Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Home Science Chapter 10 विविध संदर्भो में सरोकार और आवश्यकताएँ Textbook Exercise Questions and Answers.
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अभ्यास
प्रश्न 1.
निम्नलिखित वेबसाइटें देखें और कक्षा में उनके बारे में चर्चा करें.
उत्तर:
छात्र/छात्राएं स्वयं करें।
प्रश्न 2.
कम से कम 5-6 प्रमुख सूचकों की पहचान करें जिन्हें आप स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण समझते हैं और देखें कि विश्व में विभिन्न देशों में भारत किस दर्जे पर है।
अथवा
ग्रामीण छात्रों के लिए विकल्प-अपने गाँव में छोटे बच्चों की दो माताओं से साक्षात्कार करें। हर माता से पूछे कि पिछले एक वर्ष में उसके बच्चे को कितनी बार अतिसार हुआ है। माताओं द्वारा बताए गए कारणों पर अपनी टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण 5-6 सूचक निम्नलिखित हैं
1. जीवन प्रत्याशा:
यह जनसंख्या स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए महत्वपूर्ण मात्रक है, जो कि शिशु और बाल मृत्यु दर की संकीर्ण मात्रक की तुलना में अधिक व्यापक है। जीवन प्रत्याशा के अन्तर्गत संपूर्ण जीवन की मृत्यु दर शामिल होती है। यह हमें जनसंख्या में मृत्यु की औसत आयु बताती है। अनुमानतः आधुनिक युग के प्रारंभिक दौर में, जब संसार संपन्न नहीं था, दुनिया के सभी क्षेत्रों में जीवन प्रत्याशा लगभग 30 वर्ष थी, परंतु ज्ञान युग के आगमन से जीवन प्रत्याशा तेजी से बढ़ी है। भारत में जन्म के बाद जीवन प्रत्याशा में निरंतर सुधार आता जा रहा है। जहाँ सन् 1969 में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 47 वर्ष थी वहीं अब सन् 1919 में 69 वर्ष है।
2. शिशु मृत्यु दर:
यह एक वर्ष से कम आयु के समूह में मानव शिशु की मृत्यु का माप है। यह एक समुदाय के समग्र शारीरिक स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण संकेतक है। यह प्रति 1000 जीवित जन्मों में एक वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु संख्या होती है। 30 मई, 2019 को जारी नवीनतम सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भारत ने अपनी शिशु मृत्यु दर को पिछले 11 सालों में 47 प्रतिशत घटा दिया है: 2006 में 57 प्रति 1000 जीवित जन्मों से 2018 में 30 प्रति 1000 तक।
3. मातृ मृत्यु अनुपात:
यह एक निश्चित समय अवधि के दौरान मातृ मृत्यु की संख्या का अनुपात है जो एक ही समय अवधि के दौरान प्रति 1000000 जीवित जन्मों में होता है।
भारत की मातृ मृत्यु अनुपात में 2014: 2016 में 130 प्रति एक लाख जीवित जन्मों की तुलना में 20152017 में 122 प्रति 1 लाख जीवित जन्मों में गिरावट देखी गई है। नवीनतम जारी 2015: 2017 बुलेटिन के अनुसार, इस अवधि के दौरान 8 अंक (6.15%) की गिरावट देखी गई है।
4. कुल प्रजनन दर:
इसे कभी: कभी प्रजनन दर, पूर्ण/संभावित मृत्यु दर, अवधि कुल प्रजनन दर (पी.टी.एफ.आर.) या आबादी की कुल अवधि प्रजनन दर (टी.पी.एफ.आर.) भी कहा जाता है। यह उन बच्चों की औसत संख्या है जो अपने जीवनकाल में एक महिला से जन्म लेंगे। कुल प्रजनन दर (टी.एफ.आर.) एक आबादी के लिए सभी आयुनिर्धारित जन्म दर को जोड़ने और पाँच से गुणा करने की गणना है। 2019 में भारत के लिए प्रजनन दर प्रति महिला 2.220 जन्म, 2018 से 0.89 प्रतिशत की गिरावट थी।
5. अशक्तता:
कोई भी ऐसी निरंतर स्थिति अशक्तता कहलाती है जो हमारी रोजमर्रा की गतिविधियों को प्रतिबंधित करती है। विकलांगता सेवा अधिनियम (1993) एक विकलांगता के रूप में अशक्तता को निम्न परिभाषित करता है जो एक बौद्धिक, मानसिक, संज्ञानात्मक, न्यूरोलॉजिकल, संवेदी या शारीरिक हानि या उन दोषों के संयोजन के कारण होता है।
आँकड़ों के अनुसार, भारत में कुल मिलाकर 2.21 प्रतिशत आबादी में एक या दूसरी तरह की अशक्तता पायी जाती है। इसका अभिप्राय है कि लगभग 2.68 करोड़ लोग विकलांग हैं।
6. कपोषण:
यह एक ऐसी स्थिति है जो कि ऐसे आहार को खाने से होता है जिसमें एक या अधिक पोषक तत्व या तो पर्याप्त नहीं होते हैं या फिर काफी हद तक ऐसे होते हैं कि आहार स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनता
भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की कुल मृत्यु का 69 प्रतिशत कुपोषण के कारण होता है। यूनिसेफ के अनुसार, इस आयु वर्ग में हर दूसरा बच्चा किसी न किसी रूप में कुपोषण से प्रभावित है।
विश्व में भारत की स्वास्थ्य स्थिति।
भारत ने वैश्विक स्वास्थ्य सेवा पहुंच और गुणवत्ता (एच.ए.क्यू.) सूचकांक में अपने दर्जे में काफी सुधार किया है, जो कि 1990 में 153 से 2016 में 145 हो गई। तथापि पड़ोसी बांग्लादेश और यहाँ तक कि उप: सहारा राष्ट्र सूडान और एक्वेटोरियल गिन्नी की तुलना में कम ही है।
