Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Political Science Chapter 9 संविधान - एक जीवंत दस्तावेज़ Textbook Exercise Questions and Answers.
प्रश्न 1.
कक्षा के अनेक छात्रों को उपर्युक्त खंड स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आया। छात्रों ने निम्नलिखित बातें कहीं। इस बारे में आपकी क्या राय है ?
(क) संविधान किसी भी अन्य कानून की तरह ही होता है। उससे हमें सरकार के कामकाज के पीछे काम करने वाले नियमों और कानूनों के विषय में जानकारी मिलती है।
(ख) संविधान जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होता है। अतः संविधान में एक ऐसा उपबंध किया जाना चाहिए ताकि उसे 10 या 15 वर्षों के बाद बदला जा सके।
(ग) संविधान किसी देश के दर्शन को बयान करता है। उसे कभी नहीं बदला जा सकता।
(घ) संविधान एक पावन दस्तावेज होता है, इसलिए इसे बदलने की बात करना लोकतंत्र का विरोध करना है।
उत्तर:
(क) संविधान सिर्फ एक कानून ही नहीं होता है बल्कि संविधान एक व्यापक दस्तावेज है जिसमें अनेकों कानून एवं उनकी व्याख्या समाहित रहती है। इसमें हमें सरकार के कामकाज के पीछे काम करने वाले नियमों और कानूनों के विषय में जानकारी ही नहीं मिलती अपितु यह हर एक संस्था का कार्य-निर्धारण भी करता है।
(ख) यह कहना सही है कि संविधान जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होता है, परन्तु यह उपबन्ध करना ठीक नहीं होगा कि उसे 10 या 15 वर्षों बाद बदला जाये। समय के साथ बदलाव जरूरी है, पर यह जरूरी नहीं है कि यह बदलाव 10 या 15 वर्षों बाद ही आये। ये बदलाव उससे पहले या बाद में भी हो सकते हैं।
(ग) संविधान किसी देश के दर्शन को बयान करता है। यह कहना गलत होगा कि उसे कभी नहीं बदला जा सकता। उसे समय की जरूरतों के हिसाब से बदला जा सकता है।
(घ) संविधान एक पावन दस्तावेज जरूर है, लेकिन हम ऐसा नहीं कह सकते कि इसे बदलने की बात करना लोकतंत्र का विरोध करना है। लोकतत्र का आधार सार्थक भागीदारी है और यह तभी संभव है जब समय के साथ इसमें बदलाव होता रहे।
प्रश्न 2.
मुझे यह बात समझ नहीं आती कि कोई संविधान लचीला या कठोर कैसे होता है ? क्या संविधान की कठोरता या उसका लचीलापन उस काल की राजनीति में तय नहीं होता ?
उत्तर:
संविधान में लचीलेपन का अर्थ परिवर्तनों के प्रति खुला दृष्टिकोण रखने से है और कठोरता का अर्थ अनावश्यक परिवर्तनों से बचने से है। लचीला संविधान वह होता है जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके और जिन संविधानों में संशोधन करना बहुत मुश्किल होता है, ऐसे संविधानों को कठोर कहा जाता है। जैसे कि हमारा संविधान, इसमें कुछ संशोधन तो साधारण बहुमत से कर दिये जाते हैं। यह हमारे संविधान के लचीलेपन का उदाहरण है, पर अन्य कुछ संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत एवं राज्य विधान मण्डलों की आवश्यकता पड़ती है। यह हमारे संविधान की कठोरता का उदाहरण है। संविधान की कठोरता या उसका लचीलापन उस काल की राजनीति के अतिरिक्त उस काल की आर्थिक, सामाजिक व ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से भी तय होता है।
प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में निम्नलिखित संशोधन करने के लिए कौन-कौन सी शर्ते पूरी की जानी चाहिए ?
(अ) नागरिकता सम्बन्धी अनुच्छेद,
(ब) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
(स) केन्द्र सूची में परिवर्तन,
(द) राज्य की सीमाओं में बदलाव
(व) चुनाव आयोग से सम्बन्धित उपबन्ध।
उत्तर:
(अ) नागरिकता सम्बन्धी अनुच्छेद-संसद के दोनों सदनों का अलग-अलग सामान्य बहुमत की शर्त।
(ब) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार-विशेष बहुमत की शर्त।
(स) केन्द्र सूची में परिवर्तन-विशेष बहुमत + राज्यों द्वारा अनुमोदन।
(द) राज्य की सीमाओं में बदलाव-सामान्य बहुमत
(व) चुनाव आयोग से सम्बन्धित उपबंध-विशेष बहुमत + राज्यों द्वारा अनुमोदन।
प्रश्न 4.
