Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 9 Hindi अपठित गद्यांश Questions and Answers, Notes Pdf.
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अपठित-बोध :
अपठित-भाषा-ज्ञान के लिए पाठ्यक्रम में कुछ पुस्तकें निर्धारित होती हैं। इन पुस्तकों को पाठ्य-पुस्तक कहा जाता है। परीक्षा में पाठ्यक्रम के अनुसार पाठ्य-पुस्तकों से प्रश्न पूछे जाते हैं, परन्तु प्रश्न-पत्र में एक प्रश्न ऐसा भी पूछा जाता है जिसका सम्बन्ध पाठ्य-पुस्तकों से न होकर बाहरी पुस्तकों से होता है। इसलिए इसे अपठित कहा जाता है। अपठित का अर्थ है - अपठित अर्थात् जो पढ़ा नहीं गया हो।
अपठित गद्यांश या पद्यांश का स्तर पाठ्य-पुस्तकों के स्तर से अधिक नहीं होता है। अपठित गद्यांश या पद्यांश बिना पढ़ा होने के कारण इससे सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर देने में विद्यार्थियों के मन में भय रहता है। यदि विद्यार्थी थोड़ा धैर्य रखकर बुद्धि का प्रयोग इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने में करें, तो उन्हें अवश्य सफलता मिल जाती है। यहाँ पर अपठित से सम्बन्धित प्रश्नों को हल करने के लिए कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं -
अपठित के प्रश्नों को हल करने से पूर्व दिए अपठित को दो, तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़ लेना चाहिए।
प्रश्नों के उत्तर दिए गए अपठितांश के आधार पर देने चाहिए, परन्तु भाषा उस अंश की नहीं होनी चाहिए। भाषा अपनी हो और विचार उस अंश के।
उत्तर में विचारगत मौलिकता की आवश्यकता नहीं, भाषा और शैली की मौलिकता आवश्यक है।
शीर्षक छोटे से छोटा होना चाहिए। शीर्षक का चुनाव करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि शीर्षक के शब्दों में उस गद्यांश या पद्यांश का पूरा आशय आ जाए। शीर्षक के शब्दों से यह पता चल जाए कि पूछे गये गद्यांश या पद्यांश में क्या दिया गया है।
अपठित गद्यांश निर्देश-निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए -
1. भारतीय दर्शन सिखाता है कि जीवन का एक आशय और लक्ष्य है, उस आशय की खोज हमारा दायित्व है और अन्त में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेना, हमारा विशेष अधिकार है। इस प्रकार दर्शन जो कि आशय को उद्घाटित करने की कोशिश करता है और जहाँ तक उसे इसमें सफलता मिलती है, वह इस लक्ष्य तक अग्रसर होने की प्रक्रिया है। कुल मिलाकर आखिर यह लक्ष्य क्या है? इस अर्थ में यथार्थ की प्राप्ति वह है जिसमें पा लेना, केवल जानना नहीं है, बल्कि उसी का अंश हो जाना है।
इस उपलब्धि में बाधा क्या है? बाधाएँ कई हैं। पर इनमें प्रमुख है-अज्ञान। अशिक्षित आत्मा नहीं है, यहाँ तक कि यथार्थ संसार भी नहीं है। यह दर्शन ही है जो उसे शिक्षित करता है और अपनी शिक्षा से उसे उस अज्ञान से मुक्ति दिलाता है, जो यथार्थ दर्शन नहीं होने देता। इस प्रकार एक दार्शनिक होना एक बौद्धिक अनुगमन करना नहीं है, बल्कि एक शक्तिप्रद अनुशासन पर चलना है, क्योंकि सत्य की खोज में लगे हुए सही दार्शनिक को अपने जीवन को इस प्रकार आचरित करना पड़ता है ताकि उस यथार्थ से एकाकार हो जाए जिसे वह खोज रहा है। वास्तव में, यही जीवन का एकमात्र सही मार्ग है और सभी दार्शनिकों को इसका पालन करना होता है, और दार्शनिक ही नहीं, बल्कि सभी मनुष्यों को, क्योंकि सभी मनुष्यों के दायित्व और नियति एक ही हैं।