सन् 2016 में, भारत ने मेडिकल जर्नल 'द लेंसेट' में प्रकाशित 'ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी' द्वारा बनाए गए 'हेल्थकेयर एक्सेस एंड क्वालिटी' (HAQ) इंडेक्स पर 41.2 अंक बनाए। 26 वर्षों में 165 अंकों का यह सुधार भारत के अंकों को 54A के वैश्विक औसत से कम ही रखता है।
स्वास्थ्य सेवा पहुँच और गुणवत्ता में सुधार के बावजूद, भारत HAQ सूचकांक में अपने ब्रिक्स साथियों ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका से पीछे है लेकिन राज्यों के बीच स्वास्थ्य सेवा की पहुंच और गुणवत्ता में असमानता हेतु चीन से मेल खाता है। यह सूचकांक प्रभावी चिकित्सा देखभाल के साथ रोके जाने वाले मृत्यु के 32 कारणों पर आधारित रहा। यह 195 देशों और क्षेत्रों में से प्रत्येक के लिए100 का अंक प्रदान करता है। पहली बार इस वर्ष के अध्ययन में सात देशों; ब्राजील, चीन, इंग्लैंड, भारत, जापान, मैक्सिको और संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्तर्गत क्षेत्रों के बीच स्वास्थ्य सेवा पहुँच और गुणवत्ता का विश्लेषण किया गया। इस सूचकांक में भारत अपने पड़ोसी देशों बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान से कमतर है. जबकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नेपाल से बेहतर
भारत की स्थिति उप: सहारा अफीका में कई गरीब देशों की तुलना में भी खराब रही, जैसे: सूडान (136) एक्वेटोरियल गिन्नी (129), बोत्सवाना (122) और नामीबिया (137)। यहाँ तक कि संघर्षग्रस्त यमन (140) ने भी बेहतर प्रदर्शन किया। ___ अध्ययन के अनुसार, स्वास्थ्य सेवा पहुँच और गुणवत्ता (एच.ए.क्यू.) सूचकांक में किसी भी देश की स्थिति को कई कारक प्रभावित करते हैं, जैसे: स्वास्थ्य सुविधाओं की भौतिक पहुँच में बड़े बदलाव, स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की स्थिति, चिकित्सा प्रौद्योगिकियों का स्तर और पैमाना, और देखभाल के क्षेत्र में प्रभावी सेवाओं का प्रबंधन आदि।
अथवा
छात्र/छात्राएँ स्वयं करें।
प्रश्न 3.
स्वास्थ्य के बहुत से आयाम हैं। स्वास्थ्य समस्याओं की रोकथाम, अच्छे स्वास्थ्य के संवर्द्धन और चिकित्सकीय सेवाओं सहित इस तरह के विभिन्न व्यवसायों में संलग्न लोगों की सूची बनाएँ जो स्वास्थ्य व पोषण के लिए सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं।
उत्तर:
स्वास्थ्य के आयाम: हम स्वास्थ्य को पूर्ण शारीरिक, सामाजिक और मानसिक तंदुरुस्ती की स्थिति के रूप में करते हैं. न कि केवल बीमारी या दुर्बलता के अभाव के रूप में। इस परिभाषा द्वारा स्पष्ट होता है कि स्वास्थ्य के मुख्यतः तीन आयाम हैं शारीरिक, मानसिक और सामाजिक, जो कि परस्पर जड़े हुए हैं और एक: दूसरे को अधिकाधिक प्रभावित करते हैं। इन तीन मुख्य स्वास्थ्य आयामों के अतिरिक्त कुछ अन्य आयाम भी हैं जो कि व्यक्ति के स्वास्थ्य की बेहतरी में अमूल्य योगदान देते हैं, जैसे: भावनात्मक, आध्यात्मिक, पर्यावरणीय, व्यावसायिक और बौद्धिक आयाम।
उपर्युक्त क्षेत्रों में अनेकानेक व्यवसाय निरंतर संचालित हैं जिनमें असंख्य व्यवसायी अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं
(नोट: स्वास्थ्य समस्याओं की रोकथाम, अच्छे स्वास्थ्य के संवर्द्धन और चिकित्सकीय सेवाओं सहित अन्य विभिन्न स्वास्थ्य सम्बन्धित व्यवसायों में संलग्न लोगों की सूची छात्र: छात्राएं स्वयं तैयार करें।) .
समीक्षात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
"पोषण से उत्पादकता, आय और जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है।" इस कथन के बारे में अपनी राय लिखिए।
उत्तर:
जब आप स्वस्थ भोजन करते हैं, तो आपका शरीर पोषक तत्वों को संसाधित करता है और इष्टतम ऊर्जा के लिए प्रयुक्त करता है। जबकि निम्न पोषण वाले खाद्य पदार्थ अक्सर रिक्त कैलोरी के रूप में आपको वह ऊर्जा नहीं देते हैं जिनकी आपको जरूरत होती है। अतः हमारा शारीरिक, मानसिक व सामाजिक स्तर हमारे द्वारा ग्रहण किए गए आहार के आधार पर तय होता है, हम कार्य भी उसी क्षमता से कर पाते हैं जैसा हम आहार एवं पोषण प्राप्त करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आहार एवं पोषण का मुख्य कार्य उत्पादन है जिसका हमारी उत्पादकता, आय और जीवन की गुणवत्ता आदि सभी जीवन क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ता है। आपके आहार और आपके द्वारा किए जाने वाले हर कार्य के उत्पादन के बीच का सम्बन्ध वस्तुत: बहुत गहरा होता है, अत: बहुत अधिक भोजन करना या गलत खाद्य पदार्थों का सेवन आपकी उत्पादकता को गंभीर रूप से विकृत कर सकता है। अब जब आप बेहतर उत्पादन ही नहीं कर पाएंगे तो फिर आपकी आय भी प्रभावित होगी और साथ ही जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आएगी।
प्रश्न 2.
पोषण मानसिक तथा दृष्टि सम्बन्धी अशक्तता और जीवन की गुणवत्ता से कैसे जुड़ा हुआ है?
