RBSE Solutions for Class 11 Business Studies Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Business Studies Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Business Studies Solutions Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

RBSE Class 11 Business Studies अंतर्राष्ट्रीय व्यापार Textbook Questions and Answers

लघूत्तरात्मक प्रश्न- 

प्रश्न 1. 
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अन्तर्भेद कीजिए। 
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अन्तर्भेद-
1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का क्षेत्र संकुचित होता है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय का क्षेत्र विस्तृत होता है।

2. जब कोई देश अपनी सीमाओं से बाहर व्यापार करता है तो इसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कहा जाता है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय वह व्यावसायिक क्रिया है, जो राष्ट्र की सीमाओं के पार की जाती है। इसमें न केवल वस्तु एवं सेवाओं का व्यापार ही सम्मिलित है बल्कि पूँजी, व्यक्ति, तकनीक, बौद्धिक सम्पत्ति जैसे पेटेंट्स, ट्रेडमार्क, ज्ञान एवं कॉपीराइट का आदान-प्रदान भी सम्मिलित है।

3. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वस्तुओं एवं सेवाओं का आयात-निर्यात सम्मिलित है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में वस्तुओं एवं सेवाओं के आयात-निर्यात के सम्मिलित होने के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली समस्त व्यावसायिक गतिविधियाँ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय यात्रा एवं पर्यटन, परिवहन, सम्प्रेषण, बैंकिंग, भण्डार इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है।

प्रश्न 2. 
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय के किन्हीं तीन लाभों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय के लाभ-
1. विदेशी मुद्रा का अर्जन-अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय से एक देश को विदेशी मुद्रा के अर्जन में सहायता मिलती है जिसे वह पूँजीगत वस्तुओं एवं उर्वरक, फार्मास्यूटिकल उत्पाद एवं अन्य उपभोक्ता वस्तुएँ जो अपने देश में उपलब्ध नहीं हैं, के आयात पर व्यय कर सकता है। 

2. संसाधनों का अधिक क्षमता का होना-अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय के संचालन का एक आसान-सा सिद्धान्त है कि उन वस्तुओं का उत्पादन करें जिसे आपका देश अधिक क्षमता से कर सकता है तथा उस अधिक उत्पादन को दूसरे देशों के उन उत्पादों से विनिमय कर लें जिनका वे (दूसरे देश) अधिक क्षमता से उत्पादन कर सकते हैं। जब.सभी राष्ट्र इस सिद्धान्त पर व्यापार करने लगते हैं, तो संसाधनों का स्वतः ही अधिक क्षमता से उपयोग सम्भव होता है। 

3. जीवन स्तर में वृद्धि-यदि वस्तु एवं सेवाओं का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार नहीं होता है तो विश्व समुदाय के लिये दूसरे देशों में उत्पादित वस्तुओं का उपभोग सम्भव नहीं होता, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय की सहायता से वे इनका उपभोग कर अपने जीवन स्तर को उच्च बना सकते हैं। विश्व के अनेक देशों ने इसी आधार पर अपने जीवन स्तर में वृद्धि की है। 

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प्रश्न 3. 
दो देशों के बीच व्यापार के प्रमुख कारण क्या हैं? 
उत्तर:
दो देशों के बीच व्यापार के प्रमुख कारण- 
1. आधिक्य उत्पादन-कुछ देश कुछ चुनिंदा वस्तुओं एवं सेवाओं के लाभ में उत्पादन करने की स्थिति में होते हैं और अधिक उत्पादन कर सकते हैं, जबकि इन्हीं वस्तुओं एवं सेवाओं को अन्य देश उतने ही लाभ या उतने ही प्रभावी एवं क्षमता से उत्पादन नहीं कर सकते हैं। इसी कारण से प्रत्येक देश के लिए उन वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करना अधिक लाभप्रद रहता है जिनका वे अधिक से अधिक एवं कुशलतापूर्वक उत्पादन कर सकते हैं तथा शेष वस्तुओं एवं सेवाओं को वे अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय के माध्यम से उन देशों से ले सकते हैं, जो उन वस्तुओं का उत्पादन कम लागत पर कर सकते हैं। अतः दो देशों के बीच व्यापार होने का यह प्रमुख कारण है। 

2. श्रम विभाजन-सब देश जब अलग-अलग वस्तुओं का विनिर्माण करते हैं तो वे अपने उद्योग-धन्धों में श्रम विभाजन, वैज्ञानिकीकरण और विशिष्टीकरण आदि के नियम लागू कर सकते हैं। इन नियमों का फायदा सभी देशों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय होने की स्थिति में ही प्राप्त हो सकता है। 

3. जीवन स्तर में वृद्धि-दो देशों के बीच व्यापार यदि होता है तो सभी प्रकार की वस्तुएँ सस्ते मूल्य पर पर्याप्त मात्रा में सभी को मिलने लगती हैं। इससे दोनों ही देशों के लोगों का जीवन-स्तर बढ़ता है। 

4. शिक्षा के लाभ-जब एक देश दूसरे देश के साथ व्यवसाय करता है तो ऐसी स्थिति में एक देश के कारीगरों, तकनीशियनों, पेशेवर व्यक्तियों एवं विशेषज्ञों की विशेष शिक्षा के लाभ एक-दूसरे को प्राप्त होने लगते हैं। 

प्रश्न 4. 
ऐसा क्यों कहा जाता है कि अनुज्ञप्ति वैश्विक विस्तार का सरल मार्ग है? 
उत्तर:
अनुज्ञप्ति वैश्विक विस्तार का सबसे सरल मार्ग है, जिसमें परखा हुआ माल/तकनीक होता है। जिसमें न अधिक जोखिम होती है और न ही अधिक निवेश की आवश्यकता होती है। अनुज्ञप्ति एक ऐसी अवस्था है जिसमें एक देश की फर्म दूसरे देश की फर्म को फीस (रायल्टी) के बदले में अपने पेटेंट अधिकार, व्यापार के रहस्य या फिर तकनीक दे देती है। इस प्रकार अनुज्ञप्ति में दो देशों की फर्मों के बीच ज्ञान, तकनीक एवं पेटेंट अधिकार का पारस्परिक विनिमय होता है। इस प्रकार की व्यवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में यदि तैयार वस्तु दिये गये मानकों से मेल नहीं खाती तो लाइसेंस रद्द भी किया जा सकता है; परन्तु इसमें व्यवसायी का कुछ भी नुकसान नहीं होता है। आज वैश्विक जगत में इस प्रकार की व्यवस्था को अधिक अपनाया जाता है। इसीलिए यह कहा जाता है कि अनुज्ञप्ति वैश्विक विस्तार अर्थात् विदेशी व्यापार में आने का सबसे आसान रास्ता है। 

प्रश्न 5. 
विदेशों में ठेका उत्पादन एवं सम्पूर्ण स्वामित्व वाली उत्पादन सहायक कम्पनी के अन्तर्भेद कीजिए। 
उत्तर:
विदेशों में ठेका उत्पादन एवं सम्पूर्ण स्वामित्व वाली उत्पादन सहायक कम्पनी में अन्तर्भेद- 
1. विदेशों में ठेका उत्पादन के अन्तर्गत दूसरे देश के निर्माता को वस्तु अथवा सेवा के विनिर्माण सम्बन्धी ठेका दे दिया जाता है, जबकि सम्पूर्ण स्वामित्व वाली उत्पादन सहायक कम्पनी के अन्तर्गत वस्तु अथवा सेवा का विनिर्माण स्वयं अथवा अपनी देख-रेख में किया जाता है। 

2. ठेका उत्पादन में उत्पादन पर कोई नियंत्रण नहीं होता है, जबकि सम्पूर्ण स्वामित्व वाली उत्पादन सहायक कम्पनी में उत्पादन पर पूर्ण नियंत्रण होता है।' 

3. ठेका उत्पादन में हानि होने की दशा में स्वयं को हानि नहीं सहन करनी पड़ती है, जबकि सम्पूर्ण स्वामित्व वाली उत्पादन सहायक कम्पनी में हानि स्वयं ही वहन करनी पड़ती है। 

4. ठेका उत्पादन में वस्तुओं का उत्पादन अथवा समुच्चयीकरण विदेशी कम्पनियों द्वारा प्रदत्त तकनीक एवं प्रबन्ध दिशा निर्देश के अनुसार स्थानीय उत्पादकों के द्वारा किया जाता है, जबकि सम्पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक इकाइयों की स्थिति में जनक कम्पनी अन्य देश में स्थापित कम्पनी में शत प्रतिशत पूँजी निवेश कर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर लेती है। 

