Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Political Science Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
क्या इसका मतलब यह माना जाए कि हर संविधान का एक दर्शन होता है या सिर्फ कुछ ही संविधानों में दर्शन होता है ?
उत्तर:
प्रत्येक संविधान का अपना एक दर्शन होता है। जिस संविधान में दर्शन नहीं होता वह संविधान हो ही नहीं सकता। बिना दर्शन के संविधान उस प्राणी की तरह है जिसमें आत्मा नहीं है। संविधान के दर्शन में नैतिकता और आदर्शों के दृष्टिकोण निहित हैं । किसी भी राष्ट्र का संविधान एक सजीव-संवेदनशील अभिलेख होता है, जो नागरिकों के लक्ष्यों, प्राथमिकताओं तथा मूल्यों इत्यादि को प्रकट करता है। अतः संविधान के लिए एक नैतिक आधार की आवश्यकता होती है जो एक निश्चित राजनैतिक दर्शन तथा सोच द्वारा प्रदान किया जाता है।
प्रश्न 2.
क्या हम कह सकते हैं कि संविधान सभा के सदस्य सामाजिक बदलाव के लिए आतुर थे ? लेकिन, हम तो यह भी कहते हैं कि संविधान सभा में हर तरह के विचार रखे गए।
उत्तर:
संविधान सभा के सदस्य सामाजिक बदलाव के लिए आतुर नहीं थे। लेकिन अपनी दूरदर्शिता से उन्होंने भविष्य में होने वाले सामाजिक बदलाव को देख लिया था और इसी को दृष्टिगत रखते हुए सदस्यों ने संविधान की रूपरेखा तैयार की, जिससे कि भविष्य में दिक्कतें न आएँ। यह बिल्कुल सही है कि संविधान सभा ने उस काल की परिस्थितियों और भविष्य में आने वाली कठिनाइयों को देखते हुए हर तरह के विचार रखे थे।
प्रश्न 3.
यह कठिन है। हमें सीधे-सीधे क्यों नहीं बता दिया जाता कि इस संविधान का दर्शन क्या है ? यदि यह दर्शन ऐसे छुपा रहेगा तो आम नागरिक इसे कैसे समझेगा?
उत्तर:
यह सीधे-सीधे बताना बहुत कठिन है कि संविधान का दर्शन क्या है ? संविधान का निर्माण कुछ अवधारणाओं के आधार पर हुआ है। जैसे कि समानता, स्वतन्त्रता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, नैतिक मूल्य, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आदि। ये समस्त चीजें ही मिलकर संविधान के दर्शन का निर्माण करती हैं। यह दर्शन छुपा नहीं रहता है, पर आम नागरिक इसे पहचान नहीं पाता।
प्रश्न 4.
बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सा अधिकार वैयक्तिक स्वतंत्रता का अंश है ?
(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
(ख) धर्म की स्वतंत्रता
(ग) अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
(घ) सार्वजनिक स्थलों पर बराबरी की पहुँच।
उत्तर:
(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
प्रश्न 5.
मैं यह जानना चाहती हूँ कि आखिरकार, धर्म के मामलों का राज्य नियमन कर सकता है या नहीं ? इसके बिना, कोई धार्मिक सुधार नहीं हो सकता।
उत्तर:
भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य से आशय यह है कि राज्य न तो किसी धार्मिक संस्था की मदद करेगा और न ही उसे बाधा पहुँचाएगा। वह धर्म से एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखेगा। इसी प्रकार राज्य नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हुए धर्म को आधार नहीं बनाएगा। राज्य को व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए, चाहे उस व्यक्ति का धर्म कोई भी हो।
प्रश्न 1.
नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका सम्बन्ध किसी मूल्य से है ? यदि हाँ, तो वह अंतर्निहित मूल्य क्या हैं? कारण बताएँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा होगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(घ) 'बेगार' अथवा 'बँधुआ मजदूरी' नहीं कराई जा सकती।
उत्तर:
(क) यह कथन सामाजिक मूल्यों से सम्बन्धित है। इसमें लैंगिक समानता की बात की गयी है जो कि सामाजिक न्याय से सम्बधित है।
(ख) यह कथन आर्थिक न्याय के मूल्य से सम्बन्धित है क्योंकि इसमें उपभोक्ता के हितों की बात की गयी है।
(ग) यह कथन धर्म निरपेक्षता के मूल्य पर आधारित है क्योंकि इसमें उल्लेखित है कि किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(घ) यह कथन सामाजिक मूल्य से सम्बन्धित है क्योंकि यह कथन समाज में किसी भी वर्ग के शोषण को रोकने की बात करता
प्रश्न 2.
नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता है ? लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत.....
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतन्त्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी के लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो जाएँ।
(ङ) शान्तिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर:
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
प्रश्न 3.
संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं
(अ) इनमें से कौन-सा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहस आज भी प्रासंगिक है। कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।
(ब) इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों ?