प्रश्न :
उत्तर :
2. मानव जाति ने अपने उद्भवकाल से ही प्रकृति की गोद में ही जन्म लिया और उसी से अपने भरण-पोषण की सामग्री प्राप्त की। सभी प्रकार के वन्य या प्राकृतिक उपादान ही उसके जीवन और जीविका के एकमात्र साधन थे। प्रकृति ने ही मानव जीवन को संरक्षण प्रदान किया। रामचन्द्र, सीता व लक्ष्मण ने भी पंचवटी नामक स्थान पर कुटिया बनाकर वनवास का लम्बा समय व्यतीत किया था।
वृक्षों की लकड़ी से मानव अनेक प्रकार के लाभ उठाता है। उसने लकड़ी को ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया। इससे मकान व झोंपडियाँ याँ बनाई। इमारती लकडी से भवन-निर्माण, कषि यन्त्र, परिवहन. जैसे रथ. टक. रेलों के डिब्बे तथा फर्नीचर आदि बनाए जाते हैं। कोयला भी लकड़ी का प्रतिरूप है। वृक्षों की लकड़ी तथा उसके उत्पाद; जैसे-नारियल का जूट, लकड़ी का बुरादा, चीड़ की लकड़ी आदि विभिन्न वस्तुओं का प्रयोग फल, काँच के बर्तन आदि नाजुक पदार्थों की पैकिंग के लिए किया जाता है।
इस प्रकार वृक्षों से विभिन्न प्रत्यक्ष लाभों के अतिरिक्त परोक्ष फायदे भी हैं। जीवन-दायिनी ऑक्सीजन पेड़ों से प्राप्त होती है। वृक्षों के आधिक्य से बाढ़ नियन्त्रण में सहायता मिलती है।
प्रश्न :
उत्तर :
3. भारतीय मनीषा ने कला. धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में नानाभाव से महत्त्वपर्ण फल पाये हैं और भविष्य में भी महत्त्वपूर्ण फल पाने की योग्यता का परिचय वह दे चुकी है। परन्तु नाना कारणों से समूची जनता एक ही धरातल पर नहीं है। जल्दी में कोई फल पा लेने की आशा से अटकलपच्चू सिद्धान्त कायम कर लेना और उसके आधार पर कार्यक्रम बनाना अभीष्ट सिद्धि में सब सहायक नहीं होगा। विकास की नाना सीढ़ियों पर खड़ी जनता के लिए नाना प्रकार के कार्यक्रम आवश्यक होंगे।
उद्देश्य की एकता ही इन विविध कार्यक्रमों में एकता ला सकती है, परन्तु इतना निश्चित है कि जब तक हमारे सामने उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कार्य कितनी भी शभेच्छा के साथ क्यों न आरम्भ किया जाये, वह फलदायक नहीं होगा। बहत-से लोग हिन्दू-मुस्लिम एकता को या हिन्दू-संघटन को ही लक्ष्य मानकर उपाय सोचने लगते हैं। वस्तुतः हिन्दू-मुस्लिम एकता भी साधन है, साध्य नहीं। साध्य है मनुष्य को पशु-सामान्य स्वार्थी धरातल से ऊपर उठाकर 'मनुष्यता' के आसन पर बैठाना। हिन्दू मुस्लिम-मिलन का उद्देश्य है मनुष्य को दासता, जडिमा, मोह, कुसंस्कार और परमुखापेक्षिता से बचाना, मनुष्य को क्षुद्र स्वार्थ और अहमिका की दुनिया से ऊपर उठाकर सत्य, न्याय और औदार्य की दुनिया में ले जाना। अतएव मनुष्य का सामूहिक कल्याण ही हमारा लक्ष्य हो सकता है।
प्रश्न :
उत्तर :