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प्रश्न 6. 
निर्यात लाइसेंस लेने के लिए औपचारिकताओं की विवेचना कीजिए। 
उत्तर:
निर्यात लाइसेंस प्राप्त करने के लिए औपचारिकताएँ- 
एक निर्यातक को निर्यात करने से पहले निर्यात लाइसेंस प्राप्त करना होता है। निर्यात लाइसेंस प्राप्त करने से पूर्व निम्नलिखित औपचारिकताओं को पूरा कर लेना चाहिए- 

  • भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अधिकृत किसी भी बैंक में खाता खोलना एवं खाता संख्या प्राप्त करना। 
  • विदेशी व्यापार महानिदेशालय (डी.जी.एल.टी.) अथवा क्षेत्रीय आयात-निर्यात लाइसेंसिंग प्राधिकरण से आयात-निर्यात कोड संख्या (आई.ई.सी. संख्या) प्राप्त करना। 
  • उपर्युक्त निर्यात संवर्द्धन परिषद् के यहाँ पंजीयन करना।
  • निर्यात साख एवं गारण्टी निगम (एक्सपोर्ट एण्ड गारण्टी काउन्सिल ई.सी.जी.सी.) में भुगतान प्राप्त नहीं होने के कारण होने वाली जोखिमों के विरुद्ध सुरक्षा हेतु पंजीकरण कराना, आदि। 

प्रश्न 7. 
निर्यात प्रोन्नति परिषद् में पंजीयन कराना क्यों आवश्यक है? 
उत्तर:
भारत सरकार से निर्यातक फर्मों को उपलब्ध कराये जाने वाले लाभों को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक निर्यातक को किसी भी निर्यात प्रोन्नति परिषद् का सदस्य बनना एवं पंजीयन-सदस्यता प्रमाण-पत्र प्राप्त करना अनिवार्य है। वर्तमान में 21 निर्यात प्रोन्नति परिषदें हैं। यदि निर्यातक फर्म इनकी सदस्यता प्राप्त नहीं करती है तो वह सरकारी लाभों से वंचित रह जाती है। निर्यात प्रोन्नति परिषद् गैर-लाभकारी संगठन होते हैं। .. 

प्रश्न 8. 
एक निर्यात फर्म के लिए लदान पूर्व निरीक्षण कराना क्यों आवश्यक है? 
उत्तर:
एक निर्यात फर्म के लिए लदान पूर्व निरीक्षण कराने की आवश्यकता-देश से केवल अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं का ही निर्यात हो और आयातक देश में भारत की छवि धूमिल नहीं हो इसके लिए भारत सरकार ने मनोनीत सर्वथा योग्य एजेन्सी द्वारा कुछ वस्तुओं का निरीक्षण अनिवार्य किया है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सरकार ने एक्सपोर्ट क्वालिटी कंट्रोल एवं निरीक्षण एक्ट, 1963 पारित किया। इसके तहत सरकार ने कुछ एजेन्सियों को लदान पूर्व माल के निरीक्षण के लिए अधिकृत किया। यदि निर्यात किया जाने वाला माल इस वर्ग के अन्तर्गत आता है तो उसे एक्सपोर्ट इंसपैक्सन एजेन्सी अथवा अन्य मनोनीत की गई एजेन्सी से सम्पर्क कर निरीक्षण प्रमा इस निरीक्षण अनुमोदन को निर्यात के अवसर पर अन्य निर्यात प्रलेखों के साथ जमा कराया जायेगा। 

यदि माल का निर्यात सितारा निर्यात गृहों, निर्यात प्रक्रिया अंचल/विशेष आर्थिक अंचल एवं शत-प्रतिशत निर्यात मूलक इकाइयों के द्वारा किया जा रहा है तो इस प्रकार का निरीक्षण अनिवार्य नहीं होगा। 

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प्रश्न 9. 
माल को उत्पादन शुल्क विभाग से अनुमति के लिए प्रक्रिया की संक्षेप में विवेचना कीजिए। 
उत्तर:
केन्द्रीय उत्पाद शुल्क अधिनियम (सैन्ट्रल एक्साइज टैरिफ एक्ट) के अनुसार वस्तुओं के विनिर्माण में प्रयुक्त माल पर उत्पादन शुल्क का भुगतान करना होता है। निर्यातक को इसीलिए सम्बन्धित क्षेत्रीय उत्पादन शुल्क कमिश्नर को आवेदन करना होता है। यदि कमिश्नर आवेदन से सन्तुष्ट हो जाता है तो वह उत्पादन शुल्क की छूट का प्रमाण-पत्र दे देगा। लेकिन कुछ मामलों में यदि उत्पादित वस्तुएँ निर्यात के लिए होती हैं तो सरकार उत्पादन शुल्क से छूट प्रदान कर देती है अथवा इसे लौटा देती है। इस प्रकार की छूट अथवा वापसी का उद्देश्य निर्यातक को और अधिक निर्यात के लिए प्रोत्साहित करना एवं निर्यात उत्पादकों को विश्व बाजार में और अधिक प्रतियोगी बनाना है। 

प्रश्न 10. 
जहाजी बिल क्या है? 
उत्तर:
जहाजी बिल-जहाजी बिल एक ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रलेख होता है जिसके आधार पर कस्टम कार्यालय निर्यातक को माल के निर्यात की अनुमति प्रदान करता है। जहाजी बिल में निर्यात किये जाने वाले माल, जहाज का नाम, माल उतारना है, अन्तिम गंतव्य देश, नियोतक का नाम एवं पता आदि का विवरण दिया जाता है। 

प्रश्न 11. 
साख-पत्र क्या है? निर्यातक को इस प्रलेख की क्या आवश्यकता है? 
उत्तर:
साख-पत्र-साख-पत्र आयातक के बैंक के द्वारा दी जाने वाली गारण्टी होती है, जिसमें वह निर्यातक के बैंक को एक निश्चित राशि तक के निर्यात बिल के भुगतान की गारण्टी देता है। इसे निर्यातक आयातक को वस्तुओं के निर्यात के बदले में जारी करता है। निर्यातक को इसकी आवश्यकता इसलिए होती है, क्योंकि- 

  • यह अन्तर्राष्ट्रीय सौदों को निपटाने के लिए भुगतान का सबसे उपयुक्त एवं सुरक्षित साधन है। 
  • निर्यातक को आयातक द्वारा भुगतान करने का इन्तजार करने की आवश्यकता नहीं है। निर्यातक अपने बैंक को प्रलेख सौंप कर एवं क्षतिपूरक पत्र पर हस्ताक्षर कर तुरन्त भुगतान प्राप्त कर सकते हैं। 

प्रश्न 12. 
निर्यात का भुगतान प्राप्त करने की प्रक्रिया की विवेचना कीजिए। 
उत्तर:
निर्यात का भुगतान प्राप्त करने की प्रक्रिया-आयातक निर्यातक को भुगतान करने के लिए विनिमय विपत्र लिखता है। विनिमय विपत्र आयातक को एक निश्चित राशि का निश्चित व्यक्ति अथवा आदेशित व्यक्ति अथवा लेख के धारक को भुगतान करने का आदेश होता है। यह दो प्रकार का हो सकता है-(1) अधिकार पत्र प्राप्ति पर भुगतान (दर्श विपत्र) (2) अधिकार प्राप्ति पर स्वीकृति (मुद्दती विपत्र)। 

दर्श विपत्र में अधिकार पत्रों जैसे बीजक की सत्यापित प्रति, जहाजी बिल्टी, पैकिंग सूची, बीमा पॉलिसी, उद्गम प्रमाण-पत्र आदि को आयातक को भुगतान पर ही सौंपा जाता है। जैसे ही आयातक दर्श विपत्र पर हस्ताक्षर करने को तैयार हो जाता है, सम्बन्धित प्रलेखों को उसे सौंप दिया जाता है। 

मुद्दती या मियादी विपत्र में दूसरी ओर आयातक द्वारा बिल को स्वीकार करने, जिसमें एक निश्चित अवधि जैसे तीन महीने की समाप्ति पर भुगतान करना होता है, उसे अधिकार प्रलेख सौंपे जाते हैं। विनिमय विपत्र की प्राप्ति पर दर्श विपत्र के होने पर आयातक भुगतान कर देता है और यदि मियादी विपत्र है तो विपत्र की भुगतान तिथि पर भुगतान के लिए इसे स्वीकार करता है। निर्यातक का बैंक आयातक के बैंक के माध्यम से भुगतान प्राप्त करता है। तत्पश्चात् उसे निर्यातक के खाते के जमा में लिख देता है। 

