इसी प्रवृत्ति के कारण हमारा देश ही नहीं, सारा विश्व भ्रष्टाचार की समस्या से जूझ रहा है।
3. भ्रष्टाचार का कुप्रभाव-भ्रष्टाचार के दुष्प्रभावों का क्षेत्र भी काफी विस्तृत है। बेईमानी, चोरी, तस्करी, पक्षपात, विश्वासघात, जमाखोरी, अनैतिक धन-संग्रह, भाई-भतीजावाद, खाने-पीने की चीजों में मिलावट, पद का दुरुपयोग, अधिक लाभ लेना, धोखेबाजी, सट्टा व्यापार, देश के प्रति गद्दारी, काला धन आदि सभी भ्रष्टाचार के ही अंग हैं। इसके अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति को जान-बूझकर पीड़ित करना भी भ्रष्टाचार है।
4. समाधान या निराकरण के उपाय-भ्रष्टाचार का निवारण करने के लिए यद्यपि सरकार ने पृथक से भ्रष्टाचार उन्मूलन विभाग बना रखा है और इसे व्यापक अधिकार दे रखे हैं। समय-समय पर अनेक कानून बनाये जा रहे हैं और इसे अपराध मानकर कठोर दण्ड-व्यवस्था का भी विधान है, तथापि देश में भ्रष्टाचार बढ़ ही रहा है। इसके निराकरण के लिए सर्वप्रथम जन-जागरण की आवश्यकता है तथा कर्त्तव्यनिष्ठा व ईमानदारी की जरूरत है। अतः भ्रष्टाचार के उपर्युक्त सभी कारणों को पूरी तरह समाप्त करना जरूरी है।
5. उपसंहार-भ्रष्टाचार देश की प्रगति में बाधक है और आर्थिक असमानता का द्योतक है। इसे समय रहते नहीं रोका गया तो देश की जीवन्तता, सदाशयता को यह दीमक की तरह चट कर जाएगा।
18. बढ़ती भौतिकता : घटते मानवीय मूल्य
अथवा
भौतिकता-व्यामोह से मानव-मूल्यों का पतन
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. भौतिकता का व्यामोह 3. बढ़ती भौतिकता का कुप्रभाव 4. भौतिकता से मानवीय मूल्यों का ह्रास 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-आज के वैज्ञानिक युग में उपभोक्तावादी संस्कृति बढ़ रही है। इस कारण पुरानी विचारधारा और । रीति-रिवाजों का ह्रास हो रहा है। भौतिकवादी प्रवृत्ति के बढ़ने के कारण मौज-मस्ती, फैशनपरस्ती, ऐशो-आराम की जिन्दगी को श्रेष्ठ माना जा रहा है। बढ़ती भौतिकवादी प्रवृत्ति के कारण मानवीय मूल्यों का पतन तीव्र गति से हो रहा है।
2. भौतिकता का व्यामोह-भौतिकतावादी प्रवृत्ति वस्तुतः चार्वाक मत का नया रूप है। आज हर आदमी अपनी जेब का वजन न देखकर सुख-सुविधा हेतु भौतिक साधनों को जुटाने की जुगाड़ में लगा रहता है । बैंकों से कर्ज लेकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है। इसीलिए फैशन के अनुसार कपड़े पहनना, बनावटी प्रदर्शन करना, क्लबों और पार्टियों में जाना आदि को इज्जत का प्रतीक मानना आज जीवन का मुख्य सिद्धान्त मध्य वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक भौतिकता का व्यामोह फैल रहा है।
3. बढ़ती भौतिकता का कुप्रभाव-भौतिकता के साधनों की पूर्ति करने से अनेक कुप्रभाव देखे जा रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति मोटर, स्कूटर, मोबाइल फोन, दी.वी., फ्रिज आदि भौतिक संसाधनों की लालसा रखकर किश्तों में भौतिक सुविधा की वस्तुएँ खरीद रहा है। इससे निम्न-मध्यमवर्गीय परिवारों पर ऋण-बोझ बढ़ रहा है। इस कारण भी सब ओर अशान्ति, कलह, मानसिक तनाव, आपसी संबंधों में कड़वाहट, कुण्ठा आदि अनेक कुप्रभाव देखने को मिल रहे हैं। रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, गबन, चोरी आदि का बढ़ना भौतिकता का ही कुप्रभाव है।