4. धन की आवश्यकता तथा उपयोग को स्वीकार करते हुए भी हम यह बतलाना चाहते हैं कि इसके प्रति लोगों ने जो दृष्टिकोण अपना रखा है, वह वास्तव में सही नहीं है। अर्थ-प्रधान दृष्टिकोण के कारण संसार का उत्थान होने के बजाय वह एक बड़ी दुर्दशा में फँस गया है। धन के लोभ ने मनुष्य में सैकड़ों प्रकार के दुर्गुण पैदा कर दिये हैं और अनेक मानवीय विशेषताओं को समाप्त कर दिया है। चोरी, हिंसा, बेईमानी, ईर्ष्या, द्वेष, अविश्वास, दम्भ आदि अनेक दोषों की वृद्धि का कारण धन का यह अनुचित महत्त्व ही है। लोग धन को सुख का साधन मानते हैं, पर जरा गहराई में उतरकर विचार किया जाये तो आज धन ने सब लोगों के जीवन को विपत्ति-ग्रस्त और दुःखी बना दिया है।
धनवानों को अपने धन की रक्षा की चिन्ता रहती है, वे सभी को अपने धन पर ताक लगाये समझकर अविश्वास करने लगते हैं और इस कल्पना से बड़ा दुःख पाते रहते हैं कि यदि किसी कारणवश हमारा धन जाता रहा तो हमारी क्या दशा होगी? दूसरी तरफ गरीब धन के अभाव में अपनी किसी तरह की भी उन्नति करने में असमर्थ रहते हैं, उनके विकास की गति रुक जाती है। उनको बाल्यावस्था से ही पढ़-लिखकर एक सभ्य नागरिक बनने की अपेक्षा किसी तरह कुछ कमाकर पेट के गड्ढे को भरने की चिन्ता लगी रहती है। फिर वे धन के अभाव में अनेक प्रकार के असत्य व्यवहार करने को विवश हो जाते हैं और अमीरों की खशामद करना, परस्पर लडना-झगडना आदि अनचित कार्यों का आश्रय लेने त देखते हैं कि धन को जो सर्वोच्च स्थान दे दिया गया है, वह गलत है।
प्रश्न :
उत्तर :
5. आचरण का विकास जीवन का परमोद्देश्य है। आचरण के विकास के लिए नाना प्रकार के सम्प्रदायों का, जो संसार-सम्भूत शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्यात्मिक जीवन में वर्तमान है, उन सबकी (सबका) - क्या एक पुरुष और क्या एक जाति के आचरण के विकास के साधनों के सम्बन्ध में विचार करना होगा।
आचरण के विकास के लिए जितने कर्म हैं, उन सबको आचरण के संघटन-कर्ता धर्म के अंग मानना पड़ेगा। चाहे कोई कितना ही बड़ा महात्मा क्यों न हो, वह निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि यों ही करो और किसी तरह नहीं, आचरण की सभ्यता की प्राप्ति के लिए वह सबको एक पथ नहीं बता सकता। आचरणशील महात्मा स्वयं भी किसी अन्य की बनाई हुई सड़क से नहीं आया, उसने अपनी सड़क स्वयं ही बनाई थी। इसी से, उसके बनाये हुए रास्ते पर चलकर, हम भी अपने आचरण को आदर्श के ढाँचे में नहीं ढाल सकते।
हमें अपना रास्ता अपने जीवन की कुदाली की एक-एक चोट से रात-दिन बनाना पड़ेगा और उसी पर चलना पड़ेगा। हर किसी को, अपने देश-कालानुसार, राम-प्राप्ति के लिए अपनी नैया आप ही बनानी पड़ेगी और आप ही चलानी भी पड़ेगी। वस्तुतः कोई भी धर्म-सम्प्रदाय आचरण-रहित पुरुषों के लिए कल्याणकारक नहीं हो सकता, और आचरण वाले पुरुषों के लिए सभी धर्म-सम्प्रदाय कल्याणकारक हैं, सच्चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता।
प्रश्न :
उत्तर :