निर्यातक को आयातक द्वारा भुगतान करने के इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। निर्यातक अपने बैंक को प्रलेख सौंपकर एवं क्षतिपूरक पत्र पर हस्ताक्षर कर तुरन्त भुगतान कर सकता है। क्षतिपूरक पत्र पर हस्ताक्षर कर निर्यातक आयातक से भुगतान की प्राप्ति नहीं होने की स्थिति में बैंक को यह राशि ब्याज सहित भुगतान करने का दायित्व लेता भुगतान प्राप्त कर लेने पर निर्यातक को बैंक से भुगतान प्राप्ति का प्रमाण-पत्र प्राप्त करना होगा। यह प्रमाण पत्र यह प्रमाणित करता है कि एक निश्चित निर्यात प्रेषण से सम्बन्धित प्रलेखों (विनिमय विपत्र को सम्मिलित कर) का प्रक्रमण करा लिया गया है एवं विनिमय नियमों के अनुरूप भुगतान प्राप्त कर लिया गया है। 

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दीर्घ उत्तरात्मक प्रश्न- 

प्रश्न 1. 
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से अधिक व्यापक है। विवेचना कीजिये। 
उत्तर: 
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से अधिक व्यापक 
यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार दोनों समान शब्द समान प्रतीत होते हैं, बहुत से लोग अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से लगाते हैं; किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय का क्षेत्र काफी विस्तृत है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अर्थात् वस्तुओं का आयात एवं निर्यात अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय का एक महत्त्वपूर्ण भाग रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में न केवल वस्तुओं तथा सेवाओं के आयात-निर्यात को शामिल किया जाता है। बल्कि व्यावसायिक फर्मों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार करने के सभी मार्गों, तरीकों तथा माध्यमों को भी सम्मिलित किया जाता है। 

सेवाओं का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार जैसे यात्रा एवं पर्यटन, परिवहन, सम्प्रेषण, बैंकिंग, भण्डारण, वितरण एवं विज्ञापन काफी अधिक बढ़ गया है। दूसरी उतनी ही महत्त्वपूर्ण प्रगति विदेशी निवेश में वृद्धि एवं विदेशों में वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन में हुई है। अब कम्पनियाँ दूसरे देशों में अधिक विनियोग तथा वस्तु एक लगी हैं जिससे कि वह विदेशी ग्राहकों के और समीप आ सकें तथा कम लागत पर और अधिक प्रभावी ढंग से उनकी सेवा कर सकें। यह सभी गतिविधियाँ अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय का भाग हैं। 

अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की गतिविधि अर्थात् वस्तुओं का आयात-निर्यात तो सम्मिलित है ही इसके साथ ही निम्नलिखित को भी सम्मिलित किया जाता है- 
(1) सेवाओं का आयात एवं निर्यात-अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में सेवाओं के आयात एवं निर्यात को सम्मिलित किया जाता है। 

(2) अन्य गतिविधियाँ-अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली समस्त व्यावसायिक गतिविधियों को सम्मिलित किया जाता है, जिनमें से प्रमुख निम्न हैं-(i) अनुज्ञप्ति एवं विक्रेयाधिकार-अनुज्ञप्ति के अन्तर्गत उत्पादक वर्ग किसी देश की व्यावसायिक संस्था को अपने देश में अपने द्वारा निर्मित वस्तुएँ तथा सेवाएँ बेचने के लिए अनुज्ञप्ति प्रदान करते हैं। अनुज्ञप्ति के तहत ही विदेशों में स्थानीय उत्पादक पैप्सी एवं कोका कोला उत्पादन एवं विक्रय करते हैं। फ्रैंचाइजी सेवाओं के संदर्भ में प्रयुक्त होती है। मैक्डोनाल्ड्स विक्रेयाधिकार (फ्रैंचाइजी) प्रणाली के द्वारा ही पूरे विश्व में खाद्य जलपान गृह चलाते हैं। 

(ii) विदेश निवेश-इसके अन्तर्गत एक देश की कम्पनियाँ या लोग दूसरे देशों की संयुक्त कम्पनियों अथवा अन्य कार्यों में सीधे पूँजी निवेश करते हैं। 

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से अधिक व्यापक है जो विदेशों से व्यापार एवं वहाँ वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन से मिलकर बना है। 

प्रश्न 2. 
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय से व्यावसायिक इकाइयों को क्या लाभ हैं? 
उत्तर: 
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय से व्यावसायिक इकाइयों को लाभ 
अन्तर्राष्टीय व्यवसाय से व्यावसायिक इकाइयों को प्राप्त होने वाले प्रमख लाभ निम्नलिखित हैं- 
1. उच्च लाभ की सम्भावनाएँ-अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में घरेलू. व्यवसाय की तुलना में अधिक लाभ प्राप्त होता है। जब घरेलू बाजार में मूल्य कम हो तो उन देशों में माल बेचकर लाभ कमाया जा सकता है, जिनमें मूल्य अधिक है। 

2. बढ़ी हुई क्षमता का उपयोग-बहुत-सी इकाइयाँ घरेलू बाजार में उनकी वस्तुओं की माँग से कहीं अधिक क्षमता स्थापित कर लेती हैं। फलतः वे बाह्य विस्तार एवं अन्य देशों के ग्राहकों से आदेश प्राप्त करने की योजना बना सकते हैं और अपनी अतिरिक्त उत्पादन क्षमता के उपयोग करने की सोच सकते हैं और व्यवसाय की लाभदेयता को बढ़ा सकते हैं। बड़े पैमाने पर उत्पादन से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। जिससे उत्पादन लागत में कमी आती है तथा प्रति इकाई लाभ में वृद्धि होती है। 

3. विकास की सम्भावनाएँ-व्यावसायिक संस्थाओं में उस समय निराशा व्याप्त होने लगती है, जबकि आन्तरिक व्यवसाय में उनके उत्पादों की माँग में ठहराव आने लगता है या कम होने लगती है। ऐसी संस्थाएँ विदेशी बाजारों में प्रवेश कर अपने उत्पादों की माँग बढ़ाकर अपने विकास एवं विस्तार के अवसर काफी अधिक बढ़ा सकती हैं। इस प्रकार की स्थिति ने ही विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत जैसे विकासशील देशों के बाजार में प्रवेश करने के लिए प्रेरित किया है। विकासशील देशों में इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादों को काफी अधिक पसन्द किया जाने लगा और इनकी माँग तेजी से बढ़ने लगी। 

4. गहन प्रतियोगिता से बचाव-जब आन्तरिक बाजार में गहन प्रतिस्पर्धा हो तब संस्था के पर्याप्त विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ही एक मात्र उपाय रह जाता है। यह देखने में आया है कि आन्तरिक बाजार या घरेलू बाजार में गहन प्रतियोगिता के कारण कई कम्पनियाँ अपने उत्पादों के लिए बाजार की तलाश में विदेशों को पलायन करती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय इस प्रकार से उन कम्पनियों या संस्थाओं के लिए विकास की सीढ़ी का कार्य करता है जिन्हें घरेलू बाजार में गहन प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है। 

5. व्यावसायिक दृष्टिकोण-कई संस्थाओं व कम्पनियों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय का विकास उनकी व्यावसायिक नीतियों अथवा रणनीतिगत प्रबन्धन का एक भाग है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसायी बनने की आकांक्षा, विकास की तीव्र इच्छा, अधिक प्रतियोगी होने की आवश्यकता, विविधीकरण की आवश्यकता एवं अन्तर्राष्ट्रीयकरण के लाभ प्राप्ति का परिणाम है। 