4. भौतिकता से मानवीय मूल्यों का ह्रास-भौतिकता की प्रवृत्ति के कारण सर्वाधिक हानि मानवीय मूल्यों जैसे अच्छा व्यवहार, सत्यवादिता, परिश्रमशीलता, कर्त्तव्यनिष्ठा, समयनिष्ठता और सादा जीवन व उच्च विचार आदि की हुई है।
अब राह चलती महिलाओं से छीना-झपटी करना, भाई-बन्धुओं की सम्पत्ति हड़पने का प्रयास करना, बलात्कार, धोखाधड़ी, मक्कारी, असत्याचरण, भ्रष्टाचार, बेईमानी, रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद, साम्प्रदायिकता, खाद्य पदार्थों में मिलावट करना आदि अनेक बुराइयों से सामाजिक सम्बन्ध तार-तार हो रहे हैं। इसी प्रकार आज सभी पुराने आदर्शों एवं मानव-मूल्यों का पतन हो रहा है।
5. उपसंहार-आज भौतिकता की चकाचौंध में मानव इतना विमुग्ध हो रहा है कि वह मानवीय अस्मिता को भूल रहा है। इस कारण मानव-मूल्यों एवं आदर्शों का लगातार ह्रास हो रहा है। यह स्थिति मानव सभ्यता के लिए चिन्तनीय है।
19. बढ़ते वाहन : घटता जीवन-धन
अथवा
वाहन-वृद्धि से स्वास्थ्य-हानि
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना 2. वाहन-वृद्धि के कारण 3. वाहन-वृद्धि से लाभ 4. बढ़ते वाहनों का कुप्रभाव 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-मानव-सभ्यता के प्रगति-पथ पर एक लम्बे समय तक रथ, बैलगाड़ी, बग्घी, पालकी, इक्का ताँगा, रिक्शा आदि ने वाहन के रूप में अपना दायित्व निभाया। वहीं वैज्ञानिक मानव ने द्रुतगामी वाहनों का निर्माण कर आज स्कूटर, मोटर साइकिल, कार, बस, टू सीटर आदि वाहनों की सड़कों पर रेल-पेल मचा दी है। जिससे सडक पर पैदलं चलने तक की जगह नहीं रह गयी है।
2. वाहन-वृद्धि के कारण-इस यांत्रिक युग में जनसंख्या वृद्धि और समय के बदलते रूप के कारण द्रुतगामी. परिवहन साधनों का आविष्कार हुआ। इन साधनों में दुपहिया वाहनों से लेकर चौपहिया वाहनों की भरमार हो गयी। इस तरह वाहनों की असीमित वृद्धि यद्यपि यातायात-परिवहन आदि सुख-सुविधाओं की दृष्टि से ही हुई, तथापि ऐसी असीमित वाहन वृद्धि पर्यावरण एवं जनस्वास्थ्य की दृष्टि से जटिल समस्या बन रही है।
3. वाहन-वृद्धि से लाभ-वाहन-वृद्धि से अनेक लाभ हुए हैं। आवागमन की सुविधा बढ़ी। कम समय में यात्रा पूरी होने लगी। माल भी कम समय में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचने लगा। इससे जनता को सुविधाएँ मिलीं और वाहनों का निर्माण करने वाले बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना होने से लाखों लोगों को रोजगार भी उपलब्ध हुआ।
4. बढ़ते वाहनों का प्रभाव-यान्त्रिक वाहनों के संचालन में पेट्रोल-डीजल का उपयोग होता है। इससे वाहनों द्वारा विषैली कार्बन-गैस छोड़ी जाती है, जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ फैल रही हैं। इससे पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। वाहन वृद्धि के कारण सड़कों पर भीड़-भाड़ रहती है। अनेक दुर्घटनाएं होती रहती हैं। पेट्रोल-डीजल की अधिक खपत होने के कारण मूल्य वृद्धि हो रही है। इस तरह बढ़ते वाहनों से लाभ के साथ ही हानि भी हो रही है और इनके कुप्रभाव से जीवन-धन क्षीण हो रहा है।
5. उपसंहार-यान्त्रिक वाहनों का विकास भले ही मानव-सभ्यता की प्रगति अथवा देशों के औद्योगिक विकास का परिचायक है, तथापि वर्तमान में वाहनों की असीमित वृद्धि से मानव-जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। अतएव वाहनों की वृद्धि उसी अनुपात में अपेक्षित है, जिससे मानव-स्वास्थ्य पर बुरा असर न पड़े तथा यान्त्रिक प्रगति भी बाधित न हो।
