RBSE Solutions for Class 11 Home Science Chapter 13 देखभाल तथा शिक्षा

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Home Science Chapter 13 देखभाल तथा शिक्षा Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Home Science Solutions Chapter 13 देखभाल तथा शिक्षा

RBSE Class 11 Home Science देखभाल तथा शिक्षा Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
शैशवावस्था तथा प्रारंभिक बाल्यावस्था को किसी व्यक्ति के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा निर्णायक अवधियाँ क्यों माना जाता है?
उत्तर:
शैशवावस्था तथा प्रारंभिक बाल्यावस्था की अवधियाँ कई तरह से किसी भी व्यक्ति के जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा निर्णायक होती हैं। यथा

1. सभी क्षेत्रों में विकास दर इन वर्षों में सर्वाधिक तीव्र होती है:
मस्तिष्क सभी क्षेत्रों में विकास को नियंत्रित करता है तथा मस्तिष्क के विकास की दर जीवन के प्रथम दो वर्षों में सर्वाधिक तीव्र होती हैं क्योंकि मस्तिष्क कोशिकाओं में अंतर्ग्रथनी संयोजन प्रथम दो वर्षों के दौरान अत्यधिक तीव्रता से विकसित होता है। ये संयोजन जितने अधिक होंगे, व्यक्ति की कार्यात्मक क्षमता उतनी ही बेहतर होगी। मस्तिष्क के विकास की तीव्र दर के कारण जीवन के प्रथम छ: वर्ष विकास के विभिन्न क्षेत्रों में निर्णायक होते हैं।

निर्णायक अवधि से तात्पर्य है कि वह अवधि जिसके दौरान किसी विशिष्ट क्षेत्र में विकास अनुकूल और प्रतिकूल अनुभवों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होता है। अनुकूल अनुभव जहाँ विकास को प्रेरित तथा संवर्धित करते हैं, वहीं प्रतिकूल अनुभव काफी सीमा तक विकास में बाधा डालते हैं। इस निर्णायक अवधि के दौरान प्रतिकूल अनुभवों को प्रभाव से बच्चे के विकास को हुई क्षति की क्षतिपूर्ति, कभी-कभी नहीं की जा सकती है, भले ही बाद में सकारात्मक अनुभव प्राप्त हो।
वंचन के प्रति इस संवेदनशीलता के कारण यह महत्वपूर्ण है कि बच्चे को हानिकारक अनुभवों का सामना कम से कम करना पड़े। इसलिए प्रारंभिक बाल्यावस्था के वर्षों कोकास की निर्णायक अवधियाँ कहा गया है। यद्यपि विकास तथा शिक्षा जीवनपर्यन्त चलते रहते हैं, तथापि कोई भी व्यक्ति इन विविध क्षमताओं, कौशलों तथा योग्यताओं को इतनी अल्पावधि में हासिल नहीं कर सकता जितना वह जीवन के प्रथम छ: वर्षों के दौरान कर लेता है।

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2. यह समय विशाल लचीलेपन का समय होता है:
यद्यपि प्रारंभिक बाल्यावस्था के वर्ष विकास की संवेदनशील अवधियाँ हैं जिनमें हानिकारक अनुभवों का स्थायी प्रभाव पड़ सकता है, तथापि ये वर्ष विशाल लचीलेपन के भी होते हैं। इन वर्षों में बच्चा स्थिति से सामन्जस्य बैठाने की अच्छी योग्यता प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार यदि बच्चे को आरंभिक वर्षों में प्रतिकूल अनुभव प्राप्त हुए हों तथा बाद में उसे अनुकूल अनुभव मिले हों तो वह थोड़े बहुत, नकारात्मक अनुभवों से उबर सकता है, यद्यपि इसमें कुछ कठिनाई हो सकती है।

3. प्रारंभिक बाल्यावस्था के अनुभव बाद के व्यवहार को निश्चित रूप प्रदान करते हैं:
प्रारंभिक बाल्यावस्था के अनुभव काफी हद तक बाद के व्यवहार को प्रभावित और निश्चित रूप प्रदान करते हैं। हमारी कई अभिवृत्तियाँ, सोचने के तरीकों तथा व्यवहार को जीवन के आरंभिक वर्षों के दौरान हुए अनुभवों के साथ जोड़ा जा सकता है।
उपुर्यक्त कारणों से शैशवावस्था तथा प्रारंभिक बाल्यावस्था को किसी व्यक्ति के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा निर्णायक अवधियाँ माना जाता है।