उत्तर:
पोषण और मानसिक अशक्तता: आपके भोजन के विकल्प आपकी मनोदशा और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इसे कभी: कभी 'खाद्य: मनोदशा सम्बन्ध' कहा जाता है। कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि जो लोग स्वस्थ आहार नहीं लेते हैं, उनमें अवसाद या अन्य मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों के लक्षण की संभावना अधिक होती है। इस प्रकार खाद्य पदार्थों के पोषक तत्वों और भावनात्मक रूप से बेहतर होने के मध्य एक महत्वपूर्ण सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है। अतः एक स्वस्थ आहार सुरक्षात्मक है जबकि एक अस्वास्थ्यकर आहार अवसाद और चिंता का जोखिम कारक है।
पोषण और दृष्टि सम्बन्धी अशक्तता: हमारी आँखें संवहनी हैं, जिसका अर्थ है कि हमारी आँखों को स्वस्थ रखने वाली रक्त वाहिकाओं को बेहतर बनाए रखने के लिए हृदय को स्वस्थ आहार देना महत्वपूर्ण है। छोटी केशिकाएँ आपके रेटीना को पोषक तत्व और ऑक्सीजन प्रदान करती हैं। क्योंकि ये नसें काफी सूक्ष्म होती हैं अतः लगातार चर्बी जमा होने से यह अवरुद्ध हो सकती हैं। अतएव, चर्बीदार खाद्य पदार्थों से बचाव ही आँखों के लिए हितकारी
इसके अलावा बहुत सारी शर्करायुक्त, स्टार्चयुक्त खाद्य पदार्थ खाने से हमारी आँखें उम्र: सम्बन्धित धब्बेदार अध:पतन (ए.एम.डी.) की चपेट में भी आ सकती हैं। लेकिन अन्य बहुत से खाद्य पदार्थ और उनके पोषक तत्व आपकी दृष्टि को बनाए रखने हेतु महत्वपूर्ण हो सकते हैं, जैसे: विटामिन सी और ई, जिंक, ल्यूटिन, जेक्सैथिन और ओमेगा: 3 फैटी एसिड आदि सभी नेत्र स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये मोतियाबिंद व आँखों की धुंध को रोकने में मददकारी हैं।
पोषण और जीवन की गुणवत्ता: अच्छा पोषण कुपोषण को कम करके, आहार की कमी से सम्बन्धित बीमारी को रोककर और इष्टतम कामकाज करने की क्षमता को बढ़ावा देकर स्वास्थ्य से सम्बन्धित जीवन की गुणवत्ता को बढ़ावा देता है। हालांकि, जीवन की गुणवत्ता की परिभाषाएँ भी जीवन को संतुष्टि और शारीरिक एवं मानसिक बेहतरी को शामिल करती हैं। पोषण और आहार कभी भी जीवन की गुणवत्ता पर मुख्यधारा के शोध का हिस्सा नहीं रहे हैं और जीवन अधिकार: क्षेत्र की महत्वपूर्ण व्यवस्था में शामिल नहीं हैं।
प्रश्न 3.
कक्षा को समूहों में बाँटें। हर समूह किसी खाद्य पदार्थ विक्रेताओं के प्रतिष्ठानों में जाए, जैसे कैंटीन/ कैफेटेरिया, रेस्तरां, सड़क पर खाद्य पदार्थ विक्रेता।
(क) आहार सम्बन्धी स्वास्थ्य विज्ञान और
(ख) निजी स्वास्थ्य विज्ञान से सम्बन्धित खराब स्वास्थ्य विज्ञान की रीतियों को पहचानें।
उत्तर:
(क) आहार सम्बन्धी स्वास्थ्य विज्ञान से सम्बन्धित खराब स्वास्थ्य विज्ञान की रीतियाँ
(ख) निजी स्वास्थ्य विज्ञान से सम्बन्धित खराब स्वास्थ्य विज्ञान की रीतियाँ
प्रश्न 4.
कक्षा में चर्चा करें कि स्वास्थ्य विज्ञान का समुचित प्रयोग कैसे किया जा सकता है और आहार को कैसे अधिक सुरक्षित बनाया जा सकता है?
अथवा
बच्चों को तीन समूहों में बाँटें। एक समूह 'आहार' पहलू का अध्ययन करेगा, दूसरा 'लोगों' का अध्ययन करेगा, और तीसरा 'यूनिट, सुविधाओं तथा उपकरणों का आकलन करेगा। बीमारी के खतरे को बढ़ाने वाले विभिन्न पहलुओं/भागों/गतिविधियों की सूची बनाने के बाद समूहों की एक प्रस्तुति करने के लिए कहा जा सकता है, और इसके बाद फिर सुधारात्मक उपायों पर चर्चा करें।
उत्तर:
स्वास्थ्य विज्ञान का समुचित प्रयोग: स्वास्थ्य विज्ञान, व्यावहारिक विज्ञान की एक महत्वपूर्ण शाखा है जो मानव और पशु स्वास्थ्य से सम्बन्धित है। स्वास्थ्य विज्ञान के दो भाग हैं: स्वास्थ्य का अध्ययन, शोध और ज्ञान तथा स्वास्थ्य सुधार व बीमारियों के इलाज में उस ज्ञान का प्रयोग; और यह समझना कि मनुष्य और पशु कार्य कैसे करते हैं। स्वास्थ्य विज्ञान का मुख्य ध्येय है कि प्रत्येक मनुष्य की शारीरिक वृद्धि एवं विकास और भी अधिक बेहतर हो, जीवन और भी अधिक तेजपूर्ण हो, शारीरिक ह्रास और भी अधिक धीमा हो तथा मृत्यु और भी अधिक देर से हो। स्वास्थ्य के संवर्धन, संरक्षण तथा पुनःस्थापन का ज्ञान स्वास्थ्य विज्ञान द्वारा ही होता है। स्वास्थ्य विज्ञान के माध्यम से लोगों को स्वास्थ्य के सभी पहलुओं के बारे में शिक्षित करना स्वास्थ्य शिक्षा कहलाती है।
