These comprehensive RBSE Class 11 Political Science Notes Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन will give a brief overview of all the concepts.
RBSE Class 11 Political Science Chapter 10 Notes संविधान का राजनीतिक दर्शन
→ संविधान के दर्शन का क्या आशय है?
- कानून समानता के विचार से सम्बन्धित है। कोई भी कानून धर्म अथवा भाषा के आधार पर व्यक्तियों के बीच भेदभाव नहीं कर सकता।
- कानून और नैतिक मूल्यों के बीच गहन सम्बन्ध होने के कारण संविधान के प्रति नैतिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
- संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन में तीन बातें प्रमुख हैं
- संविधान कुछ अवधारणाओं के आधार पर निर्मित है। इन अधिकारों के बारे में हमारी समझ स्पष्ट होनी चाहिए; जैसे अधिकार, नागरिकता अथवा लोकतन्त्र।
- जिन आदर्शों की बुनियाद पर संविधान निर्मित हुआ है उन पर हमारी गहरी पकड़ होनी चाहिए। समाज और शासन व्यवस्था पूर्णतया पारदर्शी होनी चाहिए।
- सैद्धान्तिक रूप से यह आदर्श हमारे समक्ष पूर्णतया स्पष्ट होने चाहिए। ये आदर्श कहाँ तक और क्यों उचित हैं। भविष्य में इनमें कौन से सुधार संभव हैं।
- आज संविधान के बहुत से आदर्शों को चुनौती मिल रही है। इन आदर्शों पर विविध राजनैतिक क्षेत्रों, विधायिका, राजनीतिक दल, मीडिया, स्कूल तथा विश्वविद्यालयों में विचार-विमर्श होता है। इन पर प्रश्न उठाए जाते हैं और इन आदर्शों की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की जाती है।
- आदर्शों की अलग-अलग ढंग से की गयी व्याख्याओं के कारण विरोध उत्पन्न होता. है। संविधान इस विरोधाभास को समाप्त करने में एक पंच (निर्णायक) की भूमिका का निर्वाह करता है।
→ संविधान-लोकतांत्रिक बदलाव का साधन
- संविधान लोकतांत्रिक परिवर्तन का साधन है। राज्य को निरंकुश आचरण करने से रोकता है। समाज में गहन परिवर्तन के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक साधन प्रदान करता है।
- पं. जवाहर लाल नेहरू के अनुसार संविधान सभा की माँग भारतीय जनता की आत्म निर्णय की माँग है। भारत अपने अतीत के सामाजिक और राजनैतिक ढाँचे के आवरण से निकलकर नये आवरण को पहनने की तैयारी कर रहा है। सामाजिक ऊँच-नीच के बंधनों को तोड़कर स्वतन्त्रता, समता तथा न्याय के नए युग में प्रवेश कर रहा है। सामुदायिक रूप से संविधान कमजोर वर्ग के लोगों को उनका उचित अधिकार प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करता है।
→ संविधान सभा की ओर मुड़कर क्यों देखें?
हमारे संविधान का इतिहास हमारे वर्तमान का ही इतिहास है। संविधान निर्माताओं के समय जो स्थिति थी और आज हम जिन स्थितियों में रह रहे हैं उनमें कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हुआ है। परन्तु जब संवैधानिक व्यवहार को चुनौती मिले या उपेक्षा हो तो संविधान के मूल्यों को समझने के लिए संविधान सभा की बहसों को देखकर, पढ़कर, उनका विश्लेषण करके ही समाधान मिल सकता है।
→ हमारे संविधान का राजनीतिक दर्शन क्या है?