प्रश्न 2. 
विकास में 'संवेदी'/निर्णायक' अवधियों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
विकास में संवेदी/निर्णायक अवधि से हमारा तात्पर्य ऐसी अवधि से है जिसके दौरान किसी विशिष्ट क्षेत्र में विकास अनुकूल तथा प्रतिकूल अनुभवों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होता है।

अनुकूल अनुभव विकास को प्रेरित तथा संवर्धित कर सकते हैं। प्रतिकूल अनुभव, जैसे-पर्याप्त भोजन का अभाव, रहन-सहन की खराब स्थितियाँ, उचित स्वास्थ्य देखभाल का अभाव, बीमारी, स्नेह तथा पालन पोषण का अभाव, वयस्कों के साथ बातचीत का अभाव तथा प्रेरणादायी अनुभवों का अभाव काफी सीमा तक विकास में बाधा डाल सकते हैं।

इस निर्णायक अवधि के दौरान प्रतिकूल अनुभवों का प्रभाव कभी-कभी अपरिवर्तनीय होता है, अर्थात् बच्चे के विकास को हुई क्षति की क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती, भले ही बाद में सकारात्मक अनुभव प्राप्त हों।

वंचन के प्रति इस संवेदनशीलता के कारण यह महत्वपूर्ण है कि बच्चे को हानिकारक अनुभवों का सामना कम से कम करना पड़े। अतः प्रारंभिक बाल्यावस्था के वर्षों को विकास की निर्णायक अवधियाँ कहा गया है।

प्रश्न 3. 
हमें अपने देश में ई.सी.सी.ई. सेवाएँ प्रदान करने की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
ई.सी.सी.ई. सेवाएँ प्रदान करने की आवश्यकता-ई.सी.सी.ई. से अभिप्राय बच्चे की शारीरिक देखभाल, प्रोत्साहन तथा पालन-पोषण से है, जो बच्चे को उपलब्ध होने चाहिए। ई.सी.सी.ई. सेवाएँ शरीर-क्रियात्मक, सामाजिकभावनात्मक, संज्ञानात्मक तथा भाषा के क्षेत्रों के विकास में बच्चे की सहायता करती हैं। ये सेवाएँ शिशुगृहों तथा पूर्वविद्यालय केन्द्रों द्वारा प्रदान की जाती हैं जिन्हें विभिन्न नामों, जैसे-नर्सरी विद्यालय, किंडर गार्डन, प्ले स्कूल, आँगनबाड़ियाँ तथा बालवाड़ियाँ आदि से जाना जाता है।

ऐसे अनेक कारण हैं जिनकी वजह से बच्चों की संवृद्धि और विकास के लिए हमारे देश में इन सेवाओं की आवश्यकता होती है। यथा-

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1. बच्चों को संवृद्धि का इष्टतम माहौल प्रदान करने हेतु:
हमारे देश में सभी बच्चों को संवृद्धि का इष्टतम माहौल नहीं मिल पाता है। अनेक बच्चे गरीबी की उन परिस्थितियों में जीवन-यापन करते हैं, जहाँ उनकी भोजन, स्वास्थ्य तथा स्वच्छता की बुनियादी आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं होती। ऐसी स्थिति में ई.सी.सी.ई. सेवाएँ बच्चों की स्वास्थ्य तथा पोषण की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करने, 0-3 वर्ष के आयु वर्ग में बच्चों को आरंभिक प्रोत्साहन देने के साथ-साथ 3-6 वर्ष की आयु वर्ग में बच्चों को पूर्व-विद्यालयी शिक्षा प्रदान करने में सहायता कर सकती हैं।