इस प्रकार स्वास्थ्य शिक्षा ऐसा साधन है जिससे कुछ विशेष योग्य एवं शिक्षित व्यक्तियों की सहायता से जनता को स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान तथा औपसर्गिक एवं विशिष्ट व्याधियों से बचने के उपायों का प्रसार किया जा सकता है। स्वास्थ्य शिक्षा के अन्तर्गत पर्यावरण का स्वास्थ्य, दैहिक स्वास्थ्य, सामाजिक स्वास्थ्य, भावात्मक स्वास्थ्य, बौद्धिक स्वास्थ्य तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य आदि सभी आ जाते हैं।
आहार को सुरक्षित कैसे बनाएं: खाद्य सुरक्षा का उपयोग एक वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में किया जाता है जो कि खाद्य पदार्थों को संभालने, तैयार करने और भोजन के भंडारण का वर्णन ऐसे तरीकों में करता है जिससे खाद्य द्वारा उत्पन्न बीमारियों को रोका जा सकता है।
उचित भंडारण, स्वच्छता उपकरणों का प्रयोग, उचित कार्यस्थान, हीटिंग और पर्याप्त तापमान तक ठंडा करना तथा अन्य उपयुक्त खाद्य पदार्थों के सम्पर्क से बचने से खाद्य संदूषण की सम्भावना बहुत ही कम हो जाती है। कसकर सील किए गए पानी और वायुरोधी कंटेनर प्रयुक्त करना अच्छे उपाय हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, खाद्य स्वच्छता के पाँच प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं
अथवा
(नोट: विद्यार्थी अग्रलिखित सामग्रियों का अध्ययन करें तथा स्वयं कक्षा में प्रस्तुति करें।)
बीमारी के खतरे को बढ़ाने वाले विभिन्न पहलू
कई पर्यावरणीय कारक संक्रामक रोगों के प्रसार को प्रभावित करते हैं जो कि महामारी का कारण बनते हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण हैं
सुरक्षित पानी की कमी, अपर्याप्त मलत्याग की सुविधा, खराब स्वच्छता, निम्न रहन: सहन की स्थिति और __ असुरक्षित भोजन आदि सभी डायरियाजनित बीमारियों का कारण बन सकते हैं। ये रोग पीड़ा और आपातकालीन स्थिति में मृत्यु का एक प्रमुख कारण हैं।
जलवायु विभिन्न तरीकों से रोग संचरण को प्रभावित कर सकती है। रोग वैक्टर का वितरण और जनसंख्या का आकार स्थानीय जलवायु से भारी प्रभावित हो सकता है। भारी बारिश के बाद बाढ़ का परिणाम सीवेज ओवरफ्लो और व्यापक जल संदूषण हो सकता है। इसके अलावा यह भी प्रमाणित है कि रोगजनकों को हवा धाराओं के साथ या हवा के माध्यम से एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में फैलाया जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने संचारी रोग के प्रकोप को प्रतिक्रिया महामारी और महामारी चेतावनी व प्रतिक्रिया विभाग के नेतृत्व में की है।
सुधारात्मक उपाय-
पर्यावरण में सुधार और बीमारियों को रोकने के लिए सिद्ध रणनीतियों को अपनाया जा सकता है। उदाहरणतः, सुरक्षित पानी और पर्याप्त स्वच्छता तक पहुंच बढ़ाना तथा हाथ धोने को बढ़ावा देने से दस्त सम्बन्धी बीमारियों में उत्तरोत्तर कमी आएगी। घरेलू खाना पकाने, हीटिंग और प्रकाश व्यवस्था के लिए स्वच्छ प्रौद्योगिकियों और ईंधन का उपयोग करने से तीव्र श्वसन संक्रमण, पुराने श्वसन रोग, हृदय रोग व जलन कम हो जाती है। प्रदूषण: रोधी कानून बनाने एवं उसका पालन करने से मनुष्य का धुएं से सम्पर्क कम करता है तथा इससे हृदय रोग एवं श्वसन तकलीफें कम होती हैं। शहरी पारगमन और शहरी नियोजन में सुधार तथा ऊर्जा: कुशल आवास का निर्माण वायु प्रदूषण से सम्बन्धित अनेक बीमारियों को कम करेगा। साथ ही सुरक्षित शारीरिक गतिविधि को बढ़ावा देगा।
प्रश्न 5.
कार्य किसे कहते हैं? कार्य के संघटक बताइए।
उत्तर:
कार्य को कुछ करने या बनाने के लिए निर्देशित गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, यानी जो कुछ बनाने या करने के लिए दिया जाए। अर्थात् किसी काम को करने या पूरा करने के लिए स्वयं को शारीरिक और/या मानसिक रूप से गतिविधि में संलग्न करना कार्य है। यह कुछ करना या निष्पादित करना है, विशेषतः कोई कर्तव्य, काम या कोई गतिविधि। . . श्रम, बल, ऊर्जा और/या प्रयास आदि कार्य के संघटक हैं।
प्रश्न 6.
कार्यकर्ता के कौन से संघटक कार्य की दक्षता बढ़ाते हैं?
उत्तर:
कार्यकर्ता वह व्यक्ति होता है जो उत्पाद के परिणाम प्राप्त करने के लिए किसी विशिष्ट कार्य या गतिविधि को निष्पादित करता है। उसके कार्य की दक्षता बढ़ाने वाले निम्नलिखित संघटक हैं
प्रश्न 7.
उन पर्यावरणी कारकों पर चर्चा कीजिए जो विद्यार्थी की कार्य: सम्बन्धी गतिविधियों में बाधक हो सकते हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी की कार्य: सम्बन्धी गतिविधियों में बाधक पर्यावरणी कारक निम्नलिखित हैं
प्रश्न 8.
कार्य, कार्यकर्ता और कार्यस्थल के बीच परस्पर निर्भरता की व्याख्या आप कैसे करेंगे?