20. राजस्थान का अकाल
संकेत बिन्दु - 1. प्रस्तावना : अकाल के कारण 2. राजस्थान में अकाल की समस्या 3. अकाल के दुष्परिणाम 4. अकाल रोकने के उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना-भारत मौसम की दृष्टि से भी विभिन्नताओं का देश है। इस दृष्टि से जहाँ इसके कई भागों में खूब वर्षा होती है, तो कई भागों में कम। पर राजस्थान में प्रायः कई भागों में अवर्षण की स्थिति बनी रहती है। इस कारण यहाँ अकाल या सूखा पड़ जाता है।
2. राजस्थान में अकाल की समस्या-राजस्थान का अधिकतर भू-भाग शुष्क मरुस्थलीय है। इसके पश्चिमोत्तर भाग में मानसून की वर्षा प्रायः कम होती है और यहाँ पेयजल एवं सिंचाई सुविधा का नितान्त अभाव है। समय पर वर्षा न होने के कारण राजस्थान में अकाल की काली छाया हर साल मण्डराती रहती है। यहाँ मानसूनी बादल आते हैं, परन्तु बिना बरसे ही चले जाते हैं । इस कारण राजस्थान का प्रायः कोई न कोई जिला हर वर्ष अकाल की चपेट में रहता ही है। वर्तमान में राजस्थान के कई जिले पूरी तरह अकालग्रस्त हैं।
3. अकाल के दुष्परिणाम-राजस्थान में अकाल पड़ने से अनेक दुष्परिणाम देखने-सुनने में आते हैं। अकालग्रस्त क्षेत्रों के लोग अपने घर का सारा सामान बेचकर या छोड़कर पलायन कर जाते हैं । जो लोग वहाँ रह जाते हैं, उन्हें कई सोना पड़ता है। जो लोग काम-धन्धे की खोज में दूसरे शहरों में चले जाते हैं, उन्हें भी अनेक कष्टों तथा आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है।
अकाल के कारण राजस्थान सरकार को राहत कार्यों पर अधिक धन व्यय करना पड़ता है। इससे राज्य के विकास कार्यों की प्रगति धीमी पड़ जाती है। अकालग्रस्त क्षेत्रों में आर्थिक-शोषण का चक्र भी चलता रहता है। पेट की खातिर लोग बड़ा से बड़ा अत्याचार भी सह जाते हैं और उनकी जीवनी-शक्ति क्षीण हो जाती है।
4. अकाल रोकने के उपाय-राजस्थान में सरकारी स्तर पर अकालग्रस्त लोगों को राहत पहुँचाने के लिए समय-समय पर अनेक उपाय किये गये, परन्तु अकाल की विभीषिका का स्थायी समाधान नहीं हो पाया। सरकार समय-समय पर अनेक जिलों को अकालगस्त घोषित कर सहायता कार्यक्रम चलाती रहती है। सन् 1981-82 से लेकर सन् 2012 तक राजस्थान सरकार ने समय-समय पर केन्द्र सरकार से आर्थिक सहायता प्राप्त कर अनेक राहत कार्य चलाये तथा रियायती दर पर अनाज उपलब्ध कराया। गत वर्ष भी कई जिलों में अकाल राहत के कार्यक्रम चलाये गये। इस प्रकार राज्य सरकार अकाल की विभीषिका से निपटने के पूरे प्रयास कर रही है।
5. उपसंहार-राजस्थान की जनता को निरन्तर कई वर्षों से कहीं न कहीं अकाल का सामना करना पड़ता है। हर बार राज्य सरकार केन्द्रीय सरकार से आर्थिक सहायता की याचना करती रहती है। सरकारी मशीनरी भी इस समस्या का मुकाबला करने के लिए उतनी चुस्त नहीं दिखाई देती है। राजस्थान में दीर्घकालीन योजनाएँ प्रारम्भ करने तथा जन सहयोग मिलने से ही अकाल का स्थायी समाधान हो सकता है।
21. बेरोजगारी : समस्या और समाधान
अथवा
रोजगार के घटते साधन
संकेत बिन्दु-1. प्रस्तावना 2. बेरोजगारी की समस्या 3. रोजगार घटने के कारण 4. निराकरण के उपाय 5. उपसंहार।
1. प्रस्तावना बेरोजगारी का अर्थ है - काम करने योग्य और काम करने के इच्छुक लोगों के लिए काम का अभाव। देश में बेरोजगारी की समस्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई है, जिस पर नियंत्रण पाना सरकार के लिए असंभव सा प्रतीत होने लगा है।