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प्रश्न 3. 
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश हेतु निर्यात किस प्रकार से विदेशों में सम्पूर्ण स्वामित्व कम्पनियों की स्थापना से श्रेष्ठतर माध्यम है?
उत्तर:
एक फर्म आयात एवं निर्यात दो तरीकों से कर सकती है-प्रथम, प्रत्यक्ष आयात/निर्यात; द्वितीय, अप्रत्यक्ष आयात/निर्यात । प्रत्यक्ष आयात/निर्यात में फर्म स्वयं विदेशी क्रेता तक पहुँचती है तथा आयात/निर्यात से सम्बन्धित सभी औपचारिकताओं को स्वयं ही पूरा करती है। अप्रत्यक्ष आयात/निर्यात वह है, जिसमें फर्म की भागीदारी न्यूनतम होती है तथा वस्तुओं के आयात/निर्यात से सम्बन्धित अधिकांश कार्य को कुछ मध्यस्थ करते हैं जैसे-अपने ही देश में स्थित निर्यात गृह तथा आयात के लिए थोक आयातक। इस प्रकार की फर्मे निर्यात की स्थिति में विदेशी ग्राहकों से एवं आयात में आपूर्तिकर्ताओं से सीधे ही व्यवहार नहीं करती हैं। 

अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश हेतु निर्यात श्रेष्ठतर माध्यम 
1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के अन्य माध्यमों की तुलना में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में प्रवेश की आयात/निर्यात सबसे सरल पद्धति है। यह विदेशों में स्वयं के स्वामित्व वाली सहायक इकाइयों या कम्पनियों की तुलना में कम जटिल क्रिया है। 

2. आयात/निर्यात में संबद्धता कम होती है अर्थात् इसमें व्यावसायिक इकाइयों को उतना धन एवं समय लगाने की आवश्यकता नहीं है जितना कि विदेशों में स्वयं के स्वामित्व वाली कम्पनियाँ स्थापित करने में या फिर मेहमान देश में विनिर्माण संयन्त्र एवं सुविधाओं को स्थापित करने में लगाया जाता है। 

3. क्योंकि आयात/निर्यात में विदेशों में अधिक निवेश की आवश्यकता नहीं होती है इसीलिए विदेशों में निवेश की जोखिम शून्य होती है या फिर अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के अन्य माध्यमों जैसे विदेशों में सम्पूर्ण स्वामित्व कम्पनियों की तुलना में यह बहुत ही कम होती है। 

आयात/निर्यात की सीमाएँ-अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के माध्यम के रूप में इस माध्यम की भी निम्नलिखित कुछ सीमाएँ हैं- 
1. लागत में वृद्धि होना-आयात/निर्यात में वस्तुओं को भौतिक रूप से एक देश से दूसरे देश को लाया-ले जाया जाता है। इसलिए इन पर पैकेजिंग, परिवहन एवं बीमा की अतिरिक्त लागत आती है। यदि वस्तुएँ भारी हैं तो परिवहन व्यय आयात/निर्यात में बाधक होता है। इसके साथ ही सीमा शुल्क व अन्य कर भी लगते हैं, खर्चे भी होते हैं। फलतः उत्पाद की लागत में काफी वृद्धि हो जाती है। ऐसी दशा में उत्पाद विदेशी प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाता है। 

2. आयात पर प्रतिबन्ध लगाना-जब किसी देश में आयात पर प्रतिबन्ध लगा होता है तो वहाँ निर्यात भी नहीं किया जा सकता है। ऐसी दशा में फर्मों के पास अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश हेतु अन्य माध्यम ही विकल्प के रूप में रह जाते हैं। 

3. विदेशी बाजार से अधिक सम्पर्क नहीं-निर्यात इकाइयाँ मुख्य रूप से अपने गृह देश से व्यवसाय का प्रचालन करती हैं। वे अपने देश में उत्पादन कर उन्हें दूसरे देशों में भेजती हैं। निर्यात फर्मों के कार्यकारी अधिकारियों का अपनी वस्तुओं के प्रवर्तन के लिए अन्य देशों की गिनी-चुनी यात्राओं को छोड़कर इनका विदेशी बाजार से और अधिक सम्पर्क नहीं हो पाता। इससे निर्यात इकाइयाँ स्थानीय निकायों की तुलना में घाटे की स्थिति में रहती हैं क्योंकि स्थानीय निकाय ग्राहकों के काफी समीप होते हैं तथा उन्हें भली-भाँति समझते भी हैं। 

उपर्युक्त सीमाओं के होते हुए भी ऐसी फर्मे या कम्पनियाँ, जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश कर रही हैं उनकी पहली पसंद आयात/निर्यात ही है। इसके बाद ही वे अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय के प्रचलन के अन्य स्वरूपों को अपनाने लगते हैं। 

प्रश्न 4.
रेखा गारमैण्ट्स को आस्ट्रेलिया में स्थित स्विफ्ट इम्पोर्टस लि. को 2000 परुष पैंट के निर्यात का आदेश प्राप्त हुआ है। इस निर्यात आदेश को क्रियान्वित करने में रेखा गारमैंट्स को किस प्रक्रिया से गुजरना होगा? विवेचना कीजिए। 
उत्तर:
रेखा गारमैण्ट्स को अपने निर्यात आदेश को क्रियान्वित करने के लिये निम्नलिखित प्रक्रिया से गुजरना होगा- 
1. आयातक की साख का आंकलन एवं भगतान की गारण्टी प्राप्त करना-आदेश प्राप्ति के पश्चात रेखा गारमेंट्स (निर्यातक) आयातक अर्थात् स्विफ्ट इम्पोर्ट्स लि. की साख के सम्बन्ध में आवश्यक पूछताछ करता है। इस पूछताछ का उद्देश्य माल के आयात के गंतव्य स्थान पर पहुँचने पर आयातक द्वारा भुगतान न करने की जोखिम का आंकलन करता है। इस जोखिम को कम से कम करने के लिए अधिकांश निर्यातक, आयातक से साख पत्र की माँग करते हैं। साख पत्र आयातक के बैंक द्वारा जारी किया जाता है। जिसमें वह निर्यातक के बैंकों को एक निश्चित राशि तक के निर्यात बिलों के भुगतान की गारण्टी देता है। 

2. निर्यात लाइसेंस प्राप्त करना-भुगतान के सम्बन्ध में आश्वस्त हो जाने के पश्चात् निर्यातक फर्म को निर्यात करने से पहले निर्यात लाइसेंस प्राप्त कर लेना चाहिए। निर्यात लाइसेंस प्राप्त करने से पहले निम्न कार्य करने होंगे 

  • भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अधिकृत किसी भी बैंक में खाता खोलना एवं खाता संख्या प्राप्त करना। 
  • महानिदेशक विदेशी व्यापार के कार्यालय अथवा क्षेत्रीय आयात-निर्यात लाइसेंसिंग प्राधिकरण से आयात निर्यात कोड प्राप्त करना। 
  • निर्यात संवर्द्धन परिषद् के यहाँ पंजीयन करवान 
  • निर्यात साख एवं गारण्टी नियम भुगतान प्राप्त न होने के कारण होने वाली जोखिमों के विरुद्ध सुरक्षा हेतु पंजीकरण करना।

3. माल प्रेषण से पूर्व वित्त का प्रबन्ध करना-निर्यातक माल के प्रेषण से पूर्व के वित्त हेतु अपने बैंक के पास जाता है, जिससे कि वह निर्यात के लिए जरूरी उपाय कर सके। प्रेषण पूर्व वित्त वह राशि है जिसकी निर्यातक को कच्चा माल एवं अन्य सम्बन्धित चीजों का क्रय करने, वस्तुओं के प्रक्रियन एवं अन्य सम्बन्धित चीजों का क्रय करने, वस्तुओं के प्रक्रियन एवं पैकेजिंग तथा वस्तुओं के माल लदान बन्दरगाह तक परिवहन के लिए आवश्यकता होती है।

4. वस्तुओं का उत्पादन एवं अधिप्राप्ति-माल के लदान से पूर्व बैंक से वित्त की प्राप्ति हो जाने पर निर्यातक आयातक के विस्तृत वर्णन के अनुसार माल को तैयार करवायेगा। फर्म या तो इन वस्तुओं का स्वयं उत्पादन करेगी या इन्हें बाजार से क्रय करेगी। 

5. जहाज लदान पूर्व निरीक्षण-भारत सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि देश से केवल अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुएँ ही निर्यात की जायें, इसके लिए कई कदम उठाये हैं। इनमें से एक कदम सरकार द्वारा मनोनीत सर्वथा योग्य एजेन्सी द्वारा कुछ वस्तुओं का अनिवार्य निरीक्षण है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सरकार ने एक्सपोर्ट क्वालिटी कन्ट्रोल एवं निरीक्षण एक्ट, 1963 पारित किया। सरकार ने कुछ एजेन्सियों को निरीक्षण एजेन्सी के रूप में अधिकृत किया। निर्यातक को ऐसी एजेन्सी से अपने माल का निरीक्षण करवा लेना चाहिए। 

