RBSE Solutions for Class 11 Home Science Chapter 11 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Home Science Chapter 11 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Home Science Solutions Chapter 11 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास

RBSE Class 11 Home Science उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास Textbook Questions and Answers

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न 

प्रश्न 1. 
वृद्धि तथा विकास के बीच अंतर बताइए। उदाहरण देते हुए विकास के विभिन्न क्षेत्रों की परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
वृद्धि तथा विकास के बीच अन्तर-वृद्धि तथा विकास के बीच प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं

  1. वृद्धि का सम्बन्ध आकार या परिमाण से है, अर्थात् ऐसा भौतिक परिवर्तन जिन्हें मापा जा सकता है जबकि विकास का सम्बन्ध गुणवत्ता से है।
  2. वजन, लम्बाई तथा आंतरिक अंगों के आकार में बढ़ोतरी वृद्धि है। लेकिन आकार में वृद्धि के साथ-साथ अंगों के स्वरूप तथा संरचना में जो परिवर्तन होता है तथा उनके कार्य में जो बदलाव आता है, उसे विकास कहते हैं।
  3. वृद्धि का सम्बन्ध मुख्यत: शारीरिक परिवर्तनों से है, जबकि विकास एक साथ अनेक आयामों में होता है अर्थात् विकास बहुमुखी होता है। अतः समय के साथ-साथ शारीरिक संरचनाओं, मनोवैज्ञानिक लक्षणों, व्यवहारों, सोचने के तरीकों तथा जीवन की मांग के अनुसार स्वयं को ढालने की सुव्यवस्थित पद्धतियों के रूप में हम विकास को परिभाषित कर सकते हैं।
  4. वृद्धि एक निश्चित अवधि के पश्चात् रुक जाती है, जबकि विकास एक सतत् प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त चलता रहता है।
  5. वृद्धि से संरचना परिवर्तन का बोध होता है, जबकि विकास से प्रकार्यों में परिवर्तन का बोध होता है।

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विकास के विभिन्न क्षेत्रों की परिभाषा

विकास के विभिन्न क्षेत्र निम्नलिखित हैं

1. शारीरिक विकास: शारीरिक विकास का सम्बन्ध गर्भधारण के समय से लेकर आगे तक शरीर की संरचना तथा अनुपात में भौतिक परिवर्तनों से है।

2. क्रियात्मक विकास: क्रियात्मक विकास का सम्बन्ध शारीरिक गतिविधियों पर नियंत्रण से है, जिसके कारण शरीर के विभिन्न भागों के बीच समन्वय बेहतर होता जाता है।

गतिविधियों पर नियंत्रण का अर्थ शरीर की पेशियों की गतिविधि पर नियंत्रण है। यह दो प्रकार का होता है-

  • स्थूल और 
  • सूक्ष्म।

स्थूल का सम्बन्ध शरीर की बड़ी मांसपेशियों की गतिविधियों पर नियंत्रण से है, जैसे-कंधे, जांघों, ऊपरी भुजा, निम्न भुजा, उदर तथा पीठ की पेशियों की गतिविधियाँ । इस नियंत्रण के परिणामस्वरूप हम बैठ सकते हैं, झुक सकते हैं, चल सकते हैं आदि। सूक्ष्म का सम्बन्ध शरीर की छोटी पेशियों-कलाई, अंगुलियां, अंगूठे आदि की पेशियों पर नियंत्रण से है। इस नियंत्रण के परिणामस्वरूप हम लिख सकते हैं, सिलाई, बुनाई कर सकते हैं आदि।

3. संवेदनात्मक विकास: संवेदनात्मक विकास का सम्बन्ध देखने, सुनने, सूंघने, स्पर्श करने तथा स्वाद महसूस करने की संवेदी क्षमताओं के विकास से है।

4. संज्ञानात्मक विकास: संज्ञानात्मक विकास का सम्बन्ध बच्चों के जन्म से लेकर सोचने-विचारने की क्षमताओं के प्रकट होने तक से है।

जैसे-जैसे व्यक्ति की आयु बढ़ती है, उसके सोचने-विचारने के तरीकों में गुणात्मक अन्तर आता जाता है। उदाहरण के लिए शिशु ऐसे व्यवहार करता है जैसे उसकी आँखों से ओझल वस्तु का कोई अस्तित्व ही नहीं है। किन्तु वही शिशु डेढ़-दो वर्ष की आयु में सब समझने लगता है, चाहे वस्तु उसकी आँखों से ओझल हो या सामने।