2. महिलाओं का जीविका-उपार्जन के लिए घर से बाहर कार्य करना:
ई.सी.सी.ई. सेवाएं प्रदान करने का दूसरा कारण यह है कि सभी सामाजिक-आर्थिक स्तरों की काफी महिलाएँ जीविका उपार्जन हेतु घर से बाहर कार्य करती हैं। अत: कई घरों में बच्चों की देखभाल करने के लिए कोई नहीं होता और यदि परिवार के पास माँ के अतिरिक्त अन्य जो विकल्प उपलब्ध होते हैं, उनकी अपनी सीमाएँ होती हैं। जैसे

  1. घरेलू सेवक रखना एक महंगा विकल्प है।
  2. माता का अपने साथ अपने कार्यस्थल पर बच्चे को ले जाना तभी समुचित है जब वहाँ बच्चे के लिए शिशु देखभाल केन्द्र की सुविधाएँ उपलब्ध हों। यदि शिशु देखभाल केन्द्र की सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं, तो कार्यस्थल का माहौल बच्चे के लिए अनुचित या खतरनाक हो सकता है। हमारे देश की अनेक महिलाओं के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है कि वे अपने बच्चे को साथ ले जाएँ क्योंकि बच्चों की देखभाल के लिए पर्याप्त शिशु देखभाल केन्द्र नहीं
  3. दिन में बच्चे को किसी परिवार के किसी सदस्य के पास छोड़ना तभी संभव है जब घर में वयस्क व्यक्ति मौजूद हों। एकल परिवारों में सामान्यत: यह संभव नहीं हो पाता है।
  4. छोटे-भाई बहिन को किसी बड़े भाई-बहिन, सामान्यतः लड़की के पास छोड़ना ही ऐसा विकल्प है जिस पर निम्नतर सामाजिक-आर्थिक स्तर के अधिकांश परिवार निर्भर करते हैं। किंतु इससे बड़ा बच्चा विद्यालय जाने से वंचित रह जाता है।

अतः सर्वोच्च हित में एक मात्र विकल्प यही है कि बच्चे को शिशु देखभाल केन्द्र (ई.सी.सी.ई.) में बाल सुविधाएं उपलब्ध करायी जाएँ।

3. पर्याप्त खेल क्रियाकलाप तथा बच्चों का साहचर्य उपलब्ध होना:
चाहे परिवार का माहौल कितना ही अच्छा हो, उसमें बच्चे को वे पर्याप्त खेल क्रियाकलाप व बच्चों का साहचर्य उपलब्ध नहीं हो सकता, जिसकी व्यवस्था एक पाठशाला-पूर्व केन्द्र कर सकता है। इस केन्द्र में बच्चों को दूसरे बच्चों के साथ अन्तः क्रिया करने तथा सामूहिक क्रियाकलाप करने के अवसर प्राप्त होते हैं। इससे आदान-प्रदान, सहभागिता, एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने तथा सभी के लिए सहानुभूति एवं सामंजस्य के सार्वभौमिक मूल्यों का विकास करने का अवसर प्राप्त होता है।

4. ई.सी.सी.ई. कार्यक्रम द्वारा बच्चों को प्रदान किए जाने वाले लाभ:
ई.सी.सी.ई. सेवाएँ उपलब्ध कराने का एक अन्य कारण वे लाभ हैं जो इस कार्यक्रम द्वारा बच्चों को उपलब्ध कराये जाते हैं। जैसे-एक अच्छा ई.सी.सी.ई. कार्यक्रम बच्चों को अकादमिक (शैक्षणिक) तथा सामाजिक तैयारी, दोनों के संदर्भ में प्राथमिक विद्यालय के लिए तैयार करने में सहायता करता है। यहाँ विद्यालय जाने वाले बच्चों के लिए आवश्यक कौशलों का विकास करके औपचारिक रूप से विद्यालय जाने के लिए बच्चों को तैयार किया जाता है। इसके अतिरिक्त यहाँ मिल बाँटना, आदान-प्रदान करना, समय सारणी का अनुसरण करना तथा नये माहौल ढालना आदि की तैयारी कर दी जाती है।

5. स्वस्थ एवं समृद्धकारी माहौल:
ई.सी.सी.ई. कार्यक्रमों में निवेश करने का एक अन्य प्रमुख कारण हैप्रत्येक मनुष्य को एक स्वस्थ तथा समृद्धकारी माहौल में बढ़ने तथा रहने का अधिकार है ताकि वह अपनी पूर्ण सामर्थ्य को हासिल कर सके।