2. बेरोजगारी की समस्या विकासशील भारत में जनसंख्या जिस तीव्र गति से बढ़ी उसके अनुरूप रोजगार के साधनों में वृद्धि नहीं हुई। परिणामस्वरूप शिक्षित और अशिक्षित बेरोजगारी में वृद्धि हुई। जिसके कारण नयी पीढ़ी में असंतोष, अशान्ति और अराजकता का भयंकर प्रसार हुआ और बेरोजगारी एक ज्वलंत समस्या बन गयी।
3. रोजगार घटने के कारण हमारे देश में रोजगार के अवसर निरन्तर घट रहे हैं। इसके प्रमुख कारण ये हैं - (1) देश की निरंतर बढ़ती जनसंख्या बेरोजगारी का सर्वप्रमुख कारण है। सरकार की ओर से जो रोजगार प्रदान किए जाते हैं, वे तेजी से बढ़ती जनसंख्या के समक्ष नगण्य हो जाते हैं। (2) लघु-कुटीर उद्योगों का ह्रास तथा मशीनीकरण का प्रसार भी इसका प्रमुख कारण है । (3) व्यावसायिक शिक्षा एवं स्वरोजगार की ओर पूरा ध्यान नहीं दिया गया है। (4) सार्वजनिक उद्योगों की घाटे की स्थिति और उत्पादकता का न्यून प्रतिशत रहने से रोजगार के नए अवसर नहीं मिल रहे हैं। (5) पंचवर्षीय योजनाओं में मानव-श्रम शक्ति का सही नियोजन नहीं हो पाया है।
4. निराकरण के उपाय बेरोजगारी की समस्या एक गंभीर और जटिल समस्या है, जिसके निवारण के लिए चहुंमुखी प्रयास करने की आवश्यकता है। यथा-(1) जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगायी जाए। (2) लघु-कुटीर उद्योगों एवं कृषि-प्रधान हस्तकलाओं को प्रोत्साहन दिया जाए। (3) शिक्षा को स्वरोजगारोन्मुखी और व्यावसायिक क्षमता प्रदान की जाए। (4) शासन तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता आदि पर अंकुश लगाया जाए और (5) योजनाएँ ऐसी बनाई जाएँ जिनसे रोजगार के साधनों में वृद्धि हो सके।
5. उपसंहार-इस प्रकार के कारगर उपाय करने पर बेरोजगारी की समस्या पर अंकुश लगाया जा सकता है। इस दिशा में भारत सरकार ने 2020 में नई शिक्षा नीति लागू कर शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन कर बेरोजगारी के निवारण हेतु एक अच्छी पहल की है। इस समस्या का समाधान सरकारी तथा गैर सरकारी सभी स्तरों पर प्रयास करने से ही हो सकता है।
22. नारी सशक्तीकरण
संकेत बिन्दु-1. नारी सशक्तीकरण से आशय 2. वर्तमान समाज में नारी की स्थिति 3. नारी सशक्तीकरण हेतु किए जा रहे प्रयास 4. देश की प्रमुख सशक्त नारियों का परिचय 5. उपसंहार।
1. नारी सशक्तीकरण से आशय-नारी सशक्तीकरण से तात्पर्य महिलाओं को पुरुषों के बराबर वैधानिक, राजनीतिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में निर्णय एवं सहभागी बनाने की स्वायत्तता प्रदान करना।
2. वर्तमान समाज में नारी की स्थिति-वैदिक युग के समाज में महिला सशक्तीकरण का स्वर्ण युग था। परन्तु वर्तमान काल में बढ़ते शिक्षा स्तर में भी नारी की स्थिति शोचनीय है। महिलाओं के विरुद्ध दिनों-दिन बढ़ते अपराध के आँकड़े इसकी पुष्टि करते हैं । यद्यपि आज नारी विविध क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रही है, फिर भी नारी उत्पीड़न के आँकड़ों में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
पुरुषों की अपेक्षा नारियों की साक्षरता का कम प्रतिशत है, उन्हें नौकरी के समान अवसर नहीं मिलते हैं और कमजोर अबला मानकर उनकी उपेक्षा एवं शोषण किया जाता है।
