Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 9 Hindi अपठित काव्यांश Questions and Answers, Notes Pdf.
RBSE Class 9 Hindi अपठित काव्यांश
निर्देश-निम्नलिखित काव्यांश को पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए -
1. कुछ भी बन, बस कायर मत बन
ठोकर मार, पटक मत माथा
तेरी राह रोकते पाहन
कुछ भी बन, बस कायर मत बन
ले-देकर जीना, क्या जीना?
कब तक गम के आँसू पीना?
मानवता ने तुझको सींचा
बहा युगों तक खून-पसीना।
कुछ न करेगा? किया करेगा
रे मनुष्य - बस कातर क्रंदन?
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को,
कर न दुष्ट को आत्म-समर्पण
कुछ भी बन, बस कायर मत बन।
प्रश्न :
- प्रस्तुत काव्यांश में कवि क्या करने की प्रेरणा दे रहा है?
- 'ले-देकर जीना, क्या जीना?' इससे कवि ने क्या भाव व्यक्त किया है?
- 'कुछ भी बन, बस कायर मत बन।' कवि ने ऐसा क्यों कहा है?
- हमें किसे क्या अर्पण करना चाहिए?
- प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक बताइए।
- 'पाहन' शब्द का पर्यायवाची लिखिए।
- कातर क्रन्दन कौन करता है?
- 'आत्म-समर्पण' पद का समास-विग्रह एवं समास-नाम बताइए।
उत्तर :
- प्रस्तुत काव्यांश में कवि कायर न बनकर पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा दे रहा है।
- इससे कवि ने यह भाव व्यक्त किया है कि कोरा समझौतावादी बनकर जीना उचित नहीं है।
- कायर मनुष्य का जीवन व्यर्थ रहता है, उसे हर कोई दबाता-सताता रहता है।
- हमें मानवता के पक्षधर मानव को अपना सर्वस्व अर्पण करना चाहिए।
- शीर्षक-बस कायर मत बन।
- पाहन-पत्थर।
- जिसे कुछ भी करना नहीं आता है, उद्यमी नहीं होता है, वही कातर क्रन्दन करता है।
- आत्म-समर्पण-आत्म का समर्पण-तत्पुरुष समास।
2. बादल, गरजो!
घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!
ललित ललित, काले धुंघराले,
बाल कल्पना के-से पाले,
विद्युत-छवि उर में, कवि, नवजीवन वाले!
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो -
बादल, गरजो! विकल विकल, उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन, आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो -
बादल, गरजो!
प्रश्न :
- कवि बादल से क्या करने के लिए कहता है?
- धरा किस कारण तप्त बतायी गयी है?
- 'विकल विकल, उन्मन थे उन्मन' पंक्ति में कौनसा अलंकार है?
- कवितांश में बादल की उपमा किससे दी गई है?
- प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- 'बादल' शब्द के दो पर्यायवाची लिखिए।
- 'निदाघ' शब्द से क्या तात्पर्य है?
- अज्ञात एवं शीतल शब्द के विलोमार्थी लिखिए।
उत्तर :
- कवि बादल से आकाश में घनघोर गर्जना करने के लिए कहता है।
- धरा अत्यधिक गर्मी एवं लू आदि से तप्त बतायी गयी है।
- इस पंक्ति में सार्थक शब्दावृत्ति से यमक अलंकार है।
- कवितांश में बादल की उपमा बाल-कल्पना से दी गई है।
- शीर्षक-बादल, गरजो!
- बादल-मेघ, घन।
- "निदाघ' शब्द का तात्पर्य ग्रीष्म ऋतु है।
- अज्ञात-ज्ञात, शीतल-उष्ण।
3. नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारा-मण्डन है।
बन्दीजन खग-वृन्द, शेष-फन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस देश की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।
जिसकी रज में लोट-लोटकर बड़े हुए हैं।
घुटनों के बल सरक-सरककर खड़े हुए हैं।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल-भरे हीरे कहलाये।
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख क्यों न हों मोद में॥
प्रश्न :
- मातृभूमि को किसकी मूर्ति बताया गया है?
