These comprehensive RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 11 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास will give a brief overview of all the concepts.
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→ उत्तरजीविता का अर्थ:
→ वृद्धि तथा विकास:
वृद्धि का संबंध आकार या परिणाम से है अर्थात् ऐसे भौतिक परिवर्तन जिन्हें मापा जा सकता है। जैसे-आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक की लम्बाई, वजन में वृद्धि, सिर, छाती आदि विभिन्न अंगों में बदलाव, आंतरिक अंगों के आकार में वृद्धि आदि।
→ विकास का सम्बन्ध गुणवत्ता से है। आकार में वृद्धि के साथ-साथ अंगों के स्वरूप तथा संरचना में परिवर्तन होता है, उनके कार्य में बदलाव आता है, उनकी कार्यक्षमता में सुधार आता है। इस प्रकार समय के साथ-साथ शारीरिक संरचनाओं, मनोवैज्ञानिक लक्षणों, व्यवहारों, सोचने के तरीकों तथा जीवन की मांग के अनुसार स्वयं को ढालने की सुव्यवस्थित पद्धतियों के रूप में हम विकास को परिभाषित कर सकते हैं। ये परिवर्तन विकासोन्मुख और क्रमागत होते हैं तथा लम्बी अवधि तक होते रहते हैं।
→ विकास के क्षेत्र:
किसी व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाले विभिन्न विकासों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है
→ उपर्युक्त सभी क्षेत्र एक ही व्यक्ति के भिन्न-भिन्न आयाम हैं।
संतुलित आहार-किसी भी व्यक्ति की वृद्धि तथा विकास में संतुलित आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बाल्यावस्था के वर्षों की उसकी आहार सम्बन्धी आवश्यकताओं के आधार पर निम्न तीन चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है
→ वृद्धि तथा स्वास्थ्य के पारस्परिक सम्बन्ध
स्वास्थ्य से जुड़ी सभी कार्यात्मक क्षमताएँ हासिल करने के लिए सामान्य वृद्धि एक अनिवार्य स्थिति है, किन्तु इसके लिए केवल वृद्धि पर्याप्त नहीं। इसमें घर का प्रेरणादायक वातावरण, स्वास्थ्यकर वातावरण विकास के लिए प्रोत्साहन भी देता है। अतिरिक्त पोषण तथा संक्रमणों से समुचित उपचार सुधारात्मक वृद्धि के कारण भी हो सकते हैं।।
→ विकास की अवस्थाएँ
मानव जीवन-अवधि को पाँच अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है
→ नवजात:
नवजात शब्द का प्रयोग हाल ही में जन्मे बच्चे के जीवन के प्रथम माह के संदर्भ में होता है। उनमें अनेक ऐसी क्षमताएँ होती हैं जो उन्हें अपने आस-पास के परिवेश के अनुरूप स्वयं को अनुकूलित करने में सहायता करती है। यथा
(क) प्रतिवर्ती क्रियाएँ-ये कुछ प्रकार के उद्दीपनों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। जैसे-पलक झपकना, मूत्र त्याग, मल त्याग आदि।
(ख) संवेदनात्मक क्षमताएँ-जन्म के समय सर्वाधिक विकसित संवेदांग दृष्टि होती है-प्रकाश व अंधेरे के बीच भेद करना, ध्वनि के प्रति अनुक्रिया, मूल स्वादों में अन्तर, स्पर्श के प्रति अनुक्रिया, सुगंध-दुर्गन्ध में भेद आदि। वे रोकर अपनी आवश्यकताओं को बताते हैं।
→ विभिन्न चरणों में विकास