6. राष्ट्रभाषा की आवश्यकता राष्ट्रीय सम्मान की दृष्टि से भी है। वस्तुतः राष्ट्र की अस्मिता, गरिमा एवं प्रभुशक्ति सम्पन्नता के लिए भी राष्ट्रभाषा का विशेष महत्त्व है। अपने को एक ही राष्ट्र का निवासी मानने वाले दो व्यक्ति किसी विदेशी भाषा में बात करें, यह हास्यास्पद असंगति है। यह इस बात का द्योतक भी है कि उस देश में कोई समुन्नत भाषा, नहीं है। दूसरे के सामने हाथ पसारना समद्धि का नहीं. दरिद्रता का चिह्न है। दसरे की भाषा से काम च वैसा ही है। जिसकी अपनी भाषा है वह दूसरे की भाषा क्यों उधार ले? इससे राष्ट्रीय सम्मान को बट्टा लगता है।
विदेशों में जाने पर कभी-कभी इस बात का कड़ा अनुभव होता है कि अपने को भारतीय कहने वाले दो व्यक्ति अपने देश की किसी भाषा में बात न कर अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा में बात करते हैं और उन्हें देखकर वहाँ के निवासी आश्चर्य के साथ पूछ बैठते हैं कि क्या आपकी अपनी कोई भाषा नहीं है? इसका क्या किया जाए? भाषाएँ तो इस देश में अनेक हैं, एक से एक समृद्ध, एक से एक सुन्दर, पर एक भी भाषा इस कोटि तक नहीं पहुंच सकी जो सामान्य संचार का साधन बन सके। वैसे भाषा के अभाव में पराधीनता की याद ताजा बनी रहती है, दूसरे देशवासियों के समक्ष हीनभावना रहती है और भारत की साहित्यिक और भाषिक समृद्धि पर सन्देह का अवसर मिलता है।
प्रश्न :
उत्तर :
7. भारतीय साहित्य की एकता पर जोर देने की आवश्यकता इसलिए भी है कि आज संसार के समक्ष भविष्य की स्थिति बहुत कुछ डाँवाडोल हो गई है। विघटन की शक्तियाँ इतनी बलवती हो गई हैं कि यह नहीं समझ पड़ता कि नया विकास और नया संगठन किस प्रकार होगा। नयी सभ्यता के इस संक्रान्ति काल में भारतवर्ष अपना सन्तुलन खो दे, यह उचित न होगा।
इसके विपरीत यह अधिक आवश्यक है कि वह अपने साहित्य, अपनी कला और अपने जीवन-दर्शन द्वारा संसार को एक नया आलोक अथवा एक नवीन दिशा-ज्ञान देने की चेष्टा करे। संसार के बड़े-बड़े विचारक भी आज प्रकाश के लिए इधर-उधर टोह लगा रहे हैं। उनमें कुछ की यह भी धारणा है कि भारतीय साहित्य और भारतीय जीवन दर्शन उन्हें नया मार्ग-निर्देश दे सकते हैं। ऐसी स्थिति में नई प्रगति को दौड़कर अपनाने की अपेक्षा अपने साहित्यिक वैभव की ओर दृष्टिपात करना अधिक अच्छा होगा।
यदि हम अपने देश के प्राचीन साहित्य को देखें, तो उसमें एक मूलभूत एकता दिखाई देगी। इसका एक बड़ा प्रमाण यह है कि हमारे कतिपय महान साहित्यिकों के जन्म-स्थान का पता न होने पर भी समस्त प्रान्तों में उनका प्रचलन है और उन्हें सम्मान प्राप्त है। इस तरह हमारे देश में विविधता में एकता लाने की चेष्टा चिरकाल से की गई है और इस कार्य में हमारे साहित्यिकों ने विशेष योग दिया है।
प्रश्न-
उत्तर :
8. किसी विदेशी संस्कृति की संवाहक भाषा एक स्वतन्त्र राष्ट्र की संस्कृति के लिए कितनी खतरनाक हो सकती है, इसे हमारे देश में अंग्रेजी के वर्चस्व से समझा जा सकता है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद से तो हमने मुक्ति पा ली, पर आजादी के साठ वर्ष बाद भी हम अंग्रेजी भाषा के रूप में विदेशी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को गले लगा रहे हैं। जिस अंग्रेजी भाषा को ब्रिटिश शासन काल में हमारी भाषा और संस्कृति को छिन्न-भिन्न करने की एक सुनियोजित चाल के रूप में अपनाया गया था, उसे आज हम राष्ट्रीय स्वाभिमान के अभाव में स्वयं अपना रहे हैं।