5. भाषा सम्बन्धी विकास: भाषा सम्बन्धी विकास का संबंध उन परिवर्तनों से है जो शिशु को (जो जन्म के समय केवल रो ही सकता था) दूसरों की भाषा समझने तथा जटिल वाक्यों को बोलने में समर्थ बनाते हैं।

6. सामाजिक विकास: सामाजिक विकास का सम्बन्ध उन योग्यताओं के विकास से है जो किसी व्यक्ति को समाज की प्रत्याशाओं के अनुरूप व्यवहार करने, लोगों के साथ सम्बन्धों का निर्माण करने तथा उन्हें कायम रखने में समर्थ बनाती हैं।

7. भावनात्मक विकास: भावनात्मक विकास का सम्बन्ध भावनाओं के उभरने तथा उन्हें व्यक्त करने के, समाज स्वीकृत तौर-तरीके सीखने से है।

8. व्यक्तिगत विकास: व्यक्तिगत विकास का सम्बन्ध स्वयं से है। इसमें उसके अपने विचार का विकास शामिल है कि वह कौन है? उसके पास कौनसे व्यक्तिगत गुण तथा कौशल हैं तथा अपने भविष्य के लिए उसकी क्या आकांक्षाएँ हैं?

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प्रश्न 2. 
बच्चे के जन्म के समय से लेकर उसके किशोरावस्था को पूर्ण करने तक बच्चे की स्वस्थ वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए किन स्थितियों तथा संसाधनों की आवश्यकता होती है? .
उत्तर:
सामान्य वृद्धि स्वास्थ्य का एक अच्छा द्योतक है। किन्तु सामान्य वृद्धि अपने आप में अच्छे स्वास्थ्य के पूर्वानुमान के लिए पर्याप्त नहीं है। बच्चे की स्वस्थ वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक संसाधनों तथा स्थितियों की आवश्यकता होती है। यथा

1. एक प्रेरणादायक वातावरण:
बच्चे की स्वस्थ वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए एक प्रेरणादायक वातावरण की आवश्यकता होती है। इसमें बच्चों को पर्याप्त स्तनपान की व्यवस्था, सुरक्षित स्वच्छ स्वास्थ्यकर वातावरण (उनके स्वास्थ्य की उचित देखभाल) तथा धूम्रपान एवं मद्यपान जैसी आदतों से माताओं का परहेज भी शामिल किया जा सकता है।

2. स्वास्थ्यकारी वातावरण:
जीवन के पहले पाँच वर्षों में सभी बच्चे बहुत समान रूप से बढ़ते हैं। इस अवस्था में जब शरीर विज्ञान सम्बन्धी उनकी आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं और वातावरण उनके स्वास्थ्यकारी विकास के लिए प्रोत्साहन देता है।

पर्यावरणीय आक्रमणों के कारण, जैसे-संक्रमणों या रोगों से ग्रस्त होने अथवा पर्याप्त मात्रा में स्वास्थ्यकर आहार न मिलने पर वृद्धि में व्यवधान या धीमापन आ जाता है। अतः स्पष्ट है कि बच्चे की स्वस्थ वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए, पर्यावरणीय संक्रमणों या रोगों से ग्रस्त होने से रोकने के लिए स्वास्थ्यकारी वातावरण का होना आवश्यक है।

3. शैक्षिक तथा भौतिक प्रेरणा:
बच्चे की स्वस्थ वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त मात्रा में स्वास्थ्यकर आहार मिलना भी आवश्यक है। पोषण युक्त भोजन न मिलने से भी बच्चे की वृद्धि रुक जाती है। इसके अतिरिक्त बच्चे की स्वस्थ वृद्धि के लिए परिवार में शैक्षिक प्रेरणाओं का होना भी आवश्यक है। भारत में यह पाया गया है कि समृद्ध परिवारों के बच्चों की वृद्धि विकसित देशों के बच्चों के समान होती है, खासकर तब, जब उनके माता-पिता शिक्षित हों।

प्रश्न 3. 
क्या आप यह कह सकते हैं कि नवजात शिशु असहाय होता है? अपने उत्तर के समर्थन में कारण बताइए।
उत्तर:
नवजात शिशु: नवजात शिशु शब्द का प्रयोग हाल ही में जन्मे बच्चे के जीवन के प्रथम माह के संदर्भ में होता है।