- 'धूल-भरे हीरे' से कवि का क्या आशय है?
- उपर्युक्त काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- मातृभूमि का सिंहासन किसे बताया गया है?
- इस काव्यांश के द्वारा कवि ने क्या सन्देश दिया है?
- नदियों को मातभमि का प्रेम-प्रवाह बतलाने से क्या आशय है?
- 'नीलाम्बर' पद में कौनसा समास है? बताइए।
- 'करते अभिषेक पयोद हैं'-'पयोद' के दो पर्यायवाची लिखिए।
उत्तर :
- मातृभूमि को परमेश्वर या सर्वेश की सगुण-साकार मूर्ति बताया गया है।
- इससे कवि का आशय है कि हम मातृभूमि की धूल में रहकर अपना जीवन सार्थक एवं गरिमामय बना सके
- इस काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-मातृभूमि।
- मातृभूमि का सिंहासन शेषनाग के फन को बताया गया है।
- इस काव्यांश के द्वारा कवि ने सन्देश दिया है कि हमें मातृभूमि के प्रति भक्ति-भाव व अपनत्व भाव रखना चाहिए।
- प्रेम ऐसा सात्विक भाव होता है, जो सर्वत्र फैलता रहता है, उसमें तरलता एवं प्रवाहशीलता रहती है। - इसीलिए नदियों को मातृभूमि का प्रेम-प्रवाह बताया गया है।
- नीलाम्बर-नीला है अम्बर (वस्त्र)-कर्मधारय समास।
- पयोद–मेघ, बादल।
4. है अनिश्चित किस जगह पर
सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,
है अनिश्चित किस जगह पर
बाग वन सुन्दर मिलेंगे,
किस जगह यात्रा खतम हो
जायगी, यह भी अनिश्चित
है अनिश्चित, कब सुमन कब
कंटकों के शर मिलेंगे,
कौन सहसा छूट जायेंगे
मिलेंगे कौन सहसा
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा
तू न, ऐसी आन कर ले,
पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले।
प्रश्न :
- 'बाग वन सन्दर मिलेंगे' में 'बाग एवं वन' किसके प्रतीक हैं?
- इस काव्यांश में कवि क्या सन्देश दे रहा है?
- 'ऐसी आन कर ले' कवि कैसी आन करने के लिए कह रहा है?
- 'है अनिश्चित' वाक्यांश से कवि ने क्या व्यंजना की है?
- 'कंटकों के शर' से क्या अभिप्राय है?
- उपर्युक्त काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- 'सरित' शब्द के तीन पर्यायवाची शब्द लिखिए।
- 'अनिश्चित' शब्द में उपसर्ग बताइए।
उत्तर :
- इसमें बाग एवं वन सुखदायक स्थितियों के प्रतीक हैं।
- कवि सन्देश दे रहा है कि जीवन-पथ पर चलने से पूर्व उसकी पहचान कर लो, उतावलापन रखने से अनेक बाधाएँ आ सकती हैं।
- कवि ऐसी आन करने के लिए कह रहा है कि जीवन-पथ पर चाहे कितने ही कष्ट मिलें, बाधाएँ आयें, परन्तु उनसे घबराकर नहीं रुकना चाहिए और आगे ही बढ़ना चाहिए।
- इस वाक्यांश से कवि ने व्यंजना की है कि जीवन-पथ में कुछ भी घटित हो सकता है, इसका पहले से ज्ञान नहीं रहता है।
- इससे यह अभिप्राय है कि कष्टदायक अनेक बाधाएँ काँटों की तरह पैरों में चुभ कर लक्ष्य से भ्रष्ट कर सकती
- इसका उपयुक्त शीर्षक है - पथ की पहचान।
- सरित–नदी, आपगा, निम्नगा।
- अनिश्चित-अ. + निस् उपसर्ग।
5. हे ग्राम देवता! नमस्कार!