हमारे संविधान में इतनी बार संशोधन क्यों किए गए ? क्या हमारे समाज या हमारे संविधान में कुछ समस्या है ?
उत्तर:
12 जनवरी, 2019 तक भारतीय संविधान में 103 संशोधन किए जा चुके थे। संविधान संशोधन की कठोरता की दृष्टि से संशोधन की यह संख्या बहुत बड़ी कही जा सकती है। इन संशोधनों के पीछे केवल राजनीतिक सोच ही प्रमुख नहीं रही है बल्कि ये संशोधन समय की आवश्यकता के अनुसार किए गए हैं। हमारे समाज या संविधान में कुछ समस्याएँ तो हैं ही, पर संशोधन में इनका कोई हाथ नहीं।
प्रश्न 5.
मुझे बात अब भी समझ नहीं आ रही है। लिखित संविधान में अलग-अलग व्याख्याओं की क्या जरूरत है ? क्या लोग संविधान में अपनी इच्छाओं को मूर्त होते देखना चाहते हैं ?
उत्तर:
लिखित संविधान में अलग-अलग व्याख्याएँ करना लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अहम् लक्षण है। विभिन्न संस्थायें समय और परिस्थिति को देखते हुए अपने-अपने तरीके से संविधान की व्याख्या करती हैं, जिससे कभी-कभी टकराव की स्थिति भी पैदा । हो जाती है। लोग संविधान में अपनी इच्छाओं को मूर्त होते देखना तो चाहते हैं, पर यह सब कानून के दायरे में होना चाहिए।
प्रश्न 6.
अच्छा ! तो, सारा मामला राजनीति से जुड़ा है। क्या मैं यही बात नहीं कह रही थी कि संविधान और संशोधन के मसले कानून के बजाय राजनीति से ज्यादा सम्बन्धित हैं ?
उत्तर:
जो भी दल सत्तारूढ़ होता है वह राजनीति से प्रेरित होता है। वह भविष्य में अपनी राजनीतिक स्थिरता कायम रखने के लिये संविधान में यथोचित संशोधन करना चाहता है, ताकि उसकी सर्वोच्चता बरकरार रह सके। इसलिए हम कह सकते हैं कि संविधान और संशोधन के मसले कानून के बजाय राजनीति से ज्यादा सम्बन्धित हैं।
प्रश्न 7.
अच्छा ! तो आखिरी फैसला न्यायपालिका के हाथ में होता है। क्या इसे भी न्यायिक सक्रियता कहा जा सकता है ?
उत्तर:
संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के बारे में केवल न्यायपालिका का फैसला अंतिम होगा। अगर न्यायपालिका को लगता है कि संविधान की मूल संरचना अथवा बुनियादी तत्वों का उल्लंघन हो रहा है तो ऐसे विषयों को न्यायपालिका संज्ञान में ले सकती है और इसे न्यायिक सक्रियता कहा जा सकता है।
प्रश्न 8.
बताएँ कि निम्नलिखित वाक्य सही हैं या गलत ?
(क) बुनियादी ढाँचे को लेकर दिये गये फैसले के बाद, संसद को संविधान में संशोधन अधिकार नहीं रह गया है।
(ख) सर्वोच्च न्यायालय ने हमारे संविधान के बुनियादी तत्वों की एक सूची तैयार की है। इस सूची को बदला नहीं जा सकता।
(ग) न्यायालय को इस बात का फैसला करने का अधिकार है कि किसी संशोधन से बुनियादी संरचना का उल्लंघन होता है या नहीं।
(घ) केशवानंद भारतीय मामले के बाद यह तय हो चुका है कि संसद संविधान में किस सीमा तक संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(क) गलत
(ख) गलत
(ग) सही
(घ) सही।
प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य सही हैसंविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है, क्योंकि
(क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
(ख) किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता है।
(ग) हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए।
(घ) संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिम्बत होना चाहिए।
उत्तर:
(क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएँ।
(क) राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
(ख) संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
(ग) न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परन्तु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
(घ) संसद संविधान के किसी भी खण्ड में संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(क) सही
(ख) गलत
(ग) सही
(घ) सही।
प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया में भूमिका निभाते हैं ? इस प्रक्रिया में वे कैसे शामिल होते हैं ?