हमारी प्रवृत्ति नवजात शिशुओं को असहाय समझने की है क्योंकि वे पूर्णतया वयस्कों पर निर्भर होते हैं, परन्तु यह भी सत्य है कि उनमें अनेक ऐसी क्षमताएँ होती हैं जो उन्हें अपने आस-पास के परिवेश के अनुरूप स्वयं को अनुकूलित करने में सहायता करती हैं। वे उससे कहीं अधिक सचेत होते हैं जितना कि हम कल्पना करते हैं। यथा

(क) प्रतिवर्ती क्रियाएँ:
नवजात शिशुओं में जन्म के समय ही कुछ प्रतिवर्ती क्रियायें होती है जो उन्हें उस समय तक जीवित रहने तथा उसे अनुकूलित करने में सहायता करती है जब तक कि उनकी क्रियात्मक क्षमताओं का विकास नहीं हो जाता। ये प्रतिवर्ती क्रियायें वे साधारण, अनसीखी क्रियायें हैं जो कुछ प्रकार के उद्दीपनों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। वे बिना सोच-विचार के स्वतः ही घटित हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई चीज आपकी आँख का स्पर्श करती है तो आप आँख का संरक्षण करने के लिए स्वतः ही पलक को झपका लेते हैं। नवजात शिशु में इसके अतिरिक्त अन्य प्रतिवर्त होते हैं-चूषण प्रतिवर्त जो दुग्धपान में सहायता करता है, निष्कासन प्रतिवर्त जो मूत्र त्याग और मल त्याग में सहायता करता है।

(ख) संवेदनात्मक क्षमताएँ:
शिशु के जन्म के समय सबसे अधिक विकसित संवेदांग दृष्टि होती है। नवजात शिशु प्रकाश व अंधेरे के बीच भेद कर सकता है तथा सक्रियतापूर्वक प्रकाश की खोज करता है। वे किसी गतिशील वस्तु का पीछा अपनी आँखों से कर सकते हैं।

  • दूसरे, नवजात शिशु ध्वनि के प्रति अनुक्रिया करते हैं तथा किसी अन्य ध्वनि की अपेक्षा वे मानव ध्वनि के प्रति सर्वाधिक अनुक्रियाशील होते हैं।
  • तीसरे, वे मूल स्वादों-मीठा, खट्टा, नमकीन तथा कड़वा के बीच अन्तर कर सकते हैं। 
  • चौथे, स्पर्श के प्रति भी वे अनुक्रियाशील होते हैं। 
  • पाँचवें, वे सुगंध एवं दुर्गन्ध के बीच अपना चेहरा दुर्गन्ध से परे हटाकर अनुक्रिया दर्शाते हैं। 
  • छठे, वे अपनी देखभाल करने वालों से बातचीत करना पसंद करते हैं।
  • सातवें, वे रोकर अपनी आवश्यकताओं को बताने की चेष्टा करते हैं। वह भूख लगना, गुस्सा आना, दर्द होना आदि के लिए भिन्न प्रकार से रोता है।

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प्रश्न 4. 
जन्म से लेकर दस वर्ष की आयु तक के क्रियात्मक विकास के क्रम का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जन्म से लेकर दस वर्ष की आयु तक का क्रियात्मक विकास क्रम

आयु

वे अपना सिर उठा सकते हैं।

1 माह

वे पेट के बल लेटे हुए अपनी छाती ऊपर उठा सकते हैं।

2 माह

सिर उठाकर टिकाना शुरू कर देना। 

3 माह

पीठ से पेट के बल तथा पेट से पीठ के बल उल्टा-सीधा हो सकता है। 

4 से 6 माह

वह किसी सहायता से या सहारे से बैठ सकता है। वह बिना सहायता के बैठ सकता है।

6 से 8 माह

घुटनों के बल चलना या किसी के सहारे खड़े होना।

8-9 माह

बैठने की स्थिति से उठकर खड़ा होना।

10-11 माह

चलना तथा भागना।

12-18 माह

किसी का हाथ पकड़कर दोनों पैर प्रत्येक सीढ़ी पर रखते हुए सीढ़ियाँ चढ़ना।

18-24 माह

उल्टा चलना, फिसलकर नीचे खिसकना, सीढ़ियाँ चढ़ना, कम ऊँचाई वाले स्थान से नीचे छलांग लगाना।

2 वर्ष

एक पैर पर संतुलन करना, बड़ी गेंद को ठोकर मारना, गेंद फेंकना तथा पकड़ना।

3 वर्ष

एक-एक पैर रखकर किसी सहारे को पकड़कर सीढ़ी पर ऊपर की ओर चढ़ना 13.