सोने-चाँदी से नहीं किन्तु,
तुमने मिट्टी से किया प्यार।
हे ग्राम देवता! नमस्कार!
तुम जन-मन के अधिनायक हो,
तुम हँसो कि फूले-फले देश।
आओ सिंहासन पर बैठो,
यह राज्य तुम्हारा है अशेष।
उर्वरा भूमि के नये खेत,
ये नये धान्य से सजे वेश।
तुम भू पर रहकर भूमि भार,
धारण करते हो मनुज-शेष।
प्रश्न :
- उपर्युक्त काव्यांश का उचित शीर्षक बताइए।
- किसान को 'मनुज-शेष' किस आशय से कहा गया है?
- किसान किससे प्यार करता है?
- किसान को ग्राम-देवता क्यों कहा गया है?
- इस काव्यांश से क्या सन्देश व्यक्त हुआ है?
- जन-मन का अधिनायक किसे कहा गया है?
- 'भूमि' शब्द का समानार्थी शब्द बताइए।
- 'अधिनायक' शब्द में उपसर्ग और मूल शब्द बताइए।
उत्तर :
- इस काव्यांश का शीर्षक होगा - ग्राम-देवता किसान।
- जिस प्रकार शेषनाग धरती के भार को धारण करता है, उसी प्रकार किसान धरती पर रहने वालों के भरण पोषण का भार उठाता है। इसी आशय से किसान को 'मनुज-शेष' कहा गया है।
- किसान अपनी धरती अर्थात् हरी-भरी खेती से प्यार करता है।
- किसान धरती को उपजाऊ बनाकर अपने श्रम से अनाज उगाता है तथा सभी का भरण-पोषण करता है। इसी कारण उसे ग्राम-देवता कहा गया है।
- किसान कष्टमय जीवन व्यतीत करके दूसरों का हित करता है। ऐसे किसान के प्रति सम्मान का भाव रखना चाहिए।
- जन-मन का अधिनायक ग्राम-देवता अर्थात् किसान को कहा गया है।
- भूमि - धरा।
- अधिनायक - अधि उपसर्ग + नायक मूल शब्द।
6. मंजिल को बाँधो मत चलना रुक जाएगा
जीवन थक जाएगा।
बोलो अठपाखी मलयानिल
कब हरी किस वातायन में
बोलो कब चपला किरण बँधी
दहरी वाले किस आँगन में
केवल दो पल की
उम्र हुआ करती पाहुन मनुहारों की
पायल को रोको मत रुनुझुन रुक जाएगी
सरगम घुट जाएगा।
भरमों को बाँधो मत उलझन उग आएगी
संगम मिट जायेगा
मंजिल को बाँधो मत, चलना रुक जायेगा
जीवन थक जायेगा।
प्रश्न :
- उपर्युक्त काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- कविता के अनुसार जीवन कब थक जायेगा?
- प्रस्तुत काव्यांश में क्या सन्देश निहित है?
- 'मनुहारों' की उपमा किससे दी गई है?
- कविता में 'अठपाखी मलयानिल' किसका प्रतीक है?
- 'मंजिल को बाँधो मत' कथन का क्या आशय है?
- 'अनिल' के दो पर्यायवाची शब्द लिखिए।
- 'मलयानिल' पद का समास-विग्रह करके समास-नाम लिखिए।
उत्तर :
- इस काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक है - 'मंजिल को बाँधो मत'।
- जब लक्ष्य सीमित रहेगा अथवा उद्देश्य अनिश्चित रहेगा, तब जीवन थक जाएगा।
- जीवन में सफलता पाने के लिए लक्ष्य के प्रति गतिशील बने रहना चाहिए।
- इसमें मनुहारों की उपमा पाहुन अर्थात् मेहमान से दी गई है।
- कविता में अठपाखी मलयानिल निरन्तर प्रगतिशीलता का एवं लक्ष्य-प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील का प्रतीक है।
- इसका आशय है कि लक्ष्य या जीवन के उद्देश्य को सीमित मत करो, लक्ष्य को बढ़ने से कर्मठता का संचार - होता रहेगा।
- अनिल' हवा, पवन।
- मलयानिल - मलय की अनिल - तत्पुरुष समास।
7. हे भाइयो! सोये बहुत, अब तो उठो, जागो अहो!