3. नारी सशक्तीकरण हेत किए जा रहे प्रयास-नारी सशक्तीकरण का प्रारम्भ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 8 मार्च, 1975 को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस से माना जा सकता है। भारत सरकार ने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए वर्ष 2001 में महिला सशक्तीकरण हेतु राष्ट्रीय नीति जारी की। भारत में नारी सशक्तीकरण हेतु किए जा रहे कतिपय प्रयास निम्नलिखित हैं. - (1) संवैधानिक एवं कानूनी संरक्षण; (2) महिला विकास सम्बन्धी नीतियाँ एवं क्रियान्वयन, जैसे स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति-2001 आदि; (3) महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक विकास हेतु कार्यक्रम, जैसे - महिला उत्थान योजना, स्वास्थ्य सखी योजना, महिला स्वाधार योजना, किशोरी शक्ति योजना, वंदेमातरम् योजना, कन्यादान योजना, राजलक्ष्मी योजना आदि; (4) राजनीतिक सशक्तीकरण के प्रयास।
4. देश की प्रमुख सशक्त नारियों का परिचय-हमारे देश में अनेक ऐसी नारियाँ हैं जिन्होंने सशक्त महिला का दर्जा प्राप्त किया है, जैसे- श्रीमती सोनिया गाँधी, श्रीमती निर्मला सीतारमण, श्रीमती स्मृति ईरानी, श्रीमती वसुन्धरा राजे एवं ममता बनर्जी आदि नाम उल्लेखनीय हैं । ये सभी सशक्त राजनीतिज्ञ हैं। इसी प्रकार अरुंधती राय, किरण बेदी, सानिया मिर्जा, बछेन्द्रीपाल, साइना नेहवाल, मेरीकॉम आदि महिलाओं के नाम भी सशक्त महिलाओं के रूप में लिए जा सकते हैं।
5. उपसंहार-संक्षेप में कहा जा सकता है कि नारी सशक्तीकरण की दिशा में अनेक ठोस कदम उठाये गए हैं । अनेक क्षेत्रों में आरक्षण व्यवस्था भी की गई है। फिर भी इस दिशा में अभी निरन्तर प्रयास अपेक्षित है।
शिक्षा एवं विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध
23. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
संकेत बिन्दु - 1. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की अवधारणा 2. लिंगानुपात कम होने के कारण 3. स्त्री शिक्षा का महत्त्व एवं उपाय 4. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ-अभियान एवं उद्देश्य 5. उपसंहार।
1. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की अवधारणा-वर्तमान काल में अनेक कारणों से लिंग-भेद का अन्तर सामने आया है, जो कन्या भ्रूण हत्या का पर्याय बनकर बालक-बालिका के समान अनुपात को बिगाड़ रहा है। इसी कारण आज 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' नारा दिया जा रहा है।
2. लिंगानुपात कम होने के कारण-वर्तमान में मध्यमवर्गीय समाज बालिकाओं को पढ़ाने में अपनी परम्परावादी सोच के कारण बेटी को पराया धन मानता है। इसलिए बेटी को पालना-पोसना, पढ़ाना-लिखाना, उसकी शादी में दहेज देना आदि को बेवजह का भार ही मानता है। इस दृष्टि से कुछ स्वार्थी सोच वाले लोग गर्भावस्था में ही लिंग-परीक्षण करवाकर कन्या-जन्म को रोक देते हैं। परिणामस्वरूप बेटी या कन्या को बचाना तथा उसे संरक्षण देना हमारा प्रथम कर्त्तव्य बन गया है।
3. स्त्री शिक्षा का महत्त्व एवं उपाय-शिक्षित नारी आदर्श गृहिणी, आदर्श माता, आदर्श बहिन और आदर्श सेविका बनकर श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण करती है। जिस राष्ट्र की नारियाँ शिक्षित होती हैं, वह राष्ट्र उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।