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प्रश्न 4. 
बच्चे की मूल आवश्यकताओं का उदाहरण सहित वर्णन करें। इन मूल आवश्यकताओं को पूरा करना क्यों आवश्यक है? 
उत्तर:
बच्चे की मूल आवश्यकताएँ बच्चे की मूल आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं

1. शारीरिक देखभाल की आवश्यकता:
शिशु तथा पूर्व-विद्यालय छात्र को जीवित रहने के लिए, वृद्धि तथा विकास के लिए सुरक्षा, भोजन तथा स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की आवश्यकता होती है। उसके विकास के लिए सबसे पहले ये आवश्यक है। बालक की उद्दीपन तथा पालन-पोषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए यह भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।

जब बच्चे में कोई अक्षमता होती है, तब बच्चे की असमर्थता को ध्यान में रखते हुए उसकी शारीरिक देखभाल की आवश्यकता को पूरा करना अति आवश्यक हो जाता है।

2. प्रोत्साहन की आवश्यकता:
बच्चे अपने जीवन के आरंभिक दिनों से ही जिज्ञासु होते हैं तथा वे अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाओं के साथ परस्पर क्रिया करने तथा उनका आशय जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। उन्हें वस्तुओं की खोजबीन करने तथा उनका पता लगाने में मजा आता है। यह उनका सीखने का तरीका है तथा जीवन की किसी भी अवस्था में अन्वेषण के प्रति उत्कंठा इतनी तीव्र नहीं होती जितनी प्रारंभिक वर्षों में होती है।

जब हम शिशु के साथ खेलते हैं, गाते हैं तथा उनके साथ बातचीत करते हैं तो हम उसे सोचने, तर्क करने तथा अपने आस-पास के संसार को समझने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इस प्रकार प्रोत्साहन का अर्थ बच्चे को ऐसे विविध अनुभव उपलब्ध कराना है जो उसके लिए सार्थक हैं तथा उसकी परिपक्वता की स्थिति के अनुरूप हैं। ऐसे अनुभवों के माध्यम से बच्चे अपने आस-पास की वस्तुओं तथा लोगों के बारे में सीखते हैं तथा अनुभवों का अर्थ समझते हैं। इस प्रकार बच्चे विश्व के बारे में जानकारी ग्रहण करते हैं तथा अपनी समझ निर्मित करते हैं। अपने लिए वस्तुओं का अन्वेषण करना तथा उनकी खोज करना इष्टतम संज्ञानात्मक विकास के लिए एक पूर्वापेक्षा है। समझ निर्मित करने से आशय यह है कि बच्चे सक्रिय सहभागिता द्वारा खुद की समझ सृजित करते हैं। बच्चों को जो पूर्ण अर्थ लगता है उसमें उनके एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचने पर नि:संदेह परिवर्तन आएंगे तथा उन्हें नये तथा चुनौतीपूर्ण अनुभवों से परिचित होने के लिए वयस्क लोगों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है।

3. पालन पोषण की आवश्यकता: 
वयस्क व्यक्तियों द्वारा बच्चों को प्रदान किया जाने वाला स्नेह तथा पालन पोषण समस्त विकास का आधार है। इसके अभाव में बच्चा अपने आपको भावनात्मक रूप से सुरक्षित महसूस नहीं करेगा तथा ऐसे बच्चे में आत्मविश्वास की तथा आत्मसम्मान की कमी हो सकती है जिससे सभी क्षेत्रों में उसका विकास बाधित हो सकता है। बच्चा जब अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है तथा अपने देखभालकर्ताओं के साथ उसका विश्वासपूर्ण संबंध होता है तो वह अपेक्षाकृत अधिक अन्वेषण करता है और इसी के फलस्वरूप अधिक सीखता है।

