RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 11 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास

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RBSE Class 11 Home Science Chapter 11 Notes उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास

→ उत्तरजीविता का अर्थ:

  • उत्तरजीविता से आशय 'जीवित बने रहने तथा मूलभूत स्तर पर 'जीवन सम्बन्धी अनिवार्य कार्य करते रहने' से है। इसके लिए आवश्यक है-उचित देखभाल, पर्याप्त तथा पौष्टिक भोजन की उपलब्धता तथा रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं से सुरक्षा।
  • शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था के जानलेवा रोगों, जैसे-तपैदिक, काली खाँसी, डिफ्थीरिया, पोलियो, टिटनेस, मलेरिया तथा न्यूमोनिया जैसे रोगों के लिए उनकी प्रतिरक्षा करना आवश्यक है।
  • बाल मृत्यु का निर्धनता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्वच्छ जल, बेहतर स्वच्छ-सफाई, शिक्षा, आय की वृद्धि | उत्तरजीविता में सहायक हो सकती है, लेकिन जब तक जरूरतमंद लोगों तक इन सेवाओं के पहुंचने का पुख्ता प्रबंध नहीं होगा, कुछ भी हासिल नहीं होगा।

→ वृद्धि तथा विकास:
वृद्धि का संबंध आकार या परिणाम से है अर्थात् ऐसे भौतिक परिवर्तन जिन्हें मापा जा सकता है। जैसे-आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक की लम्बाई, वजन में वृद्धि, सिर, छाती आदि विभिन्न अंगों में बदलाव, आंतरिक अंगों के आकार में वृद्धि आदि।

→ विकास का सम्बन्ध गुणवत्ता से है। आकार में वृद्धि के साथ-साथ अंगों के स्वरूप तथा संरचना में परिवर्तन होता है, उनके कार्य में बदलाव आता है, उनकी कार्यक्षमता में सुधार आता है। इस प्रकार समय के साथ-साथ शारीरिक संरचनाओं, मनोवैज्ञानिक लक्षणों, व्यवहारों, सोचने के तरीकों तथा जीवन की मांग के अनुसार स्वयं को ढालने की सुव्यवस्थित पद्धतियों के रूप में हम विकास को परिभाषित कर सकते हैं। ये परिवर्तन विकासोन्मुख और क्रमागत होते हैं तथा लम्बी अवधि तक होते रहते हैं।

→ विकास के क्षेत्र:
किसी व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाले विभिन्न विकासों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है

  • शारीरिक तथा क्रियात्मक विकास
  • संवेदनात्मक तथा संज्ञानात्मक विकास
  • भाषा सम्बन्धी विकास
  • सामाजिक तथा भावनात्मक तथा व्यक्तिगत विकास।

RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 11 उत्तरजीविता, वृद्धि तथा विकास 

→ उपर्युक्त सभी क्षेत्र एक ही व्यक्ति के भिन्न-भिन्न आयाम हैं।
संतुलित आहार-किसी भी व्यक्ति की वृद्धि तथा विकास में संतुलित आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बाल्यावस्था के वर्षों की उसकी आहार सम्बन्धी आवश्यकताओं के आधार पर निम्न तीन चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है

  • शैशवावस्था-जन्म से 6 माह तथा 6-12 माह तक।
  • पूर्व विद्यालयी वर्ष-1-3 वर्ष तक तथा 4-6 वर्ष तक।
  • विद्यालयी वर्ष-7-9 वर्ष तक तथा 10-12 वर्ष तक। 

→ वृद्धि तथा स्वास्थ्य के पारस्परिक सम्बन्ध
स्वास्थ्य से जुड़ी सभी कार्यात्मक क्षमताएँ हासिल करने के लिए सामान्य वृद्धि एक अनिवार्य स्थिति है, किन्तु इसके लिए केवल वृद्धि पर्याप्त नहीं। इसमें घर का प्रेरणादायक वातावरण, स्वास्थ्यकर वातावरण विकास के लिए प्रोत्साहन भी देता है। अतिरिक्त पोषण तथा संक्रमणों से समुचित उपचार सुधारात्मक वृद्धि के कारण भी हो सकते हैं।।

→ विकास की अवस्थाएँ
मानव जीवन-अवधि को पाँच अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है

  • शैशवावस्था (जन्म-2 वर्ष)
  • आरंभिक बाल्यावस्था (2-6 वर्ष),
  • मध्य बाल्यावस्था (7-11 वर्ष),
  • किशोरावस्था (11-18 वर्ष)
  • वयस्कावस्था (18 वर्ष तथा उससे अधिक)।