आज देश में सबसे अधिक सांस्कृतिक प्रदूषण अंग्रेजी के कारण फैल रहा है, जो इस बात का सबूत है कि हमारी राष्ट्रीय संस्कृति की जड़ें भीतर तक खोखली हो रही रे देश में भाषायी आतंकवाद पैदा करने में अंग्रेजी की प्रभावी भूमिका है। सम्पूर्ण देश में भावात्मक एकता का शंखनाद करने वाली हिन्दी की उपेक्षा कर अंग्रेजी को अपनाना हमारी मानसिक दासता का परिचायक है। हमारे देश की भाषिक विविधता में सांस्कृतिक एकता का बोध सम्पर्क भाषा हिन्दी के माध्यम से ही जगाया जा सकता है। राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर इस सत्य को जितनी जल्दी आत्मसात् किया जाये उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।
प्रश्न :
उत्तर :
9. मानवतावादी विचारधारा का आगम मध्ययुगीन धार्मिक व्यवस्था की समाप्ति के बाद हुआ। एक प्रकार से मानववाद की यह विचारधारा जिसे आज का नव-मानववाद और वैज्ञानिक मानववाद का नाम दिया जाता है, उन धार्मिक मान्यताओं का विरोध करने के लिए आई, जिससे मानव का व्यक्तित्व गौण और किसी कल्पित अज्ञात दिव्य सत्ता के अस्तित्व को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता था। विकासवाद के सिद्धान्त और विज्ञान की प्रगति ने मानव को चिन्तन की नई दिशाओं की ओर उन्मुख किया है।
विज्ञान की सहायता से मनुष्य प्रकृति के रहस्यों को ज्यों-ज्यों समझने लगा, त्यों-त्यों उसमें आत्मनिर्भरता, स्वावलम्बन, आत्म-विश्वास और तर्क आदि की प्रवृत्तियाँ विकसित होने लगीं। मनुष्य ने देवी देवताओं की उपासना और अज्ञात ईश्वर की सत्ता में विश्वास को छोड़कर अपनी शक्ति पर विश्वास रखना आरम्भ कर दिया। उसका नवीन बोध रूढ़ियों और अन्धविश्वासों को तिरस्कृत करने में जुट गया। आज स्थिति यह है कि मनुष्य धर्म को ढकोसला समझता है, अपरोक्ष सत्ता की हँसी उड़ाता है और परम्पराओं को तुच्छ समझता है। आज विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मानव की यथार्थ बुद्धि और सुख-सुविधाओं का इतना विकास किया है कि मनुष्य अपने आध्यात्मिक रूप को असत्य मानने लगा है। मानवतावादी विचारधारा के विकास का यह एक कारण है।
प्रश्न :
उत्तर :
10. प्रत्येक देश का साहित्य उस देश के मनुष्यों के हृदय का आदर्श रूप है। जो जाति जिस समय जिस भाव से परिपूर्ण या परिप्लुत रहती है, वे सब उसके भाव उस समय के साहित्य की समालोचना से अच्छी तरह प्रगट हो सकते हैं। मनुष्य का मन जब शोक-संकुल, क्रोध से उद्दीप्त या किसी प्रकार की चिन्ता से दोचित्ता रहता है, तब उसकी मुखच्छवि तमसाच्छन्न, उदासीन और मलिन रहती है, उसकी कण्ठ से जो ध्वनि निकलती है वह भी बेलय या विकत स्वर-संयुक्त होती है।