उत्तर:
हम सभी प्रतिदिन घंटों काम करते हैं: बच्चे पढ़ते हैं तथा अन्य जरूरी काम करते हैं, माता: पिता आजीविका अर्जित करते हैं और घर को चलाते हैं। भले ही हम प्रतिदिन बहुत: सी विधियाँ करते हैं, किंतु हमारे कार्य, कार्यकर्ता और कार्यस्थल परस्पर निर्भर हैं। इसे निम्न उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है:
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि किसी भी कार्य के इष्टतम निष्पादन के लिए जरूरी है कि कार्य को परिवेश, कार्यस्थल, जहाँ वह निष्पादित किया जाता है और कार्यकर्ताओं (जो लोग उसे निष्पादित करते हैं) के संदर्भ में समझा जाए। इससे काम की दक्षता बढ़ती है। कार्य, कार्यकर्ता और कार्यस्थल के बीच परस्पर निर्भरता को स्पष्ट रूप से नीचे दिए गए चित्र में दर्शाया गया है।
चित्र : कार्य, कार्यकर्ता और कार्यस्थल के बीच सम्बन्ध
कार्य, कार्यस्थल और कार्यकर्ता के बीच परस्पर निर्भरता को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है
प्रश्न 9.
समय: संसाधनों और स्थान: संसाधनों का वर्णन करें।
उत्तर:
स्थान प्रबंधन में शामिल हैं स्थान का नियोजन, योजनानुसार उसकी व्यवस्था, उसके उपयोग के अनुसार योजना का क्रियान्वयन और कार्यकारिता तथा सौंदर्यबोध की दृष्टि से उसका मूल्यांकन। सुप्रबंधित स्थान न केवल काम करते समय आराम देता है, बल्कि आकर्षक भी दिखता है।
प्रश्न 10.
समय: प्रबंधन क्यों जरूरी है?
उत्तर:
तेजी से बदलती हुई आज की जीवन शैली में घर, स्कूल और काम में हमारी अपेक्षाएँ और जिम्मेदारियाँ बढ़ गई हैं। इसलिए समय का प्रबंधन महत्वपूर्ण हो गया है। सफल होने के लिए समय: प्रबंधन कौशल विकसित करना जरूरी है। जो लोग इन तकनीकों का उपयोग करते हैं, वे कृषि से लेकर व्यापार, खेल, सार्वजनिक सेवा, अन्य सभी व्यवसायों और निजी जीवन तक जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करते हैं। समय प्रबंधन आपको कार्य के साथ: साथ समुचित विश्राम और मनोरंजन के अवसर भी प्रदान करता है।
प्रश्न 11.
समय और कार्यविधि: योजना के विभिन्न चरणों पर चर्चा करें।
उत्तर:
समय और कार्यविधि योजना के विभिन्न चरण: समय और कार्यविधि योजना के प्रमुख चरण निम्नलिखित
प्रश्न 12.
समय: प्रबंधन के साधन कौन से हैं?
उत्तर:
समय: प्रबंधन के कुछ साधन निम्न हैं
इस कार्य हेतु एक मासिक चार्ट का प्रयोग करें ताकि आप आगे की योजना बना सकें। दीर्घावधि योजना सारणी आपके लिए समय की रचनात्मक योजना बनाने हेतु याद दिलाने के लिए भी काम करेगी।
प्रश्न 13.
स्थान: प्रबंधन की परिभाषा दें। घर के भीतर स्थान: नियोजन के सिद्धांतों पर चर्चा करें।
उत्तर:
स्थान-प्रबंधन की परिभाषा: स्थान प्रबंधन किसी स्थान को बेहतर बनाने की प्रक्रिया है। यह किसी स्थान को पहले से बेहतर बनाने या पहले से सुव्यवस्थित वांछित मानक संचालन को बनाए रखने के लिए विभिन्न कार्य: योजनाओं के माध्यम से किया जाता है। स्थान: प्रबंधन निजी, सार्वजनिक या स्वैच्छिक संगठनों अथवा प्रत्येक के सम्मिलित प्रयासों द्वारा किया जा सकता है।
स्थान-प्रबंधन में शामिल हैं: स्थान का नियोजन, योजनानुसार उसकी व्यवस्था, उसके उपयोग के अनुसार योजना का क्रियान्वयन और कार्यकारिता तथा सौंदर्यबोध की दृष्टि से उसका मूल्यांकन। सुप्रबंधित स्थान काम करते समय आराम देने वाला तथा आकर्षक दिखाई देता है।
घर के भीतर स्थान: नियोजन का सिद्धांत: घर में कार्यक्षेत्र की डिजाइन तैयार करने के समय स्थान के इष्टतम उपयोग के लिए उसकी योजना बनाना जरूरी है। घर के भीतर की डिजाइन तैयार करते समय ध्यान में रखे जाने वाले सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
1. एकान्तता: स्थान: नियोजन का महत्वपूर्ण सिद्धांत है एकांतता, जिसके दो पहलुओं में से महत्वपूर्ण पहलू होता है भीतरी एकांतता। एक कमरे से दूसरे कमरे की एकांतता को भीतरी एकांतता कहते हैं। घरों में कमरों को स्थिति, दरवाजों की स्थिति, छोटे गलियारे या लॉबी की व्यवस्था आदि के सुविचारित नियोजन द्वारा यह स्थिति बनाई जाती है। स्क्रीन तथा परदे लगा कर भी भीतरी एकांतता बनाई जा सकती है। बड़े परिवार वाले घरों में स्त्रियों की एकांतता को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उनके लिए बैठने का अलग क्षेत्र उपलब्ध कराया जाता है।
2. कमरे की स्थिति: इसका आशय कमरों के एक: दूसरे के साथ भीतरी संबंध से है। जैसे किसी भवन में भोजन क्षेत्र रसोई के निकट होना चाहिए और शौचालय रसोई से दर होना चाहिए।