देखो जरा अपनी दशा, आलस्य को त्यागो अहो!
कुछ पार है क्या-क्या समय के उलट-फेर न हो चुके,
अब भी सजग होंगे न क्या? सर्वस्व तो हो खो चुके।
जो लोग पीछे थे तुम्हारे, बढ़ गये हैं बढ़ रहे,
पीछे पड़े तुम देव के सिर दोष अपना मढ़ रहे।
पर कर्म-तैल बिना कभी विधि-दीप जल सकता नहीं,
है दैव क्या? साँचे बिना कुछ आप ढल सकता नहीं।
आओ, मिलें सब देश-बान्धव हार बनकर देश के,
साधक बनें सब प्रेम से सुख-शान्तिमय उद्देश्य के।
क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो,
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो।
प्रश्न :
- इस कवितांश में किन्हें क्या सन्देश दिया गया है?
- इस काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक क्या होगा?
- अपने भाग्य पर दोष कौन मढ़ते हैं?
- समय की परिवर्तनशीलता को लक्ष्य कर क्या कहा गया है?
- 'पर कर्म-तैल बिना' इत्यादि कथन का क्या भाव है?
- सब भारतवासी किसके साधक बनें?
- साम्प्रदायिक भेद-भाव से क्या हानि होती है?
- 'दैव' शब्द का पर्यायवाची शब्द बताइए।
उत्तर :
- इस कवितांश में भारतीयों को आगे बढ़ने और प्रगति करने का सन्देश दिया गया है।
- इस काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक होगा - 'उठो, आगे बढ़ो, ऊँचा चढ़ो।
- जो लोग आलसी होते हैं, निराशा से ग्रस्त होकर भाग्यवादी बन जाते हैं, वे ही अपने भाग्य पर दोष मढ़ते हैं।
- समय सदा एक-सा नहीं रहता, समय में उलट-फेर होता रहता है, जिससे विपरीत परिस्थितियाँ भी अनुकूल बन जाती हैं।
- इसका यह भाव है कि जिस प्रकार तेल के बिना दीपक नहीं जल सकता, उसी प्रकार कर्म किये बिना कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। उद्यम करने के लिए कर्मनिष्ठ बनना चाहिए।
- सब भारतवासी परस्पर प्रेम-भाव, एकता एवं सुख-शान्तिमय उद्देश्य के साधक बनें।
- साम्प्रदायिक भेद-भाव से देश तथा समाज की एकता कमजोर पड़ जाती है तथा भाईचारे की हानि होती है।
- दैव-भाग्य।
8. ओ हिमानी चोटियों के सजग प्रहरी
तंग सूनी घाटियों के सबल रक्षक,
तू न एकाकी समझना आपको
देश तेरे साथ अन्तिम श्वास तक!
जानते हम पंथ है दुर्लंघ्य तेरा,
जानते हम कर्म का काठिन्य तेरा,
मौत का है सामने तेरे अंधेरा,
किन्तु पीछे आ रहा जगता सवेरा।
तू सिपाही सत्य का स्वातन्त्र्य का है,
न्याय का और शान्ति का है तू सिपाही,
प्राण देकर प्राण के ओ' प्रबल प्रहरी!
जा रहा तू देशहित बलि पंथ राही!
जा कि तेरे साथ है इस देश का बल,
साथ तेरी विजय की शुभ कामना है।
प्रश्न :
- सजग प्रहरी किसकी पहरेदारी कर रहा है?
- सजग प्रहरी का कर्म कैसा बताया गया है?
- प्रहरी के साथ देशवासियों की क्या शुभ भावना है?
- इस काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- इस काव्यांश में किस भाव की प्रधानता है?
- सजग प्रहरी को किसका सिपाही बताया गया है?
- 'किन्तु पीछे आ रहा जगता सवेरा'-इससे क्या आशय है?