हमारे संविधान का राजनैतिक दर्शन, स्वतन्त्रता, समानता, लोकतन्त्र, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्ध है। संविधान इस बात पर बल देता है कि संविधान के दर्शन को शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक ढंग से व्यवहार में लाया जाए।
→ व्यक्ति की स्वतंत्रता
- हमारा संविधान व्यक्ति की स्वतन्त्रता का पक्षधर है। राजा राममोहन राय ने व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति अर्थात् प्रेस की आजादी की जोरदार वकालत की।
- संविधान को ग्रहण करने के चालीस वर्ष पूर्व भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर बल दिया।
→ सामाजिक न्याय
- शास्त्रीय उदारवाद सामाजिक न्याय और सामुदायिक जीवन मूल्यों के ऊपर सदैव व्यक्ति को महत्व देता है। भारतीय संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।
→ विविधता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान
- • संविधान निर्माताओं के समक्ष इस बात की कठिन चुनौती थी कि विविधता से पूर्ण भारतीय समाज में बराबरी का संबंध कैसे स्थापित किया जाए। कोई भी समुदाय दूसरे समुदाय पर प्रभुत्व न जमाए।
- अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कैसे सुरक्षित रखा जाए। इसके लिए हमारे संविधान में समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता दी गयी।
→ धर्म निरपेक्षता
- भारतीय संविधान धर्म निरपेक्ष है। संविधान के अनुसार धर्म और राज्य के कार्य-क्षेत्र बिल्कुल अलग होने चाहिए। इसका उद्देश्य व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता की सुरक्षा करना।
- व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए आवश्यक है कि राज्य धार्मिक संगठनों की सहायता न करे और न ही उनके कार्यों में कोई बाधा उत्पन्न करे।
- राज्य को चाहिए कि वह नागरिकों को अधिकार प्रदान करते समय धर्म को आधार न बनाए। राज्य को प्रत्येक व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म से संबंधित हो।
- भारतीय संविधान सभी धार्मिक समुदायों को शैक्षिक संस्थान खोलने का अधिकार देता है।
- भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं अपितु राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है।
- परिस्थितिवश राज्य धर्म के मामलों में हस्तक्षेप भी कर सकता है। हमारे संविधान की तीन महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं
- संविधान ने उदारवादी व्यक्तिवाद को दृढ़ता प्रदान की है।
- संविधान ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा करते हुए सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को अपनाया है।
- विभिन्न समुदायों के आपसी झगड़ों के रहते हुए संविधान ने समूहगत अधिकार प्रदान किए।
→ सार्वभौम मताधिकार
- भारतीय संविधान ने सार्वभौम मताधिकार के सिद्धान्त को अपनाया है। यह महत्वपूर्ण वैधानिक साधन है जिसके द्वारा जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना करती है।
- भारत के लिए अनौपचारिक रूप से संविधान तैयार करने का प्रथम प्रयास 1895 ई. में "कांस्टिट्यूशन ऑफ इडिया बिल' के नाम से हुआ।
- भारत में जन्म लेने वाले प्रत्येक नागरिक को देश के मामलों में भाग लेने तथा सरकारी पद पाने का अधिकार है।
- प्रारम्भ से ही सार्वभौम मताधिकार को अत्यन्त महत्वपूर्ण और वैधानिक साधन माना गया जिसके सहारे देश की जनता अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त करती है।
→ संघवाद
- भारतीय संघवाद संवैधानिक रूप से 'असमतोल' है। असमतोल से तात्पर्य यह है कि एक ओर तो मजबूत केन्द्रीय सरकार की अवधारणा पर बल दिया गया है। दूसरी ओर नागालैंड (अनुच्छेद 371A) को विशेष दर्जा प्रदान किया गया। भारतीय संविधान के अनुसार विभिन्न प्रदेशों के साथ असमान बर्ताव इनकी विशेष जरूरतों को ध्यान में रखते हुए किया गया है।
- भारत एक बहुभाषिक संघ है। प्रत्येक बड़े भाषाई समूह की राजनीतिक मान्यता है। भारतीय संघवाद ने सांस्कृतिक पहचान के दावे को एकता के दावे के साथ जोड़ने में सफलता पाई है।
→ राष्ट्रीय पहचान
संविधान में समस्त भारतीय जनता की एक राष्ट्रीय पहचान पर लगातार बल दिया गया है। भाषा या धर्म के आधार पर बनी पहचान तथा राष्ट्रीय पहचान में कोई विरोध की स्थिति नहीं है। इनके बीच संतुलन बनाने का संविधान में पूर्ण प्रयास किया गया है। विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय पहचान को प्रमुखता दी गयी है।