मानव जीवन के प्रथम चार चरणों-शैशवावस्था, आरंभिक बाल्यावस्था, मध्य बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के दौरान विकास
(1) शारीरिक तथा क्रियात्मक विकास
(क) कद तथा वजन में वृद्धि-जन्म के समय बच्चा 20 इंच लम्बा तथा वजन में 2.5 से 3.00 किग्रा का | होता है और अधिकांश शिशुओं का जन्म 1 वर्ष की आयु में जन्म के समय के वजन से तिगुना अर्थात् 8 से 9 किग्रा के बीच होता है। 19 वर्ष तक लड़के और लड़कियों के वजन तथा कद में वृद्धि होती है।
(ख) क्रियात्मक विकास-स्थूल क्रियात्मक विकास सूक्ष्म क्रियात्मक कौशलों के विकास से पहले होता है। स्थूल क्रियात्मक विकास, सूक्ष्म क्रियात्मक विकास की पूर्व स्थिति है।
(2) भाषा सम्बन्धी विकास-यद्यपि मानव शिशु को अन्तर्निहित रूप से भाषा सीखने का वरदान प्राप्त है तथा वह इसे सीख सकता है। शिशु की भाषा अधिगम परिवेश द्वारा प्रभावित होती है तथा मानव अनगिनत संख्या में स्वयं वाक्यों का उच्चारण कर सकते हैं।
बच्चे लगभग प्रथम वर्ष के अंत तक प्रथम शब्द सीखते हैं तथा उसके पश्चात् उनमें भाषा का तीव्रता से विकास होता है तथा किशोरावस्था तक वे भाषा को परिशुद्ध रूप से बोल सकते हैं।
भाषा के विकास की अवस्थाएँ-
(क) रोना-रोना बच्चों के संप्रेषण का पहला स्वरूप है और यह जन्मजात (अन्तर्जात) होता है। दूसरे माह तक बच्चे 'कू कू' करना शुरू कर देते हैं । यह ध्वनि भी अन्तर्जात स्वर किस्म की आवाज होती है।
(ख) तुतलाना-छः महीने का होने पर बच्चा तुतलाने लगता है। तुतलाना अन्तर्जात है, लेकिन धीरे-धीरे वे ध्वनियाँ जिन्हें बच्चा अपने परिवेश में नहीं सुनता, भूल जाता है। इससे पता चलता है कि परिवेश भाषा सीखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(ग) लगभग 1 वर्ष की आयु के आस-पास, शिशु पहले शब्द का उच्चारण करता है। यह शब्द संक्षिप्त एक या दो वर्ण का होता है, जैसे-पापा, मामा आदि।
(घ) 18 माह की आयु तक बच्चा लगभग दो दर्जन शब्द बोलने लगता है। 2 वर्ष तक 250 शब्द और इसके पश्चात् प्रत्येक वर्ष इनमें सैकड़ों शब्द जुड़ते जाते हैं। 2 वर्ष की आयु तक वाक्य बोलने के लिए शब्दों को जोड़ने लगता है। 2 से तीन वर्ष की आयु में वह व्याकरणयुक्त भाषा सीख लेता है। 4 वर्ष की आयु तक उसकी भाषा काफी व्यवस्थित हो जाती है।
(3) सामाजिक-भावात्मक विकास
(1) आरंभिक संबंध तथा मनोभाव-शिशु तथा उनकी देखभाल करने वालों के बीच एक-दूसरे के प्रति गहरा लगाव होता है। दोनों के व्यवहार इस प्रकार के होते हैं जो उन्हें एक-दूसरे के साथ बातचीत करने तथा लगाव विकसित करने में सहायता करते हैं।
(अ) अपनत्व की भाषा का विकास-दोनों के बीच अपनत्व की भाषा का विकास
चूँकि अधिकांश मामलों में, माता ही मुख्य रूप से बच्चे की देखभाल करती है, शिशु का लगाव सामान्यतः सबसे पहले उसी के साथ हो जाता है। जीवन के प्रथम वर्ष में एक सुरक्षित लगाव का निर्माण करना एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विकासात्मक कार्य है। माता-पिता के साथ प्रथम सशक्त बंधन के पश्चात् बच्चे परिवार में अन्य लोगों के साथ विशेषकर अपने साथ पारस्परिक क्रिया करने वालों के साथ और संबंधों का निर्माण करते हैं।
