These comprehensive RBSE Class 12 Economics Notes Chapter 6 प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार will give a brief overview of all the concepts.
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→ पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाजार की कुछ विशेषताओं को यदि छोड़ दिया जाए तो हमारे सम्मुख एकाधिकार, एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा तथा अल्पाधिकारी बाजार संरचना बनती है, जिनकी अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं।
→ वस्तु बाजार में सामान्य एकाधिकार: जिस बाजार संरचना में केवल एक ही विक्रेता होता है, एकाधिकार कहलाता है तथा उसके द्वारा उत्पादित वस्तु की कोई स्थानापन्न वस्तु नहीं होती है। इस बाजार में अन्य फर्मों के प्रवेश पर भी प्रभावी रोक होती है।
→ बाजार माँग वक्र औसत संप्राप्ति वक्र है: बाजार माँग वक्र वे मात्राएँ दर्शाता है, जिसे उपभोक्ता विभिन्न कीमतों पर सम्मिलित रूप से खरीदने के इच्छुक हैं। एकाधिकार फर्म द्वारा बाजार में बेची जाने वाली मात्रा वस्तु की कीमत पर निर्भर करती है। यदि फर्म वस्तु की कीमत अधिक रखती है तो वह ऊँची कीमत पर कम मात्रा का विक्रय कर पाती है। इसके विपरीत यदि फर्म वस्तु की कीमत कम रखती है तो वह वस्तु की अधिक मात्रा का विक्रय कर पाती है। बाजार में एकाधिकार में एक ही फर्म होती है अतः उसे बाजार माँग वक्र का सामना करना पड़ता है। अतः एकाधिकार फर्म उत्पादन मात्रा अथवा कीमत दोनों में से किसी एक पर अपना नियन्त्रण रख सकती है।
एकाधिकारी फर्म का माँग वक्र ही उसका औसत संप्राप्ति (आय) वक्र होता है क्योंकि इस प्रकार के बाजार में औसत संप्राप्ति एवं कीमत एक ही होती है। एकाधिकारी फर्म का औसत संप्राप्ति वक्र ऊपर से नीचे की ओर ढलान वाला वक्र होता है।
एकाधिकार में वस्तु की कीमत तथा विक्रय की गई मात्रा का गुणनफल फर्म की कुल संप्राप्ति कहलाती है। फर्म द्वारा वस्तु की प्रति इकाई विक्रय से प्राप्त संप्राप्ति, औसत संप्राप्ति कहलाती है। एकाधिकार में कुल संप्राप्ति वक्र से औसत संप्राप्ति को ज्ञात किया जा सकता है।
→ कुल, औसत और सीमान्त संप्राप्तियाँ: किसी फर्म द्वारा बाजार में विक्रय की गई मात्रा को वस्तु की कीमत से गुणा करके कुल संप्राप्ति प्राप्त की जा सकती है तथा कुल संप्राप्ति में विक्रय की गई मात्रा का भाग देकर औसत संप्राप्ति ज्ञात की जा सकती है
कुल संप्राप्ति = वस्तु की बाजार में बेची गई मात्रा × वस्तु की कीमत
एक अतिरिक्त इकाई की बिक्री से कुल संप्राप्ति में जो परिवर्तन होता है, उसे सीमान्त संप्राप्ति कहते हैं। इसे निम्न सूत्र द्वारा ज्ञात कर सकते हैं
सीमान्त संप्राप्ति = \(\frac{\Delta \mathrm{TR}}{\Delta \mathrm{Q}}\)
कुल संप्राप्ति तथा सीमान्त संप्राप्ति में आपस में सम्बन्ध पाया जाता है, जब कुल संप्राप्ति में वृद्धि होती है तो सीमान्त संप्राप्ति (आगम) धनात्मक होती है। जब कुल संप्राप्ति अधिकतम होती है तब सीमान्त संप्राप्ति शून्य होती है तथा जब कुल संप्राप्ति घटती है तो सीमान्त संप्राप्ति ऋणात्मक होती है। सीमान्त संप्राप्ति तथा औसत संप्राप्ति में भी सम्बन्ध पाया जाता है। सीमान्त संप्राप्ति तथा औसत संप्राप्ति जब घटती हैं तो सीमान्त संप्राप्ति, औसत संप्राप्ति से कम होती है। यदि औसत संप्राप्ति वक्र अतिप्रवण हो तो सीमान्त संप्राप्ति वक्र औसत संप्राप्ति वक्र से बहुत नीचे होता है।
→ सीमान्त संप्राप्ति और माँग की कीमत लोच: सीमान्त संप्राप्ति के मूल्य का सम्बन्ध माँग की कीमत लोच के साथ भी होता है। जब सीमान्त संप्राप्ति का मूल्य धनात्मक होता है तो माँग की कीमत लोच इकाई से अधिक होती है और जब सीमान्त संप्राप्ति का मूल्य ऋणात्मक होता है तो माँग की कीमत लोच इकाई से कम होती है। अतः जैसे-जैसे वस्तु की मात्रा में वृद्धि होती है, सीमान्त संप्राप्ति का मूल्य घटता है और माँग की कीमत लोच का मूल्य भी न्यून हो जाता है।
→ एकाधिकारी फर्म का अल्पकालीन सन्तुलन:
→ पुनः पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तुलना: पूर्ण प्रतिस्पर्धा में जब कीमत सीमान्त लागत के बराबर हो जाती है, तब यह समझा जाता है कि फर्म सन्तुलन में है। पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाजार एकाधिकारी फर्म की अपेक्षा अधिक उत्पादन करता है और अधिक विक्रय करता है। इसके अतिरिक्त पूर्ण प्रतिस्पर्धा में एकाधिकारी फर्म की तुलना में कीमत कम होती है। प्रतिस्पर्धी फर्म द्वारा अर्जित लाभ एकाधिकारी फर्म की अपेक्षा कम होता है।
→ दीर्घकाल में: पूर्ण प्रतिस्पर्धी फर्म दीर्घकाल में शून्य लाभ प्राप्त करती है, जबकि दीर्घकाल में एकाधिकारी फर्म लाभ प्राप्त करती है।
→ कछ आलोचनात्मक मत: एकाधिकार में उपभोक्ता को निर्गत की कम मात्रा प्राप्त होती है तथा उपभोग की प्रत्येक इकाई के लिए अधिक कीमत अदा करती है। एकाधिकार फर्म की निम्न आधार पर आलोचना की जाती है
→ अन्य पूर्ण प्रतिस्पर्धारहित बाजार