3-4 वर्ष

उछल-कूद करना तथा तिपहिया साइकिल को पैडल मार कर चलाना। 14.

5 वर्ष

भलीभाँति समन्वित ढंग से कूदना, छलांग लगाना तथा चढ़ना। 15.

6 वर्ष

संतुलन बनाना तथा दुपहिया साइकिल को पैडल मार कर चलाना। 16.

7 वर्ष

संतुलन, समन्वय तथा शक्ति का आना तथा विभिन्न खेलों हेतु सक्षम होना।

8-10 वर्ष

वे अपना सिर उठा सकते हैं।

 

प्रश्न 5. 
स्पष्ट करें कि शिशु के जन्म के प्रथम वर्ष में अपनी देखभाल करने वालों के साथ लगाव किस प्रकार विकसित होता है?
उत्तर:
पहले दिन से ही शिशु ऐसे व्यवहारों का प्रदर्शन करता है जो देखभाल करने वालों को भावात्मक अनुक्रिया करने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही देखभाल करने वाले व्यक्ति ऐसे विशिष्ट व्यवहार प्रदर्शित करते हैं जिनसे शिशु उनकी ओर आकृष्ट होते हैं। इस प्रकार दोनों के व्यवहार उन्हें एक-दूसरे के साथ बातचीत करने तथा लगाव विकसित करने में सहायता करते हैं। शिशु जन्म के प्रथम वर्ष में अपनी देखभाल करने वालों के साथ निम्न प्रकार लगाव विकसित करता है

  1. देखभाल करने वालों के साथ शिशु का शारीरिक सम्पर्क रहता है। वे उसे गोद में उठाते हैं और आनंदित होते हैं। दूसरी तरफ शिशुओं को शारीरिक सम्पर्क की अंतर्जात आवश्यकता होती है। जब देखभाल करने वाले बच्चे को उठाते हैं तो वे उसकी इस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
  2. वयस्क व्यक्ति शिशुओं से बातचीत में एक विशेष प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। ऐसी भाषा शिशु को प्रसन्न करती है तथा वह अपनी आवाज में, कू कू करके या तुतला कर, जवाब देता है।
  3. हम शिशु को देखकर मुस्कुराते हैं तथा हमें मुस्कुराता देखकर शिशु भी मुस्कुराता है।
  4. देखभाल करने वाले शिशु को निरंतर देखना पसंद करते हैं जिससे देखभाल करने वाले और शिशु के बीच एक संचार स्थापित हो जाता है।
  5. शिशु से बातचीत करते समय देखभाल करने वाले अपने चेहरे पर कुछ हाव-भाव लाते हैं, जो शिशु को विभिन्न भावात्मक अभिव्यक्तियों में अन्तर करना सीखने में सहायता करता है।
  6. देखभाल करने वाले शिशु के साथ परस्पर क्रिया करते समय अनेक लयात्मक क्रियायें भी करते हैं जो बच्चे को सुखद लगती हैं, जैसे-झूला झुलाना, हिलाना, डुलाना आदि।
  7. देखभाल करने वाले उसके थोड़ा बड़ा होने पर शिशु के साथ सरल खेल, जैसे-लुकाछिपी, भी खेलते हैं। 
  8. देखभाल करने वालों के संचार की अनुक्रिया में शिशु भी सामाजिक सम्पर्क बनाने के लिए व्यवहार आरंभ करते हैं। ये व्यवहार दिन में कई बार दुहराये जाते हैं। वे शिशु को बार-बार पोषण प्रदान करते हैं, नहलाते हैं, कपड़े बदलते हैं, उसे सहलाते और पुचकारते हैं। यह सब उन दोनों के बीच लगाव के एक बंधन को विकसित करता है। सामान्यत: यह लगाव शिशु का माता के साथ सबसे पहले होता है।