बच्चे की उक्त सभी मूल आवश्यकताओं की एक साथ पूर्ति किया जाना उसके एक साथ इष्टतम विकास के लिए आवश्यक है क्योंकि सभी क्षेत्रों में होने वाले विकास परस्पर संबंधित होते हैं। एक क्षेत्र में होने वाला विकास सभी अन्य क्षेत्रों के विकास को प्रभावित करता है तथा उनके विकास से प्रभावित भी होता है। विकास के किसी एक पक्ष से संबंधित अभाव अन्य पक्षों को प्रभावित करता है।

प्रश्न 5. 
"प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल तथा शिक्षा" शब्दों का अर्थ स्पष्ट करें। ई.सी.सी.ई. सेवाओं के माध्यम से बच्चे की मूल आवश्यकताओं की पति किस प्रकार होती है?
उत्तर:
प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल तथा शिक्षा-प्रारंभिक वर्षों में शारीरिक, संज्ञानात्मक, भाषायी तथा सामाजिक भावनात्मक विकास के अत्यधिक परस्पर-संबद्ध स्वरूप के कारण हम देखभाल तथा शिक्षा दोनों को एक साथ मिलाकर 'प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल तथा शिक्षा' (ई.सी.सी.ई.) कहते हैं। इसका अभिप्राय बच्चे की शारीरिक देखभाल, प्रोत्साहन तथा पालन-पोषण से है, जो बच्चे को उपलब्ध होना चाहिए। इस शिक्षा का अभिप्राय उन अनुभवों से है जो शारीरिक क्रियात्मक, सामाजिक भावनात्मक, संज्ञानात्मक तथा भाषा के क्षेत्रों में विकास में बच्चे की सहायता करते हैं।

ई.सी.सी.ई. सेवाओं के माध्यम से बच्चे की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति-ई.सी.सी.ई. सेवाओं के माध्यम से बच्चे की मूल आवश्यकताओं-

  • शारीरिक देखभाल 
  • प्रोत्साहन तथा 
  • पालन

पोषण की एक साथ पूर्ति किया जाना उसके एक साथ इष्टतम विकास के लिए आवश्यक है। इसका कारण यह है कि सभी क्षेत्रों में होने वाले विकास परस्पर संबंधित होते हैं, विशेषकर आरंभिक बाल्यावस्था के वर्षों में। दूसरे शब्दों में, एक क्षेत्र में होने वाला विकास सभी अन्य क्षेत्रों के विकास को प्रभावित करता है तथा उनके विकास से प्रभावित भी होता है। विकास के किस एक पहलू से संबंधित अभाव अन्य पहलुओं को प्रभावित करता है। ई.सी.सी.ई.सेवाओं के माध्यम से बच्चे की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति निम्न प्रकार की जाती है

  1. ई.सी.सी.ई. सेवाएं बच्चों की स्वास्थ्य एवं पोषण की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करने, 0-3 वर्ष के आयु वर्ग में बच्चों को आरंभिक प्रोत्साहन देने के साथ-साथ 3-6 वर्ष के आयु वर्ग में बच्चों को पूर्व-विद्यालय शिक्षा प्रदान करने में सहायता करती हैं।
  2. एक पाठशाला पूर्व केन्द्र में, बच्चों को एक-दूसरे के साथ अन्तः क्रिया करने तथा सामूहिक क्रिया-कलाप करने के अवसर प्राप्त होते हैं। इससे आदान-प्रदान, सहभागिता, एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने तथा सभी के लिए सहानुभूति तथा सामंजस्य के सार्वभौमिक मूल्यों का विकास करने का अवसर प्राप्त होता है।
  3. ई.सी.सी.ई. कार्यक्रम बच्चों को शैक्षणिक एवं सामाजिक तैयारी दोनों के संदर्भ में प्राथमिक विद्यालय के लिए तैयार करने में सहायता करते हैं। ये कार्यक्रम विद्यालय जाने वाले बच्चों के लिए आवश्यक कौशलों का विकास करके औपचारिक रूप से विद्यालय जाने के लिए बच्चों को तैयार करते हैं।
  4. ई.सी.सी.ई. सेवाएँ बच्चों को एक स्वस्थ तथा समृद्धकारी माहौल में बढ़ने तथा रहने का अवसर देते हैं।