6. उत्पादक शुल्क की निकासी-केन्द्रीय उत्पादन शुल्क अधिनियम के अनुसार वस्तुओं के विनिर्माण में प्रयुक्त माल पर उत्पादन शुल्क का भुगतान करना होता है। निर्यातक को इसीलिये सम्बन्धित क्षेत्रीय उत्पादन शुल्क कमिश्नर को आवेदन करना होता है। यदि कमिश्नर सन्तुष्ट हो जाता है तो वह उत्पादन शुल्क की छूट का प्रमाण पत्र दे देगा। लेकिन कुछ मामलों में यदि उत्पादित वस्तुएँ निर्यात के लिए होती हैं तो सरकार उत्पादन शुल्क से छूट प्रदान कर देती है अथवा इसे लौटा देती है। 

7. उदगम प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना-कुछ आयातक देश किसी विशेष देश से आ रहे माल पर शुल्क की छूट अथवा . अन्य कोई छूट देते हैं। इनका लाभ उठाने के लिए आयातक, निर्यातक से उद्गम प्रमाण-पत्र की माँग कर सकता है। यह प्रमाण-पत्र इन बातों को प्रमाणित करता है कि वस्तुओं का उत्पादन उसी देश में हुआ है जिस देश ने इसका निर्यात किया है। इस प्रमाण-पत्र को निर्यातक के देश में स्थित वाणिज्य दूतावास के अधिकारी से प्राप्त किया जा सकता है। 

8. जहाज में स्थान का आरक्षण-निर्यातक फर्म जहाज में स्थान के लिए प्रावधान हेतु जहाजी कम्पनी को आवेदन करती है। इसे निर्यात के माल का प्रकार, जहाज में लदान की सम्भावित तिथि एवं गन्तव्य बन्दरगाह को घोषित करना होता है। जहाज पर आवेदन की स्वीकृति के पश्चात् जहाजी कम्पनी जहाजी आदेश-पत्र जारी करती है। जहाजी आदेश पत्र जहाज के कप्तान के नाम आदेश होता है कि वह निर्धारित वस्तुओं को नामित बन्दरगाह पर सीमा शुल्क अधिकारियों द्वारा निकासी होने पर जहाज पर माल का लदान करा ले। 

9. पैकिंग एवं माल को भेजना-माल उचित ढंग से पैकिंग कर उन पर आवश्यक विवरण देंगे। जैसे आयातक का नाम एवं पता, सकल एवं शुद्ध भार, भेजे जाने वाले एवं गंतव्य बन्दरगाहों के नाम एवं उद्गम देश का नाम आदि। निर्यातक तत्पश्चात् माल को बन्दरगाह तक ले जाने की व्यवस्था करता है। रेल के डिब्बे में माल का लदान करने के पश्चात् 'रेलवे रसीद' प्राप्त करनी होती है जो माल के मालिकाना अधिकार का कार्य करता है। निर्यातक इस रसीद को र के नाम बेचान कर देता है जिससे कि वह बन्दरगाह के शहर के स्टेशन पर माल की सुपुर्दगी प्राप्त कर ले। 

10. वस्तुओं का बीमा-वस्तुओं को मार्ग में समुद्री जोखिमों के कारण, माल के खो जाने अथवा टूट-फूट जाने की जोखिम से संरक्षण प्रदान करने के लिए निर्यातक बीमा कम्पनी से वस्तुओं का बीमा कराते हैं। 

11. कस्टम निकासी-जहाज में माल के लदान से पहले माल या वस्तुओं की कस्टम से निकासी अनिवार्य होती है। कस्टम से निकासी प्राप्त करने के लिए निर्यातक जहाजी बिल तैयार करता है। इसके द्वारा ही कस्टम कार्यालय निर्यात की अनुमति प्रदान करता है। जहाजी बिल की पाँच प्रति एवं निम्न प्रलेख कस्टम घर में तैनात कस्टम मूल्यांकन अधिकारी के पास जमा करा दिये जाते हैं-निर्यात अनुबन्ध अथवा निर्यात आदेश, साख पत्र, वाणिज्यिक बीजक, उद्गम प्रमाण पत्र, निरीक्षण प्रमाण-पत्र (यदि आवश्यक हो), समुद्री बीमा पॉलिसी अधीक्षक। 

इन प्रलेखों को जमा करने के पश्चात् सम्बन्धित बन्दरगाह न्यास के पास माल को ढो ले जाने का आदेश प्राप्त करने के लिए जाया जायेगा। यह आदेश बन्दरगाह के प्रवेश द्वार पर तैनात कर्मचारियों के नाम, डॉक में माल के प्रवेश की अनुमति देने के लिए आदेश होता है। ढो ले जाने के आदेश की प्राप्ति के बाद माल को बन्दरगाह क्षेत्र में ले जाकर उपयुक्त शैड में संग्रहित कर दिया जायेगा। निर्यातक की ओर से यह कार्य उसका एजेण्ट अर्थात् निकासी एजेण्ट करता है। 

12. जहाज के कप्तान की रसीद (मेट्स रिसीप्ट) प्राप्त करना-वस्तुओं को जहाज में लदवाने पर जहाज का कप्तान या कारिंदा जहाज के कप्तान की रसीद या मेट्स रसीद बन्दरगाह अधीक्षक को जारी करता है। यह रसीद जहाज के कप्तान के कार्यालय द्वारा जहाज पर माल के लदान पर जारी की जाती है। बन्दरगाह का अधीक्षक बन्दरगाही शुल्क की प्राप्ति के पश्चात् मेट्स रसीद को निकासी एवं प्रेषक एजेण्ट को सौंप देता है। 

13. भाड़े का भुगतान एवं जहाजी बिल्टी का बीमा-भाड़े की गणना के लिए निकासी एवं प्रेषक एजेण्ट मेट्स रसीद को जहाजी कप्तान को सौंप देता है। भाड़े के भुगतान के पश्चात् जहाजी कम्पनी जहाजी बिल्टी जारी करती है। यह इस बात का प्रमाण है कि जहाजी कम्पनी ने माल को नामित गन्तव्य स्थान तक ले जाने के लिए स्वीकार कर लिया है। यदि माल हवाई जहाज द्वारा भेजा जा रहा है तो उस प्रलेख को एयर-वे बिल कहेंगे। 

14. बीजक बनाना-माल को भेजने के पश्चात् भेजे गये माल का बीजक तैयार किया जायेगा। बीजक में भेजे गये माल की मात्रा एवं आयातक द्वारा भुगतान की जाने वाली राशि लिखी होती है। निकासी एवं प्रेषक एजेण्ट इसे कस्टम अधिकारी से सत्यापित करवायेगा। 

15. भुगतान प्राप्त करना-माल के जहाज से भेज देने के पश्चात् निर्यातक इसकी सूचना आयातक को देगा। माल के आयातक के देश में पहुँच जाने पर उसे माल पर अपने स्वामित्व के अधिकार का दावा करने के लिए एवं उनकी कस्टम से निकासी के लिए विभिन्न प्रलेखों की आवश्यकता होती है। ये प्रलेख हैं_बीजक की सत्यापित प्रति, जहाजी बिल्टी, पैकिंग सूची, बीमा पॉलिसी, उद्गम प्रमाण-पत्र एवं साख-पत्र । निर्यातक इन प्रलेखों को अपने बैंक के माध्यम से इन निर्देशों के साथ भेजता है कि इन प्रलेखों को आयातक को तभी सौंपा जाये जबकि वह विनिमय विपत्र को स्वीकार कर ले। जिसे ऊपर लिखे प्रलेखों के साथ भेजा जाता है। 

विनिमय विपत्र आयातक को एक निश्चित राशि का निश्चित व्यक्ति अथवा आदेशित व्यक्ति अथवा विलेख के धारकों को भुगतान करने का आदेश होता है। यह दर्श विपत्र अथवा मुद्दती विपत्र के रूप में हो सकता है। विनिमय विपत्र की प्राप्ति पर दर्श विपत्र के होने पर आयातक भुगतान कर देता है और यदि मुद्दती विपत्र है तो विपत्र की भुगतान तिथि पर भुगतान के लिए इसे स्वीकार करता है। निर्यातक का बैंक आयातक के बैंक के माध्यम से भुगतान प्राप्त करता है तत्पश्चात् उसे निर्यातक के खाते के जमा में लिख देता है। 