(क) मतदाता
(ख) भारत का राष्ट्रपति
(ग) राज्य की विधान सभाएँ
(घ) संसद
(ङ) राज्यपाल
(च) न्यायपालिका।
उत्तर:
(क) मतदाता-मतदाता लोकसभा व विधानसभाओं में अपने चुने हुए प्रतिनिधि भेजता है। ये चुने हुए प्रतिनिधि ही मतदाता की राय को संसद या विधानसभा में व्यक्त करते हैं। इसलिए अप्रत्यक्ष रूप से मतदाता ही संविधान संशोधन में भाग लेता है।
(ख) भारत का राष्ट्रपति- भारत का राष्ट्रपति संविधान संशोधन में भाग लेता है। संविधान संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति उस पर अपने हस्ताक्षर कर देता है। राष्ट्रपति किसी भी संशोधन विधेयक को संसद को वापस भेजने का अधिकार नहीं रखता है।
(ग) राज्य की विधान सभाएँ- राज्य की विधानसभाएँ संविधान के कुछ विशेष अनुच्छेद में संशोधन करने के लिए भाग लेती हैं। इस प्रकार के अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए जहाँ संसद के दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है वहीं कम से कम आधे राज्य विधानमंडलों के समर्थन की भी आवश्यकता होती है।
(घ) संसद- भारतीय संविधान में संशोधन करने हेतु सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका, संसद द्वारा निभाई जाती है। जब संसद के दोनों सदन संविधान संशोधन विधेयक को पारित कर देते हैं, तभी वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जा सकता है।
(ङ) राज्यपाल-संविधान के जिन अनुच्छेदों में सशोधन के लिए राज्य विधानमण्डलों की आवश्यकता होती है, वहाँ राज्यपाल की भूमिका भी पाई जाती हैं। विधानमंडल द्वारा पारित संविधान संशोधन राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेजे जाते हैं।
(च) न्यायपालिका- संविधान संशोधन में न्यायपालिका प्रत्यक्ष तौर पर सम्मिलित नहीं होती परन्तु वह संशोधन की समीक्षा कर सकती हैं।
प्रश्न 4.
इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42वाँ संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे ?
(क) यह संशोधन राष्ट्रीय आपात्काल के दौरान किया गया था। आपात्काल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
(ख) यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
(ग) इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
(घ) संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।
उत्तर:
(क) यह संशोधन राष्ट्रीय आपात्काल के दौरान किया गया था। आपात्काल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
(घ) संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में कौन-सा वाक्य विभिन्न संशोधनों के संबंध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता
(क) संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
(ख) खंडन-मंडन/बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
(ग) कुछ नियमों और सिद्धान्तों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्याख्या की गई है।
(घ) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
(ङ) न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।
उत्तर:
(घ) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
प्रश्न 6.
बुनियादी ढाँचे के सिद्धान्त के बारे में सही वाक्य को चिह्नित करें। गलत वाक्य को सही करें।
(क) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
(ख) बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिका संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
(ग) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढाँचे के अन्तर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
(घ) यह सिद्धान्त सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
(ङ) इस सिद्धान्त से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी बुनियादी ढाँचे के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर:
बुनियादी ढाँचे के सिद्धान्त के बारे में (ख), (ग), (घ) व (ङ) वाक्य सही हैं तथा (क) वाक्य गलत है। (क) वाक्य का सही रूप है।
संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा नहीं किया गया है।
प्रश्न 7.
सन् 2000-2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर आप निम्नलिखित में से कौन-सा निष्कर्ष निकालेंगे
(क) इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
(ख) इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
(घ) इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं रह गया था।
(ङ) ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर:
सन् 2000-2003 के बीच हुए संविधान संशोधनों में न्यायपालिका द्वारा हस्तक्षेप नहीं हुआ। ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
प्रश्न 8.