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प्रश्न 6. 
अनुशासन निर्माण में शक्ति-उन्मुखी तथा स्नेह-उन्मुखी दृष्टिकोण के बीच अन्तर बताइए। आपकी राय में, बेहतर दृष्टिकोण कौनसा है और क्यों?
उत्तर:
माता-पिता द्वारा प्रयुक्त अनुशासनात्मक तकनीकों की किस्म के आधार पर बच्चे की लालन-पालन की प्रक्रियाओं का वर्गीकरण स्नेह-उन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण तथा शक्ति-उन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण के रूप में किया जाता है।

यथा

1. स्नेह-उन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण: कुछ माता-पिता अपने बच्चे को अनुशासित करने के लिए बच्चों को उनके कार्यों के परिणाम समझाते हैं तथा उनके साथ तर्क करते हैं ताकि वे उनको अनुपयुक्त कार्य करने से रोक सकें । वे अपने अनुशासन में कठोर होते हुए भी बच्चे के साथ स्नेहमय तथा कोमल व्यवहार करते हैं। इसे स्नेह-उन्मुखी दृष्टिकोण कहा जाता है।

2. शक्ति: उन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण-कुछ माता-पिता, अपने बच्चों को कोई कारण बताए बिना उन्हें किसी विशिष्ट तरीके से व्यवहार करने से रोकने के लिए आदेश देते हैं। वे बच्चों को धमका भी सकते हैं तथा शारीरिक दंड का प्रयोग करते हैं। इसे शक्ति-उन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण कहा जाता है।

हमारी राय में बेहतर दृष्टिकोण स्नेह-उन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण है क्योंकि बच्चे को अनुशासित करने में यह दण्ड का सहारा न लेकर स्नेह और स्पष्टीकरण का सहारा लेता है, जो बच्चे पर दण्ड की अपेक्षा अधिक प्रभाव डालता है। यह प्रणाली बच्चे के सर्वतोन्मुखी व्यक्तित्व को आकार देने में योगदान देती है।

प्रश्न 7. 
बच्चे के लालन-पालन की उन प्रक्रियाओं का वर्णन कीजिए जो बच्चों के सर्वतोन्मुखी विकास में योगदान देती हैं।
उत्तर:
माता-पिता अपने बच्चे का लालन-पालन किस प्रकार करते हैं, इस बात का बच्चों के व्यक्तित्व पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है। हम सब उसी प्रकार व्यवहार करना सीखते हैं जैसा हमारे समाज में उपयुक्त माना जाता है। यह हम अपने माता-पिता तथा अपने आस-पड़ोस के लोगों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कहने पर अथवा अप्रत्यक्ष रूप से दूसरों को उस तरीके से व्यवहार करते हुए देखने के परिणाम स्वरूप सीखते हैं।

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बच्चे के लालन-पालन में अभिभावक 'उत्साह' तथा 'उपेक्षा' की प्रक्रियाओं द्वारा, या 'प्रतिबंधात्मक या अनुमतिदाता' की प्रक्रियाओं द्वारा करते हैं। इसी प्रकार वे अनुशासन हेतु शक्ति-उन्मुखी या स्नेह-उन्मुखी दृष्टिकोण अपनाते हैं।

1. सामान्यतः हम कह सकते हैं कि बच्चों के सर्वतोन्मुखी विकास हेतु माता-पिता को चाहिए कि वे जिन गुणों को बच्चों में डालना चाहते हैं, पहले वे स्वयं उन्हें अपने आचरण में अपनाएँ।

2. दूसरे, जो माता: पिता अपने बच्चे को अनुशासित करने के लिए बच्चों को उनके कार्यों के परिणाम समझाते हैं और स्नेह से अनुचित व्यवहार को रोकने हेतु तार्किकता का सहारा लेते हैं तथा बच्चे के साथ स्नेहमय तथा कोमल व्यवहार करते हैं तथा दण्ड का व्यवहार नहीं करते हैं, वे अधिक सफल होते हैं।

तीसरे, जो माता-पिता केवल थोड़े से नियम लगाते हैं तथा अपने बच्चों को अक्सर अपने निर्णय स्वयं करने की अनुमति देते हैं, वे अपने बच्चों के सर्वतोन्मुखी विकास में योगदान देते हैं।

इससे स्पष्ट होता है कि उत्साहवर्द्धक, अनुमतिदाता तथा स्नेहमुखी अनुशासन का दृष्टिकोण अपनाने वाले अभिभावक बच्चे के लालन-पालन द्वारा उसके सर्वतोन्मुखी व्यक्तित्व के विकास में योगदान देते हैं।