→ नवजात:
नवजात शब्द का प्रयोग हाल ही में जन्मे बच्चे के जीवन के प्रथम माह के संदर्भ में होता है। उनमें अनेक ऐसी क्षमताएँ होती हैं जो उन्हें अपने आस-पास के परिवेश के अनुरूप स्वयं को अनुकूलित करने में सहायता करती है। यथा
(क) प्रतिवर्ती क्रियाएँ-ये कुछ प्रकार के उद्दीपनों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। जैसे-पलक झपकना, मूत्र त्याग, मल त्याग आदि।
(ख) संवेदनात्मक क्षमताएँ-जन्म के समय सर्वाधिक विकसित संवेदांग दृष्टि होती है-प्रकाश व अंधेरे के बीच भेद करना, ध्वनि के प्रति अनुक्रिया, मूल स्वादों में अन्तर, स्पर्श के प्रति अनुक्रिया, सुगंध-दुर्गन्ध में भेद आदि। वे रोकर अपनी आवश्यकताओं को बताते हैं।

→ विभिन्न चरणों में विकास 
मानव जीवन के प्रथम चार चरणों-शैशवावस्था, आरंभिक बाल्यावस्था, मध्य बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के दौरान विकास
(1) शारीरिक तथा क्रियात्मक विकास
(क) कद तथा वजन में वृद्धि-जन्म के समय बच्चा 20 इंच लम्बा तथा वजन में 2.5 से 3.00 किग्रा का | होता है और अधिकांश शिशुओं का जन्म 1 वर्ष की आयु में जन्म के समय के वजन से तिगुना अर्थात् 8 से 9 किग्रा के बीच होता है। 19 वर्ष तक लड़के और लड़कियों के वजन तथा कद में वृद्धि होती है।
(ख) क्रियात्मक विकास-स्थूल क्रियात्मक विकास सूक्ष्म क्रियात्मक कौशलों के विकास से पहले होता है। स्थूल क्रियात्मक विकास, सूक्ष्म क्रियात्मक विकास की पूर्व स्थिति है।

(2) भाषा सम्बन्धी विकास-यद्यपि मानव शिशु को अन्तर्निहित रूप से भाषा सीखने का वरदान प्राप्त है तथा वह इसे सीख सकता है। शिशु की भाषा अधिगम परिवेश द्वारा प्रभावित होती है तथा मानव अनगिनत संख्या में स्वयं वाक्यों का उच्चारण कर सकते हैं।
बच्चे लगभग प्रथम वर्ष के अंत तक प्रथम शब्द सीखते हैं तथा उसके पश्चात् उनमें भाषा का तीव्रता से विकास होता है तथा किशोरावस्था तक वे भाषा को परिशुद्ध रूप से बोल सकते हैं।

भाषा के विकास की अवस्थाएँ-
(क) रोना-रोना बच्चों के संप्रेषण का पहला स्वरूप है और यह जन्मजात (अन्तर्जात) होता है। दूसरे माह तक बच्चे 'कू कू' करना शुरू कर देते हैं । यह ध्वनि भी अन्तर्जात स्वर किस्म की आवाज होती है।
(ख) तुतलाना-छः महीने का होने पर बच्चा तुतलाने लगता है। तुतलाना अन्तर्जात है, लेकिन धीरे-धीरे वे ध्वनियाँ जिन्हें बच्चा अपने परिवेश में नहीं सुनता, भूल जाता है। इससे पता चलता है कि परिवेश भाषा सीखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(ग) लगभग 1 वर्ष की आयु के आस-पास, शिशु पहले शब्द का उच्चारण करता है। यह शब्द संक्षिप्त एक या दो वर्ण का होता है, जैसे-पापा, मामा आदि।
(घ) 18 माह की आयु तक बच्चा लगभग दो दर्जन शब्द बोलने लगता है। 2 वर्ष तक 250 शब्द और इसके पश्चात् प्रत्येक वर्ष इनमें सैकड़ों शब्द जुड़ते जाते हैं। 2 वर्ष की आयु तक वाक्य बोलने के लिए शब्दों को जोड़ने लगता है। 2 से तीन वर्ष की आयु में वह व्याकरणयुक्त भाषा सीख लेता है। 4 वर्ष की आयु तक उसकी भाषा काफी व्यवस्थित हो जाती है।