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प्रश्न 6.
हमारे देश में प्रारंभिक शिक्षा को सार्वभौमिक न कर पाने के क्या कारण हैं?
उत्तर:
हमारे देश में प्रारंभिक शिक्षा को सार्वभौमिक न कर पाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. निम्न सामाजिक: आर्थिक स्तर वाले परिवार-हमारे देश में निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर वाले अनेक परिवारों में सभी व्यक्तियों को जीविकोपार्जन में सहायता करने की आवश्यकता होती है। अत: जैसे ही बच्चे समर्थ होते हैं, उन्हें या तो परिवार के आय-सृजन के क्रियाकलाप में लगा दिया जाता है, या वे घर के कार्यों में सहायता करते हैं।

2. विद्यालय की ग्रीष्मकालीन/शीतकालीन छुट्टियाँ कृषि मौसमों के साथ मेल नहीं खाती: यदि बच्चे विद्यालय में नामांकित होते भी हैं, तो उन्हें फसल कटाई के समय या बुआई की अवधि के दौरान स्कूल से निकाल लिया जाता है क्योंकि उनकी सेवाओं की घर में आवश्यकता होती है। ऐसा इसलिए होता है कि विद्यालय की ग्रीष्मकालीन/शीतकालीन छुट्टियाँ कृषि के मौसमों के साथ मेल नहीं खाती।

3. पाठ्यचर्या बच्चे की वास्तविकता से अलग: विद्यालय में पाठ्यचर्या बच्चे की वास्तविकता से काफी अलग होती है और इसलिए बच्चे को वह सार्थक प्रतीत नहीं होती। कई बार पढ़ाए जाने वाले पाठ बच्चे के अनुभवों के साथ मेल नहीं खाते या संबंधित नहीं होते तथा वे विविध भौगोलिक तथा सांस्कृतिक प्रचलनों में रहने वाले समुदायों के मुद्दों तथा चिंताओं को प्रतिबिंबित नहीं करते। अपनी वर्तमान अथवा भावी जिंदगी के लिए शिक्षा को सुसंगत न पाने के कारण बच्चे विद्यालय बीच में छोड़ देते हैं या उन्हें परिवार द्वारा विद्यालय से निकाल लिया जाता है।

4. विद्यालयों की खराब अवसंरचना या दूरी: विद्यालयों में खराब अवसंरचना, उदाहरणार्थ अपर्याप्त शौचालय सुविधाएँ तथा दूरवर्ती स्थल भी स्कूलों की उपस्थिति में बाधा डालते हैं।

5. अक्षम बच्चे: अनेक अक्षम बच्चे विभिन्न कारणों से विद्यालय नहीं जा पाते। इनमें से मुख्य कारण यह है कि हमारे देश के विद्यालयों में अक्षम बच्चों की विशेष आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए व्यवस्था नहीं है तथा इसलिए वे उन्हें प्रवेश देने में हिचकते हैं।

यद्यपि हमारे देश में अक्षम बच्चों के लिए विशेष विद्यालय हैं, तथापि आवश्यकता की तुलना में इनकी संख्या बहुत कम है तथा ये अधिकांशतः शहरी क्षेत्रों में ही स्थित हैं।

इन सब कारणों से हमारे देश में शिक्षा का सार्वभौमीकरण नहीं हो पाया है।

प्रश्न 7. 
सर्व शिक्षा अभियान क्या है?
उत्तर:
सर्व शिक्षा अभियान-सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के लिए एक अभियान विधि अपनाई है जिसके माध्यम से यह प्राथमिक विद्यालय में बच्चों का नामांकन करवाने तथा उन्हें विद्यालय में पढ़ाई जारी रखने के लिए समायोजित तथा सतत प्रयास कर रही है। इस अभियान का नाम ही 'सर्व शिक्षा अभियान' है। इसके तहत बालिकाओं को विद्यालय में दाखिल करने के लिए विशेष प्रोत्साहन दिए जा रहे हैं तथा विशेष प्रयास किये जा रहे हैं क्योंकि अक्सर उन्हें ही घर का काम करने अथवा छोटे बच्चों की देखभाल के लिए घर में रहना पड़ता है।

Raju
Last Updated on Aug. 10, 2022, 4:18 p.m.
Published Aug. 10, 2022