- 'दुर्लघ्य' शब्द में उपसर्ग एवं प्रत्यय बताइए।
उत्तर :
- सजग प्रहरी भारत के हिमालय के सीमान्त भाग की पहरेदारी कर रहा है।
- सजग प्रहरी का कर्म सीमान्त की तत्परता से रक्षा करने से अतीव कठिन बताया गया है।
- प्रहरी सबल-सजग होकर सीमान्त
- होकर सीमान्त की रक्षा करे और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे-देशवासियों की यही शुभ-भावना है।
- इस काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक होगा-'सीमान्त के प्रहरी'।
- इस काव्यांश में देश-रक्षा, देश-भक्ति एवं त्याग-शौर्य के भाव की प्रधानता है।
- सजग प्रहरी को देश की स्वतंत्रता, न्याय, शान्ति और सत्य आदि का सिपाही या रक्षक बताया गया है।
- इससे यह आशय है कि देश में प्रगति का प्रकाश फैलने लगा है, अब जनता को खुशहाल जीवन प्राप्त हो जायेगा।
- दुर्लंघ्य-दुर् उपसर्ग + लंघ् + य प्रत्यय।
9. विदित किसे है नहीं भला वह, भारत भू की ढाल महान्,
शौर्य-वीर्य का अविरल निर्झर पुण्यतीर्थ वह राजस्थान,
था चित्तौड़ दुर्ग-सा उसका दुर्विजेय विजयोन्नत भाल,
झुका नहीं वह कभी देह पर पाकर भी प्रहार विकराल।
यह आडावल अचल दुर्ग-सा इसका सजग सबल प्रहरी,
जिसकी सुखछाया में रह-रह सह पाया यह दोपहरी।
यह नीचे हल्दीघाटी है वसुधा विश्रुत रणस्थली,
जहाँ शूरवीरों के रज से रक्त नदी थी उमड़ चली।
बलि चढ़ गये मातृ-चरणों पर यहीं यहीं अगणित प्राणी,
काश कि हम सुन सकते इन मूक शिलाओं की वाणी,
न्यौछावर जिसके चरणों में शत शत शूर हुए बाँके,
उसी रत्न-गर्भा भू का क्या जड़ लेखनी मूल्य आँके!
प्रश्न :
- राजस्थान को किसका पुण्य-तीर्थ बताया गया है?
- राजस्थान का भाल किसके समान और कैसा रहा है?
- हल्दीघाटी किस कारण प्रसिद्ध रही है?
- प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- 'भारत भू की ढाल महान्' किसे बताया गया है?
- लेखनी से किसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता?
- 'शौर्य-वीर्य' में समास-विग्रह करके समास का नाम लिखिए।
- 'दुर्विजेय' पद में उपसर्ग-प्रत्यय की स्थिति बताइए।
उत्तर :
- राजस्थान को शौर्य-वीर्य के प्रवाह का पुण्य-तीर्थ बताया गया है।
- राजस्थान का भाल चित्तौड़ दुर्ग के समान दुर्विजेय और विजयोन्नत रहा है।
- महाराणा प्रताप के युद्ध-क्षेत्र के रूप में हल्दीघाटी प्रसिद्ध रही है।
- इस काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-'राजस्थान-गरिमा'।
- वीरभूमि राजस्थान को भारत भूमि की महान् ढाल बताया गया है।
- लेखनी से मातृभूमि की खातिर प्राणों को न्यौछावर करने वाले देश-भक्तों के त्याग का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
- शौर्य-वीर्य - शौर्य और वीर्य-द्वन्द्व समास।
- दुर् + वि उपसर्ग + जि धातु + एय प्रत्यय।
10. मनमोहिनी प्रकृति की जो गोद में बसा है,
सुख स्वर्ग-सा जहाँ है, वह देश कौनसा है?
जिसका चरण निरन्तर रत्नेश धो रहा है,
जिसका मुकुट हिमालय, वह देश कौनसा है?