निर्यातक को आयातक द्वारा भुगतान करने के इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। निर्यातक अपने बैंक को प्रलेख सौंपकर एवं क्षतिपूरक पत्र पर हस्ताक्षर कर तुरन्त भुगतान कर सकता है। क्षतिपूरक पत्र पर हस्ताक्षर करके निर्यातक आयातक से भुगतान की प्राप्ति नहीं होने पर बैंक को यह राशि ब्याज सहित भुगतान करने का दायित्व लेता है। 
निर्यात के बदले भुगतान प्राप्त कर लेने पर निर्यातक को बैंक से भुगतान प्राप्ति का प्रमाण-पत्र प्राप्त करना पड़ता है। 

RBSE Solutions for Class 11 Business Studies Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

प्रश्न 5. 
आपकी फर्म कनाडा से कपड़ा मशीनरी के आयात की योजना बना रही है। आयात प्रक्रिया का वर्णन कीजिए। 
उत्तर 
आयात प्रक्रिया 
हमारी फर्म कनाडा से कपड़ा मशीन के आयात की योजना बना रही है तो हमें निम्नलिखित आयात प्रक्रिया को अपनाना होगा-

1. व्यापारिक पूछताछ करना-सर्वप्रथम हमें उस देश की विभिन्न फर्मों के सम्बन्ध में सूचनाएँ एकत्रित करनी चाहिए जो उत्पाद विशेष का निर्यात करती हैं। यह सूचना हमें व्यापार निर्देशिका, व्यापार संघ एवं व्यापार संगठनों से प्राप्त हो सकती है। तत्पश्चात् हमें निर्यातक फर्मों से व्यापारिक पूछताछ के द्वारा निर्यात मूल्यों एवं निर्यात शर्तों की सूचना प्राप्त करनी चाहिए। व्यापारिक पूछताछ का उत्तर प्राप्त हो जाने के बाद हमें निर्यातक निर्ख तैयार करना होगा एवं इसे आयातक को भेज देता है। इस निर्ख को प्रारूप बीजक कहते हैं। इस बीजक में निर्यात की जाने वाली वस्तु की गुणवत्ता, श्रेणी, स्वरूप, आकार, वजन एवं मूल्य तथा निर्यात की शर्ते लिखी रहती हैं। 

2. आयात लाइसेंस प्राप्त करना-यदि कपड़ा मशीनरी के आयात के लिए सरकार ने आयात लाइसेंस प्राप्त करना अनिवार्य किया हुआ है तो हमें आयात लाइसेंस प्राप्त करना होगा। हमारे देश में प्रत्येक आयातक के लिए विदेशी व्यापार महानिदेशक अथवा क्षेत्रीय आयात-निर्यात लाइसेंस प्राधिकरण के पास पंजीयन कराना एवं आयात निर्यात कोड नम्बर प्राप्त करना आवश्यक है। क्योंकि इस कोड नम्बर को अधिकांश आयात सम्बन्धी प्रलेखों पर लिखना अनिवार्य होता है। 

3. विदेशी मुद्रा का प्रबन्ध करना-निर्यातक विदेशी मुद्रा में भुगतान चाहेगा इसलिए विदेशी मुद्रा में भुगतान के लिए भारतीय मुद्रा का विदेशी मुद्रा में विनिमय कराना होगा। यह कार्य भारतीय रिजर्व बैंक के विनिमय नियन्त्रण विभाग द्वारा किया जाता है। नियमानुसार प्रत्येक आयातक के लिए विदेशी मुद्रा का अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक है। इस अनुमोदन को प्राप्त करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अधिकृत बैंक के पास विदेशी मुद्रा जारी करने के लिए आवेदन करना होगा। आवेदन की भली-भाँति जाँच कर लेने के पश्चात् बैंक आयात सौदे के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा का भुगतान कर देता है। 

4. आदेश अथवा इंडेंट भेजना-आयात लाइसेंस प्राप्त हो जाने के पश्चात् हमें माल की आपूर्ति के लिए निर्यातक के पास आदेश अथवा इंडेंट भेजना होगा। इस आदेश में आदेशित वस्तुओं का मूल्य, मात्रा माप, श्रेणी एवं गुणवत्ता एवं पैकिंग, माल का लदान बन्दरगाह जहाँ ले जाया जायेगा की सूचना दी जाती है। आयात आदेश स्पष्ट होना चाहिए। 

5. साख-पत्र प्राप्त करना-यदि हमारे एवं विदेशी आपूर्तिकर्ता के बीच भुगतान की शर्तों में साख-पत्र तय किया गया है तो हमें अपने बैंक से साख-पत्र प्राप्त करना होगा। जिसे हम (आयातक) आगे आपूर्तिकर्ता को भेजेंगे। 

साख-पत्र अन्तर्राष्ट्रीय सौदों के निपटान के लिए भुगतान का सबसे उपयुक्त एवं सुरक्षित साधन है। निर्यातक को इस प्रपत्र की आवश्यकता यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि भुगतान नहीं होने की कोई जोखिम नहीं है। 

6. वित्त की व्यवस्था करना-माल के बन्दरगाह पर पहुँचने पर निर्यातक को भुगतान करने के लिए आयातक अर्थात् हमें इसकी अग्रिम व्यवस्था करनी चाहिए। भुगतान नहीं किये जाने के कारण बन्दरगाह से निकासी नहीं होने की दशा में भारी विलम्ब शुल्क देना होता है। अतः इससे बचने के लिए आयात के वित्तीयन की अग्रिम योजना बनानी जरूरी होती है। 

7. जहाज से माल भेज दिये जाने की सचना की प्राप्ति-जहाज में माल के लदान करने के पश्चात विदेशी आपूर्तिकर्ता आयातक को माल भेजने की सूचना भेजता है। माल प्रेषण सूचना-पत्र में जो सूचनाएँ दी जाती हैं वह बीजक संख्या, जहाजी बिल्टी/वायु मार्ग बिल नम्बर एवं तिथि, जहाज का नाम एवं तिथि, निर्यात बन्दरगाह, माल का विवरण एवं मात्रा तथा जहाज के प्रस्थान की तिथि आदि के बारे में होती हैं। 

8. आयात प्रलेखों को छुड़ाना-माल रवानगी के पश्चात् विदेशी आपूर्तिकर्ता अनुबन्ध एवं साख-पत्र की शर्तों को ध्यान में रखकर आवश्यक प्रलेखों का संग्रह करता है तथा उन्हें अपने बैंक के पास भेज देता है जो उन्हें आगे साख पत्र में निर्धारित रीति से भेजता है एवं प्रक्रमण करता है। इस संग्रह में सामान्यतः विनिमय विपत्र, वाणिज्यिक बीजक, जहाजी बिल्टी, वायुमार्ग बिल, पैकिंग सूची, उद्गम स्थान प्रमाण पत्र, समुद्री बीमा पॉलिसी आदि सम्मिलित होते हैं। 

इन प्रलेखों के साथ प्रलेखीय विनिमय विपत्र भी भेजा जाता है। दर्श विपत्र में लेखक आदेशक बैंक को भुगतान प्राप्त हो जाने पर ही आयातक को आवश्यक प्रलेखों को सौंपने का आदेश देता है। लेकिन मुद्दती विपत्र की दशा में वह बैंक को प्रलेखों को आयातक द्वारा विनिमय विपत्र के स्वीकार किये जाने पर ही सौंपने का आदेश देता है। प्रलेखों को प्राप्त करने के लिए विनिमय विपत्र की स्वीकृति को आयात प्रलेखों का भुगतान कहते हैं। भुगतान हो जाने के पश्चात् आयात सम्बन्धी प्रलेखों को आयातक को सौंप देता है। 

9. माल का आगमन-विदेशी आपूर्तिकर्ता माल को अनुबन्ध के अनुसार भेजता है। वाहन का अभिरक्षक गोदी अथवा हवाई अड़े पर तैनात देख-रेख अधिकारी को माल के आयातक देश में पहँच जाने की सचना देता है। वह उन्हें एक विलेख सौंपता है जिसे आयातित माल की सामान्य सूची कहते हैं। यह वह प्रलेख है जिसमें आयातित का विस्तृत विवरण दिया होता है। इसी विलेख के आधार पर ही माल को उतरवाया जाता है। 