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है। आम जनता . इन बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती।
(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है।
उत्तर:
(क) उक्त कथन आज भी प्रासंगिक है। क्योंकि बड़ी मात्रा में हमारे देश की जनसंख्या सुबह से शाम तक अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों से निपटारे में व्यस्त रहती है। उसे राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, न वह संविधान सभा की बहसों को समझती है और न वह कानूनी भाषा को जानती है अर्थात् देश की श्रमिक, कृषक तथा अनपढ़ जनता संविधान सभा की कानूनी भाषा को न तो समझ सकती है और न उन्हें उनमें रुचि है।
(ख) यह कथन प्रासंगिक है, क्योंकि संविधान निर्माण की परिस्थितियों और वर्तमान परिस्थितियों में अवश्य अंतर आया है तथा संविधान में भी कुछ परिवर्तन किये जा चुके हैं।
(ग) यह कथन प्रासंगिक है क्योंकि कुछ चुनौतियाँ और समस्याएँ संविधान निर्माण के समय में भी मौजूद थीं एवं अब भी हैं। उन समस्याओं के समाधान के लिए तब भी वैसे विचार दिए गए थे, जैसे अब दिए जा रहे हैं।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अंतर स्पष्ट करें
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख) अनुच्छेद 370 और 371
(ग) सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार।
उत्तर:
(क) धर्म निरपेक्षता की समझ-धर्म निरपेक्षता के सन्दर्भ में भारतीय संविधान एवं पश्चिमी अवधारणा में बहुत अंतर है। भारतीय संविधान में सभी धर्मों को बराबर माना गया है। यदि कोई व्यक्ति या संस्था किसी व्यक्ति के धार्मिक विषयों में हस्तक्षेप करती है तब राज्य उसे ऐसा करने से मना कर सकता है। परन्तु पश्चिमी अवधारणा में धर्म को व्यक्ति का निजी मामला माना गया है। राज्य उसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप या योगदान नहीं कर सकता।
(ख) अनुच्छेद 370 और 371- अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर राज्य को अस्थाई तौर पर विशेष दर्जा प्रदान करता था। जिसे अब समाप्त कर दिया गया है। वर्तमान में अनुच्छेद 370 का कोई अस्तित्व नहीं है। जबकि अनुच्छेद 371 पूर्वोत्तर के राज्यों विशेषकर नागालैण्ड, असम, अरूणचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम आदि से सम्बन्धित है। यह दर्जा उनकी जनजातिय संस्कृति को संरक्षण प्रदान करने पर केन्द्रित है। ऐसी असमानता पश्चिमी देशों में नहीं है।
(ग) सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन-भारतीय संविधान निर्माताओं ने सकारात्मक कार्य योजना के अन्तर्गत हमारे देश के मूल्यों, आदर्शों तथा विचारधाराओं के साथ संविधान का निर्माण किया। भारतीय संस्कृति को प्रकट करने वाली 'वसुधैव कुटुंबकम' की धारणा और अल्पसंख्यकों को प्रत्येक प्रकार की सुरक्षा प्रदान की गई है। परन्तु पश्चिमी धारणाओं में इस प्रकार के मूल्यों का प्रायः अभाव मिलता है।
(घ) सार्वमौम वयस्क मताधिकार- सार्वभौम वयस्क मताधिकार के आधार पर भी भारतीय संविधान एवं पश्चिमी अवधारणाओं में अंतर पाया जाता है। भारतीय संविधान में महिलाओं को प्रारम्भ से ही मताधिकार दिया गया था। परन्तु पश्चिमी देशों में महिलाओं को बहुत वर्षों बाद मताधिकार प्रदान किया गया।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धान्त भारत के संविधान में अपनाया गया है ?
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर:
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी। |
आधारभूत महत्व की उपलब्धि |
(ख) संविधान सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना। |
प्रक्रियागत उपलब्धि |
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्व को स्वीकार करना। |
लैंगिक न्याय की उपेक्षा |
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 |
उदारवादी व्यक्तिवाद |
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की सम्पत्ति में असमान अधिकार। |
धर्म विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना। |
उत्तर:
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी। |
उदारवादी व्यक्तिवाद |
(ख) संविधान सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना। |
प्रक्रियागत उपलब्धि |
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्व को स्वीकार करना। |
धर्म विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना। |
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 |
आधारभूत महत्व की उपलब्धि |
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की सम्पत्ति में असमान अधिकार। |
लैंगिक न्याय की उपेक्षा |
प्रश्न 7.
यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएं कि आप इनमें किससे सहमत हैं और क्यों ?
जयेश-मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज है। सबा-क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं, क्या मूल्यों और विचारों पर हम 'भारतीय' अथवा 'पश्चिमी' जैसा लेबल चिपका सकते हैं ? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें पश्चिमी' कहने जैसा क्या है ? और अगर ऐसा है भी तो क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें ? जयेश-मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई ? नेहा-तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहाँ से भी आई हो।
उत्तर:
उपरोक्त चर्चा के आधार पर हम सबा के विचारों से सहमत हैं। यद्यपि कई बार भारतीय संविधान की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि यह एक उधार का दस्तावेज है। परन्तु इसमें वास्तविकता नहीं है। क्योंकि भारतीय लोगों को कोई अनूठा या सबसे अलग संविधान नहीं चाहिए था बल्कि एक ऐसा संविधान चाहिए था जो भारतीय परम्पराओं, रीति-रिवाजों, मूल्यों और विचारों पर आधारित हो। इसके लिए हमें विश्व के अन्य संविधानों से जो भी अच्छी बातें लगीं वे ले ली गईं।
प्रश्न 8.
ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता है ? अपने उत्तर के कारण बताएँ।
उत्तर:
भारतीय संविधान की यह कहकर आलोचना की जाती है कि इसे बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी तथा यह भारतीय लोगों का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करता क्योंकि संविधान सभा भारतीय लोगों की प्रतिनिधि संस्था नहीं थीं। परन्तु इन आलोचनाओं को स्वीकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में जिन परिस्थितियों में संविधान सभा का निर्माण हुआ, उस समय वयस्क मताधिकार के आधार पर संविधान सभा का चुनाव हो ही नहीं सकता था। परन्तु यदि संविधान सभा का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर कराया जाता तब भी संविधान सभा की रचना, संभवत: वैसी ही रहती, जैसे कि थी। दूसरे जो विद्वान संविधान सभा के सदस्य थे, उनकी विद्वता के विषय में कोई भी सवाल उठाया नहीं जा सकता। तीसरे 1952 के प्रथम आम चुनावों में अधिकांशत: वही सदस्य चुने गए जो संविधान सभा के सदस्य थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि भारत का संविधान बनाने वाली संविधान सभा प्रतिनिधिमूलक संस्था थी।
प्रश्न 9.
भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक-न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे। यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते ?
उत्तर:
भारतीय संविधान के विषय में कहा जा सकता है कि जिन परिस्थितियों में इसका निर्माण हुआ, उसे देखते हुए यह बात स्वाभाविक है कि इसमें कुछ विवादास्पद मुद्दे रह गये हैं। अतः हमें स्वीकार करना चाहिए कि इस संविधान की कुछ सीमाएँ हैं। भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से लैंगिक न्याय का कोई उल्लेख नहीं है, इसी कारण समाज में अनेक रूपों से लैंगिक अन्याय दिखाई देता है। यद्यपि संविधान में मौलिक अधिकार के भाग में अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 में उल्लेख है कि लिंग के आधार पर कानून के समक्ष, सार्वजनिक स्थान पर व रोजगार के क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जाएगा।
राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों से महिलाओं के आर्थिक व सामाजिक अधिकारों की न्यायोचित व्यवस्था की गई है। समान कार्य के लिए समान वेतन की भी व्यवस्था है। यदि आज हम संविधान लिख रहे होते तो लैंगिक न्याय पर अधिक ध्यान देते। लैंगिक न्याय के जो प्रावधान नीति निर्देशक तत्वों में दिए गए हैं, उन्हें मौलिक अधिकारों की श्रेणी में सम्मिलित करते, परिवार की सम्पत्ति में महिलाओं और बच्चों को समान अधिकार दिये जाने का प्रावधान करते तथा महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करते।
प्रश्न 10.
क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि-'एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केन्द्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाय राज्य के नीति निर्देशक तत्वों वाले खण्ड में क्यों रख दिए गए, यह स्पष्ट नहीं है।" आप जानते हैं कि सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्व वाले खण्ड में रखने के क्या कारण रहे होंगे ? उत्तर-हाँ, हम इस कथन से सहमत हैं। लेकिन फिर भी यह समझा जा सकता है कि सामाजिक और आर्थिक अधिकारों जैसे अधिकारों को मौलिक अधिकारों में सम्मिलित न करके नीति निर्देशक वाले अध्याय में सम्मिलित करना संविधान निर्मात्री सभा के लोगों की एक उचित नीति हो सकती है क्योंकि भारत ने जब स्वतंत्रता प्राप्त की थी उस समय देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी।
इसलिए संविधान निर्माताओं ने सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों वाले अध्याय में सम्मिलित नहीं किया। यदि वे ऐसा करते तो प्रायः प्रत्येक नागरिक न्यायालय में जाकर आर्थिक और सामाजिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए सरकार को विवश कर सकता था। इससे सरकार को जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता और देश संकट में पड़ सकता था। इसी कारण इन सामाजिक आर्थिक अधिकारों को न्याय योग्य मौलिक अधिकारों में न रखकर नीति निर्देशक वाले अध्याय में रखा।
प्रश्न 11.
आपके विद्यालय ने 26 नवम्बर को संविधान दिवस कैसे मनाया?
उत्तर:
हमारे विद्यालय में 26 नवम्बर को संविधान दिवस का कार्यक्रम प्रार्थना सभा में मनाया गया। जिसमें प्रधानाचार्य जी ने संविधान निर्माण के विषय में जानकारी दी तथा संविधान की प्रस्तावना को सभी ने दोहराया। इसके बाद सभी ने संविधान को अक्षुण्ण बनाये रखने की शपथ ली।