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है ? व्याख्या करें।
उत्तर:
संविधान संशोधन प्रक्रिया को कठिन बनाने के लिए विशेष बहुमत का प्रावधान रखा गया है, जिससे संशोधन की सुविधा का दुरुपयोग न किया जा सके।
(1) संविधान की कुछ व्यवस्थाएँ ऐसी हैं जिनमें संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है; जैसे-मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्व आदि। जिनका सम्बन्ध भारत के सभी नागरिकों से है, अतः इनमें विशेष बहुमत की आवश्यकता है।
(2) कुछ संविधान संशोधन ऐसे हैं जिनमें संसद के विशिष्ट बहुमत के अनुमोदन से ही संशोधन की प्रक्रिया पूरी होती है और वह आवश्यक भी है क्योंकि उनका सम्बन्ध पूरे राष्ट्र से है अर्थात् उनसे पूरे राष्ट्र पर प्रभाव पड़ता है और राष्ट्र की व्यवस्था भी प्रभावित होती है। जैसे-राष्ट्रपति का निर्वाचन, उसके निर्वाचन की पद्धति, संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार, संघीय न्यायपालिका, उच्च न्यायालय, केन्द्रशासित क्षेत्रों के लिए उच्च न्यायालय, संघ तथा राज्यों के विधायी सम्बन्ध, संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व, संविधान संशोधन की प्रक्रिया से सम्बन्धित उपबन्ध जिनका उल्लेख अनुच्छेद 368 में किया गया है।
(3) लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में कोई भी संविधान का संशोधन ऐसा न हो जाय जिनमें केवल राजनीतिक पार्टी का स्वार्थ पूरा हो रहा हो और भविष्य में वह देश की व्यवस्था में बाधक तथा नागरिकों के अधिकारों को प्रभावित करता हो, इसका ध्यान रखा जाता है। अतः देश की व्यवस्था से जुड़े या नागरिकों के मौलिक अधिकारों से जुड़े संविधान संशोधनों के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता है, जिससे उसमें कोई कमी न रह जाय।
प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और संसद के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते रहे हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं। इस तरह के टकराव पैदा होने पर संसद को संशोधन का सहारा लेकर संविधान की किसी एक व्याख्या को प्रामाणिक सिद्ध करना पड़ता है। प्रजातन्त्र में विभिन्न संस्थाएँ संविधान और अपनी शक्तियों की अपने-अपने तरीके से व्याख्या करती हैं। यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था का एक अहम् लक्षण है। कई बार संसद इन न्यायिक व्याख्याओं से सहमत नहीं होती है और उसे संविधान में संशोधन करना पड़ता है।
1970 से 1975 के दौरान ऐसी अनेक परिस्थितियाँ पैदा हुईं। मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर संसद और न्यायपालिका के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते रहे हैं। इसी प्रकार निजी सम्पत्ति के अधिकार के दायरे तथा संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमा को लेकर भी दोनों के बीच विवाद उठते रहे हैं। 1970 से 1975 के काल में संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार-बार संशोधन किए, क्योंकि 1970-1975 के बीच भारतीय राजनीति में अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ घटी थीं। अतः हमारा संवैधानिक इतिहास पूरे तौर पर इस काल की राजनीति के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है।
प्रश्न 10.
अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं ? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर:
मैं इस बात से असहमत हूँ कि अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।" संविधान में संशोधन की शक्ति भले ही जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है फिर भी न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय देने का अधिकार निम्नलिखित कारणों की वजह से होना चाहिए
(1) न्यायपालिका संविधान की रक्षक और अभिभावक है। इस नाते प्रत्येक ऐसे कानून और प्रशासनिक आदेश को अवैध घोषित कर सकती है जो संविधान के उपबन्धों के विरुद्ध हो।
(2) न्यायपालिका को यह देखना है कि संशोधन संवैधानिक ढाँचे के अन्तर्गत किया गया है या नहीं तथा जनहित के उपाय विधिक सीमाओं के बाहर तो नहीं हैं। क्योंकि एक बार कानून की सीमाओं से बाहर जाने की छूट मिलने पर सत्ताधारी दुरुपयोग भी कर सकते हैं।
(3) न्यायालय का यह मानना है कि किसी दस्तावेज को पढ़ते समय हमें उसके निहितार्थ पर ध्यान देना चाहिए। कानून की भाषा की अपेक्षा उस कानून या दस्तावेज के पीछे काम करने वाली सामाजिक परिस्थितियाँ तथा अपेक्षाएँ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। इसलिए न्यायालय ने संविधान की मूल संरचना पर विशेष ध्यान दिया क्योंकि इसके बिना संविधान की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अत: न्यायपालिका को संविधान की वैधता पर निर्णय देने का अधिकार होना चाहिए।