वही जब चित्त आनन्द की लहरी से उद्वेलित हो नत्य करता है और सुख की परम्परा में मग्न रहता है, उस समय मुख विकसित कमल-सा प्रफुल्लित, नेत्र मानो हँसता-सा और कण्ठ ध्वनि भी बसन्त-मदमत्त कोकिला के कण्ठ-रव से भी अधिक मीठी और सोहावनी मन को भाती है। मनुष्य के सम्बन्ध में इस अनुल्लंघनीय प्राकृतिक नियम का अनुसरण प्रत्येक देश का साहित्य भी करता है, जिसमें कभी क्रोधपूर्ण, भयंकर गर्जन, कभी प्रेम का उच्छवास, कभी शोक और परितापजनित हृदय-विदारी करुणा-निस्वन, कभी वीरता-गर्व से बाहुबल के दर्द में भरा हुआ सिंहनाद, कभी भक्ति के उन्मेष से चित्त की द्रवता का परिणाम अश्रुपात आदि अनेक प्रकार के प्राकृतिक भावों का उद्गार देखा जाता है। इसलिए साहित्य को यदि जन-समूह के चित्त का चित्रपट कहा जाए तो संगत है। साहित्य के अनुशीलन से ही उस समाज के आन्तरिक भावों का अभिव्यंजन होता है।
प्रश्न-
उत्तर :
11. 'संस्कृति' शब्द का सम्बन्ध संस्कार से है, जिसका अर्थ है-संशोधन करना, उत्तम बनाना, परिष्कार करना। संस्कार व्यक्ति के भी होते हैं और जाति के भी। जातीय संस्कारों को ही संस्कृति कहते हैं। संस्कृति एक समूह वाचक शब्द है। जलवायु के अनुकूल रहन-सहन की विधियाँ और विचार-परम्पराएँ जाति के लोगों में दृढमूल हो जाने से जाति के संस्कार बन जाते हैं।
इनको प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी प्रकृति के अनुकूल न्यूनाधिक मात्रा में पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त करता है। ये संस्कार व्यक्ति के घरेलू जीवन तथा सामाजिक जीवन में परिलक्षित होते हैं। मनुष्य अकेला रहकर भी इनसे छुटकारा नहीं पा सकता। ये संस्कार दूसरे देश में निवास करने अथवा दूसरे देशवासियों के सम्पर्क में आने से कुछ परिवर्तित भी हो सकते हैं और कभी-कभी दब भी जाते हैं, किन्तु अनुकूल वातावरण प्राप्त करने पर फिर उभर आते हैं।
संस्कृति का बाह्य पक्ष भी होता है और आन्तरिक भी। उसका बाह्य पक्ष आन्तरिक प्रतिबिम्ब नहीं तो उससे सम्बन्धित अवश्य रहता है। हमारे बाह्य आचार हमारे विचारों और मनोवृत्तियों के परिचायक होते हैं। संस्कृति एक देश विशेष की उपज होती है, इसका सम्बन्ध देश के भौतिक वातावरण और उसमें पालित, पोषित एवं परिवर्द्धित विचारों से होता है। इसी कारण संस्कृति को जन का मस्तिष्क, राष्ट्र का तीसरा अंग और देश का श्वास-प्रश्वास माना जाता है। संस्कृति में ही जीवन का सौन्दर्य एवं यश अन्तर्निहित है।
प्रश्न :
उत्तर :
12. आज यदि आप संसार की सारी समस्याओं का विश्लेषण करें तो इनके मूल में एक ही बात पायेंगे—मनुष्य की तृष्णा। यह अद्भुत तृष्णा कहीं समाप्त होने का नाम नहीं लेती। मनुष्य में सर्वत्र अभाव भर गया है। जीवन की वह पूर्णता कम हो गई है जो मनुष्य को याचक न बनाकर दाता बनाती है। आज उत्पादन बढ़ाने की धूम है, जीवन का स्तर ऊँचा उठाने का संकल्प मुखर है, परन्तु जीवन में वह उच्छलित आनन्द कैसे आएगा जो मनुष्य को संयत, सन्तुष्ट और वदान्य बना सके, इसकी चिन्ता किसी को नहीं है।