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(3) सामाजिक-भावात्मक विकास
(1) आरंभिक संबंध तथा मनोभाव-शिशु तथा उनकी देखभाल करने वालों के बीच एक-दूसरे के प्रति गहरा लगाव होता है। दोनों के व्यवहार इस प्रकार के होते हैं जो उन्हें एक-दूसरे के साथ बातचीत करने तथा लगाव विकसित करने में सहायता करते हैं।
(अ) अपनत्व की भाषा का विकास-दोनों के बीच अपनत्व की भाषा का विकास

  • शारीरिक सम्पर्क,
  • एक विशेष प्रकार की भाषा,
  • मुस्कुराना,
  • एक-दूसरे को निरंतर देखना,
  • चेहरे के हाव-भाव,
  • शिशु के साथ लयात्मक क्रियाएँ,
  • सरल खेल तथा
  • शिशु के साथ संचार आदि क्रियाओं से होता

चूँकि अधिकांश मामलों में, माता ही मुख्य रूप से बच्चे की देखभाल करती है, शिशु का लगाव सामान्यतः सबसे पहले उसी के साथ हो जाता है। जीवन के प्रथम वर्ष में एक सुरक्षित लगाव का निर्माण करना एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विकासात्मक कार्य है। माता-पिता के साथ प्रथम सशक्त बंधन के पश्चात् बच्चे परिवार में अन्य लोगों के साथ विशेषकर अपने साथ पारस्परिक क्रिया करने वालों के साथ और संबंधों का निर्माण करते हैं।

(ब) बाल मनोभाव

  • लगभग 6 माह की आयु के आस-पास बच्चा अपरिचित के प्रति भय दर्शाता है।
  • 8 से 12 माह के आस-पास यह भय 'उत्सुकता' में विकसित हो जाता है।
  • 15-18 माह की आयु में उसमें 'बिछुड़ने की चिंता' विकसित हो जाती है तथा 20-24 माह में यह दूर हो जाती है।

(2) माता-पिता द्वारा बच्चों के लालन-पालन की विधियाँ
(अ) वह प्रक्रिया, जिसके द्वारा बच्चे ऐसे व्यवहार, कौशल मान्यताएँ, धारणाएँ तथा मानक सीखते हैं जो उनकी संस्कृति में लाक्षणिक, उपयुक्त तथा वांछनीय होते हैं, समाजीकरण कहलाता है।

(ब) (i) अभिभावकों द्वारा बच्चे के प्रति 'उत्साह' तथा उपेक्षा का व्यवहार,
(ii) प्रतिबंधात्मक या अनुमतिदाता का व्यवहार,
(iii) स्नेहोन्मुखी अनुशासनात्मक दृष्टिकोण या शक्ति उन्मुखी दृष्टिकोण आदि बच्चों के लालन-पालन के भिन्न-भिन्न तरीके हैं।
(स) माता-पिता बच्चों में उन गुणों को तभी डाल सकते हैं जब वे उन्हें स्वयं अपने आचरण में अपनाएँ, बच्चों के प्रति शारीरिक दण्ड का प्रयोग न करें तथा व्यवहार के लिए स्पष्टीकरण का सहारा लें।

(3) भाई-बहनों तथा मित्रमंडली के साथ

  • भाई-बहन काफी सीमा तक एक-दूसरे के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। उनके बीच माता-पिता की तुलना में अधिक समान, मैत्रीपूर्ण तथा बराबरी का व्यवहार होता है। बड़े भाई-बहन के व्यवहार का छोटे भाई-बहन अनुसरण करते हैं। इसके साथ ही साथ उनके संबंधों में परस्पर विरोध, प्रधानता, प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता तथा ईर्ष्या भी होती है। माता-पिता उनके बीच एक बंधन का सृजन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • मित्र मंडली में कुछ घनिष्ठ और कुछ कम घनिष्ठ मित्र भी होते हैं। समकक्ष बच्चों के साथ बच्चा खेलता, लड़ता और गुप्त बातें बाँटता है, उनके साथ भिन्नता बच्चे के सामाजिक तथा भावात्मक विकास में योगदान करती है।

(4) संवेदनात्मक तथा संज्ञानात्मक विकाससंज्ञानात्मक विकास का सम्बन्ध बच्चों में सोचने की प्रक्रियाओं के विकास से है।
उसके सोच-विचार में शामिल विभिन्न मानसिक प्रक्रियायें हैं