10. सीमा शुल्क निकासी एवं माल को छुड़ाना-भारत में आयातित माल को भारत की सीमा में प्रवेश के पश्चात् सीमा शुल्क निकासी से गुजरना होता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है। इसलिये यह उचित ही है कि निकासी एवं लदान वाले एजेण्ट की नियुक्ति की जाये। सीमा शुल्क से माल की निकासी में इस एजेण्ट की भूमिका अहम् होती है। 

सर्वप्रथम सुपुर्दगी आदेश प्राप्त करना होगा। सामान्यतः जब जहाज बन्दरगाह पर पहुँचता है तो आयातक जहाजी बिल्टी के पृष्ठ भाग पर बेचान करा लेता है। यह बेचान सम्बन्धित जहाजी कम्पनी के द्वारा किया जाता है। कुछ मामलों में जहाजी कम्पनी बिल का बेचान करने के स्थान पर एक आदेश-पत्र जारी कर देती है। यह आदेश पत्र आयातक को माल की सुपुर्दगी लेने का अधिकार देता है । आयातक को इससे पहले माल का भाड़ा चुकाना होगा यदि भाड़े का भुगतान निर्यातक ने नहीं किया है। गोदी व्यय का भुगतान भी हमें (आयातक को) करना होगा जिसके बदले उसे बन्दरगाह न्यास शुल्क की रसीद मिलेगी। इसके लिए आयातक अवतरण एवं जहाजी शुल्क कार्यालय में एक फार्म को भरकर उसकी दो प्रति जमा करानी होती है। इसे आयात आवेदन कहते हैं। डॉक व्यय (गोदी व्यय) का भुगतान कर देने पर आवेदन की एक प्रति जो प्राप्ति की रसीद होती है, आयातक को लौटा दी जाती है। इस रसीद को बन्दरगाह न्यास शुल्क रसीद कहते हैं। आयातक इसके पश्चात् आयात शुल्क निर्धारण हेतु प्रवेश बिल फार्म भरेगा। एक मूल्यांकनकर्ता सभी विलेखों का ध्यान से अध्ययन कर निरीक्षण के लिए आदेश देगा। आयातक मूल्यांकनकर्ता के द्वारा तैयार विलेख को प्राप्त करेगा और यदि शुल्क देना है तो उसका भुगतान करेगा। 

आयात शुल्क का भुगतान कर देने के बाद प्रवेश बिल की कॉपी बन्दरगाह अधीक्षक के समक्ष प्रस्तुत की जायेगी। अधीक्षक इसे चिन्हित करेगा और निरीक्षक से आयातित माल का भौतिक रूप में निरीक्षण करने के लिए कहेगा। निरीक्षक प्रवेश बिल पर ही अपना अनुमोदन लिख देगा। 

आयातक अथवा उसका प्रतिनिधि इस प्रवेश बिल को बन्दरगाह अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत करेगा। आवश्यक शुल्क ले लेने के बाद वह अधिकारी माल की सुपुर्दगी का आदेश दे देगा। 

RBSE Solutions for Class 11 Business Studies Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

प्रश्न 6. 
देश के विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने जिन संगठनों की स्थापना की है। उनके नाम दीजिए। 
उत्तर:
देश के विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा स्थापित संगठन 
भारत सरकार ने देश में विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर विभिन्न संगठनों या संस्थानों की स्थापना की है। ये संगठन या संस्थान निम्नलिखित हैं- 
1. वाणिज्य विभाग-भारत सरकार के वाणिज्य मन्त्रालय में वाणिज्य विभाग ऐसी सर्वोच्च संस्था है जो देश के विदेशी व्यापार एवं इससे सम्बन्धित सभी मामलों के लिए उत्तरदायी है। यह विभाग दूसरे देशों के साथ वाणिज्यिक सम्बन्ध बढ़ाने, राज्य व्यापार, निर्यात प्रोन्नति उपाय एवं निर्यात परक उद्योगों एवं वस्तुओं के नियमन का कार्य करता है। यह विभाग ही देश की आयात-निर्यात नीति बनाता है। 

2. निर्यात प्रोन्नति परिषद् (ई.पी.सी.)-निर्यात प्रोन्नति परिषद् गैर-लाभ संगठन होते हैं जिनको कम्पनी अधिनियम अथवा सहकारी समिति पंजीयन अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकरण कराया जाता है। इनका मूल उद्देश्य इनके अधिकार क्षेत्र के विशिष्ट उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देना एवं विकसित करना है। वर्तमान में 21 ऐसी परिषदें हैं जो विभिन्न वस्तुओं में व्यवहार करती हैं। 

3. सामग्री बोर्ड-भारत सरकार ने परम्परागत वस्तुओं के उत्पादन के विकास एवं उनके निर्यात के लिए इस बोर्ड की स्थापना की है। इनके कार्य भी निर्यात प्रोन्नति परिषद् के कार्यों के समान होते हैं। वर्तमान में भारत में सात सामग्री बोर्ड हैं-कॉफी बोर्ड, रबड़ बोर्ड, तम्बाकू बोर्ड, मसाले बोर्ड, केन्द्रीय सिल्क बोर्ड, चाय बोर्ड एवं कोयर बोर्ड। 

4. निर्यात निरीक्षण परिषद् (ई.आई.सी.)-निर्यात गुणवत्ता नियन्त्रण एवं निरीक्षण अधिनियम, 1963 की धारा 3 के अन्तर्गत भारत सरकार द्वारा स्थापित इस परिषद् का उद्देश्य गुणवत्ता नियंत्रण एवं लदान पूर्व निरीक्षण के माध्यम से निर्यात व्यवसाय का संवर्द्धन करना है। निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के गुणवत्ता नियंत्रण एवं पूर्ण लदान निरीक्षण सम्बन्धी क्रियाओं पर नियन्त्रण हेतु सर्वोच्च संस्था है। कुछ वस्तुओं को छोड़कर शेष सभी निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के लिए निर्यात निरीक्षण परिषद् की स्वीकृति लेना अनिवार्य है। 

5. भारतीय व्यापार प्रोन्नति संगठन (आई.टी.पी.ओ.)-इस संगठन की स्थापना भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय द्वारा कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत जनवरी, 1992 में की गई थी। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। यह देश के अन्दर तथा देश के बाहर व्यापार मेले एवं प्रदर्शनियों का आयोजन कर औद्योगिक क्षेत्र की सेवा करता है। यह निर्यात फर्मों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेले एवं प्रदर्शनियों में भाग लेने में सहायता करता है, नई वस्तुओं के निर्यात को विकसित करता है, वाणिज्य-व्यवसाय सम्बन्धी आज तक की सूचना उपलब्ध करता है एवं समक प्रदान करता है। मुम्बई, बैंगलुरू, कोलकाता, कानपुर एवं चेन्नई में इसके क्षेत्रीय कार्यालय हैं तथा चार अन्तर्राष्ट्रीय कार्यालय हैं जो जर्मनी, जापान, संयुक्त अरब अमीरात एवं अमेरिका में स्थित हैं। 

6. भारतीय विदेशी व्यापार संस्थान-भारत सरकार ने सन 1963 में इस संस्थान की स्थापना समिति पंजीयन अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत स्वायत्त संस्था के रूप में की थी। संस्थान का मूल उद्देश्य देश के विदेशी व्यापार प्रबन्ध को एक पेशे का स्वरूप प्रदान करना है। यह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रशिक्षण देती है, अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय के विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान करती है एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं निवेश से सम्बन्धित आंकड़ों का विश्लेषण एवं प्रसार करता है। 

7. भारतीय पैकेजिंग संस्थान (आई.आई.पी.)-इस संस्थान की स्थापना सन् 1966 में भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय एवं भारतीय पैकेजिंग उद्योग एवं सम्बन्धित हितों के संयुक्त प्रयास से की गई थी। इसका मुख्यालय एवं प्रमुख प्रयोगशाला मुम्बई में एवं तीन क्षेत्रीय प्रयोगशालाएँ कोलकाता, दिल्ली एवं चेन्नई में स्थित हैं। यह पैकेजिंग एवं जाँच का प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान है। इसके पास वे सुविधाएँ हैं जो पैकेजिंग विनिर्माण एवं पैकेज उपयोग, उद्योगों की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। यह राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के पैकेजिंग की जरूरतों को पूरा करती है। यह तकनीकी सलाह देने, पैकेजिंग के विकास की जाँच सेवाएँ, प्रशिक्षण एवं शैक्षणिक कार्यक्रम संवर्द्धन, इनामी प्रतियोगिता, सूचना सेवाएँ एवं अन्य सहायक क्रियाएँ करता है। 