प्रश्न 8. 
संज्ञानात्मक विकास के निम्नलिखित चरणों में से प्रत्येक की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें
(i) संवेदी क्रियात्मक चरण 
(ii) पूर्व प्रचालनात्मक चरण 
(ii) ठोस प्रचालनात्मक चरण 
(iv) औपचारिक प्रचालन चरण। 
उत्तर:
(i) संवेदी क्रियात्मक चरण 

संवेदी क्रियात्मक चरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. विकास का यह चरण जन्म से लेकर दो वर्ष की आयु तक रहता है।
  2. इस चरण में शिशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से तथा अपनी क्रियात्मक क्षमताओं (क्रियाओं) के माध्यम से परिवेश को समझने का प्रयास करते हैं। इसीलिए इसे विकास की संवेदी क्रियात्मक अवधि कहा जाता है।
  3. बच्चे में चूषण प्रतिवर्त सहित अनेक प्रतिवर्त, जैसे-ध्वनि, स्पर्श, गंध, दृष्टि आदि।
  4. दो माह का होने पर शिशु अपने आस-पास की वस्तुओं में रुचि प्रकट करने लगता है। तीन माह की आयु में वह दूसरों की

क्रियाओं के संकेत समझने लगता है। 4-8 माह की आयु में वह अपनी क्रियाओं के प्रभावों को समझने लगता है। 8-12 माह की आयु के बीच शिशु जानबूझ कर क्रियायें करता है तथा यह जानने लगता है कि कौनसी क्रिया किस विशिष्ट स्थिति में उपयुक्त होगी। 12-18 माह की आयु के बीच वह कार्य करने के विभिन्न तरीकों का प्रयास करता है और 18-24 माह की आयु के बीच शिशु मानसिक रूप से घटनाओं, वस्तुओं तथा लोगों को स्मरण करने लगता है। इसे मानसिक निरूपण की स्थिति कहा जाता है।

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(ii) पूर्व-प्रचालनात्मक चरण बच्चे के ज्ञानात्मक विकास के पूर्व-प्रचालनात्मक चरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. 2-7 वर्ष-पूर्व-प्रचालनात्मक चरण की अवधि 2 से 7 वर्ष तक की आयु की है।
  2. प्रारंभिक संकल्पनाएँ बनाना-इस अवधि के दौरान बच्चा प्रारंभिक संकल्पनाएँ विकसित करना आरंभ कर देता है। वह उस प्रत्येक वस्तु की जिसे वह अपने परिवेश में देखता है, आरंभिक संकल्पनाएँ बना लेता है।
  3. संरक्षण बनाए रखना-किसी पदार्थ की मात्रा समान रहती है, भले ही इसके आकार में परिवर्तित कर दिया जाये। इसे संरक्षण बनाए रखने का विचार कहते हैं। बच्चा अभी अपने इस विचार को बनाए नहीं रख पाता। तथापि यह भी सत्य है कि बच्चा परिचित स्थितियों में अपने विचार को बनाए रख सकता है किन्तु अपरिचित स्थितियों में बनाए नहीं रख सकता। लेकिन जैसे-जैसे वह 6-7 वर्ष की आयु का होने लगता है, वह इस विचार को बनाए रखने में समर्थ हो जाता है।
  4. क्रमांकन-इसका अभिप्राय है-वस्तुओं को क्रमानुसार रखने का कार्य करना। उदाहरण के लिए उल्टे क्रम में विभिन्न आकारों की पाँच पेंसिलों को व्यवस्थित करना है तो इस आयु का शिशु तीन पेंसिल सही क्रम में रख सकता है। चौथी पेंसिल के बारे में संदेहपूर्ण होगा तथा पाँचवीं पेंसिल के सम्बन्ध में विफल रहेगा।
  5.  किसी अन्य व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य को समझना-इस अवस्था में बच्चा स्थिति के एक ही पहलू पर ध्यान केन्द्रित करता है तथा किसी अन्य व्यक्ति के नजरिए से वस्तुओं को देख या समझ नहीं सकता। बच्चे के सोच की इस विशेषता को अहम् संकेन्द्रण कहा जाता है। लेकिन 7वें वर्ष तक बच्चा स्थिति को किसी अन्य व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से समझने में समर्थ हो जाता है।
  6. जीववाद-इस अवस्था में बच्चे यह समझते हैं कि प्रत्येक वस्तु में जीवन होता है। इसे जीववाद कहते हैं।