हम भौतिक समृद्धि के प्रयत्नों को छोटा बनाने के उद्देश्य से यह बात नहीं कह रहे। उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है, जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयत्न भी श्लाघ्य है, पर इतने से समस्या का हल नहीं हो जाता। तृष्णा वह आग है जिसके पेट में जितना भी झोंक दीजिए वह भस्म हो जाएगा। उस वस्तु की खोज होनी चाहिए जो मनुष्य को छोटे प्रयोजनों में बाँधने के बदले उसे प्रयोजनातीत सत्य की ओर उन्मुख करे। साहित्य और संगीत यही काम करते हैं, कला और सौन्दर्य उसे इसी ओर ले जाते हैं।
नितान्त उपयोगिता की दृष्टि से भी विचार किया जाए तो मनुष्य समाज की स्थिति के लिए-सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए ही यह आवश्यक हो गया है कि मनुष्य अपने उस महान् उन्नायक धर्म की उपेक्षा न करे जो क्षुद्रता और संकीर्णता से ऊपर उठाते हैं। भौतिक समृद्धि के बढ़ाने का प्रयत्न होना चाहिए पर उसे सन्तुलित करने के लिए साहित्य और संगीत आदि का भी बहुत प्रचार वांछनीय है।
प्रश्न :
उत्तर :
13. श्रद्धा एक सामाजिक भाव है, इससे अपनी श्रद्धा के बदले में हम श्रद्धेय से अपने लिए कोई बात नहीं चाहते। श्रद्धा धारण करते हुए हम अपने को उस समाज में समझते हैं जिसके अंश पर - चाहे हम व्यष्टि रूप में उसके अन्तर्गत न भी हों-जान-बूझकर उसने कोई शुभ प्रभाव डाला। श्रद्धा स्वयं ऐसे कर्मों के प्रतिकार में होती है, जिसका शुभ प्रभाव अकेले हम पर ही नहीं, बल्कि सारे मनुष्य समाज पर पड़ सकता है। श्रद्धा एक ऐसी आनन्दपूर्ण कृतज्ञता है, जिसे हम केवल समाज के प्रतिनिधि रूप में प्रकट करते हैं।
सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध या घृणा प्रकट करने के लिए समाज ने प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिनिधित्व प्रदान कर रखा है। यह काम उसने इतना भारी समझा है कि उसका भार सारे मनुष्यों को बाँट दिया है, दो-चार मानवीय लोगों के सिर पर नहीं छोड़ रखा है। जिस समाज में सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध प्रकट करने के लिए जितने ही अधिक लोग तत्पर पाये जायेंगे, उतना ही वह समाज जागृत समझा जायेगा।
श्रद्धा की सामाजिक विशेषता एक इसी बात से समझ लीजिए कि जिस पर हम श्रद्धा रखते हैं उस पर चाहते हैं कि और लोग भी श्रद्धा रखें। पर जिस पर हमारा प्रेम होता है उससे और दस-पाँच आदमी प्रेम रखें। इसकी हमें परवाह क्या, इच्छा ही नहीं होती, क्योंकि हम प्रिय पर लोभवश एक प्रकार का अनन्य अधिकार या इजारा चाहते हैं।
प्रश्न :
उत्तर :
14. भारतीय संस्कृति की पावन-परम्परा में नारी को सदैव सम्माननीय स्थान प्राप्त रहा है। वैदिक काल से नारी की प्रतिष्ठापना अर्धांगिनी के रूप में की गई है। नारी को सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा का रूप माना जाता है। अतएव प्राचीन भारत में सर्वत्र नारी का देवी रूप पूज्य था। यज्ञ आदि अवसरों पर पुरुष के साथ नारी की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी।