→ प्रक्रियागत उपलब्धि
- भारतीय संविधान का विश्वास राजनीतिक विचार-विमर्श में है।
- संविधान सभा इस बात पर अडिग थी कि किसी महत्वपूर्ण विषय पर निर्णय बहुमत की अपेक्षा सर्वसम्मति से लिया जाए। यह दृढ़ता अपने आप में प्रशंसनीय
- सरदार वल्लभ भाई पटेल के अनुसार हमें यह भूलना होगा कि इस देश में अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक जैसी कोई चीज है। भारत में सिर्फ एक समुदाय है।
→ भारतीय संविधान की आलोचनाएँ
- भारतीय संविधान की निम्नलिखित आलोचनाएँ हुईं
(अ) यह संविधान अस्त-व्यस्त है,
(ब) इसमें सबका प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया है,
(स) यह संविधान भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है।
- भारतीय संविधान को अस्त-व्यस्त या लचीला होने का कारण यह बताया जाता है कि यह एक कसे हुए दृढ़ दस्तावेज के रूप में नहीं है। कारण यह है कि संविधान एक दस्तावेज तो होता है परन्तु इसमें संवैधानिक हैसियत वाले अन्य दस्तावेजों को भी शामिल किया जाता है। भारत में संवैधानिक हैसियत के बहुत से वक्तव्यों, ब्यौरों और नियमों को एक दस्तावेज में समेट लिया गया है।
- बहुत से देशों के संवैधानिक दस्तावेज में चुनाव आयोग या लोक सेवा आयोग जैसे प्रावधान नहीं हैं। भारतीय संविधान में अनेक ऐसे प्रावधान मौजूद हैं।
- भारतीय संविधान सभा के सदस्य सीमित मताधिकार से चुने गए थे ना कि सार्वभौमिक मताधिकार से। इसलिए हमें संविधान में सार्वजनिक प्रतिनिधित्व के अभाव का एहसास होता है। लेकिन संविधान सभा की बहसों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि संविधान सभा के सदस्यों ने अपने व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकार पर आधारित मसले ही नहीं बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों के सरोकारों और हितों पर आधारित मसले भी उठाए।
- संविधान सभा के कई सदस्यों ने यह बात कहकर आलोचना की कि भारतीय संविधान एक विदेशी दस्तावेज है। इसका प्रत्येक अनुच्छेद पश्चिमी देशों के संविधानों की नकल है।
- यह आरोप एक सीमा तक सच है लेकिन फिर भी इसे पूर्णतया विदेशी नहीं कहा जा सकता। भारतीय चिंतकों ने पश्चिमीकरण को अपनी परंपरा की बुराइयों, कुरीतियों आदि के विरोध के लिए अपनाया।
- पश्चिमीकरण का स्थानीय सांस्कृतिक व्यवस्था से टकराव होने पर 'संकर संस्कृति' उत्पन्न हुई। संकर संस्कृति पश्चिमी आधुनिकता से कुछ ग्रहण करने और पारंपरिक कुरीतियों को छोड़ने की रचनात्मक प्रक्रिया का परिणाम थी। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय संविधान पारिस्थितिक और सामाजिक अनुकूलन का परिणाम है न कि अन्धानुकरण का।
→ भारतीय संविधान की सीमाएँ
- • भारतीय संविधान की कुछ सीमाएँ भी हैं। भारत के संविधान को पूर्णतया त्रुटिहीन दस्तावेज नहीं कहा जा सकता।
- भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
- संविधान में परिवार से जुड़े मुद्दों पर उचित रूप से ध्यान नहीं दिया गया।
- कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक सरोकारों को मौलिक अधिकारों का अभिन्न हिस्सा बनाने की अपेक्षा राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की सूची में डाल दिया गया।
- संविधान की इन तीन बुनियादी सीमाओं के कारणों का विश्लेषण कर इन्हें दूर करने की आवश्यकता है।
→ निष्कर्ष
- अंत में हम कह सकते हैं कि संविधान एक सर्वोच्च कानून अर्थात् जीवंत दस्तावेज है। संविधान के दर्शन का सार उसकी प्रस्तावना में है।
- आज इस संविधान के प्रति आदर का भाव रखना हम सभी के लिए गौरव का विषय है।
- भारत का प्रत्येक नागरिक संविधान के अंतर्निहित दर्शन में विश्वास करता है। हम सब एकजुट होकर रहना चाहते हैं तथा समता, स्वतन्त्रता तथा बंधुत्व के भाव से अपनी उन्नति करना चाहते हैं।
- संविधान की दृष्टि या दर्शन में विश्वास संविधान को अमल में लाने का अत्यन्त महत्वपूर्ण परिणाम है।
→ अध्याय में दी गईं महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं सम्बन्धित घटनाएँ।
वर्ष
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सम्बन्धित घटनाएँ
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1895 ई.