(iii) ठोस प्रचालनात्मक चरण बच्चे के ज्ञानात्मक विकास के ठोस प्रचालनात्मक चरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. 7-11 वर्ष-यह अवस्था 7 वर्ष से 11 वर्ष तक की आयु की अवस्था है।
  2. बहुआयामों पर ध्यान केन्द्रण-बच्चा अब मानसिक रूप से कार्यों को प्रतिवर्तित कर सकता है तथा वह एक ही समय में समस्या के बहुत आयामों या पहलुओं पर खुद को केन्द्रित कर सकता है। वह किसी भी स्थिति में, किसी भी सामग्री के साथ संरक्षण या क्रमांकन कर सकता है।
  3. कम अहम् केन्द्रित-इस अवस्था में बच्चे कम अहम् केन्द्रित होते हैं। वे यह देखते हैं कि विभिन्न लोग विभिन्न स्थितियों तथा विभिन्न मूल्यों के समुच्च्य के कारण एक ही घटना को अलग-अलग तरीके से अवलोकित कर सकते हैं।
  4. स्थिर संख्या संकल्पना का विकास-इस अवधि के दौरान, बच्चा एक स्थिर संख्या संकल्पना का विकास करता है। वह यह समझ सकता है कि किसी विशिष्ट संख्या से कितनी मात्रा कही गई है तथा वह गिनती में गलतियाँ नहीं करता। वह यह समझ सकता है कि श्रेणियों के विकास के लिए निर्धारित मानदण्ड के आधार पर कोई विशिष्ट वस्तु अनेक श्रेणियों से संबंधित हो सकती है। उनके विचार क्रमबद्ध और तर्कयुक्त हो जाते हैं । वे वर्गीकरण कर सकते हैं तथा सोच-विचार कर सकते हैं।

(iv) औपचारिक प्रचालनों का चरण औपचारिक प्रचालनों के चरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. 11-18 वर्ष-बच्चा इस चरण में 11-12 वर्ष की आयु में प्रवेश करता है। इस अवस्था में वह एक किशोर बन जाता है।
  2. विचारों के रूप में सोचने की क्षमता का विकास-इस अवस्था में किशोर की अमूर्त रूप में (विचारों के रूप में) सोच सकने की क्षमता का विकास हो जाता है तथा वह अनेक संभावनाओं के बारे में विचार कर सकता है। इस क्षमता के कारण किशोर कल्पना के संसार की खोज कर लेता है। प्राक्काल्पनिक सोच के कारण किशोर विस्तृत कल्पनाओं में डूब जाते हैं जिनमें संसार को बदल देने के विचार शामिल होते हैं। उनकी सोच आदर्शवादी तथा कल्पनालोक की होती
  3. तर्कपूर्ण सोच-किशोरों की सोच अधिक तर्कपूर्ण हो जाती है और उनकी उक्तियाँ अधिक प्रणालीबद्ध हो जाती हैं।
  4. प्रभावी ढंग से समस्याओं का समाधान-वे समस्याओं का समाधान अधिक प्रभावी ढंग से करने लगते हैं। वे प्रणालीबद्ध ढंग से उनका समाधान ढूंढते हैं।
  5. अधि-सोच-किशोर अपने स्वयं के विचारों की जाँच करने में अधिक सक्षम हो जाते हैं तथा सोच के बारे में विचार करते हैं-इसे अधि-सोच कहा जाता है।
  6. काल्पनिक श्रोता समूह का सृजन-काल्पनिक श्रोता समूह से तात्पर्य यह है कि किशोर यह मानते हैं कि दूसरे हमेशा उन्हें ही देखते रहते हैं तथा मानते हैं कि वे उनकी प्रत्येक क्रिया तथा कार्य का अवलोकन कर रहे हैं। इससे किशोर अपनी शारीरिक उपस्थित के बारे में चिंतित हो जाते हैं। इस प्रकार किशोर एक काल्पनिक श्रोता समूह का सृजन कर लेते हैं तथा अपने बारे में व्यक्तिगत चोला ओढ़ लेते हैं कि वह दूसरों से भिन्न हैं, अद्वितीय हैं। 

अपनी इन्हीं सोच सम्बन्धी योग्यताओं के परिणामस्वरूप किशोर पहचान के संकट से गुजरता है।

Raju
Last Updated on Aug. 10, 2022, 1:02 p.m.
Published Aug. 10, 2022