उसके बिना कोई भी मांगलिक कार्य अधरा माना गया था। परन्त वैदिक काल से नारी की सामाजिक स्थिति में गिरावट आने लगी तथा उसका अस्तित्व घर की चहारदीवारी तक सीमित रहने लगा। इसी कारण नारी-जीवन को लेकर अनेक कुप्रथाओं और रूढ़ियों का प्रसार हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में जब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हुई, तब नारी की उस चिन्तनीय स्थिति में परिवर्तन आने लगा। ज्ञान-विज्ञान का प्रसार होने, नव-जागरण का स्वर उभरने से समाज-सुधारक महापुरुषों ने नारी-समाज के उत्थान के अनेक कार्य किये और नारी को जन-नेतृत्व का प्रशस्त पथ दिखाया।
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हम यहाँ पर नारी के दो रूप देखते हैं, एक तो वे जो देहातों में रहती हैं, अशिक्षित एवं गरीब हैं और मेहनत-मजदूरी करके पीड़ित जीवन बिताती हैं तथा दूसरी वे जो शहरों-कस्बों में रहती हैं, शिक्षित, सम्पन्न एवं समर्थ हैं। देहातों की अशिक्षित नारी में प्राचीन नारी के संस्कार देखने को मिलते हैं। भले ही शिक्षा के अभाव से वह अभी भी सामाजिक कुरीतियों से ग्रस्त है। शहरों की नारियाँ शिक्षित होने का दम्भ रखकर सारे सामाजिक बन्धनों को तोड़ चुकी हैं। वे भौतिकता की चकाचौंध में नारी के प्राचीन आदर्शों को भूल गई हैं।
प्रश्न :
उत्तर :
15. भारत में प्राचीन काल में सभी धर्मों में सद्भाव था। सम्राट अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था, परन्तु वह सभी धर्मों का समान आदर करता था। बादशाह अकबर इस्लाम-धर्मानुयायी होते हुए भी यहाँ के सभी धर्मों में समन्वय स्थापित करना चाहता था और वह फतेहपुर-सीकरी के 'दीवाने-खास' में सभी धर्मों के रहस्य जानने के लिए उनके आचार्यों से शास्त्रचर्चा करता था। भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही सहिष्णु और उदार रही है। यहाँ हूण, मंगोल, तातार, यवन, ईसाई एवं पारसी आदि सभी धर्मों के लोग समय-समय पर बाहर से आये तथा वे यहीं के निवासी बन गये। अंति प्राचीन काल में आर्य और द्रविड़ लोगों में परस्पर मेल हुआ। इन सभी अवसरों पर भारतीयों ने सभी धर्मों को पर्याप्त आदर देकर सर्वधर्म-सद्भाव का परिचय दिया। भारतीय विद्वानों ने सभी धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखा। आधुनिक काल में तो गाँधीजी तथा अन्य मनीषियों ने भारत में सर्वधर्म सद्भाव पर अत्यधिक जोर दिया।
वस्तुतः यह मानवतावादी चिन्तन है। जब समाज में धार्मिक सद्भाव रहेगा या धार्मिक कट्टरता नहीं रहेगी, तो अन्धविश्वास और रूढ़ियाँ भी नहीं रहेंगी। जनता जितना आदर अपने धर्म को दे, उतना ही सम्मान अन्य धर्मों को भी दे। इससे समाज में सौमनस्य, समन्वय, एकता और सहयोग की भावना का प्रसार होगा। इससे मानवता की भावना बढ़ेगी और साम्प्रदायिकता का उन्माद दब जायेगा, उस दशा में इस धरती पर सच्चा ईश्वरीय राज्य स्थापित हो जाएगा। इस उपदेश का आशय यही है कि यदि मानव केवल मानवता अपनावे और मानव द्वारा कल्पित धर्मों का दुराग्रह छोड़ दे तथा धार्मिक कुत्सित कट्टरता न रखे तो तब सच्चे मानव-धर्म का प्रसार हो सकता है।
प्रश्न :
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