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भारत के लिए अनौपचारिक रूप से संविधान तैयार करने का पहला प्रयास 'कांस्टिट्यूशन ऑफ इंडिया बिल' के नाम से हुआ।
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1928 ई.
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मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट में नागरिकता की धारणा की पुष्टि हुई।
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1947 ई.
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जापान के संविधान का निर्माण।
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26 जनवरी, 1950 ई.
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भारतीय संविधान लागू हुआ।
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1964 ई.
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संयुक्त राज्य अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन प्रारम्भ।
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→ अंगीकार - अंगीकार का अभिप्राय है अपनाना' अर्थात् राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के नेताओं ने संविधान को अपनाया (अंगीकार) किया ताकि देश में श्रेष्ठ शासन व्यवस्था संचालित हो सके।
→ संवैधानिक विशेषताएँ - संविधान में मौलिक अधिकार, मूल कर्तव्य, राज्य के नीति-निर्देशक तत्व, अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा आदि उसकी संवैधानिक विशेषताएँ हैं।
→ मौलिक अधिकार - संविधान में जनता के मूलभूत अधिकारों की रक्षा के लिए जिन अधिकारों की व्यवस्था की गयी है, उन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है।
→ धर्म निरपेक्षता - धर्म निरपेक्षता का तात्पर्य यह है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा। उसकी दृष्टि में सभी धर्म समान समझे जाएँगे।
→ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता - अभिप्राय यह है कि संविधान ने भारतीय नागरिकों को अपने विचारों को प्रकट करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की है। राज्य इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।
→ शांति संविधान - 1947 के जापानी संविधान को आम बोलचाल की भाषा में शांति संविधान कहा जाता है।
→ कान्स्टीट्यशन ऑफ - भारत के लिए अनौपचारिक रूप से संविधान तैयार करने का प्रथम प्रयास जो कि सन् 1895 ई. इण्डिया बिल में हुआ था।
→ बहुभाषिक - बहुभाषिक का तात्पर्य वह देश जहाँ पर बहुत सी भाषाएँ प्रचलित हैं। भारत एक बहुभाषिक देश है।
→ विकासशील देश - वे देश जो पूर्णरूप से विकसित नहीं हैं, जो अपना विकास करने की स्थिति में हैं, विकासशील देश कहलाते हैं। हमारा देश भी विकासशील देश है।
→ औपनिवेशिक भारत - 15 अगस्त, 1947 से पहले के भारत को औपनिवेशिक भारत कहते हैं।
→ राजा राममोहन राय - भारत के महान समाज सुधारक जिन्होंने 19वीं सदी के प्रारम्भ में प्रेस की आजादी के पक्ष में जोरदार आवाज उठायी। समाज में फैली अनेक कुरीतियों का आपने जोरदार विरोध किया।
→ स्वामी विवेकानंद, के. सी. सेन तथा जस्टिम रानाडे - यह तीनों ही भारत के महान चिंतक रहे हैं। इन चिंतकों ने पुरातन हिंदू धर्म की अवधारणाओं में सामाजिक न्याय की भावना को जाग्रत किया।
→ सरदार वल्लभ भाई पटेल - भारत के महान स्वतन्त्रता सेनानी। स्वतन्त्र भारत के प्रथम गृहमंत्री जिन्होंने देश की विभिन्न रियासतों को भारत में मिलाने का प्रशंसनीय प्रयास किया।
→ अलादि कृष्णा स्वामी अय्यर - संविधान सभा के सदस्य जिन्होंने वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त को अपनाने पर बल दिया।
→ के. ड्नुमन्थैया - संविधान सभा के सदस्य जिन्होंने संविधान के पश्चिमीकरण की आलोचना की।
→ के एम पणिक्कर - प्रसिद्ध चिंतक जिन्होंने भारतीय उदारवाद की धाराओं की व्याख्या की। इन्होंने अपनी पुस्तक-'इन डिफेंस ऑफ लिबरलिज्म' में अपने उदारवाद के विचारों को प्रकट किया।