3. खुलापन: यह रहने वालों को कमरे के खुलेपन का आभास होता है। उपलब्ध स्थान का उपयोग पूरी तरह करना चाहिए। जैसे आप दीवारों में अल्मारियाँ, शेल्फ तथा भंडारण क्षेत्र बना सकते हैं, ताकि कमरे का फर्श विभिन्न गतिविधियों के लिए खाली रहे। इसके अतिरिक्त, कमरे के आकार तथा आकृति, फर्नीचर की व्यवस्था और प्रयुक्त रंग योजना का भी उसके खुलेपन पर प्रभाव पड़ता है। सही अनुपात वाला आयताकार कमरा उसी आयाम के वर्गाकार कमरे की अपेक्षा अधिक खुला दिखाई देता है। इसी प्रकार गहरे रंगों की अपेक्षा हल्के रंगों के प्रयोग से भी कमरा बड़ा और खला होने का आभास देता है।
4. फर्नीचर की व्यवस्था: कमरों की योजना बनाते समय वहाँ रखे जाने वाले फर्नीचर पर यथोचित विचार किया जाए। केवल अपेक्षित फीचर ही रखा जाए तथा फर्नीचर इस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि चलने फिरने के लिए खुली जगह उपलब्ध रहे।
5. स्वच्छता: स्वच्छता का आशय है मकान में भरपूर रोशनी, हवादारी, सफाई और स्वच्छता की सुविधाएँ हों। मकान में रोशनी के स्रोत हैं: खिड़कियाँ, बल्व और ट्यूबलाइट । वायु संचार हेतु मकान में खिड़कियों, दरवाजों तथा रोशनदानों को इस प्रकार बनवाया जाए कि अधिक से अधिक हवा का आवागमन हो सके। खिड़कियाँ एकदूसरे के सामने हों तो हवा का आवागमन अच्छा होता है। भवन योजना में सफाई की सुविधा और धूल को रोकने का प्रावधान जरूरी है। भवन में स्नानागारों तथा शौचालयों का प्रावधान भी स्वच्छता सुविधाओं में शामिल है।
6. वायु का परिसंचरण: कमरा: दर: कमरा भी वायु परिसंचरण संभव होना चाहिए। घर के प्रत्येक कमरे का स्वतंत्र प्रवेश द्वार हो। इससे सदस्यों की एकांतता भी बनी रहती है।
प्रश्न 14.
अधिगम (सीखना) और इसके प्रकारों की व्याख्या करें।
उत्तर:
अधिगम: अधिगम (सीखना) की हमारे जीवन में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। यह हमारे ज्ञान, बोध और व्यवहार का आधार है। हम पैदा होते ही सीखना शुरू कर देते हैं। अनुसंधान से स्पष्ट हुआ है कि भ्रूण माता की कोख में भी सीखता है या यों कहें कि सीखना जीवन के साथ ही शुरू हो जाता है। अतः अनुभव के परिणामस्वरूप नया व्यवहार प्राप्त करना या पहले वाले व्यवहार में सुधार करना अथवा उसे छोड़ देना अधिगम कहलाता है। अधिगम की प्रक्रिया में 3 मुख्य घटक होते हैं:
अधिगम के प्रकार अधिगम निम्नलिखित पाँच प्रकार से हो सकता है
प्रश्न 15.
शिक्षा के किन्हीं तीन घटकों का वर्णन करें।
उत्तर:
शिक्षा के तीन प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं
1. शिक्षक और शिक्षण विधियाँ:
शिक्षक शायद शिक्षा की गुणवत्ता का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। अत: वह प्रशिक्षित एवं व्यक्तिगत रूप से अनुकूल होना चाहिए। उसे उन्हीं शिक्षण विधियों को प्रयुक्त करना चाहिए जो कि विद्यार्थियों को सक्रिय रूप से भाग लेने की अनुमति देते हों। शिक्षण विधियों में लिंग सहित अन्य सभी तरह के भेदभाव नहीं होने चाहिए। शिक्षक को पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शिक्षण सामग्रियाँ प्रयक्त करनी चाहिए और उसे हमेशा उपस्थित होना चाहिए जबकि उसकी जरूरत हो। शिक्षक को जीवनयापन हेतु पर्याप्त वेतन मिलना चाहिए ताकि वह कार्य के प्रति प्रेरित हो सके और कक्षा में लगातार उपस्थित रहे। साथ ही, उसका आवास विद्यालय के आस: पास होना चाहिए ताकि वह कम समय में पहुँच सके।
2. पाठ्यक्रम:
पाठ्यक्रम और शिक्षण सामग्री प्रासंगिक होनी चाहिए। बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल को पर्याप्त रूप से महत्व दिया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम में बुनियादी कौशल जैसे स्वच्छता, पोषण, एचआईवी/एड्स के बारे में ज्ञान, संघर्ष कार्य, लिंग समानता या अन्य महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी प्रकाश डाला गया हो।
3. अध्ययन का परिवेश:
अध्ययन का परिवेश छात्र और छात्राओं दोनों के लिए स्वस्थ, सुरक्षित, सुरक्षात्मक, प्रेरक और अनुकूलित होना अनिवार्य है। शारीरिक रूप से असक्षम विद्यार्थियों या अल्पसंख्यकों के लिए भी समावेशी अध्ययन माहौल होना चाहिए।
शिष्यों को एक: दूसरे का और अपने आस: पास के प्राकृतिक वातावरण का सम्मान करना सीखना चाहिए। शिक्षकों को बेहतर अध्ययन माहौल सुनिश्चित करने में अपना सहयोग देना चाहिए। विद्यार्थियों को दंड देने से बचना चाहिए तथा स्कूल को एक स्वागत योग्य जगह निर्धारित करने हेतु उनके माता: पिता एवं आस: पास के समुदायों का भी सहयोग लेना चाहिए।
प्रश्न 16.
औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा के बीच अंतर बताएँ।
उत्तर:
औपचारिक शिक्षा: औपचारिक शिक्षा पढ़ाने और सीखने की एक सुव्यवस्थित प्रणाली है। इसका उत्तरदायित्व वे संस्थाएँ लेती हैं जो सरकार द्वारा या मान्यता प्राप्त गैर: सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाई जाती हैं। इस प्रकार विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, तकनीकी और व्यावसायिक संस्थाएँ औपचारिक शिक्षा देती हैं। शिक्षा की सभी औपचारिक संस्थाओं की कुछ सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
इस प्रकार अनौपचारिक शिक्षा एक सुव्यवस्थित शैक्षिक गतिविधि है जो औपचारिक ढाँचे से बाहर चलाई जाती है। बेसहारा तथा कामकाजी बच्चों के लिए अनौपचारिक केंद्र हैं और वयस्कों के लिए प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम हैं। शिक्षा का लक्ष्य यहाँ भी ज्ञान प्राप्त करना और कुशलता विकसित करना है किंतु कुछ विशेषताएँ औपचारिक शिक्षा से भिन्न हैं जो कि निम्नलिखित हैं
प्रश्न 17.
विस्तार शिक्षा क्या है? उसके सिद्धांतों का वर्णन करिए।
उत्तर:
विस्तार शिक्षा: शिक्षा: विस्तार का अर्थ है: ज्ञान को ज्ञात से अज्ञात तक फैलाना। यह ज्ञान तथा अनुभव बाँटने की दुतरफा प्रक्रिया है, जिसके द्वारा निजी तथा सामुदायिक विकास हेतु व्यक्तियों और समूहों को प्रेरित किया जाता है। उदाहरण के लिए ग्रामसेवक लोगों की समस्यायें विस्तार अधिकारियों व अन्य शैक्षिक संस्थाओं तक ले जाते हैं। ब्लॉक स्तर पर उन पर चर्चा होने के बाद निकाले गए समाधान वापस समुदाय तक ले जाए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, जिब शिक्षा तथा ज्ञान को व्यवहार में लाया जाता है, और समुदाय तक उसका विस्तार किया जाता है तब उसे विस्तार शिक्षा कहते हैं। विस्तार शिक्षा एक संपूर्ण विषय है। इसका अपना दर्शन, उद्देश्य, सिद्धांत, विधियाँ तथा तकनीक हैं।
विस्तार शिक्षा के सिद्धांत: विस्तार शिक्षा के प्रमुख सिद्धान्त अनलिखित हैं
प्रश्न 18.
निम्नलिखित परिस्थितियों के लिए दो अत्यंत उपयुक्त विस्तार विधियाँ चुनें और वर्णन करें। (अध्यापक के मार्गदर्शन की जरूरत पड़ सकती है।)
(क) लड़कियों के लिए शिक्षा को लोकप्रिय बनाना
या
(ख) घर के काम में हाथ बँटाने वाले आदमियों का महत्व।
उत्तर:
(क) लड़कियों के लिए शिक्षा को लोकप्रिय बनाना
1. प्रदर्शनियाँ: प्रदर्शनी में एक तर्कसंगत अनुक्रम में जानकारी दी जाती है। नमूनों, मॉडलों, पोस्टरों, चित्रों तथा चार्टी का सुव्यवस्थित प्रदर्शन होता है। यह प्रदर्शित चीजों में आगंतुकों की रुचि पैदा करने के लिए आयोजित की जाती है। प्रदर्शनियों का प्रयोग विविध विषयों के लिए किया जाता है, यथा आदर्श गाँव की योजना बनाना या सिंचाई की उन्नत रीतियाँ दिखाना।
2. दृश्य: श्रव्य साधनों का प्रयोग यथा
(ख) घर के काम में हाथ बँटाने वाले आदमियों का महत्व
प्रश्न 19.
भारतीय वस्त्र कला की प्राचीनता के बारे में जानकारी किन ऐतिहासिक स्रोतों से मिल सकती है?
उत्तर:
दीवार पर बने अथवा मूर्तियों पर कपड़े पहने हुए मानव चित्र दर्शाने वाले पुरातत्वीय अभिलेखों से पता चलता है कि मानव 20,000 वर्ष पूर्व भी वस्त्र बनाने की कला जानता था। प्राचीन साहित्य के संदर्भो में गुफाओं तथा भवनों में दीवारों पर चित्रकारी से भी हमें उनके बारे में जानकारी मिलती है।
ऋग्वेद तथा उपनिषदों में विश्व की सृष्टि का वर्णन करते हुए कपड़े का प्रयोग एक प्रतीक के रूप में किया गया है। इन ग्रंथों में विश्व को 'देवताओं द्वारा बुना गया कपड़ा' कहा गया है। पृथ्वी पर प्रकाश और अंधकार वाले दिन और रात की तुलना जुलाहे के करघे में शटल की गति से की गई है।
कपड़े के टुकड़े और टेरा: कोटा तकले तथा कांस्य की सूइयाँ भी, जो मोहनजोदाड़ो में खुदाई के स्तर पर मिली हैं, इस बात का प्रमाण हैं कि भारत में सूत की कताई, बुनाई, रंगाई और कशीदाकारी की परम्पराएँ कम से कम 5000 वर्ष पुरानी है।
प्राचीन साहित्य (ग्रीक और लैटिन) में भारतीय पक्के रंगों का उल्लेख मिलता है, जैसे 'भारतीय कपड़ों पर रंग उतना ही चिरस्थायी है, जितनी कि बुद्धिमानी।' लगभग 15वीं शताब्दी से ही भारत वस्त्रों का सबसे बड़ा निर्यातक था। यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा विभिन्न ईस्ट इंडिया कंपनियों की स्थापना भारत में वस्त्र व्यापार के साथ सम्बन्धित थी।
प्रश्न 20.
सूत उत्पादन के वे दो पहलू कौन से हैं जिन्होंने भारतीय कपड़ों को विश्वविख्यात बना दिया?
उत्तर:
सूत उत्पादन के वे दो पहलू हैं जिन्होंने भारतीय कपड़ों को विश्वविख्यात बना दिया, निम्नलिखित हैं
प्रश्न 21.
रेशम ब्रोकेड बुनाई से सम्बन्धित कुछ क्षेत्रों के नाम बताइए। प्रत्येक के विशेष लक्षण क्या हैं?