नदियाँ जहाँ सुधा की धारा बहा रही हैं,
सींचा हुआ सलोना, वह देश कौनसा है?
जिसके बड़े रसीले, फल, कन्द, नाज, मेवे,
सब अंग में सजे हैं, वह देश कौनसा है?
जिसमें सुगन्ध वाले, सुन्दर प्रसून प्यारे,
दिन-रात हँस रहे हैं, वह देश कौनसा है?
मैदान, गिरि, वनों में हरियालियाँ लहकतीं
आनन्दमय जहाँ है, वह देश कौन-सा है?
जिसकी अनन्त धन से, धरती भरी पड़ी है,
संसार का शिरोमणि, वह देश कौन-सा है?
प्रश्न :
- भारत का मुकुट किसे बताया गया है?
- दिन-रात कौन हँस रहे हैं?
- 'सींचा हुआ सलोना' से क्या आशय है?
- प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने क्या सन्देश दिया है?
- प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- भारत की धरती किससे भरी पड़ी है?
- 'हिमालय' पद का समास-विग्रह एवं समास का नाम बताइए।
- 'सुधा' के दो पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उत्तर :
- हिमालय को भारत का मुकुट बताया गया है।
- सुन्दर एवं सुमन्धित पुष्प मानो दिन-रात हँस रहे हैं, अर्थात् खिल रहे हैं।
- 'सींचा हुआ सलोना' से आशय भारत की सिंचित हरी-भरी और उपजाऊ भूमि से है।
- इसमें कवि ने सन्देश दिया है कि हमें अपने देश भारत के विशिष्ट गुणों को समझकर इसके प्रति समर्पण भाव रखना चाहिए।
- प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक होगा - 'वह देश कौनसा है' या 'भारत देश की महिमा'।
- भारत की धरती अनन्त निधियों, अर्थात् बहुमूल्य धातुओं, खनिज पदार्थों व रत्नों से भरी पड़ी है।
- हिमालय-हिम का आलय-तत्पुरुष समास।
- सुधा-अमृत, पीयूष।
11. धन-बल से हो जहाँ न जन-श्रम-शोषण,
पूरित भव-जीवन के निखिल प्रयोजन!
जहाँ दैन्य जर्जर, अभाव ज्वर पीड़ित,
जीवन-यापन हो न मनुज को गर्हित
युग-युग के छायाभासों से त्रासित
मानव के प्रति मानव मन हो न सशंकित!
मुक्त जहाँ मन की गति, जीवन में रति,
भव-मानवता से जन-जीवन परिणति संस्कृति
वाणी, भाव, कर्म, संस्कृत मन,
सुन्दर हो जन वास, वसन सुन्दर तन!
ऐसा स्वर्ग धरा पर हो समुपस्थित,
नव मानव-संस्कृति किरणों से ज्योतित!
प्रश्न :
- कवि धरती पर कैसा जीवन-यापन करना चाहता है?
- जगत् का जीवन किसमें परिणत होवे?
- मानव का मन प्रायः किससे सशंकित रहता है?
- 'संस्कृत मन' किसे कहा गया है?
- प्रस्तत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
- 'युग-युग के छायाभासों से भासित' का क्या अभिप्राय है?
- 'भव' के दो समानार्थी शब्द लिखिए।
- 'परिणति' शब्द में उपसर्ग बताइए।
उत्तर :
- कवि धरती पर अभाव, ज्वर, पीड़ा, गरीबी आदि से रहित अर्थात् सम्मानित जीवन-यापन करना चाहता है।
- जगत् का जीवन मानवता एवं मानव-कल्याण में परिणत होवे।
- मानव का मन प्रायः अनेक अज्ञात आशंकाओं तथा परम्परागत रूढ़ियों से सशंकित रहता है।
- संस्कृत अर्थात् सभी श्रेष्ठ आचरणों एवं संस्कारों से पूर्णतया शुद्ध मन को 'संस्कृत मन' कहा गया है।
- प्रस्तुत काव्यांश का शीर्षक नव-मानव संस्कृति।
- इसका अभिप्राय यह है कि अनेक युगों से मानव-संस्कृति रूढ़ियों से अन्धविश्वासों के साथ ही शोषण उत्पीड़न से त्रस्त रही है।
- भव-संसार, जगत्।
- परिणति - परि उपसर्ग + नति।
12. यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि।
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ॥
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं।
हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आये थे नहीं।
जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचण्ड समीर।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ॥
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा सम्पन्न।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न॥
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव।।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान।
वही है शान्ति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-सन्तान।।
जियें तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ॥
प्रश्न :
- प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- हम अपना सर्वस्व किस पर न्यौछावर कर दें?