(ब) बाल मनोभाव
(2) माता-पिता द्वारा बच्चों के लालन-पालन की विधियाँ
(अ) वह प्रक्रिया, जिसके द्वारा बच्चे ऐसे व्यवहार, कौशल मान्यताएँ, धारणाएँ तथा मानक सीखते हैं जो उनकी संस्कृति में लाक्षणिक, उपयुक्त तथा वांछनीय होते हैं, समाजीकरण कहलाता है।
(ब) (i) अभिभावकों द्वारा बच्चे के प्रति 'उत्साह' तथा उपेक्षा का व्यवहार,
(ii) प्रतिबंधात्मक या अनुमतिदाता का व्यवहार,
(iii) स्नेहोन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण या शक्ति उन्मुखी दृष्टिकोण आदि बच्चों के लालन-पालन के भिन्न-भिन्न तरीके हैं।
(स) माता-पिता बच्चों में उन गुणों को तभी डाल सकते हैं जब वे उन्हें स्वयं अपने आचरण में अपनाएँ, बच्चों के प्रति शारीरिक दण्ड का प्रयोग न करें तथा व्यवहार के लिए स्पष्टीकरण का सहारा लें।
(3) भाई-बहनों तथा मित्रमंडली के साथ
(4) संवेदनात्मक तथा संज्ञानात्मक विकाससंज्ञानात्मक विकास का सम्बन्ध बच्चों में सोचने की प्रक्रियाओं के विकास से है।
उसके सोच-विचार में शामिल विभिन्न मानसिक प्रक्रियायें हैं
हम याद रखते हैं, अनुकरण करते हैं, वस्तुओं के कारण के बारे में तर्क करते हैं तथा भावनाओं के बीच संबंधों को समझते हैं तथा काल्पनिक स्थितियों के बारे में सोचते हैं। ये सभी मानसिक क्रियायें हमारी सोच का एक भाग है।। संज्ञानात्मक विकास के अन्तर्गत जन्म से बच्चों की इन सभी और अन्य मानसिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
पीयाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास चार चरणों से गुजरता है। ये हैं
(क) संवेदी-क्रियात्मक चरण (जन्म से लेकर दो वर्ष की आयु तक)
इस प्रकार शिशु की उपर्युक्त संवेदी क्रियाओं का विकास क्रमशः जन्म से लेकर 2 वर्ष की आयु तक होता है।
(ख) पूर्व-प्रचालनात्मक अवधि (2-7 वर्ष)-इस अवधि के दौरान बच्चा प्रारंभिक संकल्पनाएँ विकसित करना आरंभ कर देता है।
इस काल में वस्तुओं के सम्बन्ध में लम्बी तथा छोटी का विचार प्रारंभ होता है जो मध्य बाल्यावस्था के वर्षों तक विकसित होता है। इसी प्रकार संख्या की संकल्पना का विकास होता है।
विद्यालय-पूर्व की सोच को पूर्व-प्रचालनात्मक कहा जाता है क्योंकि अभी वह किसी क्रिया को मानसिक रूप से प्रतिवर्तित नहीं कर सकता। इस स्थिति में वह दृश्य से अधिक प्रभावित होता है।
विद्यालय पूर्व आयु के बच्चे की सोच की विशेषताएँ हैं
(ग) ठोस प्रचालनात्मक अवस्था (7-11 वर्ष)-अब बच्चा मानसिक रूप से कार्यों को प्रतिवर्तित कर सकता है। वह एक ही समय में समस्या के बहुत पहलुओं पर खुद को केन्द्रित कर सकता है । इस प्रकार, बच्चा किसी भी स्थिति में अथवा किसी भी सामग्री के साथ संरक्षण या क्रमांकन कर सकता है।
(घ) औपचारिक प्रचालनों की अवस्था (11-18 वर्ष)-इस चरण में बच्चा एक किशोर बन जाता है। वे विचारों के रूप में सोच सकते हैं। वह अनेक संभावनाओं के बारे में विचार कर सकता है। वह कल्पना के संसार की खोज कर लेता है।