उत्तर:
रेशम ब्रोकेड बुनाई से सम्बन्धित क्षेत्रों के नाम एवं उनके विशेष लक्षण निम्नलिखित हैं
प्रश्न 22.
भारतीयों को 'संसार का सर्वोत्तम रंगरेज' क्यों कहा जाता था?
उत्तर:
सूती कपड़ा बनाने में निपुणता के अतिरिक्त, भारत की सर्वोच्च उपलब्धि चटकीले पक्के रंगों के साथ सूती कपड़े में पैटर्न बनाने की थी। 17वीं शताब्दी तक, केवल भारतीय ही सत को रंगने की जटिल प्रक्रिया में पारंगत थे, जो केवल सतह पर रंजकों का लगाना नहीं था, बल्कि वे पक्के और स्थाई रंग बनाते थे। यूरोपीय फैशन तथा बाजार में भारतीय छींट (छपाई और चित्रकारी वाला सूती कपड़ा) ने क्रांति ला दी थी। अत: भारतीयों को 'संसार का सर्वोत्तम रंगरेज' कहा जाता था।
प्रश्न 23.
निम्नलिखित शब्दों के साथ आप किसको जोड़ते हैं: फुलकारी, कसूती, कशीदा, कान्था और चिकनकारी?
उत्तर:
1. फुलकारी:
फुलकारी पंजाब की दस्तकारी की कला है। इस शब्द का प्रयोग दस्तकारी के लिए भी किया जाता है और इस प्रकार की दस्तकारी से बनाई गई चद्दर या शाल के लिए भी। फुलकारी का अर्थ है 'पुष्प कार्य' या फूलों की क्यारी। फुलकारी मुख्यतः एक घरेलू शिल्प था जो घर की लड़कियों तथा महिलाओं द्वारा और कई बार उनके निर्देशन में सेविकाओं द्वारा किया जाता था। यह मोटे सूती कपड़े पर बिना बटे रेशमी लॉस से की जाती है, जिसे पाट कहते हैं।
2. कसूती:
कसूती शब्द का प्रयोग कर्नाटक की कशीदाकारी के लिए किया जाता है। कसूती शब्द कशीदा से बना है, जो एक फारसी शब्द है। फुलकारी की तरह, यह भी एक घरेलू शिल्प है और मुख्यतः स्त्रियों द्वारा किया जाता है। यह कशीदाकारी का अत्यंत सूक्ष्म रूप है, जिसमें कशीदे के धागे कपड़े की बुनाई के पैटर्न को अपनाते हैं। ये रेशमी कपड़े पर रेशमी धागे की बारीक लड़ियों से की जाती है। यहाँ तक कि पृष्ठभूमि के कपड़े के साथ प्रयुक्त रंग भी मिल जाते हैं। प्रतीत होता है कि मुख्य डिजाइन उस क्षेत्र के मंदिरों के वास्तुशिल्प से प्रेरित हैं।
3. कशीदा:
कशीदा एक सामान्य शब्द है, जिसका प्रयोग कश्मीर में कशीदाकारी के लिए किया जाता है। दो सबसे महत्वपूर्ण कशीदे सुजनी और जलकदोजी हैं। कश्मीर ऊन की भूमि है। अतः कशीदा ऊनी कपड़ों पर किया जाता है: अत्यंत महीन शालों से लेकर मध्यम मोटाई के लबादों (जैसे किरन) और मोटे नमदों पर, तक जिनका प्रयोग फर्श पर बिछाने के लिए किया जाता है। शालों और महीन ऊनी कपड़ों पर कशीदाकारी को आरंभ का मूल शायद उन दोषों की मरम्मत से हुआ है जो बुनाई के दौरान बन जाते थे। बाद में, बुनाई के बहुरंगी पैटों की नकल की गई, जिसमें चीनी कशीदाकारी की शैलियाँ भी मिला ली गई, यथा साटिन स्टिच और लंबा तथा छोटा स्टिच।।
4. कान्था:
बंगाल का कान्था पुरानी सूती साड़ियों या धोतियों की 3: 4 परतों पर तैयार किया जाता है। यह कशीदा रजाई की तरह है: छोटे सीधे टांके आधार कपड़े की सभी परतों के बीच में से जाते हैं। इस प्रकार बनने वाले वस्व को भी कान्था कहते हैं। इस कशीदे का मूल घिसे हुए क्षेत्र को मजबूत करने के लिए रफू में हो सकता है, किंतु अब टॉकों से उस पर बनी आकृतियों को भरा जाता है। सामान्यतः इसका आधार सफेद होता है और बहु: रंगी धागों से कशीदा काढ़ा जाता है, जो पहले पुरानी साड़ियों की किनारियों से खींचे गए थे। बनाई गई वस्तुएँ छोटे कंधीदान और थैले से लेकर विभिन्न आकारों की शालों तक हो सकते हैं।
5. चिकनकारी:
उत्तर प्रदेश की चिकनकारी वह कशीदा है, जिसका वाणिज्यीकरण बहुत आरंभिक अवस्था में हो गया था। यह काम मुख्यत: महिलाओं द्वारा किया जाता है, परंतु मास्टर शिल्पकार और व्यापार के आयोजक अधिकतम पुरुष होते हैं। लखनऊ को इसका मुख्य केंद्र माना जाता है। शुरू में यह सफेद कपड़े पर सफेद धागे से किया जाता था। इसमें पैदा होने वाले मुख्य प्रभाव हैं: कपड़े की उल्टी ओर से किए गए कशीदे का कार्य, कशीदे के द्वारा कपड़े के धागों को कस कर जाल की तरह बनाई गई जमीन और चावल या बाजरे के दानों से मिलते जुलते गाँठ वाले स्टिच द्वारा कपड़े की सीधे ओर उभरे हुए पैटर्न। पिछले कुछ वर्षों से डिजाइनों में जरी के धागों, छोटे मनकों और चमकीले सितारों का भी समावेश किया जाने लगा है।