- 'अतिथि थे सदा हमारे देव' कथन का आशय क्या है?
- हम भारतीय किसकी सन्तान हैं?
- प्रस्तुत काव्यांश का मूल-भाव क्या है?
- भारत ने चीन, सिंहल एवं स्वर्णभूमि को क्या दिया?
- भारत-भूमि की क्या विशेषता व्यक्त हुई है?
- 'उत्थान-पतन' में समास-विग्रह कर समास का नाम लिखिए।
उत्तर :
- प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-हमारा प्यारा भारतवर्ष ।
- हम अपना सर्वस्व अपने प्राचीन आर्य संस्कृति वाले भारतवर्ष पर न्यौछावर कर दें।
- प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता के समान पूजा जाता था और उनका पवित्र हृदय से आदर-सत्कार किया जाता था।
- हम भारत में ही जन्मे सदाचरणशील आर्यों की सन्तान हैं।
- हम भारतीय आर्य संस्कृति के आदर्शों को भूल गये हैं। हम अपने प्राचीन गौरव पर अभिमान करते हुए देश पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दें।
- भारत ने चीन, सिंहल तथा स्वर्णभूमि को धर्म की दृष्टि अर्थात् बौद्ध धर्म दिया, वहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार किया।
- भारत-भूमि प्रकृति का पालना, मानवता का देश और पवित्र संस्कृति का स्रोत रहा है। यहीं से सारे विश्व को मानवता की शिक्षा मिली है।
- उत्थान-पतन-उत्थान और पतन द्वन्द्व समास।
13. सोचता हूँ, मैं कब गरजा था?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस आँधी का था, जिसने हमें जन्म दिया था।
तब भी हमने गाँधी के
तूफान को ही देखा
गाँधी को नहीं।
वे तूफान और गर्जन के
पीछे बसते थे।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे।
प्रश्न :
- गाँधीजी के जीवन में किसका समन्वय था?
- 'जिसने हमें जन्म दिया था' इस आधार पर गाँधीजी को क्या कहा गया?
- गाँधीजी को किस बात में हैंसी आती थी?
- प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- प्रस्तुत काव्यांश से क्या सन्देश दिया गया है?
- इस काव्यांश में गाँधीजी को किस रूप में याद किया गया है?
- 'आँधी' का पर्यायवाची शब्द लिखिए।
- 'जिसने जन्म दिया था इसका क्या आशय है?
उत्तर :
- गाँधीजी के जीवन में प्रखर-तेजस्विता तथा शान्त-सहिष्णुता का समन्वय था।
- स्वतन्त्र भारत को जन्म देने के कारण गाँधीजी को राष्ट्रपिता कहा गया।
- गाँधीजी को सत्याग्रह आन्दोलन के आह्वान पर जनता से मिले पूर्ण सहयोग से हँसी आती थी।
- इस काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक है - गाँधीजी का व्यक्तित्व।
- इससे यह सन्देश दिया गया है कि केवल शान्त-सहिष्णुता एवं सरलता अपनाने से ही काम नहीं चलता, अपितु जरूरत के अनुसार प्रचण्ड तेजस्विता अपनानी भी औचित्यपूर्ण रहती है।
- इस काव्यांश में गांधीजी को प्रचण्ड आधी-तूफान रूप में याद किया गया है।
- आँधी - प्रभंजन।
- जिसने भारत को गणतन्त्र राष्ट्र रूप में खड़ा किया था, देश को स्वतंत्रता दिलायी थी।
14. विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिये,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही,
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही॥
प्रश्न :
- मनुष्य को मृत्यु से क्यों नहीं डरना चाहिए?