  • स्वाद, रंगों, आकारों, सजीव, निर्जीव वस्तुओं, खाद्य तथा अखाद्य वस्तुओं के बीच भिन्नता या अन्तर करना,
  • भावनाओं को अनुभवों, मौसम, कुछ विशिष्ट व्यक्तियों तथा कुछ वस्तुओं का विशिष्ट व्यक्तियों के साथ जोड़ना,
  • कारण-प्रभाव सम्बन्धों को समझना,
  • समस्याओं का समाधान करने की क्षमता।

हम याद रखते हैं, अनुकरण करते हैं, वस्तुओं के कारण के बारे में तर्क करते हैं तथा भावनाओं के बीच संबंधों को समझते हैं तथा काल्पनिक स्थितियों के बारे में सोचते हैं। ये सभी मानसिक क्रियायें हमारी सोच का एक भाग है।। संज्ञानात्मक विकास के अन्तर्गत जन्म से बच्चों की इन सभी और अन्य मानसिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।

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पीयाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास चार चरणों से गुजरता है। ये हैं
(क) संवेदी-क्रियात्मक चरण (जन्म से लेकर दो वर्ष की आयु तक)

  • स्पर्श (संवेदी सूचना), वचूषण,
  • आस-पास की वस्तुओं में रुचि,
  • दूसरों की क्रियाओं के संकेत समझना,
  • कारण-प्रभाव संबंधों का प्रारंभ,
  • जान-बूझकर क्रियायें करना,
  • कार्य के विभिन्न तरीकों का प्रयास करना,
  • मानसिक रूप से घटनाओं, वस्तुओं व लोगों को स्मरण करने लगना (मानसिक निरूपण)।

इस प्रकार शिशु की उपर्युक्त संवेदी क्रियाओं का विकास क्रमशः जन्म से लेकर 2 वर्ष की आयु तक होता है।

(ख) पूर्व-प्रचालनात्मक अवधि (2-7 वर्ष)-इस अवधि के दौरान बच्चा प्रारंभिक संकल्पनाएँ विकसित करना आरंभ कर देता है।
इस काल में वस्तुओं के सम्बन्ध में लम्बी तथा छोटी का विचार प्रारंभ होता है जो मध्य बाल्यावस्था के वर्षों तक विकसित होता है। इसी प्रकार संख्या की संकल्पना का विकास होता है।

विद्यालय-पूर्व की सोच को पूर्व-प्रचालनात्मक कहा जाता है क्योंकि अभी वह किसी क्रिया को मानसिक रूप से प्रतिवर्तित नहीं कर सकता। इस स्थिति में वह दृश्य से अधिक प्रभावित होता है।
विद्यालय पूर्व आयु के बच्चे की सोच की विशेषताएँ हैं

  • संरक्षण बनाए रखना,
  • क्रमांकन,
  • किसी अन्य व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य (नजरिए) को समझना,
  • जीववाद।

(ग) ठोस प्रचालनात्मक अवस्था (7-11 वर्ष)-अब बच्चा मानसिक रूप से कार्यों को प्रतिवर्तित कर सकता है। वह एक ही समय में समस्या के बहुत पहलुओं पर खुद को केन्द्रित कर सकता है । इस प्रकार, बच्चा किसी भी स्थिति में अथवा किसी भी सामग्री के साथ संरक्षण या क्रमांकन कर सकता है।

  • इस अवस्था में बच्चे कम अहम् केन्द्रित होते हैं।
  • वह एक स्थिर संख्या संकल्पना का विकास करता है।

(घ) औपचारिक प्रचालनों की अवस्था (11-18 वर्ष)-इस चरण में बच्चा एक किशोर बन जाता है। वे विचारों के रूप में सोच सकते हैं। वह अनेक संभावनाओं के बारे में विचार कर सकता है। वह कल्पना के संसार की खोज कर लेता है।

  • प्राक्काल्पनिक सोच के कारण किशोर की सोच आदर्शवादी तथा कल्पनालोक की होती है। उनकी सोच अधिक तर्कपूर्ण हो जाती है तथा समस्याओं का समाधान वे अधिक प्रभावी ढंग से करने लगते हैं। इस सोच को प्राक्कल्पना निगमनात्मक तर्क कहा जाता है।
  • किशोर के सोच की दूसरी विशेषता अधिसोच की है।
  • किशोर के सोच की एक अन्य विशेषता है-काल्पनिक श्रोता समूह का सृजन कर एक व्यक्तिगत चोला ओढ़ना।
Prasanna
Last Updated on Aug. 3, 2022, 10:40 a.m.
Published Aug. 3, 2022