8. राज्य व्यापार संगठन (एस.टी.सी.)-भारत की घरेलू फर्मों के लिए विश्व बाजार की प्रतियोगिता में टिकना कठिन था। इसके साथ ही वर्तमान व्यापार मार्ग/माध्यम निर्यात, प्रोन्नति एवं यूरोप के देशों को छोड़कर अन्य देशों के साथ व्यापार में विविधता लाने के लिए. वर्तमान माध्यम अनुपयुक्त थे। इन परिस्थितियों में मई 1956 में राज्य व्यापार संगठन की स्थापना की गई थी। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य विश्व के विभिन्न व्यापार में, भागीदारों में व्यापार, विशेषतः निर्यात को बढ़ावा देना है। तत्पश्चात् सरकार ने मैटल एवं मिनरल व्यापार निगम (एम.एम.टी.सी.), हैण्डलूम एवं हैण्डीक्राफ्ट निर्यात निगम (एच.एच.ई.सी.) आदि की स्थापना की। 

RBSE Solutions for Class 11 Business Studies Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

प्रश्न 7. 
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष क्या है? इसके विभिन्न उद्देश्यों एवं कार्यों की विवेचना कीजिए। 
उत्तर: 
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) 
विश्व बैंक के समान ही एक अन्य महत्त्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय संगठन आई.एम.एफ. है जिसकी स्थापना 1945 में हुई थी। इसका मुख्यालय वाशिंगटन डी.सी. में स्थित है। 2005 में 91 देश इसके सदस्य थे जो अब बढ़कर 188 हो गये हैं। आई.एम.एफ. की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य एक व्यवस्थित अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली का विकास करना है अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय भगतान प्रणाली को सविधाजनक बनाना एवं राष्ट्रीय मुद्राओं में विनिमय दर को समायोजित करना। 

उद्देश्य-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  • एक स्थायी संस्था के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा सहयोग को बढ़ावा देना। 
  • अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सन्तुलित विकास के विस्तार को सुगम बनाना एवं उच्च स्तरीय रोजगार एवं वास्तविक आय में वृद्धि एवं अनुरक्षण में योगदान देना। 
  • सदस्य देशों के बीच नियमानुसार विनिमय व्यवस्था के उद्देश्य से विनिमय स्थिरता को बढ़ाना। 
  • सदस्य देशों के बीच वर्तमान लेन-देनों के संदर्भ में भुगतान की बहुआयामी प्रणाली की स्थापना में सहायता करना।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्य-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  • एक लघु अवधि साख संस्था के रूप में कार्य करना। 
  • विनिमय दर के नियम के अनुसार समायोजन के लिए तंत्र की रचना करना। 
  • सभी सदस्य देशों की मुद्राओं के कोष के रूप में कार्य करना जिसमें से कोई भी देश दूसरे देश की मुद्रा में ऋण ले सकता है। 
  • विदेशी मुद्रा एवं वर्तमान लेन-देनों के लिए ऋण देने वाली संस्था के रूप में कार्य करना। 
  • किसी भी देश की मुद्रा का मूल्य निर्धारित करना अथवा आवश्यकता पड़ने पर उसमें परिवर्तन करना जिससे . कि सदस्य देशों में विनिमय दरों में सुव्यवस्थित समायोजन किया जा सके। 
  • अन्तर्राष्ट्रीय विचार-विमर्श के लिए तंत्र की व्यवस्था करना। 

प्रश्न 8. 
विश्व व्यापार संगठन की विशेषताओं, ढाँचा, उद्देश्य एवं कार्य संचालन पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए। 
उत्तर: 
विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) 
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक की तर्ज पर जो देश बॅटनवुड्स सम्मेलन में भाग ले रहे थे, ने विश्व को ऊँचे सीमा शुल्क एवं उस समय लागू अन्य दूसरे प्रकार के प्रतिबन्धों से मुक्त कराने के लिए आपस में कोई व्यवस्था करना तय किया। यह व्यवस्था शुल्क एवं व्यापार का साधारण समझौता (जनरल एग्रीमेंट फॉर टैरिप्स एण्ड ट्रेड-जी.ए.टी.टी.) कहलाया। गैट 1 जनवरी, 1948 को अस्तित्व में आया। इसके सान्निध्य में सीमा शुल्क एवं अन्य बाधाओं को कम करने के लिए बातचीत के कई दौर हो चुके थे। अन्तिम दौर (यूरूग्वे दौर) में सर्वाधिक संख्या में समस्याओं पर विचार किया गया एवं जिसकी अवधि भी सबसे लम्बी रही जो कि 1986 से 1994 तक की सात वर्ष की थी। यूरूग्वे दौर की प्रमुख उपलब्धियों में से एक है विभिन्न देशों में स्वतंत्र एवं सन्तोषजनक व्यापार की प्रोन्नति पर ध्यान देने के लिए एक स्थायी संस्था की स्थापना का निर्णय। 1 जनवरी, 1995 से गैट को विश्व व्यापार संगठन में परिवर्तित कर दिया गया। इसका मुख्यालय जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड) में है। 

यद्यपि विश्व व्यापार संगठन जी.ए.टी.टी. का उत्तराधिकारी है तथापि यह उससे अधिक शक्तिशाली संगठन है। विश्व व्यापार संगठन न केवल वस्तुओं बल्कि सेवाओं एवं बौद्धिक सम्पदा अधिकार में व्यापार को शासित करता है। यह एक स्थायी संगठन है जिसकी स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय समझौते से हुई है तथा जिसे सदस्य देशों की सरकारों एवं विधान मण्डलों ने प्रमाणित किया है। इसमें समस्त निर्णय सदस्य देशों द्वारा आम राय से लिये जाते हैं। भारत विश्व व्यापार संगठन का संस्थापक सदस्य है। 11 दिसम्बर, 2005 को इसके 149 सदस्य थे जो 26 जून, 2014 को बढ़कर 160 हो गये। 

उद्देश्य-विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं- 

  • विश्व के संसाधनों के समुचित उपयोग के द्वारा टिकाऊ विकास करना जिससे कि पर्यावरण को सुरक्षा एवं संरक्षण को सुनिश्चित किया जा सके। 
  • विभिन्न देशों द्वारा लगाये शुल्क एवं अन्य व्यापारिक बाधाओं में कमी को सुनिश्चित करना। 
  • ऐसे कार्य करना जो जीवन स्तर में सुधार लाये, रोजगार पैदा करे, आय एवं प्रभावी माँग में वृद्धि करे और अधिक उत्पादन एवं व्यापार को सुगम बनाये। 
  • टिकाऊ विकास के लिए विश्व संसाधनों के उचित उपयोग को सुगम बनाना। 
  • एकीकृत, अधिक व्यावहारिक एवं टिकाऊ व्यापार प्रणाली का प्रवर्तन।

विश्व व्यापार संगठन के कार्य-विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं- 

  • एक ऐसे वातावरण को बल देना जो इसके सदस्य देशों को अपनी शिकायतों की दूर करने के लिए डब्ल्यू.टी.ओ. के पास आने के लिए प्रोत्साहित करें। 
  • एक सर्वमान्य आचार संहिता बनाना जिससे कि व्यापार की बाधाओं जैसे सीमा शुल्क को कम किया जा सके एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्बन्धों में पक्षपात को समाप्त किया जा सके। 
  • विवादों के हल करने वाली संस्था के रूप में कार्य करना। 
  • यह सुनिश्चित करना कि सभी सदस्य देश अपने आपसी विवादों को हल करने के लिए अधिनियम द्वारा निर्धारित सभी नियम एवं कानूनों का पालन करें। 
  • आई.एम.एफ. एवं आई.बी.आर.डी. एवं इससे सम्बद्ध एजेन्सियों से विचार-विमर्श करना जिससे कि वैश्विक आर्थिक नीति के निर्माण में और श्रेष्ठ समझ एवं सहयोग का समावेश किया जा सके। . 
  • वस्तुओं, सेवाओं एवं व्यापार से सम्बन्धित बौद्धिक अधिकारों के सम्बन्ध में संशोधित समझौते एवं सरकारी घोषणाओं के परिचालन का नियमित पर्यवेक्षण करना।
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Last Updated on July 14, 2022, 7:32 p.m.
Published July 11, 2022