- किसका मरना और जन्म लेना व्यर्थ बताया गया है?
- धरती किसके आचरण से स्वयं को धन्य मानती है?
- प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
- प्रस्तुत काव्यांश के अन्त में क्या सन्देश दिया गया है?
- सर्वश्रेष्ठ मनुष्य किसे बताया गया है?
- 'महाविभूति' पद में समास-विग्रह एवं समास-नाम बताइए।
- 'सहानुभूति' पद में उपसर्ग की स्थिति बताइए।
उत्तर :
- मनुष्य मरणधर्मा है, उसकी मृत्यु अवश्य होगी इस बात को जानकर उसे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।
- जो मानवता के कल्याण का कार्य करने से सुमृत्यु को प्राप्त न हो, उसका जन्म लेना और मरना व्यर्थ बताया गया है।
- जो अपना जीवन मानवता की खातिर अर्पित कर दे, उदारता का परिचय देते हुए मृत्यु का वरण करे, उसके आचरण से धरती स्वयं को धन्य मानती है।
- प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-मनुष्यता।
- काव्यांश के अन्त में सन्देश दिया गया है कि हम मनुष्यता का आचरण करें और अखण्ड आत्मभाव से विश्वबन्धुत्व की भावना अपनावें।
- जो उदारता, मानवता, लोक-हित भावना एवं सभी से आत्मीयता रखे, समस्त विश्व से अपनत्व रखे, उसे ही - सर्वश्रेष्ठ मनुष्य बताया गया है।
- महाविभूति - महान् है जो विभूति-कर्मधारय समास।
- सहानुभूति - सह + अनु उपसर्ग + भूति शब्द।
15. हाय रे मानव, नियति के दास!
हाय रे मनुपुत्र, अपना ही उपहास!
प्रकृति की प्रच्छन्नता को जीत,
सिन्धु से आकाश तक सबको किये भयभीत,
सृष्टि को निज बुद्धि से करता हुआ परिमेय,
चीरता परमाणु की सत्ता असीम, अजेय,
बुद्धि के पवमान में उड़ता हुआ असहाय,
जा रहा तू किस दिशा की ओर को निरुपाय?
लक्ष्य क्या? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ?
यही नहीं यदि ज्ञात तो विज्ञान का श्रम व्यर्थ।
सुन रहा आकाश चढ़ ग्रह-तारकों का नाद;
एक छोटी बात ही पड़ती न तुझको याद।
एक छोटी, एक सीधी बात,
विश्व में छायी हुई है वासना की रात।
प्रश्न :
- कवि ने मनुष्य को किसका दास बताया है?
- 'विज्ञान का श्रम व्यर्थ' से क्या आशय है?
- वर्तमान काल में विज्ञान ने किसे जीत लिया है?
- सिन्धु से आकाश तक सब ओर किसका भय बना हुआ है?
- आज विश्व में किसकी रात छायी हुई है?
- उपयुक्त काव्याश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
उत्तर :
- कवि ने मनुष्य को नियति का दास अर्थात् अपने कर्मों का दास बताया है।
- यदि आज का विज्ञानवादी मानव अपने आविष्कारों का उद्देश्य तथा सृष्टि-हित का अर्थ नहीं समझता है, तो उसका वैज्ञानिक आविष्कारों का श्रम व्यर्थ है।
- वर्तमान काल में विज्ञान ने सृष्टि के नियमों तथा प्रकृति के रहस्यों को जीत लिया है।
- सिन्धु से आकाश तक सब ओर परमाणु अस्त्रों के विध्वंस का भय बना हुआ है।
- आज विश्व में भौतिक सुख-सुविधाओं की प्रबल लालसा रूपी रात छायी हुई है।
- इस काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक होगा 'हाय रे मानव, नियति के दास!' अथवा 'विज्